Download App

पाकिस्तान में नई सरकार

पाकिस्तान में नई सरकार बन गई है और 2 बार पहले प्रधानमंत्री रह चुके नवाज शरीफ ने अपनी शेर वाली पार्टी पाकिस्तान मुसलिम लीग को

जिता कर पहली बार शांतिपूर्वक सत्ता हस्तांतरण कर लिया है. पर पाकिस्तान में कुछ बदला है, उस के आसार नहीं दिख रहे हैं. 63 वर्षीय नवाज शरीफ अभी भी मुख्यत: केवल पंजाब के नेता हैं जबकि पाकिस्तान की समस्याएं सिंध, बलूचिस्तान आदि में हैं जहां नवाज शरीफ की नहीं चलती.

पाकिस्तान में बड़ा शक्ति केंद्र सेना है और सेना ने नागरिक सत्ता के आगे घुटने टेकने का कोई वादा नहीं किया है. सेना अपने द्वंद्वों में फंसी है क्योंकि तालिबान उस पर हावी हो रहे हैं और अमेरिका व चीन को उस की अब जरूरत नहीं है. पाकिस्तानी सेना की ब्लैकमेल की ताकत कम हो गई है पर वह कभी भी इस्लामाबाद में टैंक भेज कर चुनावों के परिणामों को मटियामेट कर सकती है.

दूसरे देशों की तरह पाकिस्तान की युवा जनता अब अपना जोर दिखाने लगी है. इस बार ज्यादा मतदान हुआ, उस का कारण यही था कि युवाओं ने ज्यादा रुचि ली. ये वही युवा हैं जो 10 साल पहले मसजिदों की सुनते थे. अब ये इंटरनैट, फेसबुक, एसएमएस की भाषा के दीवाने होने लगे हैं और दुनिया के युवाओं के साथ कदम मिलाने को तैयार हैं.

आज कोई भी देश अपनेआप में द्वीप नहीं है. धर्म, जाति, भूगोल के नाम पर आज जनता को बहकाना मुश्किल होता जा रहा है. हर युवा अपने लिए एक मोबाइल, एक कंप्यूटर, कई जोड़े जींस या टीशर्टें चाहता है और वह धार्मिक व पारंपरिक पोशाक पहन कर अपनी सोच पर ताला नहीं लगाना चाहता. धर्म के दुकानदार अब दोगुनी मेहनत कर के उन्हें पुरानी पट्टी पढ़ा रहे हैं पर भेड़ों के झुंडों में से बहुत सी हाथ से निकलने लगी हैं, पाकिस्तान के चुनावों ने यह साबित किया है.

नवाज शरीफ के बाद पाकिस्तान में कोई अंतर आएगा या भारत और पाकिस्तान के संबंध सुधरेंगे, इस की कोई गारंटी नहीं. कैमरों के सामने तो चिकनीचुपड़ी बातें होंगी, पर फैसले निजी मतलब के हिसाब से ही लिए जाएंगे. पाकिस्तानी जनता के लिए कश्मीर अभी भी अफीम की गोली की तरह है जिसे खिला कर मनचाहा काम कराया जा सकता है और सेना इसे कब इस्तेमाल कर ले, कब दूसरा कारगिल हो जाए, कोई गारंटी नहीं.

फिलहाल, सिर्फ इतना संतोष काफी है कि पाकिस्तान एक कदम तो आगे बढ़ेगा. उम्मीद यही करें कि हम भारत में पाकिस्तान को उकसाने वाला कोई काम न करें. नरेंद्र मोदी के पिछले बयानों को सुनें तो लगता है कि वे किसी भी कीमत पर पाकिस्तान से मोरचा खोलना चाहेंगे और अगर ऐसा हुआ तो इन शांतिपूर्वक चुनावों की कब्र खुदते देर न लगेगी.

नक्सलियों की हरकत

लोकतंत्र में नक्सली आंदोलन की कोई जगह नहीं है और जिस तरह से नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ की झीरम घाटी में परिवर्तन यात्रा पर जा रहे कांग्रेसी नेताओं को चुनचुन कर मारा उस की तो कोई भी वजह सही नहीं हो सकती. पश्चिम बंगाल से ले कर आंध्र प्रदेश तक की पहाडि़यों में फैले नक्सलियों की शिकायतें जो?भी हों, वे राजनीति में बंदूक नीति को थोप नहीं सकते.

