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कितना तहलका मचाएंगी मोदी की कविताएं

जल्द ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कविताओं का एक संग्रह बाजार में आने को है , जो यह साबित करने में बड़ा सहायक और कारगर साबित  होगा कि वे यूं ही प्रायोजित लोकप्रियता के चलते महान नहीं हैं बल्कि महानता उनकी रगों में कूट कूट कर भरी है जो अब फूट फूट कर प्रदर्शित हो रही है . महानता दरअसल में एक बीज होती है जिसे उपयुक्त ( भाजपाई ) जमीन , खाद ( अंबानी अदानी ) , हवा ( अन्ना हज़ारे ) , पानी ( बाबा रामदेव )  और अच्छा माली ( आरएसएस ) यानि तमाम अनुकूलताएं वक्त रहते मिल जाएँ तो एक नन्हा सा पौधा भी बड़े बड़े वट वृक्षों ( आडवाणी , जोशी बगैरह ) को उखाड़ – पछाड़ सकता है .

ये कविताएं लाक डाउन के दौरान बिना पुरातत्व विभाग की सहायता के बरामद हुई हैं या फिर पहले ही मिल गईं थीं यह किसी को नहीं पता लेकिन मई के महीने के आखिरी दिनों में जो  जानकारिया  छन कर बाहर आईं उनके मुताबिक मोदी की इन कविताओं का रचना काल अस्सी का दशक होना चाहिए जब वे युवा थे . युवावस्था कविताएं लिखने बड़ी आदर्श और बिना वजह  प्रेरणादायक होती है . जिसे महान बनना होता है वह इस उम्र में कविताएं जरूर लिखता है ताकि सनद रहे और वक्त वेवक्त काम आए कि देख लो हम यूं ही महान नहीं हो गए .

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मोदी की कविताएं अतुकांत यानि नई कविता के दायरे में हैं .  यह प्रयोगवादी विधा और शैली सत्तर के दशक में तेजी से लोकप्रिय हुई थी जिसकी एक खासियत यह भी होती है कि यह तो लिखने के बाद लेखक को भी समझ नहीं आता कि उसने क्या हाहाकारी लिख डाला है मसलन …  मैं देखता हूँ चिड़िया की आँख , और फिर अर्जुन हो जाता हूँ /  खड़ा हूँ अकेला कुरुक्षेत्र में किसी कृष्ण की प्रतीक्षा में …. जैसे शब्द पंक्तिबद्ध कर दिये जाएँ तो उसे नई कविता कहने से आपको कोई चुनौती नहीं दे सकता . हाँ ऐसा ही कोई विदद्वान समीक्षक भी पल्ले हो तो वह यह जरूर साबित कर सकता है कि इस कवि और कविता की आगे तो क्या पीछे भी अज्ञेय और मुक्तिबोध  जैसे कवि  कहीं नहीं ठहरते फिर प्रभाकर माचवे और अग्रवाल की तो हैसियत क्या  . नई कविता को कम से कम शब्दों में पारिभाषित किया जाये तो वह ऐसी उद्देश्यहीन कविता होती है जिसे कोई अपरिपक्व युवा खुद को परिपक्व दिखाने लिखता है .

तो मोदी ने सरलता को चुना यह उनकी महानता नहीं बल्कि तुकांत न लिख पाने की मजबूरी है . आमतौर पर नई कविता किसी ज्ञात या अज्ञात को संबोधित करते लिखी जाती है इस परंपरा का पालन करते हुये मोदी ने अपनी माँ को चुना इसलिए उनकी किताब का शीर्षक प्रकाशक ने लेटर्स टू मदर रखा गया है . मोदी तब रोज रात को सोने से पहले माँ को एक पत्र लिखते थे फिर कुछ दिन बाद उसे फाड़कर अलाव में डाल देते थे .  इसके बाद भी कुछ कविता पत्र इतिहास में दर्ज होने की गरज से बच गए और न न करते कोई 35 साल बाद मिल भी  गए . मूल रूप से गुजराती में लिखी गई इन कविताओं का अँग्रेजी में अनुवाद मशहूर फिल्म समीक्षक भावना सोमाया कर रहीं हैं .

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इस कविता संग्रह का प्रकाशन अमेरिका की नामी पब्लिशिंग कंपनी हार्पर कालिन्स कर रही है तो हैरानी होती है कि बात बात में लोकल के लिए वोकल होने का नारा देने बाले मोदी ने किसी देसी प्रकाशक को यह पवित्र अवसर क्यों नहीं दिया , क्या उन्हें अपने हाथ की लिखी कविताएं लीक हो जाने का डर था . नामुमकिन नहीं कि कल को अरविंद केजरीवाल नुमा कोई मोदी विरोधी नेता यह आरोप लगा बैठे कि ये कविताएं मोदी जी की ही हैं इसमें शक है इसलिए उनकी लिखावट की जांच किसी निष्पक्ष हेंड राइटिंग स्पेशलिस्ट से करबाई जाये ताकि हम मोदी जी की कविताओं को उनका मानकर ही उनके साहित्य का रस्वादन कर सकें .

इसके पीछे तर्क मोदी की एमए की संदिग्ध डिग्री का होगा , पूछा यह भी जा सकता है कि जैसे कविताओं के अवशेष मिले वैसे उनके एमए पालिटिकल साइंस बगैरह के नोट्स क्यों नहीं मिलते . जब सब मिल ही रहा है तो बराबरी से मिलना चाहिए . हैरानी नहीं होनी चाहिए अगर शशि थरूर और दिग्विजय सिंह जैसे बूढ़े रोमांटिक कांग्रेसी नेता यह आरोप लगाने लगें कि मोदी जी को अगर कविताएं ही लिखना थीं तो पत्नी को संबोधित करते लिखनी चाहिए थीं , उम्र और साहित्य का तकाजा तो यही कहता है .  दूसरे यह आइडिया दरअसल में हमारे यशस्वी नेता चाचा नेहरू का है जो जेल से अपनी बेटी आपातकाल की आविष्कारक इन्दिरा गांधी को पत्र लिखा करते थे . यह प्रसंग राजनैतिक इतिहास में लेटर्स टू डाटर के नाम से जाना जाता है .

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अपने कथ्य में मोदी ने कहा है कि हर कोई विचार अभिव्यक्त करता है और जब सब कुछ उड़ेलने की इच्छा तीव्र होती है तो कलम और कागज उठाने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता .  लिखना जरूरी नहीं है बल्कि आत्मावलोकन है . अभी यह किताब ई बुक की शक्ल में आएगी बाद में मुमकिन है प्रिंट भी आए .

कहते हैं कवि हृदय बड़ा भावुक होता है उम्मीद है यह संग्रह उन लोगों के मुंह बंद कर देगा जो मोदी को हिटलर बताते रहते हैं . जो भी हो यह संग्रह तहलका तो मचाएगा क्योंकि कविताओं में असल में भाव क्या हैं यह अभी भावना सोमाया के अलावा इने गिने लोग ही जानते हैं .

Satyakatha: 4 साल बाद

सौजन्या-सत्यकथा

इलाहाबाद (प्रयागराज) के वेणीमाधव मंदिर के आसपास का इलाका धनाढ्य लोगों का है. इसी इलाके की वेणीमाधव मंदिर वाली गली में उमा शुक्ला का परिवार रहता था. उन के 3 बच्चे थे, एक बेटा भोला और 2 बेटियां निशा और रचना. पति की मृत्यु के

बाद परिवार को संभालने की जिम्मेदारी उमा ने ही उठाई. जब बेटा भोला बड़ा हो गया तो उमा शुक्ला को थोड़ी राहत मिली.

रचना उमा शुक्ला की छोटी बेटी थी, थोड़े जिद्दी स्वभाव की. उस दिन साल 2016 के अप्रैल की 16 तारीख थी. समय सुबह के 10 बजे. रचना जींस और टौप पहन कर कहीं जाने की तैयारी कर रही थी. मां ने पूछा तो बोली, ‘‘थोड़ी देर के लिए जाना है, जल्दी लौट आऊंगी.’’

उमा शुक्ला कुछ पूछना चाहती थीं, लेकिन रचना बिना मौका दिए अपनी स्कूटी ले कर बाहर निकल गई. बड़ी बेटी निशा पहले ही कालेज जा चुकी थी.

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थोड़ी देर में लौटने को कह कर रचना जब 2 घंटे तक नहीं लौटी तो उमा शुक्ला को चिंता हुई. उन्होंने फोन लगाया तो वह स्विच्ड औफ मिला. इस के बाद तो उमा का फोन बारबार रिडायल होने लगा. उन्होंने रचना के कालेज फ्रैंड्स को भी फोन किए, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला.

शाम होतेहोते जब बेटा भोला शुक्ला और बेटी निशा लौट आए तो उन्होंने सुबह गई रचना के अभी तक नहीं लौटने की बात बताई. निशा और भोला ने भी रचना का फोन ट्राई किया, उस के दोस्तों से भी पता किया लेकिन रचना का पता नहीं चला.

रचना को इस तरह लापता देख भोला ने थाना दारागंज में उस की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखा दी. मां, बेटा और बहन निशा रात भर इस उम्मीद में जागते रहे कि क्या पता रचना आ जाए.

अगले दिन 17 अप्रैल को अखबारों में एक खबर प्रमुखता से छपी कि प्रतापगढ़-वाराणसी मार्ग पर हथीगहां के पास एक लड़की की अधजली लाश मिली है. लाश का जो हुलिया बताया गया था, वह काफी हद तक रचना से मिलता था.

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यह खबर पढ़सुन कर उमा शुक्ला का कलेजा दहल गया. फिर भी मन में कहीं थोड़ी सी उम्मीद  थी कि संभव है, लाश किसी और की हो. कई बार निगाहें धोखा खा जाती हैं.

इसी के मद्देनजर भोला अलगअलग 4-5 अखबार खरीद लाया था ताकि खबरों और फोटो को ठीक से जांचापरखा जा सके. अखबारों में छपी खबर और फोटो में कोई फर्क नहीं था. इस से उमा शुक्ला और भोला इस बात पर विश्वास नहीं कर पा रहे थे कि लाश रचना की है.

इस पर मांबेटे सारे अखबार ले कर थाना दारागंज जा पहुंचे और तत्कालीन थानेदार विक्रम सिंह से मिले. उमा शुक्ला ने जोर दे कर विक्रम सिंह को बताया कि लाश उन की बेटी रचना की है और उस का हत्यारा है सलमान.

