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Romantic Story : लम्हे पराकाष्ठा के – रूपा और आदित्य की खुशी अधूरी क्यों थी

Romantic Story : लगातार टैलीफोन की घंटी बज रही थी. जब घर के किसी सदस्य ने फोन नहीं उठाया तो तुलसी अनमनी सी अपने कमरे से बाहर आई और फोन का रिसीवर उठाया, ‘‘रूपा की कोई गुड न्यूज?’’ तुलसी की छोटी बहन अपर्णा की आवाज सुनाई दी.

‘‘नहीं, अभी नहीं. ये तो सब जगह हो आए. कितने ही डाक्टरों को दिखा लिया. पर, कुछ नहीं हुआ,’’ तुलसी ने जवाब दिया.

थोड़ी देर के बाद फिर आवाज गूंजी, ‘‘हैलो, हैलो, रूपा ने तो बहुत देर कर दी, पहले तो बच्चा नहीं किया फिर वह व उस के पति उलटीसीधी दवा खाते रहे और अब दोनों भटक रहे हैं इधरउधर. तू अपनी पुत्री स्वीटी को ऐसा मत करने देना. इन लोगों ने जो गलती की है उस को वह गलती मत करने देना,’’ तुलसी ने अपर्णा को समझाते हुए आगे कहा, ‘‘उलटीसीधी दवाओं के सेवन से शरीर खराब हो जाता है और फिर बच्चा जनने की क्षमता प्रभावित होती है. भ्रू्रण ठहर नहीं पाता. तू स्वीटी के लिए इस बात का ध्यान रखना. पहला एक बच्चा हो जाने देना चाहिए. उस के बाद भले ही गैप रख लो.’’

‘‘ठीक है, मैं ध्यान रखूंगी,’’ अपर्णा ने बड़ी बहन की सलाह को सिरआंखों पर लिया.

अपनी बड़ी बहन का अनुभव व उन के द्वारा दी गई नसीहतों को सुन कर अपर्णा ने कहा, ‘‘अब क्या होगा?’’ तो बड़ी बहन तुलसी ने कहा, ‘‘होगा क्या? टैस्टट्यूब बेबी के लिए ट्राई कर रहे हैं वे.’’

‘‘दोनों ने अपना चैकअप तो करवा लिया?’’

‘‘हां,’’ अपर्णा के सवाल के जवाब में तुलसी ने छोटा सा जवाब दिया.

अपर्णा ने फिर पूछा, ‘‘डाक्टर ने क्या कहा?’’

तुलसी ने बताया, ‘‘कमी आदित्य में है.’’

‘‘तो फिर क्या निर्णय लिया?’’

‘‘निर्णय मुझे क्या लेना था? ये लोग ही लेंगे. टैस्टट्यूब बेबी के लिए डाक्टर से डेट ले आए हैं. पहले चैकअप होगा. देखते हैं क्या होता है.’’

दोनों बहनें आपस में एकदूसरे के और उन के परिवार के सुखदुख की बातें फोन पर कर रही थीं.

कुछ दिनों के बाद अपर्णा ने फिर फोन किया, ‘‘हां, जीजी, क्या रहा? ये लोग डाक्टर के यहां गए थे? क्या कहा डाक्टर ने?’’

‘‘काम तो हो गया…अब आगे देखो क्या होता है.’’

‘‘सब ठीक ही होगा, अच्छा ही होगा,’’ छोटी ने बड़ी को उम्मीद जताई.

‘‘हैलो, हैलो, हां अब तो काफी टाइम हो गया. अब रूपा की क्या स्थिति है?’’ अपर्णा ने काफी दिनों के बाद तुलसी को फोन किया.

‘‘कुछ नहीं, सक्सैसफुल नहीं रहा. मैं ने तो रूपा से कह दिया है अब इधरउधर, दुनियाभर के इंजैक्शन लेना बंद कर. उलटीसीधी दवाओं की भी जरूरत नहीं, इन के साइड इफैक्ट होते हैं. अभी ही तुम क्या कम भुगत रही हो. शरीर, पैसा, समय और ताकत सभी बरबाद हो रहे हैं. बाकी सब तो जाने दो, आदमी कोशिश ही करता है, इधरउधर हाथपैर मारता ही है पर शरीर का क्या करे? ज्यादा खराब हो गया तो और मुसीबत हो जाएगी.’’

‘‘फिर क्या कहा उन्होंने?’’ अपनी जीजी और उन के बेटीदामाद की दुखभरी हालत जानने के बाद अपर्णा ने सवाल किया.

‘‘कहना क्या था? सुनते कहां हैं? अभी भी डाक्टरों के चक्कर काटते फिर रहे हैं. करेंगे तो वही जो इन्हें करना है.’’

‘‘चलो, ठीक है. अब बाद में बात करते हैं. अभी कोई आया है. मैं देखती हूं, कौन है.’’

‘‘चल, ठीक है.’’

‘‘फोन करना, क्या रहा, बताना.’’

‘‘हां, मैं बताऊंगी.’’

फोन बंद हो चुका था. दोनों अपनीअपनी व्यस्तता में इतनी खो गईं कि एकदूसरे से बात करे अरसा बीत गया. कितना लंबा समय बीत गया शायद किसी को भी न तो फुरसत ही मिली और न होश ही रहा.

ट्रिन…ट्रिन…ट्रिन…फोन की घंटी खनखनाई.

‘‘हैलो,’’ अपर्णा ने फोन उठाया.

‘‘बधाई हो, तू नानी बन गई,’’ तुलसी ने खुशी का इजहार किया.

‘‘अरे वाह, यह तो बड़ी अच्छी न्यूज है. आप भी तो नानी बन गई हैं, आप को भी बधाई.’’

‘‘हां, दोनों ही नानी बन गईं.’’

‘‘क्या हुआ, कब हुआ, कहां हुआ?’’

‘‘रूपा के ट्विंस हुए हैं. मैं अस्पताल से ही बोल रही हूं. प्रीमैच्यौर डिलीवरी हुई है. अभी इंटैंसिव केयर में हैं. डाक्टर उन से किसी को मिलने नहीं दे रहीं.’’

‘‘अरे, यह तो बहुत गड़बड़ है. बड़ी मुसीबत हो गई यह तो. रूपा कैसी है, ठीक तो है?’’

‘‘हां, वह तो ठीक है. चिंता की कोई बात नहीं. डाक्टर दोनों बच्चियों को अपने साथ ले गई हैं. इन में से एक तो बहुत कमजोर है, उसे तो वैंटीलेटर पर रखा गया है. दूसरी भी डाक्टर के पास है. अच्छा चल, मैं तुझ से बाद में बात करती हूं.’’

‘‘ठीक है. जब भी मौका मिले, बात कर लेना.’’

‘‘हां, हां, मैं कर लूंगी.’’

‘‘तुम्हारा फोन नहीं आएगा तो मैं फोन कर लूंगी.’’

‘‘ठीक है.’’

दोनों बहनों के वार्त्तालाप में एक बार फिर विराम आ गया था. दोनों ही फिर व्यस्त हो गई थीं अपनेअपने काम में.

‘‘हैलो…हैलो…हैलो, हां, क्या रहा? तुम ने फोन नहीं किया,’’ अपर्णा ने अपनी जीजी से कहा.

‘‘हां, मैं अभी अस्पताल में हूं,’’ तुलसी ने अभी इतना ही कहा था कि अपर्णा ने उस से सवाल कर लिया, ‘‘बच्चियां कैसी हैं?’’

‘‘रूपा की एक बेटी, जो बहुत कमजोर थी, नहीं रही.’’

‘‘अरे, यह क्या हुआ?’’

‘‘वह कमजोर ही बहुत थी. वैंटीलेटर पर थी.’’

‘‘दूसरी कैसी है?’’ अपर्णा ने संभलते व अपने को साधते हुए सवाल किया.

‘‘दूसरी ठीक है. उस से डाक्टर ने मिलवा तो दिया पर रखा हुआ अभी अपने पास ही है. डेढ़ महीने तक वह अस्पताल में ही रहेगी. रूपा को छुट्टी मिल गई है. वह उसे दूध पिलाने आई है. मैं उस के साथ ही अस्पताल आई हूं,’’ तुलसी एक ही सांस में कह गई सबकुछ.

‘‘अरे, यह तो बड़ी परेशानी की बात है. रूपा नहीं रह सकती थी यहां?’’ अपर्णा ने पूछा.

‘‘मैं ने डाक्टर से पूछा तो था पर संभव नहीं हो पाया. वैसे घर भी तो देखना है और यों भी अस्पताल में रह कर वह करती भी क्या? दिमाग फालतू परेशान ही होता. बच्ची तो उस को मिलती नहीं.’’

डेढ़ महीने का समय गुजरा. रूपा और आदित्य नाम के मातापिता, दोनों ही बहुत खुश थे. उन की बेटी घर आ गई थी. वे दोनों उस की नानीदादी के साथ जा कर उसे अस्पताल से घर ले आए थे.

रूपा के पास फुरसत नहीं थी अपनी खोई हुई बच्ची का मातम मनाने की. वह उस का मातम मनाती या दूसरी को पालती? वह तो डरी हुई थी एक को खो कर. उसे डर था कहीं इसे पालने में, इस की परवरिश में कोई कमी न रह जाए.

बड़ी मुश्किल, बड़ी मन्नतों से और दुनियाभर के डाक्टरों के अनगिनत चक्कर लगाने के बाद ये बच्चियां मिली थीं, उन में से भी एक तो बची ही नहीं. दूसरी को भी डेढ़ महीने बाद डाक्टर ने उसे दिया था. बड़ी मुश्किल से मां बनी थी रूपा. वह भी शादी के 10 साल बाद. वह घबराती भी तो कैसे न घबराती. अपनी बच्ची को ले कर असुरक्षित महसूस करती भी तो क्यों न करती? वह एक बहुत घबराई हुई मां थी. वह व्यस्त नहीं, अतिव्यस्त थी, बच्ची के कामों में. उसे नहलानाधुलाना, पहनाना, इतने से बच्चे के ये सब काम करना भी तो कोई कम साधना नहीं है. वह भी ऐसी बच्ची के काम जिसे पैदा होते ही इंटैंसिव केयर में रखना पड़ा हो. जिसे दूध पिलाने जाने के लिए उस मां को डेढ़ महीने तक रोज 4 घंटे का आनेजाने का सफर तय करना पड़ा हो, ऐसी मां घबराई हुई और परेशान न हो तो क्यों न हो.

रूपा का पति यानी नवजात का पिता आदित्य भी कम व्यस्त नहीं था. रोज रूपा को इतनी लंबी ड्राइव कर के अस्पताल लाना, ले जाना. घर के सारे सामान की व्यवस्था करना. अपनी मां के लिए अलग, जच्चा पत्नी के लिए अलग और बच्ची के लिए अलग. ऊपर से दवाएं और इंजैक्शन लाना भी कम मुसीबत का काम है क्या. एक दुकान पर यदि कोई दवा नहीं मिली तो दूसरी पर पूछना और फिर भी न मिलने पर डाक्टर के निर्देशानुसार दूसरी दवा की व्यवस्था करना, कम सिरदर्द, कम व्यस्तता और कम थका देने वाले काम हैं क्या? अपनी बच्ची से बेइंतहा प्यार और बेशुमार व्यस्तता के बावजूद उस में अपनी बच्ची के प्रति असुरक्षा व भय की भावना नहीं थी बिलकुल भी नहीं, क्योंकि उस को कार्यों व कार्यक्षेत्रों में ऐसी गुंजाइश की स्थिति नहीं के बराबर ही थी.

रूपा और आदित्य के कार्यों व दायित्वों के अलगअलग पूरक होने के बावजूद उन की मानसिक और भावनात्मक स्थितियां भी इसी प्रकार पूरक किंतु, स्पष्ट रूप से अलगअलग हो गई थीं. जहां रूपा को अपनी एकमात्र बच्ची की व्यवस्था और रक्षा के सिवा और कुछ सूझता ही नहीं था, वहीं आदित्य को अन्य सब कामों में व्यस्त रहने के बावजूद अपनी खोई हुई बेटी के लिए सोचने का वक्त ही वक्त था.

मनुष्य का शरीर अपनी जगह व्यस्त रहता है, दिलदिमाग अपनी जगह. कई स्थितियों में शरीर और दिलदिमाग एक जगह इतने डूब जाते हैं, इतने लीन हो जाते हैं, खो जाते हैं और व्यस्त हो जाते हैं कि उसे और कुछ सोचने की तो दूर, खुद अपना तक होश नहीं रहता जैसा कि रूपा के साथ था. उस की स्थिति व उस के दायित्व ही कुछ इस प्रकार के थे कि उस का उन्हीं में खोना और खोए रहना स्वाभाविक था किंतु आदित्य? उस की स्थिति व दायित्व इस के ठीक उलट थे, इसलिए उसे अपनी खोई हुई बेटी का बहुत गम था. उस का गम तो सभी को था मां, नानी, दादी सभी को. कई बार उस की चर्चा भी होती थी पर अलग ही ढंग से.

‘‘उसे जाना ही था तो आई ही क्यों थी? उस ने फालतू ही इतने कष्ट भोगे. इस से तो अच्छा था वह आती ही नहीं. क्यों आई थी वह?’’ अपनी सासू मां की दुखभरी आह सुन कर आदित्य के भीतर का दर्द एकाएक बाहर आ कर बह पड़ा.

कहते हैं न, दर्द जब तक भीतर होता है, वश में होता है. उस को जरा सा छेड़ते ही वह बेकाबू हो जाता है. यही हुआ आदित्य के साथ भी. उस की तमाम पीड़ा, तमाम आह एकाएक एक छोटे से वाक्य में फूट ही पड़ी और अपनी सासू मां के निकले आह भरे शब्द ‘जाना ही था तो आई ही क्यों थी’ उस के जेहन से टकराए और एक उत्तर बन कर बाहर आ गए. उत्तर, हां एक उत्तर. एक मर्मात्मक उत्तर देने. अचानक ही सब चौंक कर एकसाथ बोल उठे. रूपा, नानी, दादी सब ही, ‘‘क्या दिया उस ने?’’

‘‘अपना प्यार. अपनी बहन को अपना सारा प्यार दे दिया. हम सब से अपने हिस्से का सारा प्यार उसे दिलवा दिया. अपने हिस्से का सबकुछ इसे दे कर चली गई. कुछ भी नहीं लिया उस ने किसी से. जमीनजायदाद, कुछ भी नहीं. वह तो अपने हिस्से का अपनी मां का दूध भी इसे दे कर चली गई. अपनी बहन को दे गई वह सबकुछ. यहां ताकि अपने हिस्से का अपनी मां का दूध भी.’’

सभी शांत थीं. स्तब्ध रह गई थीं आदित्य के उत्तर से. हवा में गूंज रहे थे आदित्य के कुछ स्पष्ट और कुछ अस्पष्ट से शब्द, ‘चली गई वह अपने हिस्से का सबकुछ अपनी बहन को दे कर. यहां तक कि अपनी मां का दूध भी…’

Mother’s Day 2025 : अम्मां जैसा कोई नहीं – क्या अनु ने अम्मा का साथ निभाया

Mother’s Day 2025 : अस्पताल के शांत वातावरण में वह न जाने कब तक सोती रहती, अगर नर्स की मधुर आवाज कानों में न गूंजती, ‘‘मैडमजी, ब्रश कर लो, चाय लाई हूं.’’

वह ब्रश करने को उठी तो उसे हलका सा चक्कर आ गया.

‘‘अरेअरे, मैडमजी, आप को बैड से उतरने की जरूरत नहीं. यहां बैठेबैठे ही ब्रश कर लीजिए.’’

साथ लाई ट्रौली खिसका कर नर्स ने उसे ब्रश कराया, तौलिए से मुंह पोंछा, बैड को पीछे से ऊपर किया. सहारे से बैठा कर चायबिस्कुट दिए. चाय पी कर वह पूरी तरह से चैतन्य हो गई. नर्स ने अखबार पकड़ाते हुए कहा, ‘‘किसी चीज की जरूरत हो तो बैड के साथ लगा बटन दबा दीजिएगा, मैं आ जाऊंगी.’’

50 वर्ष की उस की जिंदगी के ये सब से सुखद क्षण थे. इतने इतमीनान से सुबह की चाय पी कर अखबार पढ़ना उसे एक सपना सा लग रहा था. जब तक अखबार खत्म हुआ, नर्स नाश्ता व दूध ले कर हाजिर हो गई. साथ ही, वह कोई दवा भी खिला गई. उस के बाद वह फिर सो गई और तब उठी जब नर्स उसे खाना खाने के लिए जगाने आई. खाने में 2 सब्जियां, दाल, सलाद, दही, चावल, चपातियां और मिक्स फ्रूट्स थे. घर में तो दिन भर की भागदौड़ से थकने के बाद किसी तरह एक फुलका गले के नीचे उतरता था, लेकिन यहां वह सारा खाना बड़े इतमीनान से खा गई थी.

नर्स ने खिड़कियों के परदे खींच दिए थे. कमरे में अंधेरा हो गया था. एसी चल रहा था. निश्ंिचतता से लेटी वह सोच रही थी काश, सारी उम्र अस्पताल के इसी कमरे में गुजर जाए. कितनी शांति व सुकून है यहां. किंतु तभी चिंतित पति व असहाय अम्मां का चेहरा उस की आंखों के सामने घूमने लगा. उसे अपनी सोच पर ग्लानि होने लगी कि घर पर अम्मां बीमार हैं. 2 महीने से वे बिस्तर पर ही हैं.

2 दिन पहले तक तो वही उन्हें हर तरह से संभालती थी. पति निश्ंिचत भाव से अपना व्यवसाय संभाल रहे थे. अब न जाने घर की क्या हालत होगी. अम्मां उस के यानी अनु के अलावा किसी और की बात नहीं मानतीं.

अम्मां चाय, दूध, जूस, नाश्ता, खाना सब उसी के हाथ से लेती थीं. किसी और से अम्मां अपना काम नहीं करवातीं. अम्मां की हलके हाथों से मालिश करना, उन्हें नहलानाधुलाना, उन के बाल बनाना सभी काम अनु ही करती थी. सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन अम्मां के साथसाथ आनेजाने वाले रिश्तेदारों की सुबह से ले कर रात तक खातिरदारी भी उसे ही करनी पड़ती थी. उसे हाई ब्लडप्रैशर था.

अम्मां और रिश्तेदारों के बीच चक्करघिन्नी बनी आखिर वह एक रात अत्यधिक घबराहट व ब्लडप्रैशर की वजह से फोर्टिस अस्पताल में पहुंच गई थी. आननफानन उसे औक्सीजन लगाई गई. 2 दिन बाद ऐंजियोग्राफी भी की गई, लेकिन सब ठीक निकला. आर्टरीज में कोई ब्लौकेज नहीं था.

जब स्ट्रैचर पर डाल कर उसे ऐंजियोग्राफी के लिए ले जा रहे थे तब फीकी मुसकान लिए पति उस के कंधे पर हाथ रखते हुए बोले, ‘‘चिंता मत करना आजकल तो ब्लौकेज का इलाज दवाओं से हो जाता है.’’

वह मुसकरा दी थी, ‘‘आप व्यर्थ ही चिंता करते हैं. मुझे कुछ नहीं है.’’

उस की मजबूत इच्छाशक्ति के पीछे अम्मां का बहुत बड़ा योगदान रहा है.

अम्मां के बारे में सोचते हुए वह पुरानी यादों में घिरने लगी थी. उस की मां तो उसे जन्म देते ही चल बसी थीं. भैया उस से 15 साल बड़े थे. लड़की की चाह में बड़ी उम्र में मां ने डाक्टर के मना करने के बाद भी बच्ची पैदा करने का जोखिम उठाया था और उस के पैदा होते ही वह चल बसी थीं. पिताजी ने अनु की वजह से तलाकशुदा युवती से पुन: विवाह किया था, लेकिन परिस्थितियां ऐसी बनती गईं कि अंतत: नानानानी के घर ही उस का पालनपोषण हुआ था. भैया होस्टल में रह कर पलेबढ़े. सौतेली मां की वजह से पिता, भैया और वह एक ही परिवार के होते हुए भी 3 अलगअलग किनारे बन चुके थे.

