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Ahmedabad Plane Crash : अहमदाबाद विमान दुर्घटना के सवालों को गीता से भटका कर धर्म की ठेकेदारों की पीआर करते न्यूज़ चैनल

Ahmedabad Plane Crash : अहमदाबाद विमान हादसे से जब पीड़ित परिवारजन दुख में थे और देश की जनता हादसे में हुई गड़बड़ी को जानने की चिंता में थी तो धर्मांध मीडिया दानदक्षिणा पर पलने वाले ठेकेदारों की पीआर करने में मस्त थी.

अहमदाबाद विमान हादसे में 275 से अधिक लोगों की जान गई. हादसा इतना भयावह था कि एक व्यक्ति के अलावा कोई नहीं बच पाया. इतने बड़े हादसे में किसी इकलौते व्यक्ति का बच जाना बेहद ही आश्चर्य की बात है. यह हैरान कर देने वाली न्यूज थी लेकिन मेनस्ट्रीम मीडिया को इस व्यक्ति के बच जाने की न्यूज से बड़ी खबर हाथ लग गई. वो खबर थी कि विमान हादसे में गीता बच गई.

आज तक की स्टार एंकर श्वेता सिंह ने तो इस पर पूरी एक रिपोर्ट ही पेश कर दी, जैसे यह दुनिया के लिए एक बड़ी खबर हो. दुनिया भारतीय मीडिया के इस तरह के प्रोपगेंडे से भली भांति परिचित है इसलिए भारत के अलावा इस खबर को किसी ने सीरियसली नहीं लिया.

हिंदुत्ववाद की राजनीति चमकाने में और धर्म की दानदक्षिणा वाले धंधे को उभारने में भारतीय मीडिया का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. पिछले वर्षों में मीडिया ने एक ऐसा वर्ग पैदा कर दिया है जिस की खुराक फेक न्यूज़ है. धर्म और राष्ट्रवाद की आड़ में कुछ भी परोस दो यह वर्ग पचा लेता है क्योंकि यह वर्ग पौराणिक कथाओं की गपबाजी को संपूर्ण सच मानता है.

गीता बच गई. कैसे? यह न पूछिये कि किस फायरमैन के साथ लगी, कौन सी सीट पर थी, वहां कौन बैठा था. बस यह जानकर कि हिंदुओं के धर्मग्रंथ इतने शक्तिशाली होते हैं कि भीषण दुर्घटनाओं में भी बच जाते हैं. हिंदू होने पर गौरवांवित होइए. यहां तर्क की जरूरत नहीं. सवाल पूछने से धर्म संकट में पड़ जाएगा. श्वेता सिंह की नौकरी चली जाएगी. बीजेपी का वोट बैंक खतरे में पड़ जाएगा लेकिन वे लोग जो विवेक रखते हैं सवाल तो पूछेंगे ही. क्या वह गीता फायर प्रूफ थी? क्या गीता को ईश्वर ने बचाया? क्या गीता में खुद को बचा लेने का सेंस था?

जवाब बिल्कुल सरल है. ऐसी हर दुर्घटना में जहां कोई जीवित नहीं बचते बहुत सी चीजें बच जाती हैं. भीषण दुर्घटनाओं में इंसानों का मरना स्वाभाविक होता है. यह सब चंद पलों में हो जाता है. भयंकर दुर्घटनाओं में इंसानों का मरना और इंसान के सामान का बच जाना दोनों बातें एक जैसी नहीं हैं.

कई बार इंसान मर जाता है, जल जाता है लेकिन उस के जूते सही सलामत होते हैं. कई हादसों के बाद इंसान की क्षतविक्षत लाशों से उन की हाथ की घड़ियां चलती हुईं मिली हैं. कई बार खाने पीने का सामान तो कई हादसों में किताबें सही सलामत मिलती हैं. क्या जूतों, किताबों और घड़ियों का सही सलामत बच जाना कोई चमत्कार है?

पाकिस्तान में इस्माइली मुसलिमों की एक स्कूल बस को आतंकियों ने बम से उड़ा दिया था. 140 बच्चों की मौत हुई थी लेकिन उस भीषण धमाके के बाद भी कई स्कूली बच्चों के स्कूल बैग बच गए थे. इन स्कूल बैग्स में बच्चों की किताबें थीं, उन का होमवर्क था जिसे आज भी उन बच्चों के घरवालों ने संभाल कर रखा है.

इसी साल हुए कुम्भ के दौरान धार्मिक पुस्तकों के स्टाल पर भीषण आग लगी थी जिस में सैंकड़ों गीता, रामायण, भगवत पुराण और वेद जल कर राख हो गए थे. इस आग के बाद किताबों के जले हुए कूड़े को कूड़े की गाड़ी में भर कर ले जाया गया था. अगर कुम्भ की इस आग में जलीं गीताएं खुद को नहीं बचा पाईं तो अहमदाबाद विमान हादसे वाली गीता कैसे बच गई? क्या यह गीता चमत्कारित थी? अगर ऐसा था तो गीता अपने साथ उन तीन मासूम बच्चों को क्यों नहीं बचा पाई जो मासूम बच्चे अपने मांबाप के साथ लंदन जा रहे थे? अगर गीता इतनी चमत्कारिक थी कि वह खुद को भीषण आग से बचा ले गई तो उसे इंसानों से क्या बैर था? ऐसी गीता को स्वार्थी क्यों न कहा जाए?

क्या श्वेता सिंह उस गीता को दुबारा आग में रख कर अग्निपरीक्षा के लिए तैयार हैं? अगर इस परीक्षण में यह पुस्तक खुद में फायर प्रूफ साबित होती है तो इस से पूरी दुनिया को कितना फायदा होगा? कितने लोगों की जान बचाई जा सकती है? कितने हादसों को रोका जा सकता है? गीता के फायरप्रूफ होने की चमत्कारिक तकनीक का इस्तेमाल कर सूर्य के ऊपर सोलर मिशन भेजे जा सकते हैं. या इसी तकनीक के सहारे धरती के कोर जो बुरी तरह जल रहा है की स्टडी की जा सकती है.

Social Story : जाति, तर्क और कर्तव्य का खेल

Social Story : मिता और अखिल जातिवादी जहर से अच्छी तरह वाकिफ थे और जब उन्होंने इस दकियानूसी परंपरा के खिलाफ आवाज उठानी शुरू की तो उन के अपने ही लोग उन का विरोध करने लगे. दरवाजे की घंटी बजने पर नमिता ने गेट के बाहर देखा तो 32-33 साल का एक युवक खड़ा था. छरहरा सा शरीर था. कुछ दबा हुआ रंग था, हां कद ऊंचा था. बाल सलीके से बनाए हुए थे. काली पैंट के साथ सफेद कमीज पहनी हुई थी, जो थोड़ी मैली हो चुकी थी. ‘‘सुना है, आप के यहां कमरा खाली है?’’ उस ने पूछा.

‘‘हां, खाली तो है. एक कमरा, किचन, बाथरूम और डाइनिंग स्पेस है. 3,500 रुपए से कम किराए में नहीं देंगे और बिजली का मीटर अलग से लगा है,’’ नमिता बोली. नमिता के पास अपने घर के बगल से लगा 100 वर्ग गज का एक प्लौट था, जिस में एक कमरा, किचन, बाथरूम बने हुए थे, जिसे वह किराए पर उठा देती थी. छोटा और पुरानी बनावट का होने के कारण कोई अच्छी सर्विस वाला व्यक्ति किराए पर नहीं लेता था और अकसर कोई लेबर, औटो वाले, सिक्योरिटी गार्ड जैसे लोगों को ही उठाना पड़ता था. कम आमदनी के कारण कोई भी 2-3 हजार रुपए से ज्यादा नहीं देना चाहता था.

एक तो रहना, फिर बिजलीपानी. नमिता को 2,500 रुपए चूरन के पैसों के बराबर भी न लगते और ऊपर से इतना किराया भी कई बार याद दिलादिला कर मिलता. लेकिन जब खाली पड़ा रहता तो गंदगी होती, इसलिए किराए पर उठा देना ही ठीक लगता. कम से कम साफसफाई तो होती रहती थी. ‘इस बगल वाले मकान को तुड़वा कर होस्टल बनवा लेंगे. पढ़ने वाले बच्चे रख लिया करेंगे. किराया भी समय पर देंगे और ज्यादा किचकिच भी नहीं करेंगे,’ नमिता के पति अखिल अपनी योजनाएं बनाते रहते. ‘होस्टल तो तब बनवा लेंगे न, जब पैसा होगा. अब क्या मकान बनवाना आसान काम है,’ नमिता मुंह बना कर कहती. ‘जब सस्ता मिल गया तो प्लौट ले लिया, यह ही क्या कम है. बेटी की शादी में काम आएगा,’ नमिता की अपनी सोच और योजना थी. ‘‘दीदी, कुछ कम कर लो, इतना कहां से दे पाएंगे.

सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करते हैं एक सोसाइटी में. कुल 12,500 रुपए मिलते हैं जिस में बीवीबच्चों का खर्चा भी चलाना है,’’ वह युवक गिड़गिड़ाने सा लगा तो नमिता को अच्छा नहीं लगा. ‘कहां हमारे बच्चे एक दिन में हजारों की खरीदारी कर लाते हैं और कहां 10-12 हजार में पूरे महीने का खर्चा चलाना पड़ता है.’ कितना कठिन होता होगा, उसे एहसास था. ‘‘3,000 रुपए से कम में नहीं देंगे, एक महीने का किराया एडवांस में देना होगा और बिजली का मीटर अलग लगा है उस का बिल अलग देना होगा,’’ उस ने जबरदस्ती कठोर बनने का प्रयास करते हुए कहा. ‘‘कुछ कम हो जाता तो अच्छा था,’’ वह बोला पर नमिता टस से मस नहीं हुई. आखिर में 1,000 रुपए एडवांस दे कर वह कमरा बुक करने को कहने लगा. ‘‘नाम क्या है तुम्हारा?’’ नमिता ने पूछा. वह कठोर हृदय नहीं थी और देश के हालात और निम्नवर्ग की स्थिति से अच्छी तरह वाकिफ थी.

निजीकरण ने देश के बेरोजगार वर्ग को 10-12 हजार का मजदूर बना कर रख दिया था. ‘इतनी सी कमाई में कौन कैसे जी सकता है,’ इस प्रश्न से वह अकसर जू?ाती रहती थी. ‘‘हमारा नाम दीपक है और एक बात और बताना चाहते हैं आप को.’’ उस ने बड़े कातर भाव से कहा. ‘‘क्या? कहो.’’ ‘‘हम जाति के वाल्मीकि हैं.’’ नमिता को एक बार तो ?ाटका सा लगा मगर फिर भी उस ने खुद को रोक लिया क्योंकि वह भी कोई ऊंची जाति से नहीं थी, न ही उस की सोच नकारात्मक थी और समाज में फैले जातिवादी जहर से वह अच्छी तरह से परिचित थी.

प्लौट के बगल में जो परिवार था वे बड़े अहं वाले एवं पूजापाठ वाले व्यक्ति थे. वैसे तो लोग कहते थे कि वे ओबीसी हैं मगर बहुत धार्मिक व रूढि़वादी सोच के थे. उन्हें दीपक का अपने बगल में रहना घोर नागवार गुजरेगा पर नमिता भी जिद्दी थी और गलत बात पर झाकना या समझता कर लेना उस की प्रवृत्ति में नहीं था. ‘‘ठीक है, तुम कोई गलत काम तो करते नहीं हो तो हमें कोई दिक्कत नहीं है. तुम अपना सामान ले कर रहने आ जाना.’’ ‘‘धन्यवाद दीदी. आप को किराया बिलकुल समय से मिल जाया करेगा.’’ उस के चेहरे पर सम्मान व संतुष्टि के भाव थे. महीने की एक तारीख को दीपक अपनी पत्नी और 2 बच्चों के साथ रूम में शिफ्ट होने आ गया.

उस के पास बहुत सारे गमले थे जिन में उस ने फूलों वाले पौधे लगा रखे थे. पत्नी, बच्चे खूब सुंदर और साफसुथरे थे. जाति व स्त्रीपुरुष के नाम पर मनुष्य मनुष्य में भेद करने वाली सामाजिक व्यवस्था से नमिता को बड़ी खीझ होती थी. अपने बगावती तेवरों के साथ वह समाज में किसी भी तरह के अन्याय और भेदभाव के विरुद्ध थी और खुल कर अपनी बात कहती थी, साथ ही, खुद अमल भी करती थी. अपनी दोनों बेटियों के बाद सास और ससुराल वालों के पूरे जोर डालने पर भी उस ने तीसरा बच्चा नहीं किया. बेटेबेटी के भेद पर उसे सख्त एतराज था.

ऊंची जाति वालों का खून क्या ज्यादा गाढ़ा होता है या उन के ब्लड ग्रुप अन्य जाति वालों से अलग होते हैं? महल्ले वाले नाकभौं सिकोड़ेंगे, यह वह जानती थी, फिर भी उस ने दीपक को कमरा किराए पर दे दिया था. उस के 2 बच्चे, एक बेटा, एक बेटी थे. पत्नी का नाम पार्वती था. वह घर पर ही रहती. सलीके से कपड़े पहनती थी, बेशक ज्यादा महंगे नहीं होते थे लेकिन रंगों का अच्छा चयन और पहननेओढ़ने का तरीका उन्हें खूबसूरत बनाता था, लंबेघने बाल उस की सुंदरता को बढ़ा देते थे. घर को साफसुथरा रखती थी. दोनों बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते थे. दीपक बातचीत और व्यवहार में बहुत शिष्ट था और नमिता को दीदी कह कर पुकारता था. जब भी सामने पड़ता, नमस्ते कर लेता था.

‘‘दीदी, तुम ने मेहतर को किराए पर रख लिया है कमरे में?’’ पड़ोसी का बेटा कुछ नाराजगी व कुछ गुस्से में बोला उस के घर आ कर. ‘‘हां, तो क्या हुआ? क्या वह इंसान नहीं है? और मेरा घर मैं चाहे जिस को दूं. वैसे भी, मैं इन सब बातों पर विश्वास नहीं करती.’’ ‘‘उस के घर के कपड़े या कोई सामान हमारे घर में आ गिरा तो हम क्या करेंगे और कैसे वापस करेंगे?’’ ‘‘वे अपने घर में रहते हैं, तुम अपने घर में और तुम कौन होते हो आपत्ति करने वाले? क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि इस देश में प्रजातंत्र है और जातपांत, धर्म के आधार पर भेद करना कानून के खिलाफ है?’’ नमिता ने आवेश में उसे बहुत सारी बातें सुना डालीं. लड़का भुनभुनाता हुआ चला गया. दीपक और उस का परिवार कमरे में रहने लगा था.

नमिता अपने घरबाहर के कामों में व्यस्त हो गई. वैसे भी किराएदार कैसे रह रहे हैं, क्या कर रहे हैं, इन सब मामलों में वह ज्यादा दखल नहीं देती थी. अखिल की भी ऐसी ही आदत थी. न ही वे समय पर किराए के लिए किराएदार का दिमाग खाते थे. कोरोनाकाल में रह रही एक महिला से तो नमिता ने महीनों किराया ही नहीं लिया था. एक महीना पूरा होने में 4-6 दिन ही बाकी थे कि दीपक एक दिन नमिता से बोला, ‘‘दीदी, कल कमरा खाली कर देंगे. बच्चों को वहीं बस्ती में रहना अच्छा लगता है जहां वे पहले रहते थे. यहां उन का मन नहीं लगता.’’ ‘‘क्यों, क्या परेशानी है यहां?’’ चौंक गई नमिता. ‘‘कुछ नहीं. बस, बच्चों का मन नहीं लगता यहां.’’ ‘‘तो फिर आए ही क्यों थे?’’ गुस्सा आ गया उसे.

‘इस के लिए सब की नाराजगी की परवा नहीं की और यह झट से भागने लगा. भगोड़ा.’ उस ने मन ही मन सोचा. सचमुच महीना पूरा होते ही बाकी का किराया और बिजली का बिल दे कर दीपक कमरा खाली कर अपना सामान ले कर चला गया. नमिता से अपना गुस्सा दबाए नहीं दब रहा था. वह लगातार अपनी भड़ास दीपक को भलाबुरा कह कर निकाल रही थी, ‘‘ये लोग होते ही इसी लायक हैं. किए का एहसान नहीं मानते और शर्मिंदा करते हैं.’’ ‘‘तुम करती भी तो हो ऐसे ही काम. ज्यादा भलमनसाहत दिखाने का यही परिणाम होता है,’’ अखिल कहता. नमिता क्या कहती. मनमसोस कर रह गई पर उस के मन से दीपक के प्रति नाराजगी नहीं गई. दीपावली की लाइट्स लगवानी थीं, इसलिए इलैक्ट्रिशियन रविंद्र को बुलाया था अखिल ने. अखिल अपनी निगरानी में झालरें लगवा रहा था.

