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10 टिप्स: स्किन टोन के हिसाब से चुनें मेकअप बेस

फेस हमारी पर्सनेलिटी का आइना होता है और इस आइने को बेदाग व खूबसूरत बनाने के लिए फेस मेकअप की सही जानकारी होना जरूरी है. किसी भी मेकअप की शुरुआत बेस से होती है. इसीलिए उसे स्किन का बैकड्रौप माना जाता है, जो मेकअप के लिए परफेक्ट स्किन देता है. आमतौर पर हम सभी अपने फेस के लिए स्किनटोन के हिसाब से बेस चुनते हैं. पर वह कैसे हों इसके बारे में आज हम आपको बताएंगे.

ड्राई स्किन के लिए ट्राई करें ये बेस औप्शन  

अगर आपकी स्किन ड्राई है तो आप टिंटिड मौइश्चराइजर, क्रीम बेस्ड फाउंडेशन या सूफले का इस्तेमाल कर सकती हैं.

1. ड्राईनैस को टिंटिड मौइश्चराइजर से करें मौइश्चराइज

अगर आपकी स्किन साफ, बेदाग व निखरी हुई है, तो आप बेस बनाने के लिए केवल टिंटिड मौइश्चराइजर का इस्तेमाल कर सकती हैं. इसे लगाना बेहद आसान है. अपने हाथ में मौइश्चराइजर की कुछ बूंदें लें और अपनी उंगली से चेहरे पर जगह-जगह डौट्स लगा कर एक-सार फैला लें. यह एसपीएफ यानी सनप्रोटैक्शन फैक्टर के साथ भी आता है, जिसके कारण यह हमारी स्किन को प्रौटेक्ट करता है. इसके अलावा यह हमारी स्किन को तेज हवाओं व अन्य वजह से होने वाली ड्राईनैस से बचा कर मौइश्चराइज भी करता है.

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2. क्रीम बेस्ड फाउंडेशन का करें ऐसे इस्तेमाल

यह स्किन की ड्राईनैस को कम कर के उसे मौइश्चराइज करता है, इसलिए यह ड्राई स्किन वालों के लिए काफी अच्छा होता है. इसे लगाने से स्किन को प्रौपर मौइश्चर मिलता है. इसे यूज करना भी आसान है. स्पैचुला से थोड़ा सा बेस हथेली पर लें और स्पंज या ब्रश की मदद से एकसार पूरे फेस पर लगा लें. इसे सैट करने के लिए पाउडर की एक परत लगाना जरूरी है. इस से बेस ज्यादा देर तक टिका रहता है.

3. फेस पर लाइट कवरेज देता है सूफले

यह बेहद हलका होता है और फेस पर लाइट कवरेज देता है. सूफले को स्पैचुला की मदद से थोड़ा सा हथेली पर लें. फिर ब्रश या स्पंज की मदद से पूरे फेस पर एकसार फैला लें.

औयली स्किन के लिए ट्राई करें ये बेस औप्शन

अगर आपकी स्किन औयली है और पसीना बहुत आता है, तो टू वे केक का इस्तेमाल आप के लिए बेहतर है, क्योंकि यह एक वाटरपू्रफ बेस है. इसके अलावा आप अपनी स्किन के लिए पैन स्टिक और मूज का भी इस्तेमाल कर सकती हैं.

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4. क्रीमी फौर्म में होती पैन स्टिक

यह क्रीमी फौर्म में होती है, जिस कारण स्किन को मौइश्चराइज करती है और साथ ही वाटरपू्रफ होने के कारण औयली स्किन के लिए अच्छी होती है.

5. क्विक वाटरपू्रफ बेस है टू वे केक

यह एक क्विक वाटरपू्रफ बेस है. इसे आप अपने पर्स में कैरी कर सकती हैं और कहीं भी टचअप दे सकती हैं. टू वे केक के साथ स्पंज मिलता है. इसे बेस की तरह इस्तेमाल करने के लिए स्पंज को गीला कर लें और पूरे चेहरे पर फैलाएं. टचअप देने के लिए आप सूखे स्पंज का इस्तेमाल कर सकती हैं. बस ध्यान रखें कि टू वे केक आपकी स्किन से मैच करता हो.

6. पाउडर फौर्म में चेंज हो जाता है मूज

मूज का इस्तेमाल औयली स्किन वालों के लिए काफी उपयुक्त रहता है. मूज चेहरे पर लगाते ही पाउडर फौर्म में चेंज हो जाता है, जिस कारण पसीना नहीं आता. यह अतिरिक्त औयल रिमूव कर के फेस को मैट फिनिश और लाइट लुक देता है. इसे हथेली में लें और स्पंज या ब्रश की मदद से चेहरे पर एकसार फैला लें.

नौर्मल स्किन के लिए ट्राई करें ये बेस औप्शन

अगर आप की स्किन नौर्मल है, तो फाउंडेशन और कौंपैक्ट आपके लिए अच्छे औप्शन हैं.

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7. लिक्विड फौर्म में फाउंडेशन करें इस्तेमाल

यह लिक्विड फौर्म में होता है. आजकल मार्केट में हर स्किन के हिसाब से ढेरों शेड्स में मिलते हैं. इसे लगाते ही स्किन एक जैसी दिखती है. फाउंडेशन अपनी स्किन से मैच करता या एक शेड फेयर लगाएं. इसे हथेली में लें और फिर इंडैक्स फिंगर से माथे, नाक, गालों और ठोढ़ी पर डौट्स लगाएं. स्पंज या ब्रश की सहायता से ब्लैंड कर लें. चाहें तो हाथ का भी इस्तेमाल कर सकती हैं. इसे सैट करने के लिए पाउडर की एक परत लगाना जरूरी है. इससे बेस ज्यादा समय तक टिका रहता है.

8. पाउडर और फाउंडेशन का मिक्सचर होता है कौंपैक्ट

यह पाउडर और फाउंडेशन दोनों का मिक्स फौर्म होता है. अगर आप को कहीं जल्दी में जाना है और आपके पास समय नहीं है, तो आप सिर्फ कौंपैक्ट का इस्तेमाल कर सकती हैं. इसे केवल पफ की मदद से ही लगाएं. आजकल हर स्किन से मैच करते कौंपैक्ट पाउडर बाजार में उपलब्ध हैं. अपनी स्किनटोन से मैच करता कौंपैक्ट लगाएं. कौंपैक्ट का इस्तेमाल टचअप देने के लिए भी कर सकती हैं. स्टूडियो फिक्स, डर्मा फाउंडेशन, मूज व सूफले इन दिनों मार्केट में काफी मौजूद हैं.

9. फाउंडेशन का कंबाइंड सल्यूशन है स्टूडियो फिक्स

यह पाउडर और फाउंडेशन का कंबाइंड सल्यूशन है, जो लगाते वक्त क्रीमी होता है और लगाने के बाद पाउडर फार्म में तबदील हो जाता है. यह स्किन पर लाइट होते हुए भी फुल कवरेज देता है और चेहरे पर लंबे समय तक टिका रहता है.

10. कंसीलर व बेस दोनों का काम करता है डर्मा फाउंडेशन

यह स्टिक फार्म में होता है. यह कंसीलर व बेस दोनों का काम करता है. यह चेहरे के सभी स्कार्स व अंडरआईज डार्क सर्कल्स को छिपा के चेहरे को फुल कवरेज देता है.

