ऐसे समय में जब संकट विश्वव्यापी है, हमें ऐसे नेता चाहिए जो विश्व को एक नजर से देखें अपने देश, धर्म, व्यापार, अर्थव्यवस्था, अगले चुनाव में जीत की निगाहों से नहीं. अफसोस यह है कि दुनिया के पास ऐसे नेता ही नहीं हैं जो पूरे विश्व समुदाय की सोचें.
दुनिया को जब मोहनदास करमचंद गांधी जैसा नेता चाहिए था, एल्बर्ट आइंसटाइन जैसा वैज्ञानिक चाहिए था, विंस्टन चर्चिल जैसा स्टेट्समैन चाहिए था, तब दुनिया के पास क्रोनी कैपिटलिज्म से पैसा बनाने वाले नेता हैं, बस. चीन, जो आज दुनिया का औद्योगिक नेता बना है, कोरोना वायरस का जन्मदाता है. चीन के सर्वोच्च नेता शी जिनपिंग कोरोना को पूरी तरह दोहने में लगे हैं. अमेरिका के डोनाल्ड ट्रंप तो केवल अमीरों, वह भी अमेरिका के अमीर गोरों, की सोचते हैं. उन के पैसों पर आंच न आए, इस के लिए उन्होंने गलत फैसला किया और देश को कोरोना की आग में झोंक दिया. वे दुनिया के नेता कैसे कहे जा सकते हैं.
इधर भारत में नरेंद्र मोदी की सरकार अभी भी हिंदूमुसलिम करने में लगी है. उसे लौकडाउन लागू किए जाने के चलते बेरोजगार हो गए मजदूरों की कोई चिंता नहीं है जो मरतेखपते अपने घरों की ओर जाना चाहते हैं.
संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव का ओहदा डोनाल्ड ट्रंप की वजह से वैसे ही कमजोर हो गया है और वह पद भी अनजाने से एंटोनियो गुटरेस के पास है जो कोने में छिपे जैसे हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन भी सही नेतृत्व नहीं दे पा रहा.
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इस समय सब लोग आग से अपनेअपने घर का सामान बचाने में लगे हैं. आग बुझाने के लिए सोचने या कुछ करने की फुरसत है किसी को? हर नेता की निगाह अगले चुनावों पर है, अगली खेप के मरीजों पर नहीं.
पिछले 30 सालों के दौरान दुनियाभर में पैसे की जो भूख पैदा हुई, उस ने मानवता को कुचल दिया है. दुनिया के सभी नेता, जिन्होंने उन पर खर्च किया उन्हें, मुआवजा देने में लगे हैं. हर नेता की निगाह अपने देश के शेयर बाजार पर लगी है. आज के नेताओं के पास तो अपनेअपने देशों की गरीब जनता के लिए 2 मिनट भी नहीं हैं.
समाचारपत्र, जो पहले विश्वव्यापी उदार दृष्टि रखते थे, अब एकएक कर के संकटों में घिर रहे हैं क्योंकि इंटरनैट ने विचारों को सस्ता बना दिया है. सही विचार की जगह इंटरनैट के सहारे वैब मीडिया व पेड टैलीविजनों से भड़काऊ या कोरी चुहुलबाजी की सोच परोसी जा रही है.
कोरोना का कहर किसी एक देश की समस्या नहीं है. इस का हल पूरा विश्व एकसाथ बैठ कर ही निकाल सकता है. पर न ऐसी संस्था बची है, न देश और न नेता जो इस संकट को दूर करने के दूरगामी फैसले ले सके और लागू करवा सके. मानवता को इस की कीमत देनी होगी. जब इस का अप्रत्यक्ष साइड इफैक्ट घरघर पर पड़ने लगेगा, तो पता चलेगा कि दुनिया एक झटके में 300साल पहले की स्थिति में पहुंच गई है.
सांसद बेचारे
केंद्र सरकार ने एक तानाशाही फरमान से सांसदों को मिलने वाली सांसद निधि कोष को हड़प लिया है. जो भक्तसांसद हर बात में हां में हां मिलाने को तत्पर रहते हैं, वे भी सोच रहे होंगे कि अब वे अपने गांव, शहर, कसबे में मतदाताओं की मांग पर नल, सड़क, स्कूल, बस, प्लेग्राउंड कैसे बनवाएंगे. कहने को तो सरकार ने यह कदम कोविड-19 को हराने के लिए उठाया है पर इस के लिए और भी बहुत से क्षेत्र हैं जहां कटौती की जा सकती है.
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जो भाजपा सांसद सोचते थे कि हर बात में उन का नेता सही ही होता है, वे अब मन ही मन गुस्सा हो रहे होंगे कि सांसद निधि की राशि सालाना महज 2 करोड़ रुपए है. यह भी सांसद के बैंक अकाउंट में नहीं जाती. यह उसे खर्च करनी होगी और इस के खर्च करने के लिए 14 पृष्ठों के दिशानिर्देश हैं. सांसद एक लाख रुपए से ज्यादा और 10 लाख रुपए से कम राशि का अनुमोदन कर सकता है. लेकिन सरकारी मशीनरी ही इसे खर्च करती है. 1992 से चल रही यह योजना सांसदों के लिए उपयोगी है और वे मतदाताओं की मांग पर छोटेछोटे काम कराते रहते हैं.