रविंद्र जबतब घर की बिजली के काम करने आता रहता था और बहुत बोलता था. ‘‘आप ने अपने घर में किराए पर वाल्मीकि को रख लिया था?’’ वह पूछ रहा था. ‘‘तुम्हें कैसे मालूम?’’ अखिल ने कहा. ‘‘पूरा महल्ला जानता है. कोई उस बेचारे से बोलता भी नहीं था. बहिष्कार सा कर रखा था सब ने उस का. इसलिए तो खाली कर के चला गया,’’ रविंद्र ने भेद खोला तो अखिल और नमिता दोनों स्तब्ध रह गए. कहां तो चिल्लाचिल्ला कर सारे नेता कहते हैं कि अब देश से जातिवाद खत्म हो गया है और कहां कदमकदम पर वही जाति, धर्म की लड़ाइयां. वोट लेते समय उसी धर्म और जाति का इस्तेमाल, दलितों को बहलाफुसला कर उन के वोट हड़पना और फिर उन को उसी हजारों सालों पुरानी स्थिति में बनाए रखने का षड्यंत्र रचना. क्यों हजारों सालों बाद भी वाल्मीकि केवल गंदगी साफ करने का काम करें. हर साल कितने सफाईकर्मी गटर में उतर कर जहरीली गैस से मर जाते हैं और हम बस, खबरें पढ़ कर रह जाते हैं. क्यों नहीं बदलता इस देश का समाज? क्यों नहीं बदलती यहां की व्यवस्था? मन में कुलबुलाते प्रश्नों के कोई जवाब नहीं थे नमिता और अखिल के पास.

दीपक तो कमरा खाली कर के चला ही गया था. खाली पड़े हिस्से में फिर से धूलमिट्टी, गंदगी जमा होने लगी थी. ‘चला गया तो चला जाने दो. फिर किसी और को उठा देंगे किराए पर. वह खुद ही डरपोक था वरना जब हम कुछ नहीं कह रहे थे तो उसे बाकी लोगों की परवा करने की जरूरत ही क्या थी.’ नमिता को बीचबीच में रोष आ जाता. ‘कमजोर आदमी मानसिक दबाव में जल्दी आ जाता है और सामाजिक बहिष्कार तो एक अमानवीय कृत्य है वह भी सिर्फ जाति के आधार पर. इसलिए वह इन तथाकथित सभ्य, प्रबुद्ध, प्रगतिशील जनों के बीच में रहने के बजाय अपने साथी बस्ती वालों के साथ रहने चला गया. हमें उस की स्थिति समझनी चाहिए न कि उस से नाराज होना चाहिए,’ अखिल ने संपूर्ण स्थिति का अपना तार्किक विश्लेषण प्रस्तुत किया. काफी हद तक नमिता भी उस से सहमत थी. उस के बाद कई लोग रूम देखने आए.

एक कमरा, किचन, बाथरूम कोई कमजोर व्यक्ति ही लेता और सब को 2-3 हजार और बिजली का खर्चा भी ज्यादा लगता. एक हद तक सही भी था कि जो खुद 10-12 हजार कमा कर गुजारा कर रहा हो वह 5 हजार किराए में ही दे देगा तो खाएगा क्या पर नमिता भी फ्री में तो नहीं दे सकती थी. खैर, सौदा पटा नहीं और बगल का हिस्सा खाली ही पड़ा रहा. ‘‘दीदी, कोई आया है, किराए के लिए मकान देखने,’’ कामवाली ने उसे बुलाया. ‘‘कह दो अभी आती हूं.’’ 24-25 साल का एक लड़का था. ‘‘कौन हो?’’ ‘‘यहीं फैक्टरी में काम करता हूं. किराए पर कमरा चाहिए,’’ युवक ने कहा. लड़का इटावा का रहने वाला था. साथ में पत्नी और एक बच्चा था. ‘‘3,000 रुपए किराया और बिजली का अलग से देना होगा,’’

नमिता ने स्पष्ट कहा. ‘‘3,000 रुपए तो बहुत हैं. 25,00 में दे दो. कुल 12,000 ही तो कमाता हूं. आप की दया से मेरा परिवार रह लेगा,’’ वह युवक बोला. अमित नाम था उस का. आधार कार्ड और 500 रुपए एडवांस ले कर नमिता ने उसे आ कर रहने को कह दिया. वह उसी दिन फटाफट अपना सामान और पत्नी, बच्चे को ले कर रहने आ गया जैसे कि कहीं सड़क पर रह रहा था. नमिता ने चैन की सांस ली. उसे इधरउधर से सुनने को मिल रहा था कि चूंकि उस ने एक वाल्मीकि को किराए पर रख लिया था, इसलिए उस के इस घर में अब कोई किराएदार नहीं आ रहा था रहने को. अब अमित आ गया तो नमिता को लग रहा था कि जैसे उस ने इन महल्ले वालों को जवाब दे दिया हो. दोनों पतिपत्नी सफाईधुलाई आदि में लगे थे. एक दिन ही बीता था कि अमित दनदनाता हुआ उस के पास आया. नमिता कुछ समझ पाती, इस से पहले ही उस ने अपने गुस्से का इजहार कर दिया,

‘‘तुम ने अपने घर में मेहतर को रख रखा था?’’ वह गुस्से में था. ‘‘तो क्या हुआ? वह कोई गलत काम तो करता नहीं था. सिक्योरिटी गार्ड का काम करता था और तुम्हें क्या परेशानी है उस से. मैं वैसे भी इन सब बातों को नहीं मानती,’’ नमिता का भी गुस्सा फूट पड़ा. ‘‘तुम्हें बताना चाहिए था.’’ वह बदतमीजी से ‘तुमतुम…’ कर के बोल रहा था. ‘‘जब से मेरी पत्नी को पता चला है उस की तबीयत खराब हो गई है,’’ वह बहुत गुस्से में था. नमिता को उस की बीमार सी पत्नी की शक्ल याद आ गई, ‘‘नहीं रहना तो भाग जाओ अपना सामान उठा कर. हम चाहे वाल्मीकि को रखें चाहे किसी और को, हमारी मरजी है. हमारा घर है,’’ नमिता को इतना गुस्सा आ रहा था कि मन कर रहा था कि अभी धकेल कर बाहर निकाल दे. उसे अपने स्वभाव पर गुस्सा आ रहा था कि क्यों वह हर ऐरेगेरे पर भरोसा कर लेती है और उन से सहानुभूति रखने लगती है. अगली सुबह अमित अपना सामान और अपना परिवार ले कर कमरा खाली कर के जा चुका था.

नमिता और अखिल कुछ समझ नहीं पा रहे थे कि संविधान, लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले इस देश में जिस में आजादी के बाद जातिधर्म के भेद को खत्म कर कानून के समक्ष समानता स्थापित हो चुकी है जबकि वास्तव में तो यहां हर जाति के ऊपर एक जाति है जो खुद को ऊंची जाति का और दूसरी को नीची जाति का समझती है. धोबी खुद को जाटव से ऊंचा समझता है तो जाटव खुद को वाल्मीकि से. ठाकुर से ऊपर ब्राह्मण हैं तो कोइरी, तेली के ऊपर बनिया. सारा समाज ही जातियों में विभाजित है. वैवाहिक विज्ञापनों में बाकायदा जाति के अनुसार वरवधू के कौलम छपते हैं. नमिता और अखिल भूल गए थे लेकिन अब अच्छी तरह से समझ गए थे कि जो जाती नहीं कभी, वह ही जाति होती है. Social Story 

Story In Hindi : धरा – क्या शिखा अपनी बच्ची को बचा पाई?

Story In Hindi : अपनी 3 बेटियों के साथ खुश थी लेकिन सास सुमित्रा को एक पोता चाहिए था, जिस के चलते उसे चौथी बार भी मां बनने के लिए मजबूर किया गया. क्या शिखा सास की उम्मीदों पर खरी उतर पाने में कामयाब हो सकी? ‘‘डाक्टर से 4 दिनों बाद का अपौइंटमैंट ले लेता हूं,’’ चाय का घूंट भरते हुए अरुण ने कहा तो शिखा का कलेजा धक्क से रह गया. ‘‘एक काम करो, जल्दी से नाश्ता तैयार कर दो.

औफिस जाते समय हो सकेगा तो डाक्टर से मिल कर कल या परसों का ही समय ले लूंगा, क्योंकि यह काम जितनी जल्दी निबट जाए, अच्छा है.’’ ‘‘हां, वह तो ठीक है, अरुण पर एक बार ठंडे दिमाग से सोच कर देख लेते कि कहीं हम…’’ ‘‘अब इस में सोचना क्या है?’’ शिखा की बात को बीच में ही काटते हुए अरुण बोला, ‘‘वैसे भी कितनी मुश्किल से तो एक डाक्टर मिला है और तुम्हें और वक्त चाहिए. यह काम तो उसी दिन हो जाता पर तुम्हें ही वक्त चाहिए था. पता है न, इन सब कामों में रिस्क कितना बढ़ गया है. नौकरी पर तो आफत आएगी ही, जेल भी हो सकती है. लेकिन जो भी हो, यह तो करवाना ही पड़ेगा. मां सही ही कह रही हैं कि जितनी जल्दी इस समस्या से छुटकारा पा लें, अच्छा है.’’ ‘‘पर, अरुण…’’ ‘‘क्या, पर? कहना क्या चाहती हो तुम? पता है न, सिर्फ तुम्हारी मूर्खता के कारण आज 3-3 बेटियां पैदा हो गईं.

लेकिन इस बार कोई मूर्खता नहीं करूंगा मैं क्योंकि मुझे में अब और बोझ उठाने की ताकत नहीं है,’’ भुनभुनाते हुए अरुण ने अखबार में आंखें गढ़ा दीं कि तभी ढाई साल की प्यारी सी जूही ‘पापापापा’ कर उस की गोद में चढ़ने की कोशिश करने लगी. लेकिन अरुण ने बड़ी निर्दयता से उसे परे धकेल दिया और उठ कर कमरे में चला गया. अरुण का व्यवहार देख शिखा की आंखों से दो बूंद आंसू टपके और रोती हुई बच्ची को गोद में उठा कर वह भी अरुण के पीछेपीछे कमरे में आ गई. ‘‘अरुण, एक बार सोच कर देखो न, अगर यह बेटा होता तो क्या उस की जिम्मेदारी नहीं उठानी पड़ती तुम्हें?’’ यह बोलते शिखा की आवाज भर्रा गई, ‘‘अरुण, यह भी तुम्हारा ही खून है न. और क्या पता, कल को यही बेटी तुम्हारा नाम रोशन करे.

अरुण, एक बार फिर से सोच कर देखो,’’ शिखा गिड़गिड़ाई. लेकिन अरुण यह बोल कर बाथरूम में घुस गया कि ज्यादा भावना में बहने की जरूरत नहीं है और बच्चे को सिर्फ जन्म देने से ही सबकुछ नहीं हो जाता, पालने के लिए पैसे भी चाहिए होते हैं. इसलिए ज्यादा मत सोचो, वरना हम फैसला लेने में कमजोर पड़ जाएंगे. अरुण के तर्कवितर्क के आगे शिखा की एक न चली. सोनी और मोही को स्कूल भेज कर वह जल्दीजल्दी अरुण के लिए नाश्ता बनाने लगी. औफिस जाते समय रोज की तरह प्यारी सी जूही जब पापा का लंचबौक्स ले कर लड़खड़ाते कदमों से ‘पापापापा’ करने लगी तो अरुण को उसे गोद में उठाना ही पड़ा.

लेकिन जैसे ही मां सुमित्रा पर उस की नजर पड़ी, जूही को गोद से उतार कर फिर वही हिदायत दे कर घर से निकल पड़ा. हाथों में कुछ लिए जिस तरह से सुमित्रा ने शिखा को घूर कर देखा, वह सकपका कर रह गई. अरुण को औफिस भेज कर वह जूही को दूध पिला कर सुलाने की कोशिश करने लगी. वह जानती थी, सुमित्रा को मंदिर से आने में घंटाभर तो लगेगा ही. रोज ही ऐसा होता है. मंदिर में पूजा के बाद भजनकीर्तन कर के ही वे घर लौटती हैं. लेकिन यह कैसी पूजा है, जहां देवी की पूजा तो होती है लेकिन वहीं एक अजन्मी बच्ची को, जिसे देवी का रूप कहा गया है, मां के पेट में ही मारने का फरमान सुना दिया गया. हां, सुमित्रा ही नहीं चाहती कि यह बच्ची पैदा हो.

वह इस बच्ची को मां की कोख में ही मार देना चाहती है और अरुण भी अपनी मां का ही साथ दे रहे हैं. शिखा क्या करे? किस से जा कर कहे कि वह अपनी बच्ची को जन्म देना चाहती है. उसे इस दुनिया में लाना चाहती है. शिखा आज तनमन दोनों से कमजोर महसूस कर रही थी. दुख तो उसे इस बात का हो रहा था कि एक मां हो कर भी वह अपनी बच्ची को बचा नहीं पा रही है और सब से ज्यादा दुख उसे इस बात का हो रहा है कि एक बाप हो कर भी कैसे अरुण अपनी ही बेटी को मारने के लिए तत्पर है. क्या जरा भी मोह नहीं है उसे अपनी इस अजन्मी बच्ची से? यही अगर बेटा होता तो इस घर के लोगों की खुशियों का ठिकाना न होता. लेकिन बेटी जान कर कैसे इन सब के मुंह सूज गए.

जल्द से जल्द ये लोग इस बच्ची से छुटकारा पाना चाहते हैं. कैसा समाज है यह, जहां बेटे का स्वागत तो होता है पर बेटियों का नहीं. लेकिन अगर बेटी ही नहीं रहेगी, फिर बहू कहां से आएगी? यह क्यों नहीं समझते लोग? अपने पेट पर हाथ फिराते हुए शिखा फफक कर रो पड़ी. वह अपनी अजन्मी बच्ची को मारना नहीं चाहती थी, बल्कि उसे जन्म देना चाहती थी. लेकिन समझ नहीं आ रहा था कि कैसे अपनी अजन्मी बच्ची को इन हत्यारों से बचाए. शिखा का मन करता कभी यहां से कहीं दूर भाग जाए, ताकि उस की बच्ची को कोई मार न सके. जो बच्चा अभी इस दुनिया में आया भी नहीं है, उसे उस की मां की कोख में ही मारने की तैयारी करने वाला कोई और नहीं, बल्कि इस के पापा और दादी हैं. लेकिन एक मां हो कर कैसे शिखा अपनी ही बच्ची को मरते देख सकती थी? शिखा अपनी 3 बेटियों के साथ बहुत खुश थी.

लेकिन सुमित्रा को ही एक पोता चाहिए था, जिस के लिए उसे चौथी बार मां बनने के लिए मजबूर किया गया. शिखा तो सोनोग्राफी करवाना ही नहीं चाहती थी. लेकिन सुमित्रा के आगे उस की एक न चली. सुमित्रा चाहती थी कि जांच में अगर लड़की निकली तो उसे खराब करवा देंगे, क्योंकि और लड़की नहीं चाहिए थी उसे इस घर में. लड़कियों को पालना घाटे के सौदे की तरह देखती थी सुमित्रा. उस की नजर में तो बेटा ही वंश कहलाता है और बेटा ही अपने मातापिता को मोक्ष दिलाता है. हमेशा वह शिखा को कड़वी गोलियां पिलाती रहती यह कह कर कि बड़ी बहू ने बेटे के रूप में उसे 2-2 रत्न दिए. लेकिन इस करमजली ने सिर्फ बेटियां ही पैदा की हैं. उसे अपने बेटे अरुण के वंश की चिंता हो चली थी. कैसे भी कर के वह शिखा से एक बेटा चाहती थी. लेकिन सुमित्रा को नहीं पता कि बेटा या बेटी होना अपने हाथ की बात नहीं है और एक मां के लिए तो बेटा और बेटी दोनों अपनी ही संतान होती हैं.

लेकिन पता नहीं सुमित्रा को यह बात समझ क्यों नहीं आती थी. आएदिन सुमित्रा यह बोल कर शिखा को ताना मारती कि 3-3 बेटियां पैदा कर के नातेरिश्तेदारों में उस ने उस की नाक कटवा दी. जब कोई कहता कि छोटी बहू तो एक बेटा तक पैदा नहीं कर पाई तो सुमित्रा का कलेजा जल उठता था. पोते के लिए आएदिन वह कोई न कोई कर्मकांड कराती ही रहती थी जिस में उस के हजारों रुपए स्वाहा हो जाते थे मगर सुमित्रा को इस बात का कोई गम न था. उसे तो बस कैसे भी कर के एक पोता चाहिए था. इस के लिए वह कई पोतियों का बलिदान करने को भी तैयार थी. जूही के समय जांच कर डाक्टर ने बताया था कि शिखा के पेट में लड़का है. लेकिन पैदा हो गई लड़की तो डाक्टर पर से भी सुमित्रा का विश्वास उठ गया. इसलिए इस बार उस ने अच्छे डाक्टर से जांच करवाने की ठानी थी ताकि फिर कोई भूल न हो सके.

