लेखिका-विजया शर्मा
आज सम्पूर्ण विश्व वैश्विक महामारी कोरोना से जूझ रही है.कही ये मामला हज़ारो में है तो वहीं किन्ही देशों में ये लाखो तक पहुंच गया है.अपना देश भारत भी वहां दो लाख के पार पहुंच शिर्ष सात में पहुंच गया है.किंतु मौतो का आंकड़ा अभी भी बहुत हद तक काबू में है.परंतु क्या आपको पता है,एक काल इससे भी बड़ा है जो अपने देश मे भी लगभग हर साल 10 लाखों मौतों का अकेला जिम्मेदार होता है वो है कैंसर!जिनमे से आधी जमात में प्रमुख है यूटेरस कैंसर.
इस यूटेरस कैंसर के कारकों में से अनेक कारक वो है जो महिलाओं की नियमित महावारी से संबंधित होता है.अमूमन 12 से 15 साल की लड़की के अण्डाशय हर महीने एक विकसित डिम्ब (अण्डा) उत्पन्न करना शुरू कर देते हैं. वही अण्डा अण्डवाहिका नली (फैलोपियन ट्यूव) के द्वारा नीचे जाता है जो कि अंडाशय को गर्भाशय से जोड़ती है. जब अण्डा गर्भाशय में पहुंचता है, उसका अस्तर रक्त और तरल पदार्थ से गाढ़ा हो जाता है. ऐसा इसलिए होता है कि यदि अण्डा उर्वरित हो जाए, तो वह बढ़ सके और शिशु के जन्म के लिए उसके स्तर में विकसित हो सके. यदि उस डिम्ब का पुरूष के शुक्राणु से सम्मिलन न हो तो वह स्राव बन जाता है जो कि योनि से निष्कासित हो जाता है इसीको माहवारी कहते हैं.प्रजनन और संसार की मूलभूत ईश्वर की सबसे अद्भुत उपहार ही हमारे लिए कब काल बन जाती है हमे पता ही नही चलता,इसे एक दुखद कारक बनाने में जो भूमिका निभाते हैं उनमें से प्रमुख हैं –
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1.इस विषय पर संवाद न होना.
भारत में तो माहवारी अपने आप मे एक समस्या है जिसके बारे में न तो कोई खुले में बात करना चाहता है, न ही कोई जानकारी लेना या देना.ये एक ऐसा टैबू है, जिससे सब पल्ला झाड़ते हैं .अब कौन बताए या क्या बताए कि ये एक बहुत ही आम शारिरिक प्रक्रिया है ठीक वैसे ही जैसे कि आपका नाक बहना.अब सोचिये की केवल भारत में जहां करीब 35 करोड़ 40 लाख औरतें माहवारी होती हैं.वहां भी ये कितनी ही अजीब बात है कि महिलाओं की शारिरिक प्रकिया की एक सामान्य सी बात पर कोई बातचीत नही होती.
2.मिथकों का भृमजाल
ये सिर्फ हमारे जैसे विकासशील देश की ही बात नही है ये बातें उन विकसित देशों में भी उसी कदर हैं.आपको हैरत होगी ये जानकर की पढ़े लिखे तथाकथित मॉडर्न देशों में भी माहवारी से रिलेटेड हज़ारो टैबू हैं.आपको जानकर हैरानी होगी कि “महावारी में औरतों द्वारा अचार छू भर लेने से उसका खराब होना सिर्फ भारत में तय नही माना जाता बल्कि ये कहानी आपके ब्रिटेन और अमेरिका में भी प्रचलित है.इटली और रोमानिया जैसे देशों में माना जाता है कि इस दौरान सिर्फ छू भर लेने से पौधे मर जाते हैं और फूल मुरझा जाते हैं.
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3.स्वक्षता
स्वच्छता एवम हाइजीन एक ऐसा टॉपिक है जो हमेशा से ही पुरी दुनिया में गोलमगोल रहा है.वो भी तब जब संसार भर में बहुत सारी सरकारी तथा गैरसरकारी संस्थाएं इसके पीछे कार्य करती हैं.आपको जानकर और भी आश्चर्य होगा की विश्व मे लगभग 2.4मिलियन लोग अब भी इससे अछूते हैं.
हमारे भारत मे भी जहां “स्वच्छ भारत अभियान”अपने दौर के पांचवे साल में है वहां भी इसका आंकड़ा संतोषप्रद नही है. यदपि 2019 में पिछले वर्षों के अपेक्षा हर परिवार में शौचालय की संख्या बढ़ी है. किंतु अगर आज भी आप अहले सुबह या शाम किसी हाइवे,खेत खलिहान से जुड़े रास्ते या रेलमार्ग से गुजरते हैं तो शायद पूरे प्रान्त में लगभग एक सा नजारा देखने को मिलेगा.
स्वास्थ्य विज्ञान का सबसे ज्यादा भार हम स्त्रियों पर पड़ता है और यह तब और बढ़ जाता है जब उन्हें खुले में शौच में जाना पड़ता है.खुले में शौच न सिर्फ शारीरिक वरन कई बार मानसिक परेशानियों से भी गुजरना पड़ता है जैसे कि स्वरक्षा, सेक्सुअल हरर्समेंट इत्यादि. ये समस्याएं तो लगभग हर दिन की है पर ये हर महीने होने वाली माहवारी के साथ और बढ़ जाती है क्योंकि उस दौरान अच्छी स्वच्छता के लिए न तो उचित संसाधन मिलता है न ही अपना प्राइवेट स्पेस जहाँ वो इंतिमाम से इसे मेन्टेन कर सकें.
यहाँ स्वच्छता तब और विकट बन जाती है जब वो बच्चियां जो इसे पहली बार झेलती हैं, उन्हें इसकी कोई जानकारी ही नही होती.इसे इतना जटिल बना दिया जाता है कि वो बच्चियां अपनी समस्याएं अपनी माँ तक से साझा नही कर पाती.एक रिपोर्ट कहता है कि 5 में से मात्र 1 लड़की माहवारी को मातृत्व से जोड़ पाती हैं.इन आधे अधूरे ज्ञान से उन्हें कई रोगों का शिकार होना पड़ता है.
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4.लिंगभेदी अस्वच्छता
बात तो हो रही है, स्वच्छता और हाइजीन की.फिर उसमें लिंगभेद कैसा? यह तो सबके लिए समान है.जी नही!ये समान नही है. पुरूष और स्त्री दोनो की बनावट शारीरिक रूप से अलग होती है, तो वाजीवन उनकी आवश्यक्ता भी भिन्न होती है.एक स्त्री को प्राकृतिक निपटारे के लिए एक पुरुष से ज्यादा समय, पानी और जगह की जरूरत होती है ताकि वो अपनी बुनियादी हाइजीन मेन्टेन कर सके.
5.हाइजीन
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की एक रिपोर्ट के अनुसार आज भी 62 फीसदी महिलाओं को इन दिनों हाइजीन की मूलभूत आवश्यकता की पूर्ति तक नही हो पाती.इसी रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण इलाकों में केवल 48 फीसदी और शहरी इलाकों में भी केवल 78 फीसदी महिलाएं मूलभूत सैनेटरी पैड का इस्तेमाल कर पाती हैं.वही केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालयों के आंकड़ो के मुताबिक 70 फीसदी महिलाओं तक सेनेटरी उत्पादों की पहुंच नही है.जिसके एवज में खराब कपड़े,यहां तक कि राख का इस्तेमाल करती हैं और बहुत सारे स्त्री रोगों का शिकार होती हैं,जिनमे से एक प्रमुख है यूटेरस कैंसर.
बात तब की है जब मैं दिल्ली से ग्रेजुएशन कर रही थी. एक अहले सुबह मेरी एक मित्र का कॉल आया कि जल्दी घर आओ.वहां जाकर पता चला कि दोनों मा बेटी माहवारी से हैं एवम घर मे उनके अलावा कोई न था तो ऐसे में उनकी पारिवारिक प्रथा के अनुसार न तो वो रसोईघर में ही जा सकती थी न ही अपने कमरों में. बर्षों से इन दिनों के लिए उनके घर एक अलग कमरा, बिस्तर और बर्तन है.अब वर्षों से सिर्फ इन्ही दिनों उपयोग होने वाली चीजों की स्वच्छता का अंदाजा लगाया जा सकता है. ऐसा नहीं है कि ये समस्याएं सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों तक ही सीमित है.ये समस्याएं शहरों के तथाकथित पढेलिखे और मॉडर्न परिवारों में भी है.जो आज भी रूढ़िवादी एवम दकियानूसी प्रथायों को अपनाये हुए हैं.
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आज भी बहुत सारे घरो में गंदे शौचालय को साफ करना अपने आप मे एक गंदा काम है.जी अमूमन स्रियों के जिम्मे ही आता है. शौचालय साफ करने के बाद खुद को अपवित्र मानती वी स्त्रियां अपना सिर धो, चुडिया बदल,नख शिख कर अपने आप को पवित्र करती हैं. जो शौचालय साफ करने की प्रकिया को और भी जटिल बनाता है.जिसकी वजह से रोज साफ होने वाले शौचालय महीनों तक साफ नही होते. परिणाम अस्वच्छता के रूप में ही सामने आता है.
हम सब जब अपने सपनो का घर बनाते हैं, हर चीज का ही ख्याल रखा जाता है, यहां तक कि वास्तु और दिशा शूल का भी.पर हम ऐसे शौचालयों का निर्माण भूल जाते हैं जो सबके लिए उपयोगी हो,चाहे वो स्त्री पुरूष हो या बाल वृद्ध.परिणामतः हमारा घर भी हमारे हाइजीनिक रहने में हमारी मदद नही करता.
तो आइए एक कदम हम भी बढ़ाये,इन बातों पर खुलकर बात करे.इस से जुड़े बातों को कतई गंदा न समझे बल्कि गंदगी को खत्म कर.एक ऐसे भारत का निर्माण करें जो न सिर्फ लिंगभेद से परे हो,वरन ऐसा हो जहाँ विजया. 28 मई -वर्ल्ड मेंस्ट्रुअल डे,एक स्वजाग्रता मिशन जिसे शुरू किया गया वर्ष 2014 में.एक जर्मन संस्था ” वाश यूनाइटेड ” द्वारा.अब बात आती है कि जहाँ आधी आबादी कहलाने वाली महिला जगत का एक बहुत ही अहम भाग, हरेक महीने का हिस्सा है ये माहवारी,तो एक अलग दिन इसकी बात क्यों?सोचिये की हम इस पर बात नही कर के अपनी बच्चियों को जाने अनजाने किस तरह अनेक रोगों का शिकार बना रहे हैं.अब प्रश्न है कि बात करके ही क्या होगा.कुछ हो न हो एक जागरूकता तो जरूर आएगी.