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Romantic Story in Hindi : टीचर – क्या था रवि और सीमा का नायाब तरीका?

Romantic Story in Hindi : जिस सुंदर, स्मार्ट महिला को मैं रहरह कर देखे जा रहा था, वह अचानक अपनी कुरसी से उठ कर मेरी तरफ मुसकराती हुई बढ़ी तो एअरकंडीशंड बैंकेट हौल में भी मुझे गरमी लगने लगी थी.

मेरे दोस्त विवेक के छोटे भाई की शादी की रिसैप्शन पार्टी में तब तक ज्यादा लोग नहीं पहुंचे थे. उस महिला का यों अचानक उठ कर मेरे पास आना सभी की नजरों में जरूर आया होगा.

‘‘मैं सीमा हूं, मिस्टर रवि,’’ मेरे नजदीक आ कर उस ने मुसकराते हुए अपना परिचय दिया. मैं उस के सम्मान में उठ खड़ा हुआ. फिर कुछ हैरान होते हुए पूछा, ‘‘आप मुझे जानती हैं?’’ ‘‘मेरी एक सहेली के पति आप की फैक्टरी में काम करते हैं. उन्होंने ही एक बार क्लब में आप के बारे में बताया था.’’

‘‘आप बैठिए, प्लीज.’’

‘‘आप की गरदन को अकड़ने से बचाने के लिए यह नेक काम तो मुझे करना ही पड़ेगा,’’ उस ने शिकायती नजरों से मेरी तरफ देखा पर साथ ही बड़े दिलकश अंदाज में मुसकराई भी.

‘‘आई एम सौरी, पर कोई आप को बारबार देखने से खुद को रोक भी तो नहीं सकता है, सीमाजी. मुझे नहीं लगता कि आज रात आप से ज्यादा सुंदर कोई महिला इस पार्टी में आएगी,’’ उस की मुसकराने की अदा ही कुछ ऐसी थी कि उस ने मुझे उस की तारीफ करने का हौसला दे दिया.

‘‘कुछ सैकंड की मुलाकात के बाद ही ऐसी झूठी तारीफ… बहुत कुशल शिकारी जान पड़ते हो, रवि साहब,’’ उस का तिरछी नजर से देखना मेरे दिल की धड़कनें बढ़ा गया.

‘‘नहीं, मैं ने तो आज तक किसी चिडि़या का भी शिकार नहीं किया है.’’

वह हंसते हुए बोली, ‘‘इतने भोले लगते तो नहीं हो. क्या आप की शादी हो गई है?’’

‘‘हां, कुछ महीने पहले ही हुई है और तुम्हारे पूछने से पहले ही बता देता हूं कि मैं अपनी शादी से पूरी तरह संतुष्ट व खुश हूं.’’

‘‘रियली?’’

‘‘यस, रियली.’’

‘‘जिस को घर का खाना भर पेट मिलता हो, उस की आंखों में फिर भूख क्यों?’’ उस ने मेरी आंखों में गहराई से झांकते हुए पूछा.

‘‘कभीकभी दूसरे की थाली में रखा खाना ज्यादा स्वादिष्ठ प्रतीत हो तो इनसान की लार टपक सकती है,’’ मैं ने भी बिना शरमाए कहा.

‘‘इनसान को खराब आदतें नहीं डालनी चाहिए. कल को अपने घर का खाना अच्छा लगना बंद हो गया तो बहुत परेशानी में फंस जाओगे, रवि साहब.’’

‘‘बंदा संतुलन बना कर चलेगा, तुम फिक्र मत करो. बोलो, इजाजत है?’’

‘‘किस बात की?’’ उस ने माथे पर बल डाल लिए.

‘‘सामने आई थाली में सजे स्वादिष्ठ भोजन को जी भर कर देखने की? मुंह में पानी लाने वाली महक का आनंद लेने की?’’

‘‘जिस हिसाब से तुम्हारा लालच बढ़ रहा है, उस हिसाब से तो तुम जल्द ही खाना चखने की जिद जरूर करने लगोगे,’’ उस ने पहले अजीब सा मुंह बनाया और फिर खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘‘क्या तुम वैसा करने की इजाजत नहीं दोगी?’’ उस की देखादेखी मैं भी उस के साथ खुल कर फ्लर्ट करने लगा.

‘‘दे सकती हूं पर…’’ वह ठोड़ी पर उंगली रख कर सोचने का अभिनय करने लगी.

‘‘पर क्या?’’

‘‘चिडि़या को जाल में फंसाने का तुम्हारा स्टाइल मुझे जंच नहीं रहा है. मन पर भूख बहुत ज्यादा हावी हो जाए तो इनसान बढि़या भोजन का भी मजा नहीं ले पाता है.’’

‘‘तो मुझे सिखाओ न कि लजीज भोजन का आनंद कैसे लिया जाता है?’’ मैं ने अपनी आवाज को नशीला बनाने के साथसाथ अपना हाथ भी उस के हाथ पर रख दिया.

‘‘मेरे स्टूडैंट बनोगे?’’ उस की आंखों में शरारत भरी चमक उभरी.

‘‘बड़ी खुशी से, टीचर.’’

‘‘तो पहले एक छोटा सा इम्तिहान दो, जनाब. इसी वक्त कुछ ऐसा करो, जो मेरे दिल को गुदगुदा जाए.’’

‘‘आप बहुत आकर्षक और सैक्सी हैं,’’ मैं ने अपनी आवाज को रोमांटिक बना कर उस की तारीफ की.

‘‘कुछ कहना नहीं, बल्कि कुछ करना है, बुद्धू.’’

‘‘तुम्हें चूम लूं?’’ मैं ने शरारती अंदाज में पूछा.

‘‘मुझे बदनाम कराओगे? मेरा तमाशा बनाओगे?’’ वह नाराज हो उठी.

‘‘नहीं, सौरी.’’

‘‘जल्दी से कुछ सोचो, नहीं तो फेल कर दूंगी,’’ वह बड़ी अदा से बोली.

उस के दिल को गुदगुदाने के लिए मुझे एक ही काम सूझा. मैं ने अपना पैन  जेब से निकाल कर गिरा दिया और फिर उसे उठाने के बहाने झुक कर उस का हाथ चूम लिया.

‘‘मैं पास हुआ या फेल, टीचर?’’ सीधा होने के बाद जब मैं ने उस की आंखों में आंखें डाल कर पूछा तो शर्म से उस के गोरे गाल गुलाबी हो उठे.

‘‘पास, और अब बोलो क्या इनाम चाहिए?’’ उस ने शोख अदा से पूछा.

‘‘अब इसी वक्त तुम कुछ ऐसा करो जिस से मेरा दिल गुदगुदा जाए.’’

‘‘मेरे लिए यह कोई मुश्किल काम नहीं है,’’ कह वह मेरा हाथ थाम डांस फ्लोर की तरफ चल पड़ी.

उस रूपसी के साथ चलते हुए मेरा मन खुश हो गया. उधर लोग हमें हैरानी भरी नजरों से देख रहे थे.

डांस फ्लोर पर कुछ युवक और बच्चे डीजे के तेज संगीत पर नाच रहे थे. सीमा ने बेहिचक डांस करना शुरू कर दिया. मेरा ध्यान नाचने में कम और उसे नाचते हुए देखने में ज्यादा था. क्या मस्त हो कर नाच रही थी. ऐसा लग रहा था मानो उस के अंगअंग में बिजली भर गई हो. आंखें यों अधखुली सी थीं मानो कोई सुंदर सपना देखते हुए किसी और दुनिया में पहुंच गई हों.

करीब आधा घंटा नाचने के बाद हम वापस अपनी जगह आ बैठे. मैं खुद जा कर 2 कोल्डड्रिंक ले आया.

‘‘थैंक यू, रवि पर मेरा दिल कुछ और पीने को कह रहा है,’’ उस ने मुसकराते हुए कोल्डड्रिंक लेने से इनकार कर दिया.

‘‘फिर क्या लोगी?’’

‘‘ताजा, ठंडी हवा की मिठास के बारे में क्या खयाल है?’’

‘‘बड़ा नेक खयाल है. मैं ने कुछ दिन पहले ही घर में नया एसी. लगवाया है. वहीं चलें?’’

‘‘बच्चे, इस टीचर की एक सीख तो इसी वक्त गांठ बांध लो. जिस का दिल जीतना चाहते हो, उस के पहले अच्छे दोस्त बनो. उस के शौक, उस की इच्छाओं व खुशियों को जानो और उन्हें पूरा कराने में दिल से दिलचस्पी लो. अपने फायदे व मन की इच्छापूर्ति के लिए किसी करीबी इनसान का वस्तु की तरह से उपयोग करना गलत भी है और मूर्खतापूर्ण भी,’’ सीमा ने सख्त लहजे में मुझे समझाया तो मैं ने अपना चेहरा लटकाने का बड़ा शानदार अभिनय किया.

‘‘अब नौटंकी मत करो,’’ वह एकदम हंस पड़ी और फिर मेरा हाथ पकड़ कर उठती हुई बोली, ‘‘तुम्हारी कार में ठंडी हवा का आनंद लेने हम कहीं घूमने चलते हैं.’’

‘‘वाह, तुम्हें कैसे पता चला कि मुझे लौंग ड्राइव पर जाना बहुत पसंद है?’’ मैं ने बहुत खुश हो कर पूछा.

‘‘अरे, मुझे तो दूल्हादुलहन को सगुन भी देना है. तुम यहीं रुको, मैं अभी आया,’’ कह कर मैं स्टेज की तरफ चलने को हुआ तो उस ने मेरा बाजू थाम कर मुझे रोक लिया. बोली, ‘‘अभी चलो, खाना खाने को तो लौटना ही है. सगुन तब दे देना,’’ और फिर मुझे खींचती सी दरवाजे की तरफ ले चली.

‘‘और अगर नहीं लौट पाए तो?’’ मैं ने उस के हाथ को अर्थपूर्ण अंदाज में कस कर दबाते हुए पूछा तो वह शरमा उठी.

कुछ देर बाद मेरी कार हाईवे पर दौड़ रही थी. सीमा ने मुझे एसी. नहीं चलाने

दिया. कार के शीशे नीचे उतार कर ठंडी हवा के झोंकों को अपने चेहरे व केशों से खेलने दे रही थी. वह आंखें बंद कर न जाने कौन सी आनंद की दुनिया में पहुंच गई थी.

कुछ देर बाद हलकी बूंदाबांदी शुरू हो गई पर उस ने फिर भी खिड़की का शीशा बंद नहीं किया. आंखें बंद किए अचानक गुनगुनाने लगी.

गाते वक्त उस के शांत चेहरे की खूबसूरती को शब्दों में बयां करना असंभव था. उस का मूड न बदले, इसलिए मैं ने बहुत देर तक एक शब्द भी अपने मुंह से नहीं निकाला.

गाना खत्म कर के भी उस ने अपनी आंखें नहीं खोलीं. अचानक उस का हाथ मेरी तरफ बढ़ा और वह मेरा बाजू पकड़ कर मेरे नजदीक खिसक आई.

‘‘भूख लग रही हो तो लौट चलें?’’

मैं ने बहुत धीमी आवाज में उस की इच्छा जाननी चाही.

‘‘तुम्हें लग रही है भूख?’’ बिना आंखें खोले वह मुसकरा पड़ी.

‘‘अब हम जो करेंगे, वह तुम्हारी मरजी से करेंगे.’’

‘‘तुम तो बड़े काबिल शिष्य साबित हो रहे हो, रवि साहब.’’

‘‘थैंक यू, टीचर. बोलो, कहां चलें?’’

‘‘जहां तुम्हारी मरजी हो,’’ वह मेरे और करीब खिसक आई.

‘‘तब खाना खाने चलते हैं. यह चुनाव तुम करो कि शादी का खाना खाना है या हाईवे के किसी ढाबे का.’’

‘‘अब भीड़ में जाने का मन नहीं है.’’