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Edited by Rosy

आज का इनसान ऐसा क्यों

‘‘कहिए सोमजी, क्या हाल है? भई क्या लिखते हैं आप…बहुत तारीफ हो रही है आप की रचनाओं की. आप अपनी रचनाओं का कोई संग्रह क्यों नहीं निकलवाते. देखिए, आप ने मेरे साथ भी वफा नहीं की. मैं ने मांगा भी था आप से कि कुछ दीजिए न अपना पढ़ने को…’’

‘‘बिना पढ़े ही इतनी तारीफ कर रहे हैं आप साहब, पढ़ लेंगे तो क्या करेंगे…डर गया हूं आप से इसीलिए कभी कुछ दिया नहीं. वैसे मेरे देने न देने से क्या अंतर पड़ने वाला है. पत्रिकाओं में मेरी रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं. आप कहीं से भी उठा कर पढ़ सकते हैं. मैं ने वफा नहीं की ऐसा क्यों कह रहे हैं?’’

‘‘इतना समय किस के पास होता है जो पत्रिका उठा कर पढ़ी जाए…’’

‘‘तो आप जब भी मिलते हैं इतनी चापलूसी किस लिए करते रहते हैं. मुझ पर आरोप क्यों कि मैं ने अपना कुछ पढ़ने को नहीं दिया. पढ़ने वाला कहीं भी समय निकाल लेता है, वह किसी की कमजोर नस का सहारा ले कर अपनी बात शुरू नहीं करता.’’

इतना बोल कर सोम आगे निकल गए और मैं हक्काबक्का सा उन के प्रशंसक का मुंह देखता रहा. उस के बाद यह सोच कर स्वयं भी उन के पीछे लपका कि पुस्तक मेले में वह कहीं खो न जाएं.

‘‘सोमजी, आप ने उस आदमी से इस तरह बात क्यों की?’’

‘‘वह आदमी है ही इस लायक. बनावटी बातों से बहुत घबराहट होती है मुझे.’’

‘‘वह तो आप का प्रशंसक है.’’

‘‘प्रशंसक नहीं है, सिर्फ बात करने के लिए विषय पकड़ता है. जब भी मिलता है यही उलाहना देता है कि मैं ने उसे कुछ पढ़ने को नहीं दिया जबकि सत्य यह है कि उस के पास पत्रिका हो तो भी उठा कर देखता तक नहीं.’’

‘‘आप को उस का न पढ़ना बुरा लगता है?’’

‘‘क्यों भई, लाखों लोग मुझे पढ़ते हैं…एक वह न पढ़े तो मैं क्यों बुरा मानूं. पढ़ना एक शौक है विजय जिस में कोई जबरदस्ती नहीं चल सकती. जिसे पढ़ने की लत हो वह खाना खाते भी पढ़ लेता है और जिसे नहीं पढ़ना उसे किताबों के ढेर में फेंक दो तो भी वह पढ़ेगा नहीं.

‘‘उस का बेटा इस साल फाइनल में है. मेरे हाथ में उस की एसाइनमेंट है. इसलिए जब भी मिलता है प्रशंसा का चारा मेरे आगे डालने लगता है, जो मेरे गले में फांस जैसा फंस जाता है. बेवकूफ हूं क्या मैं? क्या मुझे समझ में नहीं आता कि वह कितना दिखावा कर रहा है. झूठ क्यों बोलना?

‘‘मैं ने तो उसे नहीं कहा कि मेरी तारीफ करो. जब उस ने मेरा लिखा कभी पढ़ा ही नहीं तो झूठी तारीफ भी क्यों करनी. पढ़ कर चाहे बुराई ही करो वह मुझे मंजूर है. जरूरी नहीं मेरा लिखा सब को पसंद ही आए. सब का अपनाअपना दृष्टिकोण है जीवन को नापने का. जोजो मैं ने अपने जीवन में पाया वहवह मेरा सच है. जो तुम जीवन से सीखोगे वही तुम्हारा भी सच होगा. जरूरी तो नहीं न तुम्हारा और मेरा सच एक ही हो.’’

सोमजी अपनी ही रौ में बहते हुए कहते भी गए और अपनी मनपसंद पुस्तकें भी चुनते गए. सच ही तो कह रहे हैं सोमजी…किसी के भी व्यवहार का सच वह कितनी जल्दी पकड़ लेते हैं. मैं ने उन से कहा तो हंस पडे़.

‘‘अरे, नहीं विजय, किसी का भी व्यवहार झट से पकड़ लेना आसान नहीं है. आज का इनसान बहुत समझदार हो गया है. किस की कौन सी नस पर हाथ रख कर अपना कौन सा काम निकालना है उसे अच्छी तरह आता है. और मुझ जैसा भावुक मूर्ख इस का शिकार अकसर हो जाता है.’’

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सोमजी, खरीद कर लाई कुछ किताबें उलटतेपलटते हुए मुसकराने लगे. बड़ी गहरी होती है उन की मुसकान. अपनी मनपसंद पुस्तक में कुछ मिल गया था उन्हें. मेरी ओर देख कर बोले, ‘‘विजय, कुछ बातें सिर्फ कहने के लिए ही कही जाती हैं. उन का कोई अर्थ नहीं होता. जैसे कि किसी ने आप से आप का हाथ पकड़ कर आप का हालचाल पूछा. उसे आप की सेहत से कुछ भी लेनादेना नहीं होता. बस, एक शिष्टाचार है. सिर्फ इसलिए पूछा कि सवाल पूछना था. पूछने वाले के शब्दों में कोई गहराई नहीं होती.

‘‘एक सतही सा सवाल है कि आप कैसे हैं. आप कल चाहे किसी भयानक बीमारी से मर ही क्यों न जाएं लेकिन आज आप को सिर्फ यही उत्तर देना है कि आप अच्छे हैं. अपनी बीमारी का दुखड़ा रोना आज का शिष्टाचार नहीं है. अपने मन की बात खुल कर करना आज का शिष्टाचार है ही नहीं. आप के मन में भावनाओं का ज्वारभाटा तूफानी वेग से उमड़घुमड़ रहा हो लेकिन आज का शिष्टाचार, यही सिखाता है कि बस, चुप रह जाओ. एक बनावटी सी…नकली सी मुसकान चेहरे पर लाओ और अपनी पीड़ा अपने तक ही रखतेरखते हंसते हुए कहो, ‘मैं अच्छा हूं.’

‘‘उस आदमी को न तो मेरी रचनाओं से कुछ लेनादेना है न ही मेरी लेखनी से. उस के हाथ अगर अपना कुछ लिखा दे दूंगा तो हो सकता है कह दे, उसे पढ़ने का शौक ही नहीं है. मैं ने बेकार ही तकलीफ की, क्योंकि शिष्टाचार है इसलिए जब भी मिलता है यही एक उलाहना देता है कि मैं ने उसे कुछ दिया नहीं जिसे वह पढ़ पाता.’’

