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Vice President : जगदीप धनखड़ की बेचारगी

Vice President : वफादार, चाटुकार, योग्य और बड़बोले अच्छी तरह जानते हैं कि ताकतवर लोगों से जहां ईनाम मिलता है वहीं जरा सी चूक होने पर सिर काट भी दिया जाता है. इतिहास ऐसे मामलों से भरा पड़ा है कि राजाओं ने अपने सब से नजदीकी शख्स को या सरेआम या गुपचुप मरवा डाला हो. आज के शासक हत्याएं तो नहीं कराते लेकिन विरोधी की राजनीतिक हत्या करवा देते हैं.

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का मामला भी ऐसा ही है. जब तक वे सिर और कमर झुकाए सत्ता के आगे पसरे रहे तब तक उन्हें सहा गया और जैसे ही उन्होंने अपनी मरजी चलाई, उपराष्ट्रपति के पद से उन्हें हटाने में देरी नहीं की गई.

जगदीप धनखड़ जरूरत से ज्यादा सरकारी पक्ष लेते रहे हैं. उन्होंने राज्यसभा को चलाने में सत्ता पक्ष का खयाल रखने में एक निष्पक्ष सभापति का काम कभी नहीं किया. अपने साथी लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला की तरह विपक्ष को कभी संसद या सरकार को घेरने की अनुमति नहीं दी. वे जजों की नियुक्ति, संविधान के मौलिक ढांचे के फैसलों की आलोचना करते रहे जबकि सरकार की मंशा, कि सत्ता सिर्फ 2 हाथों में रहे, के मुताबिक पूरी कोशिश करते रहे.

फिर भी उन का पद न सिर्फ अचानक छीन लिया गया बल्कि नए राष्ट्रपति प्रागंण में बने घर के कार्यालय को बंद भी शायद करा दिया गया. आज वे स्मृति ईरानी, विशंभर प्रसाद, मेनका गांधी, वरुण गांधी, मुरली मनोहर जोशी, लालकृष्ण आडवाणी की श्रेणी में आ गए है जिन से पद छीन लिए गए.

ऐसा हर राजा ने किया. राजा राम ने शत्रुघ्न और लक्ष्मण के साथ भी ऐसा ही किया था कि जब उन की जरूरत नहीं रही तो उन्हें अपने निकट नहीं रखा. जो शासक इस तरह की पौराणिक कहानियों को सुनसुन कर बड़े हुए उन के लिए इसी तरह के फैसले लेना कोई कठिन नहीं है.

ऐसा नहीं कि दूसरी पार्टियां यह नहीं करतीं. जो कांग्रेसी नेता आज भाजपा में किसी तरह छुटभैये नेता की तरह रह कर जिंदगी काट रहे हैं, एक वक्त कांग्रेस में इसी तरह गांधी परिवार के कोपभाजन के शिकार हुए थे. उन्हें भाजपा ने उस समय लपक लिया क्योंकि तब उन्हें कांग्रेस को डूबता जहाज कहने का मौका मिल रहा था.

राजनीति में जरूरत से ज्यादा चतुराई और चाटुकारिता दोनों खतरनाक हैं. जिन्हें अपना महत्त्व बना कर रखना है उन्हें जीहुजूर कहने वाला बन कर रहना होगा वरना उन का हाल टेस्ला और स्टारलिंक के मालिक एलन मस्क जैसा होगा जो डोनाल्ड ट्रंप की जीत के कुछ माह बाद तक तो उन के सब से बड़े साथी थे जबकि आज सब से बड़े दुश्मन.

BJP : झूठ, झूठ और झूठ – ट्रंप सच्चे या मोदी

BJP : लोकसभा में एक अहम बहस के दौरान भारतीय जनता पार्टी के एक मंत्री ने कटाक्ष किया कि यह कैसा विपक्ष है जो संविधान की शपथ लिए हुए विदेश मंत्री जयशंकर की बात को सहीं नहीं मानता जबकि विदेशी डोनाल्ड ट्रंप को सही मानता है. बहस इस बात पर हो रही थी कि औपरेशन सिंदूर के बाद 4 दिनों में भारत ने पाकिस्तान से सुलह क्यों कर ली जबकि युद्ध की शुरुआत भारत ने ही की थी.

विपक्ष ही क्या, देश को सोचनेसमझने वाला हर देशवासी सरकारी प्रचार को अब मुश्किल से ही सही मानता है क्योंकि पिछले 11 सालों में सत्ता पर काबिज़ भाजपा द्वारा जनता से इतनी बार ‘अश्वत्थामा मारा गया है’ वाला झूठ बोला गया है कि धर्मराज युधिष्ठिर की तरह भाजपा की बातों पर अब कोई पूरी तरह भरोसा नहीं कर सकता.

भारतीय जनता पार्टी के झूठों की लिस्ट तो लंबी है, राम जन्म स्थान वहीं अयोध्या में है, यह सच कैसे है, आज तक नहीं पता क्योंकि रामायण और महाभारत का कोई पुरातत्त्व अवशेष आज तक नहीं मिला है. राममंदिर के निर्माण के समय अयोध्या में फैले दशरथ और बाद में भरत, शत्रुघ्न और अंत में राम व लक्ष्मण के महलों की कोई नींव 10-20 या 50 फुट गहराई तक नहीं मिली है कि जिस की किसी विदेशी पुरातत्त्व विशेषज्ञ ने पुष्टि की हो.

वर्ष 2016 में नोटबंदी पर नरेंद्र मोदी के वादों पर कोर्ई भरोसा नहीं कर रहा है क्योंकि आज भी कालाधन और आतंकवाद वैसा ही है जैसा 2016 में था. 2,000 रुपए के नोटों को वापस लेने का मतलब यही था न कि लोगों के पास कालाधन कैसा था, कैसा है. 500 रुपए के नोट बंद करने की अफवाहों पर ध्यान दिया जा रहा है, सरकार की सफाई पर कोई भरोसा नहीं कर रहा.

कोविड का लौकडाउन 17 दिनों में घंटों, घड़ियालों और टौर्चों से नहीं गया. यह बात भी साबित करती है कि भाजपा के दावों में कितनी सच्चाई है, उस पर क्यों कोई विश्वास करे.

देश का एक बड़ा वर्ग जीएसटी के टैक्स से परेशान है जबकि बारबार झूठ बोला गया कि इस से टैक्स देना सरल होगा, पूरे देश में एक टैक्स होगा, व्यापार बढ़ेगा, आसान होगा. जबकि, ऐसा कुछ नहीं हुआ. जीएसटी इतना जान लेवा है कि हैदराबाद की पटरी पर सब्जी बेचने वाली को 42 लाख रुपए का नोटिस थमाया गया है.

किसानों को सरकार के 3 कृषि कानूनों पर कोई भरोसा नहीं रहा और वे धरनों पर तब तक जमे रहे जब तक माफी मांगते हुए नरेंद्र मोदी ने तीनों कानून वापस नहीं ले लिए.

चुनाव प्रक्रिया के फ्रंट पर अब चुनाव आयोग पर भरोसा नहीं रह गया है. चुनाव पार्टी नहीं जीतती, चुनाव आयोग्य जीतता है, ऐसा लोगों का अब विशवास बन गया है. इलैक्ट्रौनिक वोटिंग मशीनों और अब बिहार में की जा रही मतदाता सूची का पुनर्निरीक्षण जैसे कदमों से लोगों का भरोसा कम ही हुआ है.

सब से बड़ी बात यह है कि आज समझदार लोग उस मीडिया पर भरोसा नहीं कर सकते जो भारतीय जनता पार्टी व उस की सरकार का भोंपू बन कर रह गया है. भाजपाइयों के कहने पर गोदी मीडिया ने ‘4 दिनों में भारतीय सेना ने लाहौर और कराची पर कब्जे’ तक की खबरें चला डाली थीं.

ऐसी सरकार के ऐसे प्रचार माध्यम, ऐसे बयानों पर भरोसा कोई कैसे करे, यह बड़ा सवाल है. डोनाल्ड ट्रंप खुद भरोसे के लायक नहीं हैं क्योंकि वे तो घेरलू खाने की चीजों के दाम 1,000 फीसदी (जी, एक हजार फीसदी) कम करने वाले हैं. लेकिन, ऐसा कौन कह रहा है कि उन के 26 बयान- भारतपाक युद्ध उन्होंने कस्टम ड्यूटी की धमकियां दे कर रुकवाया था- गलत हैं, झूठ हैं.

दरअसल, विदेश मंत्री जयशंकर या गृहमंत्री अमित शाह या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहें तो सही माना जाएगा कि डोनाल्ड ट्रंप झूठ बोल रहे हैं. लेकिन, ये तीनों तो इस विषय पर मुंह ही नहीं खोल रहे.

Bihar SIR : वोटर पुनर्निरीक्षण “डैमोक्रेसी की नसबंदी”

Bihar SIR : भारत के संविधान ने आजादी मिलने से पहले ही सभी वयस्कों को वोट देने का अधिकार दे दिया था लेकिन आज वोटर लिस्ट में ‘सुधार’ के नाम पर संविधान की भावना को कुचला जा रहा है.

देश के एक महत्त्वपूर्ण राज्य बिहार में होने जा रहे विधानसभा चुनाव से ऐन पहले वोटर लिस्ट का विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर का काम एक तरह से डैमोक्रेसी की नसबंदी जैसा है. जिस तरह से 1975 से 1977 के बीच इमरजैंसी के दौरान जनता की राय के बिना नसबंदी की गई, उस को कहीं आपत्ति दर्ज कराने का मौका नहीं दिया गया उसी तरह से 2014 में केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद उस की अघोषित इमरजैंसी में जनता को अपनी बात कहने का मौका नहीं दिया जा रहा.

नसबंदी की तरह नोटबंदी कर लोगों की मेहनत की कमाई को लूट लिया गया. नोटबंदी के पक्ष में तर्क दिया गया कि इस से आतंकवाद खत्म होगा. जबकि, नोटबंदी के बाद देश में बड़ी आतंकवादी घटनाए हुईं. यानी, नोटबंदी का मकसद कुछ और था, कहा कुछ और गया.