स्कूलों या सार्वजनिक उपयोग के लिए पुस्तकालयों, सीसीटीवी लगवाने जैसे कार्यक्रमों के लिए विस्तृत सीमाएं दिशानिर्देशों में हैं. हर अनुमोदित खर्च पर सांसद निधि से संबंधित लंबेचौड़े कागज भरने होते हैं. किसी भी सूरत में यह स्कीम सांसदों को मनमानी नहीं करने देती. बहुत से सांसद तो खानापूर्ति करने से बचने के लिए इसे खर्च ही नहीं करते.
सांसद निधि, दरअसल, केंद्र सरकार के नेतृत्व की मनमानी से बचने का एक उपाय था. आजकल आम जनता की तो छोडि़ए, सांसदों तक की नहीं सुनी जाती. ये 2 करोड़ रुपए कुछ राहत देते हैं. देश का बजट तो 30 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का है जिसे मिनटों में पास करने को मजबूर किया जाता है. बेचारे सांसदों का काम सिर्फ हाथ उठाना भर रह गया है. अब वे अपने शहरगांव या चुनाव क्षेत्र में विकास के लिए 10-11 करोड़ रुपए भी 5 सालों में खर्च नहीं कर पाएंगे. यह न भूलें कि उन का क्षेत्र इतना बड़ा होता है कि चुनाव के समय घरघर पहुंचने में सभी उम्मीदवारों को कुल मिला कर 25-30 करोड़ रुपए 20-25 दिन में खर्चने पड़ते हैं.
सांसद निधि को समाप्त करना देश की सत्ता को एक हाथ में लेने का एक और कदम है. संसद और इस के बाद विधान सभाएं अगर चीनी और उत्तरी कोरियाई लगने लगें, तो बड़ी बात नहीं.
संसद देश के लोकतंत्र का अभिन्न अंग है. उस के सदस्य बेचारे या शक्तिहीन मोहरे बन कर रह जाएं, तो लोकतंत्र को वैंटिलेटर पर ही समझें.
मीडिया सरकारी गुलाम
सरकार को कोरोना के वायरस के साथसाथ एक और मोरचे पर लड़ना पड़ सकता है, वह है विश्वास का मोरचा. करोड़ों लोग कोरोना से प्रभावित हुए हैं. सब घरों में बंद हैं. कुछ गांवों में, कुछ सड़कों पर लावारिस पड़े हैं. कुछ अस्पतालों में हैं. इन सब को सरकार के किसी कथन पर भरोसा नहीं है. वे कोई भी काम अपनी पूरी सहमति के साथ नहीं करेंगे. सरकार जहां जबरन जो कहेगी, उसे वे कर लेंगे स्थिति की भयावहता को समझ कर, सहयोग देते हुए नहीं.
सरकार ने यह भरोसा तोड़ा है, बड़ी मेहनत से. पिछले 6 सालों के दौरान सरकार की हर बात को सच मान कर झूठ का भी ढिंढोरा इतनी जोरजोर से पीटा गया है कि सच और झूठ के बीच की दीवार कब की गिर चुकी है. मीडिया को बिका हुआ माना जाता है और वह जो चाहे कहे. उस में चाहे कुछ को, धर्म के उपदेश की तरह, अगाध श्रद्धा हो, लेकिन ज्यादातर लोग उसे आधा सच ही मानते हैं.
ऐसे में सरकार जो निष्ठा चाहती है वह उसे नहीं मिल पाती. हर व्यक्ति जबरन काम करता है या तो डर कर या इसलिए कि उस के पास और कोई पर्याय नहीं है. कोई भी सरकार, ऐसे मामले में जिस में बीसियों करोड़ों का वर्तमान, भविष्य व जीवनमरण जुड़ा हो, बिना आपसी भरोसे के सफल नहीं हो सकती.
स्वतंत्र मीडिया केवल इसलिए स्वतंत्र नहीं कि विपक्षी दलों को इस से फायदा होता है. स्वतंत्र मीडिया सरकार के लिए पहरेदारी करता है. उसे वह वे बातें बताता है जो सरकार के खुद के लोग नहीं बताते. स्वतंत्र मीडिया जनता के हितों की रक्षा तो करता ही है, सरकारी हितों की भी रक्षा करता है क्योंकि वह गांवगांव से तथ्य जमा करता है, सरकार की नाकतले होने वाली धांधलियों की पोल भी अकसर खोलता है.
सरकार ने स्वतंत्र मीडिया के पर कुचल डाले हैं. पत्रकारों और पत्रकारिता के नाम पर सरकार ने जीहुजूरों की फौज खड़ी कर ली है. आज देश के ज्यादातर पत्रकार सरकार के कहने पर चलते हैं. ऐसी स्थिति में वे अगर सच कहें या लिखें, तो भी भरोसा नहीं होता.
जब सरकार कोरोना से बचाने वाले लौकडाउन के फायदों, सावधानियों, व्यवहार परिवर्तन की बात करती है तो जनता उसे मन से स्वीकार नहीं करती. सरकार को अब डाक्टरों की फौज लगानी पड़ रही है, विशेषज्ञ बुलाने पड़ रहे हैं. कोई भी मंत्रियों की बात मानने को तैयार नहीं है क्योंकि वे सच नहीं बोलते. इसीलिए आज मीडिया, चाहे वह गोदी मीडिया हो या कोई और, पर मंत्रियों, नेताओं के चेहरे दिख ही नहीं रहे. दरअसल, आमजन का उन पर भरोसा नहीं रहा. सब अब वैज्ञानिकों का इंतजार कर रहे हैं कि वे आएं और वायरसरूपी आफत से बचाएं.
जब पूरे देश को एक चाल से चला कर लक्ष्य की ओर ले जाना हो तो सरकार और मीडिया पर भरोसा बहुत जरूरी है. कोरोना से लड़ाई लंबी होनी है, यह तय है. ऐसे में अगर सरकार व मीडिया दोनों पर जनता को भरोसा नहीं होगा तो हम वैसे ही भटकते रहेंगे जैसे 1857 में अंगरेजों के विरुद्ध खड़े होने में भटके थे और तब
90 साल और गुलामी गले पड़ी रही थी.
बेकार होते कामगार
कहने को भाजपा सरकार देश को कालेधन और भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने की रातदिन कोशिश कर रही है. पर, असल में वह धन को ही समाप्त करने में लगी है. सभी क्षेत्रों में भारी मंदी आ गई है. इस के सब से बड़े शिकार छोटे व्यापारी, छोटे उद्योगपति हैं. उन के साथ काम कर रहे करोड़ों लोगों का वर्तमान और भविष्य दोनों खतरे की जद में हैं.
कोरोना से पहले ही केंद्र सरकार की दोषपूर्ण आर्थिक नीतियों की वजह से देश में आई मंदी और पैसे की कमी के चलते छोटेबड़े उद्योगों ने नियमित कामगार रखने की जगह ठेके पर कामगार रखने शुरू कर दिए थे. इस का मतलब है कि किसानों, बढ़इयों, लुहारों, जुलाहों के बच्चे, जो खेतीकिसानी में खप नहीं पाते थे, शहरों की सरकारी फैक्ट्रियों में नौकरी पा कर सुरक्षा भी पाते थे और घरबार भी बना लेते थे, लेकिन अब वे कच्ची नौकरियों में रह जाएंगे. 2011-12 में इन ठेकेदारों के पास काम करने वालों की संख्या 11 करोड़ थी, जो 2017-18 में बढ़ कर 14 करोड़ हो गई. बिहार जैसे राज्य में तो इसी अवधि में इन की संख्या 39 लाख से बढ़ कर 85 लाख हो गई.
ठेके पर काम करने वाले अब कभी भी कुशल नहीं बन पाएंगे क्योंकि उन्हें कभी एक फैक्ट्री में काम करना होगा तो कभी दूसरी में. फैक्ट्री प्रबंधन इन्हें काम सिखाने में भी रुचि नहीं दिखाएगा क्योंकि उसे इन के टिकने का भरोसा नहीं रहेगा.
यह स्थिति देश की आर्थिक सुदृढ़ता के लिए खतरनाक है. देश का कामगारी वर्ग, जो किसानी करता है या किसानों के लिए काम करता था, देश के कारखानों में श्रमिक भेजता रहा है. देश के ज्यादातर सैनिक भी इसी वर्ग से आते हैं. यह वर्ग सप्लाई चेन का भी अहम हिस्सा है. दिक्कत यह रही है कि सदियों से इस वर्ग को पढ़नेलिखने नहीं दिया गया और मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद जो खिड़कियां खुलीं भी, वे इन की संख्या देखते हुए कम थीं.
अब बागों की देखरेख के लिए सरकारी माली नहीं रखे जाते, ठेकेदार रखे जाते हैं. सड़कों की मरम्मत सरकार अपने कर्मियों से नहीं कराती बल्कि ठेकों पर कराती है. नोएडा ने हाल ही में अपने क्षेत्र के पंप, बिजली, सड़कों की देखभाल आदि के बीसियों करोड़ों के टैंडर जारी किए. टैंडर प्रक्रिया ऐसी है कि ये कामगार लोग खुद भी पूरी नहीं कर सकते. इन लोगों को ठेकेदारों के पास काम करना होगा जो आधाअधूरा काम कराएंगे.
ऐसे में देश की आर्थिक परेशानी दूर होगी तो कैसे? 50 करोड़ से ज्यादा जनता को आज बेसहारा छोड़ा जा रहा है. इन के पास न खेत बचे हैं, न कारखाने. द्य