वह 12वीं की परीक्षा दे रही थी कि तभी अचानक नानी गुजर गईं. नाना ने उसे अपने पास रखने में असमर्थता दिखा दी थी, ‘‘दामादजी, मैं अकेला अब अनु की देखभाल नहीं कर सकता. जवान बच्ची है, अब आप इसे अपने साथ ले जाओ. न चाहते हुए भी उसे पिता और दूसरी मां के साथ जाना पड़ा. दूसरी पत्नी से पिता की एक नकचढ़ी बेटी विभू हुई थी, जो उसे बहन के रूप में बिलकुल बरदाश्त नहीं कर पा रही थी. घर में तनाव का वातावरण बना रहता था, जिस का हल नई मां ने उस की शादी के रूप में निकालना चाहा. वह अभी पढ़ना चाहती थी, मगर उस की मरजी कब चल पाई थी.

पिताजी ने चट मंगनी पट ब्याह किया

बचपन में जब पिता के साथ रहना चाहती थी, तब जबरन नानानानी के घर रहना पड़ा और जब वहां के वातावरण में रचबस गई तो अजनबी हो गए पिता के घर वापस आना पड़ा था. उन्हीं दिनों बड़ी बूआ की बेटी के विवाह में उसे भागदौड़ के साथ काम करते देख बूआ की देवरानी को अपने इकलौते बेटे दिनेश के लिए वह भा गई थी. अकेले में उन्होंने उस के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा तथा आश्वासन भी दिया कि वे उस की पढ़ाई जारी रखेंगी. पिताजी ने चट मंगनी पट ब्याह कर अपने सिर का बोझ उतार फेंका.

अनु की पसंदनापसंद का तो सवाल ही नहीं था. विवाह के समय छोटी बहन विभू जीजाजी के जूते छिपाने की जुगत में लगी थी, लेकिन जूते ननद ने पहले से ही एक थैली में डाल कर अपने पास रख लिए थे. मंडप में बैठी अम्मां यह सब देख मंदमंद मुसकरा रही थीं. तभी ननद के बच्चे ने कपड़े खराब कर दिए और वह जूतों की थैली अम्मां को पकड़ा कर उस के कपड़े बदलवाने चली गई. लौट कर आई तो अम्मां से थैली ले कर वह फिर मंडप में ही डटी रही.

विवाह संपन्न होने के बाद जब विभू ने जीजाजी से जूते छिपाई का नेग मांगा तो ननद झट से बोल पड़ी, ‘‘जूते तो हमारे पास हैं नेग किस बात का?’’

इसी के साथ उन्होंने थैली खोल कर झाड़ दी. लेकिन यह क्या, उस में तो जूतों की जगह चप्पलें थीं और वे भी अम्मां की. यह दृश्य देख कर ननद रानी भौचक्की रह गईं. उन्होंने शिकायती नजरों से अपनी अम्मां की ओर देखा, तो अम्मां ने शरारती मुसकान के साथ कंधे उचका दिए.

‘‘यह सब कैसे हुआ मुझे नहीं पता, लेकिन बेटा नेग तो अब देना ही पड़ेगा.’’

तब विभू ने इठलाते हुए जूते पेश किए और जीजाजी से नेग का लिफाफा लिया. इतनी प्यारी सास पा कर अनु के साथसाथ वहां उपस्थित सभी लोग भी हैरान हो उठे थे.

ससुराल पहुंचते ही अनु का जोरशोर से स्वागत हुआ, लेकिन उसी रात उस के ससुर को अस्थमा का दौरा पड़ा. उन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ा. रिश्तेदार फुसफुसाने लगे कि बहू के कदम पड़ते ही ससुर को अस्पताल में भरती होना पड़ा. अम्मां के कानों में जब ये शब्द पड़े तो उन्होंने दिलेरी से सब को समझा दिया कि इस बदलते मौसम में हमेशा ही बाबूजी को अस्थमा का दौरा पड़ जाता है. अकसर उन्हें अस्पताल में भरती कराना पड़ता है. बहू के घर आने से इस का कोई सरोकार नहीं है. अम्मां की इस जवाबदेही पर अनु उन की कायल हो गई थी.

विवाह के 2 दिन बाद बाबूजी अस्पताल से ठीक हो कर घर आ गए थे और बहू से मीठा बनवाने की रस्म के तहत अनु ने खीर बनाई थी. खीर को ननद ने चखा तो एकदम चिल्ला दी, ‘‘यह क्या भाभी, आप तो खीर में मीठा डालना ही भूल गईं?’’

इस से पहले कि बात सभी रिश्तेदारों में फैलती, अम्मां ने खीर चखी और ननद को प्यार से झिड़कते हुए कहा, ‘‘बिट्टो, तुझे तो मीठा ज्यादा खाने की बीमारी हो गई है, खीर में तो बिलकुल सही मीठा डाला है.’’

ननद को बाहर भेज अम्मां ने तुरंत खीर में चीनी डाल कर उसे आंच पर चढ़ा दिया. सास के इस अपनेपन व समझदारी को देख कर अनु की आंखें नम हो आई थीं. किसी को कानोंकान खबर न हो पाई थी. अम्मां ने खीर की तारीफ में इतने पुल बांधे कि सभी रिश्तेदार भी अनु की तारीफ करने लगे थे.

विवाह को 2 माह ही बीते थे कि साथ रहने वाले पति के ताऊजी हृदयाघात से चल बसे. उन के अफसोस में शामिल होने आई मेरी मां फुसफुसा रही थीं, ‘‘इस के पैदा होते ही इस की मां चल बसी, यहां आते ही 2 माह में ताऊजी चल बसे. बड़ी अभागिन है ये.’’

तब अम्मां ने चंडी का सा रूप धर लिया था, ‘‘खबरदार समधनजी, मेरी बहू के लिए इस तरह की बातें कीं तो… आप पढ़ीलिखी हो कर किसी के जाने का दोष एक निर्दोष पर लगा रही हैं. भाई साहब (ताऊजी) हृदयरोग से पीडि़त थे, वे अपनी स्वाभाविक मौत मरे हैं. एक मां हो कर अपनी बेटी के लिए ऐसा कहना आप को शोभा नहीं देता.’’

दूसरी मां ने झगड़े की जो चिनगारी हमारे आंगन में गिरानी चाही थी, वह अम्मां की वजह से बारूद बन कर मांपिताजी के रिश्तों में फटी थी. पहली बार पिताजी ने मां को आड़े हाथों लिया था.

अम्मां के इसी तरह के स्पष्ट व निष्पक्ष विचार अनु के व्यक्तित्व का हिस्सा बनने लगे. ऐसी कई बातें थीं, जिन की वजह से अम्मां और उस का रिश्ता स्नेहप्रेम के अटूट बंधन में बंध गया. एक बहू को बेटी की तरह कालेज में भेज कर पढ़ाई कराना और क्याक्या नहीं किया उन्होंने. कभी लगा ही नहीं कि अम्मां ने उसे जन्म नहीं दिया या कि वे उस की सास हैं. एक के बाद दूसरी पोती होने पर भी अम्मां के चेहरे पर शिकन नहीं आई. धूमधाम से दोनों पोतियों के नामकरण किए व सभी नातेरिश्तेदारों को जबरन नेग दिए. बाद में दोनों बेटियां उच्च शिक्षा के लिए बाहर चली गई थीं. अम्मां हर सुखदुख में छाया की तरह अनु के साथ रहीं.

बाबूजी के गुजर जाने से अम्मां कुछ विचलित जरूर हुई थीं, लेकिन जल्द ही उन्होंने अपने को संभाल कर सब को खुश रहने की सलाह दे डाली थी. तब रिश्तेदार आपस में कह रहे थे, ‘‘अब अम्मां ज्यादा नहीं जिएंगी, हम ने देखा है, वृद्धावस्था में पतिपत्नी में से एक जना पहले चला जाए तो दूसरा ज्यादा दिन नहीं जी पाता.’’

सुन कर अनु सहम गई थी. लेकिन अम्मां ने दोनों पोतियों के साथ मिलजुल कर अपने घर में ही सुकून ढूंढ़ लिया था.

बाबूजी को गुजरे 10 साल बीत चुके थे. अम्मां बिलकुल स्वस्थ थीं. एक दिन गुसलखाने में नहातीं अम्मां का पैर फिसल गया और उन के पैरों में गहरे नील पड़ गए. जिंदगी में पहली बार अम्मां को इतना असहाय पाया था. दिन भर इधरउधर घूमने वाली अम्मां 24 घंटे बिस्तर पर लेटने को मजबूर हो गई थीं.

अम्मां को सांत्वना देती अनु ने कहा, ‘‘अम्मां चिंता मत करो, थोड़े दिनों में ठीक

हो जाओगी. यह शुक्र करो कि कोई हड्डी नहीं टूटी.’’

अम्मां ने सहमति में सिर हिला कर उसे सख्ती से कहा था, ‘‘बेटी, मेरी बीमारी की खबर कहीं मत करना, व्यर्थ ही दुनिया भर के रिश्तेदारों, मिलने वालों का आनाजाना शुरू हो जाएगा, तू खुद हाई ब्लडप्रैशर की मरीज है, सब को संभालना तेरे लिए मुश्किल हो जाएगा.’’

अम्मां की बात मान उस ने व दिनेश ने किसी रिश्तेदार को अम्मां के बारे में नहीं बताया. लेकिन एक दिन दूर के एक रिश्तेदार के घर आने पर उन के द्वारा बढ़ाचढ़ा कर अम्मां की बीमारी सभी जानकारों में ऐसी फैली कि आनेजाने वालों का तांता सा लग गया. फलस्वरूप, मेरा ध्यान अम्मां से ज्यादा रिश्तेदारों के चायनाश्ते व खाने पर जा अटका.

सभी बिना मांगी मुफ्त की रोग निवारण राय देते तो कभी अलगअलग डाक्टर से इलाज कराने के सुझाव देते. साथ ही, अम्मां के लिए नर्स रखने का सुझाव देते हुए कुछ जुमले उछालने लगे. मसलन, ‘‘अरी, तू क्यों मुसीबत मोल लेती है. किसी नर्स को इन की सेवा के लिए रख ले. तूने क्या जिंदगी भर का ठेका ले रखा है. फिर तेरा ब्लडप्रैशर इतना बढ़ा रहता है. अब इन की कितनी उम्र है, नर्स संभाल लेगी.’’

इधर अम्मां को भी न जाने क्या हो गया था. वे भी चिड़चिड़ी हो गई थीं. हर 5 मिनट में उसे आवाज दे दे कर बुलातीं. कभी कहतीं कि पंखा बंद कर दे, कभी कहतीं पंखा चला दे, कभी कहतीं पानी दे दे, कभी पौटी पर बैठाने की जिद करतीं. अकसर कहतीं कि मैं मर जाना चाहती हूं. अनु हैरान रह जाती.

रिश्तेदारों की खातिरदारी और अम्मां की बढ़ती जिद के बीच भागभाग कर वह परेशान हो गई थी. ब्लडप्रैशर इतना बढ़ गया कि उसे अस्पताल में भरती होना पड़ा.

3 दिन अस्पताल में रहने के बाद जब मैं घर आई तो देखा घर पर अम्मां की सेवा के लिए नर्स लगी हुई है. उस ने नर्स से पूछा, ‘‘अम्मां नाश्ताखाना आराम से खा रही हैं?’’

उस ने सहमति में सिर हिला दिया.

दोपहर को उस ने देखा कि अम्मां को परोसा गया खाना रसोई के डस्टबिन में पड़ा हुआ था.

नर्स से पूछा कि अम्मां ने खाना खा लिया है, तो उस ने स्वीकृति में सिर हिला दिया, यह देख कर वह परेशान हो उठी. इस का मतलब 3 दिन से अम्मां ने ढंग से खाना नहीं खाया है. नर्स को उस ने उस के कमरे में आराम करने भेज दिया और स्वयं अम्मां के पास चली गई.

अनु को देखते ही अम्मां की आंखों से आंसू बहने लगे. अवरुद्ध कंठ से वे बोलीं, ‘‘अनु बेटी, अगर मुझे नर्स के भरोसे छोड़ देगी तो रिश्तेदारों की कही बातें सच हो जाएंगी. मैं जल्द ही इस दुनिया से विदा हो जाऊंगी. वैसे ही सब रिश्तेदार कहते हैं कि अब मैं ज्यादा दिन नहीं जिऊंगी.’’

3 दिन में ही अम्मां की अस्तव्यस्त हालत देख कर अनु बेचैन हो उठी, ‘‘क्या कह रही हो अम्मां, आप से किस ने कहा? आप अभी खूब जिओगी. अभी दोनों बच्चों की शादी करनी है.’’

अम्मां बड़बड़ाईं, ‘‘क्या बताऊं बेटी, तेरे अस्पताल जाने के बाद आनेजाने वालों की सलाह व बातें सुन कर इतनी परेशान हो गई कि जिंदगी सच में एक बोझ सी लगने लगी. यह सब मेरी दी गई सलाह न मानने का नतीजा है. अब फिर से तुझ से वही कहती हूं, ध्यान से सुन…’’

अम्मां की बात सुन कर अनु ने उन के सिर पर स्नेह से हाथ फिराते हुए कहा, ‘‘अम्मां, आप बिलकुल चिंता न करो, आप की सलाह मान कर अब मैं अपना व आप का खयाल रखूंगी.’’

उस के बाद अम्मां की दी गई सलाह पर अनु के पति ने रिश्तेदारों को समझा दिया कि डाक्टर ने अम्मां व अनु दोनों को ही पूर्ण आराम की सलाह दी है, इसलिए वे लोग बारबार यहां आ कर ज्यादा परेशानी न उठाएं. साथ ही, झूठी नर्स को भी निकाल बाहर किया.

इस का बुरा पक्ष यह रहा कि जो रिश्तेदार दिनेश व अनु से सहानुभूति रखते थे, अम्मां के लिए नर्स रखने की सलाह दिया करते थे, अब दिनेश को भलाबुरा कहने लगे थे, ‘‘कैसा बेटा है, बीमार मां के लिए नर्स तक नहीं रखी, हमारे आनेजाने पर भी रोक लगा दी.’’

लेकिन इस सब का उजला पक्ष यह रहा कि 2 महीने में ही अम्मां बिलकुल ठीक हो गईं और अनु का ब्लडप्रैशर भी छूमंतर हो गया. इस उम्र में भी आखिर, अम्मां की सलाह ही फायदेमंद साबित हुई थी. अनु सोच रही थी, सच मेरी अम्मां जैसा कोई नहीं.

Writer- Neelema Tikku

Hindi Story : खेल – दिव्या तो मुझसे भी बढ़ कर खेल में माहिर निकली

Hindi Story : आज से 6-7 साल पहले जब पहली बार तुम्हारा फोन आया था तब भी मैं नहीं समझ पाया था कि तुम खेल खेलने में इतनी प्रवीण होगी या खेल खेलना तुम्हें बहुत अच्छा लगता होगा. मैं अपनी बात बताऊं तो वौलीबौल छोड़ कर और कोई खेल मुझे कभी नहीं आया. यहां तक कि बचपन में गुल्लीडंडा, आइसपाइस या चोरसिपाही में मैं बहुत फिसड्डी माना जाता था. फिर अन्य खेलों की तो बात ही छोड़ दीजिए कुश्ती, क्रिकेट, हौकी, कूद, अखाड़ा आदि. वौलीबौल भी सिर्फ 3 साल स्कूल के दिनों में छठीं, 7वीं और 8वीं में था, देवीपाटन जूनियर हाईस्कूल में. उन दिनों स्कूल में नईनई अंतर्क्षेत्रीय वौलीबौल प्रतियोगिता का शुभारंभ हुआ था और पता नहीं कैसे मुझे स्कूल की टीम के लिए चुन लिया गया और उस टीम में मैं 3 साल रहा. आगे चल कर पत्रकारिता में खेलों का अपना शौक मैं ने खूब निकाला. मेरा खयाल है कि खेलों पर मैं ने जितने लेख लिखे, उतने किसी और विषय पर नहीं. तकरीबन सारे ही खेलों पर मेरी कलम चली. ऐसी चली कि पाठकों के साथ अखबारों के लोग भी मुझे कोई औलराउंडर खेलविशेषज्ञ समझते थे.

पर तुम तो मुझ से भी बड़ी खेल विशेषज्ञा निकली. तुम्हें रिश्तों का खेल खेलने में महारत हासिल है. 6-7 साल पहले जब पहली बार तुम ने फोन किया था तो मैं किसी कन्या की आवाज सुन कर अतिरिक्त सावधान हो गया था. ‘हैलो सर, मेरा नाम दिव्या है, दिव्या शाह. अहमदाबाद से बोल रही हूं. आप का लिखा हुआ हमेशा पढ़ती रहती हूं.’

‘जी, दिव्याजी, नमस्कार, मुझे बहुत अच्छा लगा आप से बात कर. कहिए मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं.’ जी सर, सेवावेवा कुछ नहीं. मैं आप की फैन हूं. मैं ने फेसबुक से आप का नंबर निकाला. मेरा मन हुआ कि आप से बात की जाए.

‘थैंक्यूजी. आप क्या करती हैं, दिव्याजी?’ ‘सर, मैं कुछ नहीं करती. नौकरी खोज रही हूं. वैसे मैं ने एमए किया है समाजशास्त्र में. मेरी रुचि साहित्य में है.’

‘दिव्याजी, बहुत अच्छा लगा. हम लोग बात करते रहेंगे,’ यह कह कर मैं ने फोन काट दिया. मुझे फोन पर तुम्हारी आवाज की गर्मजोशी, तुम्हारी बात करने की शैली बहुत अच्छी लगी. पर मैं लड़कियों, महिलाओं के मामले में थोड़ा संकोची हूं. डरपोक भी कह सकते हैं. उस का कारण यह है कि मुझे थोड़ा डर भी लगा रहता है कि क्या मालूम कब, कौन मेरी लोकप्रियता से जल कर स्टिंग औपरेशन पर न उतर आए. इसलिए एक सीमा के बाद मैं लड़कियों व महिलाओं से थोड़ी दूरी बना कर चलता हूं.

पर तुम्हारी आवाज की आत्मीयता से मेरे सारे सिद्धांत ढह गए. दूरी बना कर चलने की सोच पर ताला पड़ गया. उस दिन के बाद तुम से अकसर फोन पर बातें होने लगीं. दुनियाजहान की बातें. साहित्य और समाज की बातें. उसी दौरान तुम ने अपने नाना के बारे में बताया था. तुम्हारे नानाजी द्वारका में कोई बहुत बड़े महंत थे. तुम्हारा उन से इमोशनल लगाव था. तुम्हारी बातें मेरे लिए मदहोश होतीं. उम्र में खासा अंतर होने के बावजूद मैं तुम्हारी ओर आकर्षित होने लगा था. यह आत्मिक आकर्षण था. दोस्ती का आकर्षण. तुम्हारी आवाज मेरे कानों में मिस्री सरीखी घुलती. तुम बोलती तो मानो दिल में घंटियां बज रही हैं. तुम्हारी हंसी संगमरमर पर बारिश की बूंदों के माध्यम से बजती जलतरंग सरीखी होती. उस के बाद जब मैं अगली बार अपने गृहनगर गांधीनगर गया तो अहमदाबाद स्टेशन पर मेरीतुम्हारी पहली मुलाकात हुई. स्टेशन के सामने का आटो स्टैंड हमारी पहली मुलाकात का मीटिंग पौइंट बना. उसी के पास स्थित चाय की एक टपरी पर हम ने चाय पी. बहुत रद्दी चाय, पर तुम्हारे साथ की वजह से खुशनुमा लग रही थी. वैसे मैं बहुत थका हुआ था. दिल्ली से अहमदाबाद तक के सफर की थकान थी, पर तुम से मिलने के बाद सारी थकान उतर गई. मैं तरोताजा हो गया. मैं ने जैसा सोचा समझा था तुम बिलकुल वैसी ही थी. एकदम सीधीसादी. प्यारी, गुडि़या सरीखी. जैसे मेरे अपने घर की. एकदम मन के करीब की लड़की. मासूम सा ड्रैस सैंस, उस से भी मासूम हावभाव. किशमिशी रंग का सूट. मैचिंग छोटा सा पर्स. खूबसूरत डिजाइन की चप्पलें. ऊपर से भीने सेंट की फुहार. सचमुच दिलकश. मैं एकटक तुम्हें देखता रह गया. आमनेसामने की मुलाकात में तुम बहुत संकोची और खुद्दार महसूस हुई.