बड़े गौर से मैं सोमजी का चेहरा पढ़ता रहा. सच ही तो कह रहे हैं सोम. वास्तव में आज का युग वह नहीं रहा जो हमारे बचपन और हमारी जवानी में था. हमारे बचपन में वह था जिस की जड़ें आज भी गहरी समाई हैं हमारी चेतना में. शब्दों में गहराई थी. हां का मतलब हां ही होता था और ना का मतलब सिर्फ ना. आज जरूरी नहीं हां का मतलब हां ही हो. शिष्टाचारवश किसी का हां कह देना वास्तव में ना भी हो सकता है. शब्दों में गहराई है कहां जिन में जरा सी ईमानदारी नजर आए. एक ओढ़ा हुआ जीवन सभी जी रहे हैं. शब्दों का नाता सिर्फ जीभ से है सत्य से नहीं.

हफ्ता भर ही बीता उस वाकया को कि मुझे किसी काम से दिल्ली जाना पड़ा. मेरे एक मित्र बीमार थे…उन्हीं ने बुला भेजा था. कैंसर की आखिरी स्टेज पर हैं वह. कब समय आ जाए नहीं जानते इसलिए मिलना चाहते थे. उन के परिवार से 2-4 दिन वास्ता पड़ा मेरा. मौत के कगार पर खड़ा मेरा मित्र किसी भी कोण से दुखी हो ऐसा नहीं लगा मुझे.

‘‘ऐसा जीवन बारबार जीना चाहता हूं मैं. कोई भी ऐसी इच्छा नहीं है मेरी जो पूरी न हुई हो. संतुष्ट हूं मैं. बारबार थोड़े ही मरूंगा. एक बार ही तो मरना है…जब उस की इच्छा हो…मैं तैयार हूं.’’

मित्र का सीधासादा मध्यवर्गीय परिवार है. अपने छोटे से फ्लैट में वह पत्नी के साथ रहता है. बेटा नई पीढ़ी का है… परेशान रहता है. अच्छी कंपनी में नौकरी करता है. जितना पिता ने नौकरी के आखिरी दिनों में कमाया होगा उस से कहीं ज्यादा वह आज हर महीने कमाता है फिर भी सुखी नहीं है.

‘‘पता नहीं आज के बच्चों को चैन क्यों नहीं है. सबकुछ है फिर भी खुश नजर नहीं आते. हम ने जो सब धीरेधीरे बनाया था उस को यह शुरू के 4-5 साल में ही बना लेते हैं. कर्ज पर घर बना लिया, कर्ज पर गाड़ी, कर्ज पर घर का सारा सामान. कभी इस के घर जा कर देखो क्या नहीं है मगर सब कर्ज पर है. महीने के शुरू में ही कंगाल नजर आता है क्योंकि पूरी तनख्वाह तो किस्तों में बंट कर अपनीअपनी जगह पर चली जाती है. अभी अकेला है, खानापीना हमारे पास चल जाता है. कल को शादी होगी तो घर कैसे चलाएगा, मेरी तो समझ में नहीं आता.’’

‘‘बीवी भी तो कमाएगी न. रोजीरोटी वह चला लेगी घर इस ने बना ही लिया है. सब प्लान बना रखा है बच्चों ने, तुम क्यों परेशान…’’

‘‘अरे, नहीं बाबा, मैं परेशान नहीं हो रहा…मैं तो खुश हूं कि आज भी अपने कमाऊ बेटे को पाल रहा हूं. आज भी उस पर बोझ नहीं हूं. इस से बड़ा संतोष मेरे लिए और क्या होगा कि मेरे शरीर में स्थापित कैंसर भी मुझे तंग नहीं कर रहा. इतनी खतरनाक बीमारी पेट में लिए घूम रहा हूं पर क्या मजाल मुझे जरा सी भी तकलीफ हो.

‘‘मुझे जीवन से कोई शिकायत नहीं है. हम पतिपत्नी अपने फ्लैट में आराम से रह रहे हैं. सौरभ ने अपना घर ले रखा है. रात वहीं चला जाता है सोने. मेरी औलाद भी अपने पैरों पर खड़ी है. बेटी अपने घर में खुश है. मेरे बाद मेरी पत्नी भी किसी का मुंह नहीं देखेगी, इतना प्रबंध कर रखा है. सौरभ भी मां का खयाल रखेगा पूरा विश्वास है मुझे. देखो विजय, इनसान को अगर खुश रहना है तो उसे अपनी सोच को बदलना होगा. अंधी दौड़ में रहेगा तो कभी भी खुश नहीं रह पाएगा. स्वर्र्ग मरने के बाद नहीं मिलता और न मरने के बाद नरक ही होता है. सब यहीं है, इसी जन्म में. कुछ हमारे द्वारा बोए गए कर्म कुछ उन का फल, कुछ संयोग और कुछ हादसे यही सब मिला कर ही तो हमारा जीवन बनता है. हमें यह जीवन जीना है और इसे जिए बिना गुजारा नहीं है तो क्यों न इस तरह जिएं कि किसी को हमारी वजह से तकलीफ न हो.’’

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‘‘ऐसा कैसे हो सकता है. कहीं न कहीं, कभी न कभी तो ऐसा होता ही है. समाज में रह कर हम सब के साथ जीते हैं. हम सब को सुख ही दे पाएं ऐसा नहीं होता. यदि कोई हमें पसंद ही न करे तो हम कैसे उसे भी खुश रखें. संसार में रहते हुए सब को सुख देना आसान नहीं होता. लाख यत्न करो, कहीं न कहीं कुछ न कुछ छूट ही जाता है.’’

‘‘जो तुम्हें पसंद नहीं करता तुम उस से दूर रहो ऐसा भी तो हो सकता है न. गुजारे लायक ही उस के पास जाओ. एक जायज और सम्मानजनक दूरी रखो. जितना कम वास्ता पड़ेगा उतनी कम तकलीफ होगी.’’

‘‘यदि रिश्ता ही ऐसा हो कि दूरी रखना संभव न हो…’’

‘‘तो उसे स्वीकार कर लो. उस इनसान की वजह से दुखी होना ही छोड़ दो. उस के सामने चिकने घड़े बन जाओ.’’

‘‘तुम्हारा मतलब है ढीठ बन जाओ, क्योंकि तुम्हें अपने मन की शांति के साथ जीना है…इस के लिए क्या बदतमीज ही बन जाना पड़ेगा.’’

‘‘बदतमीज और ढीठ बनने को कौन कह रहा है. उस इनसान को एक सीमा तक नकार दो. अपना दायित्व निभाते रहो. एक उचित दूरी रख कर शांति से रहा जा सकता है.’’

‘‘एक स्वार्थी इनसान के साथ शांति से कैसे रहना?’’

‘‘स्वार्थी इनसान तो हर पल अपनी आग में जलता ही रहता है. कम से कम हम उसे नकार कर अपनी जान तो बचा लें, उस की सोच का प्रभाव हम पर क्यों हो. हम उसे बदल नहीं सकते. उसे कुदरत ने ऐसा ही बनाया है तो क्यों उसे बदलने की कोशिश करें. हम भी इनसान हैं यार…क्यों बिना वजह औरों की गलती की सजा भोगें.