‘‘तब किसी अच्छे से ढाबे पर रुकते…’’

‘‘बच्चे, एक नया सबक और सीखो. लोहा तेज गरम हो रहा हो, तो उस पर चोट करने का मौका चूकना मूर्खता होती है,’’ उस ने मेरी आंखों में झांकते हुए कहा तो मेरी रगरग में खून तेज रफ्तार से दौड़ने लगा.

‘‘बिलकुल होगी, टीचर. अरे, गोली मारो ढाबे को,’’ मैं ने मौका मिलते ही कार को वापस जाने के लिए मोड़ लिया.

अपने घर का ताला खोल कर मैं जब तक ड्राइंगरूम में नहीं पहुंच गया, तब तक सीमा ने न मेरा हाथ छोड़ा और न ही एक शब्द मुंह से निकाला. जब भी मैं ने उस की तरफ देखा, हर बार उस की नशीली आंखों व मादक मुसकान को देख कर सांस लेना भी भूल जाता था.

मैं ने ड्राइंगरूम से ले कर शयनकक्ष तक का रास्ता उसे गोद में उठा कर पूरा किया. फिर बोला, ‘‘तुम दुनिया की सब से सुंदर स्त्री हो, सीमा. तुम्हारे गुलाबी होंठ…’’

‘‘अब डायलौग बोलने का नहीं, बल्कि ऐक्शन का समय है, मेरे प्यारे शिष्य,’’ सीमा ने मेरे होंठ अपने होंठों से सील कर मुझे खामोश कर दिया.

फिर जो ऐक्शन हमारे बीच शुरू हुआ, वह घंटों बाद ही रुका होगा, क्योंकि मेरी टीचर ने स्वादिष्ठ खाने को किसी भुक्खड़ की तरह खाने की इजाजत मुझे बिलकुल नहीं दी थी.

अगले दिन रविवार की सुबह जब दूध वाले ने घंटी बजाई, तब मेरी नींद मुश्किल से टूटी.

‘‘आप लेटे रहो. मैं दूध ले लेती हूं,’’ सीमा ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे पलंग से नहीं उठने दिया.

‘‘नहीं, तुम यहां से हिलना भी मत, टीचर, क्योंकि यह शिष्य कल रात के सबक को 1 बार फिर से दोहराना चाहता है,’’ मैं ने उस के होंठों पर चुंबन अंकित किया और दूध लेने को उठ खड़ा हुआ.

आजकल मैं अपनी जीवनसंगिनी सीमा की समझदारी की मन ही मन खूब दाद देता हूं. मैं फैक्टरी के कामों में बहुत व्यस्त रहता हूं और वह अपनी जौब की जिम्मेदारियां निभाने में. हमें साथसाथ बिताने को ज्यादा वक्त नहीं मिलता था और इस कारण हम दोनों बहुत टैंशन में व कुंठित हो कर जीने लगे थे.

‘‘हम साथ बिताने के वक्त को बढ़ा नहीं सकते हैं तो उस की क्वालिटी बहुत अच्छी कर लेते हैं,’’ सीमा के इस सुझाव पर खूब सोचविचार करने के बाद हम दोनों ने पिछली रात से यह ‘टीचर’ वाला खेल खेलना शुरू किया है.

कल रात हम रिसैप्शन में पहले अजनबियों की तरह से मिले और फिर फ्लर्ट करना शुरू कर दिया. कल उसे टीचर बनना था और मुझे शिष्य. कल मैं उस के हिसाब से चला और मेरे होंठों पर एकाएक उभरी मुसकराहट इस बात का सुबूत थी कि मैं ने उस शिष्य बन कर बड़ा लुत्फ उठाया, खूब मौजमस्ती की.

अगली छुट्टी वाले दिन या अन्य उचित अवसर पर मैं टीचर बनूंगा और सीमा मेरी शिष्या होगी. उस अवसर को पूरी तरह से सफल बनाने के लिए मेरे मन ने अभी से योजना बनानी शुरू कर दी है. हमें विश्वास है कि साथसाथ बिताने के लिए कम वक्त मिलने के बावजूद इस खेल के कारण हमारा विवाहित जीवन कभी नीरसता व ऊब का शिकार नहीं बनेगा.  Romantic Story in Hindi

Social Story In Hindi : देश को बढ़ाने का नुरखा

Social Story In Hindi : वैसे तो वे अपने घर, परिवार, महल्ले, गांव, जाति और धर्म से बाहर निकलने के आदी नहीं थे, पर इस बार जाने कहां से उन्होंने देश को आगे बढ़ाने का नारा सुन लिया और सोचा कि चलो, देश को आगे बढ़ा लिया जाए.

देश उन्हें हमेशा ही भगवान की तरह लगा. वैसे उन्हें न भगवान नजर आता था न देश. हां, घर दिखाई देता है, महल्ला दिखाई देता है, गांव दिखाई देता है, पर देश की केवल बातें ही बातें सुनाई देती हैं. उन्होंने जब से यह गाना सुना था कि ‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती’ तब से कई बार पूरे खेत को खोद डाला था पर मिट्टी ही मिट्टी निकली थी.

इस से उन्हें लगने लगा था, जैसे किसी दूसरे देश में रह रहे हों क्योंकि देश की धरती को तो सोना और हीरेमोती उगलना चाहिए था. वे तो भागेभागे उन दिनों गुजरात भी चले गए थे. लोगों ने सोचा था कि भूकंप पीडि़तों की सहायता के लिए गए होंगे, पर वे तो यह सोच कर गए थे कि शायद खोदने पर हीरेमोती न निकलते हों, मगर भूकंप आने पर तो धरती हीरेमोती जरूर उगलेगी.

जिस तरह पंडेपुरोहित भगवान से प्रेम रखने के लिए कहते रहते हैं, उसी तरह नेता लोग देश से प्रेम करने के लिए लोगों को उकसाते रहते हैं. दोनों के ही धंधे का सवाल है, इसलिए वे दिनरात अपना धंधा चमकाने के लिए लोगों को देश और धर्म से प्रेम करना सिखाते हैं.

पंडित जबजब मिलता तबतब कहता, ‘‘भैया, भगवान से प्रेम करो. वही अजर, अमर, अविनाशी हैं, कणकण में विराजमान हैं, घटघट वासी हैं, उन की मरजी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, वे सबकुछ जानते हैं, सबकुछ देखते हैं, सबकुछ सुनते हैं. वही कर्ता हैं, वही कर्म हैं, वही करण हैं, वे संप्रदान, अपादान आदि हैं. उन से प्रेम करो क्योंकि वे हैं तभी तो हमारा धंधा है.

इसी तरह नेता कहता है कि देश से प्रेम करो. फिर वह इस अमूर्त को मूर्त रूप देने की जरूरत महसूस करता है तो इस निर्णय पर पहुंचता है कि आम आदमी अपनी मां को बहुत चाहता है, सो वह देश को मां बना देता है, भारत माता. फिर वह कहता है कि अपनी मातृभूमि से प्रेम करो और खुद दूसरों की भूमि से प्यार जताने विदेशों में डोलता फिरता है.

नेता खुद कहता है और अपने टुच्चे चापलूसों से भी कहलवाता है, ‘मातृभूमि पर शीश चढ़ाओ, मातृभूमि पर बलिबलि जाओ…’ और खुद रक्षा के नाम पर बड़ेबड़े हथियारों के सौदों में तहलका कर रहा होता है. इधर लोग मातृभूमि से प्रेम करने लगते हैं तो उधर मातृभूमि पर हमेशा खतरा मंडराने के नाम पर और मातृभूमि की रक्षा के नाम पर हथियार और परमाणु तकनीक खरीदने के लिए बड़ेबड़े सौदे करते हुए नेता दलाली की रकम से स्विस बैंक की तिजोरी भरता जाता है.

सो सुबह से शाम तक देश से प्रेम करना सिखाना नेता का चोखा धंधा है.

पंडित हो या नेता दोनों ही देशवासियों को अपनीअपनी तरह से उल्लू बनाने में लगे हैं, पर जब पंडित नेता बन जाता है तब नीम चढ़ा करेला बन कर देश का कचूमर निकाल देता है.

इस बार वे चक्कर में आ चुके थे. वे यानी कि श्याम सेवकजी. नेता ने कहा कि देश को आगे बढ़ाना है तो वे सोच में पड़ गए कि क्या और कैसे बढ़ाना है. देश तो देखा ही नहीं. केवल उस का नक्शा देखा है जो उन्हें अपने हाथों बनाए आलू के परांठे जैसा नजर आता है. इसलिए बिना खाना खाए तो वे देश का नक्शा देखना ही नहीं चाहते हैं, उन्हें लगता है कि ये नेता शायद भूखे पेट देश का नक्शा देख लेते होंगे तभी उसे खाने लगते हैं.

इस देश को किस ओर आगे बढ़ाया जाए? उत्तर की तरफ बढ़ाते हैं तो चीन नहीं बढ़ने देगा, पश्चिम की ओर पाकिस्तान नहीं बढ़ने देगा, पूर्व में बंगलादेश, दक्षिण में श्रीलंका व मालदीव बाधक बनेंगे. उन्होंने सोचा कि संस्कृत में कहा गया है कि  ‘महाजनो येन गत: स पंथ:’ (वही रास्ता है जिस से महान व्यक्ति गया) इसलिए लोगों से पूछना चाहिए. उन के अनुभवों का लाभ लेने के लिए वे निकल पड़े. सब से पहले वे महाजन (व्यापारी) के पास पहुंचे और बोले, ‘‘सेठजी, क्या आप देश को आगे बढ़ा रहे हैं?’’

‘‘हां, बढ़ा तो रहे हैं,’’ सेठजी बोले.

‘‘तो हमें भी बताइए,’’ वे बोले.

‘‘देखो भाई, देश को आगे बढ़ाना एक ऊंचा भाव है, इसलिए हम चीजों के भाव बढ़ा रहे हैं.’’

श्याम सेवकजी आगे बढ़े तो सरकारी दफ्तर के एक बाबू मिले. उन्हें लगा ये दूसरे किस्म के महाजन हैं. महान हैं, इसीलिए सरकारी बाबू बने. उन से भी उन्होंने वही सवाल दोहराया, ‘‘बाबूजी, आप देश को आगे बढ़ा रहे हैं?’’

‘‘हां, बढ़ा देंगे, 2 हजार लगेंगे,’’ बाबूजी बोले.

‘‘मैं समझा नहीं?’’ श्याम सेवक ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘अरे भाई, जब एक दुबलीपतली फाइल को आगे बढ़ाने के 100-50 ले लेते हैं, फिर ये तो इतना बड़ा देश है. 50 तो चपरासी ही ले लेगा,’’ बाबूजी बोले.

श्याम सेवक ने सोचा कि देश का भविष्य तो नौजवानों के कंधों पर है, सो वे एक शिक्षित बेरोजगार के पास पहुंचे, जो पान की दुकान पर बैठ कर लड़कियों के कालेज की छुट्टी का इंतजार कर रहा था. उस से भी वही सवाल किया, ‘‘क्यों भैया, क्या तुम देश को आगे बढ़ा रहे हो?’’

उस ने अपने गालों पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘फिलहाल तो हम अपनी दाढ़ी बढ़ा रहे हैं और तुम अपनी गाड़ी बढ़ाओ, फूटो यहां से, छुट्टी होने वाली है.’’

मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार के मुख्यमंत्रियों से तो पूछना ही बेकार था, क्योंकि वे तो अपना प्रदेश घटा चुके थे सो देश को क्या आगे बढ़ाते.

दूध वाले के पास गए तो उस ने कहा, ‘‘हम तो दूध में पानी बढ़ा रहे हैं.’’

डाक्टरों ने कहा, ‘‘हम फीस बढ़ा रहे हैं.’’

अदालतों ने कहा, ‘‘हम तारीख बढ़ा रहे हैं.’’

कुछ महिलाएं महिला सशक्तीकरण के कार्यक्रम में जाने से पहले ब्लाउज के गले का दायरा बढ़ा रही थीं. वकील वादी/प्रतिवादियों के बीच दरार बढ़ा रहे थे ताकि वे समझौता न कर सकें. कुल मिला कर यह कि नेताओं के नारों के कारण देश में हर कोई कुछ न कुछ बढ़ा रहा था, मगर देश है कि बढ़ ही नहीं पा रहा.