कोरोना संक्रमण के दौरान देश में जबरन तालाबंदी थोपी गई. तालाबंदी के बाद भी कोरोना से मरने वालों की संख्या को रोका न जा सका. तालाबंदी भी तुगलकी फरमान जैसी घोषणा थी. अब इसी तरह का फरमान बिहार चुनाव से पहले वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण का थोपा गया है. इस का भी मकसद कुछ और है, बताया कुछ और जा रहा है. सवाल है कि वर्ष 1952 में संविधान ने वोट देने का जो अधिकार दिया, चार पीढ़ियों के बाद अब उस को इस तरह से कैसे खत्म किया जा सकता है?

राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील बिहार की कुल आबादी लगभग 13 करोड़ है. इस राज्य में तकरीबन 8 करोड़ वोटर हैं जिन के नाम मतदाता सूची में होने चाहिए. इन में से करीब 3 करोड़ लोगों के नाम 2003 की मतदाता सूची में थे. बाकी 5 करोड़ को अपनी नागरिकता के प्रमाण जुटाने पड़ेंगे. उन में से आधे यानी ढाई करोड़ लोगों के पास वे प्रमाणपत्र न होंगे जिन्हें चुनाव आयोग मांग रहा है. ऐसे में साफ है कि इतनी बड़ी संख्या में लोगों को वोट डालने से रोकने की तैयारी है. चुनाव आयोग ने 73 लाख लोगों की सूची राजनीतिक दलों के साथ साझा की है जिन को वोटर लिस्ट से बाहर किया जा सकता है. इन में 21 लाख लोगों ने गणना फौर्म जमा नहीं किए हैं. 52 लाख लोग या तो मर चुके हैं या फिर उन के नाम किसी दूसरे क्षेत्र से वोटर लिस्ट में जुड़ चुके हैं.

बिहार में वोटर लिस्ट पर हठ क्यों

राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव कहते हैं, ‘चुनाव सुधार के बहाने संविधान और लोकतंत्र पर उसी तरह से चोट की जा रही है जैसे नोटबंदी के समय की गई थी. देश की जनता सब देख रही है. वोटर लिस्ट रिव्यू के नाम पर फर्जीवाड़ा हो रहा है. यह सब एक नियोजित प्लान के तहत हो रहा है कि किनकिन बूथ पर और किनकिन मतदाताओं के नाम काटने हैं जिस से विपक्षी दलों को सत्ता में आने से रोका जा सके. बिहार में इस बार चोरी पकड़ ली गई है. यह अब आगे चलने नहीं दिया जाएगा.’

सरकार और चुनाव आयोग का हठ वैसा ही है जैसे पौराणिक काल में साधुसंत करते थे. जो उन की बात नहीं मानता था उस को भस्म कर देते थे. चुनाव आयोग पौराणिक काल के संतों जैसा व्यवहार कर रहा है. उस का कहना है कि जो उस की बात नहीं मानेगा, उस का नाम वोटर लिस्ट से काट दिया जाएगा. न्याय का सिद्धांत यह है कि आरोपी को आखिर तक मौका दिया जाए. अगर किसी को फांसी की सजा दी जाती है तो उस से मरने से पहले उस की अंतिम इच्छा पूछी जाती है. चुनाव आयोग बिना वोटर से पूछे या उसे बताए वोटर लिस्ट से उस का नाम काट रहा है. वोटर लिस्ट में नाम गलत तरह से भी शामिल हो गया हो तब भी वोटर से नाम हटाने के पहले उस से पूछना चाहिए, ऐसा नियम है.

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 के तहत अगर वोटर लिस्ट में गलत तरह से नाम लिखवाया गया है या एक वोटर का नाम 2 जगह लिखा गया है तो उस को एक साल की कैद या जुर्माना या दोनों की सजा का प्रावधान हैं. फौर्म नं. 6 नए मतदाता बनने के लिए है. फौर्म नं. 7 किसी वोटर का नाम शामिल होने पर आपत्ति और नाम हटाने के लिए है. फौर्म नं. 8 मतदाता सूची में मतदाता की प्रविष्टि की किसी त्रुटि को ठीक करवाने के लिए है. फौर्म नं. 8 (क) एक ही विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र में मतदाताओं को मतदान केंद्र बदलने के लिए और फौर्म 6 (ए) विदेशों में रहने वाले भारतीय नागरिकों के लिए है.

अगर चुनाव आयोग को यह लग रहा है कि वोटर लिस्ट में नाम गलत है तो उस वोटर के खिलाफ कानून के हिसाब से काम करना चाहिए. वोटर लिस्ट से सीधे नाम काट देना किसी भी तरह से न्यायसंगत नहीं है. वोट देना वोटर का सब से बड़ा अधिकार है. इसे छीन लेना उस को उसी तरह का अनुभव कराता है जैसे कोई कार चलाने वाला रोल्स रौयस कार खरीद कर सड़क पर निकले और उस को कूड़ा ढोने वाला सरकारी ट्रक टक्कर मार कर चला जाए. वोट ही ऐसा अधिकार है जिस के लिए राजा उस के दरवाजे आ कर घुटने टेकने को मजबूर होता है. चुनाव आयोग और भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार नागरिकों को इस महत्त्व का भी आनंद नहीं लेने देना चाहती है.

बिहार विधानसभा चुनाव के पहले ही सरकार ने वोटर लिस्ट का विशेष गहन पुनरीक्षण कराने का फैसला क्यों लिया? बिहार में पिछले 22 साल में यह पहली बार हो रहा है जब मतदाता सूची में अपना नाम डलवाने के लिए वोटर से नागरिकता साबित करने के कागज मांगे जा रहे हैं. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि खुद को विश्व की सब से बड़ी पार्टी कहने वाली भाजपा की बिहार के चुनाव में दाल नहीं गल रही थी.

बिहार की राजनीति में अगड़ों पर एससी और ओबीसी भारी पड़ रहे हैं. बिहार में भाजपा कभी अपने दम पर सरकार नहीं बना पाई. उसे नीतीश कुमार को बैसाखी के रूप में इस्तेमाल करना पड़ता है. भाजपा इस चुनाव के बाद नीतीश कुमार की बैसाखी को हटाना चाहती है. ऐसे में उस का आखिरी अस्त्र वोटर लिस्ट है, जिस के जरिए वह बिहार की सत्ता को हासिल कर सकती है.

चुनाव आयोग जो भी तर्क दे लेकिन सरकार नोटबंदी और तालाबंदी की तरह मतबंदी करने में पूरी तानाशाही दिखा कर वोट देने के मौलिक अधिकार को छीनने का काम कर रही है. जो काम कभी अंगरेजों ने नहीं किया वह काम लोकतंत्र में एक चुनी हुई सरकार कर रही है. संविधान ने जनता को वोट का अधिकार दिया है. अब हिंदू राष्ट्र निर्माण में लगी भारतीय जनता पार्टी की सरकार जनता के एक बड़े हिस्से को वोट देने से वंचित रखने का कृत्य कर रही है. जो काम अभी बिहार में वोटर लिस्ट सुधार के नाम पर हो रहा है वही काम बाद में दूसरे प्रदेशों और फिर पूरे भारत में होगा.

उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने आरोप लगाया था कि हर विधानसभा की वोटर लिस्ट में समाजवादी पार्टी से 10 से 20 हजार कार्यकर्ताओं के नाम गायब थे. चुनाव आयोग के सामने इस मसले को उठाया गया पर समय रहते चुनाव आयोग ने कदम नहीं उठाए.

इसी तरह का आरोप कांग्रेस नेता और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने महाराष्ट्र चुनाव में लगाए थे. राहुल गांधी ने अपनी पूरी बात को अखबारों में लेख लिख कर समझने का काम किया था. चुनाव आयोग ने इस पर ध्यान नहीं दिया. बिहार में चुनाव से पहले ही वोटर लिस्ट सुधार के नाम पर वोटबंदी का काम किया जा रहा है.

जिस तरह से दूध का जला मट्ठा भी फूंकफूंक कर पीता है उसी तरह से विपक्षी दलों ने बिहार चुनाव में चुनाव से पहले ही वोटर लिस्ट पर नजर रखनी शुरू कर दी थी, जिस की वजह से मतबंदी की यह योजना सामने आ गई. पूरे देश को पता चल गया कि नसबंदी, नोटबंदी और तालाबंदी के बाद अब मतबंदी की जा रही है. एक तरफ इस पार्टी के नेता अपनी मार्कशीट नहीं दिखाने पर अमादा हैं दूसरी तरफ वे दूसरों से कहते हैं कि अपने पेपर दिखाओ. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने आरोप लगाया कि इस रिवीजन से चुनाव आयोग बैकडोर से एनआरसी लागू करने की कोशिश कर रहा है.

मौलिक अधिकार है वोट देना

लोकतंत्र में वोट का अधिकार मौलिक अधिकार है. संविधान लागू होने से पहले सब को वोट देने का अधिकार नहीं था. 1857 के बाद अंगरेजों ने लोकल सैल्फ गवर्नमैंट पौलिसी बनाई थी, जो 1884 में पूरी तरह से लागू हो गई. वर्ष 1908 में लोकमान्य तिलक ने पुणे नगर पालिका के चुनाव में हिस्सा लिया था. इस में उन की विजय हुई थी. इस के बाद भी उन्होंने कभी सभी शहरियों को वोट देने के अधिकार का मुद्दा नहीं उठाया कि जिस के तहत आम नागरिक वोट दे सके. उस समय तक वोटर लिस्ट नहीं बनी थी. बाल गंगाधर तिलक महान माने जाते हैं पर वे औरतों, पिछड़ों और अछूतों की प्राइमरी शिक्षा के भी खिलाफ थे. वही काम आज की भगवाई सरकार कर रही है.

1909 में अंगरेजों के दौर में इलैक्शन एक्ट पारित हुआ. उस के बाद इलैक्शन शुरू हुआ. उस समय वोटर लिस्ट में केवल 50 लोगों के नाम होते थे. ये वे लोग थे जो इलाके के मुखिया, जमींदार, बड़े साहूकार, बड़े काश्तकार यानी कि उस वक्त जो टैक्स के रूप में लगान जमा करते थे वही लोग चुनावी प्रक्रिया में शामिल होने के हकदार थे. वे ही लोग वोटर हुआ करते थे और उन्हीं लोगों में से चुनाव लड़ने वाले होते थे. उन्हीं में से लोग चुनाव जीत कर इलाके के विकास के लिए कार्य करते थे.