‘‘मेरे बड़े भाई साहब को ही देख लो, सारी उम्र उन्होंने पिताजी की शराफत और कमजोरी का फायदा उठाया और उन की धनसंपदा पर ऐश किया. हम घर से बाहर हैं नौकरी पर. जितनी चादर थी उतने ही पैर पसारे. भाई साहब की तरह शानोशौकत में रहते तो गुजारा ही न चलता. मैं ने कभी पिता से कुछ नहीं मांगा.

‘‘इन दिनों भाई साहब नाराज चल रहे हैं. सारी जायदाद बेच कर खा चुके हैं. मुझ से मदद चाहते हैं. अब तुम्हीं बताओ, मैं उन की मदद कैसे करूं? अपनी मौत का इंतजार करता मैं उस भाई की सहायता कैसे करूं जिस ने सदा मुझे बेवकूफ बनाया और समझा भी. जिस के पैर सदा चादर से बाहर रहे, क्या मैं भी उस भाई के लिए नंगा हो जाऊं.

‘‘सारी उम्र मैं सादगी में जिआ, इसीलिए न कि कभी किसी के आगे हाथ न फैलाना पडे़े…तो क्या उन की मदद कर मैं भी सड़क पर आ जाऊं. सो नकार दिया है मैं ने उन की नाराजगी को. नहीं तो न सही. वह मुझे मिलने नहीं आते न आएं, मैं क्यों अपने मन को जलाऊं. मैं दुखी नहीं होता क्योंकि मैं जानता हूं मेरी सामर्थ्य से बाहर है उन की मदद करना. 3-3 बिगड़े बेटों के पिता हैं वह. परिवार में 4 जन हैं कमाने वाले और मैं अकेला और बीमार. क्या मुझ से मदद मांगना उन्हें शोभा देता है? स्वार्थ की पराकाष्ठा नहीं है यह तो और क्या है?

‘‘कहते हैं मैं सौरभ से रुपए मांग कर उन्हें दे दूं. तुम्हीं बताओ, विजय, मैं सौरभ से भी ऐसी आशा क्यों करूं कि वह उस रिश्तेदार का पेट भरे जिस का पेट करोड़ों हजम कर के भी नहीं भरा. अरे, हम बापबेटे कोई इतने बड़े पैसे वाले तो हैं नहीं जो कहीं से लाखों निकाल कर उन्हें दे देंगे.’’

स्तब्ध रह गया मैं. मेरा मित्र जरा सा परेशान हो गया अपनी सुनातेसुनाते. वास्तव में हैरानी थी मुझे.

‘‘मैं ने हाथ जोड़ कर माफी मांगी ली भाई साहब से. कहते हैं मैं मर जाऊंगा तो भी नहीं आएंगे. अब क्या करूं मैं? न आएं, अब मरने से पहले उन की मदद कर मैं अपना परिवार तो सड़क पर लाने से रहा…और मरने के बाद कौन आया कौन नहीं मेरी बला से. मैं देखने तो नहीं आऊंगा कि मेरे मरने पर कौन रोया कौन नहीं.’’

मित्र का हाथ अपनी हथेली में भींच लिया मैं ने. क्या गलत कह रहा है मेरा मित्र. भाई का स्वार्थ वह कहां तक ढोए और क्यों. सदा सादगी में रहा मेरा यह मित्र. लगभग 4-5 साल हम एकदूसरे के पड़ोसी रहे हैं. उन की पत्नी घर का एकएक काम अपने हाथ से करती थीं. कोई फुजूलखर्ची नहीं, कोई शानोशौकत नहीं. भाई साहब अकसर परिवार सहित तब आते थे जब जहाज पकड़ना होता था. कभी गोआ के लिए कभी ऊटी के लिए.

दिल्ली पालम एअरपोर्ट से वह हर साल उड़ानें भरते. हमें हैरानी होती थी, इन के पास इतने पैसे कहां से आते हैं. दूसरा भाई इतना सादा और हम जैसा ही मध्यवर्गीय, जिस की तनख्वाह 20 तारीख को ही आखिरी सांसें लेने लगती है. सच है, जो इनसान औरों के बल पर ऐश करता रहा उसे एक दिन तो जमीन पर आना ही था. और आया भी ऐसा कि उसी से मदद भी मांग रहा है जिस का अधिकार भी उस ने छोड़ा नहीं.

‘‘यह नरक नहीं तो और क्या है? मैं उन का सगा भाई हूं और मेरा स्नेह भी उन्हें दरकार नहीं. मेरा बेटा उन का सम्मान नहीं करता. मेरी पत्नी भी उन की तरफ पीठ कर लेती है. मेरे बाद सब समाप्त हो जाएगा, जानता हूं. कंगाल पिता का साथ बेटे भी कब तक देंगे. कल जिस इनसान ने सब को जूती के नीचे रखा आज उसी की ही जीवन शैली ने उसे कहां ला पटका. मेरे हाथ खड़े हैं, मैं जहां कल था आज भी वहीं हूं. न कल हवा में उड़ता था और न ही आज उड़ सकता हूं…आज तो खैर उड़ने का वक्त भी नहीं बचा.’’

कुछ छू गया मन को. मृत्यु की आंखों में हर पल झांकने वाला मेरा मित्र अपने जीवन का निचोड़ मेरे सामने परोस रहा था. सोम के शब्द याद आने लगे मुझे. हर इनसान का अपनाअपना सच होता है लेकिन कोई सच ऐसा भी होता है जो लगभग सब पर लागू होता है. जमीन से टूटा इनसान जब जमीन पर गिरता है. तब वह औरों पर दोष लगाता है. सदा अपना ही हित सोचने वाला जब सब से कट जाता है तब उन रिश्तों को कोसता है जिन का इस्तेमाल उस ने सदा अपने फायदे के लिए किया. रिश्तों में आज हम जो भी बीज डाल देंगे उसी का फल तो कल खाना पडे़गा…फिर पछताना कैसा और किसी पर दोषारोपण भी क्यों करना.

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‘‘मैं तो समझता हूं वह इनसान नसीब वाला है जो अपना मन किसी के आगे खोल कर रख सकता है और ऐसा वही कर पाएगा जिस के मन में छिपाने जैसा कुछ नहीं. सीधासादा साफसुथरा जीवन जीने वाला इनसान छिपाएगा भी क्या. तुम मुझे जानते हो, विश्वास कर सकते हो. मैं जो भी इस पल कह रहा हूं सच होगा क्योंकि अंदर भी वही है जो बाहर है.’’

मैं उस के चेहरे की तृप्त और मीठी मुसकान देख कर सहज अनुमान लगा सकता था कि वह अपने जीवन से नाराज नहीं है. उस का सादा सा घर जहां जरूरत का सारा सामान है, वही उस का साम्राज्य है. वैभव से सुख नहीं मिलता, इस का जीताजागता उदाहरण मेरे समक्ष था. भाभी के तन पर सादे से कपड़े और माथे पर कोई बल नहीं, कोई खीज या कोई संताप नहीं. सुखदुख हमारे ही भीतर है. हमारे ही मन और दिमाग की उपज.

सामर्थ्य के अनुसार ही इनसान चाह करे और जो मिला उसी को कुदरत का प्रसाद समझ कर ग्रहण करे इसी में सुख है. नहीं तो इच्छाओं की राह तो हमारे जीवन से भी कहीं ज्यादा लंबी है. दुखी होने को हजार बहाने हैं हमारे पास. जब चाहो दुखी और परेशान हो लो. अपने ही हाथ में तो है सब.