कुछ महीने बाद हुई दूसरी मुलाकात में तुम ने बहुत संकोच से कहा कि सर, मेरे लिए यहीं अहमदाबाद में किसी नौकरी का इंतजाम करवाइए. मैं ने बोल तो जरूर दिया, पर मैं सोचता रहा कि इतनी कम उम्र में तुम्हें नौकरी करने की क्या जरूरत है? तुम्हारी घरेलू स्थिति क्या है? इस तरह कौन मां अपनी कम उम्र की बिटिया को नौकरी करने शहर भेज सकती है? कई सवाल मेरे मन में आते रहे, मैं तुम से उन का जवाब नहीं मांग पाया. सवाल सवाल होते हैं और जवाब जवाब. जब सवाल पसंद आने वाले न हों तो कौन उन का जवाब देना चाहेगा. वैसे मैं ने हाल में तुम से कई सवाल पूछे पर मुझे एक का भी उत्तर नहीं मिला. आज 20 अगस्त को जब मुझे तुम्हारा सारा खेल समझ में आया है तो फिर कटु सवाल कर के क्यों तुम्हें परेशान करूं.

मेरे मन में तुम्हारी छवि आज भी एक जहीन, संवेदनशील, बुद्धिमान लड़की की है. यह छवि तब बनी जब पहली बार तुम से बात हुई थी. फिर हमारे बीच लगातार बातों से इस छवि में इजाफा हुआ. जब हमारी पहली मुलाकात हुई तो यह छवि मजबूत हो गई. हालांकि मैं तुम्हारे लिए चाह कर भी कुछ कर नहीं पाया. कोशिश मैं ने बहुत की पर सफलता नहीं मिली. दूसरी पारी में मैं ने अपनी असफलता को जब सफलता में बदलने का फैसला किया तो मुझे तुम्हारी तरफ से सहयोग नहीं मिला. बस, मैं यही चाहता था कि तुम्हारे प्यार को न समझ पाने की जो गलती मुझ से हुई थी उस का प्रायश्चित्त यही है कि अब मैं तुम्हारी जिंदगी को ढर्रे पर लाऊं. इस में जो तुम्हारा साथ चाहिए वह मुझे प्राप्त नहीं हुआ.

बहरहाल, 25 जुलाई को तुम फिर मेरी जिंदगी में एक नए रूप में आ गई. अचानक, धड़धड़ाते हुए. तेजी से. सुपरसोनिक स्पीड से. यह दूसरी पारी बहुत हंगामाखेज रही. इस ने मेरी दुनिया बदल कर रख दी. मैं ठहरा भावुक इंसान. तुम ने मेरी भावनाओं की नजाकत पकड़ी और मेरे दिल में प्रवेश कर गई. मेरे जीवन में इंद्रधनुष के सभी रंग भरने लगे. मेरे ऊपर तुम्हारा नशा, तुम्हारा जादू छाने लगा. मेरी संवेदनाएं जो कहीं दबी पड़ी थीं उन्हें तुम ने हवा दी और मेरी जिंदगी फूलों सरीखी हो गई. दुनियाजहान के कसमेवादों की एक नई दुनिया खुल गई. हमारेतुम्हारे बीच की भौतिक दूरी का कोई मतलब नहीं रहा. बातों का आकाश मुहब्बत के बादलों से गुलजार होने लगा.

तुम्हारी आवाज बहुत मधुर है और तुम्हें सुर और ताल की समझ भी है. तुम जब कोई गीत, कोई गजल, कोई नगमा, कोई नज्म अपनी प्यारी आवाज में गाती तो मैं सबकुछ भूल जाता. रात और दिन का अंतर मिट गया. रानी, जानू, राजा, सोना, बाबू सरीखे शब्द फुसफुसाहटों की मदमाती जमीन पर कानों में उतर कर मिस्री घोलने लगे. उम्र का बंधन टूट गया. मैं उत्साह के सातवें आसमान पर सवार हो कर तुम्हारी हर बात मानने लगा. तुम जो कहती उसे पूरा करने लगा. मेरी दिनचर्या बदल गई. मैं सपनों के रंगीन संसार में गोते लगाने लगा. क्या कभी सपने भी सच्चे होते हैं? मेरा मानना है कि नहीं. ज्यादा तेजी किसी काम की नहीं होती. 25 जुलाई को शुरू हुई प्रेमकथा 20 अगस्त को अचानक रुक गई. मेरे सपने टूटने लगे. पर मैं ने सहनशीलता का दामन नहीं छोड़ा. मैं गंभीर हो गया था. मैं तो कोई खेल नहीं खेल रहा था. इसलिए मेरा व्यवहार पहले जैसा ही रहा. पर तुम्हारा प्रेम उपेक्षा में बदल गया. कोमल भावनाएं औपचारिक हो गईं. मेरे फोन की तुम उपेक्षा करने लगी. अपना फोन दिनदिन भर, रातभर बंद करने लगी. बातों में भी बोरियत झलकने लगी. तुम्हारा व्यवहार किसी खेल की ओर इशारा करने लगा.

इस उपेक्षा से मेरे अंदर जैसे कोई शीशा सा चटख गया, बिखर गया हो और आवाज भी नहीं हुई हो. मैं टूटे ताड़ सा झुक गया. लगा जैसे शरीर की सारी ताकत निचुड़ गई है. मैं विदेह सा हो गया हूं. डा. सुधाकर मिश्र की एक कविता याद आ गई,

इतना दर्द भरा है दिल में, सागर की सीमा घट जाए. जल का हृदय जलज बन कर जब खुशियों में खिलखिल उठता है. मिलने की अभिलाषा ले कर, भंवरे का दिल हिल उठता है. सागर को छूने शशधर की किरणें, भागभाग आती हैं, झूमझूम कर, चूमचूम कर, पता नहीं क्याक्या गाती हैं. तुम भी एक गीत यदि गा दो, आधी व्यथा मेरी घट जाए. पर तुम्हारे व्यवहार से लगता है कि मेरी व्यथा कटने वाली नहीं है.

अभी जैसा तुम्हारा बरताव है, उस से लगता है कि नहीं कटेगी. यह मेरे लिए पीड़ादायक है कि मेरा सच्चा प्यार खेल का शिकार बन गया है. मैं तुम्हारी मासूमियत को प्यार करता हूं, दिव्या. पर इस प्यार को किसी खेल का शिकार नहीं बनने दे सकता. लिहाजा, मैं वापस अपनी पुरानी दुनिया में लौट रहा हूं. मुझे पता है कि मेरा मन तुम्हारे पास बारबार लौटना चाहेगा. पर मैं अपने दिल को समझा लूंगा. और हां, जिंदगी के किसी मोड़ पर अगर तुम्हें मेरी जरूरत होगी तो मुझे बेझिझक पुकारना, मैं चला आऊंगा. तुम्हारे संपर्क का तकरीबन एक महीना मुझे हमेशा याद रहेगा. अपना खयाल रखना.

Emotional Story : बड़ी मन्नतों के बाद बेटा हुआ था

Emotional Story : चिकित्सा के उन्नत कहे जाने वाले युग को ऐसा कहा भी जाए या नहीं, कुछ घटनाएं घटते समय यह प्रश्न खड़ा कर देती हैं. वे घटनाएं आएदिन घट कर चिकित्सकों को तो अपना अभ्यस्त बना देती हैं लेकिन उन की कसमसाहट मिनटों, घंटों या कुछ दिनों तक ही सीमित रह जाती है. हद से हद फुरसत के क्षणों में कोई इक्कादुक्का डाक्टर उन्हें अपनी डायरी के पन्नों पर उतार लेता है. परंतु जिन के साथ वे घटी होती हैं उन के सीने में तो दर्द की स्थायी कील गाड़ देती हैं. विद्या दी अदने से मच्छर के कारण हुए डेंगू में अपने 10 वर्षीय बेटे को खो कर अपने सीने में दर्द की ऐसी ही अनगिनत कीलें गाड़ लाई थीं.

विवाह के कई वर्ष बाद, ऐलोपैथी, होम्योपैथी, गंडेतावीज, झाड़फूंक और निरी मन्नतों की बैसाखियों पर चढ़ कर पैदा हुआ था वह. दुख का उत्पीड़न सहती विद्या दी अपना मानसिक संतुलन लगभग खो ही बैठी थीं. 3 बहनों में सब से बड़ी विद्या दी की ऐसी अवस्था देख मझली सारिका ने अपना नवजात शिशु, जो उस की दूसरी संतान था, विद्या दी की गोद में डाल कर उन्हें उन के करोड़ों के व्यवसाय का उत्तराधिकारी दे दिया. बेटे को खो देने के दुख को, बेटा पा कर विद्या दी तहखानों के ढीठ अंधेरों में धकेल आईं. आरंभिक उदास, संकोची सी खुशी कुछ ही दिनों में उन के बुझे हुए चेहरे पर उन्मुक्त हो कर खिलखिला उठी.

इसे विडंबना ही कहेंगे कि तीनों बहनों में छोटी जूही के विवाह के 10 बरस बाद भी संतान का सुख प्राप्त नहीं हुआ था. ताउम्र निसंतान रह जाने से पतिपत्नी ने किसी बालक को गोद ले लेना बेहतर समझा. घर वाले विद्या दी की तरह ही किसी नातेदार के बच्चे को गोद लेने पर जोर देने लगे. परंतु उस दंपती के विचार में उस बच्चे को जिस दिन से उन रिश्तेदारों का अपने मातापिता होना पता चलेगा उसी दिन से वे दोनों उस के नाममात्र के ही मातापिता रह जाएंगे उन्होंने किसी ऐसे अनाथ बच्चे को गोद लेने का निश्चय किया जो उन की गोद में आने के बाद किसी और का न रह जाता हो.

परंतु लोगों ने किसी अनजाने अनाथ को गोद लेने में सैकड़ों भयानक खतरे बता डाले. जैसे, कौन जाने कौन जात का होगा, क्या पता किसी चोरउचक्के का ही खून हो. आंखों का, कानों का, गले का, दिलदिमाग का या फिर सब से बड़ा रोग एड्स ही ले कर आए. अनेक तर्कवितर्कों के बाद सम्मति बनी कि जानीमानी वंशपरंपरा के अभाव में सभ्य, संस्कारी लोग किसी अनजाने बच्चे को गोद नहीं ले सकते. परंतु जूही और उस के पति का निर्णय किसी के बहकाए नहीं बहका. उन्होंने बच्चे को सिर्फ और सिर्फ बच्चा जात का माना. तर्क रखा कि हमारे सभी रिश्तेदार हम से ज्यादा पैसे वाले हैं. ऐसे में हम उन के बच्चे की अधिक सुविधा वाली जिंदगी छीन कर अपना मध्यवर्गीय स्तर दे कर उस के साथ अन्याय ही करेंगे. हम क्यों न किसी ऐसे बच्चे को मातापिता के रिश्ते की सघन छांव दें जिस ने उस छांव के तले क्षणभर गुजारे बगैर ही उसे खो दिया. रही बच्चे के साथ आने वाले संभावित रोगों की बात, तो क्या आज तक किसी का अपना बच्चा कोई रोग ले कर नहीं आया. रोगों का तो आजकल क्या भरोसा, न जाने कितने लोगों को अस्पताल की गलती से एड्स से संक्रमित रोगी का रक्त चढ़ा दिया गया है. उन को एड्स होना तय है फिर वे कौन सी वंशपरंपरा के कहलाएंगे. ऐसे ही अनेक तर्क दे कर एक बड़े अस्पताल की नर्सरी से एक ऐसा शिशु गोद ले लिया गया जिस के मातापिता हमेशा जूही और उस का पति ही सिद्ध होने थे.

हर नवजात अपनी मां के लिए अनचीन्हा, अनदेखा ही होता है. कौन जाने अस्पतालों में स्टाफ की गलती से या कभी जानबूझ कर बच्चे बदल भी दिए जाते हों, कहां पहचान पाती हैं माताएं अपने नवजात को. विज्ञान के अनुसार, शिशु भले अपनी मां के गर्भ में ही उस की आवाज पहचानना सीख जाता हो पर बाहर आने पर वह भी उस के संकेत धीरेधीरे ही दे पाता है.

जूही के अनजाने बच्चे ने भी धीरेधीरे अपनी प्यारी मां को पहचान लेने के संकेत ठीक वैसे ही देने शुरू कर दिए थे जैसे कोई उस की अपनी ही कोख से जन्म ले कर देता. जब वह मातापिता को देख कर अद्भुत रूप भर मुसकराता तो कईकई पूर्व जन्मों से स्वयं को उन का अनन्य हिस्सा साबित कर देता. उस की किलकारियों के संगीत की नूतन धुनें उस दंपती के कानों में ठीक वैसे ही रस घोलतीं जैसे उन के खुद के जन्मे बच्चे की घोल पातीं. जब वह अपनी नन्हीनन्ही कोमल बांहें जूही और उस के पति के गले में पहना देता तो एक से एक नायाब फूलों की माला की रंगत भी पल में फीकी पड़ जाती. जब वह थोड़ा बड़ा हुआ तो उस दंपती को उस के हाथों अपनी वंशपरंपरा सुरक्षित दिखने लगी. उन्हें विश्वास हो गया कि अगर वे किसी संतान को जन्म दे पाते तो उस में और इस नन्हे बच्चे में कोई खास फर्क तो नहीं ही होता. विद्या दी का बेटा विलास और जूही का बेटा अविरल खूब लाड़प्यार में पलने लगे, विशेषकर विद्या दी का बेटा विलास. उस के अधिक लाड़प्यार का पहला कारण विद्या दी के दुख से जुड़ा था. अपने इकलौते बेटे को खो देने के बाद उस के हिस्से का लाड़प्यार वे स्वयं पर ऋण सरीखा समझती थीं, सो उसे विलास पर उड़ेल कर उऋण हो जाना चाहती थीं. दूसरा और शायद अधिक महत्त्वपूर्ण कारण था कि विद्या दी मझली के पति और उस के ससुरालियों को यह दिखा देना चाहती थीं कि उन की अपेक्षा उन के बेटे को उन से अधिक लाड़प्यार दे कर पाल रही हैं.

तीसरा कारण दूसरे से जुड़ा था, यह दिखाने का प्रयास कि उन की अपेक्षा वे उसे अधिक सुखसुविधाओ में पाल रही हैं. इसी धुन में विलास की हर जायजनाजायज बात मान ली जाती. परिणामस्वरूप उस की इच्छाएं दिन पर दिन बढ़ने लगी थीं. वह जो भी चीज जितनी मांगता, उस से अधिक मिलती. यही बात रुपयों पर भी लागू थी. विद्या दी के विवेकहीन प्यार का दुष्परिणाम जल्दी ही सामने आने लगा. विलास का ध्यान पढ़ाईलिखाई से पूरी तरह हट गया था. उस ने पैसे खर्च करना सीखने की उम्र से पहले ही उसे बरबाद करने के सैकड़ों तरीके खोज निकाले. उस ने धीरेधीरे विद्या दी के करोड़ों के कारोबार से अपना हाथ खींचना आरंभ कर दिया. करोड़ों का व्यापार लाखों में सिमटा, लाखों का हजारों में और हजारों से नीचे आने का अर्थ था पूरी तरह सिमटना. ‘जो चीज बढ़ती नहीं, घट जाती है,’ कहावत चरितार्थ हो गई.

ब तक, विलास की आदतें बिगड़ैल रईसों के जैसी हो गई थीं. पर विद्या दी में उस की जिदें पूरी करने की सामर्थ्य अब नहीं रह गई थी. शुरू में तो पैसों के लिए वह उन से मौखिक लड़ाइयां करता, बाद में उस ने धक्कामुक्की तक करना शुरू कर दिया. एक बार तो जूही और उस के बेटे अविरल के सामने ही उस ने विद्या दी को धक्का दे दिया था. उस दिन अविरल ने ही उन्हें गिरने से बचाया था और विलास को ऐसा न करने के लिए समझाना चाहा था पर वह उसे भी धकिया कर घर से बाहर निकल गया था. उस दिन विद्या दी ने अश्रुविगलित हो कर आंखों ही आंखों में जूही के तथाकथित संस्कारविहीन बेटे को सराहा था. उन की आंखों में ऐसी निरीहता दिखाई दी थी कि जैसे उस गाय की आंखों में जिसे कसाई बस काटना ही चाहता हो. उस दिन विद्या दी अपनी लाचारी पर तो बहुत रोईं परंतु स्वयं के अपने व्यवहार को उस दिन भी दोष नहीं दिया.

मझली बहन सारिका ने जब अपना बेटा विलास विद्या दी को सौंपा था तब विद्या दी सर्वसंपन्न थीं और सारिका सुखसुविधाओं में उन से काफी पीछे. परंतु अब सारिका के पति का व्यापार काफी बढ़ चुका था. अब सारिका स्वयं संपन्नता में रह कर अपने बेटे को पैसेपैसे के लिए लड़ते देख पश्चात्ताप से भर उठती. पैसे की कमी ने विलास को चोरी की लत लगा दी थी. अब उस के घर जो भी आता, वह उस के पर्स का बोझ थोड़ा हलका कर के ही भेजता. हद तो तब हो गई जब विलास ने स्कूल टीचर के पर्स से पैसे उड़ा लिए, एक बार नहीं कईकई बार. अनेक बार चेतावनी देने के बाद भी जब उस ने अपनी गलती को नहीं सुधारा बल्कि मारपिटाई और करने लगा तो प्रिंसिपल ने उसे स्कूल से निकाल दिया. अब उस की आवारगी प्रमाणित थी. उस की बरबादी का मार्ग पूरी तरह तब प्रशस्त हो गया जब विद्या दी के पति को लकवा मार गया और वे बिस्तर पर आ टिके. अथाह दौलत की मालकिन विद्या दी को घर का खर्च चलाने के लिए भी घर का आधा हिस्सा किराए पर देना पड़ा था.

विलास अब पूरी तरह स्वतंत्र था. अपनी आवारगी को अंजाम देने के लिए घर के सामान तक बेच आता. शराब पीता, ड्रग्स लेता, आएदिन लोगों से झगड़ा करता. पड़ोसियों ने उस की आदतों से आजिज आ कर उसे पुलिस के हवाले कर दिया. उस दिन उसे सारिका और उस का पति ही छुड़ा कर लाए, इस वादे के साथ कि वह जेल तक पहुंचने की कोई भी राह फिर कभी नहीं पकड़ेगा. परंतु वादों का स्थायित्व आचरण का अनुगामी होता है. वादा जल्दी ही टूट गया. जूही का बेटा अविरल सत्य से अनभिज्ञ था और वह दंपती अनभिज्ञ हो जाना चाहता था. सत्य की इस सुखद अनभिज्ञता में उन दोनों के चेतन मन तक ने धीरेधीरे सत्य को सचमुच ही धुंधला दिया. पुत्र से प्रेम और भी प्रगाढ़ हो गया. अब तो बस यही सच था कि जूही और उस का पति ही उस बच्चे के सगे मातापिता हैं जिन्होंने उस की राह के सब कांटों को समूल नष्ट कर दिया है. वरना क्या उन्हें उस के सगे मातापिता कहना होगा जिन्होंने निष्ठुरता की हद पार कर के उसे क्षणभर में अनाथ बना कर उस के रास्ते को अंगारों से पाट दिया था.