नक्सली चाहे अब खुश हो लें कि उन्होंने नक्सल विरोधी सलवा जुडूम के संचालक महेंद्र कर्मा को मार डाला है और अपने हजारों साथियों की मौत का बदला लिया है. पर सच यह है कि यह हमला उन पर भारी पड़ेगा क्योंकि जो सहानुभूति उन्हें अब तक मीडिया, विचारकों व अदालतों से मिलती भी थी, वह अब गायब हो जाएगी और नक्सलवाद का हाल अलकायदा का सा हो जाएगा.

इस में संदेह नहीं कि पिछले 50-60 सालों में पहाड़ी क्षेत्रों के आदिवासियों को शहरियों ने जम कर लूटा है. उन्हें अछूत तो माना ही गया, उन की जमीनों, गांवों, जंगलों पर कब्जा कर के शहर, सड़कें, फैक्ट्रियां भी बना डाली गईं और खानों से अरबोंखरबों का खनिज निकाल लिया गया. अब जब वे मुखर होने लगे तो कानूनों का हवाला दे कर उन का मुंह बंद करने की कोशिश की गई. बहाना बनाया गया विकास के लिए यह जरूरी था, पर किस के विकास के लिए? विकास हुआ तो शहरियों का, अफसरों का, नेताओं का, ठेकेदारों का और अमीरों का.

राजनीति और लोकतंत्र भी उन्हें बहुमत होने के बावजूद मुक्त न कर सके क्योंकि सरकार शहरियों की बनती और आदिवासियों के चुने लोगों को खरीद कर पालतू बना लिया जाता. 2-3 दशक तक तो आदिवासी चुपचाप देखते रहे, पर बाद में उन में से मुखर लोगों ने हिंसात्मक रुख अपना कर प्रतिशोध लेना शुरू किया. बदले में सरकार ने और अधिक शक्ति का प्रयोग किया. नतीजा यह है कि कल तक के डरपोक आदिवासी आज अपनी सेनाएं बना कर हमले कर रहे हैं.

परेशानी यह है कि सरकार और समाज पूरे मामले को अपने नजरिए से देखते हैं. आदिवासियों को दोवक्त का खाना दे दिया, थोड़ीबहुत पढ़ाई दे दी, कुछ चिकित्सा सुविधा दे दी, क्या काफी नहीं है? जब शहरी शान हर रोज बढ़ रही हो तो इन दबेकुचलों का सम्मान भी बढ़ना चाहिए, पर उस के बदले इन्हें पुलिस और बंदूक को सहना पड़ रहा है.

आदिवासी यह मान कर चल रहे हैं कि सफेदपोश उन्हें कभी न्याय न देंगे और उन्हें जो मिलेगा, लड़ कर मिलेगा, चाहे इस के लिए कितनी जानें जाएं. इन में निर्दोष भी मरेंगे और नीतिनिर्धारक भी.

उन के ताजा हमले के बाद सरकार और ज्यादा क्रूर होगी. अब हैलीकौप्टर ही नहीं, ड्रोन भी इस्तेमाल होंगे. चप्पाचप्पा सैटेलाइटों से देखा जा सकेगा. आदिवासी नक्सल नई तकनीक के आगे भला कितनी देर टिक सकेंगे. उन्हें जो लोकतंत्र दे सकता था, वह भी उन के हाथों से छिन जाएगा. जो नक्सली पक्ष को समझते हैं वे भी उन के इन गुनाहों को अब माफ न कर पाएंगे.

देहदान : परिजनों की आपत्ति पर सरकार सख्त

कोलकाता के जानेमाने कवि सुभाष मुखोपाध्याय और कथाकार व कवि सुनील गंगोपाध्याय जैसे और भी कई विशिष्ट जन से ले कर आमजन भी मरणोपरांत देहदान के लिए वचनबद्ध हुए और इस के लिए कागजी खानापूर्ति भी की. लेकिन ज्यादातर मामलों में पाया गया कि वचनबद्धता के बावजूद पारिवारिक आपत्ति के कारण आखिरकार देहदान नहीं हुआ.