50 लोगों की वोटर लिस्ट में से केवल 4 लोगों को चुनाव लड़ाते थे. ये वे लोग होते थे जो उस समय 100 रुपए से अधिक का आयकर या मालगुजारी भरते थे. मुश्किल से गांव के अनुसार 4 या 5 वोट ही होते थे. 4 प्रत्याशी होते थे और 46 वोटर और इन्हीं लोगों में से एक जीत कर लोकल बोर्ड का मुखिया बनता था. 1919, 1935 और 1945 में हर बार ब्रिटिश प्रोविंसों में मतदाताओं की संख्या बढ़ी पर सभी को वोट देने का अधिकार 1952 में ही मिला.

जब देश आजाद हुआ तो यह तय किया गया कि भारत में लोकतंत्र की स्थापना के लिए अधिक से अधिक लोगों को वोट डालने का अधिकार दिया जाएगा. इस से पहले भारत ही नहीं अन्य देशों में भी अमीरों को ही वोट देने का अधिकार था. भारत ने संविधान लागू होने से पहले ही यह सोच लिया था कि देश में सभी को वोट देने का अधिकार होगा.

ओर्नित शानी की किताब ‘हाऊ इंडिया बिकेम डैमोक्रेटिक’ में लिखा है कि भारत में वयस्क मताधिकार के माध्यम से लोकतंत्र को स्थापित करने का मूर्त रूप दिया गया.

ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली को भारत की इस लोकतांत्रिक व्यवस्था पर संदेह था. उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को लिखा- ‘एशियाई गणराज्य कम हैं और हाल ही में वे स्थापित हुए हैं. ऐसे में सभी को मतदान का अधिकार देना ठीक नहीं रहेगा.’ अंगरेज वकील और शिक्षाविद आइवर जेनिंग्स ने लिखा- ‘सीमित मताधिकार दे कर या प्रतिनिधित्व को संतुलित कर के ही लोकतंत्र के नुकसान को कम किया जा सकता है.’ ब्रिटिश प्रधानमंत्री की सोच स्वतंत्र और लोकतांत्रिक चुनाव कराने की भारतीय अवधारणा- वयस्क मताधिकार- पर आधारित नहीं थी.

1947 से 1950 के बीच वयस्क मताधिकार को वोट का अधिकार देने के लिए संविधान सभा सचिवालय (सीएएस) द्वारा उपाय किए गए. इन में सब से पहले सीएएस ने मतदाता सूची तैयार करना शुरू किया. 17.3 करोड़ नागरिकों को मताधिकार दिया गया. इस तरह से देखें तो मतदाता सूची का पहला मसौदा संविधान लागू होने से ठीक पहले ही सोच लिया गया था. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत देश के नागरिकों, जिन की उम्र 21 वर्ष या उस से अधिक थी, को वोट डालने का अधिकार दिया गया. इस अनुच्छेद को संविधान में शामिल करवाने में वे लोग थे जो हिंदूरक्षक माने जाते थे, आपत्ति करते रहे थे.

28 मार्च, 1989 को 61वें संविधान संशोधन के तहत वोट डालने की न्यूनतम उम्र को घटा कर 18 वर्ष कर दिया गया था. संविधान का अनुच्छेद 326 यह भी सुनिश्चित करता है कि मतदान के अधिकार का प्रयोग करते समय किसी भी नागरिक के साथ धर्म, जाति, लिंग या संपत्ति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा.

भारत के संविधान ने यह तय किया कि जो भी बालिग है वह वोट देगा. उम्र के अलावा कोई बंधन नहीं रखा गया था. इसी के तहत 1951-52 में हुए पहले भारतीय आम चुनाव में करीब 17 करोड़ लोगों ने हिस्सा लिया, जिस में 85 फीसदी लोग न तो पढ़ सकते थे, न लिख. कुल मिला कर करीब 4,500 सीटों के लिए चुनाव हुआ था, जिस में 499 सीटें लोकसभा की थीं. यह पहली बार हुआ कि न केवल पहले के अंगरेजों के अधीन वाले प्रोविंसों में सभी को वोट का अधिकार मिला बल्कि पूर्व राजाओं की रियासतों के नागरिकों को भी पहली बार वोट देने का हक मिला.

वोट के अधिकार से लोगों को वंचित करने का मतलब जनता के मौलिक अधिकारों की कटौती है. आज वोट लिस्ट में तथाकथित सुधार के रास्ते देश को आजादी से पहले की हालत में ले जाने का प्रयास किया जा रहा है जब केवल सलेक्टेड लोग ही वोट दे सकते थे और चुनाव लड़ सकते थे. संविधान ने जो अधिकार जनता को दिया, सरकार उस को मतबंदी के जरिए वापस लेने की फिराक में है. वह दलितों, पिछड़ों और कमजोर लोगों को अपने बराबर बैठे नहीं देखना चाहती. लोकतंत्र में वोट का अधिकार छीन कर इस कृत्य को अंजाम दिया जा सकता है.

संविधान को दरकिनार करने की साजिश

बिहार में वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण के बहाने इस तरह की व्यवस्था को बनाने का काम हो रहा है जिस में वोटर लिस्ट में वे लोग होंगे जो पौराणिक व्यवस्था को मानेंगे. जो पौराणिक व्यवस्था को चुनौती देने वाले होंगे उन के वोट देने के अधिकार को वोटर लिस्ट से उन के नाम काट कर खत्म कर दिया जाएगा. देश को संविधान लागू होने से पहले के कालखंड में ले जाया जा रहा है. नागरिकता को वर्णव्यवस्था से जोड़ने की साजिश की जा रही है. यह काम केवल बिहार तक ही सीमित नहीं रहेगा, आगे पूरे देश में ऐसा किया जाएगा.

बिहार विधानसभा चुनाव में वोटर लिस्ट विवाद के बाद चुनाव आयोग ने कहा कि ‘वोटर लिस्ट में जांच का काम देश के हर राज्य में किया जाएगा. इस में घरघर जा कर मतदाताओं की पुष्टि की जाएगी. इस के जरिए चुनाव आयोग यह चाहता है कि कोई गैरभारतीय वोटर लिस्ट में न रहे.’

2029 में लोकसभा चुनाव से पहले सभी राज्यों की वोटर लिस्ट की स्क्रीनिंग पूरी करने की योजना है. भाजपा अब यह नहीं चाहती कि उस की जगह पर कोई और दल सत्ता में आए. ऐसे में वोटर लिस्ट से विरोधियों के नाम ही काट दिए जाएं.

इस को दक्षिणापंथी लोगों की उस मांग से जोड़ कर देखा जा सकता है कि जो भारतीय न हो उस को वोट देने का अधिकार न हो. यही उद्देश्य एनआरसी यानी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का भी था. जनगणना में भी केंद्र सरकार इसी तरह का कोई हेरफेर कर सकती है. उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव कहते हैं- ‘जातीय जनगणना के आंकड़ों और वोटर लिस्ट के मामले में भाजपा सरकार पर भरोसा नहीं किया जा सकता.’

बिहार वोटर लिस्ट प्रक्रिया में चुनाव आयोग की भूमिका पर सवाल उठ रहे हैं, उस के पहले महाराष्ट्र के चुनाव में वोटर लिस्ट की गड़बड़ी जाहिर हो चुकी है. इस से यह साफ दिखने लगा है कि हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए कुछ भी संभव है. इस को देख कर यह कहा जा सकता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में अगर भाजपा को 400 से अधिक सांसद मिल गए होते तो वह कानून बना कर इस तरह के काम करती जिन्हें अब उस को पिछले दरवाजे से करने की कोशिश करनी पड़ रही है.

क्या है वोटर लिस्ट विवाद

बिहार विधानसभा चुनाव से पहले चुनाव आयोग ने वोटर लिस्ट को अपडेट करने का काम शुरू किया. इस को वोटर लिस्ट का विशेष गहन पुनरीक्षण नाम दिया गया. इस के तहत नए मतदाताओं के नाम जोड़े जा रहे हैं और जो वोटर नहीं हैं, उन के नाम हटाए जा रहे हैं. इस में सभी मतदाताओं को सत्यापन का एक फौर्म भरना पड़ रहा है, जिस में उन्हें अपने बारे में कुछ जरूरी जानकारियां देनी होती हैं.

चुनाव आयोग जो जानकारी मांग रहा है उस में 2 प्रावधान किए गए हैं, जैसे 2003 या उस के बाद पैदा हुए मतदाताओं को अपना जन्मप्रमाण पत्र या मातापिता के वोटर आईडी का एपिक नंबर देना होगा, जबकि 2003 से पहले पैदा हुए लोगों को कोई दस्तावेज नहीं देना है.

असल में जिन का भी नाम 2003 की सूची में नहीं था, उन सब को फौर्म भरने के साथ प्रमाणपत्र भी लगाने होंगे. जिन का जन्म 1 जुलाई, 1987 के पहले हुआ था उन्हें सिर्फ अपने जन्मतिथि और जन्मस्थान का प्रमाण देना होगा. जिन का जन्म 1 जुलाई, 1987 से 2 दिसंबर, 2004 के बीच हुआ था उन्हें अपने और अपने मातापिता में से किसी एक का प्रमाणपत्र देना होगा. जिन का जन्म 2 दिसंबर, 2004 के बाद हुआ है उन्हें अपने और अपने माता व पिता दोनों का प्रमाणपत्र देना होगा. अगर माता और पिता का नाम 2003 की सूची में था तो उस पेज की फोटोकौपी से उन के प्रमाणपत्र का काम चल जाएगा लेकिन तब भी आवेदक को अपनी जन्मतिथि और जन्मस्थान का प्रमाण तो लगाना ही पड़ेगा.

सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयोग का हलफनामा

वोटर लिस्ट का विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर विवाद को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने वाली कई याचिकाओं के जवाब में चुनाव आयोग ने 88 पेज का जवाबी हलफनामा दे कर अपनी बात रखी. चुनाव आयोग ने इस में कहा कि वोटर लिस्ट में नाम शामिल करने के लिए वोटर कार्ड, आधार और राशन कार्ड को वैध दस्तावेज के रूप में मंजूर नहीं किया जा सकता है. वोटर लिस्ट का विशेष गहन पुनरीक्षण जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 के नियम 21 (3) के तहत नए सिरे से वोटर लिस्ट बनाने की प्रक्रिया है. यह वोटर कार्ड मौजूदा सूची की प्रविष्टियों पर आधारित है और स्वयं पुनरीक्षण के अधीन है.