जूही और उस के पति ने अपने उस तथाकथित वंशहीन, जातिहीन, संस्कारविहीन संभावित रोगों की खान बेटे का पालनपोषण, सूझबूझ भरे मातापिता बन कर किया. उन्होंने अपनी शिक्षा और संस्कारों से उसे आपादमस्तक नहला दिया, अपने मनचाहे व्यवहार की शिक्षा को उस की रगरग में बहना सिखा दिया. कोरे कैनवास जैसे उस मासूम पर उन्होंने अपने मनपसंद दृष्टि लुभाते शीतल रंगों के साथ मनचाहे चित्र उकेरे. एक साधारण से बच्चे को असाधारण प्रयास कर समाज के हर क्षेत्र में मुंहबाए खड़ी प्रतियोगिताओं की कतार में सब से आगे ला खड़ा किया, जैसे किसी देसी आम के पौधे पर किसी बेहतरीन किस्म के आम की कलम लगा कर स्वादिष्ठ फल उतारे जाएं. उन दोनों के संतुलित लाड़प्यार और देखरेख ने उस अबोध के मन की सभी अवांछनीय उमंगों को स्थायी रूप से समाप्त कर दिया. विद्या दी अपनी संस्कारी बहन के निश्चित रूप से संस्कारी निकलने वाले पुत्र को भी अपनी अक्षम्य भूलों के अंधड़ में पाल कर संस्कारी नहीं बना पाई थीं. हर किसी की तरह अति ने उन्हें भी बुरा ही फल दिया था.

एक दिन विलास ने विद्या दी की अनुपस्थिति में उन के बचेखुचे गहनों को निकाल कर बेच दिया और हफ्तों के लिए घर से गायब हो गया. बिस्तर पर पड़े विद्या दी के पति विलास की विलासिता की जीत के आगे अपने जीवन की जंग हार गए. जिस दिन के लिए हिंदू समाज में लोग पुत्र की कामना करते हैं उसी दिन वह उन के साथ नहीं था और जब वह लौटा विद्या दी के पति के सभी कार्य हमेशा के लिए पूरे हो चुके थे. अब घर में विद्या दी और विलास ही रह गए थे. अब बेचने के लिए बरतनों और कपड़ों के सिवा कुछ बचा नहीं था. अपने नशे की आदतों को संतुष्ट करने के लिए विलास उन्हें भी बेच आता. विद्या दी को दबा माल निकालने का आदेश करता, नहीं मानने पर जान से मार डालने की भयावह धमकी देता. उस की सारी बांहें नशे के इंजैक्शन की सुइयों से छिदी रहतीं, घर में जगहजगह उस का संस्कारी खून टपका पड़ा रहता. अब उस के साथ विद्या दी को अपना जीवन खतरे में दिखाई देने लगा था. उन की अमीरी के समय उन की गोद में अपनी संतान डाल जाने वाली बहन ने उन की मुश्किल घड़ी में उन्हें दुखी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. अपने बेटे की बरबादी का दोष उस ने अकेली विद्या दी के सिर ही मढ़ा, किसी क्षण उन्हें अपने बेटे को गोद लेने के पश्चात्ताप से मुक्त नहीं होने दिया.

जूही ने अपने बच्चे को उस के छिन जाने के डर से रहित किसी के उलाहनों से भी इतर हो स्वतंत्र रूप से सिर्फ अपनी तरह पाला. अपनी उपस्थिति से वातावरण को सकारात्मक ऊर्जा से भर देने वाला उस का बेटा अब हट्टाकट्टा जवान हो कर नौसेना में इंजीनियर के पद पर कार्यरत था. उस ने अपने मातापिता को समाज में और भी सम्मानित बना दिया था. विद्या दी एक आवारा, नशेड़ी के साथ अपमानित और मृत्यु से मिलताजुलता जीवन जीने को अभिशप्त थीं. अपमानों और अभिशापों से भरे सैकड़ों दिनों में उस एक दिन विद्या दी के स्नान करते समय विलास ने उन की पुरानी अलमारी का ताला तोड़ लिया. कागजों से मेलजोल तो नहीं था उस का पर कुछ रुपए मिल जाने की फिराक में वह कागजों को उलटनेपलटने लगा. विद्या दी स्नान कर जल्दी ही आ गईं, उन्होंने उस के हाथ से वह फाइल छीननी चाही. फाइल की छीनाझपटी में एक पुराना सा पीला पड़ गया लिफाफा हवा में तैरता हुआ जमीन पर जा गिरा. विद्या दी उसे उठाने के लिए झुकी ही थीं कि विलास ने उन्हें धक्का दे कर वह लिफाफा उठा लिया. धक्का खा कर विद्या दी का सिर दीवार से टकराया और वे जमीन पर गिर गईं. उन की तरफ ध्यान दिए बगैर विलास लिफाफे को खोल कर पढ़ने लगा जिस में उस की सगी मां सारिका का उसे विद्या दी को सौंपने को ले कर पश्चात्ताप से भरा पत्र था जिस में उस ने अपने बेटे को वापस मांगने का विनम्र आग्रह किया था. परंतु विद्या दी का मन विलास से ऐसे जुड़ गया था जैसे जल से मीन. सो उन्होंने उस की वापसी से इनकार कर दिया.

सारिका ने बड़ी बहन की बात तो रखी परंतु कभी उन के घर जा कर, कभी विलास को अपने घर बुला कर उन्हें बताए बिना, किसी जरूरत के भी बिना उसे मुट्ठियां भरभर नोट पकड़ाने शुरू कर दिए. विद्या दी का विलास के लिए अंधा प्यार तो उसे बरबाद कर देने का सब से बड़ा अपराधी था ही, सारिका के कुतर्की व्यवहार ने भी छोटी भूमिका तो नहीं ही निभाई थी उसे आवारा बनाने में. विलास ने पत्र पढ़ लिया था. अब उस के हाथ कुबेर का दूसरा खजाना आ गया था बरबाद करने के लिए. वह विद्या दी से लड़ने के पूर्व कृत्य में उन्हें झंझोड़ने लगा था. पर वे अपने लाड़ले विलास को खो देने और फिर से निसंतान हो जाने के डर से भयभीत हो चुपचाप निकल गई थीं जीवन की जद्दोजहद से.

Love Story : आकाश और मानसी के बीच कौन सा रिश्ता था

Love Story : अचानक शुरू हुई रिमझिम ने मौसम खुशगवार कर दिया था. मानसी ने एक नजर खिड़की के बाहर डाली. पेड़पौधों पर झरझर गिरता पानी उन का रूप संवार रहा था. इस मदमाते मौसम में मानसी का मन हुआ कि इस रिमझिम में वह भी अपना तनमन भिगो ले.

मगर उस की दिनचर्या ने उसे रोकना चाहा. मानो कह रही हो हमें छोड़ कर कहां चली. पहले हम से तो रूबरू हो लो.

रोज वही ढाक के तीन पात. मैं ऊब गई हूं इन सब से. सुबहशाम बंधन ही बंधन. कभी तन के, कभी मन के. जाओ मैं अभी नहीं मिलूंगी तुम से. मन ही मन निश्चय कर मानसी ने कामकाज छोड़ कर बारिश में भीगने का मन बना लिया.

क्षितिज औफिस जा चुका था और मानसी घर में अकेली थी. जब तक क्षितिज घर पर रहता था वह कुछ न कुछ हलचल मचाए रखता था और अपने साथसाथ मानसी को भी उसी में उलझाए रखता था. हालांकि मानसी को इस बात से कोई आपत्ति नहीं थी और वह सहर्ष क्षितिज का साथ निभाती थी. फिर भी वह क्षितिज के औफिस जाते ही स्वयं को बंधनमुक्त महसूस करती थी और मनमानी करने को मचल उठती थी.

इस समय भी मानसी एक स्वच्छंद पंछी की तरह उड़ने को तैयार थी. उस ने बालों से कल्चर निकाल उन्हें खुला लहराने के लिए छोड़ दिया जो क्षितिज को बिलकुल पसंद नहीं था. अपने मोबाइल को स्पीकर से अटैच कर मनपसंद फिल्मी संगीत लगा दिया जो क्षितिज की नजरों में बिलकुल बेकार और फूहड़ था.

अत: जब तक वह घर में रहता था, नहीं बजाया जा सकता था. यानी अब मानसी अपनी आजादी के सुख को पूरी तरह भोग रही थी.

अब बारी थी मौसम का आनंद उठाने की. उस के लिए वह बारिश में भीगने के लिए आंगन में जाने ही वाली थी कि दरवाजा खटखटाने की आवाज आई.

इस भरी बरसात में कौन हो सकता है. पोस्टमैन के आने में तो अभी देरी है. धोबी नहीं हो सकता. दूध वाला भी नहीं. तो फिर कौन है? सोचतीसोचती मानसी दरवाजे तक जा पहुंची.

दरवाजे पर वह व्यक्ति था जिस की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी.

‘‘आइए,’’ उस ने दरवाजा खोलते हुए कुछ संकोच से कहा और फिर जैसे ही वह आगंतुक अंदर आने को हुआ बोली, ‘‘पर वे तो औफिस चले गए हैं.’’

‘‘हां, मुझे पता है. मैं ने उन की गाड़ी निकलते देख ली थी,’’ आगंतुक जोकि उन के महल्ले का ही था ने अंदर आ कर सोफे पर बैठते हुए कहा.

यह सुन कर मानसी मन ही मन बड़बड़ाई कि जब देख ही लिया था तो फिर क्यों चले आए हो… वह मन ही मन आकाश के बेवक्त यहां आने पर कु्रद्ध थी, क्योंकि उन के आने से उस का बारिश में भीगने का बनाबनाया प्रोग्राम चौपट हो रहा था. मगर मन मार कर वह भी वहीं सोफे पर बैठ गई.

शिष्टाचारवश मानसी ने बातचीत का सिलसिला शुरू किया, ‘‘कैसे हैं आप? काफी दिनों बाद नजर आए.’’

‘‘जैसा कि आप देख ही रहीं… बिलकुल ठीक हूं. काम पर जाने के लिए निकला ही था कि बरसात शुरू हो गई. सोचा यहीं रुक जाऊं. इस बहाने आप से मुलाकात भी हो जाएगी.’’

‘‘ठीक किया जो चले आए. अपना ही घर है. चायकौफी क्या लेंगे आप?’’

‘‘जो भी आप पिला दें. आप का साथ और आप के हाथ हर चीज मंजूर है,’’ आकाश ने मुसकरा कर कहा तो मानसी का बिगड़ा मूड कुछ हद तक सामान्य हो गया, क्योंकि उस मुस्कराहट में अपनापन था.

मानसी जल्दी 2 कप चाय बना लाई. चाय के दौरान भी कुछ औपचारिक बातें होती रहीं. इसी बीच बूंदाबांदी कम हो गई.

‘‘आप की इजाजत हो तो अब मैं चलूं?’’ फिर आकाश के चेहरे पर वही मुसकराहट थी.

‘‘जी,’’ मानसी ने कहा, ‘‘फिर कभी फुरसत से आइएगा भाभीजी के साथ.’’

‘‘अवश्य यदि वह आना चाहेगी तो उसे भी ले आऊंगा. आप तो जानती ही हैं कि उसे कहीं आनाजाना पसंद नहीं,’’ कहतेकहते आकाश के चेहरे पर उदासी छा गई.

मानसी को लगा कि उस ने आकाश की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो, क्योंकि वह जानती थी कि आकाश की पत्नी मानसिक रूप से अस्वस्थ है और इसी कारण लोगों से बात करने में हिचकिचाती है.

‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं?’’ अगले दिन भी जब उसी मुसकराहट के साथ आकाश ने पूछा तो जवाब में मानसी भी मुसकरा दी और दरवाजा खोल दिया.

‘‘चाय या कौफी?’’

‘‘कुछ नहीं… औपचारिकता करने की आवश्यकता नहीं. आज भी तुम से दो घड़ी बात करने की इच्छा हुई तो फिर चला आया.’’

‘‘अच्छा किया. मैं भी बोर ही हो रही थी,’’ मानसी जानती थी कि उन्हें यह बताने की आवश्यकता नहीं थी कि क्षितिज कहां है, क्योंकि निश्चय ही वे जानते थे कि वे घर पर नहीं हैं.

इस तरह आकाश के आनेजाने का सिलसिला शुरू हो गया वरना इस महल्ले में किसी के घर आनेजाने का रिवाज कम ही था. यहां अधिकांश स्त्रियां नौकरीपेशा थीं या फिर छोटे बालबच्चों वाली. एक वही अपवाद थी जो न तो कोई जौब करती थी और न ही छोटे बच्चों वाली थी.

मानसी का एकमात्र बेटा 10वीं कक्षा में बोर्डिंग स्कूल में पढ़ता था. अपने अकेलेपन से जूझती मानसी को अकसर अपने लिए एक मित्र की आवश्यकता महसूस होती थी और अब वह आवश्यकता आकाश के आने से पूरी होने लगी थी, क्योंकि वे घरगृहस्थी की बातों से ले कर फिल्मों, राजनीति, साहित्य सभी तरह की चर्चा कर लेते थे.

आकाश लगभग रोज ही आफिस जाने से पूर्व मानसी से मिलते हुए जाते थे और अब स्थिति यह थी कि मानसी क्षितिज के जाते ही आकाश के आने का इंतजार करने लग जाती थी.

एक दिन जब आकाश नहीं आए तो अगले दिन उन के आते ही मानसी ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, कल क्यों नहीं आए? मैं ने कितना इंतजार किया.’’

आकाश ने हैरानी से मानसी की ओर देखा और फिर बोले, ‘‘क्या मतलब? मैं ने रोज आने का वादा ही कब किया है?’’

‘‘सभी वादे किए नहीं जाते… कुछ स्वयं ही हो जाते हैं. अब मुझे आप के रोज आने की आदत जो हो गई है.’’

‘‘आदत या मुहब्बत?’’ आकाश ने मुसकरा कर पूछा तो मानसी चौंकी, उस ने देखा कि आज उन की मुसकराहट अन्य दिनों से कुछ अलग है.

मानसी सकपका गई. पर फिर उसे लगा कि शायद वे मजाक कर रहे हैं. अपनी सकपकाहट से अनभिज्ञता का उपक्रम करते हुए वह सदा की भांति बोली, ‘‘बैठिए, आज क्षितिज का जन्मदिन है. मैं ने केक बनाया है. अभी ले कर आती हूं.’’

‘‘तुम ने मेरी बात का जवाब नहीं दिया.’’ आकाश फिर बोले तो उसे बात की गंभीरता का एहसास हुआ.

‘‘क्या जवाब देती.’’

‘‘कह दो कि तुम मेरा इंतजार इसलिए करती हो कि तुम मुझे पसंद करती हो.’’

‘‘हां दोनों ही बातें सही हैं.’’

‘‘यानी मुहब्बत है.’’

‘‘नहीं, मित्रता.’’

‘‘एक ही बात है. स्त्री और पुरुष की मित्रता को यही नाम दिया जाता है,’’ आकाश ने मानसी की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा.

‘‘हां दिया जाता है,’’ मानसी ने हाथ को हटाते हुए कहा, ‘‘क्योंकि साधारण स्त्रीपुरुष मित्रता का अर्थ इसी रूप में जानते हैं और मित्रता के नाम पर वही करते हैं जो मुहब्बत में होता है.’’

‘‘हम भी तो साधारण स्त्रीपुरुष ही हैं.’’

‘‘हां हैं, परंतु मेरी सोच कुछ अलग है.’’

‘‘सोच या डर?’’

‘‘डर किस बात का?’’

‘‘क्षितिज का. तुम डरती हो कि कहीं उसे पता चल गया तो?’’

‘‘नहीं, प्यार, वफा और समर्पण को डर नहीं कहते. सच तो यह है कि क्षितिज तो अपने काम में इतना व्यस्त है कि मैं उस के पीछे क्या करती हूं, वह नहीं जानता और यदि मैं न चाहूं तो वह कभी जान भी नहीं पाएगा.’’

‘‘फिर अड़चन क्या है?’’

‘‘अड़चन मानसिकता की है, विचारधारा की है.’’

‘‘मानसिकता बदली जा सकती है.’’

‘‘हां, यदि आवश्यकता हो तो… परंतु मैं इस की आवश्यकता नहीं समझती.’’

‘‘इस में बुराई ही क्या है?’’

‘‘बुराई है… आकाश, आप नहीं जानते हमारे समाज में स्त्रीपुरुष की दोस्ती को उपेक्षा की दृष्टि से देखने का यही मुख्य कारण है. जानते हो एक स्त्री और पुरुष बहुत अच्छे मित्र हो सकते हैं, क्योंकि उन के सोचने का दृष्टिकोण अलग होता है. इस से विचारों में विभिन्नता आती है. ऐसे में बातचीत का आनंद आता है, परंतु ऐसा नहीं होता.’’

‘‘अकसर एक स्त्री और पुरुष अच्छे मित्र बनने के बजाय प्रेमी बन कर रह जाते हैं और फिर कई बार हालात के वशीभूत हो कर एक ऐसी अंतहीन दिशा में बहने लगते हैं जिस की कोई मंजिल नहीं होती.’’

‘‘परंतु यह स्वाभाविक है, प्राकृतिक है, इसे क्यों और कैसे रोका जाए?’’

‘‘अपने हित के लिए ठीक उसी प्रकार जैसे हम ने अन्य प्राकृतिक चीजों, जिन से हमें नुकसान हो सकता है, पर नियंत्रण पा लिया है.’’

‘‘यानी तुम्हारा इनकार है,’’ ऐसा लगता था आकाश कुछ बुझ से गए थे.

‘‘इस में इनकार या इकरार का प्रश्न ही कहां है? मुझे आप की मित्रता पर अभी भी कोई आपति नहीं है बशर्ते आप मुझ से अन्य कोई अपेक्षा न रखें.’’

‘‘दोनों बातों का समानांतर चलना बहुत मुश्किल है.’’

‘‘जानती हूं फिर भी कोशिश कीजिएगा.’’

‘‘चलता हूं.’’

‘‘कल आओगे?’’

‘‘कुछ कह नहीं सकता.’’

सुबह के 10 बजे हैं. क्षितिज औफिस चला गया है पर आकाश अभी तक नहीं आए. मानसी को फिर से अकेलापन महसूस होने लगा है.

‘लगता है आकाश आज नहीं आएंगे. शायद मेरा व्यवहार उन के लिए अप्रत्याशित था, उन्हें मेरी बातें अवश्य बुरी लगी होंगी. काश वे मुझे समझ पाते,’ सोच मानसी ने म्यूजिक औन कर दिया और फिर सोफे पर बैठ कर एक पत्रिका के पन्ने पलटने लगीं.

सहसा किसी ने दरवाजा खटखटाया. मानसी दरवाजे की ओर लपकी. देखा दरवाजे पर सदा की तरह मुसकराते हुए आकाश ही थे. मानसी ने भी मुसकरा कर दरवाजा खोल दिया. उस ने आकाश की ओर देखा. आज उन की वही पुरानी चिरपरिचित मुसकान फिर लौट आई थी.

इसी के साथ आज मानसी को विश्वास हो गया कि अब समाज में स्त्रीपुरुष के रिश्ते की उड़ान को नई दिशाएं अवश्य मिल जाएंगी, क्योंकि उन्हें वहां एक आकाश और मिल गया है.