‘‘हमारी हर भावना ऐसी होनी चाहिए जो पारदर्शी हो. पर ऐसा होता नहीं. हमारे मन में कुछ होता है होंठोें पर कुछ. सामने वाले से बात करते हुए अकसर हम बडे़ अच्छे अभिनेता बन जाते हैं. मन में आग भड़कती है और हम होंठों से फूल बरसाते हैं, क्योंकि वह मुझ से आगे निकल गया. उस का घर मेरे घर से बड़ा हो गया यही तो सब से बड़ा रोना है. अपनी खुशी से खुश होना इनसान को याद ही नहीं रहा.’’

फिर से सोम की कही बातें याद आने लगीं मुझे. उस ने भी तो यही निचोड़ निकाला था उस दिन. हर इनसान अभिनेता बनता जा रहा है, जो शिष्टाचार के नाम पर आप से बात करता है और नपातुला उत्तर ही चाहता है, क्योंकि वास्तव में आप को सुनना उस की इच्छा और चाहत में शामिल ही नहीं होता.

विडंबना भी तो यही है कि आज का इनसान प्यार पाना तो चाहता है लेकिन प्यार करना नहीं, खुश रहना तो चाहता है खुशी देना उसे याद ही नहीं, अपने अधिकार के प्रति तो पूरा जागरूक है पर दूसरे के अधिकार का हनन उस ने कबकब किया उसे पता ही नहीं. अपनी पीड़ा पीड़ा और दूसरे की पीड़ा तमाशा, अपना खून खून दूसरे का खून पानी. कहीं कोई कमी नहीं फिर भी एक अंधी दौड़ में शामिल है आज का आदमी. थक जाता है, अवसाद में चला जाता है, जो पास है उस का सुख लेना भी आखिर क्यों भूल गया है आज का इनसान.

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एयरपोर्ट नौकरी के नाम पर ठगी

एक तरफ जहां तकनीक ने लोगों को सुविधाओं से संपन्न कर दिया है वहीं दूसरी ओर अपराधों को भी इस तकनीक ने कुछ कम बढ़ावा नहीं दिया है. इन अपराधों में चोरी और ठगी के मामले भी कुछ कम नहीं हैं. आजकल नौकरी देनेदिलाने के नाम पर खूब ठगी की जा रही है.

नौकरी की ठगी का शिकार अत्यधिक युवावर्ग होता है जिसे नौकरी की तलाश होती है. नौकरी की ठगी एयरलाइंस में भी नौकरी देने के नाम पर की जा रही है. यह ठगी 1,500 से 20,000 रुपए के बीच हो सकती है, जिस के कई उदाहरण सामने आ रहे हैं.

जनवरी 2018

एयरलाइंस में नौकरी करने की इच्छा रखने वाले कुछ युवाओं को एयरइंडिया के नाम से ईमेल मिला. इस ईमेल में लिखा था कि कंपनी ने इन का बायोडाटा सलैक्ट कर लिया है और इन्हें औनलाइन इंटरव्यू देना होगा. ईमेल में यह भी लिखा था कि इन प्रतिभागियों को 9,600 रुपए की रिफंडेबल रकम जमा करनी है जो उन के इंटरव्यू प्रोसेस, मेनटेनैंस, कुरियर आदि के लिए इस्तेमाल की जाएगी और कुछ समय बाद वापस कर दी जाएगी.

इस रकम को देख कर कुछ युवाओं के कान खड़े हुए परंतु कुछ इस ठगी का शिकार हो गए. बहरहाल, इन ठगों को इस से फर्क नहीं पड़ा लेकिन एयरइंडिया द्वारा इस तरह के सभी ईमेल्स को फ्रौड करार दे दिया गया.

एयरलाइंस द्वारा किसी भी प्रतिभागी को बिना किसी एप्लीकेशन प्राप्ति के ईमेल नहीं भेजे जाते. सभी एयरलाइंस किसी भी तरह के चयनांकन में कोई रकम नहीं मांगती. यदि व्यक्ति के पास किसी तरह का ईमेल आए और उसे फीस या सेलैक्शन के नाम पर पैसे मांगे जाएं तो समझ लीजिए यह फ्रौड है.

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मार्च 2017

अखबार के क्लासीफाइड सैक्शन में एक विज्ञापन छपा जिस पर लिखा था ‘ग्रेजुएट लड़के और लड़कियों के लिए एयरपोेर्ट में नौकरी.’ इस विज्ञापन में साफ शब्दों में लिखा था कि किसी तरह का इंटरव्यू नहीं होगा. इस विज्ञापन को पढ़ लोगों ने नीचे दिए नंबर पर फोन किया तो एक महिला ने दूसरी तरफ से बात की और आवेदक को 1,500 की रकम जौब प्रोसेसिंग के नाम पर जमा करने के लिए कहा. अकाउंट किसी पूजा रावत के नाम पर था जो नारायणा विहार, दिल्ली के पंजाब नैशनल बैंक में था.

इन आवेदकों में एक आवेदक अंबाला की मीनू भी थी. मीनू ने 1,500 रुपए इस आकउंट में जमा करा दिए तो उन्हें 2 दिन बाद एयरपोर्ट अथौरिटी औफ इंडिया के नाम से एक अपौइंटमैंट लेटर आया. इस लेटर में लिखा था कि उन्हें सिक्योरिटी एग्रीमैंट फीस के नाम पर 15,000 रुपए जमा कराने हैं. नौकरी असल में फ्रौड थी. इस का पता मीनू को समय रहते चल गया. परंतु 1,500 रुपए न जाने कितने ही आवेदकों ने इस फ्रौड अकाउंट में डलवाए होंगे.

जब इस तरह की घटनाओं की शिकायत एयरपोर्ट अथौरिटी को मिली तो डायरैक्टर द्वारा पुष्टि की गई कि एयरपोर्ट अथौरिटी द्वारा किसी प्रकार का विज्ञापन नहीं दिया गया.

एयरलाइंस द्वारा यदि कोई विज्ञापन दिया भी जाता है तो वह क्लासीफाइड सैक्शन में नहीं होता. यदि कोई ईमेल लेटर भेजा भी जाता है तो वह एयरपोर्ट अथौरिटी के नाम से होगा न कि किसी व्यक्ति के नाम पर.

एयरलाइंस द्वारा इंटरव्यू की प्रक्रिया अनिवार्य होती है. इंटरव्यू के बिना एयरलाइंस प्रतिभागियों को नौकरी नहीं देती. एयरलाइंस की नौकरी के विज्ञापनों में आवेदन जमा करने की आखिरी तारीख हमेशा लिखी होती है.

इन बातों का रखें ध्यान

एयरलाइंस जिन लोगों की भरती करती है वे पढ़ेलिखे व ट्रेनिंग प्राप्त होते हैं. यदि किसी विज्ञापन में यह लिखा हो कि 10वीं व 12वीं पास छात्रों के लिए केबिन क्रू या एयरहोस्टैस की नौकरी है तो समझ जाइए कि यह फ्रौड है और इस से सावधान रहिए.

