पति के बाहर जाते ही नमिता ने बाहरी फाटक को बंद कर लिया. कुछ पल खड़ी रह कर वह पति को देखती रही फिर घर की ओर बढ़ने लगी. उस ने 8-10 कदम ही बढ़ाए कि डाकिए की आवाज सुन उसे रुकना पड़ा. डाकिया ने अत्यंत शालीनता से कहा, ‘‘मेम साहिबा, यह आप के नाम का लिफाफा.’’

लिफाफा नाम सुन कर एकबारगी उस के जेहन में तरहतरह के भाव पनपने लगे. फिर वह लिफाफे पर अंकित भेजने वाले के नाम को देख अपनी उत्सुकता को दबा नहीं पाई. वहीं खडे़खड़े उस ने लिफाफा खोला, जो उस के चचेरे भाई सुजीत ने भेजा था. लिफाफे के अंदर का कार्ड जितना खूबसूरत था, उस पर दर्ज पता उतने ही सुंदर अक्षरों में लिखा गया था. सुजीत ने अपने पुत्र मयंक की शादी में आने के लिए उन्हें आमंत्रित किया था.

शादी का कार्ड नमिता की ढेर सारी स्मृतियों को ताजा कर गया. वह तेज कदमों से बढ़ी और बरामदे में रखी कुरसी पर बैठ गई. फिर लिफाफे से कार्ड निकाल कर पढ़ने लगी. एकदो बार नहीं, उस ने कई बार कार्ड को पढ़ा. उस ने कार्ड को लिफाफे में रखना चाहा, उसे आभास हुआ कि लिफाफे के अंदर और कुछ भी है. उस ने लिफाफे के कोने में सिमटे एक छोटे से पुरजे को निकाला. उस पर लिखा था : ‘बूआ, मेरी शादी में जरूर आना, नहीं तो मैं शादी करने जाऊंगा ही नहीं.’

बड़ा ही अधिकार जताया था उस के भतीजे मयंक ने. अधिकार के साथ अपनत्व भी. उस ने उस छोटे से पत्र को दोबारा लिफाफे में न रख कर अपनी मुट्ठी में भींच लिया. उस ने निर्णय लिया कि भतीजे के पत्र का उल्लेख पति से नहीं करेगी. पति कहेंगे कि तुम्हारे भतीजे ने तो सिर्फ तुम्हें ही बुलाया है. उन्हें वहां जाने की जरूरत ही नहीं है. तुम अकेली ही चली जाओ. मायके जाने की बात सोच कर ही नमिता के मन में गुदगुदी होने लगी. साथ ही मयंक की शादी के संबंध में पति को सूचना देने की ललक भी. मयंक का वह छोटा सा धमकीभरा पत्र. आज जबकि संचार माध्यमों की विपुलता की वजह से लोग पत्र लिखना भी भूल गए हैं, तब मयंक के उस छोटे से पत्र ने उसे वह खुशी दी थी जिस की उस ने कल्पना तक नहीं की थी.

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