लेकिन शिखा को डर था कि जांच में अगर कहीं लड़की निकली तो ये लोग उस के बच्चे की कब्र उस की मां की कोख में ही बना देंगे. इसलिए वह जांच करवाने से टालमटोल कर रही थी मगर टालमटोल कर के भी क्या हो गया? जांच तो करवानी ही पड़ी और शिखा को जिस बात का डर था, वही हुआ. बेटी का नाम सुनते ही सुमित्रा के कलेजे पर सांप लोट गया. अरुण का भी एकदम से मुंह लटक गया. सुमित्रा तो उसी वक्त यह बच्चा गिरवा देना चाहती थी मगर डाक्टर ने मना कर दिया कि वह यह सब काम नहीं करता. अब रूल इतना कड़ा बन गया है कि पता चलने पर डाक्टर की डिग्री तो जब्त होती ही है, जेल की भी हवा खानी पड़ती है. लेकिन चोरीछिपे कहींकहीं अब भी लिंग परीक्षण तो होता ही है. इधर, अरुण ऐसे किसी डाक्टर की खोज में था जो इस मुसीबत से छुटकारा दिला सके और उधर शिखा यह सोच कर बस रोती रहती कि कैसे भी कर के अरुण और सुमित्रा इस बच्चे को न मारें, विचार बदल लें अपना.

दुख तो इस बात का हो रहा था कि एक मां हो कर भी वह अपने बच्चे को बचा नहीं पा रही थी. पेट पर हाथ रख वह अपने अजन्मे बच्चे से माफी मांगती और कहती कि इस में उस की कोई गलती नहीं है. वह तो चाहती है कि वह इस दुनिया में आए. लेकिन उस के पापा और दादी ऐसा नहीं चाहते. आधी रात में ही वह हड़बड़ा कर उठ बैठती और जोरजोर से हांफने लगती. फिर अपने पेट पर हाथ फिराते हुए कलप उठती. नींद में जैसे उस के पेट से आवाज आती, ‘मां, मुझे मत मारो. मुझे भी इस दुनिया में आने दो न, मां. बेटी हूं तो क्या हुआ, बोझ नहीं बनूंगी, हाथ बंटाऊंगी. गर्व से आप का सिर ऊपर उठवाऊंगी. बेटी हूं इस धरा की. इस धरा पर तो आने दो मां,’ कभी आवाज आती, ‘तेरे प्यारदुलार की छाया मैं भी पाना चाहती हूं, मां. चहकचहक कर चिडि़या सी मैं भी उड़ना चाहती हूं, मां.

महकमहक कर फूलों सी मैं भी खिलना चाहती हूं, मां. मां, पता है, मुझे पापा और दादी नहीं चाहते कि मैं इस दुनिया में आऊं. लेकिन तुम तो मेरी मां हो न, फिर क्यों नहीं बचा लेतीं मुझे मुझे कहीं अपनी कोख में ही छिपा लो न, मां. बोलो न मां, क्या तुम भी नहीं चाहतीं कि मैं इस दुनिया में आऊं?’ शिखा अकबका कर नींद से उठ कर जाग बैठती और अपना पेट पकड़ कर सिसकती हुई कहती, ‘नहीं, मैं तुम्हें नहीं मारना चाहती. लेकिन तुम्हारी दादी और पापा तुम्हें इस दुनिया में नहीं आने देना चाहते हैं. सो मैं क्या करूं? प्लीज, मुझे माफ कर दो, मेरी बच्ची,’ शिखा चीत्कार करती कि कोई उस के बच्चे को बचा ले. आखिर कोई तो कहे, शिखा यह बच्चा नहीं गिरवाएगी, जन्म देगी इसे, क्योंकि इस का भी अधिकार है इस दुनिया में आने का. लेकिन ऐसा कोई न था इस घर में जो इस अनहोनी को रोक सके. वह चाहती तो अपने पति और सास के खिलाफ भ्रूण हत्या के मामले में केस कर सकती थी पर फिर अपनी 3 मासूम बच्चियों का खयाल कर चुप रह जाती. औरत यहीं पर तो कमजोर पड़ जाती है और जिस का फायदा पुरुष उठाते हैं. लेकिन यहां तो एक औरत ही औरत की दुश्मन बनी बैठी थी.

एक औरत ही नहीं चाहती थी कि दूसरी औरत इस दुनिया में आए. भगवान और पूजापाठ में अटूट विश्वास रखने वाली सुमित्रा से किसी बाबा ने कहा था कि महापूजा करवाने से जरूर शिखा को इस बार लड़का होगा. उस बाबा की बात मान कर पूजा पर हजारों रुपए खर्च करने के बाद भी जब शिखा के पेट में लड़की होने की बात पता चली तो बाबा बोले कि जरूर उस पूजा में कोई चूक रह गई होगी, जिस के चलते शिखा के पेट में फिर से लड़की आ गई. बेटे के लिए शिखा ने वह सब किया, जोजो सुमित्रा उस से करवाती गई. इस के बावजूद उस के पेट में लड़की आ गई तो क्या करे वह? अंधविश्वास का ऐसा चश्मा चढ़ा था सुमित्रा की आंखों पर कि एक भी काम वह बाबा से पूछे बिना न करती थी. अभी पिछले महीने ही ग्रहशांति की पूजा के नाम पर उस बाबा ने सुमित्रा से हजारों रुपए ऐंठ लिए. लेकिन यही सुमित्रा जरूरतमंदों या किसी गरीब, असहाय इंसान की एक पैसे से भी मदद कर दे, आज तक ऐसा नहीं हुआ कभी. दया नाम की चीज ही नहीं है सुमित्रा के दिल में. तीनों पोतियां तो उसे फूटी आंख नहीं सुहातीं.

जब देखो, उन्हें झिड़कती रहती है. बातबात पर तानाउलाहना तो मामूली बात है. लेकिन जब नातेरिश्तेदारों के सामने भी सुमित्रा शिखा और उस की बेटियों का अपमान करती है तो उस का कलेजा दुख जाता है. औफिस से आते ही अरुण ने बताया कि डाक्टर ने कल का समय दिया है और इस के लिए उस ने छुट्टी भी ले ली है. शिखा ने उस की बात का कोई जवाब नहीं दिया और किचन में चली गई. समझ नहीं आ रहा था उसे कि क्या करे. कैसे कहे अरुण से कि वह अपनी बच्ची को नहीं मारना चाहती, जन्म देना चाहती है इसे, क्योंकि इस का भी हक है इस दुनिया में आने का. लेकिन जानती है कि इस बात से घर में कुहराम मच जाएगा और अरुण तो वही करेगा जो उस की मां चाहती हैं. इसलिए वह आंसू पी कर रह गई. रात में जब अरुण अपने लैपटौप पर व्यस्त था तब बड़ी हिम्मत जुटा कर शिखा बोली, ‘‘अरुण, सुनो, मत करो न ऐसा. गलती क्या है इस की. यही न कि यह एक लड़की है. लेकिन आज लड़कियां किसी भी बात में कम हैं क्या? सानिया मिर्जा, झुलन गोस्वामी, ये सब बेटियां ही तो हैं. क्या इन्होंने अपने मातापिता का नाम ऊंचा नहीं किया? और अपने ही घर में खुद नीता दीदी को देखो न.

आज वे इतने बड़े बैंक में मैनेजर हैं. बैंक की तरफ से वे विदेश भी जा चुकी हैं. गरीब परिवारों की बेटियों को भी देख लो न. जब परिवार पर जिम्मेदारियों का बो?ा पड़ा तो बेटियां औटोरिकशा और ट्रेन तक चलाने लगीं. आज की बेटियां तो चांद तक पहुंच चुकी हैं, हवाईजहाज उड़ाने लगी हैं.’’ शिखा की बात पर कोई ध्यान न दे कर अरुण वैसे ही लैपटौप चलाता रहा. ‘‘अरुण, देखना, हमारी बेटियां भी एक दिन हमारा नाम जरूर रोशन करेंगी, यह मेरा विश्वास है. अरुण, देखो, छुओ मेरे पेट को कि क्या तुम्हारे दिल में अपनी बच्ची के लिए दर्द नहीं हो रहा? फिर कैसे तुम इसे मरते देख सकते हो? प्लीज, अपना फैसला बदल दो. बेटियां तो आने वाला सुनहरा कल होती हैं. हमें ही देख लो न, हम 4 बहनें ही हैं तो क्या हम अपने मम्मीपापा का ध्यान नहीं रखते? रखते हैं न? बारीबारी से हम उन की जिम्मेदारी बड़ी शिद्दत से निभाते आए हैं. बेटियां बो?ा नहीं होती हैं. अरुण, एक बार मेरी बात पर विचार कर के देखो, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है.’’

अरुण लैपटौप शटडाउन करते हुए बोला कि वह अपनी मां की बात से बाहर नहीं जा सकता है, सो प्लीज, वही बातें बारबार दोहरा कर उस का मूड न खराब करो. यह बात तो तय थी कि यह सब सुमित्रा के कहने पर ही हो रहा था. वही नहीं चाहती थी कि शिखा बेटी पैदा करे. वही चाह रही थी कि जितनी जल्दी हो, इस बच्चे को गिरवा दिया जाए. हां, माना कि अरुण को भी बेटे की चाह है पर अपनी बच्ची को मारना उसे भी अच्छा नहीं लग रहा था. अरुण ने आज तक अपनी मां की एक भी बात नहीं काटी. उन्होंने जो कहा, किया. यहां तक कि शिखा से शादी भी उस ने अपनी मां के कहने पर ही की थी, वरना तो उस की पसंद कोई और थी तो आज वह अपनी मां के फैसले से अलग कैसे जा सकता था. समाज और लोग यह क्यों नहीं समझते कि प्रकृति ने बेटियों को भी बेटे के बराबर जीने का हक दिया है.

उसे भी इस हवा में सांस लेने का उतना ही अधिकार है जितना लड़कों को और मां के पेट में बेटों की तरह बेटियां भी तो 9 महीने रहती हैं. फिर वह इस दुनिया में क्यों नहीं आ सकती? कोई तो जवाब दे? अपने मन में ही सोच शिखा बिलख पड़ी पर कौन था उस का रोना सुनने वाला. कोई तो नहीं. वह पति जो उस के साथ सात वचनों में बंधा था, वह भी नहीं. कहते हैं, ‘प्रकृति और पुरुष मिल कर सृष्टि का संचालन करते हैं. लेकिन, जब प्रकृति ही नहीं बचेगी, फिर सृष्टि का संचालन क्या संभव है?’ अपने मन में ही सोच शिखा ने अरुण की तरफ देखा, जो चैन की नींद सो रहा था. लेकिन शिखा को नींद कैसे आ सकती थी भला. घड़ी में देखा तो सुबह के 4 बज रहे थे. शिखा वहां से उठ कर बेटियों के कमरे में जाने ही लगी कि देखा सुमित्रा अपने कमरे में ध्यान लगा कर बैठी थी.

वह रोज सुबहसवेरे उठ कर ध्यान लगा कर बैठ जाती है. फिर स्नान आदि से निवृत्त हो कर पूजापाठ, मंदिर आदि के बाद ही नाश्ता करती है. मन हुआ शिखा का कि वहां जा कर उन के पैर पकड़ ले और कहे, बख्श दे उन की बच्ची को. इस के लिए जीवनभर वह सुमित्रा की गुलाम बन कर रहेगी परंतु वह अपनी सास के स्वभाव को अच्छे से जानती थी. बहुत ही कड़क मिजाज की औरत है, जो कह दिया सो कह दिया. उन की बात पत्थर की लकीर होती है. कल को अगर सुमित्रा कह दे कि अरुण अपनी पत्नी शिखा को छोड़ दे तो वह भी करने को तैयार हो जाएगा अरुण. तभी तो सुमित्रा कहते नहीं थकती कि अरुण उस का श्रवण बेटा है. शिखा को लग रहा था कि समय बस यहीं ठहर जाए. अपने पेट पर हाथ रख वह रो पड़ती. सोच कर ही वह सिहर उठती कि आज उस का बच्चा हमेशा के लिए उस से बिछुड़ जाएगा. फोन की आवाज से शिखा चौंक उठी. अरुण का फोन बज रहा है. उसे जगा कर शिखा खुद किचन में चली गई. सुमित्रा को चाय दे कर वह अरुण के लिए चाय ले कर कमरे में पहुंची तो देखा कि वह बाथरूम में था. आश्चर्य हुआ कि बिना चाय पिए अरुण की तो नींद ही नहीं खुलती कभी तो आज कैसे?’ शायद बेटी के मरने की खुशी में नींद खुल गई होगी,’ सोच कर ही शिखा का मन कड़वा हो गया. वह कंबल समेट ही रही थी कि अरुण कहने लगा कि जल्दी से उस के कपड़े जमा दे. अभी आधे घंटे में निकलना है. ‘‘पर कहां?’’ शिखा ने अचकचा कर पूछा, ‘‘आज तो आप ने छुट्टी ले रखी है और हमें अस्पताल जाना था एबौर्शन के लिए?’’ ‘‘वह सब छोड़ो अभी,’’ शिखा की बात को बीच में ही काटते हुए अरुण बोला, ‘‘मुझे अभी दिल्ली के लिए रवाना होना पड़ेगा. कल बहुत बड़े क्लाइंट के साथ अर्जैंट मीटिंग है.

जानती हो शिखा, अगर यह मीटिंग सक्सैस रही तो इस बार मेरा प्रमोशन होना तय है और सब से बड़ी बात कि बौस ने इस काम के लिए मुझे चुना है, यह बहुत बड़ी बात है,’’ अरुण काफी खुश लग रहे थे. उन की खुशी उन के चेहरे से साफ झलक रही थी. लेकिन जातेजाते अस्पताल का काम सुमित्रा को थमा गए. शिखा यह सोच कर बस रोए जा रही थी कि जिस बच्ची को उस ने अपनी कोख में 3 महीने संभाल कर रखा, आज उसे उस के शरीर से नोच कर फेंक दिया जाएगा. जूही को गोद में लिए शिखा अस्पताल जाने के लिए घर से निकल ही रही थी कि सुमित्रा का फोन घनघना उठा. जाने उधर से किस ने क्या कहा कि फोन सुमित्रा के हाथ से छूट कर नीचे गिर पड़ा और वह खुद भी लड़खड़ा कर जमीन पर गिर पड़ी. ‘‘मम्मीजी, मम्मीजी… क्या हुआ आप को?’’ शिखा घबरा कर सुमित्रा को उठाने लगी. लेकिन सुमित्रा, ‘वो…निशा’ बोल कर बेहोश हो गई. शिखा ने जब फोन उठाया तो सुन कर वह भी सन्न रह गई. अस्पताल से फोन था. निशा का ऐक्सिडैंट हो गया, लेकिन अब शिखा क्या करेगी, क्योंकि अरुण तो मीटिंग में है और उस ने अपना फोन भी म्यूट कर के रखा हुआ था. तभी उसे पड़ोस के राहुल का खयाल आया, जो शिखा को अपनी बहन की तरह मानता है. सारी बातें जानने के बाद वह सुमित्रा के साथ मुंबई जाने को तैयार हो गया और जो सब से पहली फ्लाइट मिली, उस में टिकट करा कर वे तुरंत मुंबई के लिए रवाना हो गए.

शिखा इसलिए नहीं गई क्योंकि सोनी और मोही अभी स्कूल से आई नहीं थीं. अरुण को जब निशा के ऐक्सिडैंट का पता चला तो वह भी वहीं से फ्लाइट पकड़ कर मुंबई पहुंच गया. शिखा भी अपने भाई को बुला कर तीनों बच्चों को ले कर मुंबई पहुंच गई, क्योंकि यहां उस का जी घबरा रहा था. मन में अजीब बुरेबुरे खयाल आ रहे थे. दरअसल निशा अपनी गाड़ी से जब घर आ रही थी, तभी पीछे से एक ट्रक ने उसे जोर का धक्का दे दिया और गाड़ी दूर जा कर पलट गई. ट्रक वाला तो वहां से नौदो ग्यारह हो गया लेकिन आसपास के लोगों ने तुरंत पुलिस को फोन कर निशा को गाड़ी से बाहर निकालने की कोशिश की. खून से लथपथ निशा को जल्दी अस्पताल पहुंचाया गया, तब जा कर उस का इलाज शुरू हुआ. वरना तो शायद वह बच भी न पाती. पता चला कि ट्रक ड्राइवर शराब पी कर गाड़ी चला रहा था. अकसर हमें सुनने को मिलता रहता है कि शराब पी कर गाड़ी चालक ने 4 लोगों को कुचल डाला.