चुनाव आयोग ने अपने हलफनामे में कहा कि आधार कार्ड को वोटर लिस्ट में शामिल करने के लिए वैध दस्तावेज के रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती क्योंकि यह नागरिकता स्थापित नहीं करता, यह केवल पहचान का प्रमाण है. इसी तरह से चुनाव आयोग ने राशन कार्ड को भी स्वीकार्य दस्तावेज की सूची से बाहर करने की वजह बताते कहा, राशन कार्ड फर्जी बने हुए हैं.

केंद्र सरकार ने 7 मार्च को अपनी एक प्रैस कौन्फ्रैंस में कहा कि उस ने 5 करोड़ फर्जी राशन कार्ड निरस्त कर दिए हैं. इस का मतलब यह हुआ कि केंद्र सरकार 80 करोड़ लोगों को जो राशन दे रही थी वह फर्जी लोगों को दे रही थी. कल को केंद्र सरकार कहेगी कि आधार तो मुफ्त राशन पाने का भी दस्तावेज नहीं है. यह सुविधा वापस ली जा सकती है.

चुनाव आयोग का तर्क है कि वोट का अधिकार जनप्रतिनिधत्व अधिनियम 1950 की धारा 16 और 19 के साथ संविधान के अनुच्छेद 326 और जनप्रतिनिधत्व अधिनियम 1951 की धारा 62 से प्राप्त होता है. इस में नागरिकता, आयु और सामान्य निवास के संबंध में कुछ योग्यताएं निधारित हैं. अपात्र व्यक्ति को वोट देने का अधिकार नहीं है. इसलिए वह संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 के तहत मिले अधिकारों का उल्लंघन नहीं है. चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि उसे वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण में एक माह से अधिक का समय नहीं लगेगा जिस से वह समय पर अपना काम कर लेगा.

चुनाव आयोग का कहना है कि 2003 के बाद की वोटर लिस्ट में गड़बड़ी है. अब सवाल उठता है कि अगर 2003 के बाद के चुनावों की वोटर लिस्ट में गड़बड़ी है तो इस के बाद बिहार में हुए विधानसभा और लोकसभा के चुनाव को अवैध क्यों नहीं माना जाना चाहिए? उन चुनावों को रद्द कर देना चाहिए.

उन चुनावों के बाद सरकारों ने जो भी फैसले लिए वे भी कूड़ेदान में डाल देने चाहिए. जब वोटर लिस्ट ही गलत थी तो उस के द्वारा चुनी सरकार भी गलत थी और उस के आधार पर लिए गए फैसले भी गलत ही थे. सभी सांसदों, विधायकों को दिए गए वेतन वापस ले लिए जाने चाहिए. सारे कानून जो उस दौरान बने, रद्द माने जाने चाहिए.

चुनाव आयोग ने एक माह में ही वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण के काम को पूरा करने का दावा किया है. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई कर रही बैंच के न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया ने कहा कि न्यायालय को चुनाव आयोग की समयसीमा पर गंभीर संदेह है. उन्होंने कहा कि जनगणना में ही एक वर्ष लग जाता है और ईसीआई की समयसीमा सिर्फ 30 दिन है जिस के अंदर कैसे यह काम हो सकता है.

सवाल यह भी उठता है कि अगर सरकार इतनी ही सक्षम है तो जनगणना का काम अब तक क्यों नहीं पूरा किया गया? उसे लगातार टाला क्यों जा रहा है? पिछली बार जनगणना 2011 में हुई थी. 14 साल हो चुके हैं. इतने समय में तो राम का वनवास भी खत्म हो गया था. सरकार ने अभी भी जनगणना के लिए 2027 तक इंतजार करने को कहा है.

वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण का काम वही सरकारी नौकर कर रहे हैं जिन्होंने राशन कार्ड बनाए थे, जिन को फर्जी बताया जा रहा है. वोटर लिस्ट बनाने वाले कर्मचारी राज्य सरकार के ही बाबू श्रेणी के हैं. ये अभी नीतीश सरकार के अधीन ही काम कर रहे हैं. चुनाव आयोग के अधीन तब होते हैं जब चुनाव आचार संहिता घोषित होती है. देश की बाबूशाही कितनी ईमानदार है, सभी जानते हैं. यह रिश्वत लेने में सब से आगे होती है. हर तरह का लाइसैंस और प्रमाणपत्र फर्जी तरह से बन जाता है. बीएलओ के रूप में शिक्षक, लेखपाल, कानूनगो और क्लर्क श्रेणी के कर्मचारी काम करते हैं जो राज्य सरकार के अधीन होते हैं. चुनाव आयोग का काम करने के लिए इन को अतिरिक्त भत्ता मिलता है. इसी भत्ते के लालच में ये चुनाव आयोग का अतिरिक्त काम करते हैं. इन की बनाई वोटर लिस्ट पर कभी भी भरोसा कैसे किया जा सकता है.

वोटर लिस्ट से नाम काटने का अधिकार बीएलओ का नहीं है. चुनाव आयोग वोटर लिस्ट में गलत तरह से नाम लिखवाने वाले को पहले अपने पास बुलाए. उस के खिलाफ मजिस्ट्रेट के यहां शिकायत हो. फिर वह दोनों पक्षों को सही तरह से सुने व समझाए कि उस की गलती है जिस के कारण उस के नाम को काटने का काम क्यों न किया जाए. बिना वोटर को सुने उस का नाम काटना गलत है. चुनाव आयोग वोटर की सुन ही नहीं रहा है. वह सीधे वोटर लिस्ट से नाम काटना चाहता है. यह तानाशाही है- नसबंदी वाली, नोटबंदी वाली, तालाबंदी वाली.

असल में चुनाव आयोग की मंशा वह नहीं है जो वह बता रहा है. अगर चुनाव आयोग की मंशा वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण की होती तो कोई दिक्कत नहीं थी. जैसे, नसबंदी का मकसद फैमिली प्लानिंग नहीं था, लोगों को डरा कर उन के मुंह को बंद करना था. जैसे नोटबंदी का मकसद खास लोगों को लाभ पहुंचाने का था, आतंकवाद और रिश्वतखोरी बंद करना तो बहाना था. जैसे, कोरोना में तालाबंदी का मकसद तबलीगी जमात जैसों को परेशान करने का था.

वैसे ही मतबंदी का काम वोटर लिस्ट को सही करना नहीं है, इस के बहाने गरीब व विरोधी मतदाताओं को मताधिकार से वंचित करना है. जो हिंदू राष्ट्र बनने की राह में बाधा बन सकते हैं उन को वोट देने के अधिकार से वंचित करने का है. बिहार का यह मौडल पूरे देश में ले जाया जाएगा.

आधार नहीं रहा आधार

चुनाव से ठीक पहले प्रदेश के 7.9 करोड़ मतदाताओं से यह कहना कि वे अपनी पात्रता को सत्यापित करें, एक तरह से हजारों वोटर्स को मतदान करने से रोकने की कोशिश है. आधार कार्ड को स्वीकार न करना पूरी तरह से नागरिकता जांच की कवायद है.

आधार कार्ड में 12 अंकों की एक पहचान संख्या होती है जिसे भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण द्वारा जारी किया जाता है. यह प्रत्येक भारतीय की पहचान और उस के निवास स्थान का प्रमाण है. आधार कार्ड की मान्यता बैंकिंग, स्कूल एडमिशन, सरकारी योजनाओं का लाभ लेने से ले कर अस्पतालों में इलाज कराने तक सभी जगहों पर है. वोट देने के समय भी यह पहचानपत्र के रूप में मान्य था.

सवाल उठता है कि जब आधार पहचानपत्र के रूप में वोट डालने के लिए प्रयोग किया जा सकता है तो वोटर लिस्ट की जांच में इस को क्यों माना नहीं जा रहा है? चुनाव आयोग का कहना है कि वोटर लिस्ट अपडेशन में आधार कार्ड को प्रमाण नहीं माना जा सकता क्योंकि यह नागरिकता का प्रमाणपत्र नहीं है.

यह बात अब साफ होती नजर आ रही है कि आधार कार्ड को नागरिकता का प्रमाणपत्र नहीं माना जा सकता. इस का लाभ उठा कर हिंदू राष्ट्र बनाने वाले उन लोगों को वोट के अधिकार से वंचित कर रहे हैं जो गरीब हैं, जिन की कोई सुनने वाला नहीं है. यानी, केवल वे लोग वोट दे सकें जो वोटर लिस्ट में दर्ज हैं. जिन लोगों से विरोध का डर है उन को इस बहाने वोटर लिस्ट से बाहर किया जा सकता है. वोटर लिस्ट में उन के नाम ही होंगे जो भाजपाई होंगे, हिंदू राष्ट्र को मानने वाले होंगे.

संविधान कहता है कि वोटर बनने के लिए सिर्फ इतना चाहिए कि व्यक्ति भारतीय नागरिक हो, मानसिक रूप से अस्वस्थ न हो, किसी कानून के तहत वोट डालने से रोका न गया हो. एक बार जब किसी का नाम वोटर लिस्ट में आ जाता है तो उसे हटाने के लिए बाकायदा एक तय प्रक्रिया अपनानी चाहिए. अगर आप के पास वोटर आईडी है तो आप ने जरूरी दस्तावेज पहले ही दिए होंगे.

जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 के तहत आधार को पहचान साबित करने वाले दस्तावेजों में गिना गया है तब इस को चुनाव आयोग की दी गई सूची में शामिल क्यों नहीं किया गया?

नोटबंदी व तालाबंदी की अगली कड़ी वोटबंदी

वोटर लिस्ट सुधार के नाम पर जो तानशाही की जा रही है वह नसबंदी, नोटबंदी और तालाबंदी की अगली कड़ी मतबंदी है. इस से बहुत बड़ी संख्या में मतदाताओं को उन के मताधिकार से वंचित कर दिया जाएगा. यह चुनावों में सभी को बराबरी का मौका देने के सिद्धांत के खिलाफ है. यह काम संविधान के खिलाफ और भेदभावपूर्ण है.