सख्त कानून की तैयारी

साल 2013 में तमिलनाडु सरकार ने मरणोपरांत देहदान संबंधी कानून में संशोधन किया है. गणदर्पण नामक संस्था के अध्यक्ष ब्रज राय का कहना है कि ज्यादातर मामलों में देखा जाता है कि देहदान व अंगदान की वचनबद्धता के बावजूद परिवार की ओर से मृत्यु की खबर संस्था को दी ही नहीं जाती. अकसर ऐसा भी होता है कि खबर देने के बावजूद अंतिम समय में परिवार के सदस्य देहदान से पीछे हट जाते हैं.

अब पश्चिम बंगाल के प्रस्तावित कानून के ड्राफ्ट में इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि अंग व देहदान कर देने के बाद करीबी रिश्तेदारों की आपत्ति को तूल न दिया जा सके. इस के लिए देह व अंगदान के इच्छापत्र के साथ ही संबंधित करीबी रिश्तेदारों को सम्मतिसूचक हलफनामा देना आवश्यक कर दिया जाएगा.

मनोज चौधुरी का कहना है कि जिस तरह तमिलनाडु में कानून संशोधित कर मरणोपरांत देह व अंगदान के रास्ते में आने वाली अड़चन को रोका जा सकता है, हमारी राज्य सरकार भी उसी रास्ते पर चलने की तैयारी में है. अब तक कानून के होते हुए भी मानवीय कारणों से पारिवारिक आपत्ति को मान लिया जाता रहा है पर अब ऐसा नहीं होगा.

क्या कहते हैं आंकड़े

गणदर्पण के अध्यक्ष ब्रज राय का कहना है कि बंगाल में लगभग 3 दशक पहले दकियानूसी विचारों को त्यागते हुए काफी लोगों ने मरणोपरांत नेत्रदान व देहदान करना शुरू किया. राज्य में इस चलन का श्रेय गणदर्पण और उदयेर पथे जैसी स्वयंसेवी संस्थाओं को जाता है. पिछले 3 दशकों में पश्चिम बंगाल में 10 लाख से ज्यादा लोगों ने विभिन्न संस्थानों के जरिए अंगदान व देहदान के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखाई है.

राज्य में अब तक 7 हजार से भी अधिक लोगों ने अंगदान किया है. इस में 3 किडनी दान और 1 लिवर के अलावा शेष नेत्रदान के मामले हैं. 2 हजार मामले मरणोपरांत देहदान के हैं. लेकिन अब तक लगभग 5 हजार से अधिक मामलों में करीबी सगेसंबंधियों की आपत्ति के कारण अंगदान व देहदान नहीं हुआ. इस फेहरिस्त में आम लोगों के साथ विशिष्टजन भी शामिल हैं.

वामपंथी बुद्धिजीवी चिन्मोहन सेहानविश ने देहदान किया था. लेकिन उन की मृत्यु के बाद उन की पत्नी उमा सेहानविश की आपत्ति के कारण चिन्मोहन सेहानविश का श्मशान में अंतिम संस्कार कर दिया गया. इसी तरह 2003 में पश्चिम बंगाल के प्रख्यात वामपंथी कवि सुभाष मुखोपाध्याय की मृत्यु के बाद उन की पत्नी गीता मुखोपाध्याय भी देहदान के लिए तैयार नहीं हुईं और सुभाष मुखोपाध्याय का भी अंतिम संस्कार कर दिया गया.  दिसंबर 2012 में कथाकार व कवि सुनील गंगोपाध्याय की पत्नी स्वाति और पुत्र शौभिक गंगोपाध्याय ने भी यही किया.

देहदान की पृष्ठभूमि

पश्चिम बंगाल में यह धारणा बन चुकी है कि मरने के बाद देह का दाहसंस्कार कर देने या कब्र में सुला देने से कहीं अच्छा है कि वह किसी के काम आ जाए. यानी मृत परिजन का अंग अन्य किसी के शरीर में जीवित रहे. इस की पृष्ठभूमि में जो कारण है उस के पीछे मानवता की महती भावना ही रही है. अंगदान के अलावा देहदान की जरूरत शोध के लिए भी है.

दरअसल, राज्य में 7 सरकारी अस्पताल हैं. इन अस्पतालों के एनाटोमी विभाग में हर साल लगभग 150 मृतदेह की जरूरत पड़ती है. लावारिस लाशों से कुछ जरूरत भले ही पूरी हो जाती है पर वे नाकाफी हैं. यही जरूरत राज्य के देहदान आंदोलन की पृष्ठभूमि बनी. 1990 में राज्य में पहला देहदान हुआ. तब से ले कर अब तक यह संख्या लाखों में पहुंच गई है.