Hindu : गाली तो देते ही हैं लेकिन जाति पूछ कर तो गोली सनातनी भी मारते हैं

Hindu : सरकार ने जातिगत जनगणना कराए जाने का ऐलान कर पहलगाम हमले की नाकामी पर भले ही फौरी तौर पर पानी फेरने में कामयाबी हासिल कर ली हो लेकिन जाति की राजनीति से दूर भी एक कड़वा सच और आतंक सदियों से मुंह बाए सामने खड़ा है जिसे कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता. अगर वह मजहबी जूनून था तो यह भी तो धार्मिक उन्माद ही है वह भी तथाकथित अपनों द्वारा. वही अपने जो जाति जान कर ही पानी पिलाने न पिलाने का फैसला लेते हैं.

बात 14 अप्रैल आम्बेडकर जयंती के दिन की है. पूरे देशभर के दलितों की तरह उत्तर प्रदेश के एटा के दलित भी आम्बेडकर जयंती पूरे दिल से और धूमधाम से मना रहे थे. एटा में इस दिन सुबह से ही जोश का माहौल था आम्बेडकर की शोभा यात्रा निकाले जाने की तैयारियां जोरशोर से चल रही थीं. पर किसी को एहसास या अंदाजा नहीं था कि जल्द ही यहां भी मौत के आतंक का तांडव होने वाला है.

दलित तबके का नौजवान 35 साला अनिल कुमार जलेसर के पेट्रोल पंप के नजदीक जनता क्लिनिक के मैडिकल स्टोर पर बैठा हुआ था कि तभी उसे दिनेश यादव नाम के नौजवान ने गोली मार दी. खून से लथपथ हो गए अनिल को भीड़ ने उठाया और इलाज के लिए अस्पताल ले गई. खबर एटा से होती हुई उत्तर प्रदेश में जंगल की आग की तरह फैली. देखतेदेखते गुस्साए दलित समुदाय की भीड़ ने हंगामा मचाया, दिनेश की दुकान में तोड़फोड़ की और फिर जलेसर में हाईवे जाम कर दिया. पुलिस आई मामला दर्ज हुआ और आरोपी को गिरफ्तार भी कर लिया गया.

झगड़ा दुकान के विवाद का था जिस की अहमियत मालिक के लिए किसी सरहद से कम नहीं होती. वहां भी गोलीबारी आम हैं और देशभर में आए दिन जमीन जायदाद के झगड़ों को ले कर भी गोलियां चलती रहती हैं. देश के भीतर फैले इस आतंक को कोई संजीदगी से नहीं लेता फिर एटा में तो दलित तबके के युवक पर गोली चली थी जिन को धर्म ग्रंथों के मुताबिक शूद्र, गुलाम, मवेशी नीच वगैरह कहना दबंगों का हक है.

सवर्णों के संविधान मनुस्मृति में जगहजगह हिदायत दी गई है कि शूद्र को मारना और बेइज्जत करना गुनाह नहीं बल्कि ऐसा न करना लगभग गुनाह जैसा है. ऐसा सवर्ण समुदाय की मानसिकता से आए दिन जाहिर होता रहता है.

रामायण का शम्बूक वध इस की मिसाल है जिस का सर तलवार से महज इसलिए काट डाला गया था कि वह शूद्र हो कर भी धर्मकर्म कर रहा था. महाभारत में कर्ण का वध भी जातिगत भेदभाव का ही उदाहरण है. ऐसे किस्सों कहानियों से धर्म ग्रंथ भरे पड़े हैं जिन्हें ले कर कोफ्त इस बात पर होती है कि आज भी यह मानसिकता कायम है. लोकतंत्र में शिक्षा का अधिकार होने के बाद भी दलित दलित ही हैं.

दलितों पर सवर्ण अत्याचार बेहद आम हैं. रोज सैकड़ों दलितों को तरहतरह से प्रताड़ित किया जाता है जिस में खास बातें हैं कि दलितों को मंदिरों में दाखिल मत होने दो और अगर दाखिल हों तो उन्हें तबियत से कूटो. उन्हें कुए से या नदी से पानी मत भरने दो, उन से दोचार हाथ दूर ही रहो क्योंकि उन से सटने से धर्म भृष्ट हो जाता है.

देहातों में नाइयों को सख्त हिदायत दबंग यह देते रहते हैं कि दलित की हजामत बनाई तो फिर समझ लेना, पिछले कुछ सालों से प्रताड़ना की तौरतरीकों में एक नया रिवाज यह शामिल हो गया है कि दलित दूल्हे को घोड़ी पर बैठ कर बारात मत निकालने दो क्योंकि इस रिवाज पर सिर्फ दबंगों का हक है. कई जगहों पर तो दलितों के ऊपर पेशाब करने और पिलाने की अमानवीय घटनाएं भी सामने आ चुकी हैं.

आगरा के इस ताजे मामले में भी ऐसा ही कुछ हुआ था. लेकिन उस से पहले पहलगाम हमले पर गौर करें तो दलितों का सीधे तौर पर उस से कोई लेनादेना नहीं है लेकिन सवर्णों और कट्टर हिंदुओं का है. 22 अप्रैल के आतंकी हमले के कोई चार घंटे बाद ही मीडिया और सोशल मीडिया चिल्लाचिल्ला कर कह रहा था कि उन्होंने नाम नहीं पूछा और न ही जाति पूछी बस धर्म पूछ कर हिंदुओं को गोली मारी. इस बात में दम तभी होता जब आतंकियों ने जाति भी पूछी होती और दलितों को मुसलमानों की तरह जीवनदान दे दिया होता.

इस का मतलब और संदेशा भी आईने की तरह साफ था कि मुसलमानों ने हिंदुओं को मारा. जातपात की बात तो फिजूल है अब पहले जैसा माहौल नहीं रहा दलितों को बराबर से साथ बैठाला जाता है. कोई उन्हीं जाति की बिना पर नहीं सताता, किसी भी तरह का भेदभाव नहीं करता. कोई उन की औरतों का बलात्कार नहीं करता वगैरहवगैरह.

अब ऐसा कहने वाले शूरवीर भगवा धर्मरक्षक क्या बता पाएंगे कि एटा के अनिल कुमार का गुनाह उस की जाति नहीं तो और क्या था. विवाद कुछ भी हो अगर उस की जगह कोई ब्राम्हण ठाकुर या वैश्य होता तो क्या दिनेश की हिम्मत इतनी आसानी से फायर कर देने की होती. जवाब है, नहीं होती.

रही पहलगाम हमले में जाति न पूछने की बात तो वह सौ फीसदी सही है कोई विदेशी जाति पूछ कर हिंसा या अत्याचार नहीं करता हां धर्म के चलते जरूर हिंसा और आतंक रोजरोज होते हैं. पाकिस्तान शायद इतना भी नहीं करता क्योंकि देश के बंटवारे से पहले से दलित और मुसलिम समुदाय एकदूसरे के बेहद करीब रहे हैं. ये दोनों ही सवर्ण हिंदुओं की नफरत के पात्र बनते रहे हैं.

हर कोई जानता समझता है कि अभी या कभी भी दलितों के पास इतना पैसा नहीं रहा कि वे मौजमस्ती करने घूमनेफिरने पहलगाम जाएं. यह बात आतंकी जानते थे या नहीं इस के कोई माने नहीं क्योंकि उन का मकसद मजहब के नाम पर इंसानी खून बहाना था जिस से कश्मीर में दहशत फैले. इस के लिए उन्हें किसी की जाति पूछने की जरूरत नहीं थी.

और जरूरत जिन लोगों को थी उन्होंने 22 अप्रैल की रात से ही वायरल पोस्टों के जरिए यह नेरैटिव गढ़ना शुरू कर दिया था कि कांग्रेस और इंडिया गठबंधन वाले जातिगत नफरत फैलाते हैं. भाजपा और हिंदूवादी संगठन तो इस कोशिश में लगे हैं कि जातिवाद न फैले जब कि हकीकत इस के एकदम उलट है कि ऊंची जाति वाले जिन के ये संगठन हैं वे नहीं चाहते कि शूद्र करार दिए गए एससीएसटी ओबीसी वाले किसी भी लेबल पर उन की बराबरी करें.

दबंगों को दलितों की खुशी कितनी खटकती है इस की एक बानगी बीती 17 अप्रैल को आगरा के एत्मादपुर में देखने में आई थी. हुआ सिर्फ इतना था कि एक दलित दूल्हा उन की तरह घोड़ी पर बैठ कर बारात ले जा रहा था. दुल्हन लाने की खुशी दूल्हे सहित सभी बारातियों में थी लिहाजा वे डीजे की धुन पर नाचतेगाते जा रहे थे.

इन में कुछ भजननुमा गाने यानी पैरोडी आम्बेडकर का गुणगान करती हुई भी थीं. बारात जैसे ही रात साढ़े नौ बजे जनवासे कृष्णा मैरिज होम पहुंची तो दबंगों ने आतंक पहलगाम सरीखा ही बरपाया आइए देखें इस दिन राजपूत जाति के ठाकुरों ने क्याक्या और कैसेकैसे जुल्म दलितों पर ढाए कहने की जरूरत है कि जाति की बिना पर ही ढाए –

– सब से पहले बारात पर हमला बोला.

– दलित बारातियों को डंडों लाठी और तलवारों से पीटा और घायल किया गया.

– बारातियों को जाति सूचक गालियां दी गईं.

– दूल्हे को फिल्मी स्टाइल में कालर पकड़ कर नीचे जमीन पर पटका गया.

– फिर उस पर धारदार हथियार से हमला कर उसे जख्मी किया गया.

– इसी दरम्यान उस के गले में पड़ी सोने की चैन भी दबंगों की भीड़ में से किसी ने उड़ा ली.

– जब मुकम्मल दहशत मच गई और बच्चे व औरतें चीखतेचिल्लाते घबरा कर इधरउधर भागने लगे तो बारातियों को जानवरों की तरह दौड़ादौड़ा कर मारने का लुत्फ उठाया जाने लगा.

– कुछ बारातियों के सर इस हमले में फट गए.

– दलित औरतों के साथ छेड़खानी भी की गई.

– गौतम बुद्ध और भीमराव आम्बेडकर की तस्वीरों को कुचला गया.

– घटना की खबर मिलते ही पुलिस घटना स्थल पर आ गई.

– इन दबंगों के हौसले इतने बुलंद थे कि इन्होंने पुलिस की मौजूदगी में भी कहर बरपाना जारी रखा

शायद ही क्या तय है इन ऊंची जाति वाले रसूखदार दबंगों के खिलाफ रिपोर्ट भी दर्ज न होती अगर भीम आर्मी के कार्यकर्त्ता जत्थे की शक्ल में थाने पहुंच कर पुलिस पर दबाव न बनाते. जैसेतैसे सादे ढंग से मैरिज होम के बजाय घर से शादी हुई. खौफजदा दूल्हा दबंगो की मंशा के मुताबिक पैदल ही जनवासे तक पहुंचा. लड़की वाले भीम आर्मी के कार्यकर्ताओं के साथ इधरउधर छिपे बारातियों को घर लाए, घायलों को अस्पताल पहुंचाया. लेकिन खाना किसी को नसीब नहीं हुआ क्योंकि इस हमले में रात बहुत हो गई थी. वैसे भी तमाम दलित वर और वधु पक्ष वाले दोनों दबंगों की खासी मार खा चुके थे.

दलितों की रात की सुबह कब होगी यह तो भगवान कहीं हो तो वह जाने लेकिन दबंगों ने इन के हिस्से के सूरज और रौशनी को अपनी मुट्ठी में सदियों से कैद कर रखा है. चूंकि योगी राज में दलितों पर अत्याचार हद से ज्यादा हो रहे हैं इसलिए बसपा प्रमुख मायावती ने सड़कों पर आ कर आंदोलन का ऐलान कर दिया है. यह और बात है कि दलित तबका अब उन पर भरोसा नहीं करता. क्योंकि वह बेहतर जानता है कि आज अगर भाजपा सत्ता में है तो उस की एक बड़ी वजह मायावती का मनुवादी ताकतों से हाथ मिला लेना है. जिस के तहत पिछले 4 चुनावों में बड़े पैमाने पर दलित वोट भाजपा में शिफ्ट कराने का खेल वे खेल चुकी हैं.

बात अकेले उत्तर प्रदेश की नहीं है बल्कि पूरे देश में दलित अत्याचार और प्रताड़ना शबाब पर हैं. मध्य प्रदेश के श्योपुर जिले के गांव लीलदा में 27 अप्रैल को एक दलित युवक जगदीश जाटव का शव दबंगों जो यहां रावत समाज की शक्ल में आए ने उस का दाह संस्कार ही श्मशान जो इन दिनों सरकारी जमीन पर हैं में नहीं होने दिया.

लीलदा में भी हिंसा हुई पथराव हुआ पुलिस आई फिर राजनीति हुई. लेकिन हल किसी के पास नहीं क्योंकि दबंग इसे समस्या ही नहीं मानते. जगदीश के अंतिम संस्कार में दबंगों के रोल पर राज्य अनुसूचित आयोग के सदस्य रहे प्रदीप अहिरवार दो टूक कहते हैं कि प्रदेश में ऊंचे पदों पर मनुवादी अफसर बैठे हैं. इसलिए दलितों पर तरहतरह के जुल्मोसितम बढ़ रहे हैं, इन मनुवादी अफसरों को सरकार की सरपरस्ती मिली हुई है.

जब आगरा के दलित दूल्हे की दुर्दशा दबंग कर रहे थे उसी वक्त में आरएसएस मुखिया मोहन भागवत अपना पुराना राग अलाप रहे थे कि हिंदू समाज से जातिगत भेदभाव खत्म होना चाहिए. इस के लिए एक मंदिर, एक कुआं और एक शमशान घाट होना चाहिए. इस बात को लीलदा गांव के रावतों ने ठेंगा बता कर साबित कर दिया कि इन फिजूल के उपदेशों पर सवर्ण अमल नहीं करेंगे. जिन से जीतेजी नफरत करते हैं उन से मरने के बाद भी कोई हमदर्दी सवर्ण भला क्यों रखेंगे.

बात सही भी है क्योंकि मोहन भागवत कोई 10 साल से जातिगत एकता की बात कर रहे हैं लेकिन उस का असर हर बार उल्टा होता है कि दलितों पर अत्याचार और बढ़ जाते हैं इस के पीछे के खेल को समझना किसी के लिए आसान नहीं है.

बीती 21 अप्रैल को एटा के ही जैथरा थाने में दर्ज हुई एक रिपोर्ट के मुताबिक लव कुमार और गोरेलाल यादव नाम के युवकों ने एक नाबालिग दलित लड़की के साथ न केवल लंबे समय दुष्कर्म किया बल्कि उस का वीडियो बना कर उसे ब्लैकमेल भी करते रहे. देश में रोज कहींकहीं कोई दलित लड़की दबंगों की हवस का शिकार हो रही होती है लेकिन सामाजिक एकता और समरसता के पैरोकार मोहन भागवत जैसे हिंदुत्व के ठेकेदार जाने क्यों दलित औरतों की आबरू पर खामोश रह जाते हैं.

पहलगाम हमले के बाद सरकार को शक्ति दिखाने का मशवरा देने वाले मोहन भागवत को देशभर में फैली और दलितों पर कहर ढा रही इस सवर्ण सनातनी शक्ति पर अंकुश लगाने कुछ कहने की हिम्मत पड़ेगी ऐसा लगता नहीं क्योंकि हिंदुत्व का मकसद और मंशा दोनों दलितों को पिछड़ा और बदतर बनाए रखने के हैं.

हाल तो यह है कि आईएएस के इम्तिहान में जब प्रयागराज की होनहार युवती शक्ति दुबे ने टौप किया तो सोशल मीडिया पर एक पोस्ट खूब वायरल हुई जिस में लिखा था, यह है ब्राम्हणों का तेज अरे कहां मर गए सब आरक्षण जीवी. दलितों को आरक्षण की सहूलियत पर भी अपमानित करने वाली इस पोस्ट को ब्राम्हणों एकता मंच नाम के संगठन ने बनाया और वायरल किया था.

जान कर हैरानी होती है कि हाल के दिनों में जिन दलितों पर जानबूझ कर ज्यादा निशाना साधा गया उन में से अधिकतर पढ़ेलिखे युवा थे. एटा का अनिल कुमार बीफार्मा और बीएससी पास था. मध्यप्रदेश के श्योपुर जिले के लीलदा गांव का जगदीश जाटव बैंगलुरू की एक प्राइवेट कंपनी में अच्छे पद पर था जिस की मौत एक सड़क हादसे में हो गई थी.

सवर्णों के दिल में कितनी हमदर्दी और भाईचारा दलितों के लिए है यह हिंदू समाज और धर्म के ठेकेदारों को इस और ऐसे हजारों मामलों से देखनो को मिलता है. जिन का मकसद यह है कि दलित उन की गुलामी ढोते रहें वे पढ़लिख कर जागरूक न बने देश की तरक्की में योगदान न दें.

हाल तो यह है कि उच्च शिक्षण संस्थानों में भी जातिगत अपमान इतना होता है कि रोहित वेमुला जैसे होनहार छात्र आत्महत्या करने मजबूर हो जाते हैं. इस समस्या को हाल ही के एक रिसर्च पेपर में उजागर किया गया है. इस शोध का शीर्षक है जाति अस्मिता और चुनौतियों की सरचना तिरस्कार पूर्वाग्रह और भारतीय विश्वविद्यालयों में सामाजिक प्रतिनिधित्व. दिलचस्प बात यह भी है कि इसे अमेरिका और ब्रिटेन की नामी यूनिवर्सिटीज के विशेषज्ञों ने तैयार किया है.

इस शोध पत्र में आमतौर वही बातें हैं जिन्हें हर कोई जानता है मसलन आरक्षित श्रेणी के छात्रों को उन की जाति की पहचान से ताल्लुक रखते तानों का सामना करना पड़ता है. इस का उन के स्वाभिमान कल्याण और शैक्षिक प्रदेशन पर बुरा असर पड़ता है.

लेकिन नाकाबिले बर्दाश्त बात एससी एसटी और ओबीसी की छात्राओं से यह सवाल पूछा जाना है कि तुम कोटे से आई हो कोठे से. इन तबके के छात्रों को बकासुर और कुंभकर्ण जैसे पौराणिक संबोधनों से तो बेइज्जत किया जाता है लेकिन उन्हें सरकारी दामाद, भिखारी, हरामजादा, सूअर कह कर भी ताने मारे जाते हैं.

पहलगाम के हमलावर अगर मजहबी जूनून में थे तो दलितों को रोजरोज जीतेजी मार देने वाले सनातनधर्मी भी धार्मिक उन्माद में ही होते हैं. उन से तो हमारी सेना निबट सकती है लेकिन इन का क्या.

Bollywood : बौक्स औफिस पर न धर्म व जाति चला, न देशभक्ति चला

Bollywood : अप्रैल माह के चौथे सप्ताह यानी कि 25 अप्रैल को प्रदर्शित ‘फुले’ और ‘ग्राउंड जीरो’ फिल्मों को जिस तरह से दर्शकों ने ठुकराया है, उस से एक बात साफ हो जाती है कि अब भारत बदल चुका है. यह ‘नया भारत’ है. इस नए भारत की जनता को धर्म, जाति या देशभक्ति का झुनझुना पकड़ा कर फुसलाया या मूर्ख नहीं बनाया जा सकता. दूसरी बात यह भी साफ हो गई कि अब दर्शक फिल्मकारों की अपनी फिल्म के रिलीज से पहले पैदा की जाने वाली कंट्रोवर्सी के झांसे में आने से रहा.

दलित वर्ग के मसीहा कहे जाने वाले महात्मा ज्योति राव फुले और उन की पत्नी सावित्री फुले के जीवन पर फिल्मकार अनंत नारायण महादेवन ने फिल्म ‘फुले’ का निर्माण किया, जिसे 11 अप्रैल को महात्मा ज्योतिराव फुले की जन्म जयंती के दिन रिलीज किया जाना था, मगर अचानक इस फिल्म की रिलीज टाल कर 25 अप्रैल कर दी गई और फिल्मकार ने बयान जारी किया कि पुणे, महाराष्ट् के ब्राम्हण संगठनों के विरोध और सैंसर बोर्ड की आपत्ति के चलते फिल्म 11 अप्रैल को रिलीज नही हो पा रही है. उस के बाद सोशल मीडिया और यूट्यूब पर फिल्म ‘फुले’ को ले कर जबरदस्त विवाद पैदा किया गया.

