जिस सहजता से महाराष्ट्र में शिवसेना की पलटीमार राजनीति से चोट खाई, फिर झारखंड में मिली करारी हार और अब सब से छोटे राज्य दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की छोटी सी आम आदमी पार्टी ने देश की सब से बड़ी राजनीतिक पार्टी भारतीय जनता पार्टी को चुनावी धूल चटा दी, उस से लगता है कि धर्म की राजनीति का उबाल अब थमने लगा है.
पिछले 100-150 सालों से आधुनिक प्रिंटिंग प्रैस तकनीक, लाउडस्पीकरों, रेडियो, टैलीविजन और अब कंप्यूटर आधारित मोबाइल, इंटरनैट के उपयोग से धर्म की आड़ में जम कर सत्ता हासिल की गई और पूरे देश व समाज को इस की कीमत देनी पड़ी थी. यह स्पष्ट है कि भाजपा देश में धर्म की राजनीति करती है. लेकिन, आम आदमी पार्टी की काम करने की राजनीति से भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति अब कांप गई है.
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राजा राममोहन राय जैसे सती प्रथा विरोधी समाज सुधारक आज की तारीख में केवल बच्चों की टैक्स्ट बुक में रह गए हैं और कल को इन पृष्ठों पर सती मैया के प्रताप की कहानियां परोसनी शुरू कर दी जाएं तो बड़ी बात न होगी. 100-150 वर्षों से जिस ज्ञान को बांटा गया है उस का उद्देश्य सत्ता पाना था, जो 2014 में जा कर साकार हुआ और 2019 में पुनर्विजय के बाद एकएक कर के धार्मिक फैसले लिए जाने लगे. महाराष्ट्र, झारखंड और अब दिल्ली ने उस पर ब्रेक लगाई है.
मतदान से ठीक एक दिन पहले राममंदिर ट्रस्ट को घोषित कर के एक लौलीपौप और दिया गया कि वोट धार्मिक कट्टरता को ही करना, बटन ऐसे दबाना कि तार्किक दिमाग बंद हो जाएं और धार्मिक दिमाग पर दीए जलने शुरू हो जाएं ताकि दिल्ली के सिंहासन पर बैठे महादेवताओं के चेहरे चमकें और आम जनता धर्म के नाम पर अपनी अंतिम साड़ी भी उतार कर दान में दे दे.
दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा नेता व देश के गृहमंत्री अमित शाह की सारी राजनीति धारा 370, बालाकोट, पाकिस्तान, नागरिकता संशोधन कानून पर टिकी थी जबकि आप नेता व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल इन पर बहस से बचते हुए केवल 200 यूनिट तक बिना पैसे के बिजली बिल, फ्री पानी, औरतों के लिए बस में मुफ्त यात्रा, साफ अस्पतालों और अच्छे स्कूलों की बात करते रहे. भाजपा के लिए ये विषय निरर्थक हैं. शायद भाजपा यही सोचती है कि ये सब भौतिक चीजें मिलती हैं लेकिन पूजापाठ से. सो, वह पूजापाठ करने के लिए मंदिरों को बनवाने, चारधाम को ठीक करने और यमुनातट पर आरतियों की बात करती रही.
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अरविंद केजरीवाल सरकार के पिछले 5 साल केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार से उलझते हुए बीते थे. अरविंद केजरीवाल की पिछली बार की 67 सीटों पर जीत भाजपा पचा नहीं पाई. वह केजरीवाल के दस्यु राज (भाजपा के दृष्टिकोण के मुताबिक) में लगातार विघ्न डालने के लिए दिल्ली के उपराज्यपाल का स्वार्थवश इस्तेमाल करती रही. उसे विश्वास था कि दस्यु दमन पर खुश हो कर ब्रह्मा उस की झोली में 60 सीटें डाल देंगे. लेकिन, हुआ उलटा. इस सब का यह अर्थ नहीं है कि जनता समझ चुकी है. हां, कुछ चेती जरूर है.
धार्मिक प्रचार करने वालों की तरकीबें समझना आसान नहीं है. वे तरहतरह से बातों को घुमाना जानते हैं और अच्छेअच्छों को बहकाना उन के बाएं हाथ का खेल है. वे आने वाले वक्त में आम आदमी पार्टी में घुसपैठ कर सकते हैं और उसे अंदर से तोड़मरोड़ सकते हैं. वे संवैधानिक तीरों के सहारे फिर से अरविंद केजरीवाल पर हमले कर सकते हैं और जनता के फैसले को निरर्थक कर सकते हैं.
दिल्ली की जनता ने अभी तो वैसी ही जागरूकता दिखाई है जैसी अर्धमिश्रित झारखंड व छत्तीसगढ़ की जनता ने दिखाई थी. जब तक जनता की यह भावना हर कदम में न दिखे, गुरुडम का डर बना रहेगा.
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