उन्होंने यह भी कहा कि अगर सलमान को पकड़ कर ठीक से पूछताछ की जाए तो सच्चाई सामने आ जाएगी. लेकिन विक्रम सिंह हत्या के मामले में पूरी तरह आश्वस्त नहीं थे, वह यह मान कर चल रहे थे कि रचना जिंदा भी तो हो सकती है. उन्होंने उन दोनों को समझा दिया कि हथिगहां में मिली लाश रचना की नहीं है. वह जिंदा होगी और लौट आएगी.

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विक्रम सिंह ने उमा शुक्ला से एक लिखित शिकायत ले ली और मांबेटी को समझा कर घर भेज दिया. लेकिन आरोपी का नाम बताने के बावजूद पुलिस ने अगले 2-3 दिन तक रचना के मामले में कोई रुचि नहीं ली. इस पर उमा शुक्ला और भोला एसपी (सिटी) बृजेश श्रीवास्तव से मिले. दोनों ने उन्हें पूरी बात बताई तो बृजेश श्रीवास्तव ने थानाप्रभारी विक्रम सिंह को इस मामले में तुरंत काररवाई करने को कहा.

इस का लाभ यह हुआ कि पुलिस ने गुमशुदगी की रिपोर्ट को अपहरण की धाराओं 363, 366 में तरमीम कर के सलमान व अन्य को आरोपी बना दिया.

पुलिस का ढुलमुल रवैया

मुकदमा तो दर्ज हो गया, लेकिन पुलिस ने किया कुछ नहीं. आरोपी सलमान की गिरफ्तारी तो दूर पुलिस ने उस से पूछताछ तक नहीं की. इस की वजह भी थी. सलमान इलाहाबाद के रईस व्यवसायी साजिद अली उर्फ लल्लन का एकलौता बेटा था.

पुलिस और नेताओं तक पहुंच रखने वाले लल्लन मियां अपने परिवार के साथ थाना दारागंज क्षेत्र के मोहल्ला बक्शी खुर्द में रहते हैं. उन के पास पैसा भी था और ऊपर तक पहुंच भी.

बात 2015 की है. जब भी रचना किसी काम से घर से बाहर निकलती थी, तो इत्तफाकन कहिए या जानबूझ कर सलमान उस के सामने पड़ जाता था. जब भी वह खूबसूरत रचना को देखता तो उस पर फब्तियां कसता, छेड़छाड़ करता. उस समय उस के साथ कई दोस्त होते थे. यह सब देखसुन कर रचना चुपचाप निकल जाती थी.

सलमान के खास दोस्तों में मीरा गली का रहने वाला लकी पांडेय और सलमान का ममेरा भाई अंजफ थे. अंजफ पहले सलमान के पड़ोस में रहता था. बाद में उस का परिवार कर्नलगंज थाना क्षेत्र के बेलीरोड, जगराम चौराहा के पास रहने लगा था. तीनों हमप्याला, हमनिवाला थे. तीनों साथसाथ घूमते थे. लकी पांडेय और अंजफ सलमान के पैसों पर ऐश करते थे.

रचना सलमान की आए दिन छेड़छाड़ से तंग आ गई थी. एक दिन उस ने मां को सलमान द्वारा छेड़ने की बात बता दी. किसी तरह यह बात भोला के कानों तक पहुंच गई. यह सुन कर उस के तनबदन में आग लग गई. उस ने बहन को परेशान करने वाले सलमान को सबक सिखाने की ठान ली.

एक दिन भोला ने सलमान को रास्ते में रोक कर उग्रता से समझाया, ‘‘जिस लड़की को तुम जातेआते छेड़ते हो, वो मेरी छोटी बहन है. अपनी आदत सुधार लो सलमान, तुम्हारी सेहत के लिए अच्छा रहेगा. मैं तुम्हें पहली और आखिरी बार समझा रहा हूं.’’

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सलमान को किसी ने पहली बार उसी के इलाके में धमकाया था. वह ऐसी धमकियों की चिंता नहीं करता था. भोला के चेताने पर भी सलमान पर कोई असर नहीं हुआ. अब राह में जातीआती रचना को वह पहले से ज्यादा तंग करने लगा.

जब पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगा तो रचना से सहन नहीं हुआ. उस ने सलमान के खिलाफ थाना दारागंज में छेड़खानी की रिपोर्ट दर्ज करा दी. लेकिन सलमान के पिता साजिद अली की पहुंच की वजह से पुलिस उस पर हाथ डालने से कतराती रही. भोला के कहनेसुनने पर पुलिस ने दोनों पक्षों के बीच समझौता करा दिया.

समझौते के बाद भोला और उस की मां उमा शुक्ला ने बेटी की इज्जत की खातिर पिछली बातों को भुला दिया. लेकिन घमंडी सलमान इसे आसानी से भूलने वाला नहीं था. उस के मन में अपमान की चिंगारी सुलग रही थी.

बहरहाल, मार्च 2017 में प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार बनी तो उमा शुक्ला को उम्मीद की किरण दिखाई दी. उम्मीद की इसी किरण के सहारे उमा शुक्ला ने योगी आदित्यनाथ को एक शिकायती पत्र भेजा. योगीजी ने उस पत्र का संज्ञान लिया और रचना शुक्ला अपहरण कांड की जांच स्पैशल टास्क फोर्स से कराने के आदेश दे दिए. थाना पुलिस ने रचना शुक्ला कांड की फाइल ठंडे बस्ते में डाल दी थी.

एसटीएफ ने रचना शुक्ला अपहरण कांड की जांच शुरू तो की, लेकिन बहुत धीमी गति से. फलस्वरूप नतीजा वही रहा ढाक के तीन पात. एसटीएफ भी यह पता नहीं लगा सकी कि रचना जिंदा है या मर चुकी. अगर जिंदा है तो 3 साल से कहां है या आरोपी ने उसे कहां छिपा रखा है.

एसटीएफ की जांच की गति देख कर उमा शुक्ला का इस जांच से भी भरोसा उठ गया. अब उन के लिए न्यायालय ही एक आखिरी आस बची थी. उमा शुक्ला ने दिसंबर, 2019 के दूसरे सप्ताह में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की. याचिका में उन्होंने लिखा कि उन की बेटी का अपहरण हुए 4 साल होने वाले हैं. पुलिस अब तक बेटी के बारे में पता नहीं लगा सकी. आरोपी समाज में छुट्टे घूम रहे हैं.

हाईकोर्ट पहुंची उमा शुक्ला

हाईकोर्ट ने इस मामले को संज्ञान में लिया और 6 जनवरी, 2020 को एसएसपी एसटीएफ राजीव नारायण मिश्र और वर्तमान थानाप्रभारी दारागंज आशुतोष तिवारी को फटकार लगाई. साथ ही 15 दिनों के अंदर रचना शुक्ला के बारे में कारगर रिपोर्ट पेश करने का आदेश दिया.

हाईकोर्ट के आदेश के बाद एसएसपी राजीव नारायण मिश्र ने एएसपी नीरज पांडेय को आड़े हाथों लिया और काररवाई कर के जल्द से जल्द रिपोर्ट देने का सख्त आदेश दिया. कप्तान के सख्त रवैए से पुलिस ने रचना शुक्ला कांड से संबंधित पत्रावलियों का एक बार फिर से अध्ययन किया.

जांचपड़ताल में उन्होंने सलमान और उस के दोस्त लकी पांडेय को संदिग्ध पाया. अंतत: पुलिस ने 19 जनवरी, 2020 की सुबह सलमान और लकी पांडेय को पूछताछ के लिए हिरासत में ले लिया. दोनों को गुप्त स्थान ले जा कर पूछताछ की गई.

शुरू में सलमान एएसपी नीरज पांडेय पर अपनी ऊंची पहुंच का रौब झाड़ने लगा, लेकिन उन के एक थप्पड़ में उसे दिन में तारे नजर आने लगे. सलमान उन के पैरों में गिर गया. उस ने अपना जुर्म कबूल करते हुए कहा, ‘‘सर, हमें माफ कर दीजिए. हम से बड़ी भूल हो गई. करीब 4 साल पहले मैं ने, लकी और अपने ममेरे भाई अंजफ के साथ मिल कर रचना की गला रेत कर हत्या कर दी थी. 4 साल पहले हथिगहां में मिली लाश रचना की ही थी.’’

इस के बाद सलमान परतदरपरत हत्या के राज से परदा उठाता चला गया. करीब 4 सालों से राज बनी रचना शुक्ला की हत्या हो चुकी थी. पता चला सलमान और रचना एकदूसरे को प्यार करते थे.

सलमान ने अपनी इस तथाकथित प्रेमिका को मौत के घाट उतार दिया था. रचना शुक्ला के अपहरण और हत्या से परदा उठते ही एसएसपी एसटीएफ राजीव नारायण मिश्र ने अगले दिन यानी 20 जनवरी को पुलिस लाइंस में पत्रकारवार्ता आयोजित की. प्रैस वार्ता में उन्होंने पत्रकारों के सामने रचना शुक्ला के अपहरण और हत्या के आरोपियों सलमान और उस के दोस्त लकी पांडे को पेश किया.

पत्रकारों के सामने सलमान और लकी पांडेय ने अपना जुर्म कबूल किया. साथ ही पूरी घटना भी बताई और वजह भी. रचना की हत्या क्यों और कैसे की गई थी, उस ने इस का भी खुलासा किया. रचना की हत्या की यह कहानी कुछ यूं सामने आई.

19 वर्षीय रचना शुक्ला भाईबहनों में सब से छोटी थी. रचना खूबसूरत युवती थी. जितनी देर तक वह घर में रहती, उस का ज्यादातर समय आइना देखने में बीतता था.

बक्शी खुर्द मोहल्ले के रहने वाले सलमान ने जब दूधिया रंगत वाली खूबसूरत रचना को जातेआते देखा तो वह उस पर मर मिटा. यह बात सन 2014 की है, तब रचना इंटरमीडिएट की छात्रा थी और उम्र थी 19 साल.

रचना उम्र के जिस पड़ाव को पार कर रही थी, वह ऐसी उम्र होती है, जब सहीगलत या अच्छेबुरे की जानकारी नहीं होती. रचना के लिए सलमान का प्यार शारीरिक आकर्षण से ज्यादा कुछ नहीं था.

सलमान एक अमीर बाप की बिगड़ी हुई औलाद था. उस के लिए पैसा कोई मायने नहीं रखता था. जब भी वह घर से बाहर निकलता, राह में कई चाटुकार दोस्त मिल जाते. उन की संगत में वह पैसे खर्च करता तो वे उसी का गुणगान करते.