12 अप्रैल को पुणे से हिंदू ब्राम्हण संगठन’ के अध्यक्ष दवे ने कुछ टीवी चैनलों से बातचीत करते हुए कहा -‘‘हम ने फिल्म ‘फुले’ के रिलीज का विरोध नहीं किया. हम ने सिर्फ फिल्म निर्माता से मांग की थी कि वह फिल्म में ब्राम्हणों के योगदान को भी दिखाएं.’’ लेकिन पूरे 15 दिन तक अनंत नारायण महादेवन तमाम चैनलों व सोशल मीडिया पर बरसाती आंसू बहाते हुए फिल्म को ले कर विवाद को गर्म हवा देते रहे.

सैंसर बोर्ड द्वारा जिन दृश्यों को काटने की बात की जा रही थी, वह सभी दृश्य फिल्म में मौजूद हैं. इस तरह की गलत कंट्रोवर्सी पैदा कर निर्माता को कुछ नहीं मिला, फिल्म ‘फुले’ को नुकसान ही हुआ. और समाज में वैमनस्यता पैदा करने का ही प्रयास किया गया. इतना ही नहीं यह बात भी साबित हो गई कि आम जनता समझदार है, और अनुराग कश्यप जैसे लोगों द्वारा विवादास्पद बयानों पर वह यकीन नहीं करते.

सच तो यह है कि फिल्म ‘फुले’ जिस तरह से बनी है, उस तरह की फिल्मो को सिर्फ सरकारी पुरस्कार मिलते हैं, दर्शक नहीं. 25 करोड़ की लागत में बनी फिल्म ‘फुले’ ने पूरे 7 दिन के अंदर केवल दो करोड़ रूपए ही बौक्स औफिस पर एकत्र किए. इन में से निर्माता की जेब में कुछ नहीं आएगा, बल्कि निर्माता को थिएटर ओनरों को अपनी जेब से कुछ धन राशि देनी है.

इस फिल्म के निर्देशक अनंत नारायण महादेवन को भी पता था कि इस तरह के विषयों पर बनी फिल्मों को दर्शक नहीं मिलते. दूसरी बात अभिनेता प्रतीक गांधी को लोग केवल ओटीटी पर देखना पसंद करते हैं, उन्हें सिनेमा की टिकट खरीद कर देखना कोई नहीं चाहता. प्रतीक गांधी की अभी तक कमर्शियल वैल्यू नहीं बनी है और प्रतीक गांधी हवा में तैरते रहते हैं. वह खुद अपने आप को देश का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता मानते हैं, मगर कमर्शियल फिल्म का दर्शक ऐसा नहीं मानता.

फिल्म ‘फुले’ में दिखाया गया कि ज्योति राव फुले के पास 35 एकड़ जमीन है. वह अंग्रेजों के साथ मिल कर काम कर रहे हैं, इस वजह से ज्योति राव फुले के प्रति लोगों की कोई हमदर्दी नहीं उपजती. वह फिल्म में व्यवसायी ज्यादा नजर आते हैं. ब्राम्हणों की जमीन पर उन की मदद से स्कूल खोल देना या ब्राम्हणों से पैसे ले कर किताब लिख देना समाज सुधार नहीं कहलाता.

25 अप्रैल को ही रिलीज हुई इमरान हाशमी की फिल्म ‘ग्राउंड जीरो’ महा डिजास्टार साबित हुई. 50 करोड़ रूपए की लागत वाली इस फिल्म ने 7 दिन में केवल 7 करोड़ रुपए ही बौक्स औफिस पर एकत्र किए. इस में से निर्माता की जेब में जाएंगे महज ढाई करोड़ रूपए. फिल्म की शूटिंग के दौरान पूरी यूनिट के चाय पीने और भोजन का ही बिल ढाई करोड़ रुपए हो गया होगा.

पहले सप्ताह के बौक्स औफिस आंकड़ें के आधार पर कहा जा सकता है कि फिल्म ‘ग्राउंड जीरो’ का लाइफटाइम कलैक्शन महज 10 करोड़ रुपए ही रहेगा. फिल्म ‘ग्राउंड जीरो’ की इस दुर्गति के लिए इस के निर्देशक और अभिनेता इमरान हाशमी सिरे से जिम्मेदार हैं. कहानी कश्मीर में तैनात रहे बीएसएफ औफिसर नरेंद्र नाथ धर दुबे के जीवन की है, जिन्होंने 2003 में आतंकवादी गाजी बाबा को मौत की नींद सुलाया था.

अब बीएसएफ औफिसर नरेंद्र नाथ धर दुबे के किरदार में इमरान हाशमी कहीं से फिट नहीं बैठते. इमरान हाशमी की ईमेज एक बेहतरीन अभिनेता की बजाय ‘सीरियल किसर’ की ही रही है. फिल्म के निर्देशक तेजस प्रभा विजय देउस्कर की 15 साल में दो मराठी व एक हिंदी के बाद ‘ग्राउंड जीरो’ चौथी और हिंदी में दूसरी फिल्म है. उन की अबतक एक भी फिल्म सफल नहीं रही है, मगर तेजस प्रभा विजय देउस्कर को अहम है कि उन से बेहतर फिल्म कोई बना नहीं सकता. वह फिल्म के रिलीज से पहले फिल्म के प्रमोशन के लिए सिटी टूर करने में बिजी थे. उन के पास पत्रकारों से बात करने का वक्त नहीं था. लेकिन फिल्म के फ्लौप होने के चार दिन बाद उन्हें पत्रकारों की याद आने लगी. फिल्म निर्देशक तेजस प्रभा विजय देउस्कर को गंभीरता से सोचना चाहिए कि अगर उन से ज्यादा बेहतरीन फिल्म कोई बना नहीं सकता, तो फिर क्या वजह रही कि 22 अप्रैल को पहलगाम में आतंकवादी हमला हुआ और 25 अप्रैल को ‘ग्राउंड जीरो’ रिलीज हुई,फिर भी लोगों ने इसे नहीं देखा. फिल्मकार भूल गए कि आजकल लोग अपनी गाढ़ी कमाई को बेफजूल खर्च नहीं करते.

अप्रैल माह के चौथे सप्ताह यानी कि 25 अप्रैल को ही राज कुमार संतोषी निर्देशित व आमीर खान के अभिनय से सजी 1994 में रिलीज हो चुकी फिल्म ‘अंदाज अपनाअपना’ को ‘रीरिलीज’ किया गया.

1994 में भी यह फिल्म बुरी तरह से फ्लौप हुई थी. रीरिलीज होने पर 7 दिन में इस फिल्म ने बौक्स औफिस पर केवल एक करोड़ रूपए ही एकत्र किए. अब फिल्मकारों को कौन समझाए कि काठ की हांडी बारबार नहीं चढ़ती.

 

 

Hindi Kahani : तुम्हारी बेटी नेहा – क्या तलाक होने के बाद पुरुष अच्छा पति नहीं बन सकता?

Hindi Kahani : सुबह किचन की खटरपटर से आंख खुली तो देखा, मेरी बेटी नेहा नाश्ता बना रही थी. मैं ने उसे मीठी झिड़की देते हुए कहा, “तूने मुझे उठाया क्यों नहीं, जा, बाकी का काम मैं करती हूं, तू औफिस के लिए तैयार हो जा.”

“मैं ने सोचा, आज अच्छा सा नाश्ता बना कर आप को सरप्राइज़ देती हूं. आप हमेशा चिंता  करती हैं न कि मैं खाना बनाने में रुचि नहीं लेती, तो ससुराल वालों को कैसे खुश रखूंगी…?”

“नहीं रे, मैं जानती हूं कि मेरी बेटी सिर पर पड़ेगा तो सब कर लेगी. वह कभी ससुराल वालों को शिकायत का मौका नहीं देगी,” गर्व से मैं ने यह कहा. फिर कुछ सोच कर आगे बोली, “बेटा, तुझे औफिस जाने में अभी एक घंटा बाकी है, मैं भी थोड़ा सा काम निबटा कर तैयार हो जाती हूं, तू मुझे निशा आंटी के घर पर छोड़ देना, ठीक है?”

मैं ने उस को मना करने का मौका ही नहीं दिया. वह मेरी बात सुन कर मुसकरा दी और बोली, “अच्छा वही, जो परसों पापा के साथ आप को मौल में मिली थीं. आप की बचपन की सहेली, जिन के बारे में बातें बताने में आप ने रात में बहुत देर तक मुझे और पापा को जगाए रखा था. अब समझी, इसीलिए इतना मस्का लगाया जा रहा था. अब आप को ले कर तो जाना ही पड़ेगा क्योंकि मैं जानती हूं कि मेरी ममा कुछ मामलों में कभी समझौता नहीं करतीं.”

“हां रे, उस से मिलने के बाद उस के बदले रंगरूप को देख कर उस के बारे में जानने के लिए बेचैन हूं.”

कार में बैठ कर नेहा ने निशा से उस का पता पूछा. उस का घर उस के औफिस के रास्ते में ही था. नेहा ने चैन की सांस ली कि वह औफिस के लिए लेट नहीं होगी.

निशा अपने घर के दरवाज़े पर ही मेरी प्रतीक्षा कर रही थी. नेहा ने बाहर से ही विदा लेनी चाही तो निशा ने उस से कहा, ”नहीं, पहली बार घर आई है, थोड़ी देर तो रुकना ही पड़ेगा, अपनी प्यारी सहेली की बेटी को जीभर कर देख तो लूं.” और उस का हाथ पकड़ कर उसे अंदर ले आई. ड्राइंगरूम के अंदर घुसते ही मेरी निगाह दीवार पर लगी दिवाकर की माला पहने हुए बड़ी सी फोटो पर पड़ी, जैसे कि वह निशा की सूनी मांग की गवाही दे रही हो.

फोटो की ओर उंगली इंगित करते हुए सहसा मैं सकते की हालत में बोल पड़ी, “यह कब और कैसे हुआ?”

“मां…मां…” की आवाज़ लगाते हुए निशा के बेटे दिनेश के कमरे में प्रवेश करने के साथ ही मेरा प्रश्न अनुत्तरित रह गया. वह अचानक हमें देख कर अचकचा कर झेंप गया.

मेरे पैर छूते हुए उस ने नेहा की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखते हुए अचंभित हो कर बोला, “अरे, नेहा, तुम, यहां कैसे?”

वह फिर मेरी तरफ झेंपते हुए देख कर बोला, ”आंटी, यह आप की…?”

“मेरी बेटी है, तुम इसे कैसे जानते हो?” मैं ने उस की बात बीच में ही काटते हुए कहा.

“अरे मां, यह मेरे ही औफ़िस में काम करता है. मुझे पता ही नहीं था कि यह निशा आंटी का बेटा है. व्हाट अ को- इंसिडेंस!” इस बार नेहा के जवाब देने की बारी थी.

“तुम्हें औफ़िस जाना है तो मेरी ही गाड़ी से चलो, लौटते में यहीं आ कर आंटी को अपने

साथ ले जाना,” उन के इस अप्रत्याशित, अनौपचारिक वार्त्तालाप को मैं ने और निशा ने अवाक हो कर मुसकरा कर देखते हुए, उन को जाने की मूक स्वीकृति दे दी.

उन दोनों के जाने के बाद मैं बोली, “ऐसे चमत्कार की तो कभी कल्पना भी नहीं की थी कि हमारे बच्चे भी एकदूसरे को जानते हैं. ऐसा तो फिल्मों में ही देखा है. खैर, अब तू अपनी

सुना, तूने मुझे पत्र लिखना क्यों छोड़ दिया? मैं ने इधर कुछ सालों से तुझे फ़ेसबुक पर

भी कितना ढूंढा, लेकिन सब व्यर्थ.”

वह मेरी उत्तेजना को शांत करते हुए बोली, “बैठ तो, मैं तुझे सब बताती हूं.

थोड़ी देर के लिए वह कुछ सोच में पड़ गई, जैसे समझ न पा रही हो कि वह कहां से बातों का सिलसिला शुरू करे. फिर अपने को थोड़ा संयत करते हुए बोली, “जयपुर में ग्रेजुएशन पूरी करने के बाद तू तो दिल्ली चली गई, दिवाकर पिता के व्यवसाय में लग गया और मैं प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने का कार्य करने लगी.

“एक दिन अचानक मेरा एक पत्र दिवाकर के पिता के हाथ लग गया. उन्होंने उस से पूछताछ की तो उस ने मेरे बारे में उन्हें सबकुछ सचसच बता दिया. उस ने यह भी बता दिया कि वह मुझ से विवाह करना चाहता है, लेकिन मुझ से मिलने के बाद उस के मातापिता ने मुझ से विवाह की अनुमति देने से साफ़ इनकार कर दिया. मेरा साधारण सा घर और साधारण शक्लसूरत वाली मैं, दोनों ही उन के उच्चस्तरीय रहनसहन से मेल नहीं खा रहे थे. उन का कहना था कि वे बिरादरी को क्या मुंह दिखाएंगे? उन के लिए बेटे के सुख से अधिक महत्त्वपूर्ण बिरादरी थी. लेकिन दिवाकर अपने निर्णय से टस से मस नहीं हुआ तो इकलौते बेटे को खोने के डर से उन्होंने विवाह की स्वीकृति दे दी.

विवाह तो हो गया, लेकिन उन्होंने मुझे कभी मन से स्वीकार नहीं किया. मैं ने हर तरीके से उन को खुश रखने की कोशिश की. लेकिन उन की कल्पना में बसी बहू का स्थान मैं कभी नहीं ले सकी.

विवाह के 2 साल के अंदर मेरी गोद में दिनेश आ गया. अभी हम उस का पहला जन्मदिन भी नहीं मना पाए थे कि अचानक दिवाकर की कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई.” यह सुनते ही मैं सकते में आ गई.

“ओह, इतनी जल्दी… यह तो बहुत बुरा हुआ,” मैं आंखें चौड़ी कर के हतप्रभ उस की ओर देख रही थी.

इतना बता कर निशा थोड़ी देर के लिए मौन हो गई, जैसे वह अतीत में पहुंच गई हो.

उस की आंखों में आंसू छलछला आए. मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उस को क्या कह कर सांत्वना दूं. मैं कुछ भी बोलने की स्थिति में न थी.

उस ने तटस्थ हो कर आगे बताया, “उस के बाद तो मेरे सासससुर ने मुझे यह कह कर प्रताड़ित करना शुरू कर दिया कि मेरा मनहूस साया पड़ने के कारण ही उन के बेटे की असमय मृत्यु हो गई है. मेरा ससुराल में रहना दूभर हो गया था, इसलिए मैं अपने मातापिता के पास लौट गई.

“मैं ने फिर से स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया. मेरे मातापिता ने इकलौती संतान होने के कारण, मुझे कभी किसी चीज़ की कमी नहीं होने दी. दिवाकर की कमी की भरपाई करने के लिए भी उन्होंने मेरा दूसरा विवाह करने की बहुत कोशिश की, लेकिन मैं ने उन को अच्छी तरह समझा दिया कि दिवाकर का स्थान मेरे जीवन में कभी कोई नहीं ले सकता. अंत में उन को मेरे इस इरादे से समझौता करना ही पड़ा.

मेरे मातापिता मेरे दुख से अंदर ही अंदर घुल कर एक के बाद एक इस संसार से विदा हो गए. उस समय दिनेश की उम्र 14 वर्ष थी.

“समय बीतता गया और दिनेश की पिलानी से इंजीयरिंग की पढाई पूरी करने के बाद बेंगलुरु की एक कंपनी में नौकरी लग गई. दिनेश की नौकरी लगने के बाद मैं भी जयपुर छोड़ कर उस के साथ रहने के लिए बेंगलुरु चली गई.”

थोड़ी देर के लिए उस की वाणी पर विराम लग गया था. मैं ने कहा, “मुझे अफ़सोस है कि मैं ने तुम्हारे घाव हरे कर दिए.”

“नहीं रे, तुझ से अपना दुख बांट कर तो मेरा मन हलका हो रहा है. अब तू ही बता इतना कुछ झेलते हुए, तुझे मैं कैसे पत्र लिखती. लेकिन यह सच है कि मैं तुझे कभी नहीं भूली,” उस ने गहरी सांस लेते हुए कहा.

“तभी तो कुदरत ने हमें दोबारा मिला दिया,” मैं ने वातावरण को हलका करने के लिए कहा.

“थक गई होगी मेरी रामकहानी सुनतेसुनते, मैं चाय बना कर लाती हूं,” कह कर वह उठ कर चली गई.

चाय पीतेपीते मैं ने बातों का सिलसिला ज़ारी रखते हुए पूछा, “लेकिन बेंगलुरु से यहां पूना कब और क्यों आई?”

“इस के पीछे भी एक बहुत बड़ा कारण है,” इतना बोलने के बाद क्षणभर के लिए वह चुप हो गई.

मैं अवाक सोच में पड़ गई कि अब पता नहीं वह और कौन से जीवन के दुखद राज़ खोलेगी. उस के चेहरे के भावों से यह तो ज्ञात हो ही रहा था कि उस का यह अनुभव भी सुखद नहीं होगा.

उस ने कहना शुरू किया, “दिनेश की अच्छी कंपनी में नौकरी लगने के बाद मैं उस के विवाह के सपने देखने लग गई थी. उस के विवाह के बारे में मैं सोचूं, इस के पहले ही उस ने बताया कि वह अपनी एक सहकर्मी को मेरी बहू बनाना चाहता है. मेरा मन खुशी से फूला नहीं समाया कि इस से अच्छा और क्या है कि मेरे बेटे ने स्वयं ही लड़की ढूंढ ली है. एक दिन वह नीरू को औफिस से अपने साथ ही मुझ से मिलाने ले आया.

“वह शक्लसूरत से प्यारी थी, पढ़ीलिखी थी और फिर मेरे बेटे को पसंद थी. सो, मुझे कुछ सोचने की आवश्यकता ही नहीं लगी.

“विवाह के बाद धीरेधीरे बहू की तुनकमिजाजी, हर बात में बहस करना, अपनी बात मनवा कर छोड़ना, छोटीछोटी बातों पर रूठ कर अपने मायके जा कर बैठ जाना… मुझे और दिनेश को अखरने लगा. मैं ने उसे बहुत समझाने की कोशिश की कि विवाह एक समझौता होता है. लेकिन वह मेरी बात अनसुनी कर देती थी. उस की मां ने उस को कभी समझाने की कोशिश नहीं की. अंत में वही हुआ जिस की मैं ने कल्पना नहीं की थी, तलाक…

“उस के बाद हमारा मन बेंगलुरु में नहीं लगा. दिनेश ने यहां दूसरी नौकरी ढूंढ ली और 6

महीने पहले हम यहां आ गए. मैं न अच्छी बहू बन सकी और न अच्छी सास,” उस ने

एक सांस में सबकुछ कह दिया, गहरी उदासी उस के चेहरे से झलकने लगी.”

उस को सहज करने और हिम्मत देने के लिए मैं ने कहा, “अरे, ऐसा क्यों सोचती है? गलत लोगों से रिश्ता होने के कारण अपनेआप को कम मत आंक. यह तो उन लोगों की बेवकूफी है कि उन्होंने तेरी कद्र नहीं की. उसे एक दुर्घटना समझ कर भूल जा.

“दिवाकर और अपने मातापिता के जाने के बाद मैं अपने को बहुत अकेला महसूस कर रही थी, लेकिन अब तुझ से मिलने के बाद यह एहसास कम हो गया है. अब तू अपने तथा अपने परिवार के बारे में भी तो कुछ बता?” उस ने थोड़ा तटस्थ हो कर उत्सुकता से पूछा.