यदि आप किसी एयरलाइंस के नाम से किसी तरह का ईमेल प्राप्त करते हैं, तो उस एयरलाइन की मुख्य वैबसाइट पर जा कर उस ईमेल की पुष्टि करें.

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एयरपोर्ट अथौरिटी औफ इंडिया के नाम से यदि किसी वैबसाइट या नौकरी पोर्टल पर कोई विज्ञापन हो तो संभवतया वह फ्रौड है क्योंकि एयरपोर्ट अथौरिटी द्वारा केवल उस की खुद की वैबसाइट पर ही नौकरी की पोस्ट डाली जाती हैं.

फ्रौड नौकरियों को पहचानने का सब से अच्छा तरीका यह है कि आप पूछें कि उन्होंने (उस एयरलाइंस) ने आप से किस आधार पर संपर्क किया है. यदि वे यह कहें कि उन्होंने आप का बायोडाटा वैबसाइट से लिया है तो यह फ्रौड है. एयरलाइंस इस तरह से किसी को कौल नहीं करतीं. उन के पास आवेदकों की कमी नहीं जो वे आप को ढूंढ़ कर संपर्क करें.

आप को इंटरव्यू का स्थान यदि होटल या कोई प्राइवेट फर्म बताया जाए तो इस का अर्थ है कि वे ठग हैं क्योंकि एयरलाइंस हमेशा अपनी कंपनी में ही इंटरव्यू रखती हैं.

जब आप को ज्ञात हो जाए कि जिस व्यक्ति ने आप से संपर्क किया है वह फ्रौड है तो बिना सोचविचार किए जल्द से जल्द पुलिस को इस की सूचना दें. इस से दूसरे व्यक्ति भी फ्रौड का शिकार होने से बच जाएंगे.

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राजनीति में युवा हैं कहां

गुजरात के सुरेंद्र नगर में एक रैली को संबोधित कर रहे युवा कांग्रेसी नेता हार्दिक पटेल को एक शख्स ने जो जोरदार थप्पड़ मारा उस की गूंज उतनी सुनाई नहीं दी जितनी कि सुनाई देनी चाहिए थी. आरोपी भले ही इस की वजहें कुछ भी गिनाता रहे पर हकीकत में यह थप्पड़ उस मानसिकता का प्रतीक था जो अपने दम पर राजनीति में जगह बना रहे पिछड़े और दलित युवाओं को हतोत्साहित करने का कोई मौका नहीं छोड़ती.

राजनीति में युवाओं को जाति और धर्म के नाम पर न बांटे जाने की कोई ठोस या तार्किक वजह है भी नहीं. यह कहने भर की बात है कि हमें युवाओं को इस परंपरागत तरीके से नहीं देखना चाहिए.

हकीकत तो यह है कि धर्म का अनुसरण करती राजनीति भी युवाओं को इसी नजरिए से देखती और बांटती रही है और अगर ऐसा नहीं होता तो मौजूदा आम चुनावों में युवा उम्मीदवारों की संख्या सभी प्रमुख दलों की ओर से 250 से कम न होती. देश में युवा मतदाताओं की संख्या कोई 60 करोड़ है लेकिन उन का प्रतिनिधित्व वृद्ध लोग कर रहे हैं.

युवाओं की चुनौती

राजनीति में युवाओं की भागीदारी को ले कर बड़ीबड़ी बातें अकसर हर किसी मंच से होती रहती हैं लेकिन कोई दल उन्हें प्रतिनिधित्व का मौका नहीं देता क्योंकि उन की नजर में युवा वोट भर हैं. दिक्कत तो यह है कि खुद युवा भी अपनी तरफ से कोई पहल नहीं करते. सियासी दल उन का इस्तेमाल भीड़ और ट्रौलिंग के लिए करते रहते हैं. दूसरे भारतीय परिवारों में भी राजनीति को ले कर एक पूर्वाग्रह है कि इस में वही लोग जाते हैं जो कुछ और नहीं कर सकते और राजनीति में कोई कैरियर या भविष्य नहीं है.

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हालांकि यह मिथक अब धीरेधीरे टूट रहा है लेकिन लगता नहीं कि इस के बाद भी राजनीति में युवाओं को वह जगह और सम्मान मिल पाएगा जिस के कि वे आबादी के लिहाज से हकदार हैं.

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में युवाओं ने बढ़चढ़ कर मतदान किया था तो इस की वजह मशहूर समाजसेवी अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन था जिस में देशभर के युवाओं ने शिद्दत से शिरकत की थी. इस के तुरंत बाद भाजपा से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने युवाओं की कमजोर नब्ज पकड़ते हुए हर साल 2 करोड़ नौकरियों का वादा किया तो युवा उन के भी झांसे में आ गए और जातपांत व धर्म को दरकिनार करते उन्हें चुना.

2014 के लोकसभा चुनाव में नए युवा मतदाताओं की तादाद 11 करोड़ 72 लाख थी. नरेंद्र मोदी रोजगार के अपने वादे पर खरे नहीं उतर पाए, नई नौकरियां या रोजगार के मौके पैदा करना तो दूर की बात है, नोटबंदी और जीएसटी ने युवाओं की लगी लगाई नौकरियां छीन लीं.

अब भी नरेंद्र मोदी युवाओं को छल ही रहे हैं. वे अब नए यानी पहली बार वोट करने जा रहे युवाओं से कह रहे हैं कि वे अपना पहला वोट बालाकोट एयर स्ट्राइक के मद्देनजर पुलवामा के शहीदों के नाम करें यानी सरकार की इस कथित उपलब्धि, जिस का कोई पुख्ता सुबूत तक नहीं है, को सैल्यूट ठोकते भाजपा को फिर चुन लें.

युवाओं में देशभक्ति का स्वाभाविक जज्बा होता है जिसे भुनाने उन से यह भावुक अपील उन्होंने की तो चुनाव आयोग ने इस पर दिखावे की सख्ती दिखाई तो इस के बाद नरेंद्र मोदी ने इस बात को दोहराया नहीं क्योंकि युवाओं को उन का 2014 का वादा और उस के बाद के हालात भी नजर आने लगे थे.

मौजूदा चुनाव युवाओं के लिहाज से बेहद अहम हैं क्योंकि इस बार नए युवा वोटरों की तादाद लगभग 15 करोड़ है. जाहिर है ये युवा जिस तरफ झुक जाएंगे उस के लिए दिल्ली की राह आसान हो जाएगी. लेकिन युवाओं की बेरुखी और खामोशी से सभी पार्टियां हलकान हैं और इस बार लुभावने वादे नहीं कर रहीं क्योंकि दांव उलटा भी पड़ सकता है.

युवा राजनीति से नाउम्मीद हो चला है तो इस की अपनी वजहें भी हैं जिन में सब्जबाग दिखा कर पार्टियों का वादों से मुकर जाना खास है. अब यह 23 मई के नतीजे बताएंगे कि युवाओं ने किस के बटन को दबाया. लेकिन राजनीति में युवा क्यों नहीं हैं, इस पर गौर करना उस से भी ज्यादा जरूरी है.