फूड स्टाल पर खाना खा रहे लोगों पर गाड़ी चढ़ा दी. जाने क्यों लोग ऐसी हरकतें करते हैं? खुद की जान तो जोखिम में डालते ही हैं, दूसरों की जिंदगी भी तबाह कर देते हैं. खैर, शुक्र था कि निशा की जान बच गई. लेकिन अभी उसे एकडेढ़ महीना और अस्पताल में रहना होगा. डाक्टर का कहना था कि निशा की कमर और हाथपैरों की हड्डी के जुड़ने में वक्त लगेगा. अपनी बेटी की हालत देख अभी भी सुमित्रा के आंसू रुक नहीं रहे थे. बारबार उस के दिमाग में यही बात चल रही थी कि अगर निशा को कुछ हो जाता तो, तो वह भी मर जाती. ‘‘मां, अब दीदी ठीक हैं. आप चिंता मत करो और डाक्टर ने कहा है कि दीदी अब खतरे से बाहर हैं. फिर आप क्यों रो रही हो? मां, अब मुझे निकलना होगा, क्योंकि शिखा को डाक्टर के पास भी तो ले कर जाना है न? अभी थोड़ी देर पहले डाक्टर का फोन आया था, कह रहे थे कि इस काम में जितनी ज्यादा देर होगी, रिस्क उतना ही ज्यादा बढ़ेगा. इसलिए जा कर यह काम निबटा ही लेता हूं,’’ अरुण बोला. आज सुमित्रा भली प्रकार से शिखा का दर्द महसूस कर पा रही थी.

अपने बच्चे के लिए मां की तड़प वह बहुत गहराई से महसूस कर रही थी. शिखा भले ही चुप थी, मगर उस के दिल में क्या चल रहा है, सुमित्रा से छिपा न रहा. यही कि आज जब अपनी बेटी की जान पर बन आई तो किस कदर सुमित्रा छटपटा उठी. फिर यही उस ने शिखा के लिए क्यों नहीं महसूस किया? मां और बच्चे का रिश्ता तो हर रिश्ते से बड़ा होता है, क्योंकि उन का रिश्ता 9 महीने ज्यादा होता है. एक मां अपने बच्चे को अपने खून से सींचती है, फिर कैसे एक मां उस के बहते खून को देख सकती है भला. अपनी करनी की सोच कर सुमित्रा का रोमरोम सिहर उठा कि कैसे वह एक मां की गोद उजाड़ने चली थी और होती कौन है वह ऐसा करने वाली? आज जब उस की बेटी पर मुसीबत आ पड़ी, तब उसे एहसास हुआ कि वह शिखा के साथ कितना बड़ा अन्याय करने जा रही थी. ‘यह मैं क्या करने जा रही थी? प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने जा रही थी. एक मां से उस के बच्चे को छीनने का पाप करने जा रही थी? ओह, कितनी बड़ी पापिन हूं मैं? नहीं, मैं ऐसा नहीं होने दूंगी.

मेरी पोती इस दुनिया में जरूर आएगी,’ अपने मन में ही सोच सुमित्रा उठ खड़ी हुई. ‘‘रुको अरुण, अब कोई एबौर्शन नहीं होगा, बल्कि मेरी पोती इस दुनिया में आएगी,’’ यह सुन अरुण हैरान हो गया कि मां सुमित्रा यह क्या बोल रही हैं? कल तक तो यही पीछे पड़ी थीं कि जितनी जल्दी हो इस मुसीबत से छुटकारा पाओ. ‘‘क्या सोच रहे हो, यही न कि कल तक मैं जिस बच्चे से नफरत करती थी, अचानक आज मुझे क्या हो गया? तो आज मुझे अपनी गलती का एहसास हो चुका है अरुण कि मैं जो करने जा रही थी, वह गलत ही नहीं, बल्कि महापाप था. अपनी बेटी को जिंदगी और मौत से जूझते देख मैं खुद कितनी मौतें मरी हूं, यह मैं ही जानती हूं. एकएक पल कैसे कटा मेरा, नहीं बता सकती तुम्हें, तो फिर उस मां का क्या हाल होगा जिस की आंखों के सामने ही उस की बेटी के टुकड़े कर दिए जाएंगे? ‘‘मैं ने तय कर लिया है कि मेरी धरा यानी इस धरती पर वह जरूर आएगी,’’ शिखा को अपने सीने से भींचते हुए सुमित्रा कलपते हुए बोली, ‘‘बहू, मुझे माफ कर दो. मैं पुत्रमोह में अंधी हो गई थी, इसलिए तुम्हारा दर्द समझ नहीं पाई.’’

यह सुन शिखा भी सुमित्रा के गले लग कर फूटफूट कर रोने लगी. आज अरुण भी दिल से अपनी मां का शुक्रगुजार था कि उन्होंने उस की अजन्मी बेटी की जिंदगी बख्श दी. नहीं पता है शिखा को पर कितना दुख हो रहा था उसे अपनी ही बेटी को मारने का सोच कर भी. सुमित्रा के कारण वह चुप था, वरना तो वह कभी ऐसा सोच भी नहीं सकता था. कई बार अपने आंसुओं को अंदर ही रोके रखने के प्रयास में अरुण की आंखें लाल हो जाया करती थीं और फिर वही जमा आंसू को बाथरूम में जा कर बहाता था. लेकिन आज वह बहुत खुश है. अरुण और शिखा के साथसाथ सुमित्रा को भी धरा के आने का बेसब्री से इंतजार था. Story In Hindi 

Love Story In Hindi : जवानी की आग – रीता अपने मौसा के साथ कैसे बुझा रही थी आग

Love Story In Hindi : रीता को घर के काम से फुरसत ही नहीं मिलती थी. घर में सब से बड़ी बेटी होने की वजह से वह घर का सारा काम संभालती. उस की मां अधिकतर नानी के घर जा कर रहती. रीता लापरवाह सी अपने काम में व्यस्त रहती. अकसर उस का मौसा चौरे उन के घर आता और उस से हमदर्दी जताता. चौरे सरकारी विभाग में इंजीनियर था और उस के पास अनापशनाप काफी पैसा था. वह इश्कबाज था और लड़कियों पर अकसर दिल खोल कर पैसा उड़ाता था. रीता के लिए भी वह कभी साड़ी, तो कभी मेकअप का सामान ला कर देता रहता. रीता को घर में इस सामान के बारे में कोई पूछता भी नहीं था कि उस के पास ये सब कहां से आ रहा है. उस के पिता पैतृक संपत्ति के हिस्से की बाट जोह रहे थे.

छोटी बेटियों पर वे ध्यान देते, लेकिन घर की बड़ी लड़की रीता जैसे घर की काम वाली ही मानी जाती. उसे सिर्फ काम करने के लिए कहा जाता. छोटी बहनें इधरउधर मटरगश्ती करती रहतीं, पर रीता घर के कामों में ही उलझी रहती. मां को तो अपने मायके से ही लगाव था, इसलिए वे तो अधिकतर मायके में ही रहतीं. रीता ही घर चला रही थी. मौसा चौरे के लिए यह सुनहरा मौका था. वह जबतब आ कर रीता से परांठे बनाने को कहता, कभी आमलेट बनवाता. सामान वह खुद ही ले कर आता. अकसर वह रीता के आसपास ही मंडराता रहता. धीरेधीरे उस ने रीता को कभीकभार अपने फ्लैट पर बुलाना भी शुरू कर दिया. अकसर जब रीता की मौसी कहीं बाहर गई होतीं, तो वह रीता को अपने फ्लैट पर बुला लेता और उस के साथ मौजमस्ती करता.

इधर मौसा के कहने पर रीता की मां भी उसे आसानी से भेज देतीं. वे यह भी नहीं सोचतीं कि उस की बेटी अपनी ही मौसी का घर उजाड़ रही है. बस, इसी तरह रीता अपनी मौसी की सौत बन कर अपने मौसा के साथ अपनी उभरती जवानी की आग बुझाती. मौसा अपनी हवस पूरी करता और रीता अपने भीतर की आग को मौसा के आगोश में आ कर शांत करती. अंत में हुआ यह कि रीता को दिन चढ़ गए. यह देख कर रीता की मां के होश उड़ गए. रीता के पिता तो गांव आनेजाने में ही लगे रहते थे. रीता की मां ने उस के मौसा चौरे को खूब खरीखोटी सुनाई. इस के एवज में उस ने रीता के मौसा से मोटी रकम ऐंठ ली. अब रीता के कुंआरेपन के गर्भ के लिए इधरउधर डाक्टर की खोज हुई.

रीता को बारबार उलटी होती तो छोटी बहनें पूछतीं, इसे उबकाई क्यों आ रही हैं? आखिर रीता की मां ने अपनी भाभी के साथ जा कर शहर की सैंडीमन नर्स की शरण ली. उसे मुंहमांगी रकम दी. सैंडीमन इस काम के लिए शहर में जानी जाती थीं. किसी भी कुंआरी लड़की का अनचाहा गर्भ यदि गिराना होता तो यही एकमात्र नर्स थीं, जिस के पास सुरक्षित गर्भपात किया जाता था. आखिर, रीता का गर्भ गिरा दिया गया, क्योंकि चौरे ने नोटों की गड्डी दीं और सैंडीमन नर्स एक अनुभवी चिकित्सक थीं. सैंडीमन के सहयोग से रीता को उस नाजायज गर्भ से मुक्ति मिली. वह अब दोबारा अपने मौसा के संग गुलछर्रे उड़ाने को आजाद थी, लेकिन इस बार नर्स ने उसे बताया कि वह गर्भनिरोधक इस्तेमाल करे. अधिकतर लड़कियां पहली बार इन सब बातों से अनजान रहती हैं. जवानी की धधकती आग में वे सबकुछ भूल कर अपना सर्वस्व चौरे जैसों के हाथों लुटा देने को तत्पर रहती हैं.

Social Story : दूसरा भगवान – धर्म से किस तरह हार गए डाक्टर रंजन?

Social Story : डाक्टर रंजन के छोटे से क्लिनिक के बाहर मरीजों की भीड़ थी. अचानक लाइन में लगा बुजुर्ग धरमू चक्कर खा कर गिर पड़ा. डाक्टर रंजन को पता चला. वे अपने दोनों सहायकों जगन और लीला के साथ भागे आए.

डाक्टर रंजन ने धरमू की नब्ज चैक की और बोले, ‘‘इन्हें तो बहुत तेज बुखार है. जगन, इन्हें बैंच पर लिटा कर माथे पर ठंडे पानी की पट्टियां रखो,’’ समझा कर वे दूसरे मरीजों को देखने लगे.

वहां से गुजरते पंडित योगीनाथ और वैद्य शंकर दयाल ने यह सब देखा, तो वे जलभुन गए.

‘‘योगी, यह छोकरा गांव में रहा, तो हमारा धंधा चौपट हो जाएगा. हमारे पास दवा के लिए इक्कादुक्का लोग ही आते हैं. इस के यहां भीड़ लगी रहती है,’’ भड़ास निकालते हुए वैद्य शंकर दयाल बोला.

‘‘वैद्यजी, आप सही बोल रहे हैं. अब तो झाड़फूंक के लिए मेरे पास एकाध ही आता है,’’ पंडित योगीनाथ ने भी जहर उगला.

उन के पीछेपीछे चल रहे पंडित योगीनाथ के बेटे शंभूनाथ ने उन की बातें सुनीं और बोला, ‘‘पिताजी, आप चिंता मत करो. यह जल्दी ही यहां से बोरियाबिस्तर समेट कर भागेगा. बस, देखते जाओ.’’

शंभूनाथ के मुंह से जलीकटी बातें सुन कर उन दोनों का चेहरा खिल गया. हरिया अपने बापू किशना को साइकिल पर बिठाए पैदल ही भागा जा रहा था. किशना का चेहरा लहूलुहान था.

वैद्य शंकर दयाल ने पुकारा, ‘‘हरिया, ओ हरिया. तू ने खांसी के काढ़े के उधार लिए 50 रुपए अब तक नहीं दिए. भूल गया क्या?’’

‘‘वैद्यजी, मैं भूला नहीं हूं. कई दिनों से मुझे दिहाड़ी नहीं मिली. काम मिलते ही पैसे लौटा दूंगा. अभी मुझे जाने दो,’’ गिड़गिड़ाते हुए हरिया ने रास्ता रोके वैद्य शंकर दयाल से कहा. किशना दर्द से तड़प रहा था.

‘‘शंभू, तू इस की जेब से रुपए निकाल ले.’’

‘‘वैद्यजी, रहम करो. बापू को दिखाने के लिए सौ रुपए किसी से उधार लाया हूं,’’ हरिया के लाख गिड़गिड़ाने के बाद भी पिता के कहते ही शंभूनाथ ने रुपए निकाल लिए.

डाक्टर रंजन आखिरी मरीज के बारे में दोनों सहायकों को समझा रहे थे.

‘‘डाक्टर साहब, मेरे बापू को देखिए. इन की आंख फूट गई है.’’

‘‘हरिया, घबरा मत. तेरे बापू ठीक हो जाएंगे,’’ हरिया की हिम्मत बढ़ा कर डाक्टर रंजन इलाज करने लगे.

बेचैन हरिया इधरउधर टहल रहा था कि तभी वहां जगन आया, ‘‘हरिया, तेरे बापू की आंख ठीक है. चल करदेख ले.’’

इतना सुनते ही हरिया अंदर भागा गया. ‘‘आओ हरिया, दवाएं ले आओ. शुक्र है आंख बच गई,’’ डाक्टर रंजन बोले. सबकुछ समझने के बाद हरिया ने डाक्टर रंजन को कम फीस दी, फिर हाथ जोड़ कर वैद्यजी वाली घटना सुनाई.

डाक्टर रंजन भौचक्के रह गए. ‘‘डाक्टर साहब, काम मिलते ही मैं आप की पाईपाई चुका दूंगा,’’ हरिया ने कहा. जगन और लीला लंच करने के लिए अपनेअपने घर चले गए. डाक्टर रंजन अकेले बैठे क्लिनिक में कुछ पढ़ रहे थे, तभी वहां दवाएं लिए हुए सैल्समैन डाक्टर रघुवीर आया, ‘‘डाक्टर साहब, मैं आप की सभी दवाएं ले आया हूं. कुछ दिनों के लिए मैं बाहर जा रहा हूं. जरूरत पड़ने पर आप किसी और से दवा मंगवा लेना,’’ बिल सौंप कर वह चला गया.

‘‘मैं जरा डाक्टर साहब के यहां जा रही हूं,’’ नेहा की बात सुन कर मां चौंक गईं.

‘‘क्या हुआ बेटी, तुम ठीक तो हो?’’

‘‘मां, मैं बिलकुल ठीक हूं. मेरा नर्सिंग का कोर्स पूरा हो गया है. घर में बोर होने से अच्छा है कि डाक्टर साहब के क्लिनिक पर चली जाया करूं. वहां सीखने के साथसाथ कुछ सेवा का मौका भी मिलेगा. पिताजी ने इजाजत दे दी है. तुम भी आशीर्वाद दे दो.’’

मां ने भी हामी भर दी. नेहा चली गई. डाक्टर रंजन के साथ अजय और शंभू गपशप मार रहे थे.

‘‘आज हम दोनों बिना पार्टी लिए नहीं जाएंगे,’’ अजय बोला.

‘‘नोट छाप रहे हो. दोस्तों का हक तो बनता है,’’ शंभू की बात सुन कर डाक्टर रंजन गंभीर हो गए. चश्मा मेज पर रखा, फिर बोले, ‘‘मेरी हालत से तुम वाकिफ हो. मैं जिन गरीब, लाचारों का इलाज करता हूं, उन से दवा की भी भरपाई नहीं होती. मैं ने बचपन में अपने मांबाप को गरीबी और बीमारियों के चलते तिलतिल मरते देखा है, इसलिए मैं इन के दुखदर्द से वाकिफ हूं.’’

‘‘क्या रोनाधोना शुरू कर दिया? मैं पार्टी दूंगा. चलो शहर. मैं डाक्टर रंजन की तरह छोटे दिल वाला नहीं,’’ शंभू बोला.

डाक्टर रंजन चुप रहे. तभी वहां नेहा दाखिल हुई. ‘‘आओ नेहा, सब ठीक तो है?’’ डाक्टर रंजन के पूछने पर नेहा ने आने की वजह बताई. ‘‘कल से आ जाना,’’ डाक्टर रंजन बोले.

‘‘ठीक है सर,’’ कह कर नेहा वहां से चल दी.

‘‘नेहा, ठहरो. डाक्टर साहब पार्टी दे रहे हैं,’’ शंभू ने टोका.

‘‘आप एंजौय करो. मैं चलती हूं,’’ कह कर नेहा चल दी.

‘‘शंभू, जलीकटी बातें मत करो,’’ अजय ने समझाया.

‘‘डाक्टर क्या पार्टी देगा? चलो, मैं देता हूं,’’ शंभू की बात रंजन को बुरी लगी. वे बोले, ‘‘तेरी अमीरी का जिक्र हरिया भी कर रहा था.’’