प्रत्युत्तर में मैं ने बताया, “मेरा तो जीवन सीधासपाट है. मेरे 2 बच्चे हैं. बड़ा बेटा अपने परिवार के साथ अमेरिका में बस गया है. एक बेटी और पति हैं, उन से तो तू मिल ही चुकी है.”

मुझे निशा के घर आए कई घंटे हो गए थे. हम ने जीभर कर पुरानी यादों के समुद्र में गोते लगाए. निशा ने कहा कि आज पता नहीं कितने वर्षों बाद उसे हंसी आई है. अचानक नेहा के कार के हौर्न की आवाज़ बाहर से सुनाई दी तो मैं घर लौटने के लिए खड़ी हो गई. निशा ने खाना खा कर जाने का मुझ से बहुत आग्रह किया. लेकिन मैं ने  फिर कभी कह कर उस से जाने की अनुमति मांगी. 2 दिनों बाद ही रविवार था. निशा को अपने बेटे के साथ अपने घर पर रात के खाने के लिए आमंत्रित कर के मैं ने विदा ली.

रविवार शाम को निशा अपने बेटे के साथ हमारे घर आ गई. आने के बाद वह बारबार कह रही थी कि मुझ से मिलने के बाद वह बेहद खुश है. इधर मेरा भी यही हाल था. खाते हुए उसे इस बात की बहुत खुशी हुई कि इतने सालों में भी मैं उस की पसंद को नहीं भूली हूं. खाना खाने के बाद बहुत देर तक बैठ कर बातें होती रहीं, कब रात के 11 बज गए, पता ही न चला.

इस के बाद आएदिन हम लोग एकदूसरे के घर जाने लगे थे. अकसर नेहा मुझे निशा के घर छोडती हुई दिनेश के साथ औफ़िस चली जाती और लौटते समय मुझे लेती हुई घर आ जाती.

समय अपनी रफ़्तार से बीत रहा था. समय में बदलाव के अनुसार मैं ने एक दिन नेहा से पूछा, ”बेटा समय से सभी काम होने चाहिए. मैं चाहती हूं कि तू अगले महीने 25 वर्ष की हो जाएगी. अब तेरी शादी होनी चाहिए. तुझे कोई पसंद है तो बता दे, नहीं तो मैं कोशिश करूं.”

वह जैसे इसी मौके की ताक में ही थी. बिना किसी भूमिका के सपाट स्वर में बोली, “ममा, मैं और दिनेश आपस में शादी करना चाहते हैं.”

मैं अचानक इस अप्रत्याशित बात को सुन कर हतप्रभ रह गई. थोड़ी देर तो मैं अवाक रह कर सोच में पड़ गई, फिर चिल्ला कर बोली, “तेरा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है, तुझे पता है न, कि वह तलाकशुदा है. फिर बिरादरी वाले क्या कहेंगे, यह भी तूने सोचा है? मेरी तो नाक ही कट जाएगी. तेरे विवाह के लिए मैं ने पता नहीं कितने सपने देखे हैं. ऐसी तुझ में क्या कमी है कि ऐसे लड़के से तू शादी करेगी?”

“तो क्या हुआ मां, तलाक होने के बाद कोई पुरुष भविष्य में क्या अच्छा पति नहीं बन सकता? इस में उस की कोई गलती नहीं है. यह उस के समय की विडंबना ही समझो. उस ने मुझ से कोई बात छिपाई नहीं. मुझे तो वह पहले ही बहुत पसंद था, लेकिन जब पता लगा कि उस की

मां आप की बचपन की सखी हैं, तो मुझे अपने रिश्ते पर गर्व होने लगा और क्या गारंटी है कि अविवाहित लड़के के साथ मैं खुश ही रहूंगी?”

मैं ने अपने पति को बुलाकर नेहा को समझाने की बात कही, तो मेरे पति सारी स्थिति समझ कर बोले, ”समय बहुत बदल गया है, नेहा पढ़ीलिखी लड़की है. इस को अपनी पसंद का जीवनसाथी ढूंढने का पूरा अधिकार है. जानापहचाना परिवार है. लड़का भी अच्छी पोस्ट पर काम कर रहा है. जब उस के तलाकशुदा होने से नेहा को कोई एतराज़ नहीं, तो हमें क्यों है?”

मैं ने अमेरिका फोन कर के अपने बेटेबहू से भी सलाह ली, तो उन्होंने भी कहा कि जब नेहा राजी है, तो उन को भी कोई आपत्ति क्यों होगी. सब के तर्क के सामने मेरे लिए सोचने को कुछ बचा ही नहीं था. मैं ने फिर इस संबंध में गहराई से मनन किया तो मुझे भी लगा कि आजकल समय इतना बदल गया है कि अनजान परिवार में रिश्ता करना भी ठीक नहीं है. निशा को तो मैं बचपन से जानती हूं, इसलिए नेहा की पसंद पर मुहर लगा देना ही ठीक है.

अगले दिन मैं अपने पति के साथ बिना देर किए निशा के घर पहुंच गई. हमें अचानक आया देख कर वह अचंभित हो कर बोली, “अरे, आप लोग, अचानक कैसे?”

उस की बात पूरी भी नहीं हुई कि मैं बोली, “बात ही कुछ ऐसी है कि हम रुक नहीं पाए. हम अपनी बेटी को तुम्हें सौंपना चाहते हैं,” मैं ने बिना किसी भूमिका के एक सांस में बोल दिया, जैसे मुझे पूरा विश्वास था कि निशा इस रिश्ते के लिए एकदम तैयार हो जाएगी.

और वही हुआ. इस अप्रत्याशित प्रस्ताव की तो उस ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. वह खुश हो कर बोली, “मेरे लिए इस से अधिक खुशी की बात क्या हो सकती है. लेकिन नेहा को पता है न कि दिनेश… उस से तो पूछो?”

उस के कहने से ही तो हम यह प्रस्ताव ले कर यहां आए हैं. दिनेश और नेहा दोनों ही एकदूसरे को चाहते हैं. बस, तुम्हारी स्वीकृति मिलनी बाकी थी. और हर्षातिरेक में हम दोनों सखियां एकदूसरे से लिपट गईं. मैं ने हंसते हुए कहा, “निशा, तुझे याद है हम ने आपस में कई बार कहा था कि हम अपने बच्चों की शादी आपस में कर के एकदूसरे से रिश्तेदारी जोड़ लेंगे. हमारा इतने सालों बाद मिलना केवल एक हादसा नहीं है, बल्कि कुदरत की ही सुनियोजित योजना है, कहते हैं जोड़े ऊपर से बन कर आते हैं. अच्छा, अब यह बता, दहेज़ में तुझे क्या चाहिए?”

“तुम्हारी प्यारी सी बेटी नेहा,” निशा के इतना कहते ही हम सभी खिलखिला कर हंस पड़े.

Social Story : सैयद साहब की हवेली – आदिल ने क्यों और किसके लिए खोदी कब्र ?

Social Story : गांव हालांकि छोटा था, लेकिन थोड़ीबहुत तरक्की कर रहा था. पहले 70-100 मकान थे, पर अब गांव के बाहर भी घर बनने लगे थे. सरकारी जमीन पर भी, जहां ढोरमवेशी चराए जाने के लिए जगह छोड़ी गई थी, निचली जाति के लोगों ने उस पर कब्जे कर लिए थे. झोंपड़ों के मकड़जाल की यह खबर हवेली तक भी पहुंच गई. हवेली में सैयद फैयाज मियां हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे और उन के पैरों को हज्जाम घासी मियां सहला रहे थे. उन्होंने ही धीमी रफ्तार से पूरे गांव की सब खबरें सुनानी शुरू कर दी थीं. गांव में मुसलिमों के एक दर्जन से कम घर थे, लेकिन बड़ी हवेली सैयद साहब की ही थी. सब से ज्यादा जमीन, नौकरचाकर भी उन्हीं की हवेली में थे.

1-2 भिश्ती और पिंजारों के परिवार के लोग भी उन की खिदमत के लिए आ कर बस गए थे. पूरे गांव में उन की मालगुजारी होने से दबदबा भी बहुत था, लेकिन कोई उन के गांव में आ कर बस जाए और उन्हें खबर भी न करे या बस जाने की इजाजत लेने की जहमत भी न उठाए, यह कैसे हो सकता था. जब इतनी जमीन, इतनी बड़ी हवेली और इतने लोग थे, तो कुछ पहलवान भी थे, जो पहलवान कम गुंडे ज्यादा थे. उन का पलनारहना भी लाजिमी था. जैसे कोई भी बस्ती कहीं भी बस जाए बिना चाहे, बिना बुलाए दोचार कुत्ते आ ही जाते हैं, उसी तरह ये गुंडे भी हवेली के टुकड़ों पर पल रहे थे. कोई आता तो लट्ठ ले कर उसे अंदर लाते थे और कभीकभी कुटाई भी कर देते थे. थाने से ले कर साहब लोगों तक सैयद साहब की खूब पकड़ थी. सैयद साहब का एक बाड़ा था, जहां उन के जन्नतनशीं हो चुके रिश्तेदार कयामत के इंतजार में कब्र में पड़े थे. उसी बाड़े से लगा एक और कब्रिस्तान था, जो 7-10 घरों के भिश्ती मेहतरों के लिए था.

जब हज्जाम मियां ने गांव में बस रहे झोंपड़ों की जानकारी दी, तो सैयद साहब के माथे पर बल पड़ गए थे. वे जानते थे कि ये छोटी जाति के लोग आने वाले वक्त में गांव के बाशिंदे बन कर वोट बैंक को बिगाड़ देंगे. आज की तारीख में तो सरपंच से ले कर विधायक तक हवेली में सलाम करने आते हैं, उस के बाद जीतहार तय होती है. तकरीबन 200-250 वोट एकतरफा पड़ते हैं, फिर आसपास के गांवों में उन के पाले हुए गुंडे सब संभाल लेते हैं. पूरा गांव ही नहीं, आसपास के गांव वाले भी जानते थे कि सैयद साहब से दुश्मनी लेना यानी हुक्कापानी बंद. फिर किसी दूसरे गांव में किसी ने पनाह दे भी दी, तो समझो कि उस बंदे की खैर नहीं. सैयद साहब की थोड़ी उम्र भी हो चली थी. दाढ़ी के बाल पकने लगे थे, लेकिन उमंगें आज भी जवान थीं. उन की 2 बेटियां, एक बेटा भी था, जो धीरेधीरे जवानी में कदम रख रहे थे.

बेटे में भी सारे गुण अपने अब्बा के ही थे. नौकरों से बदतमीजी से बात करना, स्कूल न जाना, दिनभर आवारागर्दी करना और तालाब पर मछली मारने के लिए घंटों बैठे रहना. पूरे गांव के लोग उसे सलाम करते थे. वह भी अपने साथ 3-4 लड़कों को रखता था, लेकिन उस ने कभी भी गांव की किसी लड़की की ओर आंख उठा कर भी नहीं देखा. इस का मतलब यह नहीं था कि उस की उमंगें कम थीं. जोकुछ वह सोचता, खानदान की इज्जत की खातिर सपने में पूरी कर लेता था. इसी छोटी बस्ती में हसन कुम्हार ने आ कर झोंपड़ा तान लिया था. एक तो मुसलिम, ऊपर से बड़ी हवेली सैयद की. बस, इसी वजह से उस के आसपास के लोग उस से डर कर रहते थे. वह भी न जाने कौन सी जगह से आ कर बस गया था, लेकिन सलाम करने वह हवेली नहीं पहुंचा था.

हज्जाम मियां ने उस की शिकायत भी कर दी थी. सैयद साहब ने सोचा, ‘अपनी जाति वाले से शुरू करें, तो यकीनन दूसरे हिंदू तो डर ही जाएंगे.’ उन का पहलवान हसन मियां को बुला लाया. हसन मियां दुबलापतला चुंगी दाढ़ी वाला था, लेकिन साथ में जो उस का बेटा आया था, वह गबरू जवान था. सलाम कर के हसन मियां वहां बड़े ही अदब से खड़े हो गए. सैयद साहब दीवान पर बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे. 1-2 पहलवान लट्ठ लिए खड़े थे. हसन मियां इंतजार कर रहा था कि सैयद साहब कुछ सवाल करें, लेकिन सैयद साहब तो अपने में मगन हो कर कुछ गुनगुना रहे थे. थोड़ी देर बाद हसन मियां ने कहा, ‘‘हुजूर, इजाजत हो, तो मैं चला जाऊं?’’

सैयद साहब चौंके, फिर कह उठे, ‘‘अरे हां… क्यों रे, क्या नाम है तेरा?’’

‘‘हसन.’’

‘‘और… यह कौन है?’’

‘‘हुजूर, मेरा बेटा है.’’

‘‘काम क्या करते हो?’’

‘‘हुजूर, मिट्टी का काम है.’’

‘‘मतलब.’’

‘‘हुजूर, पहले जिस गांव में था, वहां कब्रें खोदता था, लेकिन कुछ कमाई कम थी, इस वजह से काम बदल लिया.’’

‘‘अब क्या करते हो’’

‘‘हुजूर, अब मिट्टी के बरतन बनाने का काम करता हूं.’’

‘‘और यह तेरा बेटा क्या करता है?’’

‘‘हुजूर, मदद करता है.’’

‘‘गूंगा है?’’

‘‘नहीं हुजूर… सैयद साहब के हाथ चूम कर आओ बेटा.’’ हसन मियां का बेटा आगे बढ़ा और बड़े अदब से हाथ को सिरमाथे लगा कर हाथ चूम कर खड़ा हो गया.

‘‘यहां बसने से पहले तुम इजाजत लेने क्यों नहीं आए?’’

‘‘हुजूर, सोचा था कि झोंपड़ा तन जाए, तब पूरे खानदान के साथ सलाम करने आते, लेकिन आप का बुलावा तो पहले ही आ गया,’’ बहुत ही नरमी से हसन मियां जवाब दे रहा था. वह जानता था कि एक बात भी जबान से कुछ फिसली तो सैयद साहब और उन के पले कुत्ते उन्हें छोड़ेंगे नहीं, फिर इस गांव को छोड़ कर कहीं और जगह ढूंढ़नी होगी.

‘‘क्यों रे, यहां कुछ काम करेगा?’’

‘‘कैसा काम?’’

‘‘यहां भी मुसलिम रहते हैं… कोई गमी हो गई, तो कब्र खोद देगा?’’

‘‘क्यों नहीं हुजूर.’’

‘‘कितने रुपए लेता है?’’

‘‘हुजूर, महंगाई है… सोचसमझ कर दिलवा देना.’’

‘‘चल, ठीक है, 2 सौ रुपए मिलेंगे… मंजूर है?’’

‘‘आप का दिया सिरआंखों पर.’’

‘‘तो खयाल रखना कि आज के बाद गांव में किसी के यहां गमी हुई, तो तुझे खबर मिल जाएगी. तू और तेरा यह लड़का कब्र खोदने का काम करेगा. कोई दिक्कत तो नहीं है?’’

‘‘बिलकुल नहीं,’’ हसन मियां ने खुश होने का ढोंग किया. दरअसल, हसन की बीवी और उस के इस बेटे को कब्र खोदने का काम बिलकुल पसंद नहीं था. बीवी चाहती थी कि उन का बेटा आदिल पढ़लिख कर इस गंदे काम से पार हो जाए. आदिल भी जानता था कि उन के घर का दानापानी मरने वालों से ही चलता है. एकदो मर गए, तो 3-4 सौ रुपए मिल जाते थे, वरना एकएक हफ्ता निकल जाता था. बड़ी अजीब सी दलदली, गंदी जिंदगी हो गई थी. उधर कब्र खोदने के काम को छोड़ने का मन बना कर इस गांव में आए और यहां भी सैयद साहब यह काम करवाने पर तुले हैं, लेकिन डर के मारे उस ने कुछ कहा नहीं. सैयद साहब ने जाने का इशारा किया, तो वे सलाम कर के लौट गए.

अगले कुछ दिनों में हवेली में छोटी जाति के तमाम लोगों का बुलावा हो गया. सब अपनी दुम टांगों में दबा कर आए और ‘जो आने वाले वक्त में मालिक कहेंगे’. इस बात पर सहमत हो गए. किसी की हिम्मत नहीं थी कि इतनी बड़ी हवेली के खिलाफ कुछ कहें या दिल में सोचें. अभी हसन मियां सो कर भी नहीं उठे थे कि हवेली से खबर आ गई कि कब्र खोदने के लिए बुलाया है. हसन मियां की तबीयत ठीक नहीं थी. उस ने आदिल से कहा, ‘‘इस काम को निबटा कर आ जाए.’’ आदिल बगैर इच्छा के कंधे पर गमछा रख कर चला गया. हवेली का पूरा माहौल गमगीन था. सैयद साहब की बेटी कमरे में रो रही थी. बेटा बहुत उदास बैठा था. सैयद साहब कमरे से बाहर आए और पहलवान को इशारा किया. वह आदिल को बाड़े से लगे कब्रिस्तान में ले गया, जहां दूसरी मुसलमान जाति के लोगों को दफन किया जाता था. एक जगह देख कर पहलवान ने कहा, ‘‘यहीं कब्र खोद लो. कम से कम 2 फुट चौड़ी और 5 फुट गहरी.’’

‘‘जनाब, कोई बच्चा खत्म हो गया क्या?’’ आदिल ने बहुत अदब से पूछा.

‘‘जितना कहा है, उतना सुन लो.’’

आदिल कब्र खोदने लगा. पूरी कब्र खोद कर उस ने माथे का पसीना पोंछा ही था कि तभी हज्जाम मियां आए और उसे बुला कर हवेली में ले गए और एक ओर पड़ी कुत्ते की लाश को बता कर कहा, ‘‘इसे उठा कर दफन कर आओ.’’

‘‘इस कुत्ते की लाश को?’’ हैरत से आदिल ने पूछा. उस को जवाब मिलता, उस के पहले  ही एक पहलवान ने आदिल की कमर पर एक लात रसीद कर दी.

‘‘सैयद साहब की औलाद थी वह और तू उसे जानवर कहता है.’’ आदिल झुका, उस जानवर तक हाथ बढ़ाया, फिर उस ने कहा, ‘‘लेकिन, यह काम हमारा नहीं है…’’ उस की बात खत्म भी नहीं हुई थी कि एक लात उस के पुट्ठे पर पड़ी और आदिल कुत्ते पर जा गिरा. ‘वह कुत्ता था. जानवर था, मर गया था. उसे कोई भी एहसास नहीं था, इसलिए वह धूप में पड़ा था. लेकिन मैं तो जिंदा हूं. मुझे तो लातों का दर्द, बेइज्जती का एहसास हो रहा है. ‘‘अगर मैं जिंदा हूं, तो मुझे जिंदा होने का सुबूत देना होगा,’ यह सोच कर आदिल बेदिली से उठा. उस ने देखा कि कमरे के बाहर दीवान पर सैयद साहब बैठ गए थे. उस ने बड़े दरवाजे पर नजर डाली. वह खुला हुआ था. उस ने  हिम्मत बटोरी और एक पल में ही दौड़ कर बाहर भाग गया.

पहलवान और सैयद साहब भौंचक्के रह गए थे कि आखिर हो क्या गया?

आदिल अपने झोंपड़े में नहीं गया. वह जानता था कि उसे पकड़ लिया जाएगा. वह दूसरी दिशा में भाग खड़ा हुआ था. पहलवान हसन मियां के घर पहुंचे. आदिल तो मिला नहीं. वे हसन मियां को पकड़ लाए. उसे भी 2-3 लातें मारीं और उस ने मरे जानवर को उठा कर कब्र में दफन किया. तबीयत भी ठीक नहीं थी. घर आ कर बिस्तर पर लेट गया. आदिल जब घर लौटा, तो अब्बा की हालत उस से छिपी नहीं रही. आदिल ने मुट्ठी भींची और पुलिस थाने चला गया. थाना शहर के पास था. आदिल अपनी चोटों के साथ, धूल सने कपड़ों के साथ थाने में पहुंचा. वहां रिपोर्ट लिखने वाला कोई सिपाही बैठा था. उसी की बगल में कोई न्यूज रिपोर्टर भी बैठ कर चाय पी रहा था. आदिल ने रोते हुए सारी बातें बताईं और कहा, ‘‘मेरे अब्बा को मारा, उन से मरा जानवर उठवाया, दफन करवाया, एक रुपया भी मेहनताना नहीं दिया, बेइज्जती अलग से की.’’

न्यूज रिपोर्टर एक अच्छी स्टोरी के चक्कर में था. उस ने भी सैयद साहब की हवेली के बहुत से किस्से सुन रखे थे. उस ने रिपोर्ट लिखने वाले सिपाही से कहा, ‘‘यार, यह देश की नौजवान पीढ़ी है. इसे इंसाफ मिलना चाहिए.’’

‘‘यार, तुम संभाल लेना,’’ सिपाही झिझकते हुए बोला.

‘‘आप चिंता मत करो, लेकिन इस की रिपोर्ट लिख लो.’’

उस ने रजिस्टर उठाया, उस की बात को लिखा, फिर एफआईआर काटी और एक पुलिस वाले को भेज कर उस का मैडिकल करने भेज दिया. देखते ही देखते लोकल चैनल पर सैयद साहब की हवेली, मारपीट, उन की हिंसा के जोरदार किस्से टुकड़ोंटुकड़ों में बयां होने लगे. सैयद साहब को भी खबर लग गई. उन का पारा सातवें आसमान पर था. एक मजदूर की औलाद की इतनी हिम्मत? तुरंत हसन मियां को बुलाने पहलवान भेज दिए. हसन मियां को 2 पहलवान पकड़ कर ले आए. उसे भी उड़तीउड़ती खबर लग गई थी कि आदिल ने मामला गड़बड़ कर दिया है. जब हवेली में वह हाजिर हुआ, रात हो गई थी. सुबह की बेइज्जती का दर्द दिल पर से अभी पूरी तरह से हटा नहीं था.

‘‘हसन, तू जानता है कि तुझे क्यों बुलाया है?’’

‘‘हुजूर,’’ घबराते हुए इतना ही मुंह से निकला.

‘‘तेरी औलाद ने हमारी इज्जत को मिट्टी में मिला दिया है.’’

‘‘हुजूर…’’

‘‘उसे अभी बुला और अपनी रिपोर्ट वापस लेने को कह. समझा कि नहीं?’’ सैयद साहब ने चीख कर कहा. पूरी हवेली उन की आवाज से कांप गई थी. हसन मियां भी ठान कर आया था कि वह तो मजदूर है, कहीं भी कमाखा लेगा. उस ने कहा, ‘‘हुजूर, बेटा तो अभी तक लौटा नहीं है.’’

‘‘कहां है वह?’’

‘‘शहर में ही है.’’

‘‘जा कर ले आ, वरना इस गांव में रह नहीं पाएगा,’’ सैयद साहब ने गुस्से से कांपते हुए कहा.

हसन मियां ने कहा, ‘‘हुजूर, रातभर की बात है, सुबह हम गांव छोड़ देंगे.’’

‘‘मुंह चलाता है…’’ सैयद साहब चीखे. उसी के साथ 2-3 लातघूंसे हसन मियां के मुंह पर पड़ गए. वह गिर पड़ा. रोते हुए वह बाहर आया. वह अपने झोंपड़े की ओर बढ़ा, तो देखा कि सैयद साहब के गुंडे उस के झोंपड़े को आग लगा रहे थे. सैयद साहब एक ओर जीप में बैठे थे. आदिल की अम्मी झोंपड़े के बाहर खड़ी रो रही थी. तभी एक मोटरसाइकिल पर आदिल उस रिपोर्टर के साथ आया. उस ने अपने कैमरे से सब शूट करना शुरू कर दिया. सैयद साहब भी उस शूट में दिखाई दे रहे थे. तुरंत वह न्यूज भी दिखाई जाने लगी. सुबह पुलिस आदिल की अम्मी, अब्बू को ले गई. रिपोर्ट लिखवाई और दोपहर होतेहोते हवेली में पुलिस अंदर घुस गई. पूरे गांव में हल्ला मच गया था. दोपहर में पुलिस पहलवानों और सैयद साहब को पकड़ कर ले गई. आदिल गांव में आया. अब्बा के साथ अपना झोंपड़ा दोबारा बनाया और मेहनतमजदूरी में जुट गया. बड़ेबड़े वकीलों ने सैयद साहब की जमानत कराई. पूरे एक महीने तक जेल में रह कर वे वापस लौटे. सैयद साहब के चेहरे की रौनक चली गई थी. बापदादाओं की इज्जत पर पानी फिर गया था. हसन मियां को भी मालूम पड़ गया था कि सैयद साहब आ गए हैं. अब तो उन्हें बहुत होशियारी से रहना होगा. सैयद साहब को बेइज्जती का ऐसा धक्का लगा कि उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया और पूरा एक महीना भी नहीं गुजरा कि इस दुनिया से चले गए. जैसे ही हसन मियां को मालूम हुआ, वह आदिल के साथ ईमानदारी के साथ कब्र खोदने जा पहुंचा. कब्र खोदतेखोदते आदिल ने अपने अब्बा को देखा, तो अब्बा ने पूछा, ‘‘क्यों, क्या बात हुई?’’

‘‘अब्बा, जो कुछ हुआ, उस पर किसी का जोर नहीं है, लेकिन एक बात तो है…’’

‘‘क्या?’’

‘‘कोई कितना भी बड़ा आदमी मरे, कब्र तो मजदूर ही खोदता है. देखो न, हम ने सैयद साहब की कब्र खोद दी.’’ हसन मियां फटी आंखों से आदिल का चेहरा देख रहा था.

Best Hindi Story : दिल हथेली पर – अमित और मेनका क्या सोच रहे थे

Best Hindi Story : अमित और मेनका चुपचाप बैठे हुए कुछ सोच रहे थे. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करना चाहिए. तभी कालबेल बजी. मेनका ने दरवाजा खोला. सामने नरेन को देख चेहरे पर मुसकराहट लाते हुए वह बोली, ‘‘अरे जीजाजी आप… आइए.’’

‘‘नमस्कार. मैं इधर से जा रहा था तो सोचा कि आज आप लोगों से मिलता चलूं,’’ नरेन ने कमरे में आते हुए कहा. अमित ने कहा, ‘‘आओ नरेन, कैसे हो? अल्पना कैसी है?’’

नरेन ने उन दोनों के चेहरे पर फैली चिंता की लकीरों को पढ़ते हुए कहा, ‘‘हम दोनों तो ठीक हैं, पर मैं देख रहा हूं कि आप किसी उलझन में हैं.’’ ‘‘ठीक कहते हो तुम…’’ अमित बोला, ‘‘तुम तो जानते ही हो नरेन कि मेनका मां बनने वाली है. दिल्ली से बहन कुसुम को आना था, पर आज ही उस का फोन आया कि उस को पीलिया हो गया है. वह आ नहीं सकेगी. सोच रहे हैं कि किसी नर्स का इंतजाम कर लें.’’

‘‘नर्स क्यों? हमें भूल गए हो क्या? आप जब कहेंगे अल्पना अपनी दीदी की सेवा में आ जाएगी,’’ नरेन ने कहा. ‘‘यह ठीक रहेगा,’’ मेनका बोली.

अमित को अपनी शादी की एक घटना याद हो आई. 4 साल पहले किसी शादी में एक खूबसूरत लड़की उस से हंसहंस कर बहुत मजाक कर रही थी. वह सभी लड़कियों में सब से ज्यादा खूबसूरत थी. अमित की नजर भी बारबार उस लड़की पर चली जाती थी. पता चला कि वह अल्पना है, मेनका की मौसेरी बहन.

अब अमित ने अल्पना के आने के बारे में सुना तो वह बहुत खुश हुआ. मेनका को ठीक समय पर बच्चा हुआ. नर्सिंग होम में उस ने एक बेटे को जन्म दिया.

4 दिन बाद मेनका को नर्सिंग होम से छुट्टी मिल गई. शाम को नरेन घर आया तो परेशान व चिंतित सा था. उसे देखते ही अमित ने पूछा, ‘‘क्या बात है नरेन, कुछ परेशान से लग रहे हो?’’

‘‘हां, मुझे मुंबई जाना पड़ेगा.’’ ‘‘क्यों?’’

‘‘बौस ने हैड औफिस के कई सारे जरूरी काम बता दिए हैं.’’ ‘‘वहां कितने दिन लग जाएंगे?’’

‘‘10 दिन. आज ही सीट रिजर्व करा कर आ रहा हूं. 2 दिन बाद जाना है. अब अल्पना यहीं अपनी दीदी की सेवा में रहेगी,’’ नरेन ने कहा. मेनका बोल उठी, ‘‘अल्पना मेरी पूरी सेवा कर रही है. यह देखने में जितनी खूबसूरत है, इस के काम तो इस से भी ज्यादा खूबसूरत हैं.’’

‘‘बस दीदी, बस. इतनी तारीफ न करो कि खुशी के मारे मेरे हाथपैर ही फूल जाएं और मैं कुछ भी काम न कर सकूं,’’ कह कर अल्पना हंस दी. 2 दिन बाद नरेन मुंबई चला गया.

अगले दिन शाम को अमित दफ्तर से घर लौटा तो अल्पना सोफे पर बैठी कुछ सोच रही थी. मेनका दूसरे कमरे में थी. अमित ने पूछा, ‘‘क्या सोच रही हो अल्पना?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ अल्पना ने कहा. ‘‘मैं जानता हूं.’’

‘‘क्या?’’ ‘‘नरेन के मुंबई जाने से तुम्हारा मन नहीं लग रहा?है.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है. वे जिस कंपनी में काम करते हैं, वहां बाहर जाना होता रहता है.’’ ‘‘जैसे साली आधी घरवाली होती है वैसे ही जीजा भी आधा घरवाला होता है. मैं हूं न. मुझ से काम नहीं चलेगा क्या?’’ अमित ने अल्पना की आंखों में झांकते हुए कहा.

‘‘अगर जीजाओं से काम चल जाता तो सालियां शादी ही क्यों करतीं?’’ कहते हुए अल्पना हंस दी. 5-6 दिन इसी तरह हंसीमजाक में बीत गए. एक रात अमित बिस्तर पर बैठा हुआ अपने मोबाइल फोन पर टाइमपास कर रहा था. जब आंखें थकने लगीं तो वह बिस्तर पर लेट गया.

तभी अमित ने आंगन में अल्पना को बाथरूम की तरफ जाते देखा. वह मन ही मन बहुत खुश हुआ. जब अल्पना लौटी तो अमित ने धीरे से पुकारा.

अल्पना ने कमरे में आते ही पूछा, ‘‘अभी तक आप सोए नहीं जीजाजी?’’ ‘‘नींद ही नहीं आ रही है. मेनका सो गई है क्या?’’

‘‘और क्या वे भी आप की तरह करवटें बदलेंगी?’’ ‘‘मुझे नींद क्यों नहीं आ रही है?’’

‘‘मन में होगा कुछ.’’ ‘‘बता दूं मन की बात?’’

‘‘बताओ या रहने दो, पर अभी आप को एक महीना और करवटें बदलनी पड़ेंगी.’’ ‘‘बैठो न जरा,’’ कहते हुए अमित ने अल्पना की कलाई पकड़ ली.

‘‘छोडि़ए, दीदी जाग रही हैं.’’ अमित ने घबरा कर एकदम कलाई छोड़ दी.

‘‘डर गए न? डरपोक कहीं के,’’ मुसकराते हुए अल्पना चली गई. सुबह दफ्तर जाने से पहले अमित मेनका के पास बैठा हुआ कुछ बातें कर रहा था. मुन्ना बराबर में सो रहा था.

तभी अल्पना कमरे में आई और अमित की ओर देखते हुए बोली, ‘‘जीजाजी, आप तो बहुत बेशर्म हैं.’’ यह सुनते ही अमित के चेहरे का रंग उड़ गया. दिल की धड़कनें बढ़ गईं. वह दबी आवाज में बोला, ‘‘क्यों?’’

‘‘आप ने अभी तक मुन्ने के आने की खुशी में दावत तो क्या, मुंह भी मीठा नहीं कराया.’’ अमित ने राहत की सांस ली. वह बोला, ‘‘सौरी, आज आप की यह शिकायत भी दूर हो जाएगी.’’

शाम को अमित दफ्तर से लौटा तो उस के हाथ में मिठाई का डब्बा था. वह सीधा रसोई में पहुंचा. अल्पना सब्जी बनाने की तैयारी कर रही थी. अमित ने डब्बा खोल कर अल्पना के सामने करते हुए कहा, ‘‘लो साली साहिबा, मुंह मीठा करो और अपनी शिकायत दूर करो.’’

मिठाई का एक टुकड़ा उठा कर खाते हुए अल्पना ने कहा, ‘‘मिठाई अच्छी है, लेकिन इस मिठाई से यह न समझ लेना कि साली की दावत हो गई है.’’ ‘‘नहीं अल्पना, बिलकुल नहीं. दावत चाहे जैसी और कभी भी ले सकती हो. कहो तो आज ही चलें किसी होटल में. एक कमरा भी बुक करा लूंगा. दावत तो सारी रात चलेगी न.’’

‘‘दावत देना चाहते हो या वसूलना चाहते हो?’’ कह कर अल्पना हंस पड़ी. अमित से कोई जवाब न बन पड़ा. वह चुपचाप देखता रह गया.

एक सुबह अमित देर तक सो रहा था. कमरे में घुसते ही अल्पना ने कहा, ‘‘उठिए साहब, 8 बज गए हैं. आज छुट्टी है क्या?’’ ‘‘रात 2 बजे तक तो मुझे नींद ही नहीं आई.’’

‘‘दीदी को याद करते रहे थे क्या?’’ ‘‘मेनका को नहीं तुम्हें. अल्पना, रातभर मैं तुम्हारे साथ सपने में पता नहीं कहांकहां घूमता रहा.’’

‘‘उठो… ये बातें फिर कभी कर लेना. फिर कहोगे दफ्तर जाने में देर हो रही है.’’ ‘‘अच्छा यह बताओ कि नरेन की वापसी कब तक है?’’

‘‘कह रहे थे कि काम बढ़ गया है. शायद 4-5 दिन और लग जाएं. अभी कुछ पक्का नहीं है. वे कह रहे थे कि हवाईजहाज से दिल्ली तक पहुंच जाऊंगा, उस के बाद टे्रन से यहां तक आ जाऊंगा.’’ ‘‘अल्पना, तुम मुझे बहुत तड़पा रही हो. मेरे गले लग कर किसी रात को यह तड़प दूर कर दो न.’’

‘‘बसबस जीजाजी, रात की बातें रात को कर लेना. अब उठो और दफ्तर जाने की तैयारी करो. मैं नाश्ता तैयार कर रही हूं,’’ अल्पना ने कहा और रसोई की ओर चली गई. एक शाम दफ्तर से लौटते समय अमित ने नींद की गोलियां खरीद लीं. आज की रात वह किसी बहाने से मेनका को 2 गोलियां खिला देगा. अल्पना को भी पता नहीं चलने देगा. जब मेनका गहरी नींद में सो जाएगी तो वह अल्पना को अपनी बना लेगा.

अमित खुश हो कर घर पहुंचा तो देखा कि अल्पना मेनका के पास बैठी हुई थी. ‘‘अभी नरेन का फोन आया है. वह ट्रेन से आ रहा है. ट्रेन एक घंटे बाद स्टेशन पर पहुंच जाएगी. उस का मोबाइल फोन दिल्ली स्टेशन पर कहीं गिर गया. उस ने किसी और के मोबाइल फोन से यह बताया है. तुम उसे लाने स्टेशन चले जाना. वह मेन गेट के बाहर मिलेगा,’’ मेनका ने कहा.

अमित को जरा भी अच्छा नहीं लगा कि नरेन आ रहा है. आज की रात तो वह अल्पना को अपनी बनाने जा रहा था. उसे लगा कि नरेन नहीं बल्कि उस के रास्ते का पत्थर आ रहा है. अमित ने अल्पना की ओर देखते हुए कहा, ‘‘ठीक?है, मैं नरेन को लेने स्टेशन चला जाऊंगा. वैसे, तुम्हारे मन में लड्डू फूट रहे होंगे कि इतने दिनों बाद साजन घर लौट रहे हैं.’’

‘‘यह भी कोई कहने की बात है,’’ अल्पना बोली. ‘‘पर, नरेन को कल फोन तो करना चाहिए था.’’

‘‘कह रहे थे कि अचानक पहुंच कर सरप्राइज देंगे,’’ अल्पना ने कहा. अमित उदास मन से स्टेशन पहुंचा. नरेन को देख वह जबरदस्ती मुसकराया और मोटरसाइकिल पर बिठा कर चल दिया.

रास्ते में नरेन मुंबई की बातें बता रहा था, पर अमित केवल ‘हांहूं’ कर रहा था. उस का मूड खराब हो चुका था. भीड़ भरे बाजार में एक शराबी बीच सड़क पर नाच रहा था. वह अमित की मोटरसाइकिल से टकराताटकराता बचा. अमित ने मोटरसाइकिल रोक दी और शराबी के साथ झगड़ने लगा.

शराबी ने अमित पर हाथ उठाना चाहा तो नरेन ने उसे एक थप्पड़ मार दिया. शराबी ने जेब से चाकू निकाला और नरेन पर वार किया. नरेन बच तो गया, पर चाकू से उस का हाथ थोड़ा जख्मी हो गया. यह देख कर वह शराबी वहां से भाग निकला.

पास ही के एक नर्सिंग होम से मरहमपट्टी करा कर लौटते हुए अमित ने नरेन से कहा, ‘‘मेरी वजह से तुम्हें यह चोट लग गई है.’’ नरेन बोला, ‘‘कोई बात नहीं भाई साहब. मैं आप को अपना बड़ा भाई मानता हूं. मैं तो उन लोगों में से हूं जो किसी को अपना बना कर जान दे देते हैं. उन की पीठ में छुरा नहीं घोंपते.

‘‘शरीर के घाव तो भर जाते हैं भाई साहब, पर दिल के घाव हमेशा रिसते रहते हैं.’’ नरेन की यह बात सुन कर अमित सन्न रह गया. वह तो हवस की गहरी खाई में गिरने के लिए आंखें मूंदे चला जा रहा था. नरेन का हक छीनने जा रहा था. उस से धोखा करने जा रहा था. उस का मन पछतावे से भर उठा.

दोनों घर पहुंचे तो नरेन के हाथ में पट्टी देख कर मेनका व अल्पना दोनों घबरा गईं. अमित ने पूरी घटना बता दी. कुछ देर बाद अमित रसोई में चला गया. अल्पना खाना बना रही थी.

नरेन मेनका के पास बैठा बात कर रहा था. अमित को देखते ही अल्पना ने कहा, ‘‘जीजाजी, आप तो बातोंबातों में फिसल ही गए. क्या सारे मर्द आप की तरह होते हैं?’’

‘‘क्या मतलब…?’’ ‘‘लगता है दिल हथेली पर लिए घूमते हो कि कोई मिले तो उसे दे दिया जाए. आप को तो दफ्तर में कोई भी बेवकूफ बना सकती है. हो सकता है कि कोई बना भी रही हो.

‘‘आप ने तो मेरे हंसीमजाक को कुछ और ही समझ लिया. इस रिश्ते में तो मजाक चलता है, पर इस का मतलब यह तो नहीं कि… अब आप यह बताइए कि मैं आप को जीजाजी कहूं या मजनूं?’’ ‘‘अल्पना, तुम मेनका से कुछ मत कहना,’’ अमित ने कहा.

‘‘मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगी पर आप तो बहुत डरपोक हैं,’’ कह कर अल्पना मुसकरा उठी. अमित चुपचाप रसोईघर से बाहर निकल गया.

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