वहीं, जहां तक देश में अंगदान या नेत्रदान का सवाल है तो अमिताभ बच्चन, जया बच्चन, ऐश्वर्या राय और अभिषेक बच्चन ने नेत्रदान कर देशवासियों के लिए एक मिसाल कायम की है.

अंग प्रतिस्थापन

विज्ञान की यह बड़ी सफलता ही है कि  मानव शरीर का लगभग हर अंग व हरेक हिस्से का प्रतिस्थापन किया जा सकता है. ऐसे मामले में धनी और रसूख वाले लोगों की जरूरत तो पूरी हो भी जाती है लेकिन गरीब वंचित रह जाता है. उधर, अमीरों के लिए तो तमाम सरकारी व गैरसरकारी अस्पतालों में बाकायदा रैकेट भी चल रहे हैं. गांव के गरीब व भोलेभाले लोगों को बहलाफुसला कर शहर लाया जा रहा है और यहां उन की किडनी झटक ली जाती है.

राह का रोड़ा

देहदान व अंगदान में सब से पहली अड़चन धार्मिक कुसंस्कार है. इस के चलते दान की प्रतिबद्धता के बावजूद मृतक के परिजन इस से पीछे हट जाते हैं. धार्मिक कुसंस्कारों के अलावा जिन परिवारों की ओर से मृत व्यक्ति के देहदान पर आपत्ति की गई है, उन का अपना एक अलग पक्ष है. एक मुखर्जी परिवार का कहना है कि अकसर सुनने में आता है कि दान किए गए अंग समय पर काम में न लाए जाने से लावारिस की तरह पड़ेपड़े नष्ट हो जाते हैं, जो परिजनों के लिए तकलीफदेह बात है. मृतक की देह की दुर्गति के भय से परिजन आखिरकार अंत्येष्टि करने का फैसला करते हैं. खड़दह की पारुलबाला के परिजनों के साथ ऐसा ही हुआ.

खड़दह से कोलकाता और फिर कोलकाता में एक सरकारी अस्पताल से दूसरे अस्पताल के चक्कर काटने और अस्पतालों में कर्मचारियों के दुर्व्यवहार से तंग आ कर पारुलबाला के बेटे ने उन का अंतिम संस्कार कर दिया. शिकायत यह है कि पहले ही परिजन की मृत्यु से टूट चुके परिवार के सदस्यों को देहदान व अंगदान के लिए अस्पताल में दरदर भटकना पड़ता है. गुप्ता परिवार का कहना है कि सरकारी अस्पताल के कर्मचारियों के आचरण से क्षुब्ध हो कर परिजन श्मशान का रास्ता देखने को मजबूर होते हैं.

गौरतलब है कि 2001 में राज्य स्वास्थ्य विभाग की ओर से तमाम सरकारी अस्पतालों को स्पष्ट निर्देश भेजा गया था कि अस्पताल में बौडी ले कर आए परिजनों को किसी तरह की परेशानी नहीं होनी चाहिए. निर्देश में साफसाफ कहा गया कि अगर उस समय अस्पताल खुला न हो तो बौडी स्वीकार करने संबंधी कार्यवाही की जिम्मेदारी मैडिकल कालेज के सुपर की बनती है. मैडिकल कालेज के सुपर की अनुपस्थिति में इस की जिम्मेदारी कनिष्ठ अधिकारी की होगी.

बारी के इंतजार में बाट जोहते लोगों की कतार बहुत लंबी है. यह बात अकेले बंगाल की नहीं, बल्कि देश के अन्य हिस्सों में भी कमोबेश ऐसे ही हालात हैं. कुल मिला कर कागजी खानापूर्ति के बाद भले ही लगे कि हम ने कोई बड़ा ही महान काम किया है पर इस अंगदान जैसे महादान को जो सम्मान मिलना चाहिए वह फिलहाल तो नहीं मिल पा रहा है.