इतना सुनते ही शंभू के तनबदन में आग लग गई, ‘‘डाक्टर हद में रह, नहीं तो…’’ कह कर शंभू वहां से चला गया. अजय हैरान होते हुए बोला, ‘‘तुम दोनों क्या बक रहे हो? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है.’’

वैद्य शंकर दयाल भागाभागा पंडित योगीनाथ के पास गया. पुराने मंदिर का पुजारी त्रिलोकीनाथ भी वहीं था. ‘‘मुझे अभीअभी पता चला है कि डाक्टर की दुकान ग्राम सभा की जमीन पर बनी है और खुद सरपंच ने जमीन दी है.’’

वैद्य शंकर दयाल की बात सुन कर वे दोनों उछल पड़े. पंडित योगीनाथ बोला, ‘‘इस में हमारा क्या फायदा है?’’ ‘‘डाक्टर को भगाने की तरकीब मैं बताता हूं… वहां देवी का मंदिर बनवा दो.’’

‘‘सुनहरा मौका है. नवरात्र आने वाले हैं,’’ वैद्य शंकर दयाल की हां में हां मिलाते हुए त्रिलोकीनाथ बोला.

‘‘वैद्यजी, तुम्हारा भी जवाब नहीं.’’ ‘‘सब सोहबत का असर है,’’ पंडित योगीनाथ से तारीफ सुन कर वैद्य शंकर दयाल ने कहा.

‘‘नेहा डाक्टर के साथ कहां जा रही है. अच्छा, यह तो सरपंच की बेटी के साथ गुलछर्रे उड़ाने लगा है,’’ बड़बड़ाते हुए शंभू दयाल ने शौर्टकट लिया.

‘‘चाची, नेहा कहां है?’’ घर में घुसते ही शंभू ने पूछा.

‘‘क्या हुआ शंभू?’’ सुनते ही नेहा की मां ने पूछा.

शंभू ने आंखों देखी मिर्चमसाला लगा कर बात बता दी. मां को बहुत बुरा लगा. उन्होंने नेहा को पुकारा, ‘‘नेहा बेटी, यहां आओ.’’

नेहा को देख कर शंभू के चेहरे का रंग उड़ गया. ‘‘मेरी बेटी पर लांछने लगाते हुए तुझे शर्म नहीं आई,’’ मां ने शंभू को फटकार कर भगा दिया. ‘तो वह कौन थी?’ सोचता हुआ शंभू वहां से चल दिया.

पंडित योगीनाथ, त्रिलोकीनाथ और वैद्य शंकर दयाल सरपंच उदय प्रताप से मिलने गए. ‘‘श्रीमानजी, आप इजाजत दें, तो हम वहां देवी का मंदिर बनवाना चाहते हैं. बस, आप जमीन का इंतजाम कर दें,’’ त्रिलोकीनाथ बोले.

सरपंच बोले, ‘‘हमारी सारी जमीन गांव से दूर है और ग्राम सभा की जमीन का टुकड़ा गांव के आसपास है नहीं,’’ झट से पंडित योगीनाथ ने डाक्टर वाली जमीन की याद दिलाई. त्रिलोकीनाथ ने भी समर्थन किया.

‘‘उस जमीन के बारे में पटवारी से मिलने के बाद बताऊंगा,’’ सरपंच उदय प्रताप की बात सुन कर वे सभी मुसकराने लगे. डाक्टर रंजन, नेहा, जगन और लीला एक सीरियस केस में बिजी थे, तभी वहां अजय आया, ‘‘रंजन, गांव में बातें हो रही हैं कि इस जगह पर देवी का मंदिर बनेगा और तुम्हारा क्लिनिक यहां से हटेगा.’’

‘‘तुम जरा बैठो. मैं अभी आता हूं,’’ कह कर डाक्टर रंजन मरीजों को देखने में बिजी हो गए. फारिग हो कर वे अजय के पास आए. नेहा, जगन और लीला भी वहीं आ गए.

‘‘रंजन, मुझे थोड़ी सी जानकारी है कि इस जगह पर देवी का मंदिर बनेगा. कुछ दान देने वालों ने सीमेंटईंट वगैरह का इंतजाम भी कर दिया है. 1-2 दिन बाद ही काम शुरू हो जाएगा.’’

अजय की बात सुन कर नेहा बोली, ‘‘मैं ने तो ऐसी कोई बात घर पर नहीं सुनी.’’

‘‘तुम जानते हो, मैं दूसरे गांव से यहां आ कर अपनी दुकान में बिजी हो जाता हूं. तुम अपने मरीजों में बिजी रहते हो. न तुम्हारे पास समय है, न मेरे पास,’’ कह कर अजय डाक्टर रंजन को देखने लगे.

तभी वहां दनदनाता हुआ शंभूनाथ आया, ‘‘डाक्टर, तुम गांव के भोलेभाले लोगों को बहुत लूट चुके हो. अब अपना तामझाम समेट कर यह जगह खाली करो. यहां मंदिर बनेगा,’’ जिस रफ्तार से वह आया था, उसी रफ्तार से जहर उगल कर चला गया. सभी हक्केबक्के रह गए.

कुछ देर बाद डाक्टर रंजन बोले, ‘‘नेहा, तुम मरीजों को देखो. मैं सरपंचजी से मिलने जाता हूं. आओ अजय,’’ वे दोनों वहां से चले गए.

‘‘पिताजी, समय खराब मत करो. मंदिर बनवाना जल्दी शुरू करवा दो. मैं डाक्टर को हड़का कर आया हूं. सरपंच के भी सारे रास्ते बंद कर देता हूं,’’ शंभूनाथ ने पंडित योगीनाथ, वैद्य शंकर दयाल और पुजारी त्रिलोकीनाथ को समझाया.

‘‘सरपंच को तुम कैसे रोकोगे,’’ वैद्य शंकर दयाल ने पूछा.

‘‘वह सब आप मुझ पर छोड़ दो. जल्दी से मंदिर बनवाना शुरू करवा दो,’’ तीनों को समझाने के बाद शंभूनाथ वहां से चला गया.

‘‘सरपंचजी, आप किसी तरह हमारे क्लिनिक को बचा लो.’’

‘‘रंजन, मैं पूरी कोशिश करूंगा, क्योंकि उस जमीन के कागजात अभी तैयार नहीं हुए हैं. मैं कल कागजात पूरे करवा देता हूं,’’ डाक्टर रंजन को सरपंच उदय प्रताप ने भरोसा दिलाते हुए कहा.

रात में मंदिर बनाने का सामान आया. ट्रक और ट्रैक्टरों ने उलटासीधा लोहा, ईंट वगैरह सामान उतारा. जगह कम थी. टक्कर लगने से क्लिनिक की बाहरी दीवार ढह गई. सुबह डाक्टर रंजन ने यह सब देखा, तो वे दंग रह गए. नेहा, जगन, लीला शांत थे.

तभी पीछे से अजय ने डाक्टर रंजन के कंधे पर हाथ रखा, ‘‘इस समय हम सिर्फ चुपचाप देखने के सिवा कुछ नहीं कर सकते हैं.

‘‘मैं ने इस सिलसिले में शंभूनाथ से बात की, तो वह बोला कि मैं कुछ नहीं कर सकता,’’ कह कर अजय चुप हो गया.

जेसीबी, ट्रैक्टर वगैरह मैदान को समतल कर रहे थे. जेसीबी वाले ने जानबूझ कर क्लिनिक की थोड़ी सी दीवार और ढहा दी. ‘धड़ाम’ की आवाज सुन कर सभी बाहर आए.

‘‘डाक्टर साहब, गलती से टक्कर लग गई. आज नहीं तो कल यह टूटनी है,’’ बड़ी बेशर्मी से जेसीबी ड्राइवर ने कहा. सभी जहर का घूंट पी कर रह गए.

शंभूनाथ ने पुजारी त्रिलोकीनाथ से कहा, ‘‘पुजारीजी, सब तैयारी हो चुकी है. आप बेफिक्र हो कर मंदिर बनवाना शुरू कर दो. मेरे एक दोस्त ने, जो विधायक का सब से करीबी है, विधायक से थाने, तहसील, कानूनगो को फोन कर के निर्देश दिया है. उस जमीन पर सिर्फ मंदिर ही बने. अब हमारा कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है.’’

सारी बातें सुनने के बाद पुजारी त्रिलोकीनाथ खुश हो गए. डाक्टर रंजन और अजय बहुत सोचविचार के बाद थाने गए. थानेदार ने जमीन के कागजात मांगे. कागजात न होने के चलते रिपोर्ट दर्ज न हो सकी. दोनों बुझे मन से थाने से निकल आए.

सरपंच उदय प्रताप पटवारी और कानूनगो से मिले, ‘‘आप किसी तरह से डाक्टर के क्लिनिक के कागजात आज ही तैयार कर दो. बड़ी लगन और मेहनत से डाक्टर रंजन गांव वालों की सेवा कर रहे हैं. कृपया, आप मेरा यह काम कर दो,’’ सरपंच की सुनने के बाद उन दोनों ने असहमति जताई. सरपंच उदय प्रताप को बड़ा दुख हुआ.

दोनों की नजर तहसील से बाहर आते उदय प्रताप पर पड़ी. उन की चाल देख डाक्टर रंजन और अजय समझ गए कि काम नहीं हुआ. ‘‘काम नहीं हुआ क्या सरपंचजी,’’ डाक्टर रंजन ने पूछा.

‘‘नहीं. बस एक उम्मीद बची है. विधायक साहब से मिले लें,’’ सरपंच उदय प्रताप का सुझाव दोनों को सही लगा. तीनों उन से मिलने चल दिए.

नेहा, जगन, लीला वगैरह बड़ी बेचैनी से तीनों के आने का इंतजार कर रहे थे. ‘‘डाक्टर साहब, हम आखिरी बार कह रहे हैं कि क्लिनिक खाली कर दो, नहीं तो सब इसी में दब जाएगा,’’ शंभूनाथ की चेतावनी सुन कर वे तीनों बाहर आए. शंभूनाथ वहां से जा चुका था.

विधायक का दफ्तर बंद था. घर पहुंचे, तो गेट पर तैनात पुलिस ने उन्हें अंदर नहीं जाने दिया. थकहार कर उदय प्रताप, अजय और डाक्टर रंजन गांव आ गए.

मंदिर की नींव रख दी गई थी. प्रसाद बांटा जा रहा था. जयकारे गूंज रहे थे.

‘‘पंडितजी ने मंदिर के लिए सही जगह चुनी है. उन्होंने गांव के लिए सही सोचा,’’ एक बुजुर्ग ने योगीनाथ की तारीफ करते हुए कहा.

तीनों के जानपहचान वाले डाक्टर रंजन को कोस रहे थे. कुछ गालियां दे रहे थे.

‘‘चोर है, गरीबों को लूट रहा है, नकली दवाएं देता है, पानी का इंजैक्शन लगा कर पैसे बना रहा है, पंडितजी इस को सही भगा रहे हैं,’’ एक आदमी बोला. एक आदमी सरपंच को भी बुराभला कह रहा था, ‘‘अब की इसे वोट नहीं देंगे, यह डाक्टर के साथ मिल कर गांव को लूट रहा है.’’

कुछ ही लोग सरपंच और डाक्टर रंजन के काम को अच्छा कह रहे थे. सरपंच उदय प्रताप डाक्टर रंजन के क्लिनिक के बाहर खड़े थे. नेहा, जगन, लीला और अजय भी वहीं मौजूद थे.

‘‘बेटे, जगह खाली करने के सिवा अब और कोई चारा नहीं है. गांव के भोलेभाले लोग पंडित योगीनाथ, वैद्य शंकर दयाल और पुजारी त्रिलोकीनाथ के मकड़जाल में फंस चुके हैं. हमारी सुनने वाला कोई नहीं. कोर्ट के चक्कर में फंसने से भी कोई हल नहीं निकलेगा,’’ सरपंच की बात सुन कर डाक्टर रंजन मायूस हो गए.

बहुत देर बाद डाक्टर रंजन ने पूछा, ‘‘फिर, मैं क्या करूं?’’

सरपंच उदय प्रताप बोले, ‘‘बेटे, गांव के नासमझ लोगों पर मंदिर बनवाने का भूत सवार है. इन्हें डाक्टररूपी दूसरे भगवान से ज्यादा जरूरत पत्थररूपी भगवान की चाह है. इन लोगों को हम जागरूक नहीं कर सकते. इन्हें सिर्फ इन का जमीर, इन की अक्ल ही जागरूक कर सकती है. हम हार चुके हैं रंजन, हम हार चुके हैं.’’

मायूस हो कर सरपंच उदय प्रताप वहां से चले गए. सभी मिल कर क्लिनिक खाली करने लगे. डाक्टर रंजन शांत खड़े थे.

Hindi Stories Love : कैक्टस के फूल – क्या विजय और सुषमा हमसफर बन पाए?

Hindi Stories Love : फोन आने की खबर पर सुषमा हड़बड़ी में पलंग से उठी और उमाजी के क्वार्टर की ओर लंबे डग भरती हुई चल पड़ी. कैक्टस के फूलों की कतार पार कर के वह लौन में कुरसी पर बैठी उमाजी के पास पहुंच गई.

‘‘तुम्हारे कजिन का फोन आया है, वह शाम को 7 बजे आ रहा है. उस के साथ कोई और भी आ रहा है इसलिए कमरे को जरा ठीकठाक कर लेना,’’ उमाजी के चेहरे पर मुसकराहट आ गई.

उमाजी के चेहरे पर आज जो मुसकराहट थी, उस में कुछ बदलाव, सहजता और सरलता भी थी. उमाजी तेज स्वर में बोली, ‘‘आज कोई अच्छी साड़ी भी पहन लेना. सलवारकुरता नहीं चलेगा.’’

बोझिल मन के साथ वह कब अपने रूम में पहुंच गई उसे पता ही नहीं चला. एक बार तो मन में आया कि वह तैयार हो जाए, फिर सोचा कि अभी से तैयार होने से क्या फायदा? आखिर विजय ही तो आ रहा है.

कई महीने पहले की बात है, उस दिन सुबह वाली शटल टे्रन छूट जाने के बाद पीछे आ रही सत्याग्रह ऐक्सप्रैस को पकड़ना पड़ा था. चैकिंग होने की वजह से डेली पेसैंजर जनरल बोगी में लदे हुए थे. वह ट्रेन में चढ़ने की कोशिश कर रही थी तभी टे्रन चल पड़ी. गेट पर खड़े विजय ने उस का हाथ पकड़ कर उसे गेट से अंदर किया था. उस ने कनखियों से विजय को देखा था. सांवले चेहरे पर बड़ीबड़ी भावुक आंखों ने उसे आकर्षित कर लिया था.

उस के बाद वह अकसर विजय के साथ ही औफिस तक की यात्रा पूरी करती. विजय राजनीति, साहित्य और फिल्मों पर अकसर बहस व गलत परंपराओं और कुरीतियों के प्रति नाराजगी प्रकट करता. विजय मेकअप से पुती औरतों पर अकसर कमैंट करता. इस बात पर वह सड़क पर ही उस से झगड़ा करती और फिर विजय के हावभाव देखती.

एक दिन सुबह ही वह उमाजी के क्वार्टर पर पहुंची और उन से फिरोजाबाद से मंगाई चूडि़यां मांगने लगी थी. ‘मैडम, आप ने कहा था कि रंगीन चूडि़यां तो आप पहनती नहीं हैं, आप के पास कई पैकेट आए थे, उन में से एक…’

‘अरे, तुझे चूडि़यों की कैसे याद आई? तू तो कहती थी कि साहब के सामने डिक्टेशन लेने में चूडि़यां बहुत ज्यादा खनकती हैं. एकदो पैकेट तो मैं ने आया मां की लड़की को दे दिए हैं, वह ससुराल जा रही थी पर तुझे भी एक पैकेट दे देती हूं.’

एक दिन उमाजी ने सुषमा से मुसकराते हुए पूछा, ‘तुम्हारे जिस कजिन का फोन आता है, उस से तुम्हारा क्या रिश्ता है?’

वह एकदम हड़बड़ा सी गई. उस ने अपने को संयत करते हुए कहा, ‘अशोक कालोनी में मेरे दूर के रिश्ते की आंटी हैं, उन का बेटा है.’

‘सीधा है, बेचारा,’ उमाजी मुसकराईं.

‘क्या मतलब आंटी? कैसे? मैं समझी नहीं,’ उस ने अनजान बनने की कोशिश की.

‘मैं ने फोन पर उस से तेज आवाज में पूछ लिया कि आप सुषमा से बात तो करना चाहते हैं पर बोल कौन रहे हैं, तो वह हड़बड़ा कर बोला, ‘मैं विजय सरीन बोल रहा हूं, मैं बहुत देर तक सोचती रही कि सरीन सुषमा गुप्ता का कजिन कैसे हो सकता है.’

