वैसे तो वे अपने घर, परिवार, महल्ले, गांव, जाति और धर्म से बाहर निकलने के आदी नहीं थे, पर इस बार जाने कहां से उन्होंने देश को आगे बढ़ाने का नारा सुन लिया और सोचा कि चलो, देश को आगे बढ़ा लिया जाए.

देश उन्हें हमेशा ही भगवान की तरह लगा. वैसे उन्हें न भगवान नजर आता था न देश. हां, घर दिखाई देता है, महल्ला दिखाई देता है, गांव दिखाई देता है, पर देश की केवल बातें ही बातें सुनाई देती हैं. उन्होंने जब से यह गाना सुना था कि ‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती’ तब से कई बार पूरे खेत को खोद डाला था पर मिट्टी ही मिट्टी निकली थी.

इस से उन्हें लगने लगा था, जैसे किसी दूसरे देश में रह रहे हों क्योंकि देश की धरती को तो सोना और हीरेमोती उगलना चाहिए था. वे तो भागेभागे उन दिनों गुजरात भी चले गए थे. लोगों ने सोचा था कि भूकंप पीडि़तों की सहायता के लिए गए होंगे, पर वे तो यह सोच कर गए थे कि शायद खोदने पर हीरेमोती न निकलते हों, मगर भूकंप आने पर तो धरती हीरेमोती जरूर उगलेगी.

जिस तरह पंडेपुरोहित भगवान से प्रेम रखने के लिए कहते रहते हैं, उसी तरह नेता लोग देश से प्रेम करने के लिए लोगों को उकसाते रहते हैं. दोनों के ही धंधे का सवाल है, इसलिए वे दिनरात अपना धंधा चमकाने के लिए लोगों को देश और धर्म से प्रेम करना सिखाते हैं.

पंडित जबजब मिलता तबतब कहता, ‘‘भैया, भगवान से प्रेम करो. वही अजर, अमर, अविनाशी हैं, कणकण में विराजमान हैं, घटघट वासी हैं, उन की मरजी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, वे सबकुछ जानते हैं, सबकुछ देखते हैं, सबकुछ सुनते हैं. वही कर्ता हैं, वही कर्म हैं, वही करण हैं, वे संप्रदान, अपादान आदि हैं. उन से प्रेम करो क्योंकि वे हैं तभी तो हमारा धंधा है.

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