मैं अपने पापा को बाबूजी कहती थी. बचपन में, 4 वर्ष की अवस्था में, मुझे पोलियो हो गया. हम 7 भाईबहनों में उन्होंने कोई फर्क नहीं किया. उन के प्यार के चलते मुझे कभी एहसास नहीं हुआ कि मैं विकलांग हूं. उन्होंने मुझे उच्च शिक्षा दिलवाई. मैं ने डाक्टरेट किया. पापा को पता चला कि अपोलो अस्पताल में इलाज कराने से मेरा पैर ठीक हो जाएगा. उन्होंने बैंक के सहायक प्रबंधक पद से अवकाश प्राप्त किया था. उन्होंने अपने सारे पैसे मेरे इलाज में खर्च कर दिए. परंतु मेरा पैर ठीक नहीं हुआ बल्कि और भी बिगड़ गया. मेरे बाबूजी ने कहीं भी आनाजाना छोड़ दिया और मेरी सेवा में लगे रहते. उन्होंने मन ही मन में प्रण किया कि कहीं भी जाएंगे तो मेरे ठीक होने के बाद ही. डाक्टर ने सब्जबाग दिखाए थे कि 2 वर्षों में मैं दौड़ने लगूंगी. 1993 से 2008 तक वे दिनरात मेरी सेवा में लगे रहे और उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया. उन के बगैर जिंदगी रुकी तो नहीं, परंतु बेजान सी हो गई है.

मनोरमा कुमारी चौबे

  • मेरे पापा बहुत ही हंसमुख थे. वे विपरीति परिस्थितियों में भी मुसकराते रहते थे. उन का कहना था कि जीवन में दोनों पहलुओं को अपने जीवनकाल में स्वीकार करना चाहिए. तभी जिंदगी के माने समझ में आते हैं. मुझे याद है, जब कभी मैं यों ही बैठी रहती, तो वे समय का महत्त्व बताते हुए कहा करते कि समय बहुत मूल्यवान होता है.

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इसे यों ही बेकार बैठ कर नहीं गवांना चाहिए. मेरे हाथों में कभी समाचारपत्र थमा देते तो कभी कुछ कार्य करने के लिए प्रेरित किया करते. कभी मेरे हाथों में कलम पकड़ा कर कहते, ‘‘अपनी दिनचर्या ही लिख डालो.’’

उन की बातें कभी मान लेती, तो कभी हंस कर टाल देती. लेकिन कुछ सालों के बाद, जब मैं अपनी दिनचर्या से ऊबने लगी तो पिताजी की बातें याद आने लगीं.

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और फिर उठा लिया कागज और कलम. कई कविताएं और कहानियां लिख डालीं और एक दिन एक पत्रिका में भेज दी.

कुछ दिनों के बाद मैं एक पत्रिका पढ़ रही थी तो अपनी रचना देख कर खुशी से झूम उठी. उस दिन पापा की कही हुई बात सच लगने लगी कि जीवन का सुनहरा समय बैठ कर नहीं गवांना चाहिए.

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आज मैं अपने पापा की आभारी हूं. और उन्हें नमन करती हूं.

सुशीला श्रीवास्तव

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