इस का सब से ज्यादा असर हाशिए पर जीने वाले लोगों, जैसे प्रवासी मजदूर, ट्रांसजैंडर और अनाथ लोगों पर पड़ेगा. जिन भी लोगों को जीवन में पढ़ाई के अवसर नहीं मिले उन के साथ यह भेदभाव है. इस का असर यही होगा कि औरत, गरीब, प्रवासी मजदूर और दलित, आदिवासी व पिछड़े वर्ग के लोग प्रमाणपत्र देने में पिछड़ जाएंगे और उन का नाम/वोट कट जाएगा.

जो सरकार 2021 में होने वाली जनगणना को 2026-27 तक टालने का काम कर रही है वह एक माह में वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण का काम कैसे कर लेगी, सहज रूप से समझ जा सकता है. साल 2003 में वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण के काम में डेढ़ साल लगे थे. अब यह काम एक माह में हो जाएगा? असल में ये झांसे में रखने वाली बातें हैं. इस के जरिए भाजपा बिहार में सत्ता पाने का रास्ता तलाश रही है, जो लोकतंत्र की हत्या जैसा काम है. ऐसे में यह होना चाहिए कि 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव पुरानी वोटर लिस्ट के जरिए ही कराए जाएं. जब जनगणना हो कर नई वोटर लिस्ट बन जाए तब नई वोटर लिस्ट के जरिए चुनाव कराए जाएं.

Supreme Court : इंश्योरैंस, इंश्योर्ड और क्लेम

Supreme Court : सुप्रीम कोर्ट ने एक गलत और अफसोस भरे निर्णय में इंश्योरैंस कंपनियों को भारी मुनाफा कमाने का मौका दिया है. जुलाई में अपने एक निर्णय में कोर्ट ने कहा कि मोटर ऐक्सिडैंट में यदि चालक स्टंट दिखाते हुए दुर्घटनाग्रस्त हुआ और मर गया तो इंश्योरैंस कंपनी उस के करीबी दावेदार को क्लेम देने को बाध्य नहीं है.

जिस मामले में यह निर्णय दिया गया उस में मृत ड्राइवर ने क्या किया, यह छोड़िए, यह निर्णय इंश्यारैंस कंपनियों को सुनहरी तश्तरी में क्लेम न देने का अवसर दे देगा जहां मृत्यु इंश्योर्ड ड्राइवर की हुई हो. इंश्योरैंस कंपनी हर उस मामले में क्लेम को चुनौती देगी जिस में मृत व्यक्ति ड्राइव कर रहा था. इस का मतलब है कि लगभग सभी ऐसे मामलों में पहला बहाना क्लेम रिजैक्ट करने का होगा कि मृतक तो गलत ढंग से गाड़ी चला रहा था.

अब यह मृतक के रिश्तेदारों पर निर्भर करता है कि वे हजारों नहीं बल्कि लाखों रुपए खर्च कर के अपीलें करते रहें. उन्हें पैसों की जरूरत तो उसी समय होती है जब मृत्यु हुई हो. यदि यह शर्त लगा दी गई कि पहले वे यह साबित करें कि मृत्यु तो किसी और की गलती से हुई थी, मृतक तो सावधानी से नियमानुसार ही गाड़ी चला रहा था तो इस में वर्षों लग जाएंगे.

यह मामला, जिस में क्लेम रिजैक्ट किया गया, 2014 का है. मृतक का परिवार वैसे ही मृतक के संरक्षण व साथ को खो चुका था, फिर उसे कर्नाटक हाईकोर्ट होते हुए सुप्रीम कोर्ट आना पड़ा जहां उस का 80 लाख रुपए के मुआवजे का क्लेम रिजैक्ट कर दिया गया. पुलिस से यह रिपोर्ट लिखाना कि दुर्घटना चालक की गलती से हुई थी, इंश्योरैंस कंपनियों के लिए यह बाएं हाथ का खेल है. वे अपना धंधा इसी बलबूते पर करती हैं कि पहले सब्जबाग दिखा कर, फोन पर तरहतरह के वादे कर के ग्राहक को फांसो और फिर बहानों से इंश्योरैंस क्लेम को रिजैक्ट कर दो.

कर्नाटक हाईकोर्ट ने इस मामले में कहा था कि मृतक के वारिसों को यह साबित करना होता है कि चालक की गलती नहीं थी. मृतक के वारिस इस तरह के सुबूत कैसे और कहां से लाएंगे? पुलिस वाले अपनी मेहनत बचाने के लिए दुर्घटना होने का दोष आमतौर पर मृत चालक पर मढ़ देते हैं ताकि उन्हें और सुबूत इकट्ठे न करने पड़ें, अदालतें उस रिपोर्ट को ही देववाणी मानने लगें तो इंश्योरैंस कंपनियों की चांदी नहीं बल्कि सोना हो जाएगा.

इंश्योरैंस इस देश में मंदिरों में पूजा करने की तरह है जिस में सुख व सफलता के लिए भारी चंदा दिया जाता है लेकिन लाभ दानी को नहीं, मंदिर के दुकानदार को होता है.

Delhi Slum Demolition : कब्जों के जिम्मेदार

Delhi Slum Demolition : सरकारी या किसी की निजी जमीन पर बरसों तक कब्जा जमाए रखने वालों से जब जगह खाली करने को कहा जाता है तो वे तुरंत कहने लगते हैं कि जब उन्होंने वहां डेरा डाला था, खपरैल की झोंपड़ी बनाई थी, दुकान बना ली थी, वोटर कार्ड बनवाया था, राशन कार्ड बनवाया था तो तब जमीन मालिक क्यों नहीं आया, अब बसीबसाई बस्ती, गृहस्थियों को तोड़ने व उन में पुश्तों से रह रही गृहिणियों को बेघर करने की बात क्यों?

दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने अब बहुत से मुसलिम बहुल क्षेत्रों में अतिक्रमण के नाम पर घरों को तोड़ना शुरू कर दिया है और इस पर बहुत लोग नाराज हो रहे हैं जिन में वे हिंदू भी हैं जो भाजपा के कट्टर समर्थक रहे हैं. चूंकि भाजपा को दिल्ली में कई सालों तक चुनाव नहीं झेलना, वह उस वादे को भूल चुकी है कि झुग्गियां अगर तोड़ी भी गईं तो उसी जगह पक्के, शौचालय व किचन वाली हवादार टाइलें लगे, बहुमंजिला लिफ्ट वाले मकान उन्हें मुफ्त मिलेंगे. अब वह तोड़फोड़ करने के लिए बुलडोजरों और जेसीबियों का जम कर इस्तेमाल कर रही है.

देश के शहरों की गरीबी और अव्यवस्था की एक वजह यह भी है कि एक बहुत बड़ा वर्ग खाली पड़ी जमीन को हथियाने को अपना मौलिक हक समझता है. इस वर्ग में हर जाति व धर्म के लोग शामिल हैं. संभ्रांत कालोनियों में भी कब्जे करने से लोग बाज नहीं आते.

सुप्रीम कोर्ट ने हाल में दिल्ली की डिफैंस कालोनी के रैजिडैंट्स वैलफेयर एसोसिएशन पर कई करोड़ रुपयों का जुर्माना लगाया जिस ने लोधी कालोनी के एक मकबरे में बरसों से अपना कार्यालय खोल रखा था. जब संभ्रांत कालोनी में अपनी जमीन से बाहर निकल कर कुछ न कुछ बना डालने की आदत है तो गरीब क्यों पीछे रहते? वे तो अपने लिए बस, एक छत चाह रहे थे.

इसे समाज सहज लेता है पर यह गलत है. दूसरे की संपत्ति का सम्मान व सुरक्षा करना हरेक का नैतिक कर्तव्य है, किसी धर्म की दुकान पर पैसा फेंकने से भी ज्यादा बड़ा. समाज तभी चल सकता है जब हम दूसरे की कमाई का आदर करें, दूसरे के परिवार की रक्षा में अपना सहयोग दें.

दिल्ली हो या देश का कोईर् भी दूसरा हिस्सा, किसी को भी किसी सड़क, पटरी, खुले मैदान, किसी के निजी खाली प्लौट पर किसी तरह का कब्जा कर दुकान, खोमचा, घर, मंदिर, मसजिद, चर्च बनाने का हक नहीं है. दिल्ली में भाजपा की सरकार या म्युनिसिपल कौर्पोरेशन जो तोड़फोड़ कर रही है, वह बिलकुल वाजिब है.

घर व दुकान, अवैध निर्माण तोड़े जा रहे लोगों की यह शिकायत कि जब वे कब्जा कर रहे थे तो सरकारी महकमा कहां था, भी बिलकुल सही व जायज है. सरकार और अदालतों को जहां एक तरफ अवैध निर्माण करने वालों से बरसों का किराया लेना चाहिए तो वहीं तब से ले कर अब तक के अधिकारियों को दंड भी देना चाहिए, उन्हें नौकरी से निकालने व उन से पैसा वसूलने के लिए उन की पैंशन रोकने तक के कदम उठाए जाने चाहिए.

Congress MP : थरूर का गरूर

Congress MP : कांग्रेस के केरल से सांसद शशि थरूर अब लगता है भाजपा में जाने का मन बना चुके हैं. उन्हें नरेंद्र मोदी ने सांसदों के उस दल का नेतृत्व दिया था जिन्हें विदेशों में औपरेशन सिंदूर के बाद डिप्लोमैसी के लिए भेजा गया था ताकि पाकिस्तानी प्रचार का मुकाबला किया जा सके. विदेशों में बहुत देशों की राय शायद यह है कि पहलगाम में आतंकवादियों के हाथों 26 लोगों की निर्मम हत्या के पीछे हाथ को ले कर भारत की वायुसेना का आक्रमण पाकिस्तानी ठिकानों पर कुछ गलत है.

शशि थरूर, जो चाहे नेता हों या न हों, इंग्लिश बढ़िया बोलते हैं. भारत का पक्ष जिस भी देश में उन्होंने रखा वहां नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की प्रशंसा में खूब पुल बांधे. कांग्रेस को इस पर कोई बड़ा आश्चर्य नहीं था क्योंकि शशि थरूर हमेशा ही अपनी चलाने में लगे रहते रहे हैं. हालांकि, उन्हें ऐसी सीटें मिलती रही हैं जहां पार्टी की बदौलत उन का जीतना आसान रहा है. वे कम मेहनत से कांग्रेस के भरोसे जीतते रहे हैं.

इंग्लिश में महारत के साथ उन्हें ब्राह्मणवादी प्रचार में भी महारत है. इस दृष्टि से वे 1947 के बाद की कांग्रेस के वल्लभभाई पटेल, सी राजगोपालाचारी, श्यामाचरण शुक्ल, डा. संपूर्णानंद, राजेंद्र प्रसाद और उस के बाद के जगन्नाथ मिश्र, विद्याचरण शुक्ल, हेमवती नंदन बहुगुणा के जैसे पौराणिक धर्म के हिमायती हैं. उन की किताब ‘व्हाई आई एम अ हिंदू’ हिंदू धर्म का ढिंढोरा पीटने का वह काम करती है जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग भी नहीं कर पाते क्योंकि भाषा पर उन की थरूर जैसी पकड़ नहीं है.

इतने सालों से वे कांग्रेस में इसलिए हैं क्योंकि उन्हें वहां अपनी इंग्लिश के कारण कुछ भाव मिलता रहा है. उन के समर्थकों की बड़ी जमात चाहे न हो पर कांग्रेसी नेता उन से डरेसहमे रहते हैं कि कहीं वे ऐसी इंग्लिश न बोल दें कि उन का इंग्लिश अल्पज्ञान धराशायी हो जाए.

अब वे नरेंद्र मोदी का गुणगान ज्यादा कर रहे हैं जबकि ये वही मोदी हैं जिन्होंने शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर, जिन की संदिग्ध हालत में मृत्यु हुई थी, को 50 करोड़ की गर्लफ्रैंड कहा था.

केरल के बाहर और संसद के अलावा थरूर को कोई राजनेता मानता हो, इस में संदेह ही है. एक तरह से वे कांग्रेस पर बोझ हैं पर जब तक भाजपा उन्हें कोई पद ज्योतिरादित्य सिंधिया, हेमंत बिसवा सरमा की तरह या एकनाथ शिंदे की तरह नहीं देती वे कांग्रेसियों को अपनी इंग्लिश से हड़काते रहेंगे. गांधी जोड़ा (प्रियंका व राहुल) शायद सही मौका ढूंढ़ रहा है कि जब शशि थरूर से मुक्ति पाई जाए. उन्हें पार्टी से निकालने का मलतब होगा तिरुअनंतपुरम में लोकसभा सीट का उपचुनाव कराना और यह जोखिम कांग्रेस फिलहाल नहीं लेना चाहती.

Marriage : शादी वैध है या नहीं, देना होगा गुजारा भत्ता

Marriage : हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 के तहत मिलने वाले अंतरिम भरण पोषण को ले कर इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति अरिंदम सिन्हा और न्यायमूर्ति अवनीश सक्सेना की खंडपीठ ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया. जिस में कहा गया कि ‘हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 के तहत अंतरिम भरण पोषण तय करने के लिए यह देखना आवश्यक नहीं है कि विवाह वैध है या नहीं, बल्कि यह देखा जाता है कि क्या आवेदनकर्ता के पास स्वयं के लिए पर्याप्त आय है या नहीं.

इस मसले में महिला की अंतरिम भरण-पोषण याचिका को फैमिली कोर्ट ने खारिज कर दिया था. फैमिली कोर्ट में पति ने विवाह को अमान्य घोषित करने की याचिका दी थी. पति ने कहा था कि विवाह के समय पत्नी की पहली शादी अभी भी कायम थी. इस मामले में पत्नी ने धारा 24 के तहत अंतरिम भरण पोषण और मुकदमे के खर्च की मांग की थी.

कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि ‘महत्वपूर्ण यह है कि कोर्ट यह देखे कि क्या अंतरिम भरण पोषण और खर्च की मांग करने वाले पक्ष को वास्तव में इस की आवश्यकता है, जिसे दूसरे पक्ष द्वारा दिया जाना चाहिए.’ अपीलकर्ता ने कहा कि उस का पति के साथ लंबे समय से संबंध था, जो पुलिस विभाग में कार्यरत है और 65,000 प्रति माह कमाता है, साथ ही बिल्डिंग मटेरियल का व्यवसाय भी करता है. उस ने 20,000 प्रति माह की मांग की.

प्रतिवादी ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि भरण पोषण देना कोर्ट के विवेक पर है और इस में संबंधित पक्षों के आचरण का भी महत्व होता है. उस ने यह भी आरोप लगाया कि पत्नी ने अपनी पूर्व शादी की जानकारी छुपाई और वह इनकम टैक्स विभाग में कार्यरत है.

हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि धारा 24 के तहत यह देखना आवश्यक नहीं है कि विवाह वैध है या नहीं, बल्कि यह देखा जाता है कि क्या आवेदनकर्ता के पास स्वयं के लिए पर्याप्त आय है या नहीं. फैमिली कोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए, हाईकोर्ट ने पति को आदेश दिया कि वह पत्नी को 15,000 प्रति माह की दर से अंतरिम भरण पोषण दे, जिस की गणना 15 अप्रैल 2025 से की जाएगी.

Police Raids : हुक्का बार पर छापे क्यों ?

Police Raids : हुक्का बार पर पुलिस के छापे क्यों पड़ते हैं ? असल में जो हुक्का बार आपसी मेलजोल बढ़ाने वाली जगह है. यह बार और नाइट क्लब से अलग होते हैं.

लखनऊ के में विकासनगर पुलिस ने ब्लैक शैडो कैफे की आड़ में चल रहे अवैध हुक्का बार पर छापा मार कर एक नाबालिग समेत 12 लोगों को गिरफ्तार किया है. पुलिस का आरोप है कि हुक्का बार में नाबालिगों को हुक्का परोस कर नशे का आदी बनाया जा रहा था. पुलिस ने मौके से 3 हुक्का, चिलम, पाइप, फ्लेवर तंबाकू बरामद किया. संचालक राधेलाल फरार हो गया था. पुलिस जब कैफे पहुंची तो वहां का नजारा भी कुछ अलग था. पुलिस को देख कर हुक्का बार में मौजूद लोगों के बीच भागदौड़ मच गई. पुलिस कहती है कि इस बार में कई बार स्कूली ड्रैस में बच्चे आते देखे गए थे.

लखनऊ में पुलिस कई अलगअलग हुक्का बार पर छापे मार चुकी है. इस से पहले 16 जनवरी को बाजाराखाला के होटल कासा में हुक्का बार पकड़ा गया था. 23 जनवरी को विकासनगर में कैफे ब्लैक एंपायर सील किया गया. 24 जनवरी को इन्दिरानगर नीलगिरी तिराहे के ब्लैकयार्ड बाई लक्स रेस्टोरेंट सील किया गया. 13 फरवरी को आईटी कालेज चैराहे के पास गार्डन कैफे पर छापा मारा गया था. 22 फरवरी को गोमतीनगर के पेबल्स बिस्ट्रो कैफे में हुक्का बार के शराब पिलाई जा रही थी. 27 फरवरी को आईआईएम रोड स्थित डार्क हाउस कैफे में छापेमारी कर संचालक समेत 3 को पकड़ा था. इस तरह की घटनाएं पूरे देश के बड़े शहरों में हो रही है.

पुरानी है हुक्का संस्कृति

हुक्का लाउंज या हुक्का बार का चलन बहुत पुराना है. भारत के कई राज्यों में हुक्का एक बड़ी संस्कृति का हिस्सा है. यह हुक्का मिट्टी का बना होता है. आज भी कई समुदायों में खुलेआम हुक्का पीने की पंरपरा है. जहां गांव की चैपाल में मुखिया हुक्का पीता है. हुक्का के अंदर तंबाकू होता है. तंबाकू को गरम करने के लिए कोयले रखे जाते हैं. हुक्के से जुड़ा होता है. जिस के जरीए तंबाकू को मुंह से खींचा जाता है. उस के साथ गांव के लोग भी उसी हुक्के से कश लेते हैं.

कई जातियों में पंचायत के फैसले में दंड के रूप में हुक्का पानी बंद करने की रवायत है. इस का मतलब यह होता है कि उस व्यक्ति का सामाजिक बहिष्कार किया गया है. हुक्का महिलाएं भी पीती हैं. हरियाणा और राजस्थान के तमाम समुदायों में महिला प्रमुख भी इस का उपयोग करती है. कई फिल्म और टीवी सीरियलों में ऐसे दृष्य देखे गए हैं. अब कुछ जगहों पर शादी विवाह की दावतों में भी हुक्का अनिवार्य होने लगा है.

हुक्का की यह पंरपरा मुगल काल में नवाबी संस्कृति से जुड़ी रही है. यह हुक्के ग्लास यानि शीशे या चांदी सोने जैसी धातुओं से तैयार होते थे. इस की शुरुआत प्राचीन फारस या भारतीय उपमहाद्वीप में हुई थी. तवायफों के कोठो पर राजा, नवाब और जमींदार हुक्के के कश लेते हुए नृत्य और संगीत का आनंद लेते थे. धीरेधीरे यह पश्चिमी देशों में पहुंच कर बाजार का हिस्सा हो गई. यहां हुक्का लाउंज के नाम से पहचाने जाने लगे. हुक्का लाउंज को ब्रिटेन और कनाडा के कुछ हिस्सों में शीशा बार या डेन या हुक्का बार भी कहा जाता है. यहां हर टेबल पर हुक्के रखे होते हैं. इस में सुगंधित तम्बाकू होती है.

अब हुक्का बार रेस्तरां या नाइट क्लब जैसे हो गए हैं. यह धूम्रपान करने के लिए एक आरामदायक जगह है. इस के साथ ही साथ यहां खाने पीने की सामाग्री भी मिल जाती है. इन का इंटीरियर भी अलग किस्म का होता है. रोशनी कम से कम होती है. कई हुक्का बार में तंबाकू युक्त हुक्का होता है तो अधिकतर जगहों पर फ्लेवर्ड तंबाकू होती है. तंबाकू नियंत्रण कानूनों के कारण के कारण यहां पर कई बार पुलिस को छापा मारने का अधिकार मिल जाता है. हुक्का बार को इस कारण सरकार से लाइसेंस लेना पड़ता है.

ब्रिटेन में हुक्का सब से ज्यादा लेबनानी, पाकिस्तानी या मिस्र के लोगों द्वारा चलाए जाते है. 2007 में सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान पर प्रतिबंध के बाद से हुक्का बार की संख्या बढ़ने लगी है. अब यह युवाओं के बीच में भी काफी लोकप्रिय हो रहे हैं. हुक्का बार अब मनोरंजन का भी साधन बन गए हैं. कई कैफे और रेस्तरां में भी अलग से हुक्का बार बनाया जाने लगा है. हुक्का बार में प्रवेश के लिए आयु का भी कानून है.

21 साल से कम उम्र के लोगों का प्रवेश कानून बंद होता है. असल में स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या भी बढ़ने लगी है. कालेज परिसरों और आस पास के शहरों में कम दूरी पर हुक्का बार खोलना कानून प्रतिबंधित है. इस के पीछे कारण यह है कि युवा पीढ़ी को नशे से दूर रखा जा सके. खाद्य एवं औशधि प्रशासन ने सिगरेट और अन्य प्रकार के तम्बाकू के साथ साथ हुक्का तम्बाकू को भी नियत्रिंत करना शुरू कर दिया है. कई बार हुक्का बार खोलने वाले इस कानून का पालन नहीं करते हैं. जिस की वजह से पुलिस को यहां पर छापा मारना पड़ता है.

युवाओं को क्यों पसंद आता है हुक्का बार

हुक्का बार तीन या चार दोस्तों के साथ एक टेबल पर बैठने और हल्की रोशनी और मधुर संगीत में एक आरामदायक समय बिताने का सुखद स्थान है. हुक्का बार एक बार या नाइट क्लब नहीं है. नाइट क्लब और हुक्का में थोड़ा अंतर होता है. जिस तरह से चैपाल पर हुक्के के सहारे समाज के कई लोग बैठते थे और अपास में बातचीत करते थे उसी तरह से अब हुक्का बार लोगों के बैठने की जगह बन गए है. हुक्का लाउंज युवा लोगों के बीच तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं. युवाओं में हुक्का बार विचारों का आदान प्रदान करने और वाली आरामदायक जगह मानी जाती है.

हुक्का बार आम तौर पर एक शांत और अधिक अंतरंग वातावरण प्रदान करता है जहां लोग शराब और तेज संगीत के बिना हुक्का और बातचीत का आनंद ले सकते हैं. हुक्का पीना एक सामाजिक गतिविधि जैसी होती है. इसलिए दोस्तों के समूह के लिए हुक्का साझा करना आम बात है. इस में एक ही हुक्का से बारी बारी से धूम्रपान करते हैं. ऐसे में युवा अपने दोस्तों के साथ वहां जाते हैं. समय बिताते हैं. कई बार युवा फ्लेवर्ड वाले तंबाकू का सेवन करते हैं. जिन में तंबाकू जैसा नशा नहीं होता है. इस के बाद भी जब पुलिस छापा मारती है तो यहां के युवाओं को भी थाने ले जाती है.

कड़े हो रहे कानून

यूपी सरकार तंबाकू उत्पादों पर लगातार शिकंजा कसती जा रही है. यूपी में अवैध हुक्का बार चलाने पर तीन साल तक की जेल और 50 हजार से ले कर एक लाख तक जुर्माना लगाए जाने का प्राबधान बन गया है. यूपी सिगरेट और अन्य तंबाकू उत्पाद (विज्ञापन का प्रतिषेध, व्यापार, वाणिज्य, उत्पादन, प्रदाय व वितरण) एक्ट में संशोधन के बाद अवैध हुक्का बार के संचालन पर तीन साल तक की जेल की सजा होगी. सरकार ने तंबाकू सेवन की न्यूनतम उम्र 18 साल से बढ़ा कर 21 साल कर दी है.

प्रदेश में अभी हुक्का बार खोलने के लिए फूड सेफ्टी ऐंड स्टैंडर्ड एक्ट के तहत लाइसेंस लेना होगा. अब रेस्टोरेंट में हुक्का बार नहीं खुल सकते. इस के लिए अलग से लाइसेंस लेना होगा. किसी भी सार्वजनिक स्थल या रेस्टोरेंट जहां लंच या डिनर की व्यवस्था होगी वहां हुक्का बार संचालन की अनुमति नहीं दी जाएगी. हुक्का बार की आड़ में नशीली चीजों का इस्तेमाल करने पर रोक है. इस कानून से पुलिस या खाद्य व औशधि विभाग में सब इंस्पेक्टर स्तर तक के अधिकारियों के अधिकार बढ़ा दिए गए है. जिन का दुरूपयोग शुरू हो रहा है. अब यह कानून की आड में कमाई के साधन बनते जा रहे हैं.

Romantic Story In Hindi : उलझन- समीर और शिखा के बीच में कौन आया था

Romantic Story In Hindi : जैसे जैसेशिखा के जन्मदिन की पार्टी में जाने का समय नजदीक आ रहा है, मेरे मन की बेचैनी बढ़ती ही जा रही है. मैं उस के घर जाने के लिए पूरी तरह से तैयार हूं पर अपने फ्लैट से कदम निकालने की हिम्मत नहीं हो रही है.

मैं करीब 2 महीने पहले शिखा से पहली बार अपने कालेज के दोस्त समीर के घर मिला था. उसी मौके पर मेरा समीर की पत्नी अंजलि, उस के दोस्त मनीष और उस की प्रेमिका नेहा से भी परिचय हुआ था.

शिखा के सुंदर चेहरे से मेरी नजरें हट ही नहीं रही थीं. वह जब छोटीछोटी बातों पर दिल खोल कर हंसती तो सामने वाला खुदबखुद मुसकराने लगता था.

मैं ने मौका पा कर समीर से अकेले में पूछा, ‘‘क्या शिखा का कोई बौयफ्रैंड है?’’

‘‘नहीं,’’ उस ने मेरे चेहरे को ध्यान से पढ़ते हुए जवाब दिया.

‘‘गुड,’’ उस का जवाब सुन मेरा मन खुशी से उछल पड़ा, ‘‘तू उस से मेरी दोस्ती करा दे, यार.’’

‘‘कपिल, मैं उस के साथ तेरी दोस्ती नहीं सिर्फ परिचय करा सकता था और वह मैं ने करा दिया.’’

‘‘मुझे शिखा से पहली नजर में ही प्यार हो गया है.’’

मेरे मुंह से ये शब्द सुन कर वह हंसा, ‘‘तू ज्यादा बदला नहीं है. कालेज में भी आए दिन तुझे पहली नजर में प्यार कराने वाला कीड़ा काटता रहता था.’’

‘‘पुरानी बातें भूल जा, मेरे दोस्त. अब मैं अपना घर बसाना चाहता हूं. मुझे लगता है कि शिखा ही मेरे सपनों की राजकुमारी है,’’ मैं ने उसे विश्वास दिलाने की कोशिश करी कि मैं प्यार के इस ताजा मामले में एकदम सीरियस हूं.

पहली मुलाकात में ही शिखा ने मेरे दिलोदिमाग पर जबरदस्त जादू कर दिया था. उसे अपना बनाने की चाह ने मेरी रातों की नींद और दिन का चैन छीन लिया.

उस मुलाकात के तीसरे दिन शाम को ही मैं शिखा से उस के औफिस के बाहर मिला. वह मुझे देख कर खुश हुई. फिर हम कौफी पीने के लिए एक रेस्तरां में जा बैठे.

हमारे बीच उस शाम ढेर सारी बातें हुईं. हंसीखुशी से बातें करते हुए कब घंटाभर बीत गया, हम दोनों को ही पता नहीं चला.

बाद में उसे उस के घर तक कार से छोड़ने गया. मैं खुद उस के मम्मीपापा से मिलना चाहता था, क्योंकि मेरे लिए उन दोनों का दिल जीतना जरूरी था.

शिखा अपने मातापिता के साथ 3 कमरों के फ्लैट में रह रही थी. उस की मम्मी के कमर दर्द और पापा के बागबानी के शौक के बारे में मैं ने पूरी दिलचस्पी के साथ ढेर सारी बातें कर के दोनों के दिल में अपनी जगह बना ली. मेरे अच्छे व्यवहार का जादू उन दोनों के सिर चढ़ कर बोला और फिर उन्होंने मुझे रात का खाना खिला कर ही बिदा किया.

शहर के जिन नामी हड्डियों के डाक्टर से 2 दिन बाद मैं ने शिखा की मम्मी का इलाज शुरू कराया उन की दवा से उन्हें बहुत फायदा हुआ.

अगले संडे की शाम को मुझ से बागबानी पर एक पुस्तक की भेंट पा कर शिखा के पिता ने मुझे बड़े अपनेपन के साथ छाती से लगाया तो मुझे अपनी मंजिल मिल जाने का विश्वास हो चला.

मेरे आग्रह पर शिखा कुछ दिनों के बाद मेरे साथ बाहर घूमने चली आई. मैं उस का दिल जीतने का वह मौका नहीं चूका. जब मैं ने अचानक उसे गुलाब के फूलों का गुलदस्ता भेंट किया तो वह खुशी से फूली नहीं समाई.

धीरेधीरे हमारे बीच मिलनाजुलना बढ़ता गया. उसे अपने साथ खूब खुश देख कर मेरा दिल कहता कि वह मुझ से शादी करने को जल्दी राजी हो जाएगी.

‘‘तुम्हारे जैसा सुंदर, सुशील, स्मार्ट व कमाऊ लड़का अभी तक बिना

गर्लफ्रैंड के कैसे है?’’ कुछ दिनों बाद मेरे साथ एक दिन पार्क में घूमते हुए शिखा ने अचानक यह सवाल पूछा तो मैं मन ही मन बहुत बेचैन हो उठा.

मैं ने अपने मन की उथलपुथल को काबू में रख सहज आवाज में जवाब दिया, ‘‘शिखा, मेरी जानपहचान तो बहुत सारी लड़कियों से है पर कभीकभी मुझे भी यह सोच कर बहुत हैरानी होती है कि मेरी जिंदगी में आज तक मेरे सपनों की राजकुमारी क्यों नहीं आई.’’

‘‘सपनों की राजकुमारी या राजकुमार कम ही मिलते हैं, कपिल.’’

‘‘मुझे क्या मेरे सपनों की राजकुमारी मिलेगी?’’ मैं ने प्यार से उस की आंखों में झांकते हुए पूछा.

‘‘मुझे क्या पता?’’ कह उस का शरमा जाना मेरे मन को गुदगुदा गया.

मैं अगले दिन औफिस बहुत खुश मूड में पहुंचा. मेरी सहयोगी रितु मेरे चैंबर में आई और बोली, ‘‘शनिवार और इतवार को कहां गायब रहे, कपिल?’’

‘‘तबीयत ठीक नहीं थी,’’ उस की नाराजगी दूर करने के लिए मैं ने उस के गाल पर छोटा सा चुंबन अंकित करा.

‘‘इस शनिवार को मेरे साथ रहोगे या मैं कोई और प्रोग्राम बना लूं?’’

‘‘पक्का तुम्हारे साथ रहूंगा,’’ उस के गाल पर शरारती अंदाज में चिकोटी काट कर मैं काम में लग गया.

शिखा से मैं ने पिछले दिन झूठ बोला था. अब तक बहुत सारी लड़कियां मेरी प्रेमिकाएं रह चुकी थीं पर शिखा उन सब से बहुत बेहतर थी. अच्छी पत्नी बनने के सारे गुण उस में मौजूद हैं. मैं ने मन ही मन उस के साथ शादी करने का पक्का फैसला कर लिया.

शनिवार की रात मैं ने रितु के साथ डिनर किया और फिर रात उस की बांहों में उस के फ्लैट में गुजारी. सचाई यही है कि मुझे ऐसा करते हुए कैसी भी ग्लानि महसूस नहीं हुई, क्योंकि तब तक मैं ने शिखा से शादी का कोई वादा तो किया नहीं था.

वैसे 2 हफ्ते बाद आए रविवार को शिखा के सामने शादी का प्रस्ताव रख मैं ने इस कमी को पूरा कर दिया था.

‘‘तुम्हारे बिना मुझे अपनी जिंदगी अधूरी सी लगने लगी है, शिखा. तुम हमेशा के लिए मेरी हो जाओ, मेरे सपनों की राजकुमारी,’’ मैं ने उस की आंखों में प्यार से झांकते हुए कहा तो उस के गोरे गाल गुलाबी हो उठे.

‘‘जिंदगी की राहों में तुम्हारी हमसफर बन कर मुझे बहुत खुशी होगी, कपिल.’’

इन शब्दों में उस की ‘हां’ सुन कर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

फिर हमारे बीच यह फैसला हुआ कि 3 दिन बाद शिखा के जन्मदिन के अवसर पर हम शादी करने के अपने फैसले से सब दोस्तों, रिश्तेदारों व परिवार के सदस्यों को अवगत करा कर सरप्राइज देंगे.

अगली रात 9 बजे के करीब बिना सूचना दिए समीर, अंजलि, मनीष और नेहा मुझ से मिलने मेरे फ्लैट पर आए.

मेरी तरफ नीले कवर वाली एक फाइल बढ़ाते हुए मनीष बहुत गंभीर लहजे में बोला, ‘‘कपिल, इस फाइल को पढ़ो.’’

पढ़ कर मुझे मालूम पड़ा कि वह शिखा की मैडिकल फाइल थी. उस ने करीब 10 महीने पहले नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या करने की कोशिश करी थी.

‘‘इस फोटो में शिखा के साथ उस का प्रेमी राजीव खड़ा था. इसी के हाथों प्यार में धोखा खा कर शिखा ने आत्महत्या करने की कोशिश करी थी,’’ अंजलि ने अपने पर्स से निकाल कर एक पोस्टकार्ड साइज का फोटो मेरे हाथ में पकड़ा दिया.

मनीष ने दांत पीसते हुए बताया, ‘‘यह धोखेबाज इंसान एक तरफ तो शिखा से शादी करने का दम भरता था और दूसरी तरफ शिमला में अपनी पुरानी प्रेमिका के साथ होटल में गुलछर्रे उड़ा रहा था. यह खबर शिखा को अपनी जानपहचान की लड़की से मिली तो उसे इतना गहरा सदमा पहुंची कि उस ने आत्महत्या करने की कोशिश करी.’’

‘‘तुम मेरी इस टेढ़ी उंगली को देखो. मुझे राजीव एक बार किसी पार्टी में मिला था. मैं ने गुस्से से पागल हो कर उस के ऊपर इतने घूंसे बरसाए कि मेरी इस उंगली में फ्रैक्चर हो गया. नेहा ने रोक लिया नहीं तो मैं उसे उस दिन जान से ही मार देता.’’

समीर ने गुस्से से लाल हो रहे मनीष को शांत करने के बाद मुझ से कहा, ‘‘शिखा के अंदर वैसा दूसरा सदमा सहने की ताकत नहीं है, कपिल. अगर तुम्हें लगता है कि तुम उस के प्रति जिंदगीभर वफादार नहीं रह पाओगे तो कल उस के जन्मदिन की पार्टी में मत आना. उसे दुख तो बहुत होगा पर हम उसे संभाल लेंगे.’’

अंजलि ने मुझ से भावुक लहजे में प्रार्थना करी, ‘‘फैसला सोचसमझ कर

करना, कपिल. अगर शिखा के हित के खिलाफ जाने वाला कोई रिश्ता आज भी तुम्हारी जिंदगी में बना हुआ है तो उसे आज रात जड़ से नष्ट कर देना. हमेशा उस के प्रति वफादार रहने का प्रण कर ही कल की पार्टी में आना, प्लीज.’’

इस के बाद सभी बारीबारी से मुझे गले लगा कर चले गए. मैं रातभर ठीक से नहीं सो सका. अगले दिन औफिस भी नहीं जा सका. सारा दिन गहन सोचविचार करने के बावजूद किसी फैसले पर पहुंचना संभव नहीं हुआ.

मैं शिखा से शादी करना चाहता हूं पर अपने मन की कमजोरी का भी मुझे एहसास है. किसी एक स्त्री का हो कर रहना मेरी फितरत में नहीं है.

मुझे फैसला सोचसमझ कर ही करना था, क्योंकि मैं ने अब तक जिन लड़कियों के साथ प्यार का खेल खेला था, उन सब के ऐसे खतरनाक शुभचिंतक दोस्त नहीं थे.

फिर धीरेधीरे जबरदस्त टैंशन का शिकार बने मेरे मन में यह बात जड़ें जमाने लगीं कि मैं न शिखा के लायक हूं और न ही उस के शुभचिंतकों की दोस्ती या दुश्मनी के.

ऐसा सोच कर मैं ने शिखा की जिंदगी से निकलने का कठिन और दिल दुखाने वाला फैसला आखिरकार कर ही लिया.

मैं जूते खोल कर वापस पलंग पर लेट गया. मेरे बहुत रोकने के बावजूद आंखों में बारबार आंसू भर आते थे.

8 बजे के करीब मेरे मोबाइल फोन की घंटी बजने लगी तो मैं ने फोन को स्विच्ड औफ कर दिया.

फिर 9 बजे के करीब बाहर से किसी ने घंटी बजाई तो मैं चौंक कर उठ बैठा. दरवाजा खोला तो सामने शिखा को देख मेरा दिल बैठ गया.

‘‘मुझे विश नहीं करोगे?’’ उस ने सहज भाव से मेरे हाथ अपने हाथों में ले लिए.

‘‘हैप्पी बर्थडे,’’ मैं ने जबरदस्ती मुसकराते हुए उसे शुभकामनाएं दीं.

‘‘ऐसे नहीं, जरा प्यार से विश करो,’’ कह वह मेरे गले लग गई.

‘‘हैप्पी बर्थडे, माई लव,’’ पता नहीं कैसे ये शब्द मेरे मुंह से खुद ही निकल कर मुझे हैरान कर गए.

‘‘मुझे मेरे दोस्तों ने कल रात तुम से हुई मुलाकात के बारे में सब बता दिया है, कपिल,’’ वह सहज भाव से मुसकरा रही थी.

‘‘मैं तुम्हारे लायक नहीं हूं, शिखा. बाद में तुम्हारा दिल तोड़ूं उस से अच्छा यह होगा कि हम अभी अलग…’’

उस ने मेरे मुंह पर हाथ रख कर मुझे खामोश कर कहा, ‘‘अब मैं पहले जितनी कमजोर और भावुक नहीं रही हूं. मुझे भी पहली नजर में तुम से प्यार हो गया था और अब इतनी आसानी से तुम्हें नहीं खोऊंगी… तुम्हें मेरा प्यार जरूर बदल डालेगा.’’

‘‘मुझे डर है कि मैं तुम्हारे इस विश्वास पर खरा नहीं उतर सकूंगा.’’

‘‘मेरे इस विश्वास के कारण को समझ लोगे तो ऐसा नहीं कहोगे. आज मेरी बर्थडे पार्टी में न आ कर तुम ने जिस ईमानदारी का सुबूत दिया है उस का मेरी नजरों में बहुत महत्त्व है. यही ईमानदारी तुम्हारे अंदर भावी बदलाव का बीज बनेगी.’’

‘‘यह कदम तो मैं ने तुम्हारे शुभचिंतकों की धमकी से डर कर उठाया था,’’ मेरे होंठों पर उदास सी मुसकान उभरी.

‘‘वे मुझे बहुत प्यार करते हैं पर तुम्हें धमकाने का उन्हें कोई अधिकार नहीं था. मैं सचमुच तुम से दूर नहीं होना चाहती हूं,’’ कह वह मेरी छाती से आ लगी.

‘‘मैं भी,’’ मैं ने उसे बहुत मजबूती से अपनी बांहों के घेरे में कैद कर लिया.

उस पल मेरे दिलोदिमाग में कोई उलझन या अनिश्चितता बाकी नहीं बची थी. उस की आंखों में लहरा रहे प्यार के सागर को देख कर मुझे विश्वास हो चला था कि भविष्य में कोई रितु मुझे कभी ललचा कर शिखा के प्रति बेवफाई करने को मजबूर नहीं कर सकेगी.  Romantic Story In Hindi

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