रसिक सलमान की दिली डायरी में कई ऐसी लड़कियों के नाम थे, जिन के साथ वह मौजमस्ती करता था. इस के बावजूद वह मुकम्मल प्यार की तलाश में था, जहां उस की जिंदगी स्थिर हो जाए. एक ठहराव हो. रचना को देखने के बाद सलमान को अपना सपना पूरा होता लगा. उसे जिस प्यार की तलाश थी, वह रचना पर आ कर खत्म हो गई.

सलमान का प्यार एकतरफा था, क्योंकि इस के लिए रचना ने अपनी ओर से हरी झंडी नहीं दी थी. बाद में जब उस ने सलमान की आंखों में अपने लिए प्यार देखा तो उस का दिल पसीज गया. सलमान घंटों उस के घर के पास खड़ा उस के दीदार के लिए बेताब रहता. रचना चुपकेचुपके सब देखती थी, आखिरकार उस का दिल भी सलमान पर आ गया और उस ने सलमान से इस बात का इजहार भी कर लिया.

पंछी की तरह फंस गई जाल में

फलस्वरूप दोनों का प्यार परवान चढ़ने लगा. दोनों ने प्यार में जीनेमरने की कसमें खाईं. सलमान तो निश्चिंत था, लेकिन रचना को यह चिंता सता रही थी कि घर वाले उन दोनों के प्यार को स्वीकार करेंगे या नहीं, क्योंकि दोनों की जाति ही नहीं धर्म भी अलगअलग थे. रचना की मां उमा शुक्ला कट्टर हिंदू थीं. वह बेटी के इस रिश्ते को कभी स्वीकार नहीं करतीं.

रचना ने सलमान को अपने मन की आशंका बता दी थी. वैसे भी बहुत कम लोग ऐसे हैं जो बेटे या बेटी की शादी दूसरे मजहब के लड़के या लड़की से करना चाहें. खैर, सलमान ने रचना को समझाया और सब कुछ वक्त पर छोड़ देने को कहा. साथ ही कहा कि हम जिएंगे भी एक साथ और मरेंगे भी एक साथ. सलमान की भावनात्मक बातें सुन कर रचना मन ही मन खुश हुई. इतनी खुश कि उस ने सलमान का गाल चूम लिया. सलमान कैसे पीछे रहता, उस ने रचना को बांहों में भर लिया.

सलमान से रचना सच्चे दिल से प्यार करती थी, लेकिन सलमान के मन में तो कुछ और ही चल रहा था. जिस दिन से उस ने रचना को अपनी बांहों में भरा था, उसी दिन से उस के मन में प्यार नहीं बल्कि वासना की आग धधकने लगी थी.

रचना ने सलमान की आंखों में दहकती वासना को महसूस कर लिया था. उस ने उस से कह भी दिया था कि जो तुम मुझ से चाहते हो, वह शादी के पहले संभव नहीं है.

मुझे ऐसी लड़की मत समझना, जो दौलत के लिए सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार हो जाती हैं.

जब से यह बात हुई थी, तब से रचना सलमान से थोड़ा बच कर रहने लगी थी. उस ने मिलना भी कम कर दिया था. सलमान यह सब सह नहीं पा रहा था. इस पर सलमान ने एक दांव खेला. उस ने अपने नाम पर एक स्कूटी खरीदी और रचना को गिफ्ट कर दी. यह देख रचना बहुत खुश हुई.

रचना स्कूटी ले कर घर पहुंची तो घर वाले यह सोच कर हैरान हुए कि उस के पास स्कूटी कहां से आई. घर वालों ने रचना से स्कूटी के बारे में पूछा तो उस ने झूठ बोल दिया कि एक दोस्त की है. कुछ दिनों के लिए वह शहर से बाहर गई है. उस ने स्कूटी मुझे चलाने के लिए दी है. जब वापस लौट आएगी, मैं उसे लौटा दूंगी. बात वहीं की वहीं रह गई.

सलमान ने जो सोच कर रचना को स्कूटी दी थी, वह संभव नहीं हो पाया. स्कूटी हड्डी बन कर उस के गले में अटकी रह गई. महीनों बाद रचना ने प्यार का दम भरने वाले सलमान के सामने एक प्रस्ताव रखा.

उस ने स्कूटी को अपने नाम पर स्थानांतरित कराने के लिए कहा तो सलमान उसे घुमाते हुए बोला, ‘‘जब हम दोनों एक होने वाले हैं तो स्कूटी चाहे तुम्हारे नाम हो या मेरे, क्या फर्क पड़ता है. वक्त आने दो स्कूटी तुम्हारे नाम करा दूंगा. चिंता क्यों करती हो.’’

सलमान की यह बात रचना की समझ में नहीं आई. वह अपनी मांग पर अड़ी रही. सलमान इस के लिए तैयार नहीं हुआ. साथ जीनेमरने की कसमें खाने वाले सलमान का नकली चेहरा सामने आ गया था. जिस वासना की चाहत में उस ने रचना को स्कूटी दी थी, उस रचना ने उस की आंखों में वासना की आग देख ठेंगा दिखा दिया.

इस बात को ले कर दोनों के बीच विवाद भी हुआ. सलमान ने रचना को भलाबुरा कहा तो रचना भी पीछे नहीं रही. उस ने सलमान को उस के दोस्तों के सामने ही जलील किया. रचना यहीं चुप नहीं बैठी, उस ने सलमान के खिलाफ दारागंज थाने में छेड़छाड़ का मुकदमा दर्ज करा दिया.

मुकदमा दर्ज होने के बाद रचना और सलमान के बीच दूरियां बढ़ गईं. दोनों ने एकदूसरे से मिलना बात करना बंद कर दिया. रचना ने अपने घर वालों को बता दिया कि सलमान नाम का लड़का उसे छेड़ता है. बहन की बात सुन कर भाई भोला का खून खौल उठा. उस ने सलमान को धमका कर बहन की तरफ न देखने और उस से दूर रहने की हिदायत दे दी.

इंतकाम की आग

रचना ने सलमान के साथ जो किया, वह उसे काफी नागवार लगा. वह अपमान की आग में झुलस रहा था. उस ने यह कभी नहीं सोचा था, रचना उस के साथ ऐसी घिनौनी हरकत भी कर सकती है. तभी उस ने दृढ़ निश्चय कर लिया कि जब तक वह रचना से अपने अपमान का बदला नहीं ले लेगा, तब तक उस के इंतकाम की आग ठंडी नहीं होगी. लेकिन सवाल यह था कि वह रचना से दोबारा कैसे मिले ताकि फिर से दोस्ती हो जाए और वह उसे विश्वास में ले कर अपना इंतकाम ले सके.

जैसेतैसे सलमान ने रचना तक अपना संदेश भिजवाया कि वह एक बार आ कर मिल ले. वह उस से मिल कर माफी मांगना चाहता है. रचना सलमान की बात मान गई और उसे माफ कर दिया. यही नहीं दोनों फिर से पहले की तरह मिलने लगे. सलमान यही चाहता भी था. उस ने रचना को अपने खतरनाक इरादों की भनक तक नहीं लगने दी.

इस बीच 3-4 महीने बीत गए. रचना पर फिर से सलमान के इश्क का जादू चल गया. सलमान को इसी का इंतजार था. सलमान ने अपने दोस्तों लकी पांडेय और ममेरे भाई अंजफ से बात कर के रचना को रास्ते से हटाने की बात की. लकी और अंजफ उस का साथ देने को तैयार हो गए.

तीनों ने मिल कर योजना बनाई कि रचना को किसी तरह सलमान के घर बुलाया जाए और उस का काम तमाम कर के लाश नदी में फेंक दी जाए. इस से किसी को पता भी नहीं चलेगा और वे लोग पुलिस से भी बचे रहेंगे.

योजना बन जाने के बाद सलमान ने 16 अप्रैल, 2016 की अलसुबह रचना को फोन कर के सुबह 10 बजे रेलवे स्टेशन पर मिलने के लिए कहा.

अपनी स्कूटी ले कर रचना ठीक 10 बजे सलमान से मिलने स्टेशन पहुंच गई. सलमान वहां मौजूद मिला. उस ने रचना की स्कूटी प्रयागराज स्टेशन के स्टैंड पर खड़ी कर दी और उसे अपनी बाइक पर बैठा कर बक्शी खुर्द स्थित अपने घर ले गया. उस के घर में बेसमेंट था.

सलमान रचना को बेसमेंट में ले गया. वहां लकी और अंजफ पहले से मौजूद थे. उन्हें देख रचना खतरे को भांप गई.

उस ने वहां से भागने की कोशिश की लेकिन उन तीनों ने उसे दौड़ कर पकड़ लिया और उस के हाथपांव रस्सी से बांध दिए. फिर सलमान ने चाकू से उस का गला रेत कर हत्या कर दी.

लाश ठिकाने लगाने के लिए सलमान ने अपने मामा शरीफ को फोन किया. शरीफ फौर्च्युनर ले आया. चारों ने मिल कर लाश जूट के बोरे में भर दी. इस के बाद कपड़े से कमरे में फैला खून साफ कर दिया.

रचना की लाश जूट की बोरी में भर कर फौर्च्युनर में लाद दी गई. सलमान और उस के मामा शरीफ सहित चारों लोग पहले नैनी की तरफ गए. इरादा था लाश को यमुना में फेंकने का, लेकिन 5 घंटे तक भटकने के बाद भी उन्हें मौका नहीं मिला.

इस के बाद ये लोग नवाबगंज की तरफ निकल गए. लेकिन वहां भी लाश को गंगा में फेंकने का मौका नहीं मिला. इन लोगों ने प्रयागराज की सीमा के पास प्रतापगढ़, वाराणसी राष्ट्रीय राजमार्ग पर रचना की लाश हथिगहां के पास सड़क किनारे फेंक दी और सब लौट आए.

इस के बाद सलमान बाइक से फिर वहां गया. उस के पास एक बोतल पैट्रोल था. उस ने रचना की लाश पर पैट्रोल डाला और आग लगा दी, ताकि लाश पहचानी न जा सके, लौट कर उस ने रचना की स्कूटी सोरांव के एक परिचित के गैराज में खड़ी कर दी.

बाद में जो हुआ, जगजाहिर है. सलमान और उस के पिता ने पैसों के बल पर पुलिस को अपने पक्ष में कर लिया.

रचना के केस की पैरवी कर रहे उस के भाई भोला को साल 2018 में सामूहिक दुष्कर्म के आरोप में फंसा कर जेल भिजवा दिया

गया था. इस पर भी रचना के घर वालों ने हार नहीं मानी.

रचना की छोटी बहन निशा शुक्ला ने पैरवी करनी शुरू की. आखिरकार हाईकोर्ट की चाबुक से पुलिस की नींद टूटी और आरोपियों को जेल जाना पड़ा.

सलमान और लकी के गिरफ्तार होने के 3 दिनों बाद थाना दारागंज के थानेदार आशुतोष तिवारी ने अंजफ को और 20 दिनों बाद मामा शरीफ को दारागंज से गिरफ्तार कर लिया.

करीब 4 सालों से जिस रचना शुक्ला की हत्या रहस्य बनी थी, आरोपियों की गिरफ्तारी से सामने आ गई.

अगर पुलिस पीडि़ता उमा शुक्ला की बातों पर विश्वास कर लेती तो घटना के दूसरे दिन ही चारों आरोपी गिरफ्तार हो जाते और इस समय अपने गुनाह की सजा काट रहे होते. बहरहाल, देर से ही सही आरोपी जेल की सलाखों के पीछे चले गए.

गृहप्रवेश- भाग 1: उज्ज्वल किसकी तरफ आकर्षित हो रहा था?

पीड़ा और विश्वासघात या तो पराजित कर देते हैं या एक शक्ति प्रदान करते हैं. और वह शक्ति वेदना को प्रेरणा की दृष्टि प्रदान कर देती है. आज सोचती हूं तो लगता है, किन परिस्थितियों में मैं ने अपने स्वप्नों की मृत्यु को होते देखा और फिर अपनी बुझती जीवनज्योति को फूंकफूंक कर कुछ देर और जीवित रखने की चेष्टा करती रही.

मैं बचपन से ही साहसी रही हूँ. मेरे मम्मीपापा मेरा विवाह विनय से करना चाहते थे. शूरू में मुझे भी विवाह से कोई आपत्ति नहीं थी. मेरे एमएड पूरा होने के बाद हमारा विवाह होना तय हुआ. सरल स्वभाव का विनय मेरा अच्छा मित्र था. किंतु हमारे मध्य प्रेम जैसा कुछ नहीं था. उस समय मेरा मानना था कि मित्रता, विवाह के पश्चात प्रेम का रूप खुद ही ले लेगी. परंतु तब मैं कहां जानती थी कि प्रेम एक ऐसी वृष्टि का नाम है जो अबाध्य है. जब उज्ज्वल नाम का एक बादल मेरे तपते जीवन में ठंडक ले कर आया, मैं पिघलती चली गई थी.

मेरा बंजर ह्रदय उज्ज्वल के प्रेम की वर्षा में भीग गया और मम्मीपापा के निर्णय के खिलाफ़ जा कर मैं ने उज्ज्वल से विवाह कर लिया था. हमारे विवाह के समय तक मेरी नौकरी एडहौक टीचर के रूप में एक प्राइवेट कालेज में लग गई थी. उज्ज्वल चार्टर्ड अकाउंटेंट था. थोड़े से विरोध के बाद दोनों परिवारों ने हमारा रिश्ता मंजूर कर लिया. हम प्यार में थे, खुश थे.

परिवर्तन एक दैनिक प्रक्रिया है. हमारा जीवन भी बदला. विवाह के 12 वर्ष सपनों की नदी पर नंगेपैर चलते हुए पार हो गए.

उज्ज्वल के नाम और काम दोनों में बढ़ोतरी हुई. उस ने   अपना कर्मस्थल लखनऊ से बदल कर इंदौर कर लिया. और मैं ! मेरे वर्क प्रोफाइल में भी परिवर्तन आया था. पार्टटाइम शिक्षिका के स्थान पर अब मैं फुलटाइम प्रशिक्षक बन गई थी. मैं मां भी बन गई थी.

स्त्री के भीतर एक मां का जन्म कोई सामान्य घटना नहीं होती. एक बालिका जब एक युवती, बनती है और जब यही युवती एक प्रेयसी बनती है, तो उस का हृदय अनेक भावनात्मक परिवर्तनों से हो कर गुजरता है. हृदय और शरीर में संघर्ष होता है, और फिर इन की इच्छाओं व संवेदनाओं का परस्पर मिलन हो जाता है.

किंतु जब प्रेयसी मां बनती है तो परिवर्तनों के एक अथवा दो नहीं, बल्कि अनेक स्याह गुफाओं  से हो कर आगे बढ़ती है. गर्भावस्था के प्रथम प्रहर में एक प्रेयसी खुद को मां के रूप में स्वीकार ही नहीं कर पाती. फिर शरीर में आ रहे परिवर्तन उसे एक नवजीवन का, खुद के भीतर अनुभव प्रदान करते हैं. मातृत्व की यह भावना शब्दों के परे होती है. मात्र शिशु को जन्म दे देने से कोई महिला मां नहीं बन जाती, खुद के भीतर मातृत्व का जन्म होना आवश्यक है.

मेरे बेटे स्नेह का जन्म हुआ और मुझे लगा, मेरी जीवन की बगिया में वसंत खिल रहा हो. किंतु, मैं अपनी बगिया के अंतिम कोने में छिप कर बैठे पतझड़ को देख ही नहीं पाई, और जब देखा, वसंत जा चुका था.

हर घर की एक गंध होती है. किंतु, इसे ववह ही पढ़ सकता है, जिस ने घर की दीवारों और वस्तुओं से ले कर, रिश्तों को भी सजाने व संवारने में अपने सौरभ बिखेरा हो. इसलिए, अपने घर में उस अनाधिकार प्रवेश करने वाली अजनबी गंध को मैं ने भांप लिया था.

कुछ दिन इसे अपनी भूल समझ, मैं ने स्वीकार नहीं किया. लेकिन जब यह जिद्दी गंध अपनी उपस्थिति उज्ज्वल की कमीज पर छोड़ने लगी, तो मैं चुप न रह सकी.

‘तुम कोई नया परफ्यूम लगा रहे हो?’

‘नहीं तो, क्यों?’

गालों पर शेविंग क्रीम लगी होने के कारण चेहरे के भाव स्पष्ट नहीं थे, अलबता आंखें कुछ चुगली कर रही थीं. मैं उस की आंखों के संदेश को पढ़ने का प्रयास कर ही रही थी कि उज्ज्वल अपने गीले चेहरे को मेरे गालों पर मलते हुए बोला – ‘हमारी सांसों में तो आज भी आप महकती हैं. जिस के पास बगीचा हो वह कागज के फूलों में खुशबू क्यों ढूंढेगा’

मेरा मुखमंडल लज्जा से अरुण हो आया. प्यार से ‘धत…’ कह कर मैं ने उसे धकेल दिया और रसोई में नाश्ता बनाने चली गई थी.

अचानक मेरा हृदय कागज के फूल सा हलका हो कर उज्ज्वल के प्रति असीम कृतज्ञता से छलक उठा था. कैसी मूर्ख थी मैं, इतना प्यार करने वाले पति पर अविश्वास किया.

मेरी बुद्धि मेरे विश्वास को एक गुमनाम पत्र लिख चुकी थी. सबकुछ ऊपर से सामान्य नजर आ रहा था, लेकिन मेरे भीतर कुछ दरक गया था. मेरी नजरें जैसे कुछ तलाशती रहतीं. एक मालगाड़ी की तरह बिना किसी स्टेशन पर रुके, चोरों की भांति उज्ज्वल को निहारते, मैं जी रही थी. कभीकभी खुद के गलत होने का अनुभव भी होता.

फिर जब एक दिन ऐसा लगने लगा कि मैं इधरउधर से आई पटरियों के संगम पर हताश खड़ी हूँ,  तो दूर किसी इंजन की सर्चलाइट चमकी थी.

हम ने स्नेह के 10वें जन्मदिन पर शानदार पार्टी का आयोजन किया था. शाम होते ही मेहमान आने लगे थे. मैं और उज्ज्वल एक अच्छे होस्ट की तरह सभी का स्वागत कर रहे थे. तभी जैसे उज्ज्वल की आंखों में एक सुनहरी पतंग सी चमक गई, और उस के होंठों ने गोलाकार हो कर एक नाम पुकारा – ‘मो…’

मैं नाम तो नहीं सुन नहीं पाई लेकिन उस सुनहरी पतंग की डोरी को थामे उस चेहरे तक अवश्य पहुंच गई थी, जिस के हाथों में मांझा था. वहां मोहिनी मजूमदार खड़ी थी. उज्ज्वल के बचपन के दोस्त दीपक मजूमदार की पत्नी. उस की बेटी सारा, स्नेह की क्लास में ही पढ़ती थी.

अपने अंदर की शंका के सर्प को मैं ने डांट कर सुला दिया और अतिथियों के स्वागत में व्यस्त हो गई थी. केक कटा, गेम्स हुए और फिर खाना लगा.

कभीकभी नारी ही नारी के लिए जटिल पहेली बन जाती है, तो कभीकभी उस पहेली का हल भी. शंका के जिस विषम सर्प को मैं ने सुला दिया था, मोहिनी ने उसे जगा दिया. मैं ने देखा,  गिलास थामने के साथसाथ मोहिनी की कांपती उंगलियां उज्ज्वल की उंगलियों को थाम कर दबा दे रही थीं. मैं ने वह भी देखा, खाने की मेज पर आमनेसामने बैठते ही मोहिनी के कोमल पैरों में उज्ज्वल के बलिष्ठ पंजों का बंदी बन जाना, परदे की आड़ का बहाना बना, जानबूझ कर उन का टकरा जाना, और फिर ‘सौरीसौरी’ कह एकदूसरे को देख चुपके से चुंबन उछाल देना.

मैं यह सब देख रही थी. सहसा मेरी तरफ देख कर मोहिनी ने एक आंख मूंद ली. तब मैं ने जाना कि वह चाहती थी कि मैं देखूं. उस की आंखों में जलते घमंड और वासना की ज्वाला ने मेरे वर्षों के प्रेम और समर्पण को भस्म कर दिया था.

मैं उज्ज्वल से कुछ पूछ ही नहीं पाई. शायद मैं डर रही थी कि मैं पूछूं और वह झूठ बोल दे या उस से भी बुरा, अगर वह सच बोल दे.

मैं ने एक बनावटी जीवन जीना आरंभ कर दिया. बनावटी जीवन एक समय बाद आप को ही परेशान करने लगता है. जब तक आप इस बात को समझ कर गंभीर होते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, क्योंकि तब आप की वास्वतिक भावनाएं न तो कोई देखना चाहता है और न ही आप खुद उन्हें समझ पाते हैं.

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प्यार के चक्कर में जिंदगी से खिलवाड़ करना समझदारी नहीं

टैलीविजन के न्यूज चैनलों और समाचारपत्रों में अकसर सुर्खियां बनती रहती हैं, जिन में किसी नवयुवक ने एकतरफा प्यार के चक्कर में किसी लड़की को चाकू मार दिया या उस के चेहरे पर तेजाब फेंक दिया. एकतरफा प्यार के चक्कर में पागलपन की सीमा तक दीवाने लड़के किसी लड़की का जीवन बरबाद करने तक में नहीं झिझकते. सालछह महीने की सजा काट कर वे फिर से स्वतंत्र घूमने लगते हैं.

आइए, कुछ घटनाओं पर नजर डालें :

31 अगस्त को बाहरी दिल्ली के मंगोलपुरी इलाके में एक व्यक्ति ने एक महिला के घर में घुस कर धारदार हथियार से हमला कर दिया. हमले में 50 वर्षीय महिला, उस का बेटा व बेटी गंभीर रूप से घायल हो गए. तहकीकात के बाद पुलिस ने हमलावर का नाम सोनू बताया है. सोनू उस महिला की बेटी से एकतरफा प्यार करता था जिस पर लड़की के परिवार वालों ने आपत्ति जताई थी.

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27 अगस्त को एक युवक ने एकतरफा प्यार में उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद विश्वविद्यालय की बीटेक थर्ड ईयर की छात्रा को कर्नलगंज चौराहे पर पैट्रोल छिड़क कर जिंदा जलाने की कोशिश की. आरोपी ने पुलिस को बताया कि उस छात्रा से उस की पुरानी दोस्ती थी. जब लड़की ने उस के प्यार को ठुकरा दिया तो आरोपी से बरदाश्त नहीं हुआ, उस ने छात्रा को जला कर मार देना चाहा.

6 अगस्त को एकतरफा प्यार में उत्तर प्रदेश के देवपुर स्थित बिंदेश्वरी जूनियर हाईस्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षक प्रमोद ने गंगोत्तरी आदर्श इंटर कालेज, महरामऊ में पढ़ने वाली 18 वर्षीय छात्रा सारिका को सिर्फ इस बात पर गोली मार दी क्योंकि उस ने शिक्षक के साथ बाइक पर बैठने से मना कर दिया था.

देशभर में ऐसी न जाने कितनी लड़कियों को एकतरफा प्यार के फेर में जान से हाथ धोना पड़ता है. एकतरफा इश्क में कुछ नवयुवक इतने दीवाने हो जाते हैं कि मासूम लड़कियों पर तेजाब तक फेंक देते हैं जिन का वास्तव में कोई कुसूर नहीं होता.

नवयुवकों के अपराध के पीछे कई कमजोरियां भी सामने आती हैं. अपराधी मौके से फरार हो जाता है. इस बीच अपराधी लड़की और उस के परिवार को धमकी दे कर अपने को बचा लेता है. ऐसे मामलों पर कोर्ट का फैसला आने में भी सालों लग जाते हैं जिस में लड़की के मातापिता कोर्ट और थाने के चक्कर काटतेकाटते परेशान हो जाते हैं.

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सामाजिक व्यवस्था के कारण लड़की के मातापिता लड़की के अपमान के डर से शांत रहना ही पसंद करते हैं. समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो लड़की को ही दोषी ठहराते हैं और सिरफिरे लड़कों को कुछ नहीं कहते. ऐसे में जब किसी लड़के को किसी का डर नहीं होता तो वह अपराध करने के लिए स्वतंत्र हो जाता है.

एकतरफा प्यार के चक्कर में नवयुवकों का कुछ बिगड़े या न बिगड़े, लड़कियों का भविष्य जरूर अंधकारमय हो जाता है. ऐसी ही दर्दभरी दास्तां नंदिनी की भी है. नंदिनी मेरे कालेज में सैकंड ईयर में पढ़ती थी. नंदिनी बैडमिंटन की बहुत अच्छी खिलाड़ी थी. उस ने कई अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया और मैडल्स भी जीते. इस बीच कालेज का एक सिरफिरा लड़का उस के पीछे दीवाना हो गया. नंदिनी को वह कालेज आतेजाते तंग करता था. परेशान हो कर नंदिनी ने कालेज जाना बंद कर दिया. तब वह लड़का उस के घर के आसपास चक्कर काटने लगा.

आखिर में परेशान हो कर नंदिनी के परिवार वालों ने इस बात की शिकायत पुलिस थाने में कर दी. परिवार वालों की शिकायत पर उस सिरफिरे को पुलिस पकड़ कर तो ले गई पर 2-3 दिन बाद वह सिरफिरा फिर से नंदिनी के घर के बाहर दिखाई देने लगा. नंदिनी के परिवार को समझ में आ गया कि पुलिस ने उस के खिलाफ कोई ऐक्शन नहीं लिया है. आखिरकार, नंदिनी के परिवार वालों को वह घर छोड़ कर कहीं और जाना पड़ा. कुछ दिन बाद पता चला कि नंदिनी के मातापिता ने डर कर नंदिनी की शादी कर दी.

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इस तरह नंदिनी का स्पोर्ट्स का कैरियर उस सिरफिरे लड़के के कारण बरबाद हो गया. नंदिनी की तरह न जाने कितनी ऐसी लड़कियों का कैरियर चौपट हो गया है. कोई कालेज जाना बंद कर देती है तो कोई उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाती तो किसी की शादी कर दी जाती है. कुल मिला कर उन के अरमानों पर पानी फिर जाता है. कई बार तो ऐसे दीवाने किसी दिन लड़की के ससुराल तक पहुंच जाते हैं. बात जब ससुराल तक पहुंचती है तो भला समाज या फिर ससुराल वाले लड़की को कहां जीने देते हैं. उस लड़की पर न जाने क्याक्या लांछन लगाए जाते हैं. कई बार नौबत तलाक तक पहुंच जाती है.

प्रशासन की तरफ से तो समयसमय पर पत्रपत्रिकाओं या अन्य दूसरे माध्यमों से सूचना दी जाती है कि यदि कोई आप को बारबार फोन कर के आप से अभद्र व्यवहार करता है, अश्लील बातें करता है तो आप पुलिस के एक विशेष नंबर पर शिकायत कर सकते हैं लेकिन प्यार में पागल ये सिरफिरे पीसीओ से फोन करते हैं जहां पर उन लड़कों को पकड़ना थोड़ा मुश्किल हो जाता है. शहरों में तो फिर भी पुलिस सर्विलांस के जरिए उन्हें पकड़ लेती है लेकिन गांवकसबे या छोटे शहरों में ऐसे लड़कों को पकड़ना मुश्किल होता है.

एकतरफा प्यार के लिए फिल्में भी कम जिम्मेदार नहीं हैं. फिल्मों में अकसर दिखाया जाता है कि एक फक्कड़, आवारा, मवाली लड़का स्कूल या कालेज में किसी धनी परिवार की लड़की से प्यार का चक्कर चलाता है और वह सफल हो जाता है लेकिन वास्तविक जीवन में ऐसा संभव नहीं होता क्योंकि हकीकत और फिल्मों में बहुत अंतर है.

मनोचिकित्सक के मुताबिक ऐसे नवयुवक किसी भी वस्तु या प्राणी पर बेवजह आधिपत्य दिखाता है और उसे हर हालत में हासिल करने को तत्पर रहता है. वे सोचनेसमझने की क्षमता खो बैठते हैं और कोई भी अपराध, कुकृत्य करने को तैयार रहते हैं. समाज में दिनोंदिन इस तरह की विकृति फैलती जा रही है. ऐसा लड़का न सिर्फ खुद को बरबाद करता है बल्कि अपने परिवार के साथसाथ उस लड़की और उस के घरवाले या फिर उस के ससुराल वालों का भी घर बरबाद कर देता है.

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बहरहाल, प्यार पर कोई जोर नहीं लेकिन प्यार किसी पर थोपा नहीं जा सकता और न ही जबरदस्ती प्यार करवाया जा सकता है. यह तो मन की बात है कि किसे कौन अच्छा लगता है और दूसरा उसे प्यार करता है या नहीं. वहीं, एकतरफा प्यार पर कोई कानून, समाज या परिवार रोक नहीं लगा सकता.

एकतरफा प्यार से जुड़ी वारदात के लिए प्यार करने वाला व्यक्ति काफी हद तक खुद जिम्मेदार होता है. दीवानगी की हद पार करने वाले इंसान को यह सोचना चाहिए कि जिस के लिए वह यह सब कर रहा है, यदि वह यह सब नहीं चाहती या चाहता तो बेवजह की कोशिशें कर अपना व परिवार का तमाशा बना कर समाज में स्वयं को क्यों बेइज्जत किया जाए?

फादर्स डे स्पेशल: मेरे पापा -2

लेखिकानमिता शर्मा

मेरे पापा अनुशासनप्रिय थे. पापा ने बचपन से हमें मातृविहीन होने के कारण मांपापा दोनों का प्यार दिया. बीमारी की अवस्था में मां का निधन मात्र 30 वर्ष में हो गया था. उन की अंतिम इच्छा थी कि उन के बच्चे खूब पढ़ें. लोगों की बहुत इच्छा थी कि पापा दूसरा विवाह कर लें, परंतु पापा ने हम बहनों की वजह से विवाह नहीं किया. उन्होंने हम लोगों के लालनपालन व हम लोगों की शिक्षादीक्षा में ही अपने को समर्पित कर दिया मेरी नानीमां भी हमारे साथ ही रहतीं थीं. उन की सेवा, अपनी नौकरी, सबकुछ उन्होंने बहुत व्यवस्थित ढंग से किया. आज हम भाईबहन सभी उच्च पदस्थ हैं. आज वे हमारे बीच नहीं है परंतु उन की स्मृतियां आज भी हमारा संबल हैं.

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मनोरमा अग्रवाल

*मेरी स्मृतियों में कैद है पापा के विविध रूप. उम्र तो याद नहीं, पर याद है सीढ़ी चढ़ना सिखाया पापा ने, बहुत छोटी थी तब. एक बार शायद मैं 7वीं में पढ़ती थी. पढ़ाई से जी चुराती थी. अगले दिन गणित का पेपर था. पापा सब्जी लाने बाजार चले गए. मैं जल्दी ही सो गई. पापा आए, उन्होंने मुझे गुस्से में नींद से उठाया. पढ़ने को बैठाया. उस समय बहुत बुरा लगा. लेकिन आज मैं 2 बढ़ती बेटियों की मां हूं. आज मैं समझ सकती हूं उस गुस्से में कितना प्यार, कितनी भविष्य की चिंता, मेरा कितना हित समाहित था. मैं एमए कर रही थी. मुझे पीलिया हुआ था. अपने हाथ से खिचड़ी खिलाते, दवा खिलाते पापा मुझे याद हैं.

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हम पति-पत्नी अपनी बेटियों के साथ खुश और संतुष्ट हैं. लेकिन आज भी कभीकभी लोगों की नजरों में मैं अपने लिए दया और बेचारगी का भाव देखती हूं. कभीकभी व्यंग्य और हिकारत भी. अब सोचती हूं तो आश्चर्य होता है कि कैसे उस समय 3 बेटियों पर परिवार को सीमित कर लेने के निर्णय पर पापा अडिग रह पाए होंगे. कैसे वे लोगों की दया, बेचारगी व व्यंग्यभरी नजरों का सामना करते होंगे. लेकिन शायद उन के लिए यह मुश्किल न रहा हो क्योंकि सत्य के प्रति उन का अत्यधिक आग्रह था. वे एक ईमानदार सरकारी कर्मचारी रहे हैं. अब रिटायरमैंट के बाद पैंशन पा रहे हैं. अपनी सीमित आय में उन्होंने हम बहनों की अच्छी परवरिश की. पापा को ले कर स्मृतियां अनंत हैं.

अपनी दुधारू गाय खुद तैयार कीजिए

छोटा पशुपालक किसान हो या डेरी चलाने वाला कोई कारोबारी, सब अपने पशुधन का बहुत खयाल रखते हैं, ताकि दूध देने के मामले में पशु नंबर वन रहे, यही बात गाय पर भी लागू होती है. यहां हम दुधारू गाय कैसे तैयार की जाती है, इस बारे में एक सीरीज चला रहे हैं, जिस में माहिर डाक्टर ने सस्ते और कारगर उपाय बताए हैं…

किसी भी डेरी की कामयाबी के लिए जरूरी है कि उस में अच्छी दुधारू गाएं हों. दुधारू गाएं बाजार से खरीद कर लाने से बेहतर है कि अपनी खुद की दुधारू गाय तैयार की जाए.?

आप के फार्म पर जो बछिया मौजूद है, अगर आप उस की सही देखभाल करेंगे, उसे सही मात्रा में पोषण उपलब्ध कराएंगे, तो बड़ी हो कर वही बेहतरीन दुधारू गाय बनेगी.

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पैदा होने वाली बछिया अच्छी दुधारू गाय बनेगी या नहीं, इस की नींव उस के पैदा होने से भी पहले पड़ जाती है. इस के लिए सब से खास है गर्भाधान. उस बछिया को पैदा करवाने के लिए गाय का गर्भाधान, जिस वीर्य से कराया गया है, उसी के मुताबिक आनुवंशिक गुणों वाली बछिया पैदा होगी. अगर अच्छी नस्ल के सांड़ के वीर्य से गर्भाधान करवाया गया है, तो पैदा होने वाली बछिया भी निश्चित रूप से उत्तम गुणवत्ता की होगी.

दूसरा अहम बिंदु है कि गर्भकाल के दौरान गाय को अगर समुचित पोषण उपलब्ध करवाया गया है, तो पैदा होने वाली बछिया का देह भार आशा के अनुरूप होगा और बाद में वह अच्छी दुधारू गाय के रूप में विकसित होगी. कम देह भार वाली बछिया भविष्य में अच्छी दुधारू गाय नहीं बन सकेगी.

तीसरा अहम बिंदु है कि पैदा होने के बाद नवजात बछिया का पोषण अगर सही से हुआ है, तो वह निश्चित रूप से अच्छी दुधारू गाय बनेगी.

चौथा अहम बिंदु है कि बढ़वार के दौरान उस बछिया को संतुलित पोषण उपलब्ध कराया जाना. अगर बछिया को सभी पोषक तत्त्व उस की आवश्यकता के अनुरूप दिए जाएंगे, तो उस की दैनिक बढ़वार संतोषजनक होगी और वह नियत समय तक उतना देह भार ग्रहण कर लेगी, जितना उस के गर्भाधान के लिए जरूरी है. इस के बाद समय पर ऋतुमयी हो कर गर्भधारण करेगी और एक बेहतरीन दुधारू गाय बनेगी.

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3 महीने की उम्र तक का समय अहम

बछिया के जन्म से ले कर 3 महीने की उम्र तक का समय सब से अहम होता है. बच्चा मां के पेट से बाहर निकल कर नए वातावरण में आता है, तो उसे तरहतरह के तनावों का सामना करना पड़ता है. ऐसी हालत में पोषण और प्रबंधन बहुत खास हो जाता है.

पैदा होने के तुरंत बाद उसे मां का दूध, जिसे खीस भी कहते हैं, पिलाया जाना बहुत जरूरी होता है. जन्म के पहले 4 घंटे के दौरान पिलाया गया खीस नवजात बछिया को बीमारियों से लड़ने की खास ताकत देता है, इसलिए इसे अमृत के समान कहा गया है.

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खीस में ऐसा क्या है?

खीस में एक विशेष प्रकार का प्रोटीन होता है. इसे इम्युनोग्लोबुलिंस कहते हैं. इम्युनोग्लोबुलिंस वे सिपाही हैं, जो बछिया के ऊपर किसी भी प्रकार के बैक्टीरिया या वायरस के हमले के समय लड़ते हैं और बछिया की उन तमाम बीमारियों से रक्षा करते हैं.

खीस में 70 फीसदी से 80 फीसदी तक इम्युनोग्लोबुलिंस ‘जी’ होते हैं, जो शरीर में प्रवेश करने वाले किसी भी रोगकारक को नष्ट कर देते हैं.

खीस में 10 फीसदी से 15 फीसदी तक इम्युनोग्लोबुलिंस ‘एम’ होते हैं. यह सैप्टिक फैलाने वाले बैक्टीरिया को खत्म करते है.

खीस में 15 फीसदी तक इम्युनोग्लोबुलिंस ‘ए’ होते है, जो बछिया की आंतों में चढ़े सुरक्षा कवच ‘म्यूकोसा’ को बचाते हैं और किसी भी रोगकारक के सामने ढाल बन कर खड़े हो जाते हैं.

सब से अहम बात यह है कि जन्म के पहले 4 घंटों में इन इम्युनोग्लोबुलिंस का बछिया की आंतों में अवशोषण सब से ज्यादा होता है. जैसेजैसे समय बीतता जाता है, आंतों की इन को अवशोषित करने की क्षमता घटती जाती है.

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इसलिए यह देखा गया है कि जिन बछियों को जन्म के पहले 4 घंटों के अंदर खीस नहीं मिलता है, उन के अंदर रोग ज्यादा लगते हैं और उन बछियों में मृत्युदर भी अपेक्षाकृत अधिक होती है.

खीस में इन इम्युनोग्लोबुलिंस के अलावा प्रोटीन, विभिन्न विटामिंस, मिनरल्स, ऊर्जा प्रदान करने वाले लैक्टोज और फैट होते हैं. इस के अतिरिक्त खीस में कुछ मात्रा में इंसुलिन हार्मोन और अन्य ग्रोथ फैक्टर (आईजीएफ-1) होते हैं, जो बछिया को ऊर्जा प्रदान करते हैं और उस की बढ़वार में सहायक होते हैं.

बछिया के जन्म से ले कर अगले 24 घंटे के दौरान गाय से निकलने वाले दूध को खीस कहते हैं और

24 से 72 घंटों के बीच निकलने वाले दूध को ट्रांजिशन मिल्क कहते हैं.

खीस और ट्रांजिशन मिल्क का संगठन सामान्य दूध से अलग होता है. 72 घंटों के बाद निकलने वाले दूध का संगठन बदल जाता है और इसे सामान्य दूध कहते हैं. इस सामान्य दूध को ही बेचा जाता है.

 4 घंटों के अंदर खीस पिलाया जाना जरूरी

नवजात बछिया को जन्म के 4 घंटों के अंदर खीस पिलाया जाना बहुत जरूरी है. जिन बछियों को इन पहले 4 घंटों के दौरान खीस नहीं पिलाया जाता, उन के जिंदा रहने की संभावना कम हो जाती है. अगर वे जिंदा रहें भी तो वे अच्छी दुधारू गाय बन ही नहीं सकतीं.

बछिया जब पैदा होती है, तो उस की अपनी कोई रोग प्रतिरोधकता नहीं होती है, जिस के कारण वह बहुत जल्दी किसी भी रोग की चपेट में आ सकती है. खीस उसे रोग प्रतिरोधकता प्रदान करता है और उस के खुद के रोग प्रतिरोधक तंत्र को विकसित करने में सहायता प्रदान करता है.

जब बछिया पैदा होती है तो उस के पास न तो पर्याप्त ग्लाइकोजन स्टोर होता है और न ही इतना फैट होता है कि इन दोनों के उपापचय से बछिया को जीने के लिए पर्याप्त ऊर्जा मिल जाए. इस समय बछिया को ऊर्जा मिलती है खीस से ही. खीस में मौजूद कुल सौलिड का तकरीबन 5वां हिस्सा आसानी से पचने योग्य फैट होता है. इसी फैट के पाचन से बछिया को आवश्यक ऊर्जा मिलती है और उस की वृद्धि होती है.

बछिया मां के पेट के अंदर हमेशा एक निश्चित वातावरण और तापमान में रही है. पेट से बाहर आने के बाद वातावरण का तापमान भिन्न होता है. खीस के कारण ही बछिया उस तापमान से तालमेल बैठा पाती है.

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एक स्टडी में तो यहां तक पाया गया है कि खीस पीने के 1 घंटे बाद बछिया के शरीर का तापमान 15 फीसदी तक बढ़ जाता है.

खीस में मौजूद इम्युनोग्लोबुलिंस का अवशोषण वैसे तो अगले 16 घंटों तक होता रहता है, मगर सर्वाधिक अवशोषण पहले

4 घंटों में ही होता है. बछिया को इन पहले

4 घंटों में खीस न पिलाने से उसे जीवन के पहले एक महीने के दौरान श्वसन तंत्र के रोगों से सामना करना पड़ेगा और 30 फीसदी मामलों में बछिया की मौत तक हो जाती है.

इम्युनोग्लोबुलिंस के अलावा खीस में ‘लैक्टोफेरिन’ पाया जाता है, जिस के कारण बछिया विभिन्न बैक्टीरिया, फंगस, वायरस और प्रोटोजोआ के हमलों से बची रहती?है. इसी के कारण बछिया में डायरिया के कारण होने वाली मौतों पर भी लगाम लगती है.

बछिया जब पैदा होती है, तो उस की आंतों में कोई भी लाभकारी माइक्रोफ्लोरा नहीं होता है. खीस में कुछ खास लाभकारी बैक्टीरिया भी मौजूद होते हैं, जो बछिया की आंतों में जा कर सैटल हो जाते हैं. लाभकारी बैक्टीरिया की उपस्थिति के कारण वहां हानिकारक बैक्टीरिया पनप नहीं पाते. खीस पीने वाली बछिया को सब से घातक बैक्टीरिया ई कोलाई का इंफैक्शन बहुत कम होता है.

खीस पीने वाली बछिया की उत्पादकता बेहतर होती है और वह अच्छी दुधारू गाय बनने के बाद ज्यादा समय तक जिंदा रहती है.

जिन बछियों को खीस पिलाया जाता है, उन में वृद्धिकाल में वृद्धि की दर भी अपेक्षाकृत अधिक होती है और वह अपेक्षाकृत कम समय में सर्विस कराए जाने के लिए तैयार हो जाती है.

जिन बछियों को खीस पिलाया जाता है, वे अपने पहले ब्यांत में ज्यादा दूध देती हैं.

खीस दस्तावर भी होता है, जिस के कारण बछिया के पेट में मौजूद मल जिसे मैकोनियम कहते हैं, आसानी से बाहर निकल जाता है.

बछिया का भरणपोषण किस तरह से करना होगा?

बछिया के जन्म के बाद शुरुआती 4 घंटों में पिलाया गया खीस, उस के बाद के 68 घंटों में पिलाया गया खीस और फिर 6 महीने की उम्र तक पिलाया गया दूध और उसे खिलाए गए अन्य खाद्य पदार्थ जैसे हरा चारा, सूखी मुलायम घास और काफ स्टार्टर उस की वृद्धि और परिपक्वता को निर्धारित करेंगे.

हमारा लक्ष्य यह होना चाहिए कि बछिया को इस तरह से पोषण दिया जाए कि पहली सर्विस के समय वह परिपक्व देहभार का कम से कम 60 फीसदी से 70 फीसदी देहभार प्राप्त कर ले.

बछिया जिस प्रजाति की है, उस प्रजाति

की बड़ी गाय का औसत देहभार अगर 400 किलोग्राम होता है, तो सर्विस कराते समय औसर (हीफर) का वजन कम से कम

240 किलोग्राम होना चाहिए या दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि जितनी जल्दी औसर का वजन 240 किलोग्राम होगा, उतनी ही जल्दी वह सर्विस कराए जाने के काबिल हो जाएगी.

गृहप्रवेश- भाग 3: उज्ज्वल किसकी तरफ आकर्षित हो रहा था?

लेकिन इस सब में सब से अधिक नुकसान दोनों बच्चों का हुआ था. उन की तो पूरी दुनिया बदल गई थी. उन की बालसुलभ जिज्ञासा को उत्तर ही नहीं मिल रहा था. जहां सारा को उज्ज्वल का उस के घर रहना पसंद नहीं था, वहीं स्नेह को मोहिनी के घर जाना.

मैं स्नेह की उधेड़बुन समझ रही थी. धीरेधीरे मैं ने उसे परिस्थिति से अवगत कराना शुरू किया. अपने पिता से अलगाव उस के लिए सरल नहीं था. लेकिन मेरा बेटा मुझ से भी अधिक समझदार था. वह घटनाओं को देखने के साथसाथ समझने लगा और उन का आकलन भी करने लगा था. अब इस विषय पर हमारे बीच खुल कर बातें होने लगी थीं.

प्रेम मात्र शरीर का समर्पण नहीं है, बल्कि भावनाओं के समंदर में निस्वार्थ भाव से खुद को समर्पण करने का नाम भी है. प्रेम में एक साथी की कमी को दूसरा साथी पूर्ण करता है. प्रेम शक्ति का स्त्रोत है और मोह व दुर्बलता का सागर. प्रेम स्वतंत्रता का भाव है जबकि मोह उलझनों से भरा हुआ बंदिश का स्वरूप. प्रेम कुछ मांगता नहीं है और मोह मांगना छोड़ता नहीं है. प्रेम का कोई अस्तित्व मिल नहीं सकता जबकि मोह का कोई अस्तित्व होता ही नहीं.

मोहिनी उज्ज्वल से मोहित थी. लेकिन अभावग्रस्त सम्मोहन के साथ जीने के लिए समर्पित नहीं थी. उस की गलती भी नहीं थी. वह एक धनी परिवार की बेटी थी. विवाह के पश्चात भी उस का जीवन सुखसुविधाओं से पूर्ण रहा था. दीपक की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी. मोहिनी ने उज्ज्वल से भी यह ही अपेक्षा की थी. एक प्रेमी के रूप में सुदर्शन उज्ज्वल उस के हृदय के सिंहासन पर बैठ गया था, लेकिन जब उसी प्रेमी की कमजोर पौकेट का उसे पता चला, प्रेम भाप बन कर उड़ने लगा.

उज्ज्वल की हालत भी इस से भिन्न नहीं थी. प्रेयसी के नखरे उठाने का आनंद उस की जेब पर भारी पड़ रहा था. अब वह समझ रहा था जिस मुसकान और जिंदादिल व्यक्तित्व से वह अपनी प्रेमिका के हृदय पर शासन कर पाया था, उस के पीछे का कारण उस की पत्नी का समर्पण था. मैं ने जिस चतुराई से घर को संभाल रखा था, उसी ने उज्ज्वल को एक तनावरहित जीवन प्रदान किया था. समय के साथ उन दोनों का मोहभंग होना शुरू हो गया था. उन की लड़ाइयां बढ़ गई थीं.

मैं ने कालेज के नजदीक एक घर किराए पर ले लिया और स्नेह को किसी अप्रिय परिस्थति से बचाने के लिए उस का उज्ज्वल के घर जाना बंद करा दिया था.

मैं ने यों तो पुराने जीवन की कड़वी यादों को उस मकान के साथ ही त्याग दिया था लेकिन अब भी कुछ शेष था. इसलिए, मेरा शरीर तो इस घर में आ गया, लेकिन मेरा मन पुरानी चौखट पर खड़ा इंतज़ार कर रहा था.

“आप सो गईं मम्मी?”

कुछ पता ही नहीं चला यादों की गाड़ी पर सवार हो कर कितनी दूर निकाल आई थी. स्नेह पुकारता नहीं, तो कुछ देर यों ही यादों की सैर करती रहती.

“नहीं बेटा, बस आंखें बंद कर कुछ सोच रही थी. क्या हुआ,  तुम तो बाहर खेल रहे थे?”

“बाहर पापा खड़े हैं.”

“पापा?”

“हम्म.”

“तुम अपने कमरे में टॉयस लगाओ, मैं पापा से मिल कर आती हूं”

एक साल दो महीने पाँच दिन और चार घंटे के बाद उज्ज्वल मेरे सामने बैठ कर अपनी गलती की माफी मांग रहा था. उस की प्रेमिका अपने रिश्ते को एक और मौका देने अपने पति के पास स्पेन चली गई थी. पराजित प्रेमी अपनी त्यक्त पत्नी के पास वापस चला आया इस आशा के साथ कि वह इसे अपना अच्छा समय समझ उस की बांहों में समा जाएगी. भटकना पुरुष का स्वभाव है और प्रतीक्षा स्त्री की नियति. समाज भी सोचता है कि परित्यक्ता पत्नी को फिर से पति का सान्निध्य प्राप्त हो जाए, तो  उस के लिए इस से बड़ी खुशी और क्या होगी.

“अमोदिनी.”

“हम्म.”

“मुझे माफ कर दो.”

“क्यों?”

“मेरे अपराध के लिए.”

“तुम जानते हो कि तुम्हारा अपराध क्या है?”

“मैं मोहिनी के जाल में फंस गया था.”

उज्ज्वल की बात सुन कर मैं जोर से हंस पड़ी थी. वह अचंभित हो कर मुझे देखने लगा.

“इस पुरुषसत्तात्मक समाज के लिए कितना सरल है स्त्री को दोषी कह देना. कदम दोनों के भटकते हैं, मन दोनों का चंचल होता है, लेकिन चरित्रहीन स्त्री हो जाती है. स्त्री को अपराधी बना  तुम खुद फिर से पवित्र हो जाते हो. मोहिनी ने तुम्हें नहीं, तुम दोनों ने एकदूसरे को छला है. प्रेम तुम दोनों का अपराध नहीं है, विश्वासघात है.”

“दीपक और मोहिनी अपने रिश्ते को एक मौका दे रहे हैं.”

“उन के रिश्ते में रिश्ता कहने लायक कुछ शेष होगा.”

“तुम अब भी मुझ से नाराज हो?”

“बिलकुल नहीं, मैं तो तुम्हारी आभारी हूं. मेरे स्वाभिमान पर, मेरे विश्वास पर मारे गए तुम्हारे एक थप्पड़ ने मेरा परिचय मेरी त्रुटियों से करा दिया. आज मैं यह समझ पाई हूं कि किसी भी प्रेम और रिश्ते से ऊपर होता है मनुष्य का खुद के प्रति सम्मान और प्रेम. इसीलिए हर स्त्री को अपना आर्थिक प्रबंध रखना चाहिए. समय और रिश्ता बदलते देर नहीं लगती. स्त्री के लिए विधा का उपार्जन और धन का संचय आवश्यक है. एक खूबसूरत सपने में  रहना अच्छा लगता है. लेकिन इतना ध्यान रहे कि सपना टूट भी सकता है. मूसलाधार प्रलय से बचने के लिए हर स्त्री को एक रेनकोट तैयार रखना ही चाहिए.”

“स्नेह के लिए.”

“हर रिश्ता प्रेम और विश्वास पर टिका होता है. प्रेम तो मैं तुम से करती नहीं. और विश्वास इस जीवन में कभी कर नहीं पाऊंगी. यदि स्नेह के लिए हम साथ होते भी हैं तो आगे चल कर यह रिश्ता कड़वाहट और छल को ही जन्म देगा. ऐसे विषैले माहौल में न हम खुश रह पाएंगे और न स्नेह.”

“अमोदिनी, काश कि मैं तुम्हारे योग्य हो पाता,” यह कह कर उस ने अपना सिर झुका लिया.

“कल सही समय पर कोर्ट पहुंच जाना,” मैं ने कहा और आगे बढ़ गई.

आज मैं ने घर की चौखट लांघ गृहप्रवेश कर लिया था अपने घर में, जिस में उज्ज्वल की कोई जगह नहीं थी.

 

गृहप्रवेश- भाग 2: उज्ज्वल किसकी तरफ आकर्षित हो रहा था?

मैं शीशे के सामने खड़ी हो कर अपनी कमी को देखने का प्रयास करती. मुझे लगता कि मेरी ही किसी भूल के कारण उज्ज्वल मुझ से दूर हो गया था. मैं मोहिनी से खुद की तुलना करती. खुद को उस से बेहतर बनाने का प्रयास करती. उज्जवल को हर संभव सुख देने का प्रयास करती. हमारे अंतरंग पलों को जीना, मैं ने कब का छोड़ दिया था. मेरा प्रयास मात्र उज्ज्वल का आनंद रह गया था. अपनी भावनाओं को दबा कर मैं खुद के प्रति इतनी कठोर हो गई थी कि  हमेशा खुद को जोखिमभरे कामों में उलझा कर रखते लगी. मानो ये सब कर के मैं उसे मोहिनी के पास जाने से रोक लूंगी.

मैं यह भूल गई कि एक रिश्ता ऐसा भी होता है जिस की डोर आप से इतनी बंधी होती है कि आप के मन की दलदल में उन का जीवन भी फिसलने लगता है. वह रिश्ता होता है, एक माँ और  संतान का. इस का अनुभव होते ही मैं समाप्त होने से पहले जी उठी.

एक शाम जब मैं विवाहेतर संबंध क्यों बनते हैं, पर आर्टिकल पढ़ रही थी, स्नेह मेरे निकट आ कर बैठ गया.

‘मां!’

‘हम्म,’ मैं ने उस की तरफ देखे बिना पूछा था.

‘आई मिस यू.’

मैं ने चौंक कर स्नेह को देखा, बोली, ‘क्यों बेटा?’

‘आप खो गई हो, अब हंसती भी नहीं. मैं अलोन हो गया हूं.’

दर्द के जिन बादलों को मैं ने महीनों से अपने भीतर दबा रखा था, वे फट पड़े और आंखें बरसने लगीं. जिस आदमी ने मेरे विश्वास और प्रेम को कुचलने से पहले एक बार भी नहीं सोचा, उस के लिए मैं अपने बच्चे और खुद के साथ कितना सौतेला व्यवहार करने लगी थी. मेरा मृतप्राय आत्मविश्वास जीवित हो उठा. मैं ने उस दिन मात्र स्नेह को ही नहीं, अपने घायल मैं को भी गले लगा लिया था.

मैं ने पूरी रात सोच कर एक निर्णय लिया और अगले दिन सुबह ही दीपक मजूमदार को फोन कर दिया था.

2 दिनों बाद दीपक और मोहिनी मेरे लिविंगरूम में मेरे सामने बैठे थे. रविवार था, तो उज्ज्वल भी घर पर ही था. सारा को मैं ने स्नेह के कमरे में भेज दिया.

कमरे का तापमान गरम था. वहां की खामोशी में सभी की सांसों की आवाज साफ सुनाई दे रही थी. मैं और उज्ज्वल अलगअलग कुरसियों पर बैठे थे. मोहिनी और दीपक सोफ़े पर एकसाथ बैठे थे. सभी एकदूसरे से नजरें चुरा रहे थे.

‘इस रिश्ते का क्या भविष्य है?’ उज्ज्वल की तरफ देख कर बात मैं ने ही शूरू की.

‘बताओ मोहिनी,’ दीपक ने कहा.

उन के बीच बात हो गई थी. 2 दिनों पहले जब मैं ने दीपक को फोन किया था, तब दीपक ने मुझे उज्ज्वल और मोहिनी को रंगेहाथ पकड़ने की बात बताई थी. अपने और मोहिनी के मनमुटाव के बारे में भी बताया. मैं ने जब उन दोनों को घर आ कर बात करने को कहा, तो दीपक ने स्वीकार कर लिया था.

उस रात मोहिनी ने उज्ज्वल को फोन भी किया. लेकिन उज्ज्वल ने मुझ से कुछ नहीं पूछा. और मैं, मैं तो उस के कुछ कहने का इंतजार ही करती रह गई. मैं तो उस का परस्त्री के प्रति आकर्षण भी स्वीकार कर लेती, लेकिन यह छल और अनकहा अपमान मुझे स्वीकार्य नहीं था.

इसलिए जब उस दिन उज्ज्वल ने कहा- ‘मैं जानता हूँ, जो हुआ ठीक नहीं हुआ, लेकिन प्रेम वायु है. उसे न तो सहीगलत की परिभाषा रोक सकती है और न समाज के बनाए नियम. प्रेम तो वह नदी है, जिस पर बनाए गए हर बांध को टूटना ही होता है. मैं और मोहिनी प्रेम में हैं, और सदा रहना चाहते हैं.’ उस की स्वीकारोक्ति सुन कर मेरी आंखें छलछला आई थीं.

मैं एक बार उज्ज्वल को देखती और फिर मोहिनी को, फिर उन दोनों को. पागल सी हो रही थी, पर मैं रोई नहीं, बहुत रो जो चुकी थी. विवाह के शुरूआती दिवसों की मधुर स्मृतियां, विवाहपूर्व उस सरल उज्ज्वल का प्रथम अनाड़ी चुंबन मुझे व्याकुल कर रहा था. उन दिनों वह मुस्तफा जैदी  की एक शायरी मेरी आंखों को चूमते हुए कहता –

‘इन्ही पत्थरों पे चल कर अगर आ सको तो आओ,

मेंरे घर के रास्ते में कोई कहकशां नहीं है’.

आज कहां गया वह अनुरोध, वह प्रेम, वह आलिंगन. न चाहते हुए मेरी नजर मोहिनी के लंबे काले बालों पर चली गई. न जाने कितनी बार ये केश मेरे जीवनसहचर के नग्न वक्षस्थल पर लहराए होंगे. मैं ने घबरा कर नजरें नीची कर ली थीं.

‘हम सोलमेटस हैं,’ मोहिनी ने कहा था.

‘प्रेम थोपा तो जा नहीं सकता. जैसा कि मैं कल कह चुका हूं, अलग हो जाना सही विकल्प है,’ दीपक ने इतना कह कर मेरी तरफ देखा. तीन जोड़ी आंखें मुझ पर ठहर गई थीं.

‘मैं अभी आर्थिक रूप से उज्ज्वल पर निर्भर हूं. जब शादी घरवालों की इच्छा के विरुद्ध की, तो इस का परिणाम उन पर क्यों थोपूं. मुझे नौकरी ढूंढने के लिए कुछ समय चाहिए. तब तक स्नेह के साथ मेरी भी जिम्मेदारी उज्जवल को उठानी होगी. इस घर में हम दोनों का पैसा लगा है, तो शीघ्र ही उज्ज्वल को मेरा हिस्सा भी देना होगा. स्नेह तो खैर इन की जिम्मेदारी हमेशा रहेगा. उम्मीद करती हूँ, तुम ने मात्र जीवनसाथी के पद से इस्तीफा दिया है, पिता तुम आज भी हो.’

न कोई आरोप, न आंसू, न क्रोध. उज्ज्वल खामोश मुझे देखता रहा था. जहां तूफान की आशंका हो, वहां अश्रुओं की रिमझिम का भी अभाव रहा. मेरी इस उदासीनता के लिए उज्ज्वल प्रस्तुत नहीं था. हमारे बीच एक छोटी सी बात अवश्य हुई, लेकिन मैं ने उज्ज्वल पर क्रोध नहीं किया. क्रोध तो वहां आता है जहां अधिकार हो, एक अपरिचित पर कैसा अधिकार.

उज्ज्वल और मोहिनी साथ रहने लगे थे. दीपक ने मोहिनी की जिम्मेदारियों से हाथ खींच लिया, जो सही भी था. वैसे सारा की जिम्मेदारियों से उस ने कभी इनकार नहीं किया. तलाक के पेपर कोर्ट में डाले जा चुके थे, जिस पर सालभर में फैसला आने की उम्मीद थी.

4-5 महीने की भागदौड़ और कुछ दोस्तों की सहायता से मुझे एक प्राइवेट कालेज में परमानेंट नौकरी मिल गई थी. स्नेह और सारा का स्कूल 3 बजे समाप्त हो जाता था. बसस्टैन्ड से मोहिनी दोनों बच्चों को अपने घर ले जाती. उज्ज्वल चाहता था कि स्नेह मोहिनी को अपना ले हालांकि मोहिनी और स्नेह दोनों ही इस प्रबंध से नाखुश थे. शाम को कालेज से लौटते हुए मैं स्नेह को अपने साथ ले आती थी.

परिवर्तन इस बार भी सभी के जीवन में आया था. अपनी पीड़ा को पीछे छोड़ कर मैं स्वावलंबी हो रही थी. मोहिनी को अब 2 बच्चों को संभालना पड़ रहा था, जो उस के लिए किसी चुनौती से कम नहीं था. दीपक की कंपनी ने उस का स्थानांतरण स्पेन कर दिया था. और उज्ज्वल, उस के ऊपर तो अब 3 घरों की जिम्मेदारी आ गई थी.

स्नेह और मोहिनी के अतिरिक्त, इकलौता बेटा होने के कारण उस के ऊपर अपनी मां की जिम्मेदारी भी थी. पति की मृत्यु के बाद  उज्ज्वल की मां मेरठ में अपने संयुक्त परिवार के साथ रहती थीं. लेकिन छुट्टियों में उन का इंदौर आनाजाना लगा रहता था. उज्ज्वल के इस निर्णय से वे भी खुश नहीं थी. वैसे, इस के पीछे का कारण  मेरे प्रति कोई लगाव नहीं, बल्कि वर्षों पुराना रोग कि ‘क्या कहेंगे लोग’ था.

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