राजनीति में भागीदारी

राजनीति एक उद्योग की तरह है. इस में जाना कैसे है, यह अधिकतर युवाओं को नहीं मालूम रहता और जिन्हें मालूम रहता है वही राजनीति में दिखते हैं और ये 5-6 सक्रिय युवा ही राजनीति चमकाते हैं.

देश में कम हैरत की बात नहीं कि अप्रत्यक्ष रूप से सभी युवा राजनीति से जुड़े रहते हैं लेकिन उन की दिलचस्पी राजनेताओं को कोसने व गाली देने में ज्यादा रहती हैं.

ये युवा मानते हैं कि उन की और देश की दुर्दशा के जिम्मेदार सिर्फ राजनेता ही होते हैं जो ऊंचे मुकाम पर पहुंचने के बाद भ्रष्टाचार व घोटाले करते देश को दीमक की तरह चाटते हैं और इन का कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाता. ये युवा अकसर ख्बाबों और खयालों में सिस्टम को सुधारते रहते हैं, लेकिन राजनीति में सीधे नहीं आते.

राजनीति में युवाओं की इस निष्क्त्रिय सी भागीदारी पर अकसर परिवारवाद को दोषी ठहराया जाता है, जबकि यह पूरा सच नहीं है. अरविंद केजरीवाल कोई पारिवारिक राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले या पेशेवर राजनेता नहीं हैं और न ही उन्होंने कभी राजनीति में आने की बात सोची थी.

कहने का मतलब यह नहीं कि वे कोई ऐक्सिडैंटल नेता हैं बल्कि यह है कि उन्होंने अच्छीखासी नौकरी छोड़ कर भ्रष्ट सिस्टम को सुधारने का बीड़ा उठाया और उस में कामयाब भी हो रहे हैं. दिल्ली के विकास की मिसाल अब हर कहीं दी जाने लगी है जिस से एक उम्मीद तो जागती है कि अगर युवा राजनीति में आएं तो काफी कुछ कर सकते हैं.

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अन्ना हजारे के आंदोलन की देन अरविंद केजरीवाल के सफल होने के बाद कई उच्च शिक्षण संस्थानों के छात्रों ने राजनीति में आने की इच्छा जताई थी. वे नहीं आए, यह और बात है लेकिन एक और बात उन्होंने यह सीखी थी कि अगर आप अपने दम पर राजनीति करते हैं तो तरहतरह से आप को परेशान किया जाएगा.

परीक्षा की घड़ी

बिहार की बेगुसराय सीट से कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर भाजपाई दिग्गज गिरिराज सिंह को कड़ी टक्कर दे रहे छात्र नेता कन्हैया कुमार के समर्थन में देशभर के युवा हैं और कई सैलिब्रिटीज उन का प्रचार करने बेगुसराय पहुंच भी रहे हैं लेकिन इस के बाद भी चुनावी लिहाज से कन्हैया कुमार की जीत की गारंटी नहीं है क्योंकि उन की इमेज एक ऐसे नेता की गढ़ी जा रही है जो वामपंथी है और हिंदू धर्म का दुश्मन है.

अच्छी बात यह है कि कन्हैया कुमार पर इस दुष्प्रचार का कोई खास फर्क नहीं पड़ रहा है और देशभर के धर्मनिरपेक्ष युवा उन्हें समर्थन व शुभकामनाएं भेज रहे हैं. गौरतलब है कि उन का भी विरोध देशभर में भगवा खेमा करता रहा है. वे जहां भी गए वहां उन्हें घेरा गया और ये घेरने वाले भी युवा ही थे.

कट्टरपंथी वैचारिक विरोध नहीं कर पाते, तो थप्पड़ मारते हैं ,जूते चलाते हैं, काले झंडे दिखाते हैं और भाषण नहीं देने देते. विरोध के ये घटिया और खतरनाक तरीके भी युवाओं को राजनीति में आने से डराते हैं. यानी उन की भूमिका वोट देने तक में ही समेट कर रखने की साजिश परवान चढ़ रही है बावजूद इस सच के कि अगले साल यानी 2020 में देश की 65 फीसदी आबादी 35 साल से कम युवाओं की होगी और हम सब से युवा राष्ट्र होंगे.

युवाओं की उदासीनता

औक्सफोर्ड डिक्शनरी द्वारा साल 2017 में यूथक्वेक को वर्ड औफ द ईयर घोषित किया गया था लेकिन यह क्वेक देश की राजनीति में कहीं नजर नहीं आ रहा. बमुश्किल 10 युवा उम्मीदवार भी प्रमुख दलों भाजपा और कांग्रेस ने चुनाव में नहीं उतारे हैं लेकिन दरियां और कुरसियां उठाने व रखने में उन्हीं का इस्तेमाल किया जा रहा है. अगर यही युवा शक्ति का सम्मान है तो खुद युवाओं को इसे दूर से प्रणाम कर लेना चाहिए.

इस स्थिति पर सीएसडीएस और लोकनीति के सर्वे पर नजर डालें तो देश के 46 फीसदी युवा राजनीति में किसी भी तरह की दिलचस्पी नहीं रखते हैं और 75 फीसदी युवा किसी भी तरह की राजनीतिक गतिविधियों में शामिल नहीं होते हैं. इस सर्वे के मुताबिक, साल 2013 के बाद से विरोधप्रदर्शनों में छात्रों की भागीदारी में कमी आई है. 2013 में 24 फीसदी छात्र विरोध प्रदर्शनों में शामिल होते थे जिन की संख्या 2016 आतेआते घट कर 13 फीसदी रह गई थी. चिंताजनक बात यह भी सामने आई कि छात्र संगठनों की गतिविधियों से भी केवल 26 फीसदी छात्र ही वास्ता रखते हैं.

यानी, गड़बड़ी स्कूलकालेज लेवल से भी है जहां छात्रों को केवल पढ़ाई और कैरियर से ही मतलब है, राजनीति उन के लिए दूसरी, तीसरी प्राथमिकता भी नहीं है. इसे बारीकी से समझें तो लगता ऐसा है कि जानबूझ कर रोजगार के मौके कम किए जा रहे हैं जिस से कम से कम युवा राजनीति में आएं और उन का पूरा फोकस नौकरी पर रहे. ऐसे में सोचना लाजिमी है कि राजनीति में युवा हैं ही कहां, और जो हैं वे थप्पड़ खा रहे हैं व दुष्प्रचार का शिकार हो रहे हैं.

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युवाओं का पूरा ध्यान खुद के विकास पर हो, यह एतराज की बात नहीं, एतराज की बात है उन का राजनीति से बिलकुल कट जाना. इस समस्या का एकलौता हल यही दिखता है कि देश के विकास में युवाओं की राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित की जाए. लोकसभा व विधानसभा सहित स्थानीय निकायों में युवाओं के लिए कम से कम 10 फीसदी सीटें आरक्षित की जाएं वरना युवा न केवल राजनीति, बल्कि देश से भी कटते जाएंगे.

आशिक हत्यारा

राजकुमार गौतम अपनी खूबसूरत पत्नी और ढाई वर्षीय बेटी नान्या के साथ 4 महीने पहले ही थाणे जिले के भादवड़ गांव में किराए पर रहने के लिए आया था. इस के पहले वह भिवंडी के अवधा गांव में रहता था. उस समय उस की पत्नी सपना लगभग 7 महीने की गर्भवती थी. दोनों का व्यवहार सरल और मधुर था. यही कारण था कि आसपड़ोस के लोगों में पतिपत्नी जल्दी ही घुलमिल गए थे.