‘ओह आंटी, आप को तो सीबीआई में होना चाहिए था. एक होस्टल वार्डन का पद तो आप के लिए बहुत छोटा है.’

उमाजी सुषमा में आए परिवर्तन को अच्छी तरह समझने लगी थीं. वे बेटी की तरह उसे प्यार करती थीं.

मुरादाबाद में सांप्रदायिक दंगे होने के कारण टे्रनों में भीड़ नहीं थी. एक दिन विजय उसे पेसैंजर टे्रन में मिल गया था. कौर्नर की सीट पर वह और विजय आमनेसामने थे. हलकी बूंदाबांदी होने से बाहर की तरफ फैली हरियाली मन को अधिक लुभा रही थी. सुषमा भी बेहद खूबसूरत नजर आ रही थी.

‘आज तुम्हें देख कर करीना कपूर की याद ताजा हो रही है,’ विजय ने उस को देख कर कहा. उसे लगा कि विजय ने शब्द नहीं चमेली के फूल बिखेर दिए हों. उस ने एक नजर विजय की ओर डाली तो वह दोनों हाथ खिड़की से बाहर निकाल कर बरसात की बूंदों को अपनी हथेलियों में समेट रहा था.

वह उस से कहना चाहती थी कि विजय, तुम्हें एकपल देखने के लिए मैं कितनी रहती हूं. तुम से मिलने की खातिर बेचैन अलीगढ़, कानपुर, इलाहाबाद शटल को छोड़ कर सर्कुलर से औफिस जाती हूं और देर से पहुंचने के कारण बौस की झिड़की भी खाती हूं.

अकसर विजय उस से मिलने होस्टल भी आ जाता था. उसे भी रविवार और छुट्टी के दिन उस का बेसब्री से इंतजार रहता था. अकसर रूटीन में वह रविवार को ही कमरा साफ करती थी, पर जब उसे मालूम होता कि विजय आ रहा है तो विशेष तैयारी करती. अपने लिए वह इतनी आलसी हो जाती थी कि मौर्निंग टी भी स्टेशन पहुंच कर टी स्टौल पर पीती. विजय के जाने के बाद जो सलाइस बच जाती उन्हें भी नहीं खाती. उसे या तो चूहे खा जाते या फिर माली के लड़के को दे देती, जिन्हें वह दूध में डाल कर बड़े चाव से खाता.

एक दिन विजय ने सुषमा के सारे सपने तोड़ दिए थे. डगमगाते कदमों से वह रूम तक आया और ब्रीफकेस को पटक कर पलंग पर लेट गया. शराब की दुर्गंध पूरे कमरे में फैल गई थी. उस ने उठ कर दरवाजे पर पड़ा परदा हटा दिया था.

उसे आज विजय से डर सा लगा था, जबकि वह उस के साथ नाइट शो में फिल्म देख कर भी आती रही है.

‘सुषमा, तुम जैसी खूबसूरत और होशियार लड़की को अपना बनाने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है. उस दिन ट्रेन में पहले मैं चढ़ा था, मैं जानता था कि चलती टे्रन में चढ़ने के लिए तुम्हें सहारे की जरूरत होगी. उस दिन तुम्हें सहारा दे कर मैं ने आज तुम्हें अपने पास पाया,’ विजय ने लड़खड़ाती जबान से बोला.

उस ने सोचा था कि अपने सपनों को भरने के लिए उस ने गलत रंगों का इस्तेमाल कर लिया है. उस का चुनाव गलत साबित हुआ है. उस दिन सुषमा एक लाश बनी विजय को देखती रही थी. चौकीदार की सहायता से उस की मोटरसाइकिल को अंदर खड़ा करवा कर उसे ओटो से उस के घर के बाहर तक छोड़ आई थी. सुबह विजय चुपके से चौकीदार से मोटरसाइकिल मांग कर ले गया था.

अगले दिन उमाजी ने सुषमा को एक माह के अंदर होस्टल खाली करने का नोटिस दे दिया था. वह नोटिस ले कर मिसेज शर्मा के पास गई और उन के गले लग कर फफकफफक कर रो पड़ी थी. उमाजी ने नोटिस फाड़ दिया था.

विजय से मिलने में उस की कोई खास दिलचस्पी नहीं रह गई थी. उस ने अब लेडीज कंपार्टमैंट में आनाजाना शुरू कर दिया था. अगर वह स्टेशन पर मिल भी जाता तो हल्का सा मुसकरा कर हैलो कह देती. उस का सुबह उठने से ले कर रात सोने तक का कार्यक्रम एक ढर्रे पर चलने लगा था.

सुषमा की नीरसता से भरी दिनचर्या उमाजी से देखी नहीं गई. एक दिन उमाजी ने उसे चाय पर बुलाया, ‘सुषमा, नारी विमर्श और नारी अधिकारों की चर्चाएं बहुत हैं पर आज भी समाज में पुरुषों का डोमिनेशन है. इसलिए बहुत कुछ इग्नोर करना पड़ता है और तू कुछ ज्यादा ही भावुक है. अपनी जिंदगी को प्रैक्टिकल बना कर खुश रहना सीखो.

‘शराब को ले कर ही तो तुम्हारे अंकल से मैं लड़ी थी. 2 दिन बाद ही एक विमान दुर्घटना में उन की मौत हो गई. आज भी उस बात का मुझे दुख है.’

अचानक स्मृतियों की शृंखला टूट गई. सुषमा ने देखा कि गेट पर उमाजी खड़ी थीं. उन के हाथ में रात में खिले कैक्टस के फूल के साथ ही पिंक कलर की एक साड़ी थी.

‘‘आंटीजी, आप ने मुझे बुला लिया होता,’’ सुषमा को पता है कि पिंक कलर विजय को पसंद है.

‘‘जाओ, इस साड़ी को पहन लो.’’

साड़ी पहन कर जैसे ही सुषमा कमरे में आई तो उसे उमाजी के साथ एक और भद्र महिला दिखीं. उमाजी ने परिचय कराया, ‘‘यह तुम्हारे कजिन विजय की मम्मी हैं.’’

‘‘सुषमा, मेरा बेटा बहुत नादान है. तुम तो बहुत समझदार हो. उस के लिए तुम से मैं माफी मांगने आई हूं. तुम दोनों की स्मृतियों के हर पल को मैं ने महसूस किया, क्योंकि तुम्हारे से हुई हर मुलाकात का ब्योरा वह मुझे देता था. जिस रात तुम ने उसे घर तक छोड़ा है, उस रात वह मेरे गले लग कर बहुत रोया था. तुम उस के जीवन में एक नया परिवर्तन ले कर आई हो,’’ विजय की मम्मी ने सुषमा के चेहरे से नजरें हटा कर उमाजी की ओर डालीं, ‘‘उमाजी ने तुम तक पहुंचने में हमारी बहुत मदद की है. मैं तुम्हें अपनी बहू बनाना चाहती हूं, क्योंकि मेरे बेटे के उदास जीवन में अब तुम ही रंग भर सकती हो. यह साड़ी में उसी की पसंद की तुम्हारे लिए लाई हूं.’’

‘‘सुषमा, हर बेटी को विदा करने का एक समय आता है. विजय ने तुम्हें एक अंगूठी दी थी, तुम ने उसे कहीं खो तो नहीं दिया है.’’

‘‘नहीं आंटी, वह ट्रंक में कहीं नीचे पड़ी है,’’ सुषमा ने ट्रंक खोल कर अंगूठी निकाली तथा सड़क की ओर खुलने वाली खिड़की को खोल दिया.

सुषमा ने देखा, बाहर मोटरसाइकिल पर विजय बैठा था. उमाजी और विजय की मम्मी ने एकसाथ आवाज दी, ‘‘विजय, ऊपर आ जा. इस अंगूठी को तो तू ही पहनाएगा,’’ सुषमा को लगा जैसे उस के सपने इंद्रधनुषी हो गए हैं. Hindi Stories Love 

Family Story Hindi : दुविधा – क्या संगीता शादी के लिए तैयार थी?

Family Story Hindi : संगीता को लगा कि उस के विचार सौमिल के विचारों से मेल नहीं खाते. उसे घूमने फिरने, मस्ती करने, डांस करने, पार्टियों में जाना तथा फैशनेबल कपड़े पहनना पसंद है जबकि सौमिल को शांत वातावरण, एकांत, साधारण रहनसहन एवं पुस्तकें पढ़ना पसंद है. इसीलिए संगीता को ही अंतत: फैसला करना पड़ा. देवकुमार सुबह से ही काफी खुश नजर आ रहे थे. उन की बेटी संगीता को देखने के लिए लड़के वाले आने वाले थे. घर की पूरी साफसफाई तो उन्होंने कल ही कर डाली थी. फ्रूट्स, ड्राइफ्रूट्स तथा अच्छी क्वालिटी की मिठाई आज ले आए थे. लड़का रेलवे में इंजीनियर है, अच्छी तनख्वाह पाता है. लड़के के साथ उस के भाईभाभी व मातापिता भी आ रहे थे. वैसे, लड़के के मातापिता ने तो संगीता को पहले ही देख लिया था और पसंद भी कर लिया था. पसंद आती भी क्यों न? संगीता सुंदर तो है ही, बहुत व्यवहारकुशल भी है. उस ने भी इंजीनियरिंग की है तथा बैंक में काम कर रही है.

देवकुमार सरकारी मुलाजिम थे और उन की पत्नी अंजना सरकारी विद्यालय में शिक्षिका. इकलौती बेटी होने से उन दोनों की इच्छा थी कि जानेपहचाने परिवार में रिश्ता हो जाए, तो बहुत अच्छा होगा. लड़के वाले पास ही के शहर के थे और उन के दूर के रिश्तेदार, जिन के माध्यम से शादी की बात शुरू हुई थी, देवकुमारजी के भी दूर के रिश्ते में लगते थे. देवकुमार ने अपनी बहन व बहनोई को भी बुला लिया था ताकि उन की राय भी मिल सके. ठीक समय पर घर के सामने एक कार आ कर रुकी. देवकुमार और उन के बहनोई ने दौड़ कर उन का स्वागत किया. ड्राइंगरूम में आ कर सभी सोफे पर बैठ गए. लड़का थोड़ा दुबला लगा लेकिन स्मार्ट, चैक वाली हाफशर्ट तथा जींस पहने हुए, छोटी फ्रैंचकट दाढ़ी. बड़े भाई का एक छोटा सा बच्चा भी था, वे उसे खिलाने में ही व्यस्त रहे. लड़के के पिता बैंक मैनेजर थे.

उन्हें सेवानिवृत्त होने में एक वर्ष बचा था. काफी बातूनी लगे. बच्चों के जन्म से ले कर उन की पढ़ाई और फिर नौकरी तक की बातें बता डालीं. संगीता भी इसी बीच आ चुकी थी. लड़के की मां व भाभी उस से पूछताछ करती रहीं. लड़के की मां ने सु झाव दिया कि एक अलग कमरे में सौमिल और संगीता को बैठा दें ताकि वे एकदूसरे को सम झ सकें. संगीता की मां दोनों को बगल के कमरे में छोड़ कर आईं. इधर नाश्ते के साथसाथ मैनेजर साहब की बातों में पता ही न चला कि कब एक घंटा बीत गया. तब तक संगीता और सौमिल भी वापस आ चुके थे. मैनेजर साहब और उन का परिवार आवभगत से संतुष्ट नजर आए. चलते समय देवकुमार के कंधे पर हाथ रख कर बोले, ‘‘हम लोगों को दोतीन दिनों का वक्त दीजिए ताकि घर में सब बैठ कर चर्चा कर सकें और आप को निर्णय बता सकें.’’

उन्हें आत्मीयता से विदा कर देवकुमार का परिवार फिर ड्राइंगरूम में बैठ कर सौमिल और उस के परिवार का विश्लेषण करने लगे. सभी की राय एकमत थी कि परिवार अच्छा व संभ्रांत है. लड़का थोड़ा दुबला है लेकिन सुंदर और स्मार्ट है. उस की सोच व विचार कैसे हैं, यह तो संगीता ही बता पाएगी कि उस से क्या बातें हुईं. संगीता ने अपनी मां को जो बताया उसे लगा कि उस के विचार सौमिल के विचारों से मेल नहीं खाते. संगीता को घूमनेफिरने, मस्ती करने, डांस करने, पार्टियों में जाना तथा फैशनेबल कपड़े पहनना पसंद है. सौमिल को शांत वातावरण, एकांत, साधारण रहनसहन एवं पुस्तकें पढ़ना पसंद है. लड़के की मां को ऐसी बहू चाहिए जो अच्छा खाना बनाना जानती हो, गृहस्थी के कार्यों में कुशल हो. उन्हें बहू से नौकरी नहीं करानी. उन्होंने संगीता से कम से कम 4-5 बार पूछा कि क्या वह खाना बना लेती है? क्याक्या बना लेती है? लड़के के विचार संगीता को पसंद नहीं आए, यह सुन कर देवकुमार चिंता में पड़ गए.

अभी तक वे बहुत खुश थे कि बिना इधरउधर भटके अच्छा घर तथा अच्छा वर मिल रहा है. थोड़ी देर के लिए शांति छा गई, फिर अंजना ने कहा कि अब यदि उन का फोन आता है तो उन्हें क्या जवाब देना है? सभी ने निर्णय संगीता पर ही छोड़ने को तय किया. आखिर उसे पूरी जिंदगी निर्वाह करना है. 3 दिन बीत जाने पर भी जब कोई फोन नहीं आया तो सभी अपनेअपने अनुमान लगाने लगे. संगीता के फूफाजी बोले, ‘‘मु झे लगता है कि लड़के के बड़े भाई और भाभी को संगीता पसंद नहीं आई, वे दोनों एकदूसरे से आंखोंआंखों के इशारों से पसंद आने न आने का पूछ रहे थे. मैं ने देखा कि बड़े भाई ने नकारात्मक इशारा किया था. आप लोगों ने नोटिस किया होगा, बड़ा भाई एक शब्द भी नहीं बोला पूरे समय, अपने बच्चे को खिलाने में ही लगा रहा था.’’ संगीता की मां बोली, ‘‘हमारी लड़की के सामने तो लड़का कुछ भी नहीं. गोरे रंग और सुंदरता में तो हमारी संगीता इक्कीस ही ठहरती है.’’ संगीता हंसती हुई बोली, ‘‘हम दोनों की जिस तरह से बातें हुई हैं, वह घबरा गया होगा, कभी हामी नहीं भरेगा.’’

संगीता के उठ कर चले जाने के बाद देवकुमार बोले, ‘‘यदि उन की तरफ से रिश्ता स्वीकार नहीं होता है तो हमारी संगीता के मन पर चोट पड़ेगी. पहली बार ही उस को दिखाया है और उन के मना कर देने पर मनोवैज्ञानिक असर तो पड़ेगा ही, उसे सदमा भी लगेगा.’’ संगीता की बूआजी बोली, ‘‘देखो, 2 लोगों के एकजैसे विचार हों, यह तो संभव ही नहीं. जब 2 सगे भाईबहनों के विचार नहीं मिलते, तो ये तो दूसरे परिवार का मामला है. विवाह तो समन्वय बनाने की कला है, प्रेम और त्याग का रिश्ता है. और यह तो सदियों से होता चला आ रहा है कि लड़की को ही निभाना पड़ता है. हमारी संगीता सब कर लेगी. शांत मन से मैं कल उस से बात करूंगी.’’ देवकुमार को पूरी रात नींद नहीं आई. उन्हें संगीता की बूआजी की बातें तर्कसंगत लगीं. वे सोचने लगे कि संगीता को एडजस्ट करना ही होगा.

यदि कल शाम तक बैंक मैनेजर साहब का फोन नहीं आता है तो मैं स्वयं फोन लगा कर बात करूंगा. दूसरे दिन बुआजी ने संगीता को सम झाने की कोशिश की किंतु व्यर्थ. संगीता बोली, ‘‘बूआजी, उन्हें सिर्फ खाना बनाने वाली बाई चाहिए तो शादी क्यों कर रहे हैं? एक नौकरानी रख लें. एडजस्टमैंट एक तरफ से संभव नहीं, दोनों तरफ से होना चाहिए. यह 21वीं सदी का दौर है. जमाना बदल गया है. उन की मम्मीजी ने कम से कम दस बार यही पूछा, ‘खाना बना लेती हो, क्याक्या बना लेती हो? हमारा लड़का खाने का बहुत शौकीन है, अभी होटल का खाना खाखा कर 3-4 किलो वजन कम हो गया है उस का.’’ देवकुमार शाम को बाजार से घर पहुंचे ही थे कि मैनेजर साहब का फोन आ गया.

बड़े ही साफ शब्दों में उन्होंने पूरी बात बताई कि संगीता सभी को अच्छी लगी है. सौमिल का कहना है कि उन दोनों की सोच और विचार मेल नहीं खाते हैं, फिर भी यदि संगीता को एडजस्ट करने में कोई दिक्कत न हो तो उसे कोई आपत्ति नहीं है. ‘‘आप सब सोचसम झ कर जो भी फैसला लें, मु झे 6-7 दिनों में बता दीजिएगा,’’ मैनेजर साहब ने बड़ी विनम्रता से अपनी बात समाप्त की. अब गेंद देवकुमार के पाले में आ गई थी. कल रात कैसेकैसे खयाल आते रहे थे. बेटी के मन पर सदमे का सोचसोच कर परेशान थे. मैनेजर साहब कितने सुल झे हुए और स्पष्टवादी हैं. संगीता को सम झना होगा. एक अच्छी और स्ट्रेट फौरवर्ड फैमिली है. रात में खाना खाते समय मन में एक ही बात घूमफिर कर बारबार आ रही थी कि कैसे संगीता को अपने मन की बात सम झाऊं. मैं ने और अंजना ने जो चाहा था, सब मिल रहा है.

लड़का अच्छा पढ़ालिखा, अच्छी नौकरी वाला, सुंदर और स्मार्ट है. जानापहचाना परिवार है. और सब से बड़ी बात, पास के शहर में रहेगी तो कभी भी बुला लो या जा कर मिल आओ. वे बारबार संगीता को देखते, उस के मन में क्या चल रहा होगा, फिर सोचते, नहीं अपने स्वार्थ के लिए उस की इच्छा पर अपनी इच्छा नहीं लाद सकते. खाने के बाद सब ड्राइंगरूम में बैठे. देवकुमार ने मैनेजर साहब के जवाब से संगीता को अवगत कराते हुए कहा, ‘‘बेटे, अब हम लोग बड़ी दुविधा में हैं, सबकुछ हम लोगों के मनमाफिक है पर अंतिम निर्णय तो तुम्हारी इच्छा से ही होगा. तुम चाहो तो सौमिल से मोबाइल पर और बात कर सकती हो.’’ संगीता पापा से कहना चाहती थी कि आज 4 दिन हो गए, यदि सचमुच मैं पसंद हूं उन्हें तो क्या सौमिल को नहीं चाहिए था कि वह मु झ से बात करता? इस में भी उस का ईगो है? मोबाइल पर बात करने की शुरुआत करने में भी मु झे ही एडजस्ट करना है? लेकिन उस ने कुछ नहीं कहा, चुपचाप उठ कर अपने कमरे में चली गई. देवकुमार चुपचाप उसे जाते देखते रहे. Family Story Hindi

USA : लोकतंत्र बहाली के लिए अमेरिका को ट्रंपवादी राजनीति से निकलना होगा

USA : ट्रंप की राजनीतिक रेलगाड़ी डर और नफरत के उसी कोयले पर चलती है, जिस से भारत में भगवा पार्टी के मुखिया की चलती है. नफरत और धार्मिक उन्माद पैदा किए बगैर सत्ता पाना इन के बस की बात ही नहीं है.

लौस एंजलिस में नेशनल गार्ड्स की तैनाती, सड़कों पर पुलिस का तांडव, प्रदर्शनकारियों की चीखें और रुदन, हाथों में पोस्टरबैनर और मशालें, सरकारी आतंक से लोहा लेने की मजबूरी, अमेरिका की ऐसी स्थिति देख कर दुनिया अचरज में है. अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के बाद डोनाल्ड ट्रंप ने नारा दिया था, ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’, लेकिन अब उन के अटपटे फैसलों और उन के नतीजों को देख कर ऐसा लगता है, जैसे उन का लक्ष्य हो ‘मेक अमेरिका बेड अगेन’ क्योंकि ट्रंप के शासन में अमेरिका में ग्रेटनेस कम और विवाद और प्रदर्शन ज्यादा हो रहे हैं.

अमेरिका के दुश्मनों की संख्या ज्यादा हो रही है और दोस्तों की गिनती कम होती जा रही है. यहां तक कि जिन दोस्तों के अथक प्रयासों ने ट्रंप को सत्ता हासिल करने में मदद की, वे भी अब ट्रंप के निर्णयों से खफा हो कर किनारा कर रहे हैं.

ट्रंप की नस्लवादी सोच, दिखावा, घमंड, ताकत के प्रदर्शन का शौक और धार्मिक कट्टरता ने अमेरिका को गृहयुद्ध की स्थिति में झोंक दिया है. ट्रंप ने अवैध प्रवासियों को रिकार्ड संख्या में निर्वासित करने और अमेरिका व मैक्सिको सीमा बंद करने का ऐलान किया है.

ट्रंप की डिपोर्टेशन पौलिसी के तहत इमिग्रेशन एंड कस्टम्स इंफोर्समेंट (ICE) को हर दिन बिना दस्तावेज वाले 3000 अप्रवासियों को रिकार्ड संख्या में गिरफ्तार कर डिपोर्ट करने का लक्ष्य है. जिस के तहत लोगों को गिरफ्तार कर जबरन हथकड़ीबेड़ी में जकड़ कर उन के देश वापस भेजा जा रहा है. इस के विरोध में लौस एंजलिस सहित अमेरिका के 12 राज्यों के 25 शहरों के लोग सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं.

सैन फ्रांसिस्को, डलौस, औस्टिन, टेक्सास और न्यूयौर्क जैसे शहरों में प्रदर्शन उग्र रूप लेता जा रहा है. प्रदर्शनकारियों के आगे जीवनमरण का सवाल है इसलिए अब उन्हें पुलिस की गोलियों का भी खौफ नहीं है. ये वे लोग हैं जिन्हें ट्रंप ने अवैध प्रवासी का तमगा दिया है. मगर ये कोई आसमान से टपके एलियंस तो नहीं हैं. ये वही लोग हैं जो सालों से अमेरिका की अर्थव्यवस्था की रीढ़ बने हुए हैं. जो वहां दुकानों में काम करते हैं. बड़ीबड़ी बिल्डिंग्स और घर बनाते हैं. फल और अनाज उगाते हैं. गाड़ियां ठीक करते हैं.

दशकों से ये लोग वहां रह रहे हैं. ये न हों तो अमेरिका की रफ्तार थम जाए मगर इस वक्त ट्रंप को इन लोगों से परेशानी है. क्यों? क्योंकि उन्हें डर है कि कहीं उन की राजनीति की रेलगाड़ी पटरी से न उतर जाए, उन को वोटों का ईधन का मिलता रहे, इसलिए अमेरिका भर में बाहरी लोगों की धरपकड़ का खेल चल रहा है.

दरअसल ट्रंप की राजनीतिक रेलगाड़ी डर और नफरत के उसी कोयले पर चलती है, जिस से भारत में भगवा पार्टी के मुखिया की चलती है. नफरत और धार्मिक उन्माद पैदा किए बगैर सत्ता पाना इन के बस की बात ही नहीं है. जैसे भारत में ‘बाहरियों’ का होहल्ला मचा कर एनआरसी व सीएए करवाया जा रहा है, बिलकुल उसी तर्ज पर अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप अप्रवासियों की धरपकड़ के लिए छापे पड़वा रहे हैं.

उन्हें यह गुमान है कि इस से गोरी चमड़ी वाले अमेरिकी खुश होंगे और उन की प्रसिद्धि बढ़ेगी. संविधान क्या कहता है, राज्यों के मेयर क्या चाहते हैं, जनता क्या चाहती है इस की ट्रंप को रत्तीभर परवाह नहीं है. तानाशाही रवैय्या इख्तियार कर वे लोकतंत्र का नेतृत्व करने का प्रयास कर रहे हैं. हास्यास्पद!

ट्रंप राज्य सरकारों की असहमति के बावजूद उन के राज्यों में सैनिकों की तैनाती कर के अप्रवासियों को दंगाई का तमगा दे कर विरोध की आवाज को कुचलने की कोशिश कर रहे हैं. 4000 नैशनल गार्ड्स और 700 मरीन की तैनाती देख कर ऐसा मालूम होता है कि हौलीवुड हस्तियों की रिहाइश के लिए मशहूर लौस एंजलिस कोई जंग का मैदान हो.

मेयर कैरन बैस ने नेशनल गार्ड और मरीन्स को भेजने की आलोचना करते हुए कहा कि अभी हम अंधेरे में हैं. हमें नहीं पता कि कब क्या होने वाला है. हमारे पास इस स्थिति से निपटने की क्षमता है और हमें सेना या नेशनल गार्ड्स की जरूरत नहीं है, खासकर तब जब हम ने इस के लिए कहा ही नहीं था. राष्ट्रपति ने राज्यपाल की शक्ति छीन ली है. यह अस्वीकार्य है.

वहीं, ट्रंप कैलिफोर्निया के गवर्नर गेविन न्यूसम को गिरफ्तार करने की बात कह रहे हैं. ट्रंप का कहना है कि न्यूसम ने बहुत खराब काम किया है. उन का सब से बड़ा जुर्म है कि वे फिर से गवर्नर बनना चाहते हैं. इस के लिए वे विद्रोहियों को पैसे से मदद कर रहे हैं. ट्रंप ने चेतावनी दी है कि अगर हिंसा जारी रही तो वे विद्रोह कानून लागू करेंगे.

ट्रंप कहते हैं, यह सब वे कानून और व्यवस्था के लिए कर रहे हैं. कानून व्यवस्था भी क्या कमाल की चीज है. जब कैलिफोर्निया के गवर्नर गेविन न्यूसम और मेयर कैरन बैस कहती हैं कि ये पुलिस तैनातियां गैरकानूनी हैं तो ट्रंप गरजते हैं, और कहते हैं, “अगर ये लोग अपना काम नहीं कर सकते, तो मैं करूंगा.” ठीक है आखिर वे अमेरिका के राष्ट्रपति हैं – सर्वशक्तिमान और सर्वसमर्थ. उन्हें इस से कोई मतलब नहीं कि गवर्नर कहते हैं कि ये तैनाती तानाशाही है, राज्य की संप्रभुता का उल्लंघन है.

ट्रंप के लिए तो शायद संविधान भी एक पुरानी किताब भर है, रद्दी में बेचने लायक. यह सबकुछ बिलकुल वैसा ही है जैसे भारत में पश्चिम बंगाल में ममता सरकार की आपत्तियों के बावजूद केंद्र की मोदी सरकार वहां हर बात में अपनी टांग अड़ाए रखना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती है. उन की अनुमति के बिना सीबीआई भेज देती है.

दिल्ली की पिछली केजरीवाल सरकार हो या पंजाब की भगवंत मान सरकार, उन के राज्य के अधिकारों को कुचल कर अपनी मनमर्जी चलाने में केंद्र को जो आनंद आता है, वैसे ही ट्रंप को आ रहा है.

लौस एंजिलस की सड़कों पर आंसू गैस, रबर की गोलियां, फ्लैश बम चल रहे हैं. प्रदर्शनकारी चिल्ला रहे हैं – जिन्हें कैद किया उन्हें आजाद करो और ट्रंप फतवा दे रहे हैं – दंगाइयों को कुचल देंगे. शांति और सद्भावना से जीने की इच्छा रखने वाले अमेरिकी पूछ रहे हैं कि ये दंगाई कौन हैं? ये तो वे लोग हैं जिन के घरों पर आप ने छापे मारे, जिन के परिवारों को आप ने बिखेर दिया, जिन के आशियाने आप ने उजाड़ दिए.

ये लोग सड़कों पर इसलिए नहीं उतरे कि इन्हें दंगा करना पसंद है या इन्हें पुलिस की गोलियों से मरने का शौक है, बल्कि ये सड़क पर इसलिए उतरे हैं क्योंकि उन की जिंदगी को आप की संकुचित राजनीतिक इच्छाओं ने दांव पर लगा दिया है.

आप का वोट बैंक खुश रहे इसलिए आप ने ये दमनकारी कदम उठाया है. ट्रंप प्रदर्शनकारियों की आवाज को अपनी सरकार के खिलाफ विद्रोह बता रहे हैं. जरा सोचिए अगर सरकार लोगों के साथ द्रोह करेगी तो क्या जनता को विद्रोह का हक भी नहीं है?

खैरियत है कि ट्रंप सरकार ने अभी तक इनसरैक्शन एक्ट का इस्तेमाल नहीं किया. धमकी जरूर दी है. पिछली बार 1992 में लौस एंजलिस में हुए दंगों में इस कानून को इस्तेमाल किया गया था मगर सरकार की सहमति से. तब जार्ज एच. डब्ल्यू. बुश अमेरिका के राष्ट्रपति थे, मगर ट्रंप को किसी सहमति की क्या जरूरत? वह तो मजबूत नेता हैं. बिना पूछे कहीं भी फौज उतार सकते हैं. सुनने में तो यह भी आ रहा है कि अगर हिंसा नहीं रुकी, तो मरीन बटालियन को और बढ़ाया जाएगा. यानी शहर को सैन्य कैंप में बदलने की पूरी तैयारी है.

तो यह है ट्रंप का नया अमेरिका – जहां जनता की आवाज को बंदूक की गोली से दबाया जाता है, जहां कानून और व्यवस्था का मतलब है डर और दमन. इस तमाशे का अंत क्या होगा ये तो वक्त ही बताएगा. लेकिन इतना तय है कि जब सत्ता सड़कों पर फौज उतारती है तो वह अपनी कमजोरी का ही ऐलान करती है. और खुद को दुनिया का बाप समझने वाले ट्रंप की कमजोरी दुनिया देख रही है.

खुद को विश्वगुरु घोषित करने वालों की भी अंदरूनी हालत कुछ ऐसी ही है. डोनाल्ड ट्रंप का राजनीतिक कैरियर और अमेरिका की वर्तमान स्थिति एकदूसरे से गहराई से जुड़ी हुई है. ट्रंप के नेतृत्व और नीतियों ने अमेरिकी समाज, राजनीति और वैश्विक छवि पर गहरा प्रभाव डाला है. वर्तमान में अमेरिका जिन बिगड़ते हालात से जूझ रहा है, उस के जिम्मेदार ट्रंप हैं.

ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिका में लोकतंत्र की नींव कमजोर हुई है. 2020 के राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों को न मानना, “कैपिटल हिल” पर 6 जनवरी 2021 को हुआ हमला यह सब अमेरिका की लोकतांत्रिक संस्थाओं की साख को हिला देने वाले घटनाक्रम थे. इस से दुनियाभर में अमेरिका की लोकतांत्रिक छवि को आघात पहुंचा.

ट्रंप की राजनीति हमेशा “हम बनाम वे” की भाषा में रही. नस्ल, प्रवासियों, धर्म और वैचारिक मतभेदों के आधार पर देश में ध्रुवीकरण और सामाजिक तनाव बढ़ा कर वे सत्ता पर काबिज हुए और अब इन्हीं चीजों को बढ़ाने में वे अपना राजनीतिक भविष्य देखते हैं.

गोरे वर्चस्ववाद, एंटीइमिग्रेंट भावना और अल्पसंख्यकों के प्रति कठोर रुख अमेरिका को सामाजिक रूप से अस्थिर बना रहा है. वह खुले तौर पर न्यायपालिका, मीडिया और विरोधियों के खिलाफ बोलते हैं जिस से सत्ता का केंद्रीकरण और निरंकुशता ही बढ़ी है.

ट्रंप के “अमेरिका फर्स्ट” सिद्धांत ने पारंपरिक सहयोगियों को नाराज किया और चीन, रूस जैसे देशों को अवसर दिया. नाटो जैसे गठबंधनों में भरोसे की कमी और जलवायु समझौते (पेरिस समझौते) से अलग होने जैसे फैसले अमेरिका को अंतरराष्ट्रीय मंच पर अलगथलग कर चुके हैं.

ट्रंप के टैक्स कट और व्यापार युद्ध (विशेषतः चीन के साथ) ने अर्थव्यवस्था को अस्थिर किया. कोरोना महामारी के दौरान उन की अव्यवस्थित प्रतिक्रिया और वैज्ञानिक सलाह की अनदेखी ने स्वास्थ्य और आर्थिक संकट को और बढ़ाया. ट्रंप के नेतृत्व ने अमेरिका को केवल आंतरिक रूप से नहीं, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी कमजोर किया है.

आज अमेरिका जिन बिगड़ते हालात का सामना कर रहा है, वह केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि नैतिक, सामाजिक और संस्थागत संकट का भी संकेत है. अगर अमेरिका को स्थिर, समावेशी और वैश्विक नेतृत्व में वापसी करनी है, तो उसे ट्रंपवादी राजनीति से ऊपर उठ कर लोकतंत्र, समानता और अंतरराष्ट्रीय सहयोग की राह पर लौटना होगा.

Career In Agriculture : किसान का बच्चा किसान क्यों न बने

Career In Agriculture : अधिकतर युवा कृषि को अपना कैरियर इसलिए नहीं बनाना चाहते क्योंकि वे इसे पिछड़ेपने से जोड़ते हैं. मगर सफलता आंकी जाती है जीवन स्तर से, और कृषि में यदि सही कैरियर चुनाव किया जाए तो सफलता जरूर मिलती है.

रामचरण दास के दोनों बेटे इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए शहर क्या गए, कि शहर के ही हो कर रह गए. बड़े बेटे संतोष ने एक दोस्त के साथ छोटा सा कमरा किराए पर लिया और इंटरमीडिएट के बाद ग्रेजुएशन की तैयारी करने लगा. आर्ट सब्जेक्ट ले कर 3 साल बाद ग्रेजुएट हो कर वह पहले तो एक बीमा एजेंट बना और जब उस के कोई ठीकठाक ग्राहक नहीं बने तो उस ने एक ठेकेदार के यहां एकाउंट्स वगैरा देखने का काम शुरू कर दिया. ठेकेदार उस को 10 हजार रुपए महीना देने लगा, जो संतोष को काफी संतोष देने वाला था. उस ने छोटे भाई कैलाश को भी शहर बुला लिया और उस का एक कालेज में एडमिशन करवा दिया.

पिछले 6 सालों से दोनों भाई शहर में हैं, प्राइवेट नौकरी कर रहे हैं और उन के मातापिता गांव में अपनी खेती-किसानी देख रहे हैं. संतोष के पिता के पास 20 बीघा जमीन है. मगर काम करने वाले हाथ कम हैं, लिहाजा आधी से ज्यादा जमीन फसल के अभाव में बंजर हुई जा रही है.

संतोष और कैलाश की शादी की उम्र हो गई है मगर वे किसी गांव की लड़की से शादी नहीं करना चाहते हैं. वे शहर में रहना चाहते हैं और किसी शहरी लड़की से शादी करना चाहते हैं. गांव में उन को अपना भविष्य नजर नहीं आता जबकि उन दोनों के पास इतनी अचल संपत्ति है कि वे उस का उपयोग करें तो जितना शहर में कमा रहे हैं उस का दोगुना वह घर बैठे कमा सकते हैं बल्कि बहुत से हाथों को काम दे कर उन का भी भविष्य निखार सकते हैं.

समस्या यह है कि उन्होंने कृषि विज्ञान की शिक्षा नहीं पाई और न ही मातापिता से खेती-किसानी के गुण और अनुभव प्राप्त कर सके.

हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब जैसे राज्य जो खेती के लिए जाने जाते थे आज अधिकांश किसानों की खेती की जमीनें सरकार या प्राइवेट सेक्टर्स के पास आ गई हैं. वजह यह है कि वर्तमान युवा पीढ़ी जिन के बाप दादाओं के पास एकड़ों जमीन है उन को कृषि का न तो शौक है, न वे उस में अपना कोई भविष्य देखते हैं, लिहाजा जमीनें लगातार बिक रही हैं और उन पैसों से युवा शहरों में छोटेछोटे कबूतरनुमा मकान ले कर छोटीछोटी नौकरियों में अपना भविष्य तलाश रहे हैं.

अनेक किसानों के बेटे आज लंदन, कनाडा जैसे देशों में शेफ या मकैनिक की नौकरी कर रहे हैं. क्योंकि कृषि को आधुनिक और व्यवसायिक कैसे बनाया जाए और कैसे उस से मुनाफ़ा कमाया जाए इस का ज्ञान उन्होंने नहीं अर्जित किया.

गौरतलब है कि भारत की 70 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में निवास करती है और जीविका के लिए खेती पर निर्भर है. वर्तमान समय में शहरों की तरक्की के साथ गांवों का भी काफी विकास हो रहा है. अपनी जमीन से प्यार करने वाले पढ़ेलिखे किसान अब अपने खेतों में आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल कर के अच्छी फसलें उगा रहे हैं. वे अपनी जमीनों पर अनाज ही नहीं उगा रहे हैं, बल्कि नई तकनीक और ज्ञान के साथ ऐसी फसलें भी उगा रहे हैं जो तुरंत मुनाफा देती हैं, जैसे – मसालों की खेती, मशरूम की खेती, फूलों की खेती, आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों की खेती आदि.

हरिद्वार के आसपास के गांवों में जा कर देखें तो बहुतेरे किसान अपने खेतों में सिर्फ एलोवेरा, तुलसी, पपीता, गुलाब जैसे औषधीय प्रयोगों में आने वाली पौध तैयार करते हैं जो उन्हें तुरंत मुनाफ़ा देती हैं. बड़ीबड़ी कंपनियां जो कौस्मेटिक उद्योग चलाती हैं, इन से सीधे सौदा करती हैं. इन किसानों को अपनी फसलें काट कर कहीं मंडी में बेचने के लिए नहीं बैठना पड़ता है.

खेती के साथसाथ जिन किसानों के पास अपने तालाब हैं, वे मछली पालन, सीप और मोती उत्पादन जैसे व्यवसाय भी कृषि के साथ-साथ कर रहे हैं. इस के अलावा कृषक शहद उत्पादन, मवेशी और मुर्गी पालन, रेशम कीट पालन, गौशालाओं के संचालन और दुग्ध उत्पादन से भी जुड़े हुए हैं. इन तमाम क्षेत्रों में ज्यादा से ज्यादा उत्पादन हो और कृषक ज्यादा से ज्यादा लाभान्वित हों, इस के लिए नएनए तकनीकी संसाधन एवं उपकरण तो बाजार में आ ही रहे हैं, अनेकानेक सरकारी योजनाएं और जागरूकता अभियान भी चल रहे हैं. दिल्ली प्रेस की पत्रिका ‘फार्म एंड फ़ूड’ भी किसानों को अनेक जानकारियां उपलब्ध कराती है और विशेषज्ञों के साक्षात्कार के जरिये किसानों को उन्नत फसल प्राप्त करने के तरीके बताती है.

वैज्ञानिक उपकरणों, अच्छे संसाधनों, ऋण की सुविधाओं और कृषि विज्ञान की शिक्षा प्राप्त कर कृषि के क्षेत्र को अपने कैरियर के रूप में चुनने वाले युवा अपने परिश्रम से कृषि क्षेत्र को अपने लिए बहुत बड़ा व्यवसाय बना सकते हैं.

अनेक देशों जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका, नीदरलैंड, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, कनाडा, इजराइल और चीन में उन्नत तकनीकी संसाधन, मशीनरी, वैज्ञानिक अनुसंधान, और अच्छी कृषि नीतियों के चलते कृषि का क्षेत्र आज एक बहुत बड़े बिजनैस में परिवर्तित हो चुका है. वहां का युवा जो पढ़लिख कर इस क्षेत्र में अपना कैरियर बनाने के उद्देश्य से आ रहा है, वह नई तकनीक, वैज्ञानिक उपकरणों और उन्नत बीज एवं खाद के जरिये न सिर्फ अच्छा अनाज, मसाले और दालें उगा रहा है, बल्कि उस के साथसाथ और्गनिक खेती भी कर रहा है और मुनाफा कमा रहा है.

कृषि विज्ञान में ग्रेजुएशन कर बना सकते हैं कैरियर

– कृषि विज्ञान की पढ़ाई के बाद नई तकनीक, नए वैज्ञानिक उपकरण, सरकारी योजनाएं, मार्केट और संसाधनों की भरपूर जानकारी प्राप्त होने से युवा अपनी कृषि-भूमि पर ज्यादा अच्छी फसलें, मसाले, सब्जियां, फूल, जड़ी-बूटियों आदि की खेती कर सकते हैं.

– कृषि विज्ञान की शिक्षा के अंतर्गत अनेक ऐसे व्यवसायों की जानकारी मिलती है, जिस के द्वारा न सिर्फ अत्यधिक धन की प्राप्ति होती है, बल्कि अपने उत्पादों को ले कर युवा अपना ब्रैंड भी स्थापित कर सकते हैं और एक सफल उद्यमी बन सकते हैं.

– मशरूम उत्पादन, मछली पालन, दुग्ध उत्पादन, मोती उत्पादन, फूलों की खेती, आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों की खेती, ऐलोवेरा उत्पादन, रेशम, मसाला उत्पादन, यह कृषि से जुड़े ऐसे क्षेत्र हैं, जिन से कम समय में अत्यधिक धन अर्जित किया जा सकता है.

– कृषि विज्ञान की पढ़ाई के बाद यह आवश्यक नहीं है कि हर युवा खेती ही करे. यदि आप के पास कृषि योग्य भूमि नहीं है परंतु आप के पास कृषि का ज्ञान और अनुभव है तो आप किसी फार्म हाउस के मैनेजर या सुपरवाइजर भी बन सकते हैं.

– बड़ी संख्या में कृषि विज्ञान की पढ़ाई करने वाले छात्रछात्राएं आज अनेक प्रयोगशालाओं में कार्यरत हैं और कृषि क्षेत्र से जुड़े प्रयोग और अनुसंधान कर रहे हैं. जैसे – उन्नत बीज तैयार करने वाली प्रयोगशालाओं में अथवा मिट्टी के बंजर और उपजाऊपन की जांच-परख करने वाले सोइल साइंटिस्ट के रूप में. कृषि विज्ञान के क्षेत्र में यह बहुत अच्छा कैरियर माना जाता है.

– कृषि विज्ञान होर्टिकल्चर यानि बागवानी के क्षेत्र में भी एक अच्छा कैरियर प्रदान करता है. उद्यान विशेषज्ञ के रूप में आज कृषि स्नातक युवा अच्छे वेतनमानों पर सरकारी और गैर-सरकारी नौकरियों में कार्यरत हैं.

– देश के जूलोजिकल पार्क अर्थात चिड़ियाघरों में, फन पार्क, छोटीबड़ी नर्सरी, मुगल गार्डन से ले कर तमाम शहरों में बने सरकारी बागों और पार्कों के रखरखाव और सुपरविजन के लिए उद्यान विशेषज्ञों की आवश्यकता हमेशा रहती है.

– कृषि विज्ञान के अध्ययन के पश्चात एग्रोनोमिस्ट यानि कृषि वैज्ञानिक, मौसम वैज्ञानिक, एग्रीकल्चर इंजीनियर, पशुपालक विशेषज्ञ जैसे क्षेत्रों में युवा बेहतरीन कैरियर बना सकते हैं. कृषि विज्ञान का अध्ययन आय के अनेक रास्ते खोलता है.

तकनीकी ज्ञान और ऊर्जा से भरे युवाओं के लिए कृषि एक ऐसा क्षेत्र है, जिस में बहुत जल्दी ग्रोथ मिलती है.

Housefull 5 : अब क्या करेंगे अक्षय कुमार

Housefull 5 : 6 जून को फिल्म ‘हाउसफुल 5’ रिलीज हुई. मगर जो उम्मीदें फिल्म से थीं उस में फिल्म सफल नहीं हो पाई. यहां तक कि फिल्म अपने वल्गर संवादों और अश्लील दृश्यों से विवादों में जरूर घिर गई.

2025 की पहली छमाही बीतने वाली है, लेकिन अब तक बौक्स औफिस पर ‘छावा’ के अलावा एक भी फिल्म सफलता तो दूर अपनी लागत की आधी रकम भी वसूल नहीं कर पाई. ऐसे में 6 जून को रिलीज हुई निर्माता साजिद नाड़ियादवाला की फिल्म ‘हाउसफुल 5’ से दर्शकों के साथसाथ ट्रेड पंडितों को भी काफी उम्मीदें थीं. इस की कई वजहें रहीं. पहली बात तो साजिद नाड़ियादवाला की यह फिल्म उन की 2010 की सफलतम कौमेडी फिल्म ‘हाउसफुल’ फ्रेंचाइजी की पांचवी फिल्म है. ऊपर से उन्होंने इस फिल्म के दो अंत फिल्माकर उन्हें अलगअलग ‘हाउसफुल 5 ए ’ और ‘हाउसफुल 5 बी’ के तहत एक साथ रिलीज किया. ऐसे में उम्मीद थी कि दर्शक हत्यारे के बारे में जानने के लिए दोनों फिल्में देखेगा और निर्माता दोहरी कमायी कर लेंगें.

मगर अफसोस दर्शक उन के इस झांसे में नहीं आया. इस की मूल वजह यह रही कि निर्माता ने फिल्म ‘हाउसफुल 5’ को ‘किलर कौमेडी’ के रूप में प्रचारित किया. जबकि फिल्म के अंदर द्विअर्थी, फूहड़ व वल्गर संवाद, वल्गर सैक्स दृश्य, अक्षय कुमार की वल्गर हरकतों के साथ हर हीरोइन केवल नग्नता का प्रदर्शन करती हुई नजर आई. लोग मानते हैं कि इसे सेंसर बोर्ड की तरफ से ‘ए’ / व्यस्क प्रमाणपत्र मिलना चाहिए था. लेकिन सेंसर बोर्ड ने इसे ‘यूए 16 प्लस’ प्रमाणपत्र दिया. निर्माता ने ‘जहां लिखना अनिवार्य था, वहां छोटे में ‘यूए 16 प्लस’ लिख दिया. सोशल मीडिया पर मौजूद वीडियो में दर्शक अपने साथ सात साल के बच्चों को भी ले जाते नजर आते हैं. यह वीडियो मुंबई के थिएटरों के ‘हाउसफुल 5’ के दौरान के हैं.

फिल्म देखते हुए मातापिता लज्जित हुए होंगे, जब उन सैक्सी दृश्यों को ले कर उन के बच्चों ने उन से सवाल कर दिया होगा. फिल्म पूरी तरह से बोर करती है. इस फिल्म में 19 लीड कलाकार हैं, इन में से 4 कलाकार 12 साल से अभिनय से दूर थे. बाकी के कलाकार सुपर फ्लौप हैं. केवल अक्षय कुमार अब तक लगातार 18 असफल फिल्में दे चुके हैं. फिल्म के निर्देशक तरूण मनसुखानी ‘दोस्ताना’ के बाद 12 साल बाद इस फिल्म का निर्देशन किया है.

फिर भी ‘हाउसफुल 5’ को सफल बताने के लिए निर्माता व अक्षय कुमार ने अपनी तरफ से पूरी ताकत झोंक दी, सारे तिकड़म लगा डाले. पहले इस फिल्म का बजट 375 करोड़ रूपए बताया गया था. जब फिल्म की एडवांस बुकिंग शुरू हुई, और पहले दिन 15 हजार टिकटें भी नहीं बिकी, तब निर्माता ने कहा कि फिल्म का बजट केवल 240 करोड़ रूपए है. इस पर लोगों ने सवाल किया कि 19 लीड किरदारों के अलावा बौबी देओल व अन्य कलाकार हैं. सभी को फीस दी या नहीं..शूटिंग करने में खर्च हुआ या नहीं.. अक्षय कुमार अकेले 120 से 170 करोड़ रूपए के बीच फीस लेते हैं, तो क्या इस फिल्म के लिए अक्षय कुमार ने कोई फीस नहीं ली. इतना ही नहीं अक्षय कुमार और रितेश देशमुख एक साथ रविवार के दिन मुंबई के गेईटी ग्लैक्सी सिनेमाघर के अंदर जा कर ‘हाउसफुल 5’ देख रहे दर्शकों से बाकी की. फिर फिल्म खत्म होने पर मास्क लगा कर फिल्म के बारे में दर्शकों से उन की राय पूछते नजर आए. इस के वीडियो बना कर अक्षय कुमार ने खुद सोशल मीडिया पर पोस्ट कर वायरल किया.

इस के बावजूद सैकनिक के अनुसार पूरे 7 दिन में ‘हाउसफुल 5’ ने महज 120 करोड़ रूपए कमाए. इस में से निर्माता की जेब में बामुश्किल 50 करोड़ रूपए जांएगे. जबकि बौक्स औफिस इंडिया का दावा है कि ‘हाउसफुल 5’ ने पूरे सप्ताह में महज 113 करोड़ रूपए ही बौक्स औफिस पर एकत्र किए तथा इस फिल्म की लाइफ टाइम कमाई 133 करोड़ रूपए होगी.

बौलीवुड में एक अजीब सी बहस छिड़ गई है. एक तबका मान रहा है कि इस फिल्म की असफलता के लिए अक्षय कुमार ही दोषी हैं, क्योंकि वह जबरन हर सीन में घुस कर अश्लील हरकतें करते हुए या द्विअर्थी संवाद बोलते हुए नजर आते हैं. फिल्म की जो कुछ कमाई हुई है, उस की वजह बौबी देओल हैं. जबकि एक तबका मानता है कि अक्षय कुमार ने फिल्म को पूरी तरह डूबने से बचा लिया. निर्माता क्या मान रहा है, पता नहीं.

बौक्स औफिस पर इस दुर्गति के बाद फिल्म रिलीज के 6 दिन बाद फिल्म के निर्देशक तरूण मनसुखानी ने बयान दे कर कहा है कि उन्होंने तो एक साफसुथरी मनोरंजक फिल्म बनाई है. मगर यह उन लोगों की सोच व नजरिए का दोष है, जिन्हें फिल्म में द्विअर्थी संवाद व वल्गर सीन नजर आए.

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