थकहार कर श्याम सेवकजी एक धार्मिक पीठ पर पहुंचे. जा कर पीपल के पेड़ के नीचे लेट गए. लेटेलेटे ही उन्होंने देखा कि पीपल के पेड़ पर एक लोहे की प्लेट ठुकी थी जिस पर पीले रंग का पेंट पुता था. पेंट पर नीले रंग से लिखा हुआ था, ‘तुम सुधरोगे, जग सुधरेगा.’

वे फिर लेटे नहीं रह पाए. अगर आर्कमिडीज होते तो यूरेकायूरेका चिल्लाते हुए सड़क पर भागते, पर चूंकि वे आर्कमिडीज नहीं थे, इसलिए पूरे वस्त्रों में अपने को ढके हुए तेज कदमों से घर पहुंचे. उन्हें अपने हिस्से के देश को आगे बढ़ाने का सूत्र मिल गया था.

अगले दिन ही उन्होंने राजमिस्त्री बुलवाए, अपना चबूतरा तुड़वा कर 3 फीट आगे गली में बढ़वा दिया. गली संकरी हो गई थी. पर उन्होंने अपने हिस्से का देश आगे बढ़ा लिया था और लोगों की नासमझ पर वे बेहद दुखी हुए. यदि सारे देशवासी उन्हीं की तरह अपनीअपनी जिम्मेदारियां निभाएं तो सारा देश कहां का कहां पहुंच जाए. Social Story In Hindi

Family Story : सौगात- नमिता को किस बात की सबसे ज्यादा खुशी थी?

Family Story : पति के बाहर जाते ही नमिता ने बाहरी फाटक को बंद कर लिया. कुछ पल खड़ी रह कर वह पति को देखती रही फिर घर की ओर बढ़ने लगी. उस ने 8-10 कदम ही बढ़ाए कि डाकिए की आवाज सुन उसे रुकना पड़ा. डाकिया ने अत्यंत शालीनता से कहा, ‘‘मेम साहिबा, यह आप के नाम का लिफाफा.’’

लिफाफा नाम सुन कर एकबारगी उस के जेहन में तरहतरह के भाव पनपने लगे. फिर वह लिफाफे पर अंकित भेजने वाले के नाम को देख अपनी उत्सुकता को दबा नहीं पाई. वहीं खडे़खड़े उस ने लिफाफा खोला, जो उस के चचेरे भाई सुजीत ने भेजा था. लिफाफे के अंदर का कार्ड जितना खूबसूरत था, उस पर दर्ज पता उतने ही सुंदर अक्षरों में लिखा गया था. सुजीत ने अपने पुत्र मयंक की शादी में आने के लिए उन्हें आमंत्रित किया था.

शादी का कार्ड नमिता की ढेर सारी स्मृतियों को ताजा कर गया. वह तेज कदमों से बढ़ी और बरामदे में रखी कुरसी पर बैठ गई. फिर लिफाफे से कार्ड निकाल कर पढ़ने लगी. एकदो बार नहीं, उस ने कई बार कार्ड को पढ़ा. उस ने कार्ड को लिफाफे में रखना चाहा, उसे आभास हुआ कि लिफाफे के अंदर और कुछ भी है. उस ने लिफाफे के कोने में सिमटे एक छोटे से पुरजे को निकाला. उस पर लिखा था : ‘बूआ, मेरी शादी में जरूर आना, नहीं तो मैं शादी करने जाऊंगा ही नहीं.’

बड़ा ही अधिकार जताया था उस के भतीजे मयंक ने. अधिकार के साथ अपनत्व भी. उस ने उस छोटे से पत्र को दोबारा लिफाफे में न रख कर अपनी मुट्ठी में भींच लिया. उस ने निर्णय लिया कि भतीजे के पत्र का उल्लेख पति से नहीं करेगी. पति कहेंगे कि तुम्हारे भतीजे ने तो सिर्फ तुम्हें ही बुलाया है. उन्हें वहां जाने की जरूरत ही नहीं है. तुम अकेली ही चली जाओ. मायके जाने की बात सोच कर ही नमिता के मन में गुदगुदी होने लगी. साथ ही मयंक की शादी के संबंध में पति को सूचना देने की ललक भी. मयंक का वह छोटा सा धमकीभरा पत्र. आज जबकि संचार माध्यमों की विपुलता की वजह से लोग पत्र लिखना भी भूल गए हैं, तब मयंक के उस छोटे से पत्र ने उसे वह खुशी दी थी जिस की उस ने कल्पना तक नहीं की थी.

उस का बचपन गांव की अमराइयों में बीता था, जहां घंटों तालाब में तैरना, अमिया तोड़ कर खाना, कभी गन्ना चूसना तो कभी मूली कुतरना. कोई रोकटोक नहीं. फिर उसे अपने पिता की यादें कुरेदने लगीं. बचपन में ही मां के गुजर जाने के बाद पिता ने ही मांबाप, दोनों का स्नेह उस पर उडे़ल दिया था. उस के पिता गांव के संपन्न किसान थे. उन्होंने नमिता को पढ़ाने में भी किसी तरह की कोताही नहीं बरती.

उस की शादी शहर के संभ्रांत परिवार के आकर्षक, मेधावी युवक युवराज के साथ अत्यंत धूमधाम से कर दी. वह गुलमोहर के फूलों से सजी कार पर सवार हो कर ससुराल आई थी, जो उस समय के लिए बड़ी बात थी. अपने पिता की लाड़ली तो वह थी ही, ससुराल में भी उसे बड़ा प्यार मिला. गौने में जब वह ससुराल पहुंची तो उस के कुछ महीने के बाद ही पति को बैंक के ऊंचे पद पर नौकरी मिल गई. नतीजतन, ससुराल वालों ने भी उसे हाथोंहाथ लिया. कालांतर में वह मां भी बनी और घरगृहस्थी में वह इस कदर मशगूल हुई कि नैहर की यादें यदाकदा ही आतीं. पहले पुत्रवधू का दायित्व और बाद में चल कर गृहिणी व मां का दायित्व, सब का निर्वाह उस ने बड़ी कुशलता से किया. एक आदर्श परिवार की कुशल गृहिणी थी वह.

आज उस का लड़का अनिमेष जहां इंजीनियर बन बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत था, वहीं उस की बेटी सुजाता डाक्टरी की परीक्षा पास कर सरकारी सेवा में थी. दोनों का पारिवारिक जीवन अत्यंत सफल था. सबकुछ अच्छा होने के बाद भी आज नैहर की यादों ने उस के अंदर हलचल पैदा कर दी. पिता के निधन के बाद नैहर से उस का संबंध टूट सा गया था. सिर्फ रक्षाबंधन के अवसर पर वह लिफाफे में सुजीत के लिए राखी रख कर डाक से भेज देती थी और सुजीत भी कुछेक रुपए मनीऔर्डर से भेज देता था. सच तो यह था कि न तो नमिता ने संबंध प्रगाढ़ करने की कभी कोशिश की और न सुजीत ने. शायद इस के पीछे नमिता के बड़े होने का अहं था या फिर सुजीत के मन में छिपा अपराधबोध.

पिता की मृत्यु के बाद श्राद्ध समाप्त होने के उपरांत लौटने के क्रम में भतीजे की गोलमटोल काया को देख अनायास ही उस के मुंह से निकल गया था, ‘सुजीत, इस की शादी में मुझे जरूर बुलाना. मैं ही इस की एकमात्र बूआ हूं.’ आज वही घटना उसे याद हो आई थी. लंबे समय तक वह वहीं बैठी रही. घर के अंदर बहुत सारे काम उसे निबटाने थे. पर वह उस ओर से उदास ही रही. महरी आई और अपना काम कर लौट भी गई. उस की ओर भी उस ने ध्यान नहीं दिया. बस, नैहर की यादों में खोई रही. मां का चेहरा तक उसे याद नहीं था. कारण, जब वह कुछेक महीने की थी, तभी वे चल बसी थीं. हां, पिता की याद आते ही उस की आंखों में न चाहते हुए भी अश्कों के समंदर लहराने लगे. मन ही मन वह सोचने लगी कि आखिर सुजीत ने इतने दिनों बाद उसे आने को क्यों कहा.

आखिर सुजीत जिस संपत्ति के बूते इतरा रहा है उस में से आधी संपत्ति की मालकिन तो वह भी है. पानी के बुलबुले की तरह उस के अंदर का भाव तिरोहित हो गया है. तमाम तरह के भौतिक संसाधनों से संपन्न है उस का जीवन. पिता की संपत्ति की बात उस के जेहन में आई जरूर पर भूल से भी उस ने कभी उजागर न किया. उस ने सोचा कि पति को निमंत्रणपत्र के संबंध में सूचना अभी क्यों दूं, जब वे बैंक से लौटेंगे तो उन्हें सरप्राइज दूंगी. वह पति का इंतजार करने लगी. लेकिन आज के इंतजार में बेताबी ज्यादा थी, साथ ही साथ कई विचार भी मन में आजा रहे थे.

उस के नैहर वालों ने उस की ज्यादा खोजखबर क्यों नहीं ली. क्या कारण हो सकता है इस के पीछे. पिता के श्राद्ध के समय उस ने अपने चाचा और चाची की आंखों में संदेह के डोरे मंडराते देखे थे. शायद उन्हें पिता के हिस्से की जमीन जाने का संशय था या और कुछ. लेकिन पिता के हिस्से की जमीन की एकमात्र वारिस होने के कारण भी उस के मन में उस के प्रति रत्ती भर भी आसक्ति न थी. आखिरकार उस के इंतजार की घडि़यां समाप्त हुईं. युवराज की गाड़ी फाटक पर आ रुकी. उस ने दौड़ कर गेट खोल दिया. गाड़ी गैराज में लगा कर युवराज जैसे ही कार से बाहर आए नमिता उन के पास पहुंच गई.

युवराज का स्वर उभरा, ‘‘तुम्हारे चेहरे पर यह अव्यक्त खुशी किस बात की है?’’

नमिता ने बगैर कुछ बोले लिफाफा उन की ओर बढ़ा दिया. पर…

‘‘रुक क्यों गए?’’

‘‘अनिमेष और सुजाता तो वहां जाने से रहे. हां, मेरी जबरदस्त इच्छा तुम्हारे नैहर जाने की है.’’

‘‘मेरा नैहर, आप का ससुराल नहीं?’’

‘‘हांहां, मेरा ससुराल भी,’’ फिर आगे आते हुए बोले युवराज, ‘‘नैहर जाने की खुशी में आज चाय नहीं मिलेगी क्या?’’

‘‘क्यों नहीं, अभी लाती हूं.’’

कुछ ही देर में नमिता नाश्ते की प्लेट और चाय ले कर आ गई है. चायनाश्ते के बाद युवराज शालीन मुसकराहट के साथ बोले, ‘‘नैहर जाने की खुशी में चाय का स्वाद मीठा हो गया है.’’

दरअसल, नमिता ने भूले से चाय में दोबारा चीनी डाल दी थी, अपनी भूल पर झेंप गई नमिता.

‘‘एक बात कहूं, नमिता?’’

‘‘एक ही बात क्यों, हजार बात कहिए.’’

‘‘मैं तो अपनी ससुराल में 15 दिनों तक रहूंगा. तुम्हें कोई आपत्ति तो नहीं होगी?’’

‘‘मुझे क्यों आपत्ति होगी. पर आप को इतने दिनों की छुट्टी मिलेगी?’’

‘‘मिलेगी क्यों नहीं, मैं ने छुट्टी ही कब ली है. इस बार तो 15 दिनों की छुट्टी ले कर ही रहूंगा. और हां, शादी आज से 7वें दिन है न. मैं अभी छुट्टी हेतु ईमेल से आवेदन कर देता हूं. जाओ, तुम तैयार हो जाओ. सब से पहले हम लोग शौपिंग करेंगे और रात का डिनर भी कावेरी होटल में करेंगे. एक बात गौर से सुन लो, कोई अगरमगर नहीं. जाओ, जल्दी तैयार हो कर आओ.’’ अगले दिन उन दोनों के गांव पहुंचने पर ही अजीब सी हलचल मच गई. मयंक जो नमिता के गले से लिपटा तो गरदन छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहा था. उस ने अत्यंत धीमे स्वर में बूआ से पूछा, ‘‘बूआ, हमारा पत्र मिला था?’’

‘‘हां रे, तभी तो मैं दौड़ीदौड़ी आई हूं.’’

‘‘हां, मैं ने उसे स्पीडपोस्ट करते समय जल्दीजल्दी में डाल दिया था. आप को बुरा तो नहीं लगा न?’’

उस के बालों को सहलाती हुई नमिता बोली, ‘‘बुरा क्यों लगता. सच तो यह है कि मुझे बड़ा ही अच्छा लगा था. अच्छा, अब छोड़ो, चाचा व चाची से भी मिलना है. बहुत सारे लोगों से मिलना है और ढेर सारी बातें करनी हैं.’’

दिनप्रतिदिन शादी की गहमागहमी बढ़ती गई. वातावरण में शादी का उत्साह छाता जा रहा था. नमिता सिर से पांव तक शादी के विधिविधान में डूबी हुई थी. बुजुर्ग महिलाओं के मन में जहां नमिता को जानने के लिए अनेक जिज्ञासाएं थीं, वहीं बुजुर्गों के आशीर्वाद से वह सिर से पैर तक नहा गई. अत्यंत खुशनुमा माहौल में शादी संपन्न हो गई. नववधू अपने ससुराल आ गई. 8-10 दिनों की अवधि में वह युवराज को भी भूल सी गई थी. रिश्तेदारों का जाना शुरू हो गया था. धीरेधीरे लोगों का जमावड़ा काफी कम हो गया. लोगों के आग्रह को पा उस ने गांव के लोगों के यहां जाना शुरू किया. हर परिवार में जाना और ढेर सारी बातचीत, यही उस की दिनचर्या थी. लेकिन गांव में सब के यहां जाना उस के चाचा को कचोट रहा था. वे मन ही मन कुढ़ रहे थे.

एक दिन शाम के समय सुजीत के पिताजी ने उसे अपने पास बुला कर कहा, ‘‘बेटा, देख रहे हो, नमिता पूरे गांव में घूमती है. ये गांव के लोग अजीब किस्म के धूर्त होते हैं. निश्चय ही कई लोग इसे जमीन के बारे में उकसाते होंगे. मैं तो इसी वजह से उसे बुलाने से आज तक परहेज करता रहा पर तुम नहीं माने. सोचो, उस के हिस्से की 10 एकड़ जमीन अगर हाथ से निकल गई तो तुम्हारी सारी साहबी धूल में मिल जाएगी.’’

‘अब चाहे जो हो, पिताजी. आप के एकमात्र पोते की शादी में, उस की जिद पर मुझे नमिता दीदी को बुलाना पड़ा.’’

पितापुत्र की बातें नमिता बाहर खड़ी हो सुनती रही. उस की उपस्थिति का एहसास पितापुत्र को नहीं था. वह समझ गई कि उस के चाचा के मन में बेबुनियाद आशंका पल रही है. इसे निर्मूल कर देना ही चाहिए. और वह अविलंब युवराज के पास पहुंच गई. संयोग ऐसा कि युवराज भी वहां अकेले बैठे थे. नमिता को देख युवराज मुसकराने लगे. बड़े गंभीर स्वर में नमिता ने पूछा, ‘‘कैसे हैं आप?’’

‘‘ठीक हूं, और तुम कैसी हो?’’

‘‘मैं तो बहुत ठीक हूं.’’

‘‘आज 10 दिन बाद मेरी याद आई है तुम्हें?’’

‘‘हां, मैं तो शादी के विधिविधान और गहमागहमी में एकदम डूब गई थी. आप को कोई कष्ट तो नहीं हुआ?’’

‘‘कष्ट क्यों होता. इतने मधुर रिश्ते वालों का मेरे पास जमघट था कि मुझे तुम्हारी जरूरत ही महसूस नहीं हुई.’’

‘‘चलिए, अच्छा हुआ. और एक गंभीर बात है.’’

अचकचा गए युवराज, ‘‘यहां और गंभीरता, ऐसा नहीं हो सकता.’’

फिर नमिता ने सुजीत तथा अपने चाचाजी के मध्य की बात युवराज को सुनाई तो युवराज ने कहा, ‘‘देखो, नमिता जिस जमीन का हिस्सा 2 परिवारों के बीच शूल बना हुआ है उसे निकाल कर फेंक दिया जाना चाहिए. वैसे यह तुम्हारा विशेषाधिकार है. जमीन तुम्हारे पिताजी की है.’’

‘‘हां, मैं ने भी निर्णय किया है. सिर्फ आप की सहमति की आवश्यकता है.’’

‘‘वैसे क्या निर्णय है तुम्हारा, मैं जानना चाहता हूं्?’’

‘‘एकदम सीधासादा. मैं पिताजी की सारी जमीन मयंक दंपती को बतौर सौगात देने का निर्णय ले चुकी हूं.’’

‘‘नमिता, तुम तो पहले भी मेरे लिए अच्छी थीं और आज तुम्हारे निर्णय ने तुम्हारे व्यक्तित्व को और अधिक ऊंचाई दे दी है. चलो, यह निर्णय हमदोनों चल कर चाचाचाची, सुजीत, उस की पत्नी और मयंक दंपती को सुना डालते हैं.’’

एकबारगी वातावरण में एक अजीब सी खुशी छा गई. नमिता के चाचा की आंखों के कोर से अश्रु बूंदें ढुलक गईं. उस की चाची बोलीं, ‘‘नमिता बेटी, मयंक केवल सुजीत का बेटा या मेरा पोता ही नहीं, तुम्हारा भतीजा भी है,’’ कहतेकहते उन की आंखों से बहती अश्रुधारा में सारी कलुषता धुल गई. नमिता व युवराज के चेहरे पर संतोष का भाव झलक रहा था. मयंक को जहां जमीन की सौगात मिली थी, वहीं नमिता को नैहर व युवराज को ससुराल की सौगात. प्रसन्नता की समानता जो थी. Family Story

Vice President : जगदीप धनखड़ की बेचारगी

Vice President : वफादार, चाटुकार, योग्य और बड़बोले अच्छी तरह जानते हैं कि ताकतवर लोगों से जहां ईनाम मिलता है वहीं जरा सी चूक होने पर सिर काट भी दिया जाता है. इतिहास ऐसे मामलों से भरा पड़ा है कि राजाओं ने अपने सब से नजदीकी शख्स को या सरेआम या गुपचुप मरवा डाला हो. आज के शासक हत्याएं तो नहीं कराते लेकिन विरोधी की राजनीतिक हत्या करवा देते हैं.

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का मामला भी ऐसा ही है. जब तक वे सिर और कमर झुकाए सत्ता के आगे पसरे रहे तब तक उन्हें सहा गया और जैसे ही उन्होंने अपनी मरजी चलाई, उपराष्ट्रपति के पद से उन्हें हटाने में देरी नहीं की गई.

जगदीप धनखड़ जरूरत से ज्यादा सरकारी पक्ष लेते रहे हैं. उन्होंने राज्यसभा को चलाने में सत्ता पक्ष का खयाल रखने में एक निष्पक्ष सभापति का काम कभी नहीं किया. अपने साथी लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला की तरह विपक्ष को कभी संसद या सरकार को घेरने की अनुमति नहीं दी. वे जजों की नियुक्ति, संविधान के मौलिक ढांचे के फैसलों की आलोचना करते रहे जबकि सरकार की मंशा, कि सत्ता सिर्फ 2 हाथों में रहे, के मुताबिक पूरी कोशिश करते रहे.

फिर भी उन का पद न सिर्फ अचानक छीन लिया गया बल्कि नए राष्ट्रपति प्रागंण में बने घर के कार्यालय को बंद भी शायद करा दिया गया. आज वे स्मृति ईरानी, विशंभर प्रसाद, मेनका गांधी, वरुण गांधी, मुरली मनोहर जोशी, लालकृष्ण आडवाणी की श्रेणी में आ गए है जिन से पद छीन लिए गए.

ऐसा हर राजा ने किया. राजा राम ने शत्रुघ्न और लक्ष्मण के साथ भी ऐसा ही किया था कि जब उन की जरूरत नहीं रही तो उन्हें अपने निकट नहीं रखा. जो शासक इस तरह की पौराणिक कहानियों को सुनसुन कर बड़े हुए उन के लिए इसी तरह के फैसले लेना कोई कठिन नहीं है.

ऐसा नहीं कि दूसरी पार्टियां यह नहीं करतीं. जो कांग्रेसी नेता आज भाजपा में किसी तरह छुटभैये नेता की तरह रह कर जिंदगी काट रहे हैं, एक वक्त कांग्रेस में इसी तरह गांधी परिवार के कोपभाजन के शिकार हुए थे. उन्हें भाजपा ने उस समय लपक लिया क्योंकि तब उन्हें कांग्रेस को डूबता जहाज कहने का मौका मिल रहा था.

राजनीति में जरूरत से ज्यादा चतुराई और चाटुकारिता दोनों खतरनाक हैं. जिन्हें अपना महत्त्व बना कर रखना है उन्हें जीहुजूर कहने वाला बन कर रहना होगा वरना उन का हाल टेस्ला और स्टारलिंक के मालिक एलन मस्क जैसा होगा जो डोनाल्ड ट्रंप की जीत के कुछ माह बाद तक तो उन के सब से बड़े साथी थे जबकि आज सब से बड़े दुश्मन.

BJP : झूठ, झूठ और झूठ – ट्रंप सच्चे या मोदी

BJP : लोकसभा में एक अहम बहस के दौरान भारतीय जनता पार्टी के एक मंत्री ने कटाक्ष किया कि यह कैसा विपक्ष है जो संविधान की शपथ लिए हुए विदेश मंत्री जयशंकर की बात को सहीं नहीं मानता जबकि विदेशी डोनाल्ड ट्रंप को सही मानता है. बहस इस बात पर हो रही थी कि औपरेशन सिंदूर के बाद 4 दिनों में भारत ने पाकिस्तान से सुलह क्यों कर ली जबकि युद्ध की शुरुआत भारत ने ही की थी.

विपक्ष ही क्या, देश को सोचनेसमझने वाला हर देशवासी सरकारी प्रचार को अब मुश्किल से ही सही मानता है क्योंकि पिछले 11 सालों में सत्ता पर काबिज़ भाजपा द्वारा जनता से इतनी बार ‘अश्वत्थामा मारा गया है’ वाला झूठ बोला गया है कि धर्मराज युधिष्ठिर की तरह भाजपा की बातों पर अब कोई पूरी तरह भरोसा नहीं कर सकता.

भारतीय जनता पार्टी के झूठों की लिस्ट तो लंबी है, राम जन्म स्थान वहीं अयोध्या में है, यह सच कैसे है, आज तक नहीं पता क्योंकि रामायण और महाभारत का कोई पुरातत्त्व अवशेष आज तक नहीं मिला है. राममंदिर के निर्माण के समय अयोध्या में फैले दशरथ और बाद में भरत, शत्रुघ्न और अंत में राम व लक्ष्मण के महलों की कोई नींव 10-20 या 50 फुट गहराई तक नहीं मिली है कि जिस की किसी विदेशी पुरातत्त्व विशेषज्ञ ने पुष्टि की हो.

वर्ष 2016 में नोटबंदी पर नरेंद्र मोदी के वादों पर कोर्ई भरोसा नहीं कर रहा है क्योंकि आज भी कालाधन और आतंकवाद वैसा ही है जैसा 2016 में था. 2,000 रुपए के नोटों को वापस लेने का मतलब यही था न कि लोगों के पास कालाधन कैसा था, कैसा है. 500 रुपए के नोट बंद करने की अफवाहों पर ध्यान दिया जा रहा है, सरकार की सफाई पर कोई भरोसा नहीं कर रहा.

कोविड का लौकडाउन 17 दिनों में घंटों, घड़ियालों और टौर्चों से नहीं गया. यह बात भी साबित करती है कि भाजपा के दावों में कितनी सच्चाई है, उस पर क्यों कोई विश्वास करे.

देश का एक बड़ा वर्ग जीएसटी के टैक्स से परेशान है जबकि बारबार झूठ बोला गया कि इस से टैक्स देना सरल होगा, पूरे देश में एक टैक्स होगा, व्यापार बढ़ेगा, आसान होगा. जबकि, ऐसा कुछ नहीं हुआ. जीएसटी इतना जान लेवा है कि हैदराबाद की पटरी पर सब्जी बेचने वाली को 42 लाख रुपए का नोटिस थमाया गया है.

किसानों को सरकार के 3 कृषि कानूनों पर कोई भरोसा नहीं रहा और वे धरनों पर तब तक जमे रहे जब तक माफी मांगते हुए नरेंद्र मोदी ने तीनों कानून वापस नहीं ले लिए.

चुनाव प्रक्रिया के फ्रंट पर अब चुनाव आयोग पर भरोसा नहीं रह गया है. चुनाव पार्टी नहीं जीतती, चुनाव आयोग्य जीतता है, ऐसा लोगों का अब विशवास बन गया है. इलैक्ट्रौनिक वोटिंग मशीनों और अब बिहार में की जा रही मतदाता सूची का पुनर्निरीक्षण जैसे कदमों से लोगों का भरोसा कम ही हुआ है.

सब से बड़ी बात यह है कि आज समझदार लोग उस मीडिया पर भरोसा नहीं कर सकते जो भारतीय जनता पार्टी व उस की सरकार का भोंपू बन कर रह गया है. भाजपाइयों के कहने पर गोदी मीडिया ने ‘4 दिनों में भारतीय सेना ने लाहौर और कराची पर कब्जे’ तक की खबरें चला डाली थीं.

ऐसी सरकार के ऐसे प्रचार माध्यम, ऐसे बयानों पर भरोसा कोई कैसे करे, यह बड़ा सवाल है. डोनाल्ड ट्रंप खुद भरोसे के लायक नहीं हैं क्योंकि वे तो घेरलू खाने की चीजों के दाम 1,000 फीसदी (जी, एक हजार फीसदी) कम करने वाले हैं. लेकिन, ऐसा कौन कह रहा है कि उन के 26 बयान- भारतपाक युद्ध उन्होंने कस्टम ड्यूटी की धमकियां दे कर रुकवाया था- गलत हैं, झूठ हैं.

दरअसल, विदेश मंत्री जयशंकर या गृहमंत्री अमित शाह या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहें तो सही माना जाएगा कि डोनाल्ड ट्रंप झूठ बोल रहे हैं. लेकिन, ये तीनों तो इस विषय पर मुंह ही नहीं खोल रहे.

Bihar SIR : वोटर पुनर्निरीक्षण “डैमोक्रेसी की नसबंदी”

Bihar SIR : भारत के संविधान ने आजादी मिलने से पहले ही सभी वयस्कों को वोट देने का अधिकार दे दिया था लेकिन आज वोटर लिस्ट में ‘सुधार’ के नाम पर संविधान की भावना को कुचला जा रहा है.

देश के एक महत्त्वपूर्ण राज्य बिहार में होने जा रहे विधानसभा चुनाव से ऐन पहले वोटर लिस्ट का विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर का काम एक तरह से डैमोक्रेसी की नसबंदी जैसा है. जिस तरह से 1975 से 1977 के बीच इमरजैंसी के दौरान जनता की राय के बिना नसबंदी की गई, उस को कहीं आपत्ति दर्ज कराने का मौका नहीं दिया गया उसी तरह से 2014 में केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद उस की अघोषित इमरजैंसी में जनता को अपनी बात कहने का मौका नहीं दिया जा रहा.

नसबंदी की तरह नोटबंदी कर लोगों की मेहनत की कमाई को लूट लिया गया. नोटबंदी के पक्ष में तर्क दिया गया कि इस से आतंकवाद खत्म होगा. जबकि, नोटबंदी के बाद देश में बड़ी आतंकवादी घटनाए हुईं. यानी, नोटबंदी का मकसद कुछ और था, कहा कुछ और गया.

कोरोना संक्रमण के दौरान देश में जबरन तालाबंदी थोपी गई. तालाबंदी के बाद भी कोरोना से मरने वालों की संख्या को रोका न जा सका. तालाबंदी भी तुगलकी फरमान जैसी घोषणा थी. अब इसी तरह का फरमान बिहार चुनाव से पहले वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण का थोपा गया है. इस का भी मकसद कुछ और है, बताया कुछ और जा रहा है. सवाल है कि वर्ष 1952 में संविधान ने वोट देने का जो अधिकार दिया, चार पीढ़ियों के बाद अब उस को इस तरह से कैसे खत्म किया जा सकता है?

राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील बिहार की कुल आबादी लगभग 13 करोड़ है. इस राज्य में तकरीबन 8 करोड़ वोटर हैं जिन के नाम मतदाता सूची में होने चाहिए. इन में से करीब 3 करोड़ लोगों के नाम 2003 की मतदाता सूची में थे. बाकी 5 करोड़ को अपनी नागरिकता के प्रमाण जुटाने पड़ेंगे. उन में से आधे यानी ढाई करोड़ लोगों के पास वे प्रमाणपत्र न होंगे जिन्हें चुनाव आयोग मांग रहा है. ऐसे में साफ है कि इतनी बड़ी संख्या में लोगों को वोट डालने से रोकने की तैयारी है. चुनाव आयोग ने 73 लाख लोगों की सूची राजनीतिक दलों के साथ साझा की है जिन को वोटर लिस्ट से बाहर किया जा सकता है. इन में 21 लाख लोगों ने गणना फौर्म जमा नहीं किए हैं. 52 लाख लोग या तो मर चुके हैं या फिर उन के नाम किसी दूसरे क्षेत्र से वोटर लिस्ट में जुड़ चुके हैं.

बिहार में वोटर लिस्ट पर हठ क्यों

राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव कहते हैं, ‘चुनाव सुधार के बहाने संविधान और लोकतंत्र पर उसी तरह से चोट की जा रही है जैसे नोटबंदी के समय की गई थी. देश की जनता सब देख रही है. वोटर लिस्ट रिव्यू के नाम पर फर्जीवाड़ा हो रहा है. यह सब एक नियोजित प्लान के तहत हो रहा है कि किनकिन बूथ पर और किनकिन मतदाताओं के नाम काटने हैं जिस से विपक्षी दलों को सत्ता में आने से रोका जा सके. बिहार में इस बार चोरी पकड़ ली गई है. यह अब आगे चलने नहीं दिया जाएगा.’

सरकार और चुनाव आयोग का हठ वैसा ही है जैसे पौराणिक काल में साधुसंत करते थे. जो उन की बात नहीं मानता था उस को भस्म कर देते थे. चुनाव आयोग पौराणिक काल के संतों जैसा व्यवहार कर रहा है. उस का कहना है कि जो उस की बात नहीं मानेगा, उस का नाम वोटर लिस्ट से काट दिया जाएगा. न्याय का सिद्धांत यह है कि आरोपी को आखिर तक मौका दिया जाए. अगर किसी को फांसी की सजा दी जाती है तो उस से मरने से पहले उस की अंतिम इच्छा पूछी जाती है. चुनाव आयोग बिना वोटर से पूछे या उसे बताए वोटर लिस्ट से उस का नाम काट रहा है. वोटर लिस्ट में नाम गलत तरह से भी शामिल हो गया हो तब भी वोटर से नाम हटाने के पहले उस से पूछना चाहिए, ऐसा नियम है.

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 के तहत अगर वोटर लिस्ट में गलत तरह से नाम लिखवाया गया है या एक वोटर का नाम 2 जगह लिखा गया है तो उस को एक साल की कैद या जुर्माना या दोनों की सजा का प्रावधान हैं. फौर्म नं. 6 नए मतदाता बनने के लिए है. फौर्म नं. 7 किसी वोटर का नाम शामिल होने पर आपत्ति और नाम हटाने के लिए है. फौर्म नं. 8 मतदाता सूची में मतदाता की प्रविष्टि की किसी त्रुटि को ठीक करवाने के लिए है. फौर्म नं. 8 (क) एक ही विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र में मतदाताओं को मतदान केंद्र बदलने के लिए और फौर्म 6 (ए) विदेशों में रहने वाले भारतीय नागरिकों के लिए है.

अगर चुनाव आयोग को यह लग रहा है कि वोटर लिस्ट में नाम गलत है तो उस वोटर के खिलाफ कानून के हिसाब से काम करना चाहिए. वोटर लिस्ट से सीधे नाम काट देना किसी भी तरह से न्यायसंगत नहीं है. वोट देना वोटर का सब से बड़ा अधिकार है. इसे छीन लेना उस को उसी तरह का अनुभव कराता है जैसे कोई कार चलाने वाला रोल्स रौयस कार खरीद कर सड़क पर निकले और उस को कूड़ा ढोने वाला सरकारी ट्रक टक्कर मार कर चला जाए. वोट ही ऐसा अधिकार है जिस के लिए राजा उस के दरवाजे आ कर घुटने टेकने को मजबूर होता है. चुनाव आयोग और भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार नागरिकों को इस महत्त्व का भी आनंद नहीं लेने देना चाहती है.

बिहार विधानसभा चुनाव के पहले ही सरकार ने वोटर लिस्ट का विशेष गहन पुनरीक्षण कराने का फैसला क्यों लिया? बिहार में पिछले 22 साल में यह पहली बार हो रहा है जब मतदाता सूची में अपना नाम डलवाने के लिए वोटर से नागरिकता साबित करने के कागज मांगे जा रहे हैं. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि खुद को विश्व की सब से बड़ी पार्टी कहने वाली भाजपा की बिहार के चुनाव में दाल नहीं गल रही थी.

बिहार की राजनीति में अगड़ों पर एससी और ओबीसी भारी पड़ रहे हैं. बिहार में भाजपा कभी अपने दम पर सरकार नहीं बना पाई. उसे नीतीश कुमार को बैसाखी के रूप में इस्तेमाल करना पड़ता है. भाजपा इस चुनाव के बाद नीतीश कुमार की बैसाखी को हटाना चाहती है. ऐसे में उस का आखिरी अस्त्र वोटर लिस्ट है, जिस के जरिए वह बिहार की सत्ता को हासिल कर सकती है.

चुनाव आयोग जो भी तर्क दे लेकिन सरकार नोटबंदी और तालाबंदी की तरह मतबंदी करने में पूरी तानाशाही दिखा कर वोट देने के मौलिक अधिकार को छीनने का काम कर रही है. जो काम कभी अंगरेजों ने नहीं किया वह काम लोकतंत्र में एक चुनी हुई सरकार कर रही है. संविधान ने जनता को वोट का अधिकार दिया है. अब हिंदू राष्ट्र निर्माण में लगी भारतीय जनता पार्टी की सरकार जनता के एक बड़े हिस्से को वोट देने से वंचित रखने का कृत्य कर रही है. जो काम अभी बिहार में वोटर लिस्ट सुधार के नाम पर हो रहा है वही काम बाद में दूसरे प्रदेशों और फिर पूरे भारत में होगा.

उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने आरोप लगाया था कि हर विधानसभा की वोटर लिस्ट में समाजवादी पार्टी से 10 से 20 हजार कार्यकर्ताओं के नाम गायब थे. चुनाव आयोग के सामने इस मसले को उठाया गया पर समय रहते चुनाव आयोग ने कदम नहीं उठाए.

इसी तरह का आरोप कांग्रेस नेता और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने महाराष्ट्र चुनाव में लगाए थे. राहुल गांधी ने अपनी पूरी बात को अखबारों में लेख लिख कर समझने का काम किया था. चुनाव आयोग ने इस पर ध्यान नहीं दिया. बिहार में चुनाव से पहले ही वोटर लिस्ट सुधार के नाम पर वोटबंदी का काम किया जा रहा है.

जिस तरह से दूध का जला मट्ठा भी फूंकफूंक कर पीता है उसी तरह से विपक्षी दलों ने बिहार चुनाव में चुनाव से पहले ही वोटर लिस्ट पर नजर रखनी शुरू कर दी थी, जिस की वजह से मतबंदी की यह योजना सामने आ गई. पूरे देश को पता चल गया कि नसबंदी, नोटबंदी और तालाबंदी के बाद अब मतबंदी की जा रही है. एक तरफ इस पार्टी के नेता अपनी मार्कशीट नहीं दिखाने पर अमादा हैं दूसरी तरफ वे दूसरों से कहते हैं कि अपने पेपर दिखाओ. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने आरोप लगाया कि इस रिवीजन से चुनाव आयोग बैकडोर से एनआरसी लागू करने की कोशिश कर रहा है.

मौलिक अधिकार है वोट देना

लोकतंत्र में वोट का अधिकार मौलिक अधिकार है. संविधान लागू होने से पहले सब को वोट देने का अधिकार नहीं था. 1857 के बाद अंगरेजों ने लोकल सैल्फ गवर्नमैंट पौलिसी बनाई थी, जो 1884 में पूरी तरह से लागू हो गई. वर्ष 1908 में लोकमान्य तिलक ने पुणे नगर पालिका के चुनाव में हिस्सा लिया था. इस में उन की विजय हुई थी. इस के बाद भी उन्होंने कभी सभी शहरियों को वोट देने के अधिकार का मुद्दा नहीं उठाया कि जिस के तहत आम नागरिक वोट दे सके. उस समय तक वोटर लिस्ट नहीं बनी थी. बाल गंगाधर तिलक महान माने जाते हैं पर वे औरतों, पिछड़ों और अछूतों की प्राइमरी शिक्षा के भी खिलाफ थे. वही काम आज की भगवाई सरकार कर रही है.

1909 में अंगरेजों के दौर में इलैक्शन एक्ट पारित हुआ. उस के बाद इलैक्शन शुरू हुआ. उस समय वोटर लिस्ट में केवल 50 लोगों के नाम होते थे. ये वे लोग थे जो इलाके के मुखिया, जमींदार, बड़े साहूकार, बड़े काश्तकार यानी कि उस वक्त जो टैक्स के रूप में लगान जमा करते थे वही लोग चुनावी प्रक्रिया में शामिल होने के हकदार थे. वे ही लोग वोटर हुआ करते थे और उन्हीं लोगों में से चुनाव लड़ने वाले होते थे. उन्हीं में से लोग चुनाव जीत कर इलाके के विकास के लिए कार्य करते थे.

50 लोगों की वोटर लिस्ट में से केवल 4 लोगों को चुनाव लड़ाते थे. ये वे लोग होते थे जो उस समय 100 रुपए से अधिक का आयकर या मालगुजारी भरते थे. मुश्किल से गांव के अनुसार 4 या 5 वोट ही होते थे. 4 प्रत्याशी होते थे और 46 वोटर और इन्हीं लोगों में से एक जीत कर लोकल बोर्ड का मुखिया बनता था. 1919, 1935 और 1945 में हर बार ब्रिटिश प्रोविंसों में मतदाताओं की संख्या बढ़ी पर सभी को वोट देने का अधिकार 1952 में ही मिला.

जब देश आजाद हुआ तो यह तय किया गया कि भारत में लोकतंत्र की स्थापना के लिए अधिक से अधिक लोगों को वोट डालने का अधिकार दिया जाएगा. इस से पहले भारत ही नहीं अन्य देशों में भी अमीरों को ही वोट देने का अधिकार था. भारत ने संविधान लागू होने से पहले ही यह सोच लिया था कि देश में सभी को वोट देने का अधिकार होगा.

ओर्नित शानी की किताब ‘हाऊ इंडिया बिकेम डैमोक्रेटिक’ में लिखा है कि भारत में वयस्क मताधिकार के माध्यम से लोकतंत्र को स्थापित करने का मूर्त रूप दिया गया.

ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली को भारत की इस लोकतांत्रिक व्यवस्था पर संदेह था. उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को लिखा- ‘एशियाई गणराज्य कम हैं और हाल ही में वे स्थापित हुए हैं. ऐसे में सभी को मतदान का अधिकार देना ठीक नहीं रहेगा.’ अंगरेज वकील और शिक्षाविद आइवर जेनिंग्स ने लिखा- ‘सीमित मताधिकार दे कर या प्रतिनिधित्व को संतुलित कर के ही लोकतंत्र के नुकसान को कम किया जा सकता है.’ ब्रिटिश प्रधानमंत्री की सोच स्वतंत्र और लोकतांत्रिक चुनाव कराने की भारतीय अवधारणा- वयस्क मताधिकार- पर आधारित नहीं थी.

1947 से 1950 के बीच वयस्क मताधिकार को वोट का अधिकार देने के लिए संविधान सभा सचिवालय (सीएएस) द्वारा उपाय किए गए. इन में सब से पहले सीएएस ने मतदाता सूची तैयार करना शुरू किया. 17.3 करोड़ नागरिकों को मताधिकार दिया गया. इस तरह से देखें तो मतदाता सूची का पहला मसौदा संविधान लागू होने से ठीक पहले ही सोच लिया गया था. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत देश के नागरिकों, जिन की उम्र 21 वर्ष या उस से अधिक थी, को वोट डालने का अधिकार दिया गया. इस अनुच्छेद को संविधान में शामिल करवाने में वे लोग थे जो हिंदूरक्षक माने जाते थे, आपत्ति करते रहे थे.

28 मार्च, 1989 को 61वें संविधान संशोधन के तहत वोट डालने की न्यूनतम उम्र को घटा कर 18 वर्ष कर दिया गया था. संविधान का अनुच्छेद 326 यह भी सुनिश्चित करता है कि मतदान के अधिकार का प्रयोग करते समय किसी भी नागरिक के साथ धर्म, जाति, लिंग या संपत्ति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा.

भारत के संविधान ने यह तय किया कि जो भी बालिग है वह वोट देगा. उम्र के अलावा कोई बंधन नहीं रखा गया था. इसी के तहत 1951-52 में हुए पहले भारतीय आम चुनाव में करीब 17 करोड़ लोगों ने हिस्सा लिया, जिस में 85 फीसदी लोग न तो पढ़ सकते थे, न लिख. कुल मिला कर करीब 4,500 सीटों के लिए चुनाव हुआ था, जिस में 499 सीटें लोकसभा की थीं. यह पहली बार हुआ कि न केवल पहले के अंगरेजों के अधीन वाले प्रोविंसों में सभी को वोट का अधिकार मिला बल्कि पूर्व राजाओं की रियासतों के नागरिकों को भी पहली बार वोट देने का हक मिला.

वोट के अधिकार से लोगों को वंचित करने का मतलब जनता के मौलिक अधिकारों की कटौती है. आज वोट लिस्ट में तथाकथित सुधार के रास्ते देश को आजादी से पहले की हालत में ले जाने का प्रयास किया जा रहा है जब केवल सलेक्टेड लोग ही वोट दे सकते थे और चुनाव लड़ सकते थे. संविधान ने जो अधिकार जनता को दिया, सरकार उस को मतबंदी के जरिए वापस लेने की फिराक में है. वह दलितों, पिछड़ों और कमजोर लोगों को अपने बराबर बैठे नहीं देखना चाहती. लोकतंत्र में वोट का अधिकार छीन कर इस कृत्य को अंजाम दिया जा सकता है.

संविधान को दरकिनार करने की साजिश

बिहार में वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण के बहाने इस तरह की व्यवस्था को बनाने का काम हो रहा है जिस में वोटर लिस्ट में वे लोग होंगे जो पौराणिक व्यवस्था को मानेंगे. जो पौराणिक व्यवस्था को चुनौती देने वाले होंगे उन के वोट देने के अधिकार को वोटर लिस्ट से उन के नाम काट कर खत्म कर दिया जाएगा. देश को संविधान लागू होने से पहले के कालखंड में ले जाया जा रहा है. नागरिकता को वर्णव्यवस्था से जोड़ने की साजिश की जा रही है. यह काम केवल बिहार तक ही सीमित नहीं रहेगा, आगे पूरे देश में ऐसा किया जाएगा.

बिहार विधानसभा चुनाव में वोटर लिस्ट विवाद के बाद चुनाव आयोग ने कहा कि ‘वोटर लिस्ट में जांच का काम देश के हर राज्य में किया जाएगा. इस में घरघर जा कर मतदाताओं की पुष्टि की जाएगी. इस के जरिए चुनाव आयोग यह चाहता है कि कोई गैरभारतीय वोटर लिस्ट में न रहे.’

2029 में लोकसभा चुनाव से पहले सभी राज्यों की वोटर लिस्ट की स्क्रीनिंग पूरी करने की योजना है. भाजपा अब यह नहीं चाहती कि उस की जगह पर कोई और दल सत्ता में आए. ऐसे में वोटर लिस्ट से विरोधियों के नाम ही काट दिए जाएं.

इस को दक्षिणापंथी लोगों की उस मांग से जोड़ कर देखा जा सकता है कि जो भारतीय न हो उस को वोट देने का अधिकार न हो. यही उद्देश्य एनआरसी यानी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का भी था. जनगणना में भी केंद्र सरकार इसी तरह का कोई हेरफेर कर सकती है. उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव कहते हैं- ‘जातीय जनगणना के आंकड़ों और वोटर लिस्ट के मामले में भाजपा सरकार पर भरोसा नहीं किया जा सकता.’

बिहार वोटर लिस्ट प्रक्रिया में चुनाव आयोग की भूमिका पर सवाल उठ रहे हैं, उस के पहले महाराष्ट्र के चुनाव में वोटर लिस्ट की गड़बड़ी जाहिर हो चुकी है. इस से यह साफ दिखने लगा है कि हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए कुछ भी संभव है. इस को देख कर यह कहा जा सकता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में अगर भाजपा को 400 से अधिक सांसद मिल गए होते तो वह कानून बना कर इस तरह के काम करती जिन्हें अब उस को पिछले दरवाजे से करने की कोशिश करनी पड़ रही है.

क्या है वोटर लिस्ट विवाद

बिहार विधानसभा चुनाव से पहले चुनाव आयोग ने वोटर लिस्ट को अपडेट करने का काम शुरू किया. इस को वोटर लिस्ट का विशेष गहन पुनरीक्षण नाम दिया गया. इस के तहत नए मतदाताओं के नाम जोड़े जा रहे हैं और जो वोटर नहीं हैं, उन के नाम हटाए जा रहे हैं. इस में सभी मतदाताओं को सत्यापन का एक फौर्म भरना पड़ रहा है, जिस में उन्हें अपने बारे में कुछ जरूरी जानकारियां देनी होती हैं.

चुनाव आयोग जो जानकारी मांग रहा है उस में 2 प्रावधान किए गए हैं, जैसे 2003 या उस के बाद पैदा हुए मतदाताओं को अपना जन्मप्रमाण पत्र या मातापिता के वोटर आईडी का एपिक नंबर देना होगा, जबकि 2003 से पहले पैदा हुए लोगों को कोई दस्तावेज नहीं देना है.

असल में जिन का भी नाम 2003 की सूची में नहीं था, उन सब को फौर्म भरने के साथ प्रमाणपत्र भी लगाने होंगे. जिन का जन्म 1 जुलाई, 1987 के पहले हुआ था उन्हें सिर्फ अपने जन्मतिथि और जन्मस्थान का प्रमाण देना होगा. जिन का जन्म 1 जुलाई, 1987 से 2 दिसंबर, 2004 के बीच हुआ था उन्हें अपने और अपने मातापिता में से किसी एक का प्रमाणपत्र देना होगा. जिन का जन्म 2 दिसंबर, 2004 के बाद हुआ है उन्हें अपने और अपने माता व पिता दोनों का प्रमाणपत्र देना होगा. अगर माता और पिता का नाम 2003 की सूची में था तो उस पेज की फोटोकौपी से उन के प्रमाणपत्र का काम चल जाएगा लेकिन तब भी आवेदक को अपनी जन्मतिथि और जन्मस्थान का प्रमाण तो लगाना ही पड़ेगा.

सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयोग का हलफनामा

वोटर लिस्ट का विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर विवाद को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने वाली कई याचिकाओं के जवाब में चुनाव आयोग ने 88 पेज का जवाबी हलफनामा दे कर अपनी बात रखी. चुनाव आयोग ने इस में कहा कि वोटर लिस्ट में नाम शामिल करने के लिए वोटर कार्ड, आधार और राशन कार्ड को वैध दस्तावेज के रूप में मंजूर नहीं किया जा सकता है. वोटर लिस्ट का विशेष गहन पुनरीक्षण जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 के नियम 21 (3) के तहत नए सिरे से वोटर लिस्ट बनाने की प्रक्रिया है. यह वोटर कार्ड मौजूदा सूची की प्रविष्टियों पर आधारित है और स्वयं पुनरीक्षण के अधीन है.

चुनाव आयोग ने अपने हलफनामे में कहा कि आधार कार्ड को वोटर लिस्ट में शामिल करने के लिए वैध दस्तावेज के रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती क्योंकि यह नागरिकता स्थापित नहीं करता, यह केवल पहचान का प्रमाण है. इसी तरह से चुनाव आयोग ने राशन कार्ड को भी स्वीकार्य दस्तावेज की सूची से बाहर करने की वजह बताते कहा, राशन कार्ड फर्जी बने हुए हैं.

केंद्र सरकार ने 7 मार्च को अपनी एक प्रैस कौन्फ्रैंस में कहा कि उस ने 5 करोड़ फर्जी राशन कार्ड निरस्त कर दिए हैं. इस का मतलब यह हुआ कि केंद्र सरकार 80 करोड़ लोगों को जो राशन दे रही थी वह फर्जी लोगों को दे रही थी. कल को केंद्र सरकार कहेगी कि आधार तो मुफ्त राशन पाने का भी दस्तावेज नहीं है. यह सुविधा वापस ली जा सकती है.

चुनाव आयोग का तर्क है कि वोट का अधिकार जनप्रतिनिधत्व अधिनियम 1950 की धारा 16 और 19 के साथ संविधान के अनुच्छेद 326 और जनप्रतिनिधत्व अधिनियम 1951 की धारा 62 से प्राप्त होता है. इस में नागरिकता, आयु और सामान्य निवास के संबंध में कुछ योग्यताएं निधारित हैं. अपात्र व्यक्ति को वोट देने का अधिकार नहीं है. इसलिए वह संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 के तहत मिले अधिकारों का उल्लंघन नहीं है. चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि उसे वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण में एक माह से अधिक का समय नहीं लगेगा जिस से वह समय पर अपना काम कर लेगा.

चुनाव आयोग का कहना है कि 2003 के बाद की वोटर लिस्ट में गड़बड़ी है. अब सवाल उठता है कि अगर 2003 के बाद के चुनावों की वोटर लिस्ट में गड़बड़ी है तो इस के बाद बिहार में हुए विधानसभा और लोकसभा के चुनाव को अवैध क्यों नहीं माना जाना चाहिए? उन चुनावों को रद्द कर देना चाहिए.

उन चुनावों के बाद सरकारों ने जो भी फैसले लिए वे भी कूड़ेदान में डाल देने चाहिए. जब वोटर लिस्ट ही गलत थी तो उस के द्वारा चुनी सरकार भी गलत थी और उस के आधार पर लिए गए फैसले भी गलत ही थे. सभी सांसदों, विधायकों को दिए गए वेतन वापस ले लिए जाने चाहिए. सारे कानून जो उस दौरान बने, रद्द माने जाने चाहिए.

चुनाव आयोग ने एक माह में ही वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण के काम को पूरा करने का दावा किया है. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई कर रही बैंच के न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया ने कहा कि न्यायालय को चुनाव आयोग की समयसीमा पर गंभीर संदेह है. उन्होंने कहा कि जनगणना में ही एक वर्ष लग जाता है और ईसीआई की समयसीमा सिर्फ 30 दिन है जिस के अंदर कैसे यह काम हो सकता है.

सवाल यह भी उठता है कि अगर सरकार इतनी ही सक्षम है तो जनगणना का काम अब तक क्यों नहीं पूरा किया गया? उसे लगातार टाला क्यों जा रहा है? पिछली बार जनगणना 2011 में हुई थी. 14 साल हो चुके हैं. इतने समय में तो राम का वनवास भी खत्म हो गया था. सरकार ने अभी भी जनगणना के लिए 2027 तक इंतजार करने को कहा है.

वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण का काम वही सरकारी नौकर कर रहे हैं जिन्होंने राशन कार्ड बनाए थे, जिन को फर्जी बताया जा रहा है. वोटर लिस्ट बनाने वाले कर्मचारी राज्य सरकार के ही बाबू श्रेणी के हैं. ये अभी नीतीश सरकार के अधीन ही काम कर रहे हैं. चुनाव आयोग के अधीन तब होते हैं जब चुनाव आचार संहिता घोषित होती है. देश की बाबूशाही कितनी ईमानदार है, सभी जानते हैं. यह रिश्वत लेने में सब से आगे होती है. हर तरह का लाइसैंस और प्रमाणपत्र फर्जी तरह से बन जाता है. बीएलओ के रूप में शिक्षक, लेखपाल, कानूनगो और क्लर्क श्रेणी के कर्मचारी काम करते हैं जो राज्य सरकार के अधीन होते हैं. चुनाव आयोग का काम करने के लिए इन को अतिरिक्त भत्ता मिलता है. इसी भत्ते के लालच में ये चुनाव आयोग का अतिरिक्त काम करते हैं. इन की बनाई वोटर लिस्ट पर कभी भी भरोसा कैसे किया जा सकता है.

वोटर लिस्ट से नाम काटने का अधिकार बीएलओ का नहीं है. चुनाव आयोग वोटर लिस्ट में गलत तरह से नाम लिखवाने वाले को पहले अपने पास बुलाए. उस के खिलाफ मजिस्ट्रेट के यहां शिकायत हो. फिर वह दोनों पक्षों को सही तरह से सुने व समझाए कि उस की गलती है जिस के कारण उस के नाम को काटने का काम क्यों न किया जाए. बिना वोटर को सुने उस का नाम काटना गलत है. चुनाव आयोग वोटर की सुन ही नहीं रहा है. वह सीधे वोटर लिस्ट से नाम काटना चाहता है. यह तानाशाही है- नसबंदी वाली, नोटबंदी वाली, तालाबंदी वाली.

असल में चुनाव आयोग की मंशा वह नहीं है जो वह बता रहा है. अगर चुनाव आयोग की मंशा वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण की होती तो कोई दिक्कत नहीं थी. जैसे, नसबंदी का मकसद फैमिली प्लानिंग नहीं था, लोगों को डरा कर उन के मुंह को बंद करना था. जैसे नोटबंदी का मकसद खास लोगों को लाभ पहुंचाने का था, आतंकवाद और रिश्वतखोरी बंद करना तो बहाना था. जैसे, कोरोना में तालाबंदी का मकसद तबलीगी जमात जैसों को परेशान करने का था.

वैसे ही मतबंदी का काम वोटर लिस्ट को सही करना नहीं है, इस के बहाने गरीब व विरोधी मतदाताओं को मताधिकार से वंचित करना है. जो हिंदू राष्ट्र बनने की राह में बाधा बन सकते हैं उन को वोट देने के अधिकार से वंचित करने का है. बिहार का यह मौडल पूरे देश में ले जाया जाएगा.

आधार नहीं रहा आधार

चुनाव से ठीक पहले प्रदेश के 7.9 करोड़ मतदाताओं से यह कहना कि वे अपनी पात्रता को सत्यापित करें, एक तरह से हजारों वोटर्स को मतदान करने से रोकने की कोशिश है. आधार कार्ड को स्वीकार न करना पूरी तरह से नागरिकता जांच की कवायद है.

आधार कार्ड में 12 अंकों की एक पहचान संख्या होती है जिसे भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण द्वारा जारी किया जाता है. यह प्रत्येक भारतीय की पहचान और उस के निवास स्थान का प्रमाण है. आधार कार्ड की मान्यता बैंकिंग, स्कूल एडमिशन, सरकारी योजनाओं का लाभ लेने से ले कर अस्पतालों में इलाज कराने तक सभी जगहों पर है. वोट देने के समय भी यह पहचानपत्र के रूप में मान्य था.

सवाल उठता है कि जब आधार पहचानपत्र के रूप में वोट डालने के लिए प्रयोग किया जा सकता है तो वोटर लिस्ट की जांच में इस को क्यों माना नहीं जा रहा है? चुनाव आयोग का कहना है कि वोटर लिस्ट अपडेशन में आधार कार्ड को प्रमाण नहीं माना जा सकता क्योंकि यह नागरिकता का प्रमाणपत्र नहीं है.

यह बात अब साफ होती नजर आ रही है कि आधार कार्ड को नागरिकता का प्रमाणपत्र नहीं माना जा सकता. इस का लाभ उठा कर हिंदू राष्ट्र बनाने वाले उन लोगों को वोट के अधिकार से वंचित कर रहे हैं जो गरीब हैं, जिन की कोई सुनने वाला नहीं है. यानी, केवल वे लोग वोट दे सकें जो वोटर लिस्ट में दर्ज हैं. जिन लोगों से विरोध का डर है उन को इस बहाने वोटर लिस्ट से बाहर किया जा सकता है. वोटर लिस्ट में उन के नाम ही होंगे जो भाजपाई होंगे, हिंदू राष्ट्र को मानने वाले होंगे.

संविधान कहता है कि वोटर बनने के लिए सिर्फ इतना चाहिए कि व्यक्ति भारतीय नागरिक हो, मानसिक रूप से अस्वस्थ न हो, किसी कानून के तहत वोट डालने से रोका न गया हो. एक बार जब किसी का नाम वोटर लिस्ट में आ जाता है तो उसे हटाने के लिए बाकायदा एक तय प्रक्रिया अपनानी चाहिए. अगर आप के पास वोटर आईडी है तो आप ने जरूरी दस्तावेज पहले ही दिए होंगे.

जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 के तहत आधार को पहचान साबित करने वाले दस्तावेजों में गिना गया है तब इस को चुनाव आयोग की दी गई सूची में शामिल क्यों नहीं किया गया?

नोटबंदी व तालाबंदी की अगली कड़ी वोटबंदी

वोटर लिस्ट सुधार के नाम पर जो तानशाही की जा रही है वह नसबंदी, नोटबंदी और तालाबंदी की अगली कड़ी मतबंदी है. इस से बहुत बड़ी संख्या में मतदाताओं को उन के मताधिकार से वंचित कर दिया जाएगा. यह चुनावों में सभी को बराबरी का मौका देने के सिद्धांत के खिलाफ है. यह काम संविधान के खिलाफ और भेदभावपूर्ण है.

इस का सब से ज्यादा असर हाशिए पर जीने वाले लोगों, जैसे प्रवासी मजदूर, ट्रांसजैंडर और अनाथ लोगों पर पड़ेगा. जिन भी लोगों को जीवन में पढ़ाई के अवसर नहीं मिले उन के साथ यह भेदभाव है. इस का असर यही होगा कि औरत, गरीब, प्रवासी मजदूर और दलित, आदिवासी व पिछड़े वर्ग के लोग प्रमाणपत्र देने में पिछड़ जाएंगे और उन का नाम/वोट कट जाएगा.

जो सरकार 2021 में होने वाली जनगणना को 2026-27 तक टालने का काम कर रही है वह एक माह में वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण का काम कैसे कर लेगी, सहज रूप से समझ जा सकता है. साल 2003 में वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण के काम में डेढ़ साल लगे थे. अब यह काम एक माह में हो जाएगा? असल में ये झांसे में रखने वाली बातें हैं. इस के जरिए भाजपा बिहार में सत्ता पाने का रास्ता तलाश रही है, जो लोकतंत्र की हत्या जैसा काम है. ऐसे में यह होना चाहिए कि 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव पुरानी वोटर लिस्ट के जरिए ही कराए जाएं. जब जनगणना हो कर नई वोटर लिस्ट बन जाए तब नई वोटर लिस्ट के जरिए चुनाव कराए जाएं.

Supreme Court : इंश्योरैंस, इंश्योर्ड और क्लेम

Supreme Court : सुप्रीम कोर्ट ने एक गलत और अफसोस भरे निर्णय में इंश्योरैंस कंपनियों को भारी मुनाफा कमाने का मौका दिया है. जुलाई में अपने एक निर्णय में कोर्ट ने कहा कि मोटर ऐक्सिडैंट में यदि चालक स्टंट दिखाते हुए दुर्घटनाग्रस्त हुआ और मर गया तो इंश्योरैंस कंपनी उस के करीबी दावेदार को क्लेम देने को बाध्य नहीं है.

जिस मामले में यह निर्णय दिया गया उस में मृत ड्राइवर ने क्या किया, यह छोड़िए, यह निर्णय इंश्यारैंस कंपनियों को सुनहरी तश्तरी में क्लेम न देने का अवसर दे देगा जहां मृत्यु इंश्योर्ड ड्राइवर की हुई हो. इंश्योरैंस कंपनी हर उस मामले में क्लेम को चुनौती देगी जिस में मृत व्यक्ति ड्राइव कर रहा था. इस का मतलब है कि लगभग सभी ऐसे मामलों में पहला बहाना क्लेम रिजैक्ट करने का होगा कि मृतक तो गलत ढंग से गाड़ी चला रहा था.

अब यह मृतक के रिश्तेदारों पर निर्भर करता है कि वे हजारों नहीं बल्कि लाखों रुपए खर्च कर के अपीलें करते रहें. उन्हें पैसों की जरूरत तो उसी समय होती है जब मृत्यु हुई हो. यदि यह शर्त लगा दी गई कि पहले वे यह साबित करें कि मृत्यु तो किसी और की गलती से हुई थी, मृतक तो सावधानी से नियमानुसार ही गाड़ी चला रहा था तो इस में वर्षों लग जाएंगे.

यह मामला, जिस में क्लेम रिजैक्ट किया गया, 2014 का है. मृतक का परिवार वैसे ही मृतक के संरक्षण व साथ को खो चुका था, फिर उसे कर्नाटक हाईकोर्ट होते हुए सुप्रीम कोर्ट आना पड़ा जहां उस का 80 लाख रुपए के मुआवजे का क्लेम रिजैक्ट कर दिया गया. पुलिस से यह रिपोर्ट लिखाना कि दुर्घटना चालक की गलती से हुई थी, इंश्योरैंस कंपनियों के लिए यह बाएं हाथ का खेल है. वे अपना धंधा इसी बलबूते पर करती हैं कि पहले सब्जबाग दिखा कर, फोन पर तरहतरह के वादे कर के ग्राहक को फांसो और फिर बहानों से इंश्योरैंस क्लेम को रिजैक्ट कर दो.

कर्नाटक हाईकोर्ट ने इस मामले में कहा था कि मृतक के वारिसों को यह साबित करना होता है कि चालक की गलती नहीं थी. मृतक के वारिस इस तरह के सुबूत कैसे और कहां से लाएंगे? पुलिस वाले अपनी मेहनत बचाने के लिए दुर्घटना होने का दोष आमतौर पर मृत चालक पर मढ़ देते हैं ताकि उन्हें और सुबूत इकट्ठे न करने पड़ें, अदालतें उस रिपोर्ट को ही देववाणी मानने लगें तो इंश्योरैंस कंपनियों की चांदी नहीं बल्कि सोना हो जाएगा.

इंश्योरैंस इस देश में मंदिरों में पूजा करने की तरह है जिस में सुख व सफलता के लिए भारी चंदा दिया जाता है लेकिन लाभ दानी को नहीं, मंदिर के दुकानदार को होता है.

Delhi Slum Demolition : कब्जों के जिम्मेदार

Delhi Slum Demolition : सरकारी या किसी की निजी जमीन पर बरसों तक कब्जा जमाए रखने वालों से जब जगह खाली करने को कहा जाता है तो वे तुरंत कहने लगते हैं कि जब उन्होंने वहां डेरा डाला था, खपरैल की झोंपड़ी बनाई थी, दुकान बना ली थी, वोटर कार्ड बनवाया था, राशन कार्ड बनवाया था तो तब जमीन मालिक क्यों नहीं आया, अब बसीबसाई बस्ती, गृहस्थियों को तोड़ने व उन में पुश्तों से रह रही गृहिणियों को बेघर करने की बात क्यों?

दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने अब बहुत से मुसलिम बहुल क्षेत्रों में अतिक्रमण के नाम पर घरों को तोड़ना शुरू कर दिया है और इस पर बहुत लोग नाराज हो रहे हैं जिन में वे हिंदू भी हैं जो भाजपा के कट्टर समर्थक रहे हैं. चूंकि भाजपा को दिल्ली में कई सालों तक चुनाव नहीं झेलना, वह उस वादे को भूल चुकी है कि झुग्गियां अगर तोड़ी भी गईं तो उसी जगह पक्के, शौचालय व किचन वाली हवादार टाइलें लगे, बहुमंजिला लिफ्ट वाले मकान उन्हें मुफ्त मिलेंगे. अब वह तोड़फोड़ करने के लिए बुलडोजरों और जेसीबियों का जम कर इस्तेमाल कर रही है.

देश के शहरों की गरीबी और अव्यवस्था की एक वजह यह भी है कि एक बहुत बड़ा वर्ग खाली पड़ी जमीन को हथियाने को अपना मौलिक हक समझता है. इस वर्ग में हर जाति व धर्म के लोग शामिल हैं. संभ्रांत कालोनियों में भी कब्जे करने से लोग बाज नहीं आते.

सुप्रीम कोर्ट ने हाल में दिल्ली की डिफैंस कालोनी के रैजिडैंट्स वैलफेयर एसोसिएशन पर कई करोड़ रुपयों का जुर्माना लगाया जिस ने लोधी कालोनी के एक मकबरे में बरसों से अपना कार्यालय खोल रखा था. जब संभ्रांत कालोनी में अपनी जमीन से बाहर निकल कर कुछ न कुछ बना डालने की आदत है तो गरीब क्यों पीछे रहते? वे तो अपने लिए बस, एक छत चाह रहे थे.

इसे समाज सहज लेता है पर यह गलत है. दूसरे की संपत्ति का सम्मान व सुरक्षा करना हरेक का नैतिक कर्तव्य है, किसी धर्म की दुकान पर पैसा फेंकने से भी ज्यादा बड़ा. समाज तभी चल सकता है जब हम दूसरे की कमाई का आदर करें, दूसरे के परिवार की रक्षा में अपना सहयोग दें.

दिल्ली हो या देश का कोईर् भी दूसरा हिस्सा, किसी को भी किसी सड़क, पटरी, खुले मैदान, किसी के निजी खाली प्लौट पर किसी तरह का कब्जा कर दुकान, खोमचा, घर, मंदिर, मसजिद, चर्च बनाने का हक नहीं है. दिल्ली में भाजपा की सरकार या म्युनिसिपल कौर्पोरेशन जो तोड़फोड़ कर रही है, वह बिलकुल वाजिब है.

घर व दुकान, अवैध निर्माण तोड़े जा रहे लोगों की यह शिकायत कि जब वे कब्जा कर रहे थे तो सरकारी महकमा कहां था, भी बिलकुल सही व जायज है. सरकार और अदालतों को जहां एक तरफ अवैध निर्माण करने वालों से बरसों का किराया लेना चाहिए तो वहीं तब से ले कर अब तक के अधिकारियों को दंड भी देना चाहिए, उन्हें नौकरी से निकालने व उन से पैसा वसूलने के लिए उन की पैंशन रोकने तक के कदम उठाए जाने चाहिए.

Congress MP : थरूर का गरूर

Congress MP : कांग्रेस के केरल से सांसद शशि थरूर अब लगता है भाजपा में जाने का मन बना चुके हैं. उन्हें नरेंद्र मोदी ने सांसदों के उस दल का नेतृत्व दिया था जिन्हें विदेशों में औपरेशन सिंदूर के बाद डिप्लोमैसी के लिए भेजा गया था ताकि पाकिस्तानी प्रचार का मुकाबला किया जा सके. विदेशों में बहुत देशों की राय शायद यह है कि पहलगाम में आतंकवादियों के हाथों 26 लोगों की निर्मम हत्या के पीछे हाथ को ले कर भारत की वायुसेना का आक्रमण पाकिस्तानी ठिकानों पर कुछ गलत है.

शशि थरूर, जो चाहे नेता हों या न हों, इंग्लिश बढ़िया बोलते हैं. भारत का पक्ष जिस भी देश में उन्होंने रखा वहां नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की प्रशंसा में खूब पुल बांधे. कांग्रेस को इस पर कोई बड़ा आश्चर्य नहीं था क्योंकि शशि थरूर हमेशा ही अपनी चलाने में लगे रहते रहे हैं. हालांकि, उन्हें ऐसी सीटें मिलती रही हैं जहां पार्टी की बदौलत उन का जीतना आसान रहा है. वे कम मेहनत से कांग्रेस के भरोसे जीतते रहे हैं.

इंग्लिश में महारत के साथ उन्हें ब्राह्मणवादी प्रचार में भी महारत है. इस दृष्टि से वे 1947 के बाद की कांग्रेस के वल्लभभाई पटेल, सी राजगोपालाचारी, श्यामाचरण शुक्ल, डा. संपूर्णानंद, राजेंद्र प्रसाद और उस के बाद के जगन्नाथ मिश्र, विद्याचरण शुक्ल, हेमवती नंदन बहुगुणा के जैसे पौराणिक धर्म के हिमायती हैं. उन की किताब ‘व्हाई आई एम अ हिंदू’ हिंदू धर्म का ढिंढोरा पीटने का वह काम करती है जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग भी नहीं कर पाते क्योंकि भाषा पर उन की थरूर जैसी पकड़ नहीं है.

इतने सालों से वे कांग्रेस में इसलिए हैं क्योंकि उन्हें वहां अपनी इंग्लिश के कारण कुछ भाव मिलता रहा है. उन के समर्थकों की बड़ी जमात चाहे न हो पर कांग्रेसी नेता उन से डरेसहमे रहते हैं कि कहीं वे ऐसी इंग्लिश न बोल दें कि उन का इंग्लिश अल्पज्ञान धराशायी हो जाए.

अब वे नरेंद्र मोदी का गुणगान ज्यादा कर रहे हैं जबकि ये वही मोदी हैं जिन्होंने शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर, जिन की संदिग्ध हालत में मृत्यु हुई थी, को 50 करोड़ की गर्लफ्रैंड कहा था.

केरल के बाहर और संसद के अलावा थरूर को कोई राजनेता मानता हो, इस में संदेह ही है. एक तरह से वे कांग्रेस पर बोझ हैं पर जब तक भाजपा उन्हें कोई पद ज्योतिरादित्य सिंधिया, हेमंत बिसवा सरमा की तरह या एकनाथ शिंदे की तरह नहीं देती वे कांग्रेसियों को अपनी इंग्लिश से हड़काते रहेंगे. गांधी जोड़ा (प्रियंका व राहुल) शायद सही मौका ढूंढ़ रहा है कि जब शशि थरूर से मुक्ति पाई जाए. उन्हें पार्टी से निकालने का मलतब होगा तिरुअनंतपुरम में लोकसभा सीट का उपचुनाव कराना और यह जोखिम कांग्रेस फिलहाल नहीं लेना चाहती.

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