वैसे बड़े महानगरों में रहने वाले लोग अपनी दोहरी जिंदगी जीते हैं. वे जल्दी किसी से घुलतेमिलते नहीं हैं. सभी अपने काम से मतलब रखते हैं. कौन क्या करता है, कैसे रहता है, इस से उन्हें कोई मतलब नहीं रहता. लेकिन राजकुमार और सपना अपने पड़ोसियों से घुलमिल कर रहते थे.

पतिपत्नी का दांपत्य जीवन अच्छी तरह से चल रहा था. करीब 2 महीने बाद सपना ने दूसरी बच्ची को जन्म दिया. बच्ची स्वस्थ और सुंदर थी, जिसे देख दोनों खुश थे.

2 बेटियों के जन्म के बाद दोनों कुछ दिनों तक कोई बच्चा नहीं चाहते थे. लिहाजा सपना ने डिलिवरी के बाद कौपर टी लगवा ली थी. लेकिन कौपर टी लगने के बाद सपना के पेट में अकसर दर्द रहने लगा था. यह दर्द कभीकभी असहनीय हो जाता था, जिस की वजह से वह बेहोश तक हो जाती थी. यह बात उस के पड़ोसियों को भी मालूम थी.

घटना 4 फरवरी, 2019 की है. उस समय दोपहर के लगभग 3 बजे का समय था, जब पड़ोसियों ने राजकुमार की ढाई वर्षीय बेटी नान्या के रोने की आवाज सुनी. रोने की आवाज पिछले 15-20 मिनट से लगातार आ रही थी. पड़ोसी राम गणेश से नहीं रहा गया तो वह राजकुमार के घर पहुंच गए.

उन्होंने घर का जो दृश्य देखा उसे देख कर उन के होश उड़ गए. वह चीखते हुए भाग कर बाहर आ गए और चीखचीख कर आसपड़ोस के लोगों को इकट्ठा कर लिया. लोगों ने चीखने की वजह पूछी तो उन्होंने बताया कि राजकुमार की पत्नी का किसी ने गला काट दिया है.

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यह सुन कर जब लोग राजकुमार के घर में गए तो उस की पत्नी फर्श पर औंधे मुंह पड़ी थी. उस के गले के आसपास खून फैला हुआ था. उस की बेटी नान्या उस के पास बैठी अपने नन्हेनन्हे हाथों से मां को उठाने की कोशिश कर रही थी और दूसरी छोटी नवजात बच्ची बिस्तर पर पड़ी हाथपैर मार रही थी.

इस मार्मिक दृश्य को जिस ने भी देखा था, उस का कलेजा मुंह को आ गया. पड़ोसी दोनों बच्चियों को उठा कर घर से बाहर लाए. उन्होंने फोन कर के इस की जानकारी राजकुमार गौतम को दे दी और बेहोशी की हालत में पड़ी घायल सपना को उठा कर स्थानीय इंदिरा गांधी अस्पताल ले गए, जहां डाक्टरों ने सपना को मृत घोषित कर दिया. अस्पताल ने इस मामले की जानकारी पुलिस को दे दी.

वह इलाका शांतिनगर थाने के अंतर्गत आता था. यह सूचना पीआई किशोर जाधव को मिली तो वह एसआई संदीपन सोनवणे के साथ इंदिरा गांधी अस्पताल पहुंच गए. अस्पताल जा कर उन्होंने डाक्टरों से बात की. इस के अलावा वह उन लोगों से मिले, जो सपना को उपचार के लिए अस्पताल लाए थे.

मृतका के पति राजकुमार ने बताया कि उस की पत्नी की जान कौपर टी के कारण गई है. कौपर टी की वजह से उस की तबीयत ठीक नहीं रहती थी, जिस का इलाज चल रहा था. लेकिन कभीकभी दर्द जब असह्य हो जाता था, तब उस की सहनशक्ति जवाब दे देती थी. ऐसे में वह अपनी जान लेने पर आमादा हो जाती थी.

राजकुमार ने पत्नी की मौत की जो थ्यौरी बताई, वह टीआई के गले नहीं उतरी. उन्होंने यह तो माना कि तकलीफ में कभीकभी इंसान आपा खो बैठता है, लेकिन उस समय सपना की स्थिति ऐसी नहीं थी. डाक्टरों के बयानों से स्पष्ट हो चुका था कि आत्महत्या के लिए कोई अपना गला नहीं काट सकता.

मौत की सही वजह तो पोस्टमार्टम के बाद ही सामने आनी थी. लिहाजा टीआई किशोर जाधव ने सपना की संदिग्ध हालत में हुई मौत की जानकारी डीसीपी और एसीपी को देने के बाद लाश पोस्टमार्टम के लिए उसी अस्पताल की मोर्चरी में भिजवा दी.

अस्पताल की काररवाई निपटाने के बाद पीआई किशोर जाधव सीधे घटनास्थल पर पहुंचे और वहां का बारीकी से निरीक्षण किया. घटनास्थल पर खून लगा एक स्टील का चाकू मिला, जिसे जाब्ते की काररवाई में शामिल कर के उन्होंने जांच के लिए रख लिया.

पीआई ने राजकुमार गौतम के बयानों के आधार पर सपना गौतम की मौत को आत्महत्या के रूप में दर्ज तो कर लिया था, लेकिन मामले की जांच बंद नहीं की थी. उन्हें सपना गौतम की पोस्टमार्टम रिपोर्ट का इंतजार था. किशोर जाधव को लग रहा था कि दाल में कुछ काला है.

पोस्टमार्टम और फोरैंसिक रिपोर्ट आई तो पीआई चौंके. चाकू पर फिंगरप्रिंट मृतका के बजाए किसी और के पाए गए. इस का मतलब था कि सपना की हत्या की गई थी.

मामले की आगे की जांच के लिए पीआई किशोर जाधव ने एक पुलिस टीम बनाई. इस टीम में सहायक इंसपेक्टर (क्राइम), कांस्टेबल रविंद्र चौधरी, गुरुनाथ विशे, अनिल बलबी, किरण पाटिल, विजय कुमार, श्रीकांत पाटिल आदि को शामिल किया गया.

टीम ने जांच शुरू कर दी. अपराध घर के अंदर हुआ था, इस का मतलब था कि अपराधी सपना का नजदीकी ही रहा होगा. इसलिए इंसपेक्टर राजेंद्र मायने ने संदेह के आधार पर सपना के पति राजकुमार गौतम से गहराई से पूछताछ की.

उन्होंने उस की कुंडली भी खंगाली. उस की अंगुलियों के निशान ले कर जांच के लिए भेज दिए गए. लेकिन उस के हाथों के निशानों ने चाकू पर मिले निशानों से मेल नहीं खाया. इस से पुलिस को राजकुमार बेकसूर लगा.

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तब पुलिस ने उस के दोस्तों की जांच की. जांच में पता चला कि राजकुमार का एक दोस्त विकास चौरसिया उस की गैरमