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4 टिप्स: मसूर दाल पाउडर से पाएं चेहरे पर निखार

मसूर की दाल खाने के साथ-साथ आपकी स्किन के लिए भी काफी फायदेमंद है. इसमें कई तरह के मिनरल,  विटामिन, एंटीऔक्सीडेंट होते हैं, जो स्किन के लिए मददगार होते हैं. इसके इस्‍तेमाल से आप अपनी स्किन में बदलाव देख सकते हैं. मसूर दाल आपके चेहरे के धब्बे और पिग्मेंटेशन को कम करने में मदद करती है.

ऐसे करें इस्‍तेमाल

  1. अगर आप चेहरे में निखार लाना चाहते हैं तो मसूर की दाल के पेस्‍ट में बेसन, मुल्‍तानी मिट्टी मिलाकर इस्‍तेमाल करें.

2. मसूर की दाल का इस्‍तेमाल एंटी-एजिंग पैक बनाने के लिए किया जा सकता है,  जिसमें पाउडर के साथ सूखे मावों का पाउडर भी मिलाया जाता है. उदाहरण के लिए आप इसमें अखरोट का पाउडर या बेसन मिला सकते हैं. यह स्किन की टैन निकालने में फायदेमंद है.

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3. मसूर की दाल पाउडर में दूध मिलाकर भी इस्‍तेमाल किया जा सकता है. इस पेस्‍ट को हल्‍के हाथों से चहेरे पर लगाएं. यह चहेरे की डेड स्किन, पौल्‍यूशन, एक्‍स्‍ट्रा औयल निकालने में मदद करता है. इसमें मिलाया गया दूध चेहरे को मौइश्‍चराइज करता है.

4. मसूर की दाल के पाउडर में पिसी उड़द की दाल, बादाम का तेल, ग्लिसरीन और गुलाब जल मिलाने से यह एंटी एक्‍ने फेस पैक की तरह काम करती है.

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ध्‍यान रखें ये बातें

– ब्‍लैकहेड्स और व्‍हाइटहेड्स को हटाने में मसूर की दाल बेहद फायदेमंद होती है. लेकिन इसे हफ्ते में एक से ज्‍यादा बार इस्‍तेमाल करने पर यह चेहरे के लिए आवश्‍यक औयल को रोक भी सकती है.

– जिन लोगों की स्किन सेंसिटिव और अधिक ड्राई होती है उन्‍हें इससे बचना चाहिए.

– मसूर की दाल स्किन में कसावट लाती है पर इससे स्किन ड्राई भी होती है, इसलिए इसको अप्‍लाई करने के बाद चेहरे की मौइस्चराइजिंग बेहद महत्वपूर्ण है.

आप चोर हैं, सरकार की नजर में

सरकार से उम्मीद तो यह रहती है कि वह आम लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी को बेवजह कठिन न बनाए लेकिन अगर कायदेकानूनों और नियमों की आड़ में सरकार लोगों को चोर साबित करने पर उतारू हो जाए तो कोई क्या कर लेगा…

सरकार यही रही और प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री भी यही रहे, जो हैं, तो अगले साल आप को मुमकिन है कि इस बात का भी ब्योरा देना पड़े कि सुबह नाश्ते से ले कर रात के डिनर तक में आप ने क्या खाया था और उस की कीमत कितनी थी. फिर सरकार तय करेगी कि आप ने कहीं निर्धारित आमदनी से ज्यादा का तो नहीं खाया और अगर खाया पाया गया तो आप को सजा भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए, क्योंकि आप ने बेईमानी की है.

ऐसा करने के पीछे मुकम्मल साजिशें और वजहें हैं जिन में से ताजीताजी यह है कि आइंदा आप को अपने आयकर रिटर्न में अपनी आय के तमाम छोटेबड़े स्रोतों की जानकारी देनी होगी, मसलन-

आप का कोई किराएदार है तो आईटीआर में उस का नाम और किराया देना होगा. यह जानकारी आप इसलिए नहीं छिपा सकते क्योंकि किराएदार पहले ही उस का टीडीएस काट चुका होगा. यह नियम एक लाख रुपए सालाना तक के किराए पर लागू होगा.

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इस पर भी तुर्रा यह, कि किराएदार के पैनकार्ड का भी इंतजाम मकानमालिक को ही करना होगा.

अपनी कृषिआय की जानकारी पूरे विस्तार से देनी होगी. आप को आईटीआर में यह दर्ज करना ही होगा कि आप के पास कितनी जमीन है और उस में से कितनी सिंचित व कितनी असिंचित है. इस बाबत आप को खसरे की प्रति नत्थी करनी पड़ेगी.

दूसरे स्रोतों से आमदनी का ब्योरा देने के लिए भी आप बाध्य होंगे जिसे 2 वर्गों कैजुअल व नौनकैजुअल में बांटा गया है. गेमिंग व लौटरी से अर्जित आय केजुअल और ब्याज व कमीशन से हुई आय को नौनकैजुअल मद में रखा गया है.

यानी आप चोर हैं

नए फरमान के पीछे छिपी सरकारी मंशा यह है कि लोग अपनी आय छिपाएं नहीं और सही जानकारी दे कर टैक्स भरें. यानी अभी तक आप आय छिपा कर टैक्स बचा रहे थे. जाहिर है कि सरकार की नजर में आप चोर हैं. इस कथित चोरी को रोकने के लिए अब आप को नए तरीके से परेशान किया जाएगा. आईटीआर फौर्म और लंबाचौड़ा हो जाएगा. इस से ज्यादा सिरदर्दी की बात यह है कि आयकर विभाग को कभी भी आप को परेशान करने की छूट दे दी गई है.

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जैसा इस सरकार का धर्म मानता है कि आप पापी हैं और जब तक पंडों को दान न करें, आप को पापों से मुक्ति नहीं मिलेगी. वैसे ही देश चलाने वाले पंडेनुमा शासक मानते हैं कि आप आय छिपाते हैं क्योंकि आप उसे टैक्स नहीं देना चाहते जो कालाधन हो जाता है. दलील यह दी जा रही है कि उच्च और मध्यवर्ग कृषिआय की आड़ में यह चोरी कर रहा है और किराएदारी के अलावा आमदनी के दूसरे स्रोतों की जानकारी नहीं दे रहा.

जाहिर सी बात है कि दरअसल, सरकार नियमों और नए कानूनों की आड़ ले कर आप के और आप की वित्तीय स्थिति के बारे में सबकुछ जान लेना चाह रही है. इस के पीछे देश के विकास की उस की यह दलील उतनी ही खोखली है जितनी यह कि आप मंदिर में अपनी मरजी से दानदक्षिणा नहीं देते, बल्कि उसे तरहतरह के डर दिखा कर वसूला जाता है. जो लोग मरजी से यथोचित दक्षिणा चढ़ाते हैं वे चोर नहीं हैं, बल्कि सज्जन और धार्मिक हैं.

एक के बाद एक प्रहार

हकीकत तो यह है कि मौजूदा सरकार 5 साल लोगों की हर गतिविधि को जानने में लगी रही क्योंकि वह न केवल पूर्वाग्रही व कुंठित है बल्कि खुद को असुरक्षित भी महसूस करती रही है. सरकार की साफ मंशा आम लोगों को गुलाम बनाने की रही है. नोटबंदी कैसे एक बेतुका और तानाशाहीभरा कदम था, इस पर खूब चर्चा हो चुकी है, लेकिन एक झटके में सरकार को पता चल गया था कि किस के पास कितना पैसा है.

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भ्रष्टाचार, कालाधन, आतंकवाद खत्म करने जैसे मकसद तो नोटबंदी से पूरे नहीं हो पाए, क्योंकि सरकार की यह मंशा ही नहीं थी. सरकार की मंशा थी लोगों की वित्तीय स्थिति जानने की, जो उस ने जान ली. इस से हुआ यह कि लोग अब तक सदमे में हैं और बचत नहीं कर पा रहे हैं और न ही जमीनजायदाद बना पा रहे हैं. लोग मारे डर के बचत के पैसे से सोना भी नहीं खरीद पा रहे कि क्या पता कब सरकार कोई नया नियमकानून ला कर नया बखेड़ा खड़ा कर दे.

नोटबंदी के हादसे के बाद आया जीएसटी नाम का कानून. इस ने व्यापारियों की चूलें हिला कर रख दीं. लाखों लोग बेरोजगार हो गए. छोटे व्यापारी देखते ही देखते कंगाल हो कर सड़कों पर आ गए और डरने लगे. सरकार यही चाहती थी. पैसा केवल श्रेष्ठ लोगों के हाथों में होना चाहिए जो राजा के दरबार में नियमित हाजिरी लगाएं. हर किस्म की अनुमति के बिना कुछ करने वाला राष्ट्रद्रोही ही है.

लोकतंत्र में किसी भी चुनी गई सरकार से अपेक्षा यह की जाती है कि वह रोजागार के मौके बढ़ाए, व्यापार, व्यवसाय और खेतीकिसानी को बढ़ावा दे, जिस से लोगों का जीवनस्तर सुधरे और वे खुशहाल रहते हुए देश के विकास में भागीदार बनें. लेकिन मोदी सरकार ने हर काम उलटा किया, जो लोगों की निजता का हनन करता हुआ था. 5 साल सरकार लोगों की पीठ पर वित्तीय कोड़ा बरसाती रही और लोग कराहते, सोचते रहे कि आखिर उन का कुसूर क्या है, क्या सिर्फ इतना कि वे दुनिया के सब से बड़े लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं?

बेनामी जायदाद के नए लंबित कानून की तलवार लोगों के सिर पर लटक रही है जिस में सरकार ने यह मान लिया है कि हर वह जायदाद नाजायज है जिस की जानकारी उसे नहीं दी जाती. यह पूछने और सोचने वाला कोई नहीं कि लोग सरकार को यह जानकारी क्यों दें. और अब तो सोने पर भी सीलिंग कर दी गई है. आप को सरकार को बताना जरूरी है कि आप के पास कितना सोना है और वह आया कहां से है.

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सरकार ने कदमकदम पर कैसे निजता और आमदनी पर पहरे बैठाए और आम लोगों को आतंकित करने का काम किया, इसे आधारकार्ड की अनिवार्यता से भी सहज समझा जा सकता है, जिस पर खासा बवंडर मचा था और सुप्रीम कोर्ट को कई मामलों की सुनवाई करने के बाद यह आदेश देना पड़ा था कि आधारकार्ड की हर जगह अनिवार्यता गैरजरूरी है.

5 साल का दर्द

जिस तरह आज आईटीआर में नएनए प्रावधान किए जा रहे हैं ठीक उसी तरह सरकार ने हर जगह आधारकार्ड अनिवार्य कर दिया था जिस से आम लोगों की हर गतिविधि व जानकारी उस के पास रहे. यह सीधेसीधे निजता पर हमला था जिस पर 25 सितंबर, 2018 को एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि बैंकखाते और मोबाइल नंबर को आधार से जोड़ना जरूरी नहीं है. स्कूल, कालेजों में दाखिले के लिए भी सुप्रीम कोर्ट ने आधारकार्ड को गैरजरूरी बताया था.

इस के अलावा अहम बात सब से बड़ी अदालत ने यह कही थी कि सरकारी योजनाओं के लाभ के लिए आधार अनिवार्य नहीं होगा. यह ठीक है कि सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की मंशा पर पानी फेर दिया था लेकिन तब तक डरेसहमे आधे से भी ज्यादा लोग हर जगह आधारकार्ड लिंक करा चुके थे.

याद करना जरूरी और प्रासंगिक है कि सुप्रीम कोर्ट में आधारकार्ड पर 27 याचिकाएं दायर हुई थीं और अदालत ने रिकौर्ड 38 दिनों तक इस पर सुनवाई करते अपना फैसला सुनाया था जो लोगों को आंशिक राहत देता हुआ था. इन सभी याचिकाकर्ताओं, जिन में से एक हाईकोर्ट के पूर्व जज के एस पुट्टास्वामी भी थे, का कहना था कि आधार से निजता का पूर्ण उल्लंघन हो रहा है. आधार एक तरह से जनेऊ या झाड़ू की तरह है जो हरेक को जबरन हर समय धारण करना पड़ता है.

नोटबंदी और जीएसटी की दहशत से लोग अभी उबर भी नहीं पाए थे कि सरकार ने हर जगह आधार की अनिवार्यता लाद कर अपने मंसूबे जाहिर कर दिए थे कि वह हर हालत में लोगों के बारे में सबकुछ जान कर रहेगी.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर एक याचिककर्ता ऊषा रामानाथन का यह कहना बेहद अर्थपूर्ण था कि लोगों की व्यक्तिगत जानकारी भविष्य का एक ऐसा संसाधन है जिस के दम पर सरकार आने वाले समय में एक अर्थव्यवस्था तैयार करना चाहती है.

यह सोचा जाना बेमानी नहीं है कि उन का इशारा पौराणिक वर्णव्यवस्था आधारित अर्थव्यवस्था की तरफ हो सकता है जिस में ब्राह्माणों की आमदनी सब से ज्यादा होती थी और शूद्रों की सब से कम होती थी, बल्कि होती ही नहीं थी.

बकौल ऊषा रामानाथन, ऐसा करना सही है या गलत, यह बड़ा सवाल है. मुझे नहीं लगता कि इस फैसले से लोगों के मौलिक अधिकार सुरक्षित हुए हैं. दरअसल, सरकार आधार लिंक को मनी बिल की तरह पारित करना चाहती थी. गौरतलब यह भी है कि 5 जजों की बैंच में से एक जस्टिस वाई वी चंद्रचूड़ ने तो आधार नंबर को पूरी तरह असंवैधानिक करार दे दिया था.

गैरजरूरी सिरदर्दी

नोटबंदी की मानसिक यंत्रणा शायद ही आम लोग कभी भूल पाएंगे. व्यापारी तो अब रोजरोज जीएसटी को झींकते रहते हैं. लेकिन सरकार ने अपनी कोशिशें नहीं छोड़ी हैं. वह लोगों के बारे में जानने की हर मुमकिन कोशिश करती रही

है. चुनाव की सुगबुगाहट के चलते ये कोशिशें धीमी जरूर हुईं लेकिन आईटीआर का नया मामला बताता है कि सरकार ने अपनी कोशिशें पूरी तरह बंद नहीं की हैं.

आईटीआर के नए प्रावधानों से

होगा यह कि लोगों को गैरजरूरी सिरदर्दी से जूझना पड़ेगा. जिन के पास जमीनजायदाद हैं उन्हें पूरा ब्योरा देना पड़ेगा. इस पर भी डर यह बना रहेगा कि आयकर विभाग कभी भी उन की गरदन दबोच सकता है.

उदाहरण जमीन का लें, जिन के पास एक एकड़ जमीन है उन्हें बताना होगा कि उस से अगर एक लाख रुपए की आमदनी हुई तो कैसे हुई. आयकर विभाग पूछेगा कि आप ने ऐसी कौन सी कैश क्रौप बोई थी जो एक लाख रुपए की बिकी. अगर बिकी तो उस के सुबूत रसीद वगैरह भी लाइए.

एक एकड़ जमीन से आमदनी का आयकर विभाग का पैमाना वही होगा जो सरकार का है कि इस से तो 20-30 हजार रुपए ही कमाए जा सकते हैं क्योंकि सरकार उतना ही हर्जाना या मुआवजा देती है. दूसरे, अगर लोग जमीन को परती रखते हैं या पैदावार मर जाती है तो आयकर विभाग लोगों की एक नहीं सुनने वाला. उस की नजर में तो कृषियोग्य भूमि का मतलब ही यह होगा कि इतने हजार रुपए की फसल उस में हुई.

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यही बात किराएदारी पर लागू होती है. यह जरूरी नहीं कि कोई भी मकान सालभर किराए पर उठा रहे. अब आप लाख रोतेझींकते रहिए कि हुजूर, किराएदार तो 10 महीने ही टिका था. 2 महीने तो मकान खाली पड़ा रहा था. यानी अब मकानमालिक को किराएदार के सामने गिड़गिड़ाना पड़ेगा कि भैया, एक एनओसी तू भी देता जा कि जनवरी से अक्तूबर तक ही रहा था.

यह एक बेतुकी बात नहीं तो और क्या है कि लोग किराएदार को दामाद की तरह रखने को मजबूर हो जाएंगे. वह अगर किराया खा कर भाग भी जाए तो आयकर विभाग एक नहीं सुनेगा. कागजी और कानूनी खानापूर्तियां और बढ़ेंगी जिस का खमियाजा मकानमालिक और किराएदार दोनों को ही भुगतना पड़ेगा.

सरकार, दरअसल, जानबूझ कर लोगों की रोजमर्राई जिंदगी मुश्किल कर रही है. वह चाहती है कि लोग लिखापढ़ी में उलझे रहें और सरकारी विभागों से आतंकित रहें. आयकर विभाग से तो लोग वैसे ही खौफ खाते हैं जो कभी भी किसी के यहां छापा मार सकता है. इन छापों में कुछ न भी निकले तो उस का कुछ नहीं बिगड़ता. क्योंकि यह तो अदालत में साबित होता है कि छापे में पकड़ाई रकम व जायदाद वाकई नाजायज और गैरकानूनी थी भी या नहीं.

होना यह चाहिए

यह सोचना गलत है कि सभी लोग टैक्सचोर होते हैं. हकीकत में सरकार नएनए और ज्यादा टैक्स जुटाने के चक्कर में लोगों को डराधमका कर पैसे वसूलती है. टैक्स कितना हो, इस पर बहस की तमाम गुंजाइशें हैं. वह इतना नहीं होना चाहिए कि लोग बचत ही न कर पाएं जो कि उन का हक है.

टैक्स स्लैब ऐसा होना कोई मुश्किल काम नहीं है कि लोग स्वेच्छा से यथोचित टैक्स दें. लोग मंदिर में पैसा चढ़ाते हैं. वहां कोई जोरजबरदस्ती आमतौर पर नहीं होती. इसलिए मंदिर खूब फलफूल भी रहे हैं. पंडेपुजारी अगर जोरजबरदस्ती करते हैं तो लोग श्रद्धाआस्था भूलते हुए उन्हें धकिया भी देते हैं.

नए आईटीआर पर भोपाल की एक प्रोफैसर का कहना है कि उन की सालाना सैलरी 18 लाख रुपए है जिस में से 5 लाख 40 हजार रुपए उन्हें इनकम टैक्स के देने पड़ते हैं यानी उन की वास्तविक सालाना तनख्वाह 12 लाख 60 हजार रुपए ही है. इस में से खरीदे गए 60 लाख रुपए के मकान पर वे 60 हजार रुपए की मासिक बैंककिस्त भरती हैं. ऐसे में उन के पास 5 लाख 40 हजार रुपए ही वास्तविक रूप से बचते हैं.

उन के मकान का किराया सिर्फ

एक लाख 20 हजार रुपए सालाना आता है, यानी कागजों में उन की आमदनी इतनी ही बढ़ जाती है. ऐसे कई मकानमालिकों का दर्द यह है कि कर्ज के ब्याज पर महज ढाई लाख रुपए की छूट है. अब अगर किराए के एकाध लाख रुपए मिल भी जाते हैं तो सरकार उसे भी आमदनी मानते क्यों टैक्स ले रही है? क्या भविष्य या बुरे वक्त के लिए जमीनजायदाद बनाना गुनाह है.

बैंक में एफडी करो तो उस के ब्याज पर भी टैक्स और कहीं निवेश करो तो भी टैक्स. आखिर सरकार चाहती क्या है?

सौ में से एकाध नागरिक ही टैक्स चोरी करता है, लेकिन उस की सजा 99 बेगुनाह और ईमानदार लोगों को भी बेईमान मानते देना कौन सा न्याय है, बात समझ से परे है.

दिक्कत जानकारी देना नहीं है, बल्कि उस का सप्रमाण अनावश्यक ब्योरा देना है. लोगों का जायज डर यह है कि अपनी आमदनी बढ़ाने पर सरकार कभी भी इन जानकारियों के आधार उन्हें टारगेट कर सकती है.

सोचने वाली इकलौती बात यह है कि सरकार लोगों की खासतौर से उन की वित्तीय स्थिति के बारे में जानने को बेचैन क्यों है. तय है इसलिए कि सरकार को जागरूक और खुश लोग नहीं, बल्कि रोते, झींकते, गुलाम लोग चाहिए जो मेहनत कर पैसा कमाएं और उसे टैक्स देते रहें.

नई सुबह

अंधविश्वास की कट्टर विरोधी अमृता पाखंडी गुरुजी की मीठी- मीठी बातों के जाल में ऐसी फंसी कि उस ने संन्यासिन बनने का फैसला कर लिया जबकि दादा उस की दूसरी शादी कर गृहस्थी बसाना चाहते थे.

अ  मृता को नींद नहीं आ रही थी. वह जीवन के इस मोड़ पर आ कर अपने को असहाय महसूस कर रही थी. उस ने कभी नहीं सोचा था कि ऐसे दिन भी आएंगे कि हर पल बस, दुख और तकलीफ के एहसास के अलावा सोचने के लिए और कुछ नहीं बचेगा. एक तरफ उस ने गुरुजी के मोह में आ कर संन्यास लेने का फैसला लिया था और दूसरी ओर दादा, माधवन से शादी करने को कह रहे थे. इसी उधेड़बुन में उलझी अमृता सोच रही थी.

उस के संन्यास लेने के फैसले से सभी चकित थे. बड़ी दीदी तो बहुत नाराज हुईं, ‘यह क्या अमृता, तू और संन्यास. तू तो खुद इन पाखंडी बाबाओं के खिलाफ थी और जब अम्मां के गुरुभाई आ कर धर्म और मूल्यों की बात कर रहे थे तो तू ने कितनी बहस कर के उन्हें चुप करा दिया था. एक बार बाऊजी के साथ तू उन के आश्रम गई थी तो तू ने वहां जगहजगह होने वाले पाखंडों की कैसी धज्जियां उड़ाई थीं कि बाऊजी ने गुस्से में कितने दिन तक बात नहीं की थी और आज तू उन्हीं लोगों के बीच…’

बड़े भाईसाहब, जिन्हें वह दादा बोलती थी, हतप्रभ हो कर बोले थे, ‘माना कि अमृता, तू ने बहुत तकलीफें झेली हैं पर इस का मतलब यह तो नहीं कि तू अपने को गड्ढे में डाल दे.’दादा भी शुरू से इन पाखंडों के बहुत खिलाफ थे. वह मां के लाख कहने के बाद भी कभी आश्रम नहीं गए थे.

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सभी लोग अमृता को बहुत चाहते थे लेकिन उस में एक बड़ा अवगुण था, उस का तेज स्वभाव. वह अपने फैसले खुद लेती थी. यदि और कोई विरोध करता तो वह बदतमीजी करने से भी नहीं चूकती थी. इसलिए जब भी कोई उस से एक बार बहस करता तो जवाब में मिले रूखेपन से दोबारा साहस नहीं करता था.

अब शादी को ही लें. नरेन से शादी करने के उस के फैसले का सभी ने बहुत विरोध किया क्योंकि पूरा परिवार नरेन की गलत आदतों के बारे में जानता था पर अमृता ने किसी की नहीं सुनी. नरेन ने उस से वादा किया था कि शादी के बाद वह सारी बुरी आदतें छोड़ देगा…पर ऐसा बिलकुल नहीं हुआ, बल्कि यह सोच कर कि अमृता ने अपने घर वालों का विरोध कर उस से शादी की है तो अब वह कहां जाएगी, नरेन ने उस पर मनमानी करनी शुरू कर दी थी.

शुरुआत में अमृता झुकी भी पर जब सबकुछ असहनीय हो गया तो फिर उस ने अपने को अलग कर लिया. नरेन के घर वाले भी इस शादी से नाखुश थे, सो उन्होंने नरेन को तलाक के लिए प्रेरित किया और उस की दूसरी शादी भी कर दी.

अब इस से घर के लोगों को कहने का अवसर मिल गया कि उन्होंने तो नरेन के बारे में सही कहा था लेकिन अमृता की हठ के चलते उस की यह दशा हुई है. वह तो अमृता के पक्ष में एक अच्छी बात यह थी कि वह सरकारी नौकरी करती थी इसलिए कम से कम आर्थिक रूप से उसे किसी का मुंह नहीं देखना पड़ता था.

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बाबूजी की मौत के बाद मां अकेली थीं, सो वह अमृता के साथ रहने लगीं. अब अमृता का नौकरी के बाद जो भी समय बचता, वह मां के साथ ही गुजारती थी. मां के पास कोई विशेष काम तो था नहीं इसलिए आश्रम के साथ उन की गतिविधियां बढ़ती जा रही थीं. आएदिन गुरुजी के शिविर लगते थे और उन शिविरों में उन को चमत्कारी बाबा के रूप में पेश किया जाता था. लोग अपनेअपने दुख ले कर आते और गुरु बाबा सब को तसल्ली देते, प्रसाद दे कर समस्याओं को सुलझाने का दावा करते. कुछ लोगों की परेशानियां सहज, स्वाभाविक ढंग से निबट जातीं तो वह दावा करते कि बाबा की कृपा से ऐसा हो गया लेकिन यदि कुछ नहीं हो पाता तो वह कह देते कि सच्ची श्रद्धा के अभाव में भला क्या हो सकता है?

अमृता शुरू से इन चीजों की विरोधी थी. उसे कभी धर्मकर्म, पूजापाठ, साधुसंत और इन की बातें रास नहीं आई थीं पर अब बढ़ती उम्र के साथ उस के विरोध के स्वर थोड़े कमजोर पड़ गए थे. अत: मां की बातें वह निराकार भाव से सुन लेती थी.

मां ने बेटी के इस बदलाव को सकारात्मक ढंग से लिया. उन्होंने सोचा कि शायद अमृता उन के धार्मिक क्रियाकलापों में रुचि लेने लग गई है. उन्होंने एक दिन गुरुजी को घर बुलाया. बड़ी मुश्किल से अमृता गुरुजी से मिलने को तैयार हुई थी. गुरुजी भी अमृता से मिल कर बहुत खुश हुए. उन्हें लगा कि एक सुंदर, पढ़ीलिखी युवती अगर उन के आश्रम से जुड़ जाएगी तो उन का भला ही होगा.

गुरुजी ने अमृता के मनोविचार भांपे और उस के शुरुआती विरोध को दिल से स्वीकारा. उन्होंने स्वीकार किया कि वाकई कुछ मामलों में उन का आश्रम बेहतर नहीं है. अमृता ने जो बातें बताईं वे अब तक किसी ने कहने की हिम्मत नहीं की थी इसलिए वह उस के बहुत आभारी हैं.

अमृता ने गुरुजी से बात तो महज मां का मन रखने को की थी पर गुरुजी का मनोविज्ञान वह भांप न सकी. गुरुजी उस की हर बात का समर्थन करते रहे. अब नारी की हर बात का समर्थन यदि कोई पुरुष करता रहे तो यह तो नारी मन की स्वाभाविक दुर्बलता है कि वह खुश होती है. अमृता बहुत दिन से अपने बारे में नकारात्मक बातें सुनसुन कर परेशान थी. उस ने गुरुजी से यही उम्मीद की थी कि वह उसे सारी दुनिया का ज्ञान दे डालेंगे, लेकिन गुरुजी ने सब्र से काम लिया और उस से सारी स्थिति ही पलट गई.

गुरुजी जब भी मिलते उस की तारीफों के पुल बांधते. अमृता का नारी मन बहुत दिन से अपनी तारीफ सुनने को तरस रहा था. अब जब गुरुजी की ओर से प्रशंसा रूपी धारा बही तो वह अपनेआप को रोक नहीं  पाई और धीरेधीरे उस धारा में बहने लगी. अब वह गुरुजी की बातें सुन कर गुस्सा नहीं होती थी बल्कि उन की बहुत सी बातों का समर्थन करने लगी.

गुरुजी के बहुत आग्रह पर एक दिन वह आश्रम चली गई. आश्रम क्या था, भव्य पांचसितारा होटल को मात करता था. शांत और उदास जिंदगी में अचानक आए इस परिवर्तन ने अमृता को झंझोड़ कर रख दिया. सबकुछ स्वप्निल था. उस का मजबूत व्यक्तित्व गुरुजी की मीठीमीठी बातों में आ कर न जाने कहां बह गया. उन की बातों ने उस के सोचनेसमझने की शक्ति ही जैसे छीन ली.

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जब अमृता की आंखें खुलीं तो वह अपना सर्वस्व गंवा चुकी थी. गुरुजी की बड़ीबड़ी आध्यात्मिक बातें वास्तविकता की चट्टान से टकरा कर चकनाचूर हो गई थीं. वह थोड़ा विचलित भी हुई, लेकिन आखिर उस ने उस परिवेश को अपनी नियति मान लिया.

उसे लगा कि वैसे भी उस का जीवन क्या है. उस ने सारी दुनिया से लड़ाई मोल ले कर नरेन से शादी कर ली पर उसे क्या मिला…एक दिन वह भी उसे छोड़ कर चला गया और दे कर गया अशांति ही अशांति. नरेन के मामले में खुद गलत साबित होने से उस का विश्वास पहले ही हिल चुका था, ऊपर से रिश्तेदारों द्वारा लगातार उस की असफलता का जिक्र करने से वह घबरा गई थी. आज इस आश्रम में आ कर उसे लगा कि वह सभी अप्रिय स्थितियों से परे हो गई है.

दादा भी माधवन से शादी के लिए उस के बहुत पीछे पड़ रहे थे, वह मानती थी कि माधवन एक अच्छा युवक था, लेकिन वह भला किसी के लिए क्या कह सकती थी. नरेन को भी उस ने इतना चाहा था, परंतु क्या मिला?

दूसरी ओर उस की बड़ी बहन व दादा चाहते थे कि जो गलती हो गई सो हो गई. एक बार ऐसा होने से कोई जिंदगी खत्म नहीं हो जाती. वे चाहते थे कि अमृता के लिए कोई अच्छा सा लड़का देख कर उस की दोबारा शादी कर दें, नहीं तो वह जिंदगी भर परेशान रहेगी.

इस के लिए दादा को अधिक मेहनत भी नहीं करनी थी. उन्हीं के आफिस में माधवन अकाउंटेंट के पद पर काम कर रहा था. वह वर्षों से उसे जानते थे. उस के मांबाप जीवित नहीं थे, एक बहन थी जिस की हाल ही में शादी कर के वह निबटा था. हालांकि माधवन उन की जाति का नहीं था लेकिन बहुत ही सुशील नवयुवक था. दादा ने उसे हर परिस्थितियों में हंसते हुए ही देखा था और सब से बड़ी बात तो यह थी कि वह अमृता को बहुत चाहता था.

शुरू से दादा के परिवार के संपर्क में रहने के कारण वह अमृता को बहुत अच्छी तरह जानता था. दादा भी इस बात से खुश थे. लेकिन इस से पहले कि वह कुछ करते अमृता ने नरेन का जिक्र कर घर में तूफान खड़ा कर दिया था.

आज जब अमृता बिलकुल अकेली थी तो खुद संन्यास के भंवर में कूद गई थी. दादा को लगता, काश, माधवन से उस की शादी हो जाती तो आज अमृता कितनी खुश होती.

अमृता का तलाक होने के बाद दादा के दिमाग में विचार आया कि एक बार माधवन से बात कर के देख लेते हैं, हो सकता है बात बन ही जाए.

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वह माधवन को समीप के कैफे में ले गए. बहुत देर तक इधरउधर की बातें करते रहे फिर उन्होंने उसे अमृता के बारे में बताया. कुछ भी नहीं छिपाया.

माधवन बहुत साफ दिल का युवक था. उस ने कहा, ‘दादा, आप को मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूं. आप कितने अच्छे इनसान हैं. मैं भी इस दुनिया में अकेला हूं. एक बहन के अलावा मेरा है ही कौन. आप जैसे परिवार से जुड़ना मेरे लिए गौरव की बात है और जहां तक बात रही अमृता की पिछली जिंदगी की, तो भूल तो किसी से भी हो सकती है.’

माधवन की बातों से दादा का दिल भर आया. सचमुच संबंधों के लिए आपसी विश्वास कितना जरूरी है. दादा ने सोचा, अब अमृता को मनाना मुश्किल काम नहीं है लेकिन उन को क्या पता था कि पीछे क्या चल रहा है.

जैसे ही अमृता के संन्यास लेने की इच्छा का उन्हें पता चला, उन पर मानो आसमान ही गिर पड़ा. वह सारे कामकाज छोड़ कर दौड़ेदौड़े वहां पहुंच गए. वह मां से बहुत नाराज हो कर बोले, ‘मैं यह क्या सुन रहा हूं?’

‘मैं क्या करूं,’ मां बोलीं, ‘खुद गुरु महाराज की मरजी है. और वह गलत कहते भी क्या हैं… बेचारी इस लड़की को मिला भी क्या? जिस आदमी के लिए यह दिनरात खटती रही वह निकम्मा मेरी फूल जैसी बच्ची को धोखा दे कर भाग गया और उस के बाद तुम लोगों ने भी क्या किया?’

दादा गुस्से में लालपीले होते रहे और जब बस नहीं चला तो अपने घर वापस आ गए.

दूसरी ओर अमृता गुरुजी के प्रवचन के बाद जब कमरे की ओर लौट रही थी, तब एक महिला ने उस का रास्ता रोका. वह रुक गई. देखा, उस की मां की बहुत पुरानी सहेली थी.

‘अरे, मंजू मौसी आप,’ अमृता ने पूछा.

‘हां बेटा, मैं तो यहां आती भी नहीं, लेकिन तेरे कारण ही आज मैं यहां आई हूं.’

‘मेरे कारण,’ वह चौंक गई.

‘हां बेटा, तू अपनी जिंदगी खराब मत कर. यह गुरु आज तुझ से मीठीमीठी बातें कर तुझे बेवकूफ बना रहा है पर जब तेरी सुंदरता खत्म हो जाएगी व उम्र ढल जाएगी तो तुझे दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल कर बाहर फेंक देगा. मैं ने तो एक दिन तेरी मां से भी कहा था पर उन की आंखों पर तो भ्रम की पट्टी बंधी है.’

अमृता घबरा कर बोली, ‘यह आप क्या कह रही हैं, मौसी? गुरुजी ने तो मुझे सबकुछ मान लिया है. वह तो कह रहे थे कि हम दोनों मिल कर इस दुनिया को बदल कर रख देंगे.’

मंजू मौसी रोने लगीं. ‘अरे बेटा, दुनिया तो नहीं बदलेगी, बदलोगी केवल तुम. आज तुम, कल और कोई, परसों…’

‘बसबस… पर आप इतने विश्वास के साथ कैसे कह सकती हैं?’ अमृता ने बरदाश्त न होने पर पूछा.

‘इसलिए कि मेरी बेटी कांता को यह सब सहना पड़ा था और फिर उस ने तंग आ कर आत्महत्या कर ली थी.’

अमृता को लगा कि सारी दुनिया घूम रही है. एक मुकाम पर आ कर उस ने यही सोच लिया था कि अब उसे स्थायित्व मिल गया है. अब वह चैन से अपनी बाकी जिंदगी गुजार सकती है, लेकिन आज पता चला कि उस के पांवों तले की जमीन कितनी खोखली है.

उसी शाम दादा का फोन आया. दादा उसे घर बुला रहे थे. अमृता दादा की बात न टाल सकी. वह फौरन दादा के पास चली गई. दादा उसे देख कर बहुत खुश हुए. थोड़ी देर हालचाल पूछने के बाद दादा बोले, ‘ऐसा है, अमृता… यह तुम्हारा जीवन है और इस बात को मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि अगर तुम संन्यास लेना चाहोगी तो तुम्हें कोई रोक नहीं सकता. आज गुरुजी तुम्हें इस आश्रम से जोड़ रहे हैं तो इसलिए कि तुम सुंदर और पढ़ीलिखी हो. लेकिन इन के व्यवहार, चरित्र की क्या गारंटी है. कल को जिंदगी क्या मोड़ लेती है तुम्हें क्या पता. अगर कल से गुरु का तुम्हारे प्रति व्यवहार का स्तर गिर जाता है तो फिर तुम क्या करोगी? जिंदगी में तुम्हारे पास लौटने का क्या विकल्प रहेगा? अमृता, मेरी बहन, ऐसा न हो कि जीवन ऐसी जगह जा कर खड़ा हो जाए कि तुम्हारे पास लौटने का कोई रास्ता ही न बचे. सबकुछ बरबाद होने के बाद तुम चाह के भी लौट न पाओ.’

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दादा की बात सुन कर अमृता की आंखें भर आईं.

‘और हां, जहां तक बात है तुम्हारी पुरानी जिंदगी की, तो उसे एक हादसा मान कर तुम नए जीवन की शुरुआत कर सकती हो. इस जीवन में सभी तो नरेन की तरह नहीं होते…और हम खुद भी अपनी जिंदगी से सबक ले कर आगे के लिए अपनी सोच को विकसित कर सकते हैं. माधवन तुम्हें बहुत पसंद करता है. मैं ने तुम्हारे बारे में उसे सबकुछ साफसाफ बता रखा है. उसे किसी तरह की कोई परेशानी नहीं है.’

अमृता उस रात एक पल भी नहीं सो पाई थी. मंजू मौसी व दादा की बातों ने उस के मन में हलचल मचा दी थी. एक ओर गुरुजी का फैला हुआ मनमोहक जाल था जिस की असलियत इतनी भयावह थी तो दूसरी ओर माधवन था, जिस के साथ वह नई जिंदगी शुरू कर सकती थी. वह दादा के साथ 3 साल से काम कर रहा था, दादा का सबकुछ देखा हुआ था. और सही भी है, आज नरेन ऐसा निकल गया, इस का मतलब यह तो नहीं कि सारी दुनिया के मर्द ही ऐसे होते हैं.

सही बात तो यह है कि जब वह किसी जोड़े को हंस कर बात करते देखती है तो उस के दिल में कसक पैदा हो जाती है.

फिर गुरुजी का भी क्या भरोसा… उस के मन ने उस से सवाल पूछा, आज वह उस की बातों का अंधसमर्थन क्यों करते हैं? क्या उस की सुंदरता व अकेली औरत होना तो इन बातों का कारण नहीं है? वाकई, सुंदर शरीर के अलावा उस में क्या है…जिस दिन उस की सुंदरता नहीं रही…फिर…क्या वह कांता की तरह आत्महत्या…

यह विचार आते ही अमृता पसीनापसीना हो उठी. सचमुच अभी वह क्या करने जा रही थी. अगर वह यह कदम उठा लेती तो फिर चाहे कितनी ही दुर्गति होती, क्या इस जीवन में कभी वापस आ सकती थी? उस ने निर्णय लिया कि वह अब केवल दादा की ही बात मानेगी. उसे अब इस आश्रम में नहीं रहना है. वह बस, सुबह का इंतजार करने लगी, कब सुबह हो और वह यहां से बाहर निकले.

धीरेधीरे सुबह हुई. चिडि़यों की चहचहाहट सुन कर उस की सोच को विराम लगा और वह वर्तमान में आ गई. सूरज की किरणें उजाला बन उस के जीवन में प्रवेश कर रही थीं. उस ने दादा को फोन लगाया.

‘‘दादा, मैं ने आप की बात मानने का फैसला किया है.’’

दादा खुशी से झूम कर बोले, ‘‘अमृता…मेरी बहन, मुझे विश्वास था कि तुम मेरी बात ही मानोगी. मैं तो तुम्हारे जवाब का ही इंतजार कर रहा था. मैं उस से बात करवाता हूं.’’

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दादा की बात सुन कर अमृता का हृदय जोरों से धड़क उठा.

थोड़ी देर बाद…

‘‘हैलो, अमृता, मैं माधवन बोल रहा हूं. तुम्हारे इस निर्णय से हमसब बहुत खुश हैं. मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि तुम मेरे साथ बहुत खुश रहोगी. मैं तुम्हारा बहुत ध्यान रखूंगा, कम से कम इतना तो जरूर कि तुम कभी संन्यास लेने की नहीं सोचोगी.’’

अमृता, माधवन की बातों से शरमा गई. वह केवल इतना ही बोल सकी, ‘‘नहीं, ऐसा मैं कभी नहीं सोचूंगी,’’ और फिर धीरे से फोन रख दिया.

इस के बाद अमृता आश्रम से निकल कर ऐसे भागी जैसे उस के पीछे ज्वालामुखी का लावा हो…

फैशन नहीं हेल्थ की दुश्मन है ये 5 चीजें…

आज के मौर्डन दौर में फैशन लोगों पर काफी हावी हो चुका है इसी के चलते आए दिन नई-नई तकनीक भी सामने आती रहती जिससे आप अपनी खूबसूरती को और बढ़ा सकते है. लेकिन क्या आप जानते है की  हर दिन फैशनेबल बने रहने की कोशिश स्वास्थ्य के लिए कितनी हानिकारक हो सकती है. नहीं ना तो आइए हम आपको बताते हैं कि आपको किन—किन फैशनेबल चीजों से सावधानी बरतने की आवश्यकता है.

1.पुश अप ब्रा हैं कैंसर का खतरा

आजकल के फैशनेबल चीजों में से एक पुश-अप ब्रा भी है. फिट एंड सेक्सी दिखने के लिए कई महिलाएं पुश-अप ब्रा का इस्तेमाल करती हैं, जबकि यह स्वास्थ्य के लिए नुकसादायक है. पुश-अप ब्रा से भले ही ब्रेस्ट को सही आकार और ऊंचाई देती हों, लेकिन ब्रेस्ट पर बुरा असर डालती है. पुशगअप ब्रा आपकी ब्लड वेसल्स को नुकसान पहुंचाती है और ब्रेस्ट पर इसके निरंतर दबाव से कैंसर का खतरा भी हो सकता है.

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2.टाइट जींस से रहे दूर

टाइट जींस आज सबसे ज्यदा ट्रेंड में है. आजकल 100 में से 70 प्रतिशत लड़कियां टाइट जींस पहनना पसंद करती हैं. जिसके लिए कई लड़कियां और महिलाएं अपने फिगर को बनाए रखने की कोशिश भी करती हैं. टाइट जींस आपके लेग मसल्स पर दवाब बढाती है, जिससे शरीर में ब्लड सर्कुलेशन बाधित होता  है, जो वैरिकाज नसों और सेल्युलाईट की ओर जाता है.

3.हैंडबैग से हो सकता है कंधे और रीढ़ में दर्द

बड़े हैंडबैग को लम्बे समय तक एक ही बाजू पर लटकाए रखना भी आपके लिए हानिकारक हो सकता है. महिलाओं में हैंडबैग को कैरी करना आम बात है. वह उसमें अपने मेकअप का सामान यानि मेकअप किट और लैपटाफप भी रखत हैं. हैंडबैग है तो सुविधाजनक, लेकिन इस तरह से इसका इस्तेमाल हमारे स्वास्थ्य के लिए घातक हो सकता है. लगातार एक कंधे पर बैग या हैंडबैग रखने से, कंधे और रीढ़ पर खिंचाव आता है. जिससे स्कोलियोसिस और ओस्टियोचोन्ड्रोसिस हो सकता है, साथ ही मांसपेशियों में ऐंठन, रक्त वाहिकाओं का अवरूद्ध और नसों से संबंधित समस्याएं हो सकती हैं.

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4.हाई हील से हो सकता है हर्निया

महिलाओं को हाई हील पहनना बेहद पसंद होता है. कुछ महिलाएं अपने छोटे कद-काठी की वजह से ऊंची एड़ी के जूते या हाई हील सेंडल रोजाना पहनना पसंद करती हैं. इससे आपका कद सही तो दिखता है. लेकिन इसका मतलब यह नही कि आप रोजाना हाई हील को यूज करें. इससे आपके पैरों में दर्द, पीठ में दर्द और सूजन हो सकती है. इसके अलावा, ऊंची एड़ी के जूते या हाई हील पहनने से अक्सर हर्निया और रीढ़ की समस्या हो सकती है.

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5.अंडरगारमेंट़स करे सही चुनाव

यह महिला के कपड़ों का आवश्यक हिस्सा है. इसके बिना जीना असहजता से भरा लगता है. लेकिन दुर्भाग्यवश, आपके अंडरगारमेंट़स भी आपके लिए हानिकारक हो सकते हैं. सिंथैटिक अंडवियर नमी उत्पन्न करती है और ग्रीन हाउस प्रभाव पैदा करती है. इससे विभिन्न वेजाइना यानि योनि संक्रमण की समसयाएं उत्पन्न होती हैं. इसके अलावा यह ब्लड सर्कुलेशन पर भी नकारात्मक प्रभाव डालती है, जो वैरिकाज नसों और सेल्युलाईट का कारण बन सकती है. वैजाइना को स्‍वस्‍थ रखने के लिए अंडरगारमेंट़स का चुनाव सही ढ़ग से करें.

दलितों के भरोसे दिग्विजय

जैसे ही मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को कांग्रेस ने भोपाल से उम्मीदवार बनाया तो भगवा खेमे में हड़कंप मच गया. जब कोई बड़ा नेता उन के मुकाबले मैदान में उतरने को तैयार नहीं हुआ तो आरएसएस की तरफ से मालेगांव बम ब्लास्ट की आरोपी साध्वी प्रज्ञा भारती को अवतरित कर दिया गया. प्रज्ञा कुछ भी अनापशनाप बोलने के लिए कुख्यात हैं और उन का पहला बयान ही बड़ा बकवास भरा था कि आईपीएस अधिकारी शहीद हेमंत करकरे उन के श्राप के चलते आतंकियों की गोलियों का शिकार हुए थे.

ऐसे बयानों से वोटों का ध्रुवीकरण तो भगवा खेमे ने कर लिया लेकिन इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि पिछड़े हिंदू और दलित क्यों हिंदुत्व के नाम पर उसे वोट देगा जिन्हें साधने के लिए दिग्विजय सिंह ने पहले ही इंतजाम कर लिए थे. हिंदूमुसलिम वोटर तो बंट चुके हैं, ऐसे में दलित वोटर तय करेंगे कि असली आतंकवादी कौन है प्रज्ञा भारती या फिर दिग्विजय सिंह.

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बदलते रिश्ते

बात साल 2004 की है, धाकड़ नेता बलराम जाखड़ को कांग्रेस ने राजस्थान की चुरू सीट से उम्मीदवार बनाया था. तब भाजपा उन के मुकाबले अभिनेता धर्मेंद्र को उतारना चाहती थी.  लेकिन धर्मेंद्र ने यह कहते चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया था कि बलराम जाखड़ उन के बड़े भाई हैं, इसलिए वे उन के खिलाफ नहीं लड़ेंगे. तब हर किसी ने धर्मेंद्र के इस फैसले का स्वागत किया था क्योंकि बलराम जाखड़ और धर्मेंद्र के उजागर रिश्ते वाकई में पारिवारिक व अंतरंग थे.

अब बात 2019 की है, गुरदासपुर सीट से धर्मेंद्र के अभिनेता बेटे सन्नी देओल भाजपा से बलराम जाखड़ के बेटे सुनील जाखड़ के सामने हैं जिन्होंने यह सीट अप्रैल 2017 के उपचुनाव में रिकौर्ड एक लाख 93 हजार वोटों से जीत कर अपनी अहमियत जता दी थी. इस सीट से भाजपा की तरफ से अभिनेता विनोद खन्ना 4 बार जीते लेकिन भाजपा ने उन के बेटे अक्षय खन्ना को टिकट नहीं दिया क्योंकि उन की जीत संदिग्ध थी. सन्नी और सुनील के दिलचस्प और कड़े मुकाबले में कोई भी जीते, लेकिन पुराने रिश्ते और दोस्ती दोनों ही हार चुके हैं.

काहे के क्रुसेडर

गोद लिए बेटे से कभी सगे वाले जैसी फीलिंग नहीं आती और दलित चाहे कितना भी शिक्षित और बुद्धिजीवी हो, सवर्णों की डिक्शनरी में रहता तो दलित ही है. यह सनातनी सत्य जब तक दिल्ली के भाजपा सांसद डाक्टर उदित राज को समझ आया तब तक भाजपा उन्हें गोद से उतार फेंक चुकी थी. वह दूसरे दलित पुत्र, पेशे से गायक, हंसराज हंस को सीने से चिपटा चुकी थी जो पहले ही अकाली दल और कांग्रेस की गोद हरी कर चुके थे. भाजपा से उन्हें क्यों निकलना पड़ा, इस की वजहें गिना रहे तिलमिलाए उदित राज शायद ही इस बात का जवाब दे पाएं कि अगर उन्हें टिकट मिल जाता तो क्या उन वजहों की भ्रूणहत्या नहीं हो जाती.

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15 साल पहले हिंदू धर्म की वर्णव्यवस्था से घबराए इस दलित नेता ने बौद्ध धर्म अपना लिया था, लेकिन 2014 के चुनाव में वे मय अपनी जस्टिस पार्टी के भगवा गोद में क्यों जा बैठे थे, इस सवाल का जवाब शायद ही वे दें. अब समानता और समरसता की हकीकत को झींक रहे उदित राज भले ही नई गोद में जा बैठे हों लेकिन वहां भी उन्हें न्याय नहीं मिलने वाला.

ऐश्वर्या विवादित मीम: विवेक ओबरौय को मांगनी पड़ी माफी

बौलीवुड एक्टर विवेक ओबरौय ने सोमवार को अपने ट्विटर अकाउंट पर एक मीम शेयर किया था, जिसमें ऐश्वर्या राय बच्चन,  सलमान खान, विवेक और अभिषेक बच्चन के साथ नजर आ रही हैं. इस पोस्ट पर ऐश्वर्या राय को टारगेट करते हुए पोल्स के नतीजों का मजाक बनाया गया था.

इस पोस्ट के बाद से विवेक ओेबेरौय को सोशल मीडिया पर लगातार ट्रोल किया जा रहा है. यही नहीं, विवेक के पोस्ट करने के कुछ देर बाद ही महाराष्ट्र महिला आयोग ने एक्टर के नाम नोटिस जारी कर दिया था.इसके बाद विवेक ओबरौय ने अपना बयान देते हुए कहा कि पता नहीं लोग इस बात को क्यों इतना तूल दे रहे हैं जबकि जो लोग उस पोस्ट में हैं, उन्हें कोई दिक्कत नहीं है.

इसके बाद  विवेक ने मंगलवार को अपने ट्विटर अकाउंट से उस ट्वीट को डिलीट करते हुए माफी मांगी हैं. उन्होंने ट्वीट करते हुए कहा कि कभी-कभी जो पहली नजर में मजाकिया प्रतीत होता है, वह दूसरों के लिए ऐसा नहीं हो सकता है. मैंने पिछले 10 वर्षों में 2000 से अधिक वंचित लड़कियों को सशक्त बनाने में खर्च किया है, मैं कभी भी किसी भी महिला के प्रति अपमानजनक नहीं सोच सकता. आपको बता दें, विवेक ओबरौय आगामी फिल्म ‘पीएम नरेन्द्र मोदी’ में नजर आने वाले हैं.

आखिर क्यूं होती है दूध से एलर्जी, जाने यहां…

आमतौर पर बच्चों को दूध पीना पसंद नहीं होता या फिर कई बच्चों को दूध से एलर्जी होती है लेकिन क्‍या आप जानते हैं कि आखिर दूध से कई लोगों या बच्चों को एलर्जी क्‍यूं होती है? अगर नहीं, तो हम आपको बताते हैं

दूध क्यूं नहीं आता पसंद

दूध में मौजूद कुछ प्रोटीन्स के कारण कई लोगों को एलर्जी हो सकती है. गाय का दूध, दूध से होने वाली एलर्जी का मुख्य कारण होता है. इसके अलावा भैंस, बकरी व अन्‍स स्‍तनधारियों के दूध से भी एलर्जी हो सकती है. गाय के दूध में अल्‍फा एस1 कैसिइन प्रोटीन सबसे अधिक होता है, जो मुख्‍यत: दूध की एलर्जी का कारण होता है.

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दूध की एलर्जी

दूध और दूध से बने उत्‍पादों में पाये जाने वाले कुछ प्रोटीन के कारण भी दूध से एलर्जी होती है. प्रोटीन को बेअसर करने के लिए इम्‍युनोग्‍लोबुलिन ई नामक एंटीबौडी का उत्‍पादन जोखिम का कारण बनता है. हर बार जब आप प्रोटीन के संपर्क में आते हैं, तो एंटीबौडी उन्हें पहचानती हैं और हिस्टामाइन और अन्य रसायनों को छोड़ने के लिए आपकी इम्यून सिस्टम को संकेत देती हैं. जिसके चलते एलर्जी होती है.

वयस्कों की तुलना में बच्चों में दूध की एलर्जी अधिक आम है क्योंकि बच्चों का डाइजेस्टिव सिस्टम कमजोर होता है. यह लैक्‍टेज एंजाइम की कमी से होता है. दूध का लैक्‍टोज जब छोटी आंत में पहुंचता है, तो वहां से लैक्‍टेज एंजाइम से ग्लूकोस और गैलेक्‍टोज टूट जाता है. जिससे दूध आसानी से पच नहीं पाता.

लैक्‍टोज दूध व दूध से बने उत्‍पादों में पाया जाने वाला प्राकृतिक शुगर है. जब किसी को दूध हजम नहीं हो पाता है तो उसे लैक्टोज इंटौलरेंस की समस्‍या होती है. इससे एलर्जी की समस्‍या के साथ-साथ पाचन संबंधी समस्‍याएं भी होती हैं.

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बच्‍चों को दूध से एलर्जी

जिन बच्चों या लोगों को दूध से एलर्जी होती है, उन्‍हें वह जल्‍दी महसूस नहीं होता है. आमतौर पर दूध की एलर्जी वाले लोगों में इसके लक्षण कई घंटे या फिर कई दिनों बाद देखने को मिलते हैं.

चलिए जानते है  इसके 6 लक्षण

1 यूरीन का रंग गहरा पड़ने लगता है, जिसमें कई बार रक्त या बलगम हो सकता है.

2.दूध की एलर्जी के चलते पेट में ऐंठन होना भी एक आम लक्षण है.

3.कई लोगों में दूध से होने वाली एलर्जी के कारण त्वचा पर चकत्ते भी होते हैं.

4.दस्त व खांसी होना भी इसके आम लक्षण हैं.

5.इसके अलावा गीली आंखें, बहती नाक भी इसके संकेत हो सकते हैं.

6. जी मिचलाना, उल्‍टी, घबराहट, होंठों के पास खुजली और सूजे हुए होंठ व गला भी इसके आम लक्षण होते हैं.

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बचाव व उपचार

  1. दूध की एलर्जी के लिए आपको सर्वप्रथम चिकित्‍सक से सुझाव लेना चाहिए.
  2. दूध का सेवन करना बंद कर देना चाहिए.
  3. यदि आप बच्‍चे को दूध पिला रहे हैं तो ऐसा दूध पिलाएं जिसमें लेक्‍टोस न हो.
  4. कोशिश करें इस स्थिति में बच्चे को सोया का दूध पिलाएं.

 

6 होममेड टिप्स : ऐसे रखें अपनी खूबसूरती का ख्याल

अगर आप अपनी खूबसूरती बढ़ाना चाहती हैं तो केवल त्वचा ही नहीं बल्कि हाथ, बाल, पांव और नाखून के सौंदर्य पर ध्यान देकर अपनी खूबसूरती में चार चांद लगा सकती हैं. तो चलिए जानते हैं,  घर पर कैसे आप अपनी सुंदरता को बढ़ा सकती हैं.

  1. हाथ तथा पांवों को गर्म पानी में डुबोने के बाद क्रीम से मसाज कर लीजिए, ताकि त्वचा कोमल तथा मुलायम बन जाए. हाथों के सौंदर्य के लिए उन्हें चीनी तथा नींबू जूस से रगड़ लें.

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2. अंडे के सफेद हिस्से को बालों को शैम्पू करने से आधा घंटा पहला लगा लीजिए. बालों को पोषण प्रदान करने के लिए अंडे के योक से खोपड़ी की हल्की-हल्की मालिश कीजिए और इसे आध घंटा तक रहने दीजिए. बाद में बालों को स्वच्छ पानी से धो डालिए. इससे बाल मुलायम हो जाते हैं तथा बालों में रंग लगाने के दौरान सुलझाने में मदद मिलती और ज्यादा नुकसान भी नहीं होता.

3. सप्ताह में दो बार बालों का तेल से ट्रीटमेंट करें. जैतून के तेल को गर्म करके इसे बालों तथा खोपड़ी पर मालिश करें. इसके बाद तौलिए को गर्म पानी में डुबोएं. पानी को निचोड़ने के बाद तौलिए को सिर पर पगड़ी की तरह पांच मिनट तक लपेट लें. इस प्रक्रिया को 3-4 बार दोहराएं, इससे बालों तथा खोपड़ी पर तेल को सोखने में आसानी होती है.

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4. यदि आपके बाल खुश्क पड़ गए हैं तो शैम्पू से पहले कंडीशनर कर लें. एक चम्मच सिरके को शहद में मिलाकर एक अंडे में मिला लीजिए. इस मिश्रण को अच्छी तरह फेंट लीजिए तथा खोपड़ी में लगा लीजिए. बाद में सिर को गर्म तौलिए से 20 मिनट तक ढक कर रखिए. इसके बाद बालों को ताजे ठंडे पानी से धो डालिए. इससे आपके बाल चमकदार व सुंदर दिखेंगे.

5. तीन चम्मच गुलाब जल में एक चम्मच ग्लीसरीन तथा नींबू का रस मिला लीजिए. इसे हाथों तथा पांवों पर आध घंटा तक लगा रहने दीजिए, इसके बाद ताजे सादे जल से धो डालिए. हाथों तथा नाखूनों के सौंदर्य के लिए बादाम के तेल तथा शहद को बराबर मात्रा में मिलाकर इसे नाखूनों तथा क्यूटिकल की मालिश करें. इसे 15 मिनट तक लगे रहने के बाद गीले तौलिए से साफ कर लीजिए.

6. चेहरे को साफ करने के लिए शहद को अंडे के सफेद पदार्थ में मिलाइए तथा इसे चेहरे पर 20 मिनट तक लगा रहने के बाद ताजे स्वच्छ पानी से धो लीजिए. जिनकी त्वचा अत्यधिक खुश्क है, वह आधा चम्मच शहद में बादाम तेल तथा ड्राई मिल्क पाऊडर मिला लें तथा इसका पेस्ट बनाकर इसे चेहरे पर लगा लें. इस पेस्ट को आधे घंटे तक चेहरे पर लगा रहने दें तथा बाद में पानी से धो डालें. इससे आपके चेहरे पर ताजगी आएगी.

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टीचर करे पिटाई तो क्या करें पेरैंट्स

स्कूल में टीचर द्वारा बच्चे की पिटाई, बात सिर्फ एक थप्पड़ की नहीं क्योंकि बेशक उस एक थप्पड़ या एक बेंत से बच्चे के शरीर को ज्यादा चोट न लगे लेकिन यह थप्पड़ उसे मानसिक रूप से गहरा सदमा पहुंचाता है.

बहुत सारे कानूनों और जागरूकता के प्रयासों के बाद भी स्कूलों में बच्चों की पिटाई की घटनाएं खत्म नहीं हो रही हैं. कई बार यह पिटाई खतरनाक भी साबित हो जाती है. बच्चों की पिटाई का सब से बड़ा कारण टीचर और बच्चे के बीच बढ़ती दूरी है. इस तरह की बढ़ती घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए सरकार ने प्रयास करने शुरू कर दिए हैं.

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सरकार ने स्कूलों में बच्चों को शारीरिक दंड दिए जाने को पूरी तरह से मना कर दिया है. अब बच्चों को तमाचा मारना तो दूर, चपत लगाना भी टीचर को महंगा पड़ सकता है. यही नहीं, सरकार चाहती है कि शिक्षक बच्चों को तेज आवाज में फटकारने का काम भी न करें. यह सच है कि जागरूकता के कारण बच्चों की पिटाई के मामले कम हुए हैं पर अभी ये पूरी तरह से खत्म नहीं हुए हैं.

सरकारी और गैरसरकारी सभी तरह के स्कूलों में बच्चों को अनुशासित करने की प्रक्रिया में शारीरिक दंड को प्रभावी हथियार बना लिया गया है. बच्चे भय के कारण हिंसा का विरोध करने के बजाय शांत रहते हैं. कानून इस तरह के दंड को मूलभूत मानव अधिकारों का हनन मानता है. बच्चों और उन के मातापिता को अपने अधिकारों के प्रति सचेत होना चाहिए ताकि शिक्षक ऐसी हरकत न कर सकें. मारपीट करने की प्रवृत्ति को अगर देखा जाए तो पता चलता है कि इस के पीछे दूसरों को तकलीफ पहुंचाने की ही मानसिकता होती है.

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कभीकभी शिक्षक खुद की किसी कमी को छिपाने के लिए बच्चों से मारपीट करता है. शिक्षक को पता होता है कि छोटे बच्चे डर के मारे मारपीट की बात अपने घर में नहीं बताते और शिक्षक से भी किसी तरह का कोई प्रतिरोध नहीं करते हैं. यही वजह है कि बड़े बच्चों के साथ मारपीट की घटनाएं कम होती हैं.

शिक्षक अगर मारपीट करने के बजाय बच्चों को समझा कर उन्हें अनुशासन में रखे तो उन की समझ में बात जल्दी आ जाएगी. मारपीट की घटनाओं का बच्चों पर गलत प्रभाव पड़ता है. कई बार तो वे स्कूल के नाम से ही डरने लगते हैं.

बच्चे डरें नहीं, घर पर बताएं

जिन बच्चों के साथ मारपीट की घटनाएं होती हैं उन को घबराना नहीं चाहिए. उन को पूरी बात अपने घर में बतानी चाहिए. आमतौर पर बच्चे इसलिए घर में कुछ नहीं बताते क्योंकि उन को लगता है कि पढ़ाई न करने से शिक्षक ने बच्चे को मारा होगा. मातापिता आमतौर पर अपने ही बच्चे को दोषी ठहराने लगते हैं.

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बच्चों को सब से बड़ा खतरा यह होता है कि परीक्षा में शिक्षक नाराज हो कर उस को फेल कर देगा. इसलिए बच्चा शिक्षक के खिलाफ कोई शिकायत नहीं करता है. बच्चे मारपीट की उन घटनाओं को ही बताते हैं जिन में शरीर पर मार नजर आने लगती है.

क्या करें मातापिता

अगर स्कूल में शिक्षक बच्चे के साथ मारपीट करे तो मातापिता को स्कूल प्रबंधन से शिकायत करने से पहले उस शिक्षक से बात करनी चाहिए. बच्चे के साथ क्यों मारपीट की गई है, अगर इस बारे में शिक्षक का जवाब ठीक नहीं है तो स्कूल के प्रबंधतंत्र को मामले की जानकारी दे कर यह देखना चाहिए कि प्रबंधतंत्र ने क्या किया?

अगर शिक्षक के खिलाफ प्रबंधतंत्र कोई संतोषजनक कार्यवाही नहीं करता तो मातापिता को पुलिस के पास जा कर कानून से मदद मांगने में हिचकिचाना नहीं चाहिए.

अभिभावक को बच्चों के साथ बात कर के उस के मनोभावों को भी मजबूत करने का काम करना चाहिए. बच्चों को यह बताना चाहिए कि मारपीट की घटना को छिपाएं नहीं. अगर बच्चे

को चोट ज्यादा लगी है तो उस को सब से पहले डाक्टर को दिखाएं और उस की रिपोर्ट अपने पास रखें जिस से कानून की मदद लेने में आसानी हो सके.

स्कूल में शिक्षकों द्वारा बच्चों के साथ मारपीट के बहुत से तरीके होते हैं. बहुत सारे ऐसे तरीके हैं जो बच्चों को पता ही नहीं होते हैं. बच्चों और उन के मातापिता को इन तौरतरीकों को भी देखना और समझना चाहिए. शारीरिक दंड में बच्चों को डांटना, फटकारना, स्कूल के अंदर दौड़ाना, घुटनों के बल बैठाना, छड़ी से पीटना, चिकोटी काटना, चांटा या तमाचा मारना, लड़कियों का यौनशोषण करना, उन के नाजुक अंगों को सहलाना या दबाना, क्लासरूम में अकेले बंद कर देना और बिजली का झटका देना आदि शामिल हैं.

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इस के अलावा हर तरह के वे काम जिन के कारण बच्चा अपने को अपमानित महसूस करे, शारीरिक व मानसिक रूप से अपने को हीन महसूस करे, भी मारपीट की श्रेणी में आते हैं. अगर स्कूल के शिक्षक ने कोई ऐसा काम किया है जो बाद में बच्चे की मौत का कारण बने, तो उस को भी मारपीट की श्रेणी में रखा जाता है.

शिक्षक को मिल सकती है सजा

अगर स्कूल के टीचर ने बच्चे को मारा है तो उस को उसी तरह से सजा मिल सकती है जैसे दूसरे लोगों को मारपीट करने के बाद सजा मिलती है. शिक्षक के खिलाफ भारतीय दंड कानून की धारा 323 (जानबूझ कर चोट पहुंचाना), 324 (मारने में घातक हथियार का प्रयोग करना),325 (अत्यधिक चोट पहुंचाना), 326 (जानबूझ कर घातक हथियार से चोट पहुंचाना), 304 (बिना इरादतन मारने पर यदि छात्र की मौत हो जाए), 302 (जानबूझ कर मारने पर छात्र मर जाए), 504 (जानबूझ कर अपमान करने) और 506 (धमकी दे कर कोई काम कराने) के तहत मुकदमे लिखे जा सकते हैं. मामला सही पाए जाने पर अदालत टीचर को इन धाराओं के हिसाब से सजा दे सकती है.

अंत्येष्टि

पति की मौत के बाद शैला के खुशहाल जीवन की बगिया ही उजड़ गई. उस के सूने जीवन में आशा की किरण बन कर आया परेश, उस का भतीजा.

पहियों की घड़घड़ाहट में अचानक ठहराव आ जाने से शैला की ध्यान समाधि टूट गई. अपने घर, अपने पुराने शहर, अपने मातापिता के पास 4 बरस बाद लौट कर आ रही थी. घर तक की 300 किलोमीटर की दूरी, अपने अतीत के बनतेबिगड़ते पहलुओं को गिनते हुए कुछ ऐसे काट दी कि समय का पता ही न चला.

पूरे दिन गाड़ी की घड़घड़ और डब्बे में कुछ बंधेबंधे से परिवेश में बैठे विभिन्न मंजिलों की दूरी तय करते उन सहयात्रियों में शैला को कहीं कुछ ऐसा न लगा था कि उन की उपस्थिति से वह जी को उबा देने वाली नीरस यात्रा के कुछ ही क्षणों को सुखद बना सकती. हर स्टेशन पर चाय, पान और मौसमी फलों को बेचने वालों के चेहरों पर उसे जीवन में किसी तरह झेलते रहने वाली मासूम मजबूरी ही दिखाई देती थी.

शैला घर जा रही थी. यह भी शायद उस की एक आवश्यक मजबूरी ही थी. 4 साल से हर लंबी छुट ्टी में वह किसी न किसी पहाड़ी स्थान पर चली जाती थी. इसलिए नहीं कि वह उस की आदी हो गई थी, पर शायद इसलिए कि उसी बहाने वह अपने घर न जाने का एक बहाना ढूंढ़ लेती थी, क्योंकि घर पर सब के साथ रह कर भी तो वह अपने मन के रीतेपन से मुक्ति नहीं पा सकती थी. घर के लोगों के लिए भी शायद वह अपने में ही मगन, किसी तरह जिंदगी का भार ढोने वाली एक सदस्य बन कर रह गई थी.

25 वर्ष पहले एम.एससी. की पढ़ाई पूरी कर के शैला 1 वर्ष के लिए विदेश में रह कर प्रशिक्षण भी ले आई थी. भारत लौटते ही उस की मेधा में डा. रजत जैसे होनहार सर्जन की मेधा का मेल विवाह के पावन बंधन ने कर दिया था. सबकुछ मिला शैला को…प्यार, अपनत्व, विश्वास, सम्मान और रजत पर अपना संपूर्ण एकाधिकार.

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27 वर्ष की आयु में ही डाक्टरी की कई उपाधियां ले कर रजत विदेश से लौटा था. शैला साल भर भी अपने जीवन के उन सुखद क्षणों को अपनी खाली झोली में भर कर संजो न पाई थी कि    डा. हरीश के यहां से डिनर से लौटते हुए रास्ते में कार दुर्घटना और फिर अंतिम क्षणों में रजत का शैला के हाथ को मुट्ठी में जकड़ कर चिरनिद्रा में सो जाना शैला कभी नहीं भूल सकती थी.

हर सफल आपरेशन के बाद रजत के चेहरे की चमक और स्नेहसिक्त आंखों से शैला को देख कर कहना, ‘शैला, तुम मेरी प्रेरणा हो,’ शैला के मन को कहां भिगो जाता, उस कोने को शैला शायद स्वयं अपनी खुशी के छिपे ढेर में ढूंढ़ न पाती.

तब से ले कर अब तक अपने सेवारत समय के 25 वर्ष शैला ने अपने हिसाब से तो बड़ी अच्छी तरह बिता दिए थे. इतना अवश्य था कि अपनी कठोर अनुशासनप्रियता या कुछ व्यक्तिगत आदर्शों की आलोचना, कभी अपने ऊपर लगाए कुछ झूठे सामाजिक आरोप, जो कभी उस के चरित्र से जोड़ कर लगाए जाते थे, वह सुनती थी. फिर समय ही सब स्पष्ट कर के कहने वालों के मुंह पर पछतावे की छाप छोड़ देता था.

शैला का सब सुनना और सब झेल जाना, अब उस का स्वभाव बन गया था. घर पर कभीकभी आना आवश्यक भी हो जाता था.

4 बरस पहले छोटी बहन सोनी की शादी में आई थी. वह भी बरात आने के 2 दिन पहले. सोनी की शादी के मौके पर ही छोटी भाभी ने पूछा था, ‘खूब पैसा जोड़ लिया होगा तुम ने तो शैला. क्या करोगी इतने धन का?’

शैला मुसकराई थी, ‘जोड़ा तो नहीं, हां, जुड़ गया है सब अपनेआप.’

किसी चीज की कमी नहीं थी उसे. उस के पास सभी भौतिक सुख के साधन थे और उस से बढ़ कर उस की सामाजिक प्रतिष्ठा और सम्मान था. पर जो कभी उस के रीते मन पर निरंतर हथौड़े की चोट करती थी.

उसे वह कभी कह भी तो नहीं सकती थी. उस ने बचपन का वह मस्त और आनंदपूर्ण रूप नहीं देखा था, जो अन्य भाईबहनों में था. कुछ ऐसे हालात रहे कि वह शुरू से ही हंसना चाह कर भी खुल कर हंस न सकी. नियमित, सीमित, अपनेआप से बंधा हुआ एक जीवन. कालिज में पढ़ती थी तो कभी अगर छोटा भाई उस की पेंसिल ले लेता था या ‘डिसेक्शन बाक्स’ से छुरी निकाल लेता था तो कभी दीदी का और कभी मां का यही स्वर सुनाई देता था, ‘देबू देख, अभी शैला आएगी, कैसी हायहाय मचा देगी.’

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शायद शैला की गंभीरता ने ही उस घर में आतंक फैला दिया था. देबू के मन में शैला के प्रति पहले भय उपजा और फिर वही भय पलायन और कालांतर में आंशिक घृणा में बदल गया था. ऐसा शैला कभीकभी अब महसूस करती थी.

देबू अब डा. देवेंद्र था पर कभी उस ने शैला से खुल कर बातें नहीं की थीं. शैला चाहती थी कि देबू उस का पल्ला पकड़ कर उस से अपना अधिकार जताए और कहे, ‘दीदी, इस बार कश्मीर घुमा दो.’

‘ऐसा सूट बनवा दो.’

‘कुछ खिलातीपिलाती नहीं,’ आदि.

फिर अब तो देबू भी बीवी वाला हो गया था. सुंदरसलोनी बड़े ही सरल मन की सुनंदा उस की पत्नी थी. शादी के कुछ दिनों बाद ही देबू ने सुनंदा से कहा था, ‘नंदा, दीदी की खातिर यही है कि इन का कमरा बिलकुल ठीक रहे, इन की कोई चीज इधरउधर न हो.’

शैला के मन में कहीं चोट लगी थी. ठीक रहने को तो उस का खूबसूरत बंगला सवेरे से रात तक कई बार झाड़ापोंछा जाता था. उस के बगीचे के बराबर और कोई बगीचा पास में नहीं था. पर हर साल ‘पुष्पप्रदर्शनी’ में प्रथम पुरस्कार पाने वाले बगीचे के फूल क्या कभी उस के सूनेपन को महका सके थे?

ससुराल से उजड़ी मांग और सूने माथे पर सादी धोती का पल्ला डाल कर रोते वृद्ध ससुर के साथ जब शैला मांपिताजी के सामने अचानक आ कर तांगे से उतरी थी तो उस के सारे आंसू सूख चुके थे. चेहरा गंभीर था. निस्तेज ठहरी हुई आंखें थीं और वह अपने कमरे में आ गई थी. वह 1 वर्ष पहले छोड़े चिरपरिचित स्थान पर आ कर शांत हो कर बैठ गई थी, बस, ऐसे ही, जैसे एक यात्रा पर गई हो. उसी यात्रा में अपनी चिरसंचित निधि गंवा कर लौट आई हो.

फिर दूसरे वर्ष नैनीताल में साइंस कालिज की पिं्रसिपल हो कर चली गई थी. कुछ जीवन का खोखलापन और जीवन के प्रति विरक्तिपूर्ण उदासीनता में अगर कहीं आनंद की आशा और अपनत्व का कोई अंश था तो परेश.

परेश उस के बड़े भैया का बड़ा बेटा था. जबजब घर आई, परेश का आकर्षण उसे खींच लाया. जीवन के इतने मधुर कटु अनुभव ले कर भी अगर कहीं शैला ने अपने पूर्ण अधिकार का प्रयोग किया था तो वह परेश पर. घर वह आए या न आए, पर दूसरे क्लास की प्रगति रिपोर्ट से ले कर मेडिकल कालिज के तीसरे वर्ष तक का परिणाम उसे परेश के हाथों का लिखा निरंतर मिलता रहा था. उसी के साथ लगी हर पत्र में एक सूची होती थी जिस में कभी सूट, कभी घड़ी और कभी पिताजी से छिपा कर दोस्तों को पिकनिक पर ले जाने के लिए रुपयों की मांग.

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परेश का इस प्रकार मांगना और अंत में ‘बूआजी, अब्दुल के हाथ जल्दी भिजवा देना’ वाक्य शैला को अपनत्व की कौन सी सुखानुभूति दे जाता था, वह स्वयं नहीं जानती थी. मातापिता को अगर कहीं शैला के प्रति संतोष था तो वह परेश और शैला के इस ममतापूर्ण संबंध को देख कर.

घर जाती थी तो इधरउधर के हाल ले कर फिर भैयाभाभी और उस की परेश को ले कर विविध समस्या समाधान की वार्त्ता. वह क्या खाता था, क्यों उस के साथ घर के अन्य बच्चों सा व्यवहार होता था, जब वह शैला का एकमात्र वारिस था आदि.

कभीकभी मजाक में भाभी कहती थीं, ‘परेश तो बूआ का हकदार है, बूआ का बेटा है.’

सुन कर शैला कितनी खुश होती थी. खून का रिश्ता कभी झूठा नहीं होता, न ही हो सकता है. उस के गंभीर चेहरे पर खुशी की एक रेखा सी खिंच जाती थी. जिस साल परेश का जन्म हुआ था, उस के 3 साल के अंदर शैला ने घर के 4-5 चक्कर लगाए थे, कुछ अनुभवी प्रौढ़ महिलाएं दबी जबान से शैला से हंसहंस कर कहती थीं, ‘दीदी, भतीजा ऐसी जंजीर ले कर पैदा हुआ है जिस का फंदा बूआ के गले में है. जरा सी जंजीर कसी और बूआजी चल पड़ती हैं घर की ओर.’

और शैला के चेहरे पर आ जाता था गर्वीला ममत्वपूर्ण भाव. वह हलके से मुसकरा कर कहती, ‘बहुत प्यारा है मेरा भतीजा. घर जाती हूं तो पल्ला पकड़ कर पीछेपीछे घूमता रहता है.’ इस वाक्य के साथ ही शैला एक आनंदमिश्रित तृप्ति का अनुभव करती थी. 3 बरस के बच्चे को उस से कितना प्यार था.

जब से परेश बड़ा हो कर सफर करने लायक हुआ था, शैला उसे छुट्टियों में लगभग हर वर्ष अपने पास बुला लेती थी और भूल जाती थी कि वह अकेली है.

कभी परेश कहता, ‘बूआजी, आज तो पिक्चर चलना ही है, चाहे जो हो.’  तब शैला परेश को टाल न पाती.

अब तो परेश पूरे 24 साल का हो गया था. डाक्टरी के अंतिम वर्ष में था. शैला शुरू से जानती थी कि अगर वह मुंह खोल कर कह देती तो बड़े भैया व भाभी परेश को स्वयं आ कर उस के पास छोड़ जाते. पर कहने से पहले जाने क्यों मन के कोने में कहीं एक बात उठती, ‘अपनी गोद तो सूनी थी ही. भाभी से परेश जैसा प्यारा और होनहार बेटा ले कर उस के मन में सूनापन कैसे भर दूं.’

इधर कई बार वह तैयार हो कर आती, भैया से कुछ कहने को. पर जहां बात का आरंभ होता, वह सब के बीच से हट कर स्नानघर में जा कर खूब रो आती. एक बार फिर रजत का वाक्य कानों में गूंज उठता, ‘शैला, कभी बेटा होगा तो उसे ऐसा अव्वल दरजे का सर्जन बनाऊंगा कि बाल चीर कर 2 टुकड़े कर देगा.’

कल्पना में ही दोनों जाने कितने नाम दे चुके थे अपने अजन्मे बेटे को. उन्हीं नामों में से एक नाम ‘परेश’ भी था. यह शैला के सिवा कोई नहीं जानता था. पर शैला के ये सब सपने तो रजत की मृत्यु के साथ ही टूट गए थे. भाभी को जब बेटा हुआ था तब अस्पताल में ही भरे गले, भारी मन से अतीत के घावों को भुला कर, शैला मुसकराते चेहरे से भतीजे का नाम रख आई थी, ‘परेश.’

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आज 4 वर्ष बाद शैला घर आई तो परेश में बड़े परिवर्तन पा रही थी. कुछ आधुनिकता का प्रभाव, कुछ बदलते समय को जानते हुए भी शैला ने परेश पर अपना वही अधिकार और अपनी पसंद के अनुसार परेश को ढालने के प्रयासों में कोई कमी न की. लंबाचौड़ा, खूबसूरत युवक के रूप में परेश, शैला को स्टेशन लेने आया तो बस ‘हाय बूआ’ कह कर उस के हाथ से सूटकेस ले लिया. भविष्य की कल्पना में खोई शैला को परेश का वह व्यवहार कहीं भीतर तक साल गया. कार पर बैठते ही बोली, ‘‘क्यों रे परेश, अब ऐसा आधुनिक हो गया कि बूआ के पैर तक छूना भूल गया. देख तो घर पहुंच कर तेरी क्या खबर लेती हूं.’’

और शैला अधिकारपूर्ण अपनत्व की गरिमा से खिलखिला कर हंस पड़ी थी. पर शायद वह परेश के चेहरे पर आतेजाते भावों को देख न पाई थी.

15 दिन की छुट्टी पर आई थी शैला इस बार. भैयाभाभी हर खुशी उसे देने को उतावले नजर आते थे. मातापिता थके हुए, पर संतुष्ट मालूम होते थे. शैला दिन भर मातापिता के साथ बगीचे में बैठ कर, कभी पीछे नौकरों के क्वार्टरों में जा कर बूढ़े माली, चौकीदार, महाराज सब का हाल पूछती, तो कभी परेश से घंटों बातें करती.

परेश पास बैठता था, पर शाम होते ही अजीब सी बेचैनी महसूस करता और किसी न किसी बहाने वहां से उठ जाता था.

जाने से 5 दिन पहले यों ही घूमते- घूमते शैला, परेश के कमरे में पहुंच गई. पढ़ने की मेज पर तमाम किताबों, कागजों के बीच सिगरेट के अधजले टुकड़ों से भरी ऐश ट्रे थी. उस के नीचे एक मुड़ा रंगीन कागज रखा था. शैला ने उसे यों ही उत्सुकतावश उठा लिया. पत्र था किसी के नाम. लिखा था :

‘सोनाली, तुम्हें मैं कितना चाहता हूं, शायद मुझे अब यह लिखने की कोई जरूरत नहीं. मैं जानता हूं, मेरे उत्तर न देने पर तुम कितना नाराज होगी. कारण बस, यही है कि आजकल मेरी बूआजी आई हुई हैं, जो आज भी शायद 18वीं शताब्दी के कायदेकानूनों की कायल हैं. उन के सामने अभी तुम्हारा जिक्र नहीं करना चाहता. बेकार में आफत उठ जाएगी. मातापिता की कोई चिंता नहीं. वह तो आखिरकार मान ही जाएंगे. अंत में अपनी ही जीत होगी. पर बूआजी के सामने कुछ कहने की अभी हिम्मत नहीं है मेरी.

‘अब तुम ही समझ लो, ऐसे में कैसे तुम्हें घर ले जाऊं. पर वादा करता हूं कि उन के जाते ही मांपिताजी के पास तुम्हें ला कर उन्हें सब बता दूंगा और तुम्हें मांग लूंगा. बूआजी के रहते हुए ऐसा संभव नहीं है. समझ रही हो न? फिर यों भी मुझे कुछ तो आदर दिखाना ही चाहिए. आखिर वह मेरी बूआजी हैं. मैं क्षत्रिय और तुम ब्राह्मण, वह जमीनआसमान एक कर देंगी.’

और शैला वहीं पसीने में भीग गई थी. वह आंखों के सामने घिरते अंधेरे को ले कर कुरसी पकड़ कर किसी तरह बैठ गई थी. उस की आंखों के सामने, साड़ी का पल्लू पकड़ कर पीछेपीछे घूमने वाला परेश, फिर भविष्य की कल्पना में घोड़े पर चढ़ा दूल्हा परेश और जीवन की अंतिम घडि़यों में शैला की मृत्यु शैया के पास बैठा परेश अपने विभिन्न रूपों में घूम गया.

शैला वर्षों बाद स्नानघर में खड़ी हो कर रो रही थी. ऐसे ही जैसे बड़े अरमानों और त्यागों से जीवन की सारी संचित निधि से बनाया अपना घर कोई ईंटईंट के रूप में गिरता देख रहा हो. दिमाग पर बारबार लोहे की गरम सलाखें चोटें कर रही थीं.

‘आखिर वह मेरी बूआजी हैं… बूआजी…बस, और कुछ नहीं.’

तभी शैला के मन का एक कोना प्रश्नवाचक चिह्न बन कर सामने आ गया. क्या वह स्वयं जिम्मेदार नहीं थी परेश की उन भावनाओं के लिए? ठीक था, वह स्वयं अपने लिए अब तक समाज की परंपराओं और कहींकहीं खोखले आदर्शवाद को भी स्वीकारती आई थी. पर इस का अर्थ यह तो नहीं था कि वह उन्हें इस पीढ़ी पर भी थोपती रहेगी. क्यों वह इतनी उम्मीदें रखती थी परेश से? क्या हुआ जो वह आधुनिक ढंग से पहनता- घूमता था.

शैला अब सोचती थी कि शायद उस का उन छोटीछोटी बातों को गंभीर रूप देना ही उसे परेश से इतना दूर ले आया था. वह क्यों नहीं सोचती थी कि समाज बहुत आगे आ चुका है. ब्राह्मण, क्षत्रिय जैसे जातीय भेदभाव को सोचना क्या शैला जैसी पढ़ीलिखी, अच्छे संस्कारों में पलीबढ़ी स्त्री को शोभा देता था? शैला समझौता करेगी उस स्थिति से. वह उस नई पीढ़ी पर हावी होने का प्रयास नहीं करेगी. पुरानी लकीरों पर चलती आई जिंदगी को नया मोड़ दे कर, वह परंपरागत रूढि़यों व मान्यताओं की अंत्येष्टि स्वयं करेगी.

रात को खाने के बाद उस ने परेश को बगीचे में बुलाया. ओस से भीगी घास पर टहलती शैला का मन प्रफुल्लित था. परेश आया और चुपचाप खड़ा हो गया. शैला का हाथ उठ कर सहज ढंग से परेश के कंधे पर टिक गया. आंखों में सारा लाड़ उमड़ आया. बोली, ‘‘क्यों रे, परेश, मैं क्या इतनी बुरी हूं जो तू ने मेरी बहू को मुझ से छिपा कर रखा? यह बता, क्या मुझ से अलग हो पाएगा? मैं जानती हूं, अपनी बूआजी के लिए तेरा सीना फिर धड़केगा. बता, कहां रहती है सोनाली? यों ही ले आएगा उसे? बेटे, मेरे मन की आग तभी ठंडी होगी जब तू मुझे सोनाली के पास ले चलेगा. पहला आशीर्वाद तो मैं ही दूंगी उसे. तू शायद नहीं जानता कि मैं ने कितने अरमान संजोए हैं इन दिनों के लिए. मैं तेरी खुशी के बीच में कहीं भी ब्राह्मण, क्षत्रिय जैसी घटिया बात नहीं लाऊंगी.’’

और दूसरे दिन मेजर विक्रम के ड्राइंगरूम में भैयाभाभी और परेश के साथ बैठी शैला के सामने सौम्य, शालीन और सुंदर सी सोनाली ने प्रवेश किया. उस की मां ने उसे भाभी के सामने करते हुए उन के पैर छूने को कहा ही था कि भाभी ने सोनाली को बड़े प्यार से पकड़ कर शैला की तरफ करते हुए कहा, ‘‘इन का आशीर्वाद पहले लो. भले ही मैं ने परेश को जन्म दिया है, पर बेटा तो यह बूआ का ही है.’’

और शैला की आंखों से खुशी की ज्यादती से बहती आंसुओं की धारा उस के बरसों से जलते दिल को शीतलता देती चली गई.

परेश ने अपने पुराने दुलार भरे भाव से शैला को पकड़ते हुए इतना ही कहा, ‘‘बूआजी, आशीर्वाद दो कि तुम्हारे और अपने सब स्वप्न साकार कर सकूं.’’

शैला की सारी उदासी छिटक कर कहीं दूर जाने लगी और दूर होतेहोते उस की छाया तक विलीन हो गई. वह देख रही थी. उस की कल्पना में मृतक पति  डा. रजत की धुंधली छाया उभर आई. वह मुसकरा रहे थे. शायद कह भी रहे थे, ‘पुत्रवधू मुबारक हो शैली.’

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