यह भी खूब रही

एक बार मैं और मेरे पति नेपाल के गौड़ शहर से बिहार के बैरगिनिया आ रहे थे. हम लोग बैरगिनिया में प्रवेश कर रहे थे कि सीमा सुरक्षा बल के जवानों द्वारा रुकने का इशारा किया गया. जवानों ने कुछ सवाल पूछने के बाद बाइक के कागजात मांगे. इन्होंने कागज घर पर छोड़ आने की बात कही. एक जवान ने मेरी तरफ इशारा कर के कहा, ‘‘जिस को घर पर छोड़ आना चाहिए उस को साथ ले कर घूम रहे हो और जिस को साथ ले कर चलना चाहिए उस को घर पर छोड़ आए हो.’’ उन की बातें सुन कर हम लोग हंस कर चल दिए.

पारुल देवी, मुजफ्फरपुर (बिहार)

 

हमारे घर के पिछवाडे़ बने कमरे में पापा के औफिस का चपरासी रहता था. एक दिन वह हैंडपंप पर नहा रहा था. उस ने अपनी शर्ट, अहाते में लगे पेड़ की टहनी पर टांग दी थी.

अचानक एक कौआ उड़ता हुआ आया और कमीज की जेब से रुमाल में बंधी नोटों की गड्डी, चोंच में दबा कर उड़ गया और एक अन्य पेड़ पर बैठ गया. उस ने कौए को डराया ताकि वह गड्डी छोड़ दे लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अब वह घर से कुछ दूर दूसरे पेड़ पर जा बैठा. चपरासी लकड़ी ले कर उस पेड़ की तरफ दौड़ा. काफी देर बाद कौए की चोंच से नोटों की गड्डी गिरी तो उस ने राहत की सांस ली.

शशि कटियार, कानपुर (उ.प्र.)

 

मेरे एक दोस्त आईआईटी में प्रोफैसर हैं. उन का बेटा प्रत्यूष शंकर पढ़ने में बहुत तेज है. खेल की तरफ भी उस का बहुत रु झान है. एक दिन उस के पापाजी ने कहा कि बेटा, तुम्हारी परीक्षाएं पास आ रहीं हैं. थोड़ी पढ़ाई कर लो.

पापा की बात सुन कर वह कहने लगा, ‘‘पापाजी, हमें समय नहीं है. आप हमारा कोर्स पढ़ लीजिए. हम आप से संक्षेप में सम झ लेंगे.’’ तब प्रोफैसर का मुंह देखने लायक था.

कांति जैन, कानपुर (उ.प्र.)

 

नयानया फेसबुक अकाउंट खोल कर हम दोनों पतिपत्नी बहुत उत्साहित थे. फुरसत पाते ही फेसबुक पर नएनए मित्र बनाने और अन्य जानकारियों को देखने में लगे रहते. बिटिया 10वीं में पढ़ती थी. वह अकसर अपनी पढ़ाई के बारे में पूछती रहती. एक दिन हम कंप्यूटर पर फेसबुक अकाउंट देख रहे थे. बेटी सृष्टि ने 3-4 बार कुछ पूछा पर हम ने अनसुना कर दिया. परेशान हो कर उस ने एकदम से कहा, ‘‘मेरे मम्मीपापा बिगड़ गए.’’

तभी बेटे ने कहा, ‘‘यह भी खूब रही, अब बड़े भी बिगड़ने लगे.’’              

निर्मला राजेंद्र मिश्रा, त्र्यंबक नगर (महा.)

सियासत के सयाने

जाल बिछाना जरूरी है

यहां कांटे से कांटा निकलना जरूरी है

इसलिए जागो यारो

नए दौर में नए तरीके अपनाना जरूरी है

 

चूहों को पकड़ने के लिए

बिल्ली के साथ जाल बिछाना जरूरी है

सियासत के सयाने

अपाहिज, गरीबों को कब्र में दबा जाएंगे

 

शांतिशांति चिल्लाने वाले

बस हाथ मलते रह जाएंगे

इसलिए जागो यारो

जाल बिछाना जरूरी है.

-मंगला रस्तोगी

 

सियासत के सयाने

जाल बिछाना जरूरी है

यहां कांटे से कांटा निकलना जरूरी है

इसलिए जागो यारो

नए दौर में नए तरीके अपनाना जरूरी है

 

चूहों को पकड़ने के लिए

बिल्ली के साथ जाल बिछाना जरूरी है

सियासत के सयाने

अपाहिज, गरीबों को कब्र में दबा जाएंगे

 

शांतिशांति चिल्लाने वाले

बस हाथ मलते रह जाएंगे

इसलिए जागो यारो

जाल बिछाना जरूरी है.

-मंगला रस्तोगी

 

इन्हें भी आजमाइए

  1.  जंग लगी कैंची, चाकू आदि को सिरके से भरे बरतन में डुबो कर खूब गरम पानी में घंटेभर तक पड़ा रहने दें. जंग बिलकुल गायब हो जाएगा.
  2.  घर में जूतों या चप्पलों पर पौलिश करने से पहले उन्हें पैट्रोल की कुछ बूंदों से साफ कीजिए. फिर पौलिश करें, जूते अधिक चमकेंगे.
  3.  शरीर के जले हुए अंग पर नारियल के तेल से दिन में रोज 3-4 बार मालिश करने पर जलने का दाग जल्दी ठीक हो जाता है.
  4. सफेद कपड़ों पर साबुन मलते समय यदि चुटकीभर नील भी मिला कर मलें तो उन में अनोखी सफेदी व चमक आ जाएगी.
  5. पैट्रोल में यदि मिट्टी का तेल मिले होने का संदेह हो तो एक कोरे कागज पर एक बूंद डाल कर देखिए. पैट्रोल उड़ जाएगा और मिट्टी का तेल रह जाएगा.
  6. प्लास्टिक के बने कांटे यदि टेढ़े हो गए हों तो उन्हें फेंकने की अपेक्षा गरम पानी में 1-2 मिनट छोड़ दें, फिर सीधा कर लें.
  7. चिकने फर्श पर चटाई को सिकुड़ने से रोकने के लिए उस के चारों कोनों पर नीचे की ओर मोटी रबर के गोल टुकड़े सी दीजिए.

…ताकि खिलीखिली रहे त्वचा

कई बार ऐसा होता है कि आप मेकअप कराती हैं या करती हैं लेकिन चेहरे पर वैसा ग्लो नहीं आता जैसा आप चाहती हैं. इस के पीछे कई कारण हो सकते हैं. जैसे ब्यूटी प्रोडक्ट्स की सही जानकारी न होना, मौसम के अनुसार मेकअप न करना वगैरह.

मेकअप जो लाए ग्लो

आप का मेकअप करने का खास मकसद अपने चेहरे पर ग्लो लाना होता है. त्वचा पर चमक लाने के लिए आजकल बहुत से ब्यूटी प्रोडक्ट्स का इस्तेमाल किया जा रहा है. दरअसल, यह कमाल है ‘अंडर मेकअप’ का. इसे मेकअप बेस लगाने से पहले चेहरे पर लगाते हैं. इस के 2 फायदे हैं. पहला, इसे लगाने के बाद बेस को ब्लैंड करना आसान होता है और दूसरा, इसे लगाने से चेहरा जबरदस्त ग्लो करता है. यह ज्यादातर सिलिकौन बेस्ड होता है. यह एक प्रकार का इंस्टैंट फेस बूस्टर होता है. इसे लगाने से चेहरे के दोष आसानी से छिप जाते हैं और ग्लो के कारण चेहरा साफसुथरा नजर आता है.

फ्रैश लुक के लिए

स्किन इलुमिनेटर्स जैसे प्रोडक्ट्स त्वचा पर चमक लाने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं. ये पर्लराइज्ड शिमर क्रीम होती हैं जो रोशनी को चेहरे पर रिफ्लैक्ट करती हैं, जिस से चेहरा चमकदार और आकर्षक नजर आता है. इस के अलावा यदि आप मेकअप करते समय पहले प्राइमर का इस्तेमाल करें व उस के बाद लोशन में थोड़ा सा पर्ल ऐसेंस मिला कर ब्लैंड करें या फिर उस में फाउंडेशन मिला कर चेहरे पर ब्लैंड करें तो इस से आप का चेहरा काफी फ्रैश लुक देगा.

होंठों को बनाएं अट्रैक्टिव

यदि आप के होंठ आकर्षक नहीं होंगे तो भूल जाइए कि आप के मेकअप में कुछ बात आ पाएगी. आप ने जूसी लिप लुक का नाम तो सुना होगा. यानी होंठों का ऐसा मेकअप जो एकदम ताजे फल जैसा एहसास दे, जो कुदरती चमक के साथसाथ रसीला भी होता है.

होंठों पर चुकंदर का रस लगा कर सुखा लें. फिर ग्लिसरीन लगाएं. ऐसा करना होंठों को कुदरती लाल बना देगा.

अगर आप लिपस्टिक का प्रयोग करती हैं तो उस के ऊपर लिप ग्लौस लगाएं. यह होंठों को ग्लोइंग लुक देगा. होंठों को वेट लुक देने के लिए आप ऐस्टी लौडर प्योर कलर क्रिस्टल ग्लौस लगा सकती हैं.

सफर

रोशनी गुल हो जाए इस से पहले

सब के लिए कुछ कर जाऊं

मौत से पहले ही कहीं

मैं मर न जाऊं

 

कर्ज है मुझ पर

सफर के साथियों का

काश कुछ मेरे बस में होता

उतार देती हर एक का कर्ज

 

बहुत कमजोर हो गए मेरे हाथ

साथी दूर चले गए

मुझे थोड़ी हिम्मत मिले

थोड़ा सा सफर और तय करना है.

-ललिता सेठी

मेरे पापा

मैं 7 बहनों और 1 भाई वाले, बड़े परिवार में पलने वाली सब से छोटी और लाडली बेटी हूं. संकीर्ण विचारधारा वाले समाज में रहने के बावजूद मेरे पापा ने हम बहनों को ढेर सारा प्यार दिया. हम लोगों को उच्च शिक्षा दिला कर अपनेअपने लक्ष्य तक पहुंचाने में मदद की. जबकि लोग उन के प्रति ‘बेचारगी’ की भावना रखते थे.

उन्होंने समाज के समक्ष एक अलग नजरिया रखा था कि बेटियां पराया धन नहीं, बल्कि महकता फूल हैं, जो समाज को खुशनुमा बनाती हैं. आज मेरे पापा इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उन का मधुर प्यार और स्नेह मैं आज भी महसूस करती हूं.

मोनिका, लखनऊ (उ.प्र.)

 

मेरे पापा न जाने कितने वर्षों से सोमवार का उपवास रखते आ रहे हैं. पर मैं ने पापा से इस उपवास के बारे में कभी चर्चा नहीं की थी.

कुछ महीने पहले, छोटे भाई के घर पर हम भाईबहन, भाभियां व मम्मीपापा इकट्ठा हुए. रात को बातोंबातों में ही मेरे पति पापा से पूछने लगे कि आप सोमवार का व्रत कब से रख रहे हैं? पापा ने जो बताया उसे सुन कर मैं श्रद्धा से नतमस्तक हो गई.

पापा ने बताया कि 1962 में भारत का पड़ोसी देश से युद्ध चल रहा था. उस समय लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे. उस समय देश में अनाज की कमी पड़ रही थी. पड़ोसी देश ने अनाज देने के लिए शर्त रखी, जिसे शास्त्रीजी ने नकार दिया और अनाज की कमी से निबटने के लिए पूरे देश से एक समय उपवास रखने का आह्वान किया. रैस्टोरैंट आदि बंद कर दिए गए. जनता से सोमवार को एक वक्त खाना खाने की अपील की गई. तब पापा ने देशहित में सहयोग देने के लिए जो उपवास रखा वह आज तक चला आ रहा है. ऐसे महान और संवेदनशील हैं मेरे पापा.

अर्चना शर्मा, मुरादाबाद (उ.प्र.)

 

मेरी सहेली से मेरी मैजिक ?पैंसिल टूट गई. मु झे उस पर बहुत गुस्सा आया पर मैं कुछ नहीं बोली. 10 दिन बाद हमारे स्कूल में 14 नवंबर के उपलक्ष्य में ‘फेट’ था. सभी बच्चे घर से पैसे लाए थे. जब मैं ने उसी सहेली के हाथ में 5 रुपए देखे तो उस से तुरंत छीन लिए और कहा, ‘ये मेरी उस पैंसिल के हैं जो तुम ने तोड़ी थी.’

घर जा कर मैं ने पापा को बताया. उन्होंने डांटा कि यदि ऐसी गलती तुम से होती तो क्या होता. तुम्हारी वजह से बच्ची को भूखा रहना पड़ा और वह ‘फेट’ का आनंद नहीं ले सकी. शायद वह उस दिन भूखी ही रही हो. पापा के सम झाने से मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई. तब से मैं अपने पापा से हर बात शेयर करती हूं.       

ज्योत्स्ना गर्ग, पानीपत (हरियाणा)

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें