Download App

कोरोनावायरस: महामारी से कम नहीं थीं ये 9 बीमारियां

02 शताब्दी के संघर्ष के देश को आजादी मिला . आजाद भारत के शुरूआती दिन में कई बीमारियों भारत को जकड किया , जो किसी ना किसी रूप में एक महामारी के तरह था. आइये जानते है आजाद भारत में किन किन बीमारियों ने महामारी के तरह कोहरा मचाया .

* कॉलरा (हैजा) :- 1940 के दशक में आजादी के लिए लड़ते भारत ने कॉलरा से भी संघर्ष कर रहा था .  इसे हैजा भी कहते हैं. पीने का गंदा पानी इसकी मुख्य वजह थी. हैजा ‘वाइब्रियो कॉलेरी’ नाम के बैक्टीरिया से फैलता है. यह बैक्टीरिया खराब हो चुके खाने और गंदे पानी में होता है. इसमें दस्त और उल्टियां होती हैं, जिससे मरीज शरीर का सारा पानी बाहर आ जाता है. इसका सीधा असर ब्लड प्रेशर पर पड़ता है. ब्लड प्रेशर लो हो जाता है. समय पर इलाज न हो जान भी जा सकती है. और फिर साफ पानी न मिलने पर मरीज की मौत कुछ घंटों के अंदर हो सकती है. 1941 के आस पास यह बीमारी भारत के गांवों में फैल गई. ऐसे फैली कि गांव के गांव साफ हो जाते. शुरू में लोग समझ नहीं सके लेकिन फिर दुनियाभर में इस बीमारी ने तबाही मचा दी. बताया जाता है कि 1975  के दशक में बंगाल की खाड़ी के इलाके में यह फिर से फैला था. 1990 के दशक में टीके की खोज के बाद इस पर काबू पाया गया.हाल ही में सामने आई राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफाइल 2019 के अनुसार, हर साल भारत में हैजे के 100 से ज्यादा मामले सामने आते हैं. इसका इलाज सिर्फ टीका ही है.

* चेचक :– यह संक्रमण भारत में उन्नीसवीं शताब्दी के साठ के दशक में काफी तेजी से फैला. इससे पहले 18वीं सदी के प्रारंभ में यूरोप में हर साल चेचक से चार लाख लोगों की जान जाती थी. 20वीं सदी में चेचक की वजह दुनियाभर में लगभग 30 करोड़ लोगों की मौत हुई थी. चेचक दो तरह के होते हैं.  –

ये भी पढ़ें-#lockdown: कोरोना का भय…प्राइवेट अस्पताल बंद

स्मालपॉक्स (बड़ी माता) –  इस बीमारी में शरीर पर छोटे दाने हो जाते हैं , यह बीमारी ग्रामीण इलाकों में गहरे पैठी. अंधविश्वासों में लिप्त. इसे ‘व्हाइट पॉक्स’ भी कहा जाता था . भारत में इसका प्रभाव 19वीं सदी की शुरुआत में देखा गया. बड़ी माता दो वायरसों व्हेरोला प्रमुख और व्हेरोला के कारण होती है.

चिकनपॉक्स (छोटी माता) – चिकन पॉक्स के संक्रमण से पूरे शरीर में फुंसियों जैसी चकत्तियां हो जाती हैं.  वहीं छोटी माता वेरीसेल्ला जोस्टर नाम के वायरस से फैलती है. सामान्यत: चेचक, बीमार के संपर्क में आने से फैलता है.

यह संक्रमण की बीमारी है जो पांच से सात दिनों तक रहती है. इसे रोकने के लिए टीका लगाया जाता है.  भारत में 1960 के दशक के आसपास इसका प्रभाव बढ़ा. 1970 में इसे रोकने का अभियान शुरू किया गया. इस अभियान में पूरी जनसंख्या को टीका लगाना था. जो कि काफी मुश्किल टास्क था. 1977 से इसके उन्मूल का दावा होता है. इसके बाद भी भारत में हर साल लगभग 27 लाख बच्चों को चेचक होता है. डॉक्टर्स की सलाह रहती है कि 12 से 15 साल तक के बच्चों को टीका लगवा देना चाहिए.

ये भी पढ़ें-धर्म के अंधे इंसानी जान के दुश्मन

* मलेरिया :- हर साल दुनिया भर में मलेरिया के लगभग 22 करोड़ मामले सामने आते हैं. अगर मलेरिया का सही इलाज न हो तो समस्या गंभीर रूप धारण कर लेती है.  ‘वर्ल्ड मलेरिया’ रिपोर्ट 2019 के मुताबिक भारत में मलेरिया के मामलों में 24 फीसद तक कमी आई है. दुनिया में मलेरिया मरीजों के 70 फीसद मामले 11 देशों में पाए जाते हैं जिनमें भारत भी शामिल है. पिछले साल भारत में मलेरिया के मामलों में 24 फीसद की कमी आई और इसके साथ ही भारत मलेरिया की मार वाले शीर्ष तीन देशों में शुमार नहीं है. हालांकि अब भी भारत की कुल आबादी के 94 फीसद लोगों पर मलेरिया का खतरा बना हुआ है. भारत में मलेरिया मरीजों का 40 फीसद हिस्सा ओडिशा से आता था.कंपकंपी, ठंड लगना और तेज बुखार मलेरिया के लक्षण हैं.

* डेंगू, मस्तिष्क ज्वर, चिकनगुनिया और फाइलेरिया :– डेंगू, मस्तिष्क ज्वर, चिकनगुनिया और फाइलेरिया जैसी बीमारियां मच्छरों के काटने से ही होती हैं. हर साल लाखों लोग इन बीमारियों के चपेट में आते हैं और हजारों डेंगू से दम तोड़ देते हैं. डेंगू और चिकनगुनिया एडिस मच्छरों के काटने से फैलते हैं. मस्तिष्क ज्वर फैलाने वाला युलेस विश्नुई मच्छर धान के खेतों में ही पनपता है.

*एचआईवी (एड्स) :- एचआईवी  (ह्यूमन इम्यूनो डेफिशियेंसी वायरस) शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली की कोशिकाओं को संक्रमित कर देता है. एचआईवी कई तरीकों से फैल सकता है. भारत में एचआईवी का पहला मामला 1986 में सामने आया. इसके पश्चात यह पूरे देश भर में तेजी से फैल गया. एड्स के ज्यादातर मामले यौनकर्मियों में पाए गए हैं.

भारत को “पूर्णतः एड्स मुक्त” होने में अभी काफी समय लगेगा क्योंकि अभी भी देश में 15 से 49 वर्ष की उम्र के बीच के लगभग 25 लाख लोग एड्स से प्रभावित हैं.वही पूरे विश्व में लगभग 3.53 करोड़ लोग एचआईवी से प्रभावित हैं. विश्व के लगभग 33.4 लाख बच्चे एचआईवी से प्रभावित हैं.

हालांकि 1990 की शुरुआत में एचआईवी के मामलों में अचानक वृद्धि दर्ज की गई, इसके बाद  सरकार ने राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन के माध्यम से इसके रोकथाम के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया है . भारत की 99 प्रतिशत जनसंख्या अभी एड्स से मुक्त है, बाकि एक प्रतिशत जनसंख्या में इसके फैलने की प्रवृति के आधार पर इस महामारी की रोकथाम एवं इस पर नियंत्रण करने संबंधी नीतियाँ बनाईं जा रही हैं.

* कैंसर :- क्या आप जानते है भारत में कैंसर महामारी का रूप धारण करता जा रहा है. भारत में अभी 2.25 मिलियन लोग कैंसर से जूझ रहे हैं. वही देश में हर साल कैंसर के करीब 12 लाख नये मामले आ  रहे है जो 2030 तक हर साल करीब 17 लाख और 2040 तक दोगुना होने की संभावना है.जबकि जर्नल ऑफ ग्लोबल ऑन्कालजी में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि भारत में कैंसर मरीजों का यह आंकड़ा हो जाएगा.

भारत में कैंसर तेजी से फैल रहा हैं. 2018 में देश में आबादी आधारित 42 कैंसर रजिस्ट्रियों से 28 प्रकार के कैंसर के आंकड़े  सामने आए तो पता चला कि 2016 में भारत में हुई कुल मौतों का 8·3 फीसदी मौत कैंसर के कारन हुआ .

वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेसन के अनुसार, 30-50 फीसदी कैंसर की बीमारियों को रोका जा सकता है. कैंसर के सबसे बड़े खतरों, जैसे तंबाकू और UV rays से दूर रहें. क्या आप जानते है कि एक अकेली सिगरेट में 7000 कैमिकल होते हैं, और जिनमें से 50 से अधिक कैंसर होने का कारण बनते हैं. तो अगर कैंसर मूक्त रहना है तो आज ही तंबाकू  छोड़ें.

* स्वाइन फ्लू :- स्वाइन फ्लू श्वसन तंत्र से जुड़ी बीमारी है, जो ए टाइप के इनफ्लुएंजा वायरस से होती है. इसे 1919 में एक महामारी के रूप में मान्यता दी गई थी. यह बीमारी 2009 में दुबारा लौटी और पुरे विश्व में कोहराम मचा दिया . तब से अब तक इसके मामले सामने आ ही रहे है . 2019 में स्वाइन फ्लू के 27,505 मामले दर्ज किए गए हैं, जिनमें से 1137 लोगों को जान गंवानी पड़ी है. सबसे ज्यादा 5,052 मामले राजस्थान में दर्ज किए गए हैं और यहां 206 लोगों की मौत हुई है.

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार, इस साल देश में 437 स्वाइन फ्लू ग्रस्त मरीज मिले हैं। इनमें से 10 लोगों की मौत हो चुकी है. सबसे ज्यादा मरीज तमिलनाडु, तेलंगाना, कर्नाटक और दिल्ली में मिल रहे हैं.

टिड्डियों ने 20 जिलों में 90 हजार हेक्टेयर में फसलों को किया तबाह

राजस्थान के श्रीगंगानगर, नागौर, जयपुर, दौसा, करौली और सवाई माधोपुर से टिड्डियों के झुंड उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में पहुंच गए हैं. टिड्डियों को मारने के लिए केंद्र की टीम के साथ ही राज्य के कृषि विभाग के अधिकारी भी लगे हुए हैं.

राज्य के कृषि विभाग के आयुक्त ने बताया कि टिड्डी हमले के कारण राज्य के 20 जिलों में लगभग 90 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि प्रभावित हुई है. श्रीगंगानगर में ही करीब 4,000 हेक्टेयर और नागौर में 100 हेक्टेयर में फसलों को नुकसान हुआ है. उन्होंने कहा कि विभाग ने 67 हजार हेक्टेयर भूमि पर टिड्डी नियंत्रण अभियान चलाया गया है.

टिड्डियां फसलों को बनाती हैं निशाना

टिड्डियों के झुंड 15-20 किलोमीटर प्रति घंटे की गति के साथ एक दिन में 150 किलोमीटर तक उड़ सकते हैं और खेतों में फसल न होने पर सब्जियों, पेड़ों और अन्य मौजूद वनस्पतियों को निशाना बना रहे हैं. कृषि जानकारों का कहना है कि पाकिस्तान से टिड्डियों का भारत आने का प्रमुख कारण वहां इस समय फसलों का न होना है.

ये भी पढ़ें-लौकडाउन में इस विधि से करें भंडारण सुरक्षित रहेगा अनाज

कैसे रोकें टिड्डियों का हमला

टिड्डी नियंत्रण के बारे में राज्य के कृषि अधिकारियों ने बताया कि टिड्डियों के हमले को बेअसर करने के लिए 800 ट्रैक्टरों का इस्तेमाल किया जा रहा है. उन्होंने कहा कि लगभग 200 टीमें दैनिक आधार पर सर्वेक्षण कर रही हैं तथा किसानों को मुफ्त कीटनाशक दिए जा रहे हैं. अधिकारी ने कहा कि टिड्डियों के झुंड हाल ही में जयपुर के कुछ आवासीय क्षेत्रों में प्रवेश कर गए थे और उन्होंने पेड़ों व मकानों पर हमला कर दिया, जो कुछ घंटों के बाद, दौसा की ओर चली गई.

भुखमरी की कगार तक पहुंचा सकते हैं टिड्डी

टिड्डी हमेशा से इंसानों के लिए अभिशाप की तरह ही रहे हैं. लाखों की संख्या में एक दल में रहने के कारण इनके खाने की क्षमता बहुत ज्यादा होती है. कई हेक्टेयर फसलों को टिड्डी दल एक दिन में ही खत्म कर देते हैं.

औसतन टिड्डियों का एक छोटा झुंड एक दिन में दस हाथियों, 25 ऊंट या 2500 व्यक्तियों के बराबर खा सकता है. टिड्डी पत्ते, फूल, बीज, तने और उगते हुए पौधों को खाती हैं. टिड्डियों का प्रकोप कई साल तक भी रहता है.

ये भी पढ़ें-फीका होता आम

ज्यादा मात्रा में खाने के कारण टिड्डी पूरे फसल चक्र को ही बर्बाद कर देते हैं. जिसके कारण उत्पादन कम होता है और भुखमरी तक की स्थिति आ जाती है.

1993 के बाद सब से बड़ा टिड्डी हमला

भारत सरकार के टिड्डी नियंत्रण एवं अनुसंधान विभाग के अनुसार, टिड्डियों का अब तक का सब से बड़ा हमला 1993 में हुआ था. इस साल करीब 172 बार टिड्डियों के झुंडों ने फसलों और वनस्पति को नुकसान पहुंचाया.

विभाग ने 1993 में करीब 3.10 लाख हेक्टेयर भूमि का उपचारित किया था. इस से पहले 1964 से लेकर 1989 तक अलगअलग साल में 270 बार टिड्डी दलों ने भारत का रुख किया था. इसमें 1968 में 167 बार टिड्डी दल राजस्थान और गुजरात में आए थे. हालांकि इस बार अब तक टिड्डियों को आना जारी है इसीलिए सही आंकड़ा अभी मौजूद नहीं है.

इस बार आर्थिक रूप से सब से ज्यादा नुकसान

टिड्डी प्रभावित क्षेत्रों में राजस्थान सरकार अब तक करीब 76 करोड़ रुपये का मुआवजा किसानों को दे चुकी है. हालांकि अभी नुकसान के आकलन की प्रक्रिया चालू है, इसीलिए मुआवजा राशि का आंकड़ा बढ़ेगा.

ये भी पढ़ें-आदर्श पोषण वाटिका घर आंगन में उगाएं सब्जियां

जाहिर है कि अब तक हुए टिड्डी हमलों में इस बार का हमला आर्थिक रूप से सबसे महंगा साबित होने जा रहा है.

केंद्र सरकार के आंकड़ों के अनुसार, 1926-31 के टिड्डी चक्र के दौरान 10 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था. 1940-46 और 1949-55 के टिड्डी दलों के हमले के दौरान यह नुकसान दो करोड़ रुपये हुआ था.

1959-62 के आखिरी टिड्डी प्लेग चक्र पर 50 लाख रुपये का नुकसान हुआ था. इसके बाद 1978 में दो लाख और 1993 में करीब 7.18 लाख रुपये का नुकसान टिड्डियों के हमले से हुआ था.ढोलडीजे बजा कर किसान कर रहे हैं मुकाबला

देश के कई राज्यों में लाखोंकरोड़ों की तादाद में आए टिड्डों ने न सिर्फ किसानों को बल्कि सरकार के भी नाक में दम कर रखा है. पाकिस्तान की ओर से आए इन टिड्डों को भगाने के जतन भी नाकाफी हो रहे हैं.

टिड्डे बने मुसीबत

कोरोना महामारी से जूझ रहे लोगों के लिए अब टिड्डे नई मुसीबत बन कर आए हैं. दरअसल, लाखों की तादाद में पाकिस्तान की ओर से टिड्डियों का दल भारत में घुस आया है और भारत के अलगअलग इलाकों में फसलों को चट कर रहा है. इन टिड्डियों को भगाने के कई जतन किए जा रहे हैं. मगर अब तक सब बेअसर से दिखते हैं.

पंजाब और हरियाणा में टिड्डियों के हमले की आशंका

राजस्थान के श्रीगंगानगर में टिड्डी दल ने अटैक किया. किसान इन्हें टीन बजा कर खेतों से भगाने की कोशिश कर रहे हैं. बाड़मेर में जिला प्रशासन इन्हें भगाने के लिए बीएसएफ और फायर बिग्रेड की मदद ले रहा है. राजस्थान के करौली से धौलपुर की सीमा में करीब 5 किलोमीटर आकार का टिड्डियों का दल घुस गया था.

टिड्डियों के झुंड को देख ग्रामीणों में दहशत फैल गई है. ग्रामीणों ने धुंआ और शोर मचा कर टिड्डियों के दल को भगाया. रीवा में टिड्डी दल राजस्थान सीमा से निकल कर मध्य प्रदेश की सीमा में घुस गया. टिड्डी दल के आते ही किसानों ने टोली बना कर ढोल, डीजे, थाली, टीन के डब्बे बजा कर और ट्रैक्टर के सायलेंसर निकाल कर अपने क्षेत्र से टिड्डी दलों को भगाया.

योगी ने दिए टिड्डी दल से निपटने के निर्देश

पेड़ों पर बैठे टिड्डी दलों को मारने के लिए फायर ब्रिगेड से इन पर कीटनाशकों के घोल का छिड़काव किया. किसान तमाम तरह के उपाय कर टिड्डी दल को भगाते नजर आए. कुछ किसानों ने मोटरसाइकिल का सायलेंसर निकाल कर उस से गोली जैसी आवाज निकाल कर टिड्डों को भगाया.

राजस्थान के बाद अब मध्य प्रदेश में टिड्डियों का हमला, सरकार देगी मुआवजा

सतना में पेड़ों पर लाखों की तादाद में टिड्डियों का जमावड़ा है, यहां फायर ब्रिगेड केमिकल का छिड़काव कर टिड्डियों को भगाने में लगी है, साथ ही लोग ढोल बजाकर टिड्डियों को भगा रहे हैं. टिड्डियों के चलते किसानों के हालात बिगड़ रहे हैं, राजस्थान और मध्य प्रदेश के अलावा महाराष्ट्र में भी टिड्डियों का आतंक है.

गुजरात में टिड्डियों का आतंक, किसान परेशान, पड़ी दोहरी मार

कोरोना के इस भयानक संकट काल में पाकिस्तान की ओर से आए टिड्डी नई परेशानी बन गई हैं. इन पर काबू नहीं पाया गया तो ये बड़ी तादाद में फसल बर्बाद कर देंगे.

गोरों की दरिंदगी, व्हाइट हाउस में लॉकडाउन

अमेरिका अब नहीं रहा अमेरिका. जहां जाने को विश्वभर के युवा सपना देखा करते थे. वैसे तो वहां गोरे व कालों का भेदभाव हमेशा से रहा, लेकिन जब से डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति बने तब से यह बहुत ज्यादा हो गया. हो भी क्यों न, ट्रंप ने सत्ता जो गोरों का अमेरिका के नाम पर हथियाई थी.

कहने को तो इस देश में बराक ओबामा, कोन्डोलिज़ा राइस, कोलिन पौवेल और सुज़ैन राइस बड़े ओहदों पर पहुंचे लेकिन अब भी अमेरिकी संस्थाएं कालों के साथ बेहद बर्बर रवैया अख्तियार करती हैं.

अमेरिका के सरकारी आंकड़े बताते हैं कि इस देश में कालों की औसत आयु, गोरों की औसत आयु से 6 साल कम है जबकि अमेरिकी जेलों में कालों की संख्या, गोरों की तुलना में 43 प्रतिशत ज़्यादा है. इस समय अमेरिका के 100 सीनेटरों में केवल 2 हैं जो गोरे नहीं हैं. वहीँ, प्रतिनिधि सभा के 435 सदस्यों में केवल 44 हैं जो गोरे नहीं हैं.

ये भी पढ़ें-शहर से गिरे जातिवाद पर अटके?

ट्रंप ने गोरो का नस्लवादी एजेंडा संभाला और उन के वोटों से जीत कर वे ह्वाइट हाउस में पहुंच गए. ट्रंप ने बराक ओबामा पर हमले का कोई मौक़ा नहीं छोड़ा, उन्हें केन्या वापस जाने का मशवरा दिया और उन के बर्थडे सर्टिफ़िकेट पर सवाल उठाए. ट्रंप ने प्रवासियों और विशेषरूप से मुसलमानों के ख़िलाफ़ मोरचा खोल दिया. ट्रंप के इस रवैये ने अमेरिका में नस्लवाद को ख़ूब बढ़ावा दिया.

गोरी पुलिस का कहर

आम गोरे लोग ही नहीं, अमेरिका में सरकारी गोरी पुलिस भी अकसर कालों को सड़क पर मारती रहती है, कभीकभी जान से भी मार डालती है. ताज़ा मामला अमेरिका के मिनेसोटा राज्य के मिनियापोलिस शहर में 25 मई का है जिस का वीडियो वायरल होने के बाद पूरे अमेरिका में काले नागरिकों के साथ बड़े पैमाने पर होने वाले भेदभाव के ख़िलाफ़ लोगों का ग़ुस्सा फूट पड़ा, यहां तक कि नाराज़ प्रदर्शनकारियों ने मिनियापोलिस में एक पुलिस स्टेशन को आग के हवाले भी कर दिया.

दरअसल, गोरे अमेरिकी पुलिस अफसर ने सड़क के बीचोंबीच एक काले आदमी को गला दबा कर बेदर्दी से मार डाला था. पास से गुज़र रहे एक व्यक्ति ने अपने कैमरे से इस घटना की वीडियो बना ली जिस ने पूरे अमेरिका में भयानक विस्फोट कर दिया. एक बार फिर अमेरिका की घिनौनी तसवीर सामने आ गई कि इस देश में कालों के साथ कैसी दरिंदगी की जाती है.

ये भी पढ़ें-नहीं रहे जोगी: और “किवंदती” बन गए अजीत प्रमोद कुमार जोगी

वायरल वीडियो में गोरे अमेरिकी पुलिस अफ़सर को जौर्ज  फ़्लोएड नाम के एक काले आदमी की गरदन अपने घुटने से दबाते दिखाया गया है. वीडियो देखने वालों का कहना था कि वीडियो का वह हिस्सा तो देखा नहीं जा रहा था जिस में फ़्लोएड  गोरे जल्लाद से फ़रियाद कर रहा था कि तुम्हारा घुटना मेरी गरदन पर है…मेरी सांस नहीं आ रही है…. मेरा दम घुट रहा है…. मेरा दम घुट रहा है… मां….. मां… इस के बाद फ़्लोएड की आवाज़ बंद हो जाती है और वह दम तोड़ देता है. वह गोरे पुलिस अधिकारी से अपनी ज़िंदगी की भीख मांगता रहा, लेकिन अधिकारी पर इस का कोई असर नहीं हुआ.

आखिरकार झुका व्हाइट हाउस

मिनियापोलिस में हिंसक प्रदर्शन भड़कने के बाद प्रशासन को कर्फ़्यू लगाने की घोषणा करना पड़ी. लेकिन कर्फ़्यू की परवा न करते हुए बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर निकल आए और उन्होंने शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया. फ़्लोएड की हत्या के बाद वाशिंगटन, न्यूयौर्क, लास एंजिल्स, शिकागो, डेनवर और फ़ीनिक्स समेत कई अन्य अमेरिकी शहरों में भी विरोध प्रदर्शन हुए.

पीड़ित परिवार और प्रदर्शनकारी मांग कर रहे थे कि फ़्लोएड की हत्या में शामिल पुलिस अधिकारियों को नौकरी से बरखास्त कर के उन्हें हत्या के आरोप में गिरफ़्तार किया जाए.

इस बीच, ट्रंप ने ट्वीट कर के प्रदर्शनकारियों को ठग बताते हुए कहा था कि जब लूटिंग होती है तो शूटिंग भी होती है. उन्होंने नेशनल गार्ड्स को जल्द से जल्द शांति बहाल करने का आदेश भी दिया था.

ट्रंप के ट्वीट से ज़ाहिर होता है कि वे इस दरिंदगी के फ़ेवर में थे. वे एकतरह से पुलिस को प्रदर्शनकारियों पर बल प्रयोग करने को कह रहे थे.

ये भी पढ़ें-श्रमिक स्पेशल ट्रेनें- मजदूरों की मुसीबतों का अंत नहीं

ट्विटर ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के इस ट्वीट को हिंसा को बढ़ावा देने वाला क़रार दे कर उसे हाइड कर दिया था.

लेकिन, देशव्यापी प्रदर्शनों के सामने आख़िरकार व्हाइट हाउस ने घुटने टेक दिए और दोषी गोरे पुलिस अधिकारी को हत्या के आरोप में गिरफ़्तार करने का एलान किया. लगातार 4 दिनों तक हिंसा और विरोध प्रदर्शनों के बाद 29 मई को 44 वर्षीय पुलिस अधिकारी डेरेक चौविन को पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया और उस के ख़िलाफ़ थर्डडिग्री व हत्या के आरोप में मुक़दमा दर्ज किया.

अमेरिकी राष्ट्रपति भवन में लौकडाउन

अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन में गोरों के खिलाफ प्रदर्शनकारियों की बहुत बड़ी संख्या ने ह्वाइट हाउस को घेर लिया, जिसे देखते हुए सीक्रेट सर्विसेज़ ने ह्वाइट हाउस की इमारत को कुछ देर के लिए लौकडाउन कर दिया. पूर्वोत्तरी वाशिंगटन में 29 मई को प्रदर्शनकारियों ने एक बड़े हिस्से में ट्रैफ़िक रोक दिया और व्हाइट हाउस जा पहुंचे. व्हाइट हाउस के सामने भारी संख्या में सुरक्षा बल सक्रिय हो गए जबकि प्रदर्शनकारी बड़ी तादाद में प्रदर्शन कर रहे थे.

व्हाइट हाउस के आसपास सुरक्षाबलों ने पोजीशन ले ली थी, जबकि प्रदर्शनकारी व्हाइट हाउस के बाहर जमा रहे. एक अवसर पर पुलिस और प्रदर्शनकारियों में झड़प भी शुरू हो गई, मगर यह मामला जल्द ही संभल गया और कोई घायल नहीं हुआ.

इन हालात को देखते हुए व्हाइट हाउस को कुछ देर के लिए लौकडाउन करना पड़ा, जबकि इमारत के भीतर लगभग एक दर्जन पत्रकार भी फंस गए.

टूट की ओर अमेरिका ?

दुनिया पर नज़र रखने वाले कहते हैं कि ट्रंप अमेरिकी गोर्बाचोव हैं जो अपनी मूर्खतापूर्ण व नफ़रत की नीतियों से अमेरिका के विभाजन के बीज बो रहे हैं. अमेरिका के इतिहास में यह पहला मौक़ा है कि जब एक पेशेवर व  माहिर झूठा व्यक्ति राष्ट्रपति बन गया है और जिन राज्यों में विपक्षी डेमोक्रेटिक पार्टी के गवर्नर हैं वहां के लोगों को वह क़ानून तोड़ने, लौकडाउन के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरने व हंगामे करने के लिए उकसा रहा है.

गौरतलब है कि रोज़ा पार्क्स नामक महिला ने 50 वर्षों पहले गोरों के लिए रिज़र्व बस की अगली सीट छोड़ने से इनकार कर दिया था तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. उस घटना के बाद भी पूरा अमेरिका उबल पड़ा था. ख़ासतौर पर दक्षिणी अमेरिका में हालात विस्फोटक हो गए तो तब के नस्लवादी क़ानून को ख़त्म करना पड़ा था. मौजूदा हालात में ऐसा लगता है कि जौर्ज फ़्लोएड की निर्मम हत्या की घटना भी उस भयानक नस्लवाद के ख़िलाफ़ क्रांति शुरू कर देगी जिसे ट्रंप और उन के लोग हवा दे रहे हैं.

इस बीच, संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार संगठन की प्रमुख मिशेल बैचलेट ने जौर्ज फ़्लोएड की हत्या की निंदा करते हुए कहा है कि इस हत्या के पीछे व्यापक नस्लीय भेदभाव की एक बड़ी भूमिका है, जिस का समाधान निकाले जाने की ज़रूरत है. सवाल यह पूछा जाएगा कि दुनिया के देशों को मानवता का पाठ पढ़ाने वाला अमेरिका खुद मानवता से दूरी क्यों अख्तियार किए हुए है ?

Lockdown Special: इस फिल्म को बनने में लगे थे 6 साल, लंबाई थी 4 घंटे 43 मिनट

एडिट बाय- निशा राय

बॉलीवुड फिल्म इंडस्ट्री में शोमैन के नाम से विख्यात राजकपूर नें न केवल दर्जनों सुपरहिट फ़िल्में दीं थी बल्कि उसमें से कई फ़िल्में कालजयी भी बन गई एक एक्टर, डायरेक्टर, प्रोड्यूसर तौर पर राजकपूर ने अपने फिल्मी सफर में कई एक्ट्रेसेस को भी सिल्वर स्क्रीन पर लॉन्च किया. उन्होंने मात्र 24 साल की उम्र में ही आर के फिल्म  स्टूडियो के नाम से अपना प्रोड्क्शन हॉउस बना लिया था. उनके निर्देशन में बनी पहली फिल्म आग थी जो 1948 में रिलीज हुई थी. इसके बाद उन्होंने नीलकमल, चित्तौड़ विजय, दिल की रानी, यात्रा, गोपीनाथ, अमर प्रेम, बरसात, परिवर्तन, पहचान, सरगम, आवारा, बेवफ़ा, बूट पॉलिश, श्री ४२०, चोरी, जिस देश में गंगा बहती है, मेरा नाम जोकर जैसी सफल फिल्मों में बतौर मुख्य अभिनेता दर्शकों पर अमिट छाप छोड़ने में कामयाबी पाई.

इन सबके बीच उन्होंने बॉलीवुड के इतिहास ‘मेरा नाम जोकर’ के नाम ऐसी फिल्म बनाई जो बॉलीवुड के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हो गई. इस फिल्म को साल 1970 में रिलीज़ किया गया था. इस फिल्म में राज कपूर के अलावा बॉलीवुड के कई नामचीन चेहरों नें भी अभिनय किया. जिसमें मनोज कुमार,सिमी गरेवाल,ऋषि कपूर,धर्मेन्द्र,दारा सिंह,सोनिया रियाबिनकिना,पद्मिनी, ओम प्रकाश,राजेन्द्र कुमार,अचला सचदेव का नाम प्रमुख रहा.

ये भी पढ़ें- KBC 12: क्या लॉकडाउन के बाद छोटे परदे पर लौटेगा अमिताभ बच्चन का ‘कौन बनेगा करोड़पति’?

फिल्म को बनाने में लगा था 6 साल का वक्त
राजकपूर के निर्देशन में बनी फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ उनके ड्रीम प्रोजक्ट में शामिल थी. यह फिल्म साल 1970 में प्रदर्शित की गई थी. इस फिल्म को बनाने में काफी वक्त लगा था और यह 6 साल में बन कर तैयार हो पाई थी.

यह फिल्म जब रिलीज की गई तो यह 4 घंटे 43 मिनट की फिल्म थी. इसके रिलीज किये जाने के  दो सप्ताह बाद ही इसकी अवधि घटा कर 4 घंटे 9 मिनट का कर दिया गया था. लेकिन फिल्म की अधिक अवधि को देखते बाद में इसे और भी छोटा कर दिया गया और उस समय यह फिल्म लगभग 3 घंटे (178 मिनट) की अवधि में कर दी गई थी.

इस फिल्म को बनाने में भारी कर्ज से दब चुके थे राजकपूर
मेरा नाम जोकर को बनाने में राजकपूर राज कपूर नें अपनी सारी जमा पूंजी लगा दी थी. उसके बाद फिल्म निर्माण में लंबा लगनें से उन्हें भारी कर्ज लेना पड़ा था. भारी कर्ज के बावजूद भी इस फिल्म को पूरा होते न देख कर उन्हें  अपनी पत्नी के गहने भी बेचने पड़े. वह कर्ज में इस तरह डूबे थे की उन्हें 16 साल की डिंपल कपाड़िया के साथ ऋषि कपूर को बॉबी में लांच करना पडा. राजकपूर की यह फिल्म जबरदस्त हिट हुई और उन्हें मेरा नाम जोकर के कर्जों से मुक्ति मिल गई.

ये भी पढ़ें- लॉकडाउन में विद्या बालन ने शेयर किया कुकिंग वीडियो, बनाए मोदक

इस फिल्म के गाने जो सदाबहार बन गए
इस फिल्म के सभी गानें हिट हुए थे, इन सदाबहार गानें  आज भी लोगों की जुबान पर उसी तरह से बनें हुए हैं जैसे यह 70 के दशक में बज रहे थे. इस फिल्म के गाने इतने हिट हुए थे जो लोगों के दिलोदिमाग में बस गए थे. फिल्म के गानों में दाग ना लग जाये, जाने कहाँ गये वो दिन, कहता है जोकर सारा जमाना, ऐ भाई ज़रा देख के चलो, तीतर के दो आगे तीतर, अंग लग जा बलमा, जीना यहाँ मरना यहाँ, काटे ना कटे रैना, सदके हीर तुझ ने इतिहास रच दिया था.

फिल्म में सिमी ग्रेवाल नें दिया था न्यूड सीन
जब बॉलीवुड के फिल्मों में न्यूड सीन की कल्पना तक नहीं की जाती थी उस दौर में राजकपूर ने मेरा नाम जोकर के एक सीन में अभिनेत्री सिमी ग्रेवाल का एक न्यूड सीन शूट किया था. इस सीन को लेकर खूब हो हल्ला मचा था और कई तरह के बहस और विवाद नें भी इस फिल्म पर सवाल खड़े किये थे. महज 17 साल की उम्र में सिमी ग्रेवाल ने इस फिल्म में नहाते समय पूरे कपड़े उतारे थे जो उस समय काफी पॉपुलर हुआ.

असफल होने के बावजूद भी मिला था फिल्म फेयर अवार्ड
यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल तो नहीं रही थी उसके बावजूद भी फिल्म को पांच श्रेणियों में फिल्मफेयर अवार्ड के लिए नामित किया गया. जिसमें इस फिल्म को तीन श्रेणियों में अवार्ड दिया गया. फिल्म में राज कपूर को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार मिला वहीँ शंकर जयकिशन को सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक के पुरस्कार से नवाजा गया. फिल्म के गीत ऐ भाई ज़रा देख के चलो के लिए मन्ना डे को  सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार दिया गया था.

ये भी पढ़ें- बी आर चोपड़ा: जब 4 बार बदला कहानी का अंत और दर्शकों ने थिएटर में फेकें

फिल्म की असफल प्रेम कहानी नें लोगों का दिल जीत लिया
यह फिल्म कमाई भले ही न कर पाई हो लेकिन फिल्म की कहानी और कलाकारों के अभिनय नें इस फिल्म को अमर कर दिया. यह फिल्म आज के दौर में प्रेम कहानियों पर बन रही सभी फिल्मों को पीछे छोड़ देती है. फिल्म की कहानी में राजकपूर नें सर्कर्स के जोकर का किरदार निभाया है. वह फिल्म में तीन लड़कियों से प्रेम करता है लेकिन तीनों जगह उसे निराशा ही हाथ लगती है फिल्म के अंत में वह उन सभी लड़कियों को जिससे उसने कभी प्यार किया था, अपना आखिरी शो दिखाने को दिखाता है वो दर्शकों को विश्वास दिलाता है कि वो फिर से आएगा और पहले से भी ज्यादा हँसाएगा और उसी जगह उसकी जान चली जाती है. यह फिल्म राजकपूर के फ़िल्मी सफ़र की बतौर मुख्य अभिनेता आखिरी फिल्म थी. उसके बाद उन्होंने फिल्मों से संन्यास ले लिए और बाद के फिल्मों में वह एक चरित्र में ही नजर आये.

Crime story: ले डूबी दबंगई

राजनीति में पैसा भी है और पावर भी, लेकिन इन चीजों को पचाना सब के बस की बात नहीं होती. रणजीत जमीन से उठ कर एक खास मुकाम तक भी पहुंच गया और 2-2 महिलाओं से शादी भी रचा ली, लेकिन उस ने सोचा भी नहीं होगा कि… ‘शैल’बात सन 2000 की है. गोरखपुर के कैंट थाना क्षेत्र इलाके के चेतना तिराहे पर एक नुक्कड़

नाटक चल रहा था. नाटक के कलाकार ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारे लगा रहे थे. ये लोग देशभक्ति से ओतप्रोत नाटक का मंचन करते हुए लोगों को जागरूक कर रहे थे. सामान्य कदकाठी और गेहुंआ रंग का एक युवक नाटक का निर्देशन कर रहा था.

वही कलाकारों का लीडर था. उस का नाम था रणजीत कुमार श्रीवास्तव उर्फ रणजीत बच्चन. सदी के महानायक अमिताभ बच्चन से प्रेरित हो कर रणजीत ने अपने नाम के आगे बच्चन शब्द जोड़ लिया था. दरअसल, रणजीत रंगमंच का एक उम्दा कलाकार था. कला की दुनिया में वह नाम कमाना चाहता था, इसलिए सतत प्रयासरत था.

येे भी पढ़ें-Crime Story: मजबूर औरत की यारी

‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारे सुन कर एक युवती के पांव थम से गए. उसे नाटक इतना भाया कि वह नाटक खत्म होने तक वहीं जमी रही.

वह युवती पूर्वांचल मैराथन की प्रथम विजेता कालिंदी शर्मा थी, जो मूलरूप से कुशीनगर जिले के थाना नेबुआ में आने वाले भंडार बिंदौलिया की रहने वाली थी. उस वक्त वह गोरखपुर के शाहपुर इलाके के असुरन चौक के पास अपने मातापिता और 5 बहनों के साथ रह रही थी.

नुक्कड़ नाटक के समापन के बाद कालिंदी ने कलाकारों से पूछा कि तुम्हारा लीडर कौन है? उन में से एक कलाकार ने रणजीत बच्चन की ओर इशारा कर के बताया कि वही हमारे लीडर हैं. नाटक का मंचन उन्हीं के निर्देशन में होता है.

कालिंदी शर्मा ने रणजीत बच्चन से मुलाकात की और अपने बारे में बताया. कालिंदी का परिचय जान कर रणजीत काफी प्रभावित हुआ. इस मुलाकात के बाद दोनों में दोस्ती हो गई.

दरअसल, कालिंदी की चाहत थी कि वह देश के लिए कुछ करे. रणजीत की सोच भी यही थी कि वह कुछ ऐसा करे, जिस से उस का नाम हो. दोनों की एक ही सोच थी, कुछ बड़ा करने की. अब तक दोनों अलगअलग थे. दोनों की सोच एक जैसी निकली तो दोनों की दिशाएं एक हो गईं.

ये भी पढ़ें-Crime Story: मांगी मोहब्ब्त मिली मौत

इसी बीच कालिंदी के जीवन के साथ एक नया कीर्तिमान जुड़ गया था. मैराथन दौड़ में प्रथम आने के आधार पर उसे नेहरू युवा केंद्र के सांस्कृतिक कार्यक्रम हेतु 2 साल के लिए एनएसबी सदस्य बना दिया गया था. संस्थान की ओर से उसे समाज को जागरूक करने वाले कुछ कार्यक्रम करने को कहा गया था, उस में नुक्कड़ नाटक का भी कराया जाना था. विषय था सारक्षरता.

कालिंदी ने रणजीत के साथ मिल कर नाटक का प्रस्तुतीकरण कराया जिस से लोग काफी प्रभावित हुए. कालिंदी के इस काम से संस्थान के निदेशक खुश हुए. इस मंचन के बाद से कालिंदी के दिल में रणजीत के लिए सौफ्ट कौर्नर बन गया, कह सकते हैं कि वह रणजीत को चाहने लगी थी.

 

40 वर्षीया कालिंदी शर्मा 5 बहनों में सबसे बड़ी थी. उस के पिता परमात्मा शर्मा प्राइवेट नौकरी करते थे. उन की आमदनी बहुत कम थी. उसी से परिवार के भरणपोषण के साथसाथ बेटियों की पढ़ाई का खर्चा भी होता था. कालिंदी परमात्मा शर्मा की सब से बड़ी संतान थी. कालिंदी ने अपनी लगन और परिश्रम की बदौलत समाजशास्त्र से परास्नातक की डिग्री ली.

 

करीब 45 वर्षीय रणजीत कुमार श्रीवास्तव उर्फ रणजीत बच्चन मूलरूप से गोरखपुर के गोला थाना क्षेत्र के अहिरौली लाला टोला का रहने वाला था. उस के पिता ताराशंकर श्रीवास्तव सिंचाई विभाग में ट्यूबवेल आपरेटर थे.

कहने को तो ताराशंकर मूलरूप से अहिरौली गांव के निवासी थे, लेकिन 4 दशक पहले उन्होंने अपना गांव छोड़ दिया था. वह परिवार सहित गोरखपुर आ कर बस गए थे.

ये भी पढ़ें-Crime Story: एक सहेली ऐसी भी

20 साल पहले सन 2000 में ताराशंकर की मृत्यु हो गई थी. पिता की मृत्यु के बाद परिवार की सारी जिम्मेदारी तीसरे बेटे रघुवंश कुमार श्रीवास्तव के कंधों पर आ गई थी. बाद में उन के 2 बड़े बेटों पप्पू और राजेश की भी बीमारी से मौत हो गई. रघुवंश अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी अंजाम देते रहे.

ताराशंकर की सभी संतानों में सब से कुशाग्र बुद्धि वाला उन का सब से छोटा बेटा रणजीत था. उस में कुछ नया करने की जिजीविषा रहती थी. होश संभालने के बाद जब वह कुछ समझदार हुआ तो बड़ा हो कर फिल्मी दुनिया में जाने की सोचने लगा.

रणजीत गांव के कुछ युवकों की टोली बना कर नुक्कड़ नाटक किया करता था. इसी नुक्कड़ नाटक के जरिए उस की मुलाकात कालिंदी से हुई.

 

सन 2002 के जनवरी में कालिंदी के मन में एक योजना आई. ॒यह योजना थी साइकिल यात्रा से देश में शांति का संदेश फैलाना. कालिंदी ने यह बात रणजीत को बताई तो वह खुश हुआ.

रणजीत ने कालिंदी की साइकिल यात्रा पर मुहर लगा दी. रणजीत बच्चन ने कालिंदी सहित अपनी नाटक मंडली के 16 सदस्यों सहित यात्रा की तैयारी कर ली. टीम का नेतृत्व उस ने अपने हाथों में ले लिया.

4 फरवरी, 2002 को रणजीत बच्चन के नेतृत्व में साइकिल से भारत भ्रमण यात्रा शुरू हुई. आखिरी समय में सिर्फ कालिंदी और रणजीत बच्चन ही बचे रहे. 7 साल 10 महीने 14 दिन में दोनों ने भारत, नेपाल और भूटान सहित साइकिल से 1 लाख 32 हजार किलोमीटर की यात्रा तय कर के एक नया कीर्तिमान स्थापित किया था.

इस उपलब्धि के लिए लिम्का बुक औफ रिकौर्ड्स में दोनों के नाम दर्ज हुए. इसी यात्रा के दौरान फरवरी, 2005 में कालिंदी और रणजीत बच्चन ने महाराष्ट्र के नासिक में एक मंदिर में गंधर्व विवाह कर लिया था.

लेकिन दोनों ने अपने प्रेम विवाह को घरपरिवार और समाज से छिपा कर रखा. फिर जब बात खुली तो 9 साल बाद 31 मार्च, 2014 को परिवार वालों ने इस शादी पर अपनी स्वीकृति की मोहर लगा दी.

साइकिल यात्रा के दौरान सरकार और लोगों से काफी पैसा मिला था. उन पैसों से रणजीत ने गोरखपुर के गुलरिहा थानाक्षेत्र के पतरका टोला में अपने नाम से एक जमीन खरीद ली.

उस जमीन पर रणजीत अपनी मां के नाम पर कौशल्या देवी वृद्ध एवं अनाथ आश्रम खोलना चाहता था. योजना पर काम भी शुरू किया गया, लेकिन यह योजना पूरी हो पाती, इस से पहले ही उस की हत्या हो गई.

नुक्कड़ नाटकों से न तो कोई मुकाम मिलने वाला था और न ही दौलत. रणजीत यह बात समझ गया था. फलस्वरूप उस ने अपनी दिशा बदल दी, लेकिन लक्ष्य वही रहा. उन दिनों प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सरकार थी.

 

सत्ताधारी दल के साथ रहना मुफीद था, इसलिए रणजीत ने जुगाड़ लगा कर बसपा की सदस्यता ग्रहण कर ली. लेकिन उस ने जो सोचा था, वह नहीं हो सका. इस पर रणजीत ने बसपा छोड़ कर समाजवादी पार्टी की सदस्यता ले ली.

सन 2013 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा का चुनाव होने वाला था. साइकिल समाजवादी पार्टी का चुनाव चिह्न है. चुनाव में रणजीत ने कालिंदी के साथ मिल कर साइकिल यात्रा के जरिए सपा के लिए खूब प्रचार किया, जिस का परिणाम सकारात्मक निकला.

चर्चा में बने रहने के लिए रणजीत कुछ न कुछ करता रहता था. इस के लिए वह कभी महापुरुषों की प्रतिमा सफाई अभियान, कभी इंसेफेलाइटिस जागरूकता तो कभी पल्स पोलियो अभियान चलाता रहता था. शोहरत हासिल करने के लिए उस ने पानी पर साइकिल तक चलाई थी, लेकिन उसे मनचाहा मुकाम नहीं मिला.

रणजीत बच्चन का सितारा उस समय बुलंदियों पर पहुंच गया, जब प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी थी. अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनने पर रणजीत को काफी महत्व मिला. उसे राज्यमंत्री का दर्जा दे दिया गया. रणजीत और कालिंदी के काम से खुश हो कर अखिलेश यादव ने दोनों को 5-5 लाख का पुरस्कार भी दिया.

रणजीत ने कालिंदी के हिस्से के भी पैसे खुद रख लिए थे. इस के बाद दोनों ने लखनऊ की ओसीआर बिल्डिंग के बी-ब्लौक के फ्लैट नंबर 604 आवंटित करा लिए था.

राज्यमंत्री का दर्जा मिलने के बाद रणजीत बच्चन के शौक भी बढ़ गए थे. बाइक से चलने वाले रणजीत ने अब कार लेने का मन बना लिया था. नवंबर, 2014 के अंतिम सप्ताह में रणजीत ने ओएलएक्स पर एक एक्सयूवी कार देखी. कार उसे पसंद आ गई. वह कार लखनऊ के संजय श्रीवास्तव के नाम पर रजिस्टर्ड थी.

 

संजय श्रीवास्तव की बेटी स्मृति वर्मा ने कार बेचने के लिए ओएलएक्स साइट पर डाल रखी थी. स्मृति वर्मा लखनऊ की विकास नगर कालोनी के आवास संख्या- 2/625 में रहती थी. साइट पर कार के साथ स्मृति का फोन नंबर भी था. बातचीत के बाद सौदा पक्का हो गया तो 27 नवंबर को रणजीत दोस्तों के साथ वाहन की डिलिवरी लेने लखनऊ स्थित स्मृति के घर विकास नगर पहुंच गया.

रणजीत बच्चन ने जब दूधिया रंगत वाली बला की खूबसूरत स्मृति को देखा तो उसे अपलक देखता रह गया. एक ही नजर में स्मृति रणजीत की आंखों के रास्ते उस के दिल में उतर गई.

उस ने तय कर लिया कि सौदा चाहे कितना भी मंहगा हो, तय कर के ही रहेगा. पेशगी के तौर पर रणजीत ने स्मृति को साढ़े 4 लाख रुपए नकद दे दिए. बाकी के रुपए कागजात हैंडओवर होने के बाद देना तय हुआ. इस पर स्मृति मान गई तो वह कार ले कर गोरखपुर आ गया.

इस के बाद स्मृति और रणजीत के बीच मोबाइल पर बातचीत होने लगी. बातोंबातों में रणजीत को पता चला कि स्मृति पिता के स्थान पर कोषागार विभाग में कनिष्ठ लेखाकार है.

 

रणजीत ने जब से स्मृति को देखा था, उस का दिन का चैन और रात की नींद उड़ गई थी. उस के दिमाग में एक ही बात उछलकूद मचा रही थी कि चाहे जैसे भी हो, स्मृति को अपना बना ले. इस के लिए वह किसी भी हद तक जाने को तैयार था. जिन दिनों की यह बात है उन दिनों कालिंदी रणजीत के बच्चे की मां बनने वाली थी.

लेकिन उसे इस की कोई परवाह नहीं थी. वह पूरी तरह से स्मृति के प्यार के रंग में डूब चुका था. इसी चक्कर में उस ने स्मृति से खुद को कुंवारा बताया था. उस ने अपनी लच्छेदार बातों से स्मृति के चारों ओर सम्मोहन का ऐसा जाल फैला दिया कि वह उसी जाल में घिर गई. रणजीत स्मृति से प्रेम करने लगा था, स्मृति भी उस से प्यार करती थी.

स्मृति वर्मा का रणजीत की ओर झुकाव तब हुआ, जब उसे पता चला कि सत्ता के गलियारे में उस की पहुंच बहुत ऊपर तक है. इतना ही नहीं, वह दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री है. प्रदेश सरकार में उस की अच्छी धाक है.

रणजीत ने स्मृति के घर आनाजाना शुरू कर दिया था. बराबर आनेजाने से रणजीत ने स्मृति के अतीत के पन्नों को पढ़ लिया था, जिन में उस के जीवन के पन्नों पर कई दुख भरी कहानियां लिखी हुई थीं.

राजधानी लखनऊ के विकासनगर में नायब तहसीलदार संजय श्रीवास्तव परिवार सहित रहते थे. पत्नी शोभना और 3 बच्चों में 2 बेटियां थीं, श्रुति और स्मृति और एक बेटा शिवांश. शोभना के शरीर पर जगहजगह सफेद दाग थे. सफेद दाग की वजह से संजय पत्नी को पसंद नहीं करते थे.

उन्होंने शोभना को तलाक दे दिया था. शोभना के पास 3 बच्चे थे. तीनों के पालनपोषण की जिम्मेदारी उसी के कंधों पर थी. ऐसे में वह क्या करती, बच्चों को ले कर कहां जाती. तलाक के बावजूद शोभना बच्चों के साथ पति के ही घर में रहती थी.

नायब तहसीलदार संजय श्रीवास्तव के घर में तलाकशुदा शोभना भी रह रही थी, लेकिन दोनों के बीच कोई संबंध नहीं था. बाद में संजय श्रीवास्तव ने कानपुर की रहने वाली एक दूसरी महिला से शादी कर ली.

उन्होंने शादी तो कर ली, लेकिन पत्नी को अपने घर नहीं ला सके. बच्चों और शोभना के दबाव के चलते संजय का जीवन रेत के महल सा हो गया था. इसलिए दूसरी पत्नी अकसर कानपुर में ही रहती रही.

 

पहली पत्नी शोभना के तीनों बच्चे धीरेधीरे बड़े होते रहे. इन में दूसरे नंबर की बेटी स्मृति खूबसूरत और जहीन थी. बात सन 2013 की है. नायब तहसीलदार संजय की बड़ी बेटी श्रुति अपने प्रेमी के साथ घर से अचानक भाग गई. बेटी के इस घिनौने कदम से संजय श्रीवास्तव की समाज में बहुत बदनामी हुई.

बेटी की इस करतूत से बुरी तरह आहत तहसीलदार श्रीवास्तव ने सारी संपत्तियों की पावर औफ अटार्नी छोटी बेटी स्मृति के नाम कर दी ताकि उन के न रहने पर वह संपत्ति की देखभाल कर सके. आननफानन में तहसीलदार संजय ने स्मृति की शादी लखनऊ के एक बैंक मैनेजर के साथ तय कर दी थी.

तिलक की रस्म भी पूरी हो गई थी. चढ़ावे में नकदी और लाखों रुपए के कीमती गहने चढ़ाए गए. घर में शादी की जोरशोर से तैयारियां चल रही थीं, अचानक एक दुखद हादसे ने बहुत कुछ बदल दिया.

तिलक की रस्म के कुछ दिनों बाद की बात है. रात का समय था. संजय श्रीवास्तव अपनी छत पर टहल रहे थे. अचानक वह रहस्यमय तरीके से छत से नीचे सड़क पर जा गिरे. सिर में आई गंभीर चोट की वजह से मौके पर ही उन की मौत हो गई. वह छत से कैसे गिरे, यह रहस्य आज भी बरकरार है.

 

जहां खुशियां होनी चाहिए थीं, वहां मातम छा गया. पिता की मौत के बाद स्मृति की शादी टूट गई. लाखों रुपए नकद और लाखों के जेवरात ससुराल में फंसे रह गए. स्मृति के ससुराल वालों ने पैसे और जेवर लौटाने से मना कर दिया.

स्मृति के सामने ससुराल वालों से सामान वापस लेना चुनौती थी. ऐसे में रणजीत बच्चन स्मृति से टकरा गया. दोनों के बीच जब नजदीकियां बढ़ीं तो स्मृति ने अपनी आपबीती रणजीत से बता कर ससुराल से नकदी और गहने वापस दिलवाने की पेशकश की. उस ने यह भी कह दिया था कि जिस दिन वह गहने और नकदी दिलवा देगा उसी दिन वह उस की हो जाएगी.

 

रणजीत के लिए स्मृति की शर्त जीतना कोई बड़ी बात नहीं थी. क्योंकि उस पास साम, दाम, दंड, भेद चारों शस्त्र थे, इसलिए थोड़ी चुनौतियों का सामना करते हुए उस ने स्मृति की ससुराल जा कर चारों शस्त्र आजमाए. भले ही जबरदस्ती सही, लेकिन उस ने नकदी और जेवरात वसूल कर स्मृति की झोली में डाल दिए.

रणजीत की इस दबंगई से खुश हो कर स्मृति ने उस से शादी करने के लिए हामी भर दी. आखिर 18 जनवरी, 2015 को रणजीत और स्मृति ने मंदिर में जा कर शादी कर ली. रणजीत ने यह राज पहली पत्नी कालिंदी से छिपाए रखा.

रणजीत द्वारा स्मृति से शादी करने के 3 दिनों बाद 21 जनवरी को कालिंदी ने बेटे को जन्म दिया. कालिंदी के मां बनने की जानकारी मिलने के बाद भी रणजीत पत्नी को देखने हौस्पिटल तक नहीं आया. लेकिन रणजीत की सच्चाई न तो पहली पत्नी कालिंदी से छिप सकी और न ही दूसरी पत्नी स्मृति वर्मा से.

 

कालिंदी को जब रणजीत की दूसरी शादी की बात पता चली तो उस के पैरों तले से मानो जमीन ही खिसक गई. उसे रणजीत से ऐसी उम्मीद नहीं थी कि जिस रणजीत के लिए उस ने अपने घर वालों से बगावत कर उसे अपना जीवन सौंप दिया था, वही हमसफर सितमगर निकलेगा.

जब यह बात दूसरी पत्नी स्मृति को पता चली कि रणजीत पहले से ही शादीशुदा है तो उस की आंखों के सामने अंधेरा छा गया. रणजीत ने उसे धोखा दिया था. उस ने एक साथ कई जिंदगियां दांव पर लगा दी थीं. पति की सच्चाई सामने आने के बाद स्मृति उसे छोड़ कर विकासनगर वापस लौट आई. उसे नाराज देख रणजीत के हाथपांव ठंडे पड़ गए.

स्मृति से रणजीत इतना प्यार करता था कि उस की जुदाई एक पल के लिए बर्दाश्त नहीं कर सकता था, वह सच्चाई जान कर उस से नाराज हो कर गई थी इसलिए रणजीत ने स्मृति को मनाने के लिए जमीनआसमान एक कर दिया.

खैर, पहली पत्नी कालिंदी चुप बैठने वालों में से नहीं थी. पति के धोखा देने के एवज में उस ने रणजीत के खिलाफ गोरखपुर महिला थाने में एक तहरीर दी. कालिंदी के उठाए कड़े कदम से रणजीत की त्यौरियां चढ़ गईं. दोनों के प्यार ने अब नफरत और दुश्मनी का रंग ले लिया.

स्थिति यहां तक पहुंच गई कि जहां देखो हत्या कर दो. कालिंदी अपनी और बच्चे की जान बचाने के लिए यहांवहां छिपती रही. जान का दुश्मन बना रणजीत कालिंदी को नहीं ढूंढ पाया.

 

कालिंदी भागतेभागते थक चुकी थी. वह जानती थी कि रणजीत से जीत पाना आसान नहीं है. आखिर उस ने रणजीत के सामने घुटने टेक दिए. इस का सब से बड़ा कारण यह था कि उस के मायके वालों ने उस का साथ देना छोड़ दिया था.

वे रणजीत की करतूतों से बेहद नाराज थे. ऐसे में कालिंदी के सामने एक ही सहारा बचा था, रणजीत के पास वापस लौटने का. आखिरकार कालिंदी बेटे आदित्य को ले कर रणजीत के पास लखनऊ आ गई, रणजीत ने भी सारे गिलेशिकवे भुला कर उसे माफ कर दिया.

कहते हैं एक म्यान में 2 तलवारें नहीं रह सकतीं. सच भी यही है. कालिंदी के ओसीआर आते ही स्मृति ने रणजीत से दूरी बना ली. स्मृति से दूरियां रणजीत से सहन नहीं हो रही थीं. स्मृति की दूरियों से खुन्नस खाया रणजीत कालिंदी पर अपनी मर्दानगी और जुल्म की कहानी लातघूंसों से लिखता था और मोबाइल का स्पीकर औन कर के स्मृति को सुनाता था.

वह यह दिखाने की कोशिश करता था कि वो उसे कितना प्यार करता है, इसी से अंदाजा लगा सकती है. जबकि बेटे की खातिर कालिंदी पति के जुल्मों को सह कर भी उफ तक नहीं करती थी.

कालिंदी पर एक और आपदा तब टूटी जब 2017 में उस के ढाई साल के बेटे आदित्य की मृत्यु हो गई. बेटे की मौत से कालिंदी ही नहीं रणजीत भी बुरी तरह से टूट गया. इस घटना के बाद से रणजीत का झुकाव अध्यात्म की तरफ हो गया और वह एक वस्त्र (गेरुआ वस्त्र) धारण करने लगा.

इस दौरान वह अखिल भारतीय हिंदू महासभा के संस्थापक चक्रपाणि महाराज के संपर्क में आया और संगठन का प्रदेश अध्यक्ष बन गया. बाद में रणजीत बच्चन ने अपना खुद का संगठन ‘विश्व हिंदू महासभा’ बनाया और खुद को उस का अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित कर दिया. कालिंदी उस की सहयोगी रही.

 

हिंदूवादी नेता की छवि बनाने के लिए वह भगवा कपड़े पहनने लगा. विभिन्न मंचों से हिंदुत्व पर बेबाक टिप्पणी करने लगा, जिस से उसकी छवि हिंदू नेता के रूप में उभरने लगी.

अतिमहत्त्वाकांक्षी रणजीत का संगठन चल निकला. धीरेधीरे बेटे की मौत को वह भूलने लगा था. अब भी वह स्मृति की याद में पागल था. जबकि स्मृति उस से दूर हो चली थी. उस के जीवन में दूसरा पुरुष आ गया था, जिस का नाम दीपेंद्र सिंह था.

सन 2017 में अमर नगर रायबरेली निवासी दीपेंद्र की स्मृति से मुलाकात उस के दफ्तर में हुई थी. वह किसी आवश्यक काम से वहां आया था. धीरेधीरे दोनों की मुलाकातें होती रहीं. दोनों पहले दोस्त, फिर दोस्त से प्रेमी बन गए. दोनों एकदूसरे से प्यार करने लगे थे और शादी करना चाहते थे.

 

रणजीत से छुटकारा पाने के लिए स्मृति ने अदालत में तलाक की अर्जी दाखिल कर दी थी. रणजीत ने स्मृति को तलाक देने से साफ इनकार कर दिया था. वह जान चुका था कि स्मृति दीपेंद्र से प्यार करने लगी है. रणजीत ने खुले तौर पर स्मृति को धमकी दी कि वह दीपेंद्र का साथ छोड़ दे अन्यथा इसका अंजाम बहुत बुरा होगा.

रणजीत के धमकाने का स्मृति पर कोई असर नहीं हुआ था. बावजूद इस के वह खुलकर दीपेंद्र से मिलती रही. यह बात रणजीत से सहन नहीं हो पा रही थी. दीपेंद्र को ले कर रणजीत और स्मृति के बीच विवाद बढ़ता गया. रणजीत स्मृति के पीछे जितनी तेज भागता गया, स्मृति उतनी ही तेजी से दीपेंद्र के पास आती गई. जबकि कालिंदी रणजीत के पीछे भाग रही थी.

बात 18 जनवरी, 2020 की है. उस दिन रणजीत और स्मृति की शादी की सालगिरह थी. लखनऊ के एक बड़े होटल में रणजीत ने दिन में एक पार्टी का आयोजन किया था. उस ने खासतौर पर स्मृति को आने के लिए आमंत्रित किया था. पार्टी में बड़ेबड़े लोग आए थे.

 

समय बीत जाने के बाद भी स्मृति वहां नहीं पहुंची, तो रणजीत ने खुद को अपमानित महसूस किया. उसे स्मृति पर गुस्सा भी आया. उस ने मन ही मन स्मृति को सबक सिखाने की ठान ली. जैसेतैसे पार्टी खत्म कर के वह स्मृति के घर जा पहुंचा. संयोग से उस की मुलाकात घर पर ही हो गई.

स्मृति को देखते ही रणजीत का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया. उस ने आव देखा न ताव, गुस्से से तमतमाते हुए स्मृति के गालों पर एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया. थप्पड़ इतना जोरदार था कि उसे दिन में तारे नजर आने लगे. उसे सावधान करते हुए रणजीत ने दीपेंद्र का साथ छोड़ने के लिए हिदायत दी और वापस लौट आया.

रणजीत का यह थप्पड़ स्मृति को काफी नागवार गुजरा. उस ने यह बात दीपेंद्र से बताई और रणजीत को सदा के लिए रास्ते से हटाने का दबाव बनाया. दीपेंद्र स्मृति से टूट कर प्यार करता था. उस ने इस काम के लिए हामी भर दी. दीपेंद्र ने इस के लिए अपने चचेरे भाई जितेंद्र की मदद ली. जितेंद्र मनबढ़ किस्म का युवक था. उस के खिलाफ रायबरेली के कई थानों में गंभीर और संगीन आपराधिक मुकदमे दर्ज थे. जितेंद्र तैयार हो गया.

योजना बनने के बाद 29 जनवरी, 2020 को दीपेंद्र चचेरे भाई जितेंद्र को साथ ले कर अपनी गाड़ी से रायबरेली से लखनऊ पहुंचा और 3 दिनों तक शहर में रह कर उस ने रणजीत की रेकी की. वह घर से कब निकलता है, कब घर लौटता है. घर से निकलते समय उस के साथ कौनकौन होता है, वगैरह.

 

दीपेंद्र और जितेंद्र ने 3 दिनों तक रेकी कर के रणजीत की पूरी कुंडली तैयार कर ली और रायबरेली लौट आए. 1 फरवरी, 2020 की रात दीपेंद्र और उस का भाई जितेंद्र ड्राइवर संजीत के साथ बोलेनो कार से लखनऊ आ कर एक होटल में ठहर गए.

2 फरवरी की सुबह साढ़े 5 बजे डेली रूटीन के तहत सब से पहले घर से कालिंदी मौर्निंग वाक के लिए निकली. उस के 2-4 मिनट के अंतराल पर रणजीत अपने पुराने परिचित और गोरखपुर निवासी आदित्य कुमार श्रीवास्तव उर्फ सोनू के साथ निकला. आदित्य कुछ दिन पहले एक ठेके के संबंध में रणजीत से मिलने आया था. रणजीत ने उसे वाक पर साथ चलने के लिए कहा, तो वह साथ हो गया.

कालिंदी आगेआगे दौड़ती हुई जा रही थी और पीछे मुड़मुड़ कर देख रही थी कि रणजीत कहां तक पंहुचे. कालिंदी पहली बार ग्लोब पार्क की ओर निकली थी. रणजीत और आदित्य जब पार्क की ओर आते दिखे तो उस ने उन्हें हाथ हिला कर इशारा किया कि वह आगे बढ़ रही है.

कालिंदी दयानिधान पार्क की ओर दौड़ती हुई चली गई, जहां वह अक्सर जाया करती थी. इधर हजरतगंज चौराहे के पास दीपेंद्र कार से उतर गया.

जितेंद्र थोड़ी दूर स्थित कैपिटल सिनेमा के पास उतरा और वहीं खड़ा हो गया. रणजीत आदित्य के साथ ओसीआर से निकल कर सीडीआरआई जा रहा था. उसी वक्त जितेंद्र ने उस का पीछा करना शुरू कर दिया था. वह शाल से अपना चेहरा ढके हुए था.

जैसे ही दोनों ग्लोब पार्क के पास पहुंचे, जितेंद्र फुरती के साथ आगे बढ़ा और पिस्टल निकाल कर रणजीत पर तान दिया. उस ने दोनों से मोबाइल फोन मांगा तो रणजीत और आदित्य ने कोई मोबाइल चोर समझ कर अपनेअपने फोन उस की ओर बढ़ा दिए. जितेंद्र ने दोनों के फोन अपने कब्जे में कर लिए.

रणजीत और आदित्य कुछ समझ पाते, तब तक जितेंद्र ने रणजीत को लक्ष्य बना कर उस के सिर में .32 बोर की गोली मार दी.

गोली लगते ही रणजीत वहीं जमीन पर गिर पड़ा. यह देख आदित्य अपनी जान बचा कर वहां से भागा, तो जितेंद्र ने उसे भी गोली मार दी. यह संयोग ही था कि गोली उस के बाएं हाथ में लगी.

गोली मारने के बाद जितेंद्र वहां से भाग निकला और दीपेंद्र के पास जा पहुंचा. दीपेंद्र उस का बेसब्री से इंतजार कर रहा था. उस ने बताया कि काम हो गया है. फिर उसी कार में सवार हो कर दोनों रायबरेली चले गए.

जांच की दिशा जर, जमीन और जोरू को ले कर तय की गई थी. पुलिस ने पहली पत्नी कालिंदी से पूछताछ शुरू की. कालिंदी से हुई पूछताछ से पता चला कि रणजीत ने दूसरी शादी विकास नगर सेक्टर-2/625 की रहने वाली स्मृति वर्मा से की थी.

तकरीबन 4 दिनों की छानबीन के बाद पुलिस का पुख्ता शक दूसरी पत्नी स्मृति वर्मा पर जा टिका. पुलिस ने स्मृति को हिरासत में ले कर उस से कड़ाई से पूछताछ की, तो वह टूट गई और पूरी कहानी पुलिस को बता दी. उस ने अपना जुर्म कबूल करते हुए बताया कि रणजीत की हत्या उसी ने अपने प्रेमी दीपेंद्र से मिल कर कराई थी.

पूछताछ में उस ने दीपेंद्र के मुंबई चले जाने की बात बताई. उसी दिन हजरतगंज पुलिस टीम फ्लाइट से मुंबई पहुंची और वहां से दीपेंद्र को गिरफ्तार कर के लखनऊ ले आई. पता नहीं कैसे शूटर जितेंद्र को पुलिस के आने की भनक लग गई थी और वह वहां से फरार हो गया था.

6 फरवरी, 2020 को पुलिस ने रणजीत हत्याकांड के 3 आरोपियों— स्मृति वर्मा प्रेमी दीपेंद्र और ड्राइवर संजीत को गिरफ्तार कर लिया. कमिश्नर सुजीत पांडेय ने प्रैस कौन्फ्रैंस कर के घटना का खुलासा किया. 3 दिन बाद पुलिस मुठभेड़ के बाद हजरतगंज में शूटर जितेंद्र को भी गिरफ्तार कर लिया गया.

कथा लिखे जाने तक चारों आरोपी जेल में थे. पुलिस ने अज्ञात की जगह चारों आरोपियों स्मृति बच्चन उर्फ स्मृति वर्मा, दीपेंद्र, शूटर जितेंद्र और चालक संजीत को नामजद कर दिया था. यही नहीं, धारा 302, 307 के साथसाथ केस में धारा 120बी और 7 सीएलए की धाराएं भी जोड़ दी थी.

कथा लिखे जाने तक पुलिस ने आरोपियों से रणजीत और आदित्य के मोबाइल फोन बरामद कर लिए थे.  द्य

—कथा वादी आदित्य, रणजीत की पहली पत्नी कालिंदी और पुलिस सूत्रों पर आधारित

कोरोना वायरस भगाने के लिए पुजारी ने दी नरबलि

एकतरफ जहाँ पूरी दुनिया में कोरोना वायरस को जड़मूल से खत्म करने के लिए कई तरह के प्रयास और अनुसंधान में लोग लगे हैं. भारत में इससे मुक्ति के लिए लोग नमाज पढ़ रहे हैं. दुआ माँग रहे हैं और लोग हवन और पूजा कर रहे हैं. इसी बीच मंदिर में नर बलि और शिव मंदिर में अपनी जीभ काटकर शिवलिंग पर चढ़ाने की खबरें भी आ रही हैं. हम जैसा समाज बनायेंगे उसके परिणाम भी उसी तरह का निकलेगा.
ओडिशा के कटक जिले के बन्धहूडा गाँव के ब्राह्मणी देवी मंदिर परिसर में एक पुजारी ने मंदिर में मानव की बलि दे दी.उसे यह विश्वास था कि इससे घातक कोरोना वायरस नष्ट हो जाएगा.पुजारी ने कहा कि भगवान ने उसे सपने में आदेश दिया कि मानव बलि से कोरोना का कहर समाप्त हो जाएगा.पुजारी ने पुलिस के समक्ष कबूल किया कि मैंने कोरोना वायरस को रोकने के लिए आदमी की बलि दी.

दूसरी घटना कोरोना वायरस से अपने गाँव को बचाने के लिए उत्तरप्रदेश के बाँदा जिला अंतर्गत भदावल गाँव की 16 वर्षीय लड़की ने अपनी जीभ काटकर शिवमंदिर में चढ़ा दी.उसके बाद वह बेहोश हो गयी.लोगों ने उसे सदर अस्पताल में भर्ती करायी.

ये भी पढ़ें-कोरोना  महामारी: क्वारंटाइन का धंधा 

इसी तरह की एक हिर्दयविदारक घटना बिहार राज्य के भागलपुर जिले में विगत वर्ष घटी है. पीरपैंती थाना क्षेत्र अंतर्गत विनोबा टोला अंतर्गत शिवनंदन ने तांत्रिक के बहकावे में आकर एक पुत्र की चाहत में अपने 11 वर्षीय भतीजे की बलि देक़र हत्या कर दी.शिवनंदन की शादी 12 वर्ष पूर्व हुवी थी.उसे कोई अभी तक औलाद नहीं हुआ था.तांत्रिक ने बताया कि अगर वह किसी अपने रिश्तेदार के बच्चे को बलि देते हो तो तुम्हें सन्तान की अवश्य प्राप्ति होगी.उसके कहने पर शिवनन्दन दीपावली की रात अपने भाई सिकन्दर के पुत्र कन्हैया को पटाखा दिलाने का लालच दिया और गाँव के पास ही बाँस के जंगल में बलि देकर हत्या कर दी.पहले कद्दू की बलि दी गयी उसके बाद कन्हैया की बलि दे दी.इस घटना की निंदा सरेआम की जा रही है.

इसी तरह ओडिसा के नौपाडा में अच्छी फसल के लिए एक चाचा ने अपने भतीजे की बलि दे दी.चिंतामणि मांझी बेहतर फसल की पैदावार हेतु अपने छोटे भतीजे को पेड़ काटने के बहाने लेकर खेत में गया और उसका सिर धड़ से अलग कर दिया.इस क्षेत्र में बेहतर फसल के लिए आदिवासी लोग के बीच बकरी,मुर्गी या अन्य पशु पक्षियों की बलि देने की परंपरा है.

झारखण्ड के लातेहार जिले में एक लड़का और एक लड़की का शव बरामद हुआ.शवों के पास से कई दिए और अनाज देखकर लोगों को पता चला कि यह बच्चों को बलि दिए जाने का मामला है.दोनों बच्चों की उम्र लगभग 10 वर्ष थी.बच्चों की हत्या काले जादू के सिद्धि के लिए की गई.इस मामले में सुनील उरांव नामक ब्यक्ति को गिरफ्तार किया गया.इस तरह की घटनायें देश के कोने कोने से आते रहती है.

ये भी पढ़ें-कोरोना संकट के बीच टिड्डियों का आतंक, अर्थव्यवस्था पर पड़ेगी मार  

* मनोकामना पूर्ण करने के लिए दी जाती है बलि
सदियों से मनोकामना पूर्ण करने हेतु पशु,पक्षी और मानव की बलि देने की परम्परा मन्दिरों में भी रही है.आज भी खास अवसरों पर मुर्गा मुर्गी,बकरी ,खस्सी,सुअर और भैंसा तक कि बलि मन्दिरों और देवताओं के समक्ष दी जाती है.यह परम्परा आज भी उसी गति से चल रहा है. इसका कहीं कोई विरोध नहीं है. इस्लाम धर्म में भी बकरीद पर्व में बकरा,बछड़ा और गाय की कुर्बानी दी जाती है. इसे लोग परम्परा से मानते आ रहें हैं. इसका आज भी कोई विरोध नहीं है. हम किसी न किसी रूप में बलि प्रथा का समर्थन करते हैं. इसी का दुष्परिणाम यहाँ तक निकलता है कि मानव की भी बलि देने की छिटपुट घटनाएँ देश के कोने कोने से आते रहती है.

बलि देने की परम्परा और घटनाएँ जहाँ अशिक्षित वर्गों में है. वहीं शिक्षित और सम्पन्न समाजों में भी.लोगों का कहना है कि बड़े बड़े पुल निर्माण और आलीशान कंस्ट्रक्शन के निर्माणों में चोरी छुपे बच्चों की बलि आज भी दी जा रही है.यह कार्य पढ़े लिखे बड़े बड़े ठीकेदार और कंस्ट्रक्शन कम्पनियाँ भी करती है. लेकिन उनलोगों का सेटिंग इस तरह का होता है कि वे लोग पकड़ में नहीं आते हैं. लेकिन आमलोगों को इस बारे में जानकारियां है कि इस तरह की परंपरा आज भी कायम है.ओझा गुनी,पंडा और तांत्रिक लोग इस तरह के मानव बलि जैसे कुकृत्य को बढ़ावा देने में आग में घी का काम कर रहा है.

ये भी पढ़ें-बाटीचोखा कारोबार

* अंधविस्वास को बढ़ावा
आज देश में धार्मिक पाखण्डों और अंधविस्वास को बढ़ावा देने में इलेक्ट्रॉनिक ,प्रिंट मीडिया,केंद्र सरकार के प्रधानसेवक से लेकर मंत्री और उनके पार्टी के कार्यकर्ता तक इसमें अपनी भूमिका निभा रहे हैं. मनु द्वारा बनाये गए संविधान को सही ठहराने में लगे हैं.हाँथी के मुड़ी को आदमी के मुड़ी में जोड़ने को पहला प्लास्टिक सर्जरी,सीता जी का जन्म घड़ा से होने को पहला परखनली शिशु का जन्म, कौरवों के जन्म को स्टेमशेल और उड़नखटोला को पहला हवाई जहाज बताया जा रहा है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संचालक डॉ मोहन भागवत बताते हैं कि विज्ञान से बड़ा वेद है. आज का विज्ञान वेदों में बताए गए विज्ञान की ऊंचाइयों तक नहीं पहुँच पाया है.मौलाना लोग भी आसमानी किताबों की तुलना विज्ञान से करते रहते हैं. इन धर्मों का अनुसरण करनेवाले निरक्षर पढ़े लिखे सभी लोग अंधभक्त की तरह मान रहे हैं.इन बातों को उनके समर्थक लोगों तक पहुँचा रहे है. अगर यही स्थिति रही तो सति प्रथा को भी ये लोग जायज करार देने लगेंगे.

* वैज्ञानिक सोंच को बढ़ावा देने की जरूरत
भाकपा माले के पूर्व विधायक सह सामाजिक राजनीतिक चिंतक एन के नन्दा  ने कहा कि आज जरूरत है अंधविस्वास को दूर भगाने के लिए वैज्ञानिक बातों को बढ़ावा देने का.इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है.

वैज्ञानिक चेतना टीवी,कार्यक्रम,नाटक,सिरियल,चमत्कारों का पर्दाफाश,अखबार,पत्रिका,कम्प्यूटर,विज्ञान ब्लॉग, नुक्कड़ नाटक,विज्ञान क्लब गतिविधियां आदि माध्यमों से लोगों के बीच जागरूकता अभियान चलाकर समाज में ब्याप्त अंधविस्वास,जादू टोना,झाड़ फूँक के माध्यम से इन कुरीतियों प्रथाओं को समाप्त किया जा सकता है. आम जन अगर अंधविस्वास और चमत्कारों से मुक्त रहेंगे तो विज्ञान का यह वरदान देश की तरक्की में सहायक सिद्ध होगा.बच्चों को समाज में ब्याप्त अंधविस्वास,रुढिगत परम्परायें को दूर करने के उपाय और बच्चों में विज्ञान को बढ़ावा देने हेतु रचनात्मक और सृजनात्मक कौशल विकसित करने से सम्बंधित पाठ्यक्रम लागू करने का ताकि उनके अंदर वैज्ञानिक सोंच पैदा हो सके.दकियानूसी विचारों को लेकर हम विश्व गुरु और डिजिटल इंडिया के सपनों को साकार नहीं कर सकते.

शहर से गिरे जातिवाद पर अटके?

हमारे देश में समस्याएं कई परतों में खुलती हैं. जिस समय कोरोना यूरोपीय देशों में हाहाकार मचा रहा था उस समय भारत की पढ़ीलिखी जनता इस गलतफहमी और आत्मविश्वास की शिकार थी कि भारत इस से मुक्त रहेगा क्योंकि यहां की हवाओं में तो वैदिक संस्कृति प्रवाहित होती है और भारत की गाय जो मीथेन गैस पीछे के रास्ते छोडती है वह गैस ही काफी है कोरोना के कणों को ख़त्म करने के लिए. यही कारण था कि डिजिटली जनता घर की थालियां बजा कर कोरोना के कान फोड़ लेने और अंधेरे में दिए जला कर कोरोना को अंधा बनाने के लिए विदेशी एंड्रायड फोन से सोशल मीडिया में पोस्ट डालने की ताबड़तोड़ कोशिशें कर रही थी.

मजदूर बने आधुनिक अछूत

ठीक उसी समय देश का सब से निचला गरीब प्रवासी तबका भूखप्यासे नंगेपावं अपने घरों की तरफ पैदल चलने के लिए मजबूर हो रहा था. यह सिर्फ इसलिए नहीं कि सरकार ने फैसला लेने में कटुता दिखाई बल्कि इसलिए भी क्योंकि देश की ट्विटर और इन्स्टा वाली शसक्त आबादी को देश की स्थिति की थोड़ी सी भी भनक नहीं थी और अगर उन्हें थी भी तो जो लोग इस फैसले के बाद भूखमरी से बदहाल होने वाले थे उन से उन की कोई हमदर्दी नहीं थी. क्योंकि उन की मानें तो ये वही लोग हैं जो मरने के लिए पैदा होते हैं, जिन का काम ही निचला है. सफ़ेद कौलर पर टाई लगाने वाले अधिकांश लोगों का इस आबादी से रिश्ता महज इतना है कि जो मलमूत्र हम अपने संडासों में त्याग आते हैं उसे यह मजदूर जहरीले गटरों में उतर कर साफ़ करते हैं.

ये भी पढ़ें-नहीं रहे जोगी: और “किवंदती” बन गए अजीत प्रमोद कुमार जोगी

विकास, अच्छे दिन, सुपरपावर और महान संस्कृति का भ्रम हमारे दिलोदिमाग में इस कदर भरा हुआ था कि सरकार द्वारा हंटर के जोर पर लिए गए फैसले भी इन्हीं भ्रमों की अनुभूति महसूस करा रहे थे. यह एक संयोग है कि जिस समय देश की पढ़ीलिखी जनता इस बहस में फंसी थी कि विदेश में कोरोना सांप खाने से आया या चमगादड़ खाने से उस समय अपने देश के लाखों गरीब मीलों दूर सरकारी कुप्रबंधन के कारण पैदल चलने को मजबूर हो रहे थे. ये सिर्फ पैदल चल ही नहीं रहे थे बल्कि सरकारी कुप्रबंधन के कारण सड़कों और पटरियों पर उन के नरसंहार भी हो रहे थे. लेकिन देश का ऊपरी तबका सरकार से सवाल करने के बजाय उलटा दोष इन्हीं मजदूरों पर धर रहा था.

ये भी पढ़ें-श्रमिक स्पेशल ट्रेनें- मजदूरों की मुसीबतों का अंत नहीं

मदमस्त तालाबंदी वाली पिकनिक में रह रहे ये लोग इस सवाल से मुंह चुराते हुए पाए गए कि भारत में कोरोना कौन लाया. देश में घरों के भीतर बैठे लोग सामाजिक दूरी का पालन करने में इतने मस्त हो गए कि उन्होंने प्रवासी मजदूरों से अनंत दूरी बना ली. यह दूरी मात्र शारीरिक नहीं मानवीय भी थी. लाखों मजदूरों के पैदल घर को निकलने के बाद सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच हलचल होने लगी. प्रवासी मजदूरों की इस स्वकार्यवाही के दम पर ही उन के मुद्दे मीडिया चैनलों के भटकाने के बावजूद केंद्र में बनने लगे. लेकिन इस पूरे प्रकरण में इन प्रवासी मजदूरों को शहरी लोगों ने आधुनिक अछूत समझने के साथ उन से आधुनिक अछूत की तरह व्यवहार किया जिन का सिर्फ इस्तेमाल किया जा सकता है, उन के दुखतकलीफ को समझा नहीं जा सकता.

अब गांव में जाति और भूख की मार

हो सकता है कोरोना महामारी पूरी दुनिया में खुद को जरूर निष्पक्ष बता रही हो लेकिन भारत में यह सांप्रदायिक, जातीय, और गरीबविरोधी बन जाती है. यह इसलिए क्योंकि भारत में सामाजिक दूरी का कौंसेप्ट नया नहीं है. अमीरों ने हमेशा गरीबों से सामाजिक दूरी बनाई, हिंदू और मुसलमानों ने आपस में दूरियां बनाईं और जाति व्यवस्था तो इसी कौंसेप्ट पर टिकी हुई है. जहां किसी नंगेली को अपनी छाती को कपड़े से ढकने के लिए टैक्स देने के विरोध में अपना स्तन काटना पड़ गया हो, जहां आर बी मोरे और आंबेडकर को तालाब से पानी पीने के लिए आंदोलन करना पड़ा गया हो, वहां जाति व्यवस्था में सामाजिक दूरी का आकलन किया जा सकता है.

यही कारण है कि देश में गांव से शहरों की तरफ माइग्रेट करने की सब से ज्यादा अगर किसी तबके ने चाहत दिखाई तो वह दलित तबका था और है. यह चाहत न सिर्फ अपनी स्थिति को बदलने की थी बल्कि गांव में जाति व्यवस्था के तानेबाने से छुटकारा पाने से भी थी. लेकिन उन्हें क्या पता था कि गांव में छोड़ी हुई वर्ण व्यवस्था शहर में आ कर वर्ग व्यवस्था में तबदील हो जाती है.

आज शहर से वापस अपने घरों की तरफ लौटने को मजबूर बहुत से प्रवासी मजदूर दलित समुदाय से हैं. जो शहरों में कंस्ट्रक्शन के काम, सफाई के काम या किसी फैक्ट्री में मजदूरी, छोटेमोटे इत्यादि कामों में लगे हए थे. आज ये लोग अपने गांव की तरफ वापस जाने को मजबूर हुए हैं. किन्तु इन के आगे पुरानी समस्या नए रूप में बांहें खोले खड़ी है.

ये भी पढ़ें-पैसा कमाने- काढ़े के कारोबार की जुगाड़ में बाबा रामदेव

भारत की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि जातिवाद की पीड़ाओं से भरी हुई है, जिस के पन्ने अगर खोलते हुए चलें तो फूलन और भंवरी देवी इत्यादि जैसे नाम सामने आने लगेंगे. आज अगर शहरीनुमा लोगों को देश से जातिवाद ख़त्म हो चुकने की ग़लतफ़हमी हो तो एक बार फिर से इस पर विचार करें और गांव की साफ़ हवा के साथसाथ जातिवाद की बहती हवा को भी महसूस करें. आज भी गांव में रह रहे लोग जातियों के हिसाब से टोलों में बंटे होते हैं. हो सकता है आज गांव का कोई दलित बुलेट मोटरसाइकिल चलाता दिख जाए लेकिन स्वर्ण जाति के लोग उसे इसी बात पर पीटने का दंभ आज भी रखते हैं.

शादी में दलित दूल्हे के मूंछें रखने, घोड़ी पर चढ़ने पर राजपूतों द्वारा पीटने की खबरें सुनने को अभी भी मिल जाती हैं. यहां तक कि दलित की शादी में बाजा तक बजाने नहीं दिया जाता. आज भी गांवों में खाप पंचायत से ले कर, चल रहे पुराने पेशों (कामों) तक में जातिवाद की दुर्गंध महसूस की जा सकती है. क्या यह हाल ही का उदाहरण नहीं कि एक ‘उच्च जाति’ को गौरवान्वित करने वाली फिल्म सिनेमा के परदे पर लग जाती है और देश में जातीय अहंकार से भरी ‘करणी सेना’, जो खुद को राजपूतों का प्रतिनिधि बताती है, सड़कों पर बवाल काटने लग जाती है, इसी हुंकार में यही लोग न्यूज चैनलों पर तलवार ले कर पहुँच जाते हैं और राष्ट्रीय चैनलों पर महिलाओं के जोहर (सतीप्रथा), जो प्रतिबंधित है, का बखान खुल कर करने लगते हैं. और हमारी सरकार उन के आगे घुटने टेकते हुए दिखाई देती है.

अगर प्रवासी मजदूर रास्ते में किसी ट्रेन या बस के नीचे न आए हों तो यह जरूर है कि आज शहर से गांव की तरफ पहुंचे ये लोग अपार ख़ुशी का अनुभव कर रहे होंगे. कम से कम गांव की हवा और पानी शहर से बेहतर तो हैं लेकिन एक सच यह भी है कि जिन चापाकल और कुएं से पीने का पानी मिलता है वे ज्यादातर गांव में ठाकुरों के कब्जे में हैं. और गांव के भीतर बाजार घुस चुकने से यह पानी प्रभुत्वशाली जाति के लोगों से खरीदना पड़ेगा.

इस के इतर यह संभव है कि उन्हें शहर की तरह किसी फ्लाईओवर या रोड के किनारे सोना नहीं पड़ेगा लेकिन  संभवतया गांव पहुंच कर भी मखमल से सजा बिस्तर नसीब नहीं होगा बल्कि वही पतली बांस की चटाई के साथ फटी हुई चादर ही मिलेगी. मकान ऐसा जिस की मिटटी से बनी दीवारें और घासपूस का छप्पर जो एक बारिश पड़ने पर हर साल की भांति बह जाए. साथ ही अनाज के लिए भी पैसों की जरूरत महसूस होती ही है. और यह बताने की जरूरत नहीं कि आज भी गांव में जमीनों पर बड़ेबड़े जमीदारों, जो ख़ास जाति से संबंध रखते हैं, उन्हीं का कब्ज़ा रहता है. उन के द्वारा येनकेन प्रकारेण कब्जाए खेतों में हाड़तोड़ काम कर उसी अनाज को जमींदारों अथवा बाजार से खरीदना ही पड़ेगा. जहिर है प्रधानमंत्री नरन्द्र मोदी ने बातों में ही आत्मनिर्भर होने को कहा है लेकिन गांव की हकीकत यह है कि आज भी समाज का पिछड़ा तबका जमींदारों की जमीनों पर ही निर्भर है जिन पर खेतमजदूरी कर के अपने लिए सुखी रोटी का इंतजाम करता है.

जाहिर है आज गांव लौटे प्रवासी मजदूरों को भूख की समस्या के साथ जाति की समस्या भी झेलनी पड़ सकती है. तमिलनाडु इस का ज्वलंत उदाहरण है जहां से खबर आई है कि लौकडाउन के दौरान दलितों पर अत्याचार बढ़ने लगे हैं. यह भी देखने में आया है कि गांव में जाति आधारित हिंसा में बढ़ोतरी हुई हैं. ऐसे में शहर से गए हुए प्रवासी मजदूर अपनेअपने टोलों (जाती आधारित बने समूह) के भीतर ही जाएंगे, जिन का बनाया जाना ही जातिगत पहचान को बनाए रखने के लिए है. गांव में खाप पंचायत के अपने नियमकानून चलते रहते हैं. ऐसें में कोरोना के कारण आया यह नया बदलाव समाज की धुरी किस तरफ घुमाएगा, इसे देखना बाकी है.

हैंड सैनिटाइजर खरीदने से पहले जान लें

कोरोना वायरस के चलते हैंड सैनिटाइजर की मांग तेजी से बड़ी है. घर से बाहर, औफिस, बस, मैट्रो, स्कूल आदि में जहां बारबार पानी और साबुन का उपयोग संभव नहीं होता, वहां हैंड सैनिटाइजर हाथों को साफ करने में सब से असरदार है. हैंड सैनिटाइजर तरल, जेल व फोम में उपलब्ध होता है जो हाथों से संक्रामक एजेंटों को नष्ट करता है. यह एजेंट बैकटीरिया, वायरस व अन्य रोगाणु हो सकते हैं. हाथों को साबुनपानी से धोए जाने को अधिक असरदार माना जाता है परंतु साबुन न होने पर हैंड सैनिटाइजर का उपयोग अनिवार्य है. हैंड सैनिटाइजर कुछ रोगाणुओं को खत्म करने में कारगर नहीं होता जैसे नोरोवायरस, क्लोस्ट्रीडियम डिफ्फिसिल रसायन व अन्य हार्मफुल केमिकल्स.

हैंड सैनिटाइजर की बढ़ती मांग के चलते अनेक ब्रांड इसे बनाने लगे हैं. बाजार में उपलब्ध डेटोल, लाइफबौय, हिमालया, डाबर आदि ब्रांड के हैंड सैनिटाइजर मुख्य हैं.

हैंड सैनिटाइजर की कमी मार्च के शुरुआती महीने में भी देखने को मिली थी जब भारत में कोरोना का कहर टूटा था और सभी दुकानों से हैंड सैनिटाइजर आउट औफ स्टोक हो गए थे.

ये भी पढ़ें-पैरों में सूजन हाई बीपी की निशानी

बड़ी कंपनियों के हैंड सैनिटाइजर की कमी को पूरा न करने के चलते छोटे निर्माता मैदान में कूदे जिस के चलते जल्द ही नकली हैंड सैनिटाइजर भी बाजार में आ गए. मार्च के दूसरे हफ्ते में ही हैदराबाद से नकली हैंड सैनिटाइजर की 25 हजार बोतलें बरामद की गई थीं. हैंड सैनिटाइजर के बड़े दामों और नकली सैनिटाइजर के बाजार में आने से लोगों के लिए केवल मुश्किल ही खड़ी हुई है.

ऐसे में यह जान लेना बेहद जरूरी है कि हमें किस तरह के हैंड सैनिटाइजर का प्रयोग करना चाहिए व हैंड सैनिटाइजर खरीदते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए.

अल्कोहल बेस्ड व नोन अल्कोहल बेस्ड

हैंड सैनिटाइजर के दो मुख्य प्रकार हैं अल्कोहल बेस्ड व नोन अल्कोहल बेस्ड हैंड सैनिटाइजर.

ये भी पढ़ें-लू से बचने के लिए काम आएंगे ये घरेलू टिप्स 

अल्कोहल बेस्ड हैंड सैनिटाइजर में 60 से 95 फीसदी अल्कोहल की मात्रा होती है. इस में अधिकतर आइसोप्रोपिल, इथेनोल और प्रोपेनोल अल्कोहल का इस्तेमाल होता है. अल्कोहल बेस्ड सैनिटाइजर एमआरएसए व ई-कोलाए बैक्टीरिया को मारने में भी असरदार है. साथ ही, इंफ्लुएंजा ए वायरस, फ्लू वायरस, कोल्ड वायरस, राइनो वायरस, एचआईवी व मिडल ईस्ट रैसपिरेटोरी सिंड्रोम कोरोनावायरस अर्थात मर्स-कोव पर भी असरदार साबित हुआ है.

अल्कोहल रब सैनिटाइजर अधिकतर बैक्टीरिया और फंगी को मारते हैं व वायरस को रोकते हैं. 70 फीसदी से ज्यादा अल्कोहल (अधिकतर इथेनोल) की मात्रा वाला सैनिटाइजर इस्तेमाल के 30 सैकंड में 99.99 फीसदी बैक्टीरिया को खत्म कर देता है.

सैनिटाइजर में अल्कोहल होने से वह हाथों की त्वचा से वायरस को घेरने वाले एनवेलप प्रोटीन को नष्ट करता है. जिन सैनिटाइजर में अल्कोहल की मात्रा 60 फीसदी से कम होती है वे वायरस नष्ट करने में कम प्रभावी होते हैं अथवा अप्रभावी होते हैं. यह विविध सूक्ष्मजीवों को नष्ट करता है परंतु बीजाणुओं को नहीं.

अल्कोहल बेस्ड हैंड सैनिटाइजर में ग्लिसरोल कम्पाउंड मिलाया जाता है जिस से यह स्किन को अत्यधिक ड्राइ न करे. कुछ में सुगंध भी डाली जाती है, परंतु इस के इस्तेमाल को रोका जाता है क्योंकि इस से एलर्जी रिएक्शन का खतरा होता है.

अल्कोहल फ्री हैंड सैनिटाइजर में क्वाटरनरी अमोनियम कम्पाउंड्स का इस्तेमाल होता है. इन में बेंजालोनियम क्लोराइड या ट्राइक्लोसन का उपयोग भी होता है. इस सैनिटाइजर से भी रोगाणुओं की संख्या कम होती है परंतु यह अल्कोहल बेस्ड सैनिटाइजर से कम असरदार होता है.

हालांकि, अल्कोहल फ्री हैंड सैनिटाइजर त्वचा पर तुरंत प्रभावी हो सकता है, लेकिन अधिक समय तक रखे रहने से खुद दूषित हो सकता है. अल्कोहल इन-सोल्यूशन प्रीजरवेटिव है और इस के बिना सैनिटाइजर कंटेमिनेट या संदूषित हो सकता है.

हैंड सैनिटाइजर का उपयोग

हैंड सैनिटाइजर बीमारी फैलाने वाले रोगाणुओं से बचाते हैं, खासकर तब जब आप के आसपास साबुन और पानी न हो. यह रोगाणुओं की संख्या  को भी कम करते हैं.

ये भी पढ़ें-प्राइवेट पार्ट्स को न करें अनदेखा

1.हैंड सैनिटाइजर को हथेली के बीचोंबीच डाल कर हाथों पर अच्छी तरह फैलाएं. दोनों हाथों को अच्छी तरह रगड़ें. सैनिटाइजर को हाथों पर तबतक रगड़ें जबतक वह सूख न जाए.

2.सैनिटाइजर सूखने से पहले उसे पानी से न धो लें और न ही किसी कपड़े से पोंछें.

3.सैनिटाइजर का प्रयोग कभी भी आग के आसपास, किचन में गैस बरनर के पास खड़े हो कर किसी भी जलती हुई चीज के पास जा कर न करें. हैंड सैनिटाइजर ज्वलनशील होता है इसलिए इस के इस्तेमाल में सावधानी बरतें.

4.यदि आप के हाथ मिट्टी में सने हों, तैलीय हों या अत्यधिक गंदे हों तो उस पर हैंड सैनिटाइजर का इस्तेमाल न करें. सैनिटाइजर गंदे हाथों पर रोगाणु खत्म नहीं कर सकता. हाथों को पानी और साबुन से धोएं.

5.दूषित पदार्थ जैसे भारी धातु अथवा मेटल व कीटनाशक को हटाने के लिए हैंड सैनिटाइजर उपयुक्त नहीं है.

6.अल्कोहल की कम मात्रा वाले हैंड सैनिटाइजर व घर पर बनाए सैनिटाइजर में अल्कोहल की सांद्रता कम होती है जिस से वे रोगाणुओं को मारने में अधिक असरदार नहीं होते.

सैंटर फौर डिजीज एंड प्रिवेंशन के अनुसार, सभी को अल्कोहल बेस्ड हैंड सैनिटाइजर का उपयोग करना चाहिए जिस में अल्कोहल की मात्रा 60 फीसदी से ज्यादा हो. हैंड सैनिटाइजर खरीदते समय उस की मेनुफेक्चरिंग डेट देखना कभी न भूलें. जहां तक संभव हो ब्रांडेड सैनिटाइजर ही खरीदें.

सावधानी बरतना जरूरी है

रेवाड़ी, हरियाणा के 44 वर्षीय व्यक्ति ने किचन में हैंड सैनिटाइजर के इस्तेमाल के चलते खुद को 35 फीसदी जला लिया. कोरोना वायरस के भय के चलते लोग लगातार हैंड सैनिटाइजर का उपयोग कर रहे हैं. यह व्यक्ति भी किचन में अपने फोन व चाबी आदि को सैनिटाइज कर रहा था जहां उस की पत्नी पास खड़ी खाना बना रही थी. सफाई करते समय उस के कुर्ते पर सैनिटाइजर गिर गया जिस से कुर्ते ने आग पकड़ ली. उस व्यक्ति का मुंह, गर्दन, छाती, पेट व दोनों हाथ आग में झुलस गए.

जैसा कि पहले भी बताया गया है कि हैंड सैनिटाइजर में अल्कोहल की अधिक मात्रा होने से वह ज्वलनशील हो जाता है व आग की लपटों में आ सकता है.

ये भी पढ़ें-जून-जुलाई में पीक पर होगा कोरोना, ऐसे रखें अपना ध्यान

बढ़ती गरमी को देखते हुए हैल्थ औफिशियल्स का कहना है कि हैंड सैनिटाइजर को अधिक तापमान वाली जगह पर न रखें. इसे कार में रखने से भी मना किया गया है.

हैंड सैनिटाइजर की रंगबिरंगी बोतलें व सुगंध के चलते इसे बच्चों से दूर रखना अनिवार्य है. बच्चे इसे पी भी सकते हैं जिस से उन्हें अल्कोहल पोइजनिंग व अन्य हैल्थ रिस्क हो सकते हैं,  इसलिए इसे बच्चों की पहुंच से दूर रखना जरूरी है.

हैंड सैनिटाइजर के अत्यधिक इस्तेमाल से त्वचा की ऊपरी परत से ओयल हट सकता है. आप घर पर हैं तो पानी और साबुन का ही इस्तेमाल करें.

लौकडाउन में इस विधि से करें भंडारण सुरक्षित रहेगा अनाज

लेखक- सुरेश कुमार कन्नौजिया

इस समय किसानों ने सरसों, चना, अलसी, गेहूं की कटाई शुरू कर दी है. फसलों की कटाई के बाद कुछ समय के लिए इन का भंडारण करना होता है. यह समय कटाई से अगली बोआई तक या कटाई से बेचने तक होता है. भंडारण की सही जानकारी न होने के कारण 20-25 फीसदी तक अनाज नमी, दीमक, घुन, चूहों द्वारा नष्ट हो जाता है, इसलिए अनाज को लंबे समय तक सुरक्षित रखने के लिए इन विधियों को अपना सकते हैं.

भंडारण की सही जानकारी न होने से 10 से 15 फीसदी तक अनाज नमी, दीमक, घुन, बैक्टीरिया द्वारा बरबाद हो जाता है. अनाज को रखने के लिए गोदाम की सफाई कर दीमक और पुराने अवशेष आदि को बाहर निकाल कर जला कर नष्ट कर दें. दीवारों, फर्श व जमीन आदि में यदि दरार हो तो उन्हें सीमेंट, ईंट की मदद से बंद कर दें. टूटी दीवारों आदि की मरम्मत करा दें. भंडारण में होने वाले इस नुकसान को रोकने के लिए किसान इन सुझावों को ध्यान में रख कर अनाज को भंडारित कर सकते हैं :

ये भी पढ़ें- फीका होता आम

अनाजों को अच्छी तरह से साफसुथरा कर धूप में सुखा लेना चाहिए, जिस से कि दानों में 10 फीसदी से अधिक नमी न रहने पाए. अनाज में ज्यादा नमी रहने से फफूंद व कीटों का हमला अधिक होता है. अनाज को सुखाने के बाद दांत से तोड़ने पर कट की आवाज करे तो समझ लेना चाहिए कि अनाज भंडारण के लायक सूख गया है. बोरियों में अनाज भर कर रखने से पहले इन बोरियों को 20-25 मिनट तक खौलते पानी में डाल देना चाहिए. इस के बाद धूप में अच्छी तरह सुखा लेना चाहिए या छिड़काव के लिए बने मैलाथियान 50 फीसदी के घोल में बोरियों को डुबो कर फिर बाहर निकाल कर सुखा लेना चाहिए.

ये भी पढ़ें-अदरक की खेती

ठीक से सूख जाने के बाद ही उस में अनाज भरना चाहिए. खुले हुए अनाज पर सीधे सूखे या तरल कीटनाशी का प्रयोग नहीं करना चाहिए. चूहा शंकालु प्रकृति का होता है, इसलिए बदलबदल कर विषाक्त चारा, चूहेदानी और टिकिया का प्रयोग करना चाहिए. अनाज में दवा डालने के बाद साबुन से अच्छी तरह हाथ धो लें.

ये भी पढ़ें-आदर्श पोषण वाटिका घर आंगन में उगाएं सब्जियां

भंडारण में एलुमीनियम फास्फाइड 2 से 3 गोली प्रति टन की दर से प्रयोग करें और भंडारण कक्ष पूरी तरह से वायुरोधी होना चाहिए, ताकि एलुमीनियम फास्फाइड गैस से कीट प्रतिरोधक क्षमता ज्यादा समय तक बनी रहे. अनाज का भंडारण करते समय हवा के रुख को जरूर ध्यान में रखें. अगर पुरवा हवा चल रही हो तब अनाज का भंडारण न करें. अनाज के भंडारण में नीम की पत्ती का प्रयोग करते समय नीम की पत्तियां सूखी होनी चाहिए. इस के लिए नीम की पत्तियों को भंडारण से 15 दिन पहले किसी छायादार जगह पर कागज पर रख कर सुखा लें.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें