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बेटे के साथ नींद लेते नजर आएं सुमित व्यास, एकता ने शेयर की तस्वीर

टीवी एक्ट्रेस एकता कौल कुछ ही समय पहले ही मां बनी हैं.अपनी प्रेग्नेंसी की वजह से लगातार सुर्खियों में बनी हुई हैं. लॉकडाउन में उनकों कई तरह के मुश्किलों का सामना करना पड़ा है. एकता मां की खुशी मां बनने के बाद दोगुनी हो गई है.

बेटे के जन्म के कुछ दिन बाद ही एकता ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर फोटो शेयर कर दिया है. जिससे उनके फैंस लगातार कमेंट कर उन्हें बधाई दे रहे हैं.

सुमित व्यास और एकता ने अपने बेटे का नाम वेद रखा है. शेयर की गई तस्वीर में वेद मजे में शो रहे हैं. उन्हें किसी से कोई फर्क नहीं पड़ता है. वहीं पापा सुमित व्यास भी अपने बेटे का साथ देते नजर आ रहे हैं.

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एकता और सुमित को देखने के बाद ऐसा लग रहा है. बेटे को संभालने के चक्कर में उनकी नींद पूरी नहीं हो पाई है. बेटे के सोने के बाद सुमित अपनी नींद पूरी कर पाते हैं.


प्रेग्नेंसी के टाइम पर सुमित व्यास एकता का पूरा ख्याल रखते थें. बेsuटे के आने के बाद अब दोनों की जिम्मेदारियां ज्यादा बढ़ गई है. सुमित व्यास अपने बेटे की तारीफ करते नहीं थकते हैं. उन्हें अपने बेटे से बहुत ज्यादा प्यार है. एकता को भी अपने बेटे के साथ समय बीताना काफी अच्छा लगता है.

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प्रेग्नेंसी के समय से ही एकता अपने सोशल मीडिया पर एक्टिव रहने लगी थी. सोशल मीडिया पर एक तस्वीर मं एकता अपने फैमली के साथ पूजा करती नजर आई थी. इसके साथ ही एकता अपने पति के साथ कई बार बेबी बंप फ्लॉन्ट करती नजर आई थीं.

 

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इससे पहले एकता कई टीवी सीरियल्स में नजर आ चुकी हैं. एकता शादी से पहले सुमित व्यास के साथ कुछ सालों तक डेट की थी. उसके बाद दोनों ने शादी में बंधने का फैसला लिया था. दोनों साथ में बेस्ट  कपल लगते हैं.

अनलॉक ज़िन्दगी : बदलने होंगे जीवन के ढर्रे

विशेषज्ञों ने कह दिया है कि हमें कोरोना के साथ ही रहने की आदत डालनी होगी. हो सकता है इसका वैक्सीन बन जाए और हो सकता है कभी ना बन पाए. ऐसे में इंसानी जीवन को बचाना है तो जीने के तौर-तरीकों में बहुत सारे बदलाव करने होंगे. कोरोना ने पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था की चूलें हिला दी हैं. सभी देशो को अब अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने की चिंता है. इसलिए सब जल्दी ही एक नार्मल ज़िंदगी की तरफ बढ़ना चाहते हैं. इसमें भारत भी शामिल है. यहाँ भी धीरे-धीरे लॉक डाउन हटाया जा रहा है. लोग घर से बाहर निकल रहे हैं. थोड़े ही दिनों में ऑफिस, दूकान, फैक्ट्री, मॉल फिर से लोगो से गुलज़ार होने लगेंगे. आखिर हमें काम धंधा तो शुरू करना ही है. घर बैठे-बैठे तो ज़िंदगी की ज़रूरतें पूरी नहीं हो सकती हैं. बच्चे स्कूल जाएंगे. माता पिता अपने-अपने दफ्तरों को जाएंगे. मजदूर मीलों-फैक्टरियों में लगेंगे, लेकिन सब के दिलों में बीमारी और मौत का खौफ बना रहेगा.

कोरोना ने इंसान को उसी दिशा में धकेलना शुरू कर दिया है, जहाँ से निकल कर आधुनिक बनने में सैकड़ों साल लग गए. पश्चिमी देश जो आधुनिकता का पर्याय बन गए हैं और जो मुस्लिम देशो की भर्त्सना करते नहीं थकते थे कि वो आज भी लबादा, बुर्का, हिजाब जैसे वस्त्रों में अपनी औरतों को गुलाम बना कर रखते हैं. देखिये आज कोरोना ने पश्चिमी सभ्यता को ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को लबादे और हिजाब में लिपट जाने को मजबूर कर दिया है. अब औरतें ही नहीं मर्द भी अपना मुँह ढंकने को मजबूर हैं. अब सरदारों की पगड़ियाँ, मुस्लिम औरतों का बुर्का, शेखों का लबादा पश्चिमी सोच रखने वालों के लिए हास्य का विषय नहीं होगा. दिन में पांच से सात बार खुले पानी से वज़ू करने जैसी सदियों पुरानी मुस्लिम रीति को भी अपनाना पडेगा जिसमे हाथ, पैर, मुँह, नाक, आँख, कान सब पानी से साफ किये जाते हैं. कोरोना काल में इंसान को घर से बाहर निकलने और अपनी जीविका चलाने की आज़ादी अब इन्ही बंधनो के साथ मिलेगी. कोरोना वायरस से अपनी जान बचानी है तो इन बंधनो को स्वीकार करना होगा और इनको अपनी आदत बनानी होगी.

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भारत अनलॉक के पहले चरण में है और कोरोना केसेस में भारी उछाल देखा जा रहा है. ये संख्या आने वाले समय में बहुत तेज़ी से बढ़ेगी और डराएगी. लेकिन डर के आगे जीत है. अब जब कोरोना के साथ ही रहना है तो उसको अपने से दूर रखने के रास्ते भी तैयार करने होंगे बिलकुल वैसे ही जैसे हमने एचआईवी, इबोला, एवियन इन्फ्लूएंजा, सार्स और मर्स जैसी बीमारियों के साथ रहते हुए उनसे बचाव के रास्ते बना लिए हैं. इन बीमारियों के भी आजतक कोई वैक्सीन नहीं बन पाए हैं. इन बीमारियों के वायरस इस दुनिया में हमारे साथ, हमारे आस पास ही रहते हैं मगर हमने इनसे बचने के तरीके सीख लिए हैं. कोरोना के साथ भी हमें ऐसा ही करना होगा.

कोरोना के बारे में सभी को ये पता चल चुका है कि इसका वायरस छींकने, खांसने से फैलता है. ये विषाणु मुंह और नाक से निकले पानी की नन्ही बूंदो में रहता है और हवा के माध्यम से चलता है. ये किसी भी स्वस्थ शरीर में आँख, नाक, मुँह के ज़रिये घुस कर उत्पात मचाता है. ऐसे में इसके प्रवेश के रास्तों में ही व्यवधान उत्पन्न करना होगा.

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कोरोना काल में ऑफिस जाने को लेकर आपको बहुत ज्‍यादा एहतियात बरतने की जरूरत होगी और आज हम आपको यही बताने जा रहे हैं कि इस माहौल में ऑफिस, मिल, फैक्ट्री या अन्य कार्यस्थलों पर जाते वक़्त क्‍या सावधानियां बरतने और क्या बदलाव लाने की जरूरत है.

हाथ रहें वायरस मुक्त

सबसे ज़रूरी है कि आपके हाथ साफ़ और वायरस मुक्त रहें. इसके लिए सेनिटाइज़र का भरपूर इस्तेमाल शुरू हो गया है. आजकल सेनिटाइज़र की बहुत बड़ी खेप मार्किट में उतर चुकी है. हर दुकानदार सेनिटाइज़र बेच रहा है. रंग-बिरंगे पैक में तमाम कंपनियों ने सेनिटाइज़र आपको लुभा रहे होंगे. हरेक के बारे में दुकानदार बढ़ चढ़ कर बताते हैं कि ये सबसे अच्छा है या वो सबसे अच्छा है. खैर आप जो भी खरीदें मगर ध्यान रहे कि सिर्फ इसके भरोसे ना रहें, साबुन और पानी का इस्तेमाल भी करते रहें. हम बताते हैं कि क्यों ?

हैंड सैनिटाइजर को बनाने में कई प्रकार के केमिकल का इस्तेमाल किया जाता है. इतना ही नहीं यह कीटाणुओं को अच्छी तरह से मार सके इसलिए इसमें अल्कोहल की मात्रा भी बहुत अधिक होती है. हाथों को विषाणु मुक्त करने के लिए लोग हाथो पर सेनिटाइज़र की चंद बूंदे ही काफी समझते हैं. ये बात ठीक है कि सेनिटाइज़र में उपस्थित अल्कोहल विषाणु को ख़त्म कर देता है, लेकिन सिर्फ सेनिटाइज़र की इस्तेमाल कुछ दूसरी परेशानियों को जन्म दे सकता है. इसलिए सेनिटाइज़र का इस्तेमाल करने के बाद हाथों को साबुन वाले पानी से धोना और साफ़ तौलिये से पोछना भी आवश्यक है. कुछ खाने से पहले तो ये बहुत ज़रूरी होगा.

दरअसल सेनिटाइज़र में उपस्थित अल्कोहल और अन्य केमिकल की मात्रा यदि ज़्यादा है तो ये रोटी, सलाद, बिस्कुट आदि के साथ हमारे मुँह और पेट में जाएगा. इससे फूड प्वाइजनिंग का खतरा बढ़ता है और आपको पेट से जुड़ी कई बीमारियां भी हो सकती हैं. कुछ लोग सेनिटाइज़र को हाथों में लगाने के बाद वही हाथ अपने मुँह और गर्दन आदि जगहों पर फिरा लेते हैं. इससे खुजली की समस्या पैदा हो सकती है. संवेदनशील त्वचा पर इसका गलत प्रभाव पड़ सकता है और घमौरियों की तरह छोटे दाने उभर सकते हैं. हाथों में भी लगातार सेनिटाइज़र का इस्तेमाल त्वचा को रूखा और रैशेज़ युक्त बना सकता है. इसलिए सेनिटाइज़र का इस्तेमाल वायरस को ख़त्म करने के लिए अवश्य करें मगर उसके बाद हाथों को अच्छे साबुन और पानी से भी धोएं. मॉइश्चराइज़र का भी प्रयोग करते रहें. अच्छा होगा कि आप ग्लीसरीन युक्त सेनिटाइज़र यूज़ करें. ऐसा सेनिटाइज़र आप घर पर भी बना सकते हैं. स्पिरिट, ग्लीसरीन और गुलाबजल से ऐसा सेनिटाइज़र आसानी से घर में बन सकता है जिसमे हानिकारक रासायनिक तत्व नहीं होंगे.

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हर वक़्त सेनिटाइज़र का इस्तेमाल खतरनाक है. यह तो हम सभी को पता है कि हमारे शरीर में अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के बैक्टीरिया रहते हैं. ठीक उसी तरह हमारे हाथों पर भी कुछ अच्छे बैक्टीरिया होते हैं जो हमें एंटीबॉडीज से बचाने का काम कर सकते हैं. लगातार हैंड सैनिटाइजर से हाथ साफ करने के कारण हाथों पर मौजूद अच्छे बैक्टीरिया खत्म हो जाएंगे. इसके बाद कई प्रकार के गंभीर और खतरनाक बैक्टीरिया जब हाथों पर चिपकेंगे तो उनको ख़तम करने वाले बैक्टीरिया वहां नही होने से वो हमारी सेहत को नुक्सान पहुचायेंगे. खराब बैक्टीरिया को मारने के लिए आपको बार-बार हैंड सैनिटाइजर की ही जरूरत पड़ने लगेगी. इसलिए हैंड सैनिटाइजर को लगातार इस्तेमाल करते रहने से अच्छा रहेगा कि अपने हाथों को साबुन और पानी से धोएं.खासकर जब आप घर में रहे तो हैंड सैनिटाइजर इस्तेमाल ना करके साबुन और पानी से हाथ साफ़ करें.

हैंड सैनिटाइजर का इस्तेमाल करते रहना कुछ लोगों के लिए मजबूरी है. यह लोग दुकानदार हो सकते हैं या फिर ऐसे लोग जो लगातार एक दूसरे से किसी भी सामान का आदान प्रदान कर रहे हैं. ऐसे लोगों को हैंड सैनिटाइजर इस्तेमाल करना जरूरी ही है. इस स्थिति से गुजर रहे लोग अपने हाथों में सैनिटाइजर लगाने के बाद किसी भी चीज को खाने से पहले हाथों को साबुन से अच्छी तरह धोना चाहिए और किसी साफ तौलिए से अपने हाथ के पानी को साफ करना चाहिए.

महिलायें हाथों में सेनिटाइज़र लगा कर तुरंत आग के पास हरगिज़ ना जाएँ क्योंकि सेनिटाइज़र में उपस्थित अल्कोहल आग पकड़ सकता है. चूल्हे पर खाना बनाने जा रही हों तो सेनिटाइज़र नहीं, बल्कि साबुन और पानी से ही हाथ धोएं.

मास्क लगाना जरूरी

कोरोना से जान बचानी है तो मुँह छिपाना होगा. बेहतर होगा की सर को भी ढंका जाए. आप अपने चेहरे को फेस शील्ड से भी ढंक सकते हैं. घर से बाहर निकलते ही मास्क लगाना और ऑफिस या कार्यस्थल पर मास्क पहनना ही बीमारी से बचे रहने का उपाय है. हालांकि घर में रहने के दौरान मास्क पहनने की ज़रूरत नहीं है. इसी तरह अगर आप मॉर्निंग वाक के लिए जा रहे हैं तो पार्क आदि में पहुंचने पर यदि आपके आसपास लोग नहीं हैं तो आप मास्क थोड़ी देर के लिए उतार सकते हैं. मास्क इसलिए ज़रूरी है ताकि हवा में उपस्थित पानी की नन्ही बूंदों में अगर वायरस आपके आसपास घूम रहा है तो सांस के साथ वो आपके मुँह या नाक के ज़रिये शरीर में प्रवेश ना कर जाए. लिहाज़ा मुँह छिपा लीजिये दुनिया से.

मास्क के बारे में भी कुछ सावधानिया रखने की ज़रूरत है. बाजार में मिलने वाले मास्क सेनिटाइज़ करने के बाद ही पहने क्योंकि उनमे सैकड़ों लोगों के हाथ लगे हैं. आजकल सड़कों पर बहुतेरे फेरी वाले अपनी डंडियों पर मास्क लटका कर बेच रहे हैं. गरीब आदमी तो यही 10 या 20 रूपए वाला मास्क खरीद कर पहन रहा है. ये खतरनाक है. इस मास्क को डेटोल के पानी से धोने और सुखाने के बाद ही इस्तेमाल करें.

बाजार से खरीदा गया मास्क दो या तीन बार से ज़्यादा यूज़ ना करें. बेहतर होगा घर पर सूती कपडे के कुछ मास्क बना कर रख लें और उन्हें ही धो धो कर इस्तेमाल करें. घर में बना सूती मास्क चेहरे को गरम नहीं करेगा, जबकि बाजार का सिंथेटिक मास्क चेहरे को गरम करता है. इसको लगाने पर अंदर पसीना आता है, सांस घुटती है और इसे बार-बार चेहरे से हटा कर रुमाल से चेहरा साफ़ करना पड़ता है. ये तरीका आपको बीमारी से कितने दिन बचा पायेगा ? फिर सिंथेटिक मास्क चेहरे की नरम त्वचा पर रैशेज़ पैदा कर सकते हैं. जो चीज़ आपको दिन भर लगाए रखनी है वो आपकी त्वचा को आराम देने वाली होनी चाहिए. मास्क ऐसा होना चाहिए जिसमे से हवा आसानी से निकल सके और नाक द्वारा छोड़ी गयी गन्दी गर्म कार्बनडाईऑक्साइड एवं अपनी सांस की दुर्गन्ध से आप बचे रहें.

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कार्यस्थलों पर पडेगा आर्थिक बोझ

कोरोना से बचना है तो दफ्तरों को सेनिटाइज़ करवाने का अतिरिक्त खर्चा मालिकों को वहन करना होगा. कई दफ्तरों में तो एडमिन स्टाफ की ड्यूटी रात की कर दी गयी है जो रात भर ऑफिस को सेनिटाइज़ करते हैं ताकि सुबह लोग संक्रमण रहित स्थानों पर बैठ कर काम कर सकें.

ऑफिस, मिलों, फैक्टरियों आदि में थर्मल स्‍कैनिंग और सैनिटाइजेशन कम्पलसरी होंगे. इसके साथ ही सोशल डिस्टेंसिंग का भी ध्यान रखना होगा. पहले जहां लोगों के कंप्यूटर पास-पास रखे होते थे या जहाँ सीटिंग अरेंजमेंट पास-पास था, वहां दूरी बढ़ानी होगी. छोटे दफ्तरों में ये काम आसान नहीं होगा. उन्हें या तो अपने स्टाफ में कटौती करनी पड़ेगी, शिफ्टों में काम करवाना पडेगा अथवा बड़ी जगह देखनी होगी. शिफ्टों में काम करवाने पर बिजली, इंटरनेट का अतिरिक्त भुगतान करना होगा. ये अतिरिक्त परेशानी मालिकों की टेंशन बढ़ाएगा. स्कूल-कॉलेज, कोचिंग क्लासेज खुलने पर ये सारी अतिरिक्त सावधानियां और खर्चे वहन करने ही होंगे. हो सकता है इसका बोझ स्टूडेंट्स के माता-पिता की जेबों पर ही पड़े.

कार्यस्थलों और स्कूल-कॉलेज में शौचालयों को साफ़ और सेनिटाइज़ करना, वहां भरपूर मात्रा में हैंड सेनिटाइज़र, पेपर सोप, डेटोल और पानी का इंतज़ाम रखना होगा. इसमें काफी अतिरिक्त खर्चा आएगा.

अपनी चीज़ें साथ ले कर चलें

पहले जहाँ आप अपने ऑफिस में मोबाइल चार्जर, ईयर फ़ोन आदि मांग कर इस्तेमाल कर लेते थे, अब आपको इस आदत को बदलना होगा. अपना ईयरफोन, चार्जर, पॉवर बैंक और लैपटॉप का चार्जर आदि आपको साथ लेकर चलना होगा, क्योंकि कोरोना काल में दूसरों की चीज़ें आपको वायरस के संपर्क में ला सकती हैं. इसके अलावा अपना लंच बॉक्स, पानी की बोतल और ज़रूरी दवाएं भी हर वक़्त साथ रखनी होंगी. अगर आपको ऑफिस में चाय और कॉफी पीने की आदत है तो अपने साथ घर से ही टी बैग्‍स वगैरह लेकर निकलें. ऑफिस की पैंट्री की चीजें इस्‍तेमाल ना करें. अपना कप अपना चम्मच ही इस्तेमाल करें. यही नहीं पार्किंग स्थल पर भी आपको पूरी सावधानी रखने की ज़रूरत है. आपकी कार या स्‍कूटर के जिन हिस्‍सों पर लोगों का हाथ सबसे ज्‍यादा लगने की संभावना है, उन्‍हें छूने से पहले साफ जरूर करें.

इन तमाम बड़ी सावधानियों के साथ कुछ छोटी सावधानिया भी रखनी होंगी, जैसे –

–  ऑफिस की लिफ्ट कम ही इस्तेमाल करें क्योंकि उसके बटन पर बहुत सारे लोगों के हाथ लगते हैं. फिर लिफ्ट में किसी ने छींका हो या खाँसा हो तो पानी की नन्ही बूंदो में कोरोना वायरस भी हवा में हो सकते हैं, जो आपको संक्रमित कर सकते हैं.

– घर पहुंचते ही अपने सारे कपड़े वॉशिंग मशीन में डाल दें.

–  नहाने से पहले किसी को भी छुएं या बात न करें.

–  घर आने के बाद आप गरारे और भाप भी ले सकते हैं.

–  अगले दिन नया फेस मास्‍क इस्‍तेमाल करें.

–  अपने लंच बैग, मोबाइल फोन और लैपटॉप आदि को घर आने के बाद सैनिटाइज जरूर करें.

यूटेरस कैंसर: जानकारी ही बचने का तरीका

लेखिका-विजया शर्मा

आज सम्पूर्ण विश्व वैश्विक महामारी कोरोना से जूझ रही है.कही ये मामला हज़ारो में है तो वहीं किन्ही देशों में ये लाखो तक पहुंच गया है.अपना देश भारत भी वहां दो लाख के पार पहुंच शिर्ष सात में पहुंच गया है.किंतु मौतो का आंकड़ा अभी भी बहुत हद तक काबू में है.परंतु क्या आपको पता है,एक काल इससे भी बड़ा है जो अपने देश मे भी लगभग हर साल 10 लाखों मौतों का अकेला जिम्मेदार होता है वो है कैंसर!जिनमे से आधी जमात में  प्रमुख है यूटेरस कैंसर.

इस यूटेरस कैंसर के कारकों में से अनेक कारक वो है जो महिलाओं की नियमित महावारी से संबंधित होता है.अमूमन 12 से 15 साल की  लड़की के अण्डाशय हर महीने एक विकसित डिम्ब (अण्डा) उत्पन्न करना शुरू कर देते हैं. वही अण्डा अण्डवाहिका नली (फैलोपियन ट्यूव) के द्वारा नीचे जाता है जो कि अंडाशय को गर्भाशय से जोड़ती है. जब अण्डा गर्भाशय में पहुंचता है, उसका अस्तर रक्त और तरल पदार्थ से गाढ़ा हो जाता है. ऐसा इसलिए होता है कि यदि अण्डा उर्वरित हो जाए, तो वह बढ़ सके और शिशु के जन्म के लिए उसके स्तर में विकसित हो सके. यदि उस डिम्ब का पुरूष के शुक्राणु से सम्मिलन न हो तो वह स्राव बन जाता है जो कि योनि से निष्कासित हो जाता है इसीको माहवारी कहते हैं.प्रजनन और संसार की मूलभूत ईश्वर की सबसे अद्भुत उपहार ही हमारे लिए कब काल बन जाती है हमे पता ही नही चलता,इसे एक दुखद कारक बनाने में जो भूमिका निभाते हैं उनमें से प्रमुख हैं –

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1.इस विषय पर संवाद न होना.

भारत में तो माहवारी अपने आप मे एक समस्या है जिसके बारे में न तो कोई खुले में बात करना चाहता है, न ही कोई जानकारी लेना या देना.ये एक ऐसा टैबू है, जिससे सब पल्ला झाड़ते हैं .अब कौन बताए या क्या बताए कि ये एक बहुत ही आम शारिरिक प्रक्रिया है ठीक वैसे ही जैसे कि आपका नाक बहना.अब सोचिये की केवल भारत में जहां करीब 35 करोड़ 40 लाख औरतें माहवारी होती हैं.वहां भी ये कितनी ही अजीब बात है कि महिलाओं की शारिरिक प्रकिया की एक सामान्य सी बात पर कोई बातचीत नही होती.

2.मिथकों का भृमजाल

ये सिर्फ हमारे जैसे विकासशील देश की ही बात नही है ये बातें उन विकसित देशों में भी उसी कदर हैं.आपको हैरत होगी ये जानकर की पढ़े लिखे तथाकथित मॉडर्न देशों में भी माहवारी से रिलेटेड हज़ारो टैबू हैं.आपको जानकर हैरानी होगी कि “महावारी में औरतों द्वारा अचार छू भर लेने से उसका खराब होना सिर्फ भारत में तय नही माना जाता बल्कि ये कहानी आपके ब्रिटेन और अमेरिका में भी प्रचलित है.इटली और रोमानिया जैसे देशों में माना जाता है कि इस दौरान सिर्फ छू भर लेने से पौधे मर जाते हैं और फूल मुरझा जाते हैं.

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3.स्वक्षता

स्वच्छता एवम हाइजीन एक ऐसा टॉपिक है जो हमेशा से ही पुरी दुनिया  में गोलमगोल रहा है.वो भी तब जब संसार भर में बहुत सारी सरकारी तथा गैरसरकारी संस्थाएं इसके पीछे कार्य करती हैं.आपको जानकर और भी आश्चर्य होगा की विश्व मे लगभग 2.4मिलियन लोग अब भी इससे अछूते हैं.

हमारे भारत मे भी जहां “स्वच्छ भारत अभियान”अपने दौर के पांचवे साल में है वहां भी इसका आंकड़ा संतोषप्रद नही है. यदपि 2019 में पिछले वर्षों के अपेक्षा हर परिवार में शौचालय की संख्या बढ़ी है. किंतु अगर आज भी आप अहले सुबह या शाम किसी हाइवे,खेत खलिहान से जुड़े रास्ते या रेलमार्ग से गुजरते हैं तो शायद पूरे प्रान्त में लगभग एक सा नजारा देखने को मिलेगा.

स्वास्थ्य विज्ञान का सबसे ज्यादा भार हम स्त्रियों पर पड़ता है और यह तब और बढ़ जाता है जब उन्हें खुले में शौच में जाना पड़ता है.खुले में शौच न सिर्फ शारीरिक वरन कई बार मानसिक परेशानियों से भी गुजरना पड़ता है जैसे कि स्वरक्षा, सेक्सुअल हरर्समेंट इत्यादि. ये समस्याएं तो लगभग हर दिन की है पर ये हर महीने होने वाली माहवारी के साथ और बढ़ जाती है क्योंकि उस दौरान अच्छी स्वच्छता के लिए न तो उचित संसाधन मिलता है न ही अपना प्राइवेट स्पेस जहाँ वो इंतिमाम से इसे मेन्टेन कर सकें.

यहाँ स्वच्छता तब और विकट बन जाती है जब वो बच्चियां जो इसे पहली बार झेलती हैं, उन्हें इसकी कोई जानकारी ही नही होती.इसे इतना जटिल बना दिया जाता है कि वो बच्चियां अपनी समस्याएं अपनी माँ तक से साझा नही कर पाती.एक  रिपोर्ट कहता है कि 5 में से मात्र 1 लड़की माहवारी को मातृत्व से जोड़ पाती हैं.इन आधे अधूरे ज्ञान से उन्हें कई रोगों का शिकार होना पड़ता है.

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4.लिंगभेदी अस्वच्छता

बात तो हो रही है, स्वच्छता और हाइजीन की.फिर उसमें लिंगभेद कैसा? यह तो सबके लिए समान है.जी नही!ये समान नही है. पुरूष और स्त्री दोनो की बनावट शारीरिक रूप से अलग होती है, तो वाजीवन उनकी आवश्यक्ता भी भिन्न होती है.एक स्त्री को प्राकृतिक निपटारे के लिए एक पुरुष से ज्यादा समय, पानी और जगह की जरूरत होती है ताकि वो अपनी बुनियादी हाइजीन मेन्टेन कर सके.

5.हाइजीन

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की एक रिपोर्ट के अनुसार आज भी 62 फीसदी महिलाओं को इन दिनों हाइजीन की मूलभूत आवश्यकता की पूर्ति तक नही हो पाती.इसी रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण इलाकों में केवल 48 फीसदी और शहरी इलाकों में भी केवल 78 फीसदी महिलाएं मूलभूत सैनेटरी पैड का इस्तेमाल कर पाती हैं.वही केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालयों के आंकड़ो के मुताबिक 70 फीसदी महिलाओं तक सेनेटरी उत्पादों की पहुंच नही है.जिसके एवज में खराब कपड़े,यहां तक कि राख का इस्तेमाल करती हैं और बहुत सारे स्त्री रोगों का शिकार होती हैं,जिनमे से एक प्रमुख है यूटेरस कैंसर.

बात तब की है जब मैं दिल्ली से ग्रेजुएशन कर रही थी. एक अहले सुबह मेरी एक मित्र का कॉल आया कि जल्दी घर आओ.वहां जाकर पता चला कि दोनों मा बेटी माहवारी से हैं एवम घर मे उनके अलावा कोई न था तो ऐसे में उनकी पारिवारिक प्रथा के अनुसार न तो वो रसोईघर में ही जा सकती थी न ही अपने कमरों में. बर्षों से इन दिनों के लिए उनके घर एक अलग कमरा, बिस्तर और बर्तन है.अब वर्षों से सिर्फ इन्ही दिनों उपयोग होने वाली चीजों की स्वच्छता का अंदाजा लगाया जा सकता है. ऐसा नहीं है कि ये समस्याएं सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों तक ही सीमित है.ये समस्याएं शहरों के तथाकथित पढेलिखे और मॉडर्न परिवारों में भी है.जो आज भी रूढ़िवादी एवम दकियानूसी प्रथायों को अपनाये हुए हैं.

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आज भी बहुत सारे घरो में गंदे शौचालय को साफ करना अपने आप मे एक गंदा काम है.जी अमूमन स्रियों के जिम्मे ही आता है. शौचालय साफ करने के बाद खुद को अपवित्र मानती वी स्त्रियां अपना सिर धो, चुडिया बदल,नख शिख कर अपने आप को पवित्र करती हैं. जो शौचालय साफ करने की प्रकिया को और भी जटिल बनाता है.जिसकी वजह से रोज साफ होने वाले शौचालय महीनों तक साफ नही होते. परिणाम अस्वच्छता के रूप में ही सामने आता है.

हम सब जब अपने सपनो का घर बनाते हैं, हर चीज का ही ख्याल रखा जाता है, यहां तक कि वास्तु और दिशा शूल का भी.पर हम ऐसे शौचालयों का निर्माण भूल जाते हैं जो सबके लिए उपयोगी हो,चाहे वो स्त्री पुरूष हो या बाल वृद्ध.परिणामतः हमारा घर भी हमारे हाइजीनिक रहने में हमारी मदद नही करता.

तो आइए एक कदम हम भी बढ़ाये,इन बातों पर खुलकर बात करे.इस से जुड़े बातों को कतई गंदा न समझे बल्कि गंदगी को खत्म कर.एक ऐसे भारत का निर्माण करें जो न सिर्फ लिंगभेद से परे हो,वरन ऐसा हो जहाँ विजया. 28 मई -वर्ल्ड मेंस्ट्रुअल डे,एक स्वजाग्रता मिशन जिसे शुरू किया गया वर्ष 2014 में.एक जर्मन संस्था ” वाश यूनाइटेड ” द्वारा.अब बात आती है कि जहाँ आधी आबादी कहलाने वाली महिला जगत का एक बहुत ही अहम भाग, हरेक महीने का हिस्सा है ये माहवारी,तो एक अलग दिन इसकी बात क्यों?सोचिये की हम इस पर बात नही कर के अपनी बच्चियों को जाने अनजाने किस तरह अनेक रोगों का शिकार बना रहे हैं.अब प्रश्न है कि बात करके ही क्या होगा.कुछ हो न हो एक जागरूकता तो जरूर आएगी.

आश्वासन का पैकेज

आर्थिक विशेषज्ञों ने 20 लाख करोड़ रुपए के सरकारी पैकेज का पहले दिन खुलेदिल से स्वागत किया, पर जैसेजैसे वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण के स्टीमुलसों की परतें उधेड़ी गईं, पता चला कि यह आर्थिक सहायता महज 1.25 से 1.77 लाख करोड़ रुपए की ही है. निर्मलाजी ने साफसाफ कह दिया कि वे कल का कुछ नहीं कह सकतीं. इसलिए, आज खजाने के कोने में दबा पैसा खर्चा नहीं कर सकतीं चाहे लौकडाउन से देश की जनता भूखों मरे.

पश्चिमी देशों ने कुल राष्ट्रीय उत्पादन के 10 से 20 प्रतिशत तक के पैकेज दिए क्योंकि उन्हें भरोसा है कि उन के उद्योग व सेवाएं कोविड के नुकसान को कुछ महीनों में पूरा कर लेंगे. भारत ने तो उद्योगों, व्यापारों और सेवाओं की दोनों टांगें पहले ही तोड़ दी हैं नोटबंदी और जीएसटी की लाठियों से. उसे मालूम है कि हमारे ये उद्योग अब भरभरा जाएंगे. भारत सरकार ‘जीवन नश्वर है’ के सिद्धांत में अगाध विश्वास रखती है, उसे पता है कि जो सत्कर्म करेगा वही जीवित रहेगा. जो टीका लगाएगा, कलेवा बांधेगा, राजा के निकट रहेगा उसी को जीने का हक है, चाहे व्यक्ति हो या उद्योगव्यापार.

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सरकार के 20 लाख करोड़ रुपए के पैकेज की पोल एकदो ने नहीं,

14 अर्थविशेषज्ञ कंपनियों ने खोली है. गोल्डमैन सैक्स के अनुसार, यह 1.3 प्रतिशत, मोतीलाल ओसवाल के अनुसार 1.3 प्रतिशत, यूबीएस बैंक के अनुसार 1.2 प्रतिशत, बैंक औफ अमेरिका के अनुसार 1.1 प्रतिशत, फिच के अनुसार 1 प्रतिशत, कोटक बैंक के अनुसार 1 प्रतिशत, एडलवाइस के अनुसार 0.84 प्रतिशत, सीएलएसए के अनुसार 0.8 प्रतिशत और बार्कलेज बैंक के अनुसार 0.75 प्रतिशत है.

जैसे गुरु, स्वामी, बाबा कहते हैं कि चरणों में पैसा चढ़ाओ, भरपूर धनधान्य मिलेगा, दिन फिरेंगे, ठीक वैसे ही मोदीनिर्मला पैकेज कोरा आश्वासनभर है. देश का इस से कुछ नहीं बनेगा. देश की जनता, जो अच्छे दिनों का इंतजार कर रही थी, अब बेहद बुरे दिनों से गुजरेगी. हर चीज का उत्पादन बंद हो गया है,

तो हर चेहरा लटक  गया है. पानी पिलाने के स्थान पर सरकार खाली लोटा दिखा रही है. पानी आता ही होगा, बस, 10-20 दिन इंतजार करो.

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यह नहीं कि सरकार के बस में

नहीं है. कोविड को फूंक मार कर उड़ाने की क्षमता चाहे किसी सरकार में न हो, पर उधार ले कर व नोट छाप कर जनता को कुछ दिनों तक जिंदा रखा जा सकता है. पर देश की बेदर्द, बेरहम और बेखौफ सरकार लाखों को भुखमरी की कगार पर लाने की तैयारी कर रही है.

शहरों को 24 मार्च को ही छोड़ने का मन बना चुके मजदूरों की छठी इंद्रिय ने भांप लिया था. भक्त उद्योगपति व व्यापारी महीनों बाद समझेंगे और तब भी इसे शायद भाग्य का खेल समझ कर भूल जाएंगे कि भाजपा सरकार और भगवान कभी गलती कर ही नहीं सकते.

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वायरसी कमाई

एक पुरानी कहावत है जो सत्ता के गलियारों में अकसर दोहराई जाती है. ‘एवरीबडी लव्ज अ गुड फेमिन’ यानी हरेक को एक बड़े अकाल से खुशी होती है. इस का अर्थ है कि हर अकाल में सत्ता के गलियारों में पैसा बरसता है. जबकि, बाहर चाहे सूखा पड़ा हो. यही हाल कोविड-19 महामारी का है. इस में नौकरशाही जितना पैसा बनाएगी, वह बेहिसाब होगा.

गुजरात का एक मामला कोई अजूबा नहीं है जिस में अहमदाबाद के सिविल अस्पताल के सुपरिटैंडैंट ने गुजरात की ज्योति सीएमसी कंपनी की बनाई गई धमन-1 वैंटिलेटर मशीनों को रिजैक्ट कर दिया. कंपनी के चेयरमैन ने 10 दिनों में वैंटिलेटरों की कमी दूर करने के लिए 1,000 धमन मशीनें बना कर गुजरात सरकार को बेची थीं. डाक्टरों द्वारा रिजैक्ट कर देने के बाद ये वहीं पड़ी सड़ रही होंगी, जबकि बनाने वाली कंपनी को पूरा मनमाना पैसा मिल चुका होगा. जाहिर है, पैसा देने वाले विभागों ने यों ही चैक नहीं पकड़ा दिए होेंगे, बतौर रिश्वत, कुछ लिया ही होगा.

कंपनी कहती है कि डाक्टर महंगी विदेशी कंपनियों की बनी मशीनें खरीदना चाहते थे. साफ है कि विदेशी वैंटिलेटरों के एजेंट आजकल हर देश में घूमघूम कर पैसा बना रहे होंगे. कोविड ने उन्हें नया धंधा दिया है.

कोविड से लड़ने में सैनिटाइजरों, पीपीई किटों, ग्लव्ज, डंडों, बैरियरों, खाने के सामानों, वाहनों की खूब खरीद हो रही है. इन सब के लिए कोई टैंडर नहीं, क्वालिटी की जांच नहीं और भुगतान तुरंत. यानी, भरपूर पैसा बनाया जा रहा है, जैसा अकाल में बनाया जाता है. कोविड-19 के कारण देश की 90 प्रतिशत जनता कराह रही है लेकिन कुछ, आने वाले कल ही नहीं, अनगिनत दिनों के लिए पैसा बना रहे होेंगे.

नौकरशाही को कभी भी, कहीं भी जनता से किसी तरह की सहानुभूति नहीं रही है. राजा हमेशा जनता के प्रति अन्याय करते रहे हैं और उस के कारिंदे भी यही करते रहे हैं. राजाओं की नाक के नीचे उसी तरह पैसा बनाया जाता है जैसे अदालतों में जजों की नाक के नीचे तारीख देने वाले पेशकार पैसे लेते हैं. सुप्रीम कोर्ट तक में अर्दली कुछ समय पहले तक जीतने वाली पार्टी से बख्शिश लेते रहे हैं.

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कोविड-19 पर भयंकर बरबादी हो रही है. पर सरकार की हर सीढ़ी पर मोटा पैसा लेने का दस्तूर जारी रहेगा, चाहे किसी को भी अगले दिन का भरोसा न हो. यह बीमारी ऐसी है जो किसी को भी पकड़ सकती है. किसी की भी जान ले सकती है. ‘जीवन नश्वर है’ का प्रवचन सुनने वाले और सुनाने वाले भी भयभीत हैं, पर संपत्ति का मोह नहीं छूटता. घटिया वैंटिलेटर मरीजों की जान ले सकते हैं, इस की चिंता किए बिना कंपनियां पैसा बनाने में लगेंगी ही.

सेना भी भ्रष्ट

कई बार लोग कहते नजर आते हैं कि देश में इतना भ्रष्टाचार फैल चुका है कि अब इसे रोकने के लिए सेना को देश का शासन सौंप देना चाहिए. हालांकि, यह भ्रांति है कि सेना में सबकुछ ठीक है. पिछले मई माह में केंद्रीय जांच ब्यूरो ने 18 साल पुराने मामले में 2 अवकाशप्राप्त मेजर जनरलों को गिरफ्तार किया जिन्होंने भरती में घपला किया था. गनीमत है कि यह भरती मोरचे पर तैनात सिपाहियों की नहीं, सेना के नकशे बनाने वाले विभाग सर्वे औफ इंडिया में की गई थी.

इन दोषियों में 4 लोग थे – एम वी भट्ट जो मेजर जनरल बन गए, के आर एम के वी बालाजी राव, जे के रथ व आर रमन सिंह. 384 उम्मीदवारों ने वर्ष 2002 में पदोन्नति की परीक्षा दी थी जिन के अंक देने में इन चारों ने हेराफेरी ही नहीं की थी, पदोन्नति के लिए तरफदारी भी की थी. केंद्रीय जांच ब्यूरो को इस की जांच करने में 16 साल लगे, यह आश्चर्य की बात है. अब तक जिन की पदोन्नति हुई, वे भी अवकाशप्राप्त कर चुके होंगे और उन्हें नियुक्त करने वाले तो रिटायर हो ही चुके हैं.

सेना में भ्रष्टाचार भयंकर है, पर इसे छिपा कर रखा गया है क्योंकि जनता के मन में यह छवि बैठाए रखना जरूरी है कि यह देश का वह हिस्सा है जहां केवल ऊंची जातियों के अफसर हैं और यह बिलकुल पाकसाफ है. यह भ्रांति इसलिए बैठाई जाती है कि शासक वक्त पर जातिगत विद्रोह को दबा सकें.

सेना में अरबों का खर्च होता है और बहुत सा खर्चा बिना टैंडरों के होता है. वहां ऊपर से नीचे तक नागरिक क्षेत्र की तरह बेईमानी चलती है. फर्क यह है कि नागरिक क्षेत्र में लड़ाई से नहीं जूझना पड़ता, बर्फीली चोटियों, वीरान रेगिस्तानों, घने जंगलों, सैकड़ों मील के पानी में महीनों नहीं रहना पड़ता. अगर लड़ाई न भी हो रही हो, तो भी सैनिकों की जान हरदम खतरे में रहती है क्योंकि उन्हें लगातार चलते रहने वाले प्रशिक्षण में चोटें लगती रहती हैं. वे हर समय बारूद के पास रहते हैं और दुर्घटना किसी तरह की हो सकती है.

पर इस की वजह से सेना में भ्रष्टाचार होने दिया जाए, यह गलत है. और इसीलिए हमेशा सरकार, अदालतों व सेना में हमेशा विवाद चलता रहता है. शासक चाहते हैं कि सेना उन की मुद्ठी में रहे, जबकि सेना चाहती है उसे पैसा तो मनमरजी का मिल जाए, पर हर जांच से उसे छूट भी मिले.

शासक  मान जाते हैं कि जनता के विद्रोह को दबाने में सेना के अलावा किसी और पर भरोसा नहीं किया जा सकता. पुलिस भ्रष्ट ही नहीं है, वह पूरी तरह से राजनीति में गले तक डूबी हुई भी है. सेना में जाति का कहर है क्योंकि वहां अफसर सारे लगभग ऊंची जातियों के हैं, पर प्रशिक्षण के दौरान पिछड़ों व ऊंचों का भेदभाव समाप्त हो जाता है या रैंक के कारण छिप जाता है.

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भगवाई लोग सेना पर बहुत भरोसा करते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि उग्र होते देश की जनता के 85 प्रतिशत पिछड़ों, दलितों को काबू में करने में वे ही काम आएंगे. सेना पर कभीकभार ही भ्रष्टाचार के मामले बाहर आने दिए जाते हैं.

पति की संपत्ति नहीं पत्नी

औरतों को आज भी अपनी संपत्ति समझा जाता है. उस के चरित्र पर शक के कारण उस के दोस्त के परिवार को मार डालने तक की हिम्मत कर ली जाती है. मई के तीसरे सप्ताह में एक स्टोर मालिक ने अपने साथ काम कर रही 2 औरतों को उस व्यक्ति के घर भेजा जिस पर उसे अपनी पत्नी के साथ संबंध होने का संदेह था. इन 2 औरतों ने उस व्यक्ति के परिवार से कहा कि वे स्वास्थ्य विभाग से हैं और कोविड से बचाव के लिए उन्हें इंजैक्शन लगवाने होंगे. पत्नी से संबंध रखने वाले परपुरुष, उस की पत्नी, मां, सब को जहरीला इंजैक्शन लगाया गया और उन की मृत्यु हो गई.

बात अपराध की अलग है, पर मुख्य बात यह है कि कोई भी पति अपनी पत्नी को ऐसे कैसे जागीर समझ सकता है कि उस से, सहमति के आधार पर, संबंध बनाने पर किसी पुरुष की हत्या कर दे. पतिपत्नी साथ रहते हैं तो आपसी सहमति के आधार पर. हां, सदियों से धर्म औरतों को सिखाते रहे हैं कि वे अपने पति की दासी, संपत्ति आदि हैं.

विवाह के समय गाए जाने वाले गीतों में अकसर यह पट्टी पढ़ाई जाती है कि पति की सेवा करें, पति की मार खाएं, पति के सामने कोई मांग न रखें. कोरोना वायरस के चलते लागू किए गए लौकडाउनों के दौरान औरतों पर दिनभर घर में पति व बच्चों की सेवा का अतिरिक्त भार पड़ गया. 2-3 दिन तो पति व बच्चों ने हाथ बंटवाया, फिर वे वर्क फ्रौम होम, स्टडी फ्रौम होम का बहाना ले कर बैठ गए. उन्होंने तरहतरह की मांगें रखनी शुरू कर दीं. औरतों को किट्टी पार्टी आदि से जो राहत मिलती थी, वह भी बंद हो गई. इस तरह से उन के अरमानों को जहर दे दिया गया.

औरतों को अब अपने अधिकारों को फिर से देखना होगा. उन्हें पुरुषों की संपत्ति नहीं समझा जा सकता. उन के किसी से संबंध बनते हैं तो पति के पास तलाक का हक है, पर तलाक कानून भी लचीला होना चाहिए. चट मंगनी पट ब्याह की तरह तुरंत तलाक का भी प्रावधान होना चाहिए. जब समाज में सैकड़ोंहजारों तलाकशुदा आदमीऔरतें होंगे, तभी तलाक के नाम पर लगा धब्बा मिटेगा.

यह सामूहिक पारिवारिक हत्या दर्शाती है कि पति अपनी पत्नी के बदले किस तरह वहशीपन पर उतर आते हैं. वे पत्नी का मन और तन दोनों काबू में रखना चाहते हैं.

एक नई शुरुआत-भाग 3: स्वाति का मन क्यों भर गया?

इन्हीं आपाधापियों में उस के ‘डे केयर‘ की शुरुआत हो गई. अब तो बच्चे भी बहुत हो गए हैं, जिन में अमोल से उसे कुछ विशेष लगाव हो गया था. उस के पिता रंजन वर्मा से भी. उस का एक आत्मीय रिश्ता बन गया था. जब से उसे पता चला था कि रंजन की पत्नी की कैंसर से मृत्यु हो चुकी है और अमोल एक बिन मां का बच्चा है, तब से अमोल और रंजन दोनों के ही प्रति उस के दिल में खासा लगाव पैदा हो गया था.

हालांकि रंजन के प्रति अपनी मनोभावनाओं को उस ने अपने दिल में ही छुपा रखा था, कभी बाहर नहीं आने दिया था.

अपनी सीमाओं की जानकारी उसे थी. यहां व्यक्ति का चरित्र आंकने का बस यही तो एक पैमाना है. मन की इच्छाओं को दबाते रहना. जो हो वह नहीं दिखना चाहिए बस एक पाकसाफ, आदर्श छवि बनी रहे तो कम से कम इस दोहरे मानदंडों वाले समाज में सिर उठा कर जी तो सकते हैं वरना तो लोग आप को जीतेजी ही मार डालेंगे.

शर्म, ग्लानि और अपराध बोध बस उन के लिए है, जो स्वाभिमानी हैं और अपने अस्तित्व की रक्षा करते हुए सम्मान से जीना चाहते हैं और चंदर जैसे दुर्गुणी, नशेबाज के लिए कोई मानमर्यादा नहीं है.

चंदर के मातापिता जैसे चालाक और धूर्तों के लिए भी कोई नैतिकता के नियम नहीं हैं. उन की बुजुर्गियत की आड़ में सब छुप जाता है.

पर हां, अगर स्वाति किसी भावनात्मक सहारे के लिए तनिक भी अपने रास्ते से डगमग हो गई तो भूचाल आ जाएगा और उस का सारा संघर्ष और मेहनत बेमानी हो जाएगी, यह स्वाति अच्छी तरह जानती और समझती थी. इसीलिए उस ने रंजन के प्रति अपनी अनुरक्ति को केवल अपने मन की परतों में ही दबा रखा था. पर यह भी उसे अच्छा लगता था. चंदर और उस के स्वार्थी परिवार से उस का यह मौन विद्रोह ही था, जो उसे परिस्थितियों का सामना करने की शक्ति देता था और उस का मनोबल बढ़ाता था.

राहुल और प्रिया का टिफिन तैयार कर उन्हें स्कूल के लिए छोड़ कर, घर के सब काम निबटा कर जैसे ही स्वाति घर से निकलने को हुई, सास की कर्कश आवाज आई, ‘‘चल दी गुलछर्रे उड़ाने महारानी… हम लोगों के साथ इसे अच्छा ही कहां लगता है.‘‘ चंदर भी मां का साथ देता.

आखिर स्वाति कितना और कब तक सुनती. दबा हुआ आक्रोश फूट पड़ा स्वाति का, ‘‘जाती हूं तो क्या… कमा कर तो तुम्हारे घर में ही लाती हूं. कहीं और तो ले जाती नहीं हूं.‘‘

‘‘अच्छा, अब हम से जबान भी लड़ाती है…’’ गाली देते हुए चंदर उस पर टूट पड़ा. सासससुर भी साथ हो लिए.

पलभर के लिए हैरान रह गई स्वाति… उसे लगा कि ये लोग तो उसे मार ही डालेंगे. उस के कुछ दिमाग में न आया, तो जल्दीजल्दी रंजन को फोन लगा दिया और खुद भी अपने सैंटर की ओर भाग ली.

‘‘अब इस घर में मुझे नहीं रहना है,‘‘ उस ने मन ही मन सोच लिया, ‘‘कैसे भी हो, अपने बच्चों को भी यहां से निकाल लेगी. सैंटर पर कमरा तो है ही. कैसे भी वहीं रह लेगी. मिसेज बत्रा को सबकुछ बता देगी. वे नाराज नहीं होंगी.‘‘

स्वाति के दिमाग में तरहतरह के खयाल उमड़घुमड़ रहे थे. सबकुछ अव्यवस्थित हो गया था. समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या होगा…

सैंटर पहुंच कर कुछ देर में स्वाति ने खुद को व्यवस्थित कर लिया. उस के फोन लगा देने पर रंजन भी वहां आ गया था.

रंजन के आत्मीयतापूर्ण व्यवहार का आसरा पा कर वह कुछ छुपा न पाई और सबकुछ बता दिया…अपने हालात… परिस्थितयां, बच्चे… सब.

पहलेपहल तो रंजन को कुछ समझ ही न आया कि क्या कहे. एक शादीशुदा स्त्री की निजी जिंदगी में इस तरह दखल देना सही भी होगा या नहीं… फिर भी स्वाति की मनोस्थिति देख कर रंजन ने कहा, ‘‘कोई परेशानी या जरूरत हो तो वह उसे याद कर ले और अगर उस की जान को खतरा है, तो वह उस घर में वापस न जाए.‘‘

रंजन का संबल पा कर स्वाति का मनोबल बढ़ गया और उस ने सोच लिया कि अब वह वापस नहीं जाएगी. रहने का ठिकाना तो उस का यहां है ही. यहीं से रह कर अपना सैंटर चलाएगी. कुछ दिन नैना को यहीं रोक लगी अपने पास.

उस दिन स्वाति घर नहीं गई. उस का कुछ विशेष था भी नहीं घर में. जरूरत भर का सामान, थोड़ेबहुत कपड़े बाजार से ले लेगी. पक्का निश्चय कर लिया था उस ने. बस अपनेआप को काम में झोंक दिया स्वाति ने.

अपने डे केयर को प्ले स्कूल में और बढ़ाने का सोच लिया उस ने और कैसे अपने काम का विस्तार करे, बस इसी योजना में उस का दिमाग काम कर रहा था.

स्वाति के चले जाने से घर की सारी व्यवस्था ठप हो गई थी. स्वाति तो सोने का अंडा देने वाली मुरगी थी. वह ऐसा जोर का झटका देगी, ऐसी उम्मीद न थी. चंदर और उस की मां तो उसे गूंगी गुड़िया ही समझते थे, जिस का उन के घर के सिवा कोई ठौरठिकाना न था. आखिर जाएगी कहां? अब खिसियाए से दोनों क्या उपाय करें कि उन की अकड़ भी बनी रहे और स्वाति भी वापस आ जाए, यही जुगाड़ लगाने में लगे थे.

मां के चले जाने पर बच्चे राहुल और प्रिया को भी घर में उस की अहमियत पता चल रही थी. जो दादी दिनरात उन्हें मां के खिलाफ भड़काती रहती थी, उन्होंने एक दिन भी उन का टिफिन नहीं बनाया. 2 दिन तो स्कूल मिस भी हो गया.

स्कूल से आने पर न कोई होमवर्क को पूछने वाला और न कोई कराने वाला. बस चैबीस घंटे स्वाति की बुराई पुराण चालू रहता. उन से हजम नहीं हो रहा था कि स्वाति इस तरह उन सब को छोड़ कर भी जा सकती है. ऊपर से सारा घर अव्यवस्थित पड़ा रहता था.

स्वाति को गए एक हफ्ता भी न हुआ था कि दोनों बच्चों के सामने उन सब की सारी असलियत खुल कर सामने आ गई. उन का मन हो रहा था कि उड़ कर मां के पास पहुंच जाएं, पर दादादादी और पिता के डर से सहमे हुए बच्चे कुछ कहनेकरने की स्थिति में नहीं थे.

एक दिन दोनों स्कूल गए तो लौट कर आए ही नहीं, बल्कि स्कूल से सीधे अपनी मां के पास ही पहुंच गए. सैंटर तो उन्होंने देख ही रखा था. स्वाति को तो जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. उस के कलेजे के टुकड़े उस के सामने थे. कैसे छाती पर पत्थर रख कर उन्हें छोड़ कर आई थी, यह वह ही जानती थी.

चंदर और स्वाति के सासससुर बदले की आग में झुलस रहे थे. सोने का अंडा देने वाली मुरगी और घर का काम करने वाली उन्हें पलभर में ठेंगा दिखा कर चली जो गई थी.

बेइज्जती की आग में जल रहे थे तीनों. चंदर किसी भी कीमत पर स्वाति को घर वापस लाना चाहता था. शहर के कुछ संगठन जो स्त्रियों के चरित्र का ठेका लिए रहते थे और वेलेंटाइन डे पर लड़केलड़कियों को मिलने से रोकते फिरते थे, उन में चंदर भी शामिल था. वास्तव में तो इन छद्म नैतिकतावादियों से स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व ही बरदाश्त नहीं होता और यदि खोजा जाए तो उन सभी के घरों में औरत की स्थिति स्वाति से बेहतर न मिलती.

स्वाति के चरित्र पर भद्दे आरोप लगाता हुआ अपने ‘स्त्री अस्मिता रक्षा संघ‘ के नुमाइंदों को ले कर चंदर स्वाति के डे केयर सैंटर पहुंच गया.

यह देख स्वाति घबरा गई. उस ने रंजन को, अपने सभी मित्रों, बच्चों के मातापिता को जल्दीजल्दी फोन किए. सैंटर के बाहर दोनों गुट जमा हो गए. रंजन भी पुलिस ले कर आ गया था. दोनों पक्षों की बातें सुनी गईं.

स्वाति ने अपने ऊपर हो रहे उत्पीड़न को बताते हुए ‘महिला उत्पीड़न‘ और ‘घरेलू हिंसा‘ के तहत रिपोर्ट लिखवा दी. रंजन, उस के दोस्त और बच्चों के मातापिता सभी स्वाति के साथ थे.

पुलिस ने चंदर को आगे से स्वाति को तंग न करने की चेतावनी दे दी और आगे ‘कुछ अवांछित करने पर हवालात की धमकी भी.‘ चंदर और उस के मातापिता अपना से मुंह ले कर चलते बने.

स्वाति ने सोच लिया था कि अब वह चंदर के साथ नहीं रहेगी. अपने जीवन के उस अध्याय को बंद कर अब वह एक नई शुरुआत करेगी.

शाम का धुंधलका छा रहा था. स्वाति अकेले खड़ी डूबते हुए सूरज को देख रही थी. सामने रंजन आ रहा था, अमोल का हाथ पकड़े.

अमोल ने आ कर अचानक स्वाति का एक हाथ थाम लिया और एक रंजन ने. राहुल और प्रिया भी वहीं आ गए थे. अब वे सब साथ थे एक परिवार के रूप में मजबूती से एकदूसरे का हाथ थामे हुए, ‘एक नई शुरुआत के लिए और हर आने वाली समस्या का सामना करने को तैयार.‘

 

एक नई शुरुआत-भाग 2: स्वाति का मन क्यों भर गया?

‘‘जाने दे मां, इस बहाने अपने यारदोस्तों से भी मिल लेती है,‘‘ चंदर के मुंह से निकलने वाली प्रत्येक बात उस के चरित्र की तरह ही छिछली होती.

स्वाति एक कान से सुन दूसरे कान से निकाल कर अपने काम पर निकल लेती.

‘‘उस की कमाई से ही घर में आराम और सुविधाएं बनी हुई थीं. शायद इसीलिए वे दोनों उसे झेल भी रहे थे, वरना क्या पता कहीं ठिकाने लगा कर उस का क्रियाकर्म भी कर देते,‘‘ स्वाति अकसर सोचती.

नीच प्रकृति के लोग बस अपने स्वार्थवश ही किसी को झेलते या सहन करते हैं. जरूरत न होने पर दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंकते हैं… स्वाति अपने पति और सास की रगरग से वाकिफ थी और कहीं न कहीं भीतर ही भीतर उन से सजग और सावधान भी रहती थी.

स्वाति ने अपना ‘डे केयर सैंटर‘ घर से कुछ दूर ‘निराला नगर‘ नामक पौश कालोनी में एक खाली मकान में खोल रखा था. घर की मालकिन मिसेज बत्रा का शू बिजनैस था और ज्यादातर समय वे कनाडा में ही रहती थीं. शहर में ऐसे उन के कई मकान पड़े थे. स्वाति से उन्हें किराए का भी लालच नहीं था. बस घर की देखभाल होती रहे और घर सुरक्षित रहे, यही उन के लिए बहुत था. साल में 1-2 बार जब वे इंडिया आतीं, तो स्वाति से मिल कर जातीं. अपने घर को सहीसलामत हाथों में देख कर उन्हें संतुष्टि होती.

मिसेज बत्रा से स्वाति की मुलाकात यों ही अचानक एक शू प्रदर्शनी के दौरान हुई थी. स्वाति का मिलनसार स्वभाव, उस की सज्जनता और अपने से बड़ों को आदर देने की उस की भावना लोगों को सहज ही उस से प्रभावित कर देती थी. वह जहां भी जाती, उस के परिचितों और शुभचिंतकों की तादाद में इजाफा हो जाता.

बातों ही बातों में मिसेज बत्रा ने जिक्र किया था कि उन का यह मकान खाली पड़ा है, जिसे वे किसी विश्वसनीय को सौंपना चाहती हैं जो उस की देखभाल भी कर सके और खुद भी रह सके.

स्वाति उस समय अपने वजूद को तलाश रही थी. उस के पास न कोई बहुत भारी रकम थी और न कोई उच्च या स्पैशल शैक्षिक प्रशिक्षण था. ऐसे में उसे डे केयर सैंटर चलाने का विचार सूझा.

स्वाति ने मिसेज बत्रा से बात की. उन्होंने सहर्ष सहमति दे दी. स्वाति ने घर वालों की हर असहमति को दरकिनार कर अपने इस सैंटर की शुरुआत कर दी.

सुबह से शाम तक स्वाति थक कर चूर हो जाती. उस के काम के कारण बच्चे उपेक्षित होते थे, वह जानती थी. पर क्या करे.

शादी के बाद जब इस घर में आई तो कितने सपने सजे थे उस की आंखों में. फिर एकएक, सब किर्चकिर्च होने लगे. चंदर पक्का मातृभक्त था और मां शासन प्रिय. परिवार का प्रत्येक व्यक्ति उन के दबाव में रहता. ससुर भी सास के आगे चूं न करते. हां, उन के धूर्त कामों में साथ देने को हमेशा तैयार रहते. चंदर जो भी कमाता या तो मां के हाथ में देता या दारू पर उड़ा देता.

स्वाति से उस का सिर्फ दैहिक रिश्ता बना, स्वाति का मन कभी उस से नहीं जुड़ा. उस ने कोशिश भी की, तो हमेशा चंदर के विचारों, कामों और आचरण से वह हमेशा उस से और दूर ही होती गई.

‘‘देखो तुम्हारी मां तुम्हारा ध्यान नहीं रख सकतीं और दूसरों के बच्चों की सूसूपौटी साफ करती है,” सास उस के दोनों बच्चों को भड़काती रहतीं.

राहुल 7 साल का था और प्रिया 5 साल की होने वाली थी. दोनों कच्ची मिट्टी के समान थे. स्वाति बाहर रहती और दादी जैसा मां के विरुद्ध उन्हें भड़काती रहती. उस से बच्चों के मन में मां की नकारात्मक छवि बनती जाती. यहां तक कि दोनों स्वाति की हर बात को काटते.

‘‘आप तो जाओ अपने सैंटर के बच्चों को देखो, वही आप के अपने हैं, हम तो पराए हैं. हमारे साथ तो दादी हैं. आप जाओ.‘‘

प्रिया और राहुल को आभास भी न होता होगा कि उन की बातों से स्वाति का दिल कितना दुखता था. ऊपर से चंदर, उसे खाना, चाय, जूतेमोजे, कच्छाबनियान सब मुंह से आवाज निकलते ही हाजिर चाहिए थे.

बिस्तर से उठते ही यदि चप्पल सामने न मिले तो हल्ला मचा देता. स्वाति को बेवकूफ, गंवार सब तरह की संज्ञाओं से नवाजता और खुद रोज शाम को बदबू मारता, नशे में लड़खड़ाता हुआ घर आता.

यही जिंदगी थी स्वाति की घर में. अपनी छोटीछोटी जरूरतों के लिए भी मोहताज थी वह. ऐसे में आत्मसम्मान किस चिड़िया का नाम होता है, ये उजड्ड लोग जानते ही न थे. तब स्वाति को मिसेज बत्रा मिलीं और उसे आशा की एक किरण दिखाई दी.

फादर्स डे स्पेशल: मेरे पापा -1

मैं अपने पापा को बाबूजी कहती थी. बचपन में, 4 वर्ष की अवस्था में, मुझे पोलियो हो गया. हम 7 भाईबहनों में उन्होंने कोई फर्क नहीं किया. उन के प्यार के चलते मुझे कभी एहसास नहीं हुआ कि मैं विकलांग हूं. उन्होंने मुझे उच्च शिक्षा दिलवाई. मैं ने डाक्टरेट किया. पापा को पता चला कि अपोलो अस्पताल में इलाज कराने से मेरा पैर ठीक हो जाएगा. उन्होंने बैंक के सहायक प्रबंधक पद से अवकाश प्राप्त किया था. उन्होंने अपने सारे पैसे मेरे इलाज में खर्च कर दिए. परंतु मेरा पैर ठीक नहीं हुआ बल्कि और भी बिगड़ गया. मेरे बाबूजी ने कहीं भी आनाजाना छोड़ दिया और मेरी सेवा में लगे रहते. उन्होंने मन ही मन में प्रण किया कि कहीं भी जाएंगे तो मेरे ठीक होने के बाद ही. डाक्टर ने सब्जबाग दिखाए थे कि 2 वर्षों में मैं दौड़ने लगूंगी. 1993 से 2008 तक वे दिनरात मेरी सेवा में लगे रहे और उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया. उन के बगैर जिंदगी रुकी तो नहीं, परंतु बेजान सी हो गई है.

मनोरमा कुमारी चौबे

  • मेरे पापा बहुत ही हंसमुख थे. वे विपरीति परिस्थितियों में भी मुसकराते रहते थे. उन का कहना था कि जीवन में दोनों पहलुओं को अपने जीवनकाल में स्वीकार करना चाहिए. तभी जिंदगी के माने समझ में आते हैं. मुझे याद है, जब कभी मैं यों ही बैठी रहती, तो वे समय का महत्त्व बताते हुए कहा करते कि समय बहुत मूल्यवान होता है.

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इसे यों ही बेकार बैठ कर नहीं गवांना चाहिए. मेरे हाथों में कभी समाचारपत्र थमा देते तो कभी कुछ कार्य करने के लिए प्रेरित किया करते. कभी मेरे हाथों में कलम पकड़ा कर कहते, ‘‘अपनी दिनचर्या ही लिख डालो.’’

उन की बातें कभी मान लेती, तो कभी हंस कर टाल देती. लेकिन कुछ सालों के बाद, जब मैं अपनी दिनचर्या से ऊबने लगी तो पिताजी की बातें याद आने लगीं.

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और फिर उठा लिया कागज और कलम. कई कविताएं और कहानियां लिख डालीं और एक दिन एक पत्रिका में भेज दी.

कुछ दिनों के बाद मैं एक पत्रिका पढ़ रही थी तो अपनी रचना देख कर खुशी से झूम उठी. उस दिन पापा की कही हुई बात सच लगने लगी कि जीवन का सुनहरा समय बैठ कर नहीं गवांना चाहिए.

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आज मैं अपने पापा की आभारी हूं. और उन्हें नमन करती हूं.

सुशीला श्रीवास्तव

#coronavirus:  हर उम्र के लोग हो सकते है कोरोना संक्रमित

भारत में अब तेजी से संक्रमण फ़ैल रहा है, मंगलवार (7 अप्रैल) के सुबह तक संक्रमित मरीजों की संख्या 4421 पहुंच गया है. यह ऐसा वायरस है, जो बेहद तेजी से फैलता है, एक नजर डालते है,किस आयु वर्ग में कितना संक्रमण हुआ है. कितने फीसदी पुरुष और महिला इससे प्रभावित है और किस बीमारी के लोग इससे अधिक प्रभावित है , तो आइये जानते है :-

* इसकी सामान्य मृत्यु दर भी करीब 4 फीसदी है. वही वृद्ध संक्रमित व्यक्ति के बीच (उम्र 60-80), यह मृत्यु दर 8 फीसदी तक देखी गई है.

* भारत सरकार ने सोमवार ( 6 अप्रैल तक) को बताया की 4067 लोग इसे संक्रमित हो चुके है . लैंगिक आधार पर देखे तो इन मामलों में 76% पुरुष और 24% महिला हैं.

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* संक्रमित लोगों के बात अब आयु के आधारित पर करते है तो पत्ता चलता है 47% संक्रमित लोगों का 40 वर्ष से कम आयु वर्ग के है , वही  40 से 60 वर्ष की आयु के बीच के 34% लोग इससे संक्रमित हैं , जबकि 19% लोग 60 और उससे अधिक आयु वर्ग के हैं .

* 6 अप्रैल तक भारत में कोरोना (कोविड– 19) के कारण हुई 109 मौत हो चुका है. लैंगिक आधार पर देखे तो इन मामलों में मरने वाले में 73% पुरुष और  27% महिला हैं.

* मरने वाले की संख्या अगर आयु के आधारित देखे तो  63% बुजुर्गों की मौत की पुष्टि (60 एवं अधिक आयु के) हुए है, वही 30% ऐसे लोग है जिनका उम्र  40 से 60 वर्ष के बीच है, जबकि 07% मरने वाले लोगों की आयु 40 वर्ष से कम है .

* अब अगर संक्रमित मरीजों के बीमारी पर नजर डाले तो पत्ता चलता है कि  मधुमेह, किडनी की क्रोनिक दिक्कतें, उच्च रक्तचाप और दिल से संबंधित समस्याएं के कारण 86% मौत लोगो का मौत हुआ.

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* संक्रमण ने बुजुर्गों को अपने चपेट में ले लिया है , इनके बीच 19 फीसदी पुष्ट मामले सामने आये है.  उनमें से 63 फीसदी मौतें देखी गई हैं. इस लिहाज़ से बुजुर्ग वर्ग अत्यधिक जोखिम वाली वर्ग है. इसे विशेष देख रेख कि जरुरत हैं.

* एक अध्ययन में यह बात सामने आया है कि भारत में कोरोना वायरस तेजी से युवा और कामकाजी आबादी को अपनी चपेट में ले रहा है. करोना वायरस से संक्रमित महिलाओं के मामले में ज्यादातर की उम्र 20 से 29 साल के बीच है.

*  विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि शुरुआत में युवाओं की तुलना में वृद्ध लोगों में मृत्यु दर अधिक हो सकती है. लेकिन युवा आयु का होने का मतलब यह नहीं है कि व्यक्ति खतरे से बाहर है.

* विशेषज्ञों कहते है कि एक बात का ध्यान रखें कि कोरोना वायरस संकरण करते समय आपके उम्र से  तय नहीं होता कि किसके साथ संक्रमित होने का खतरा ज्यादा है और किसके साथ कम.

* अगर इटली, स्पेन और अमेरिका से जो आंकड़ों कि बात करे तो वहाँ यह देख गया किशोरों की तुलना में वयस्कों को अस्पताल में भर्ती कराने दर ज्यादा है. यानि युवा वर्ग में संक्रमण का दर तेज है .

 कोरोना का  संक्रमण किसी को भी हो सकता है , इस लिए संक्रमण से बचने के लिए इन बातों का विशेष ध्यान रखे :-

– जब बहुत ही जरूरी हो तभी  घर से बाहर निकलें और गर में हो या बहार हो सोशल डिस्टेंसिंग का अनुुपालन हर हाल में करें.

–  बाहर निकलते वक्त मुंह पर मास्क जरूर लगाएं .  अपने हाथों को मुुंह, आंख और नाक से दूर ही रखें. साथ ही साबुन से बार-बार हाथों को धोएं एवं अगर हो सके तो सैनिटाइजर से हाथों को साफ करते रहे .

– कोशिश करे की ठंडे खाद्य पदार्थों का सेवन काम हो और गर्म खाना ही खाये .

– खाने में फाइबर , प्रोटीन और विटामिन युक्त भोजन करे साथ ही इस समय अधिक तले-भुने खाने से बचें.

– यह वायरस आपके श्वास लेने के प्रक्रिया को बाधित करती है, अतः युवाजन सिगरेट, शराब, तंबाकू और गुटखे से दूर बनाये रहें.

– आप को अगर  खांसी, जुकाम या बुखार होता है तो  डॉक्टर से परामर्श जरूर लें. बिना डॉक्टर के परामर्श के दवाओं का प्रयोग न करें.

– जिसे लोग पहले से ही हृदय, कैंसर, लीवर, गुर्दा, मधुमेह और ब्लड प्रेशर से पीड़ित है , उन्हें अधिक सतर्क और सावधान रहने की जरूरत है.

एक नई शुरुआत-भाग 1: स्वाति का मन क्यों भर गया?

बिखरे पड़े घर को समेट, बच्चों को स्कूल भेज कर भागभाग कर स्वाति को घर की सफाई करनी होती है, फिर खाना बनाना होता है. चंदर को काम पर जो जाना होता है. स्वाति को फिर अपने डे केयर सैंटर को भी तो खोलना होता है. साफसफाई करानी होती है. साढ़े 8 बजे से बच्चे आने शुरू हो जाते हैं.

घर से कुछ दूरी पर ही स्वाति का डे केयर सैंटर है, जहां जौब पर जाने वाले मातापिता अपने छोटे बच्चों को छोड़ जाते हैं.

इतना सब होने पर भी स्वाति को आजकल तनाव नहीं रहता. खुशखुश, मुसकराते-मुसकराते वह सब काम निबटाती है. उसे सहज, खुश देख चंदर के सीने पर सांप लोटते हैं, पर स्वाति को इस से कोई लेनादेना नहीं है. चंदर और उस की मां के कटु शब्द बाण अब उस का दिल नहीं दुखाते. उन पराए से हो चुके लोगों से उस का बस औपचारिकता का रिश्ता रह गया है, जिसे निभाने की औपचारिकता कर वह उड़ कर वहां पहुंच जाती है, जहां उस का मन बसता है.

‘‘मैम आज आप बहुत सुंदर लग रही हैं,‘‘ नैना ने कहा, तो स्वाति मुसकरा दी. नैना डे केयर की आया थी, जो सैंटर चलाने में उस की मदद करती थी.

‘‘अमोल नहीं आया अभी,‘‘ स्वाति की आंखें उसे ढूंढ़ रही थीं.

याद आया उसे जब एडमिशन के पश्चात पहले दिन अमोल अपने पापा रंजन वर्मा के साथ उस के डे केयर सैंटर आया था.

अपने पापा की उंगली पकड़े एक 4 साल का बच्चा उस के सैंटर आया, जिस का नाम अमोल वर्मा और पिता का नाम रंजन वर्मा था. रंजन ही उस का नाम लिखा कर गए थे. उन के सुदर्शन व्यक्तित्व से स्वाति प्रभावित हुई थी.

‘‘पति-पत्नी दोनों जौब करते होंगे, इसलिए बच्चे को यहां दाखिला करा कर जा रहे हैं,‘‘ स्वाति ने उस वक्त सोचा था.

रंजन ने उस से हलके से नमस्कार किया.

‘‘कैसे हो अमोल? बहुत अच्छे लग रहे हो आप तो… किस ने तैयार किया?‘‘ स्वाति ने कई सारे सवाल बंदूक की गोली जैसे बेचारे अमोल पर एकसाथ दाग दिए.

‘‘पापा ने,‘‘ भोलेपन के साथ अमोल ने कहा, तो स्वाति की दृष्टि रंजन की ओर गई.

‘‘जी, इस की मां तो है नहीं, तो मुझे ही तैयार करना होता है,‘‘ रंजन ने कहा, तो स्वाति का चौंकना स्वाभाविक ही था.

‘‘4 साल के बच्चे की मां नहीं है,‘‘ यह सुन कर उसे धक्का सा लगा. सौम्य, सुदर्शन रंजन को देख कर अनुमान भी लगाना मुश्किल था कि उन की पत्नी नहीं होंगी.

‘‘कैसे?‘‘ अकस्मात स्वाति के मुंह से निकला.

‘‘जी, उसे कैंसर हो गया था. 6 महीने के भीतर ही कैंसर की वजह से उस की जान चली गई,‘‘ रंजन की कंपकंपाती सी आवाज उस के दिल को छू सी गई. खुद को संयत करते हुए उस ने रंजन को आश्वस्त करने की कोशिश की, ‘‘आप जरा भी परेशान न हों, अमोल का यहां पूरापूरा ध्यान रखा जाएगा.‘‘

रंजन कुछ न बोला. वहां से बस चला गया. स्वाति का दिल भर आया इतने छोटे से बच्चे को बिन मां के देख. बिन मां के इस बच्चे के कठोर बचपन के बारे में सोचसोच कर उस का दिल भारी हो उठा था. उस दिन से अमोल से उस का कुछ अतिरिक्त ही लगाव हो गया था.

रंजन जब अमोल को छोड़ने आते तो स्वाति आग्रह के साथ उसे लेती. रंजन से भी एक अनजानी सी आत्मीयता बन गई थी, जो बिन कहे ही आपस में बात कर लेती थी. रंजन की उम्र लगभग 40 साल के आसपास की होगी.

‘‘जरूर शादी देर से हुई होगी, तभी तो बच्चा इतना छोटा है,’’ स्वाति ने सोचा.

रंजन अत्यंत सभ्य, शालीन व्यक्ति थे. स्त्रियों के प्रति उन का शालीन नजरिया स्वाति को प्रभावित कर गया था, वरना उस ने तो अपने आसपास ऐसे ही लोग देखे थे, जिन की नजरों में स्त्री का अस्तित्व बस पुरुष की जरूरतें पूरी करना, घर में मशीन की तरह जुटे रहने से ज्यादा कुछ नहीं था.

स्वाति का जीवन भी एक कहानी की तरह ही रहा. मातापिता दोनों की असमय मृत्यु हो जाने से उसे भैयाभाभी ने एक बोझ को हटाने की तरह चंदर के गले बांध दिया.

शराब पीने का आदी चंदर अपनी मां पार्वती का लाड़ला बेटा था, जिस की हर बुराई को वे ऐसे प्यार से पेश करती थीं, जैसे चंदर ही संसार में इकलौता सर्वगुण सम्पन्न व्यक्ति है.

चंदर एक फैक्टरी में सुपरवाइजर के पद पर काम करता था और अपनी तनख्वाह का ज्यादातर हिस्सा यारीदोस्ती और दारूबाजी में उड़ा देता. मांबेटा मिल कर पलपल स्वाति के स्वाभिमान को तारतार करते रहते.

‘‘चल दी महारानी सज कर दूसरों के बच्चों की पौटी साफ करने,‘‘ स्वाति जब भी अपने सैंटर पर जाने को होती, पार्वती अपने व्यंग्यबाण छोड़ना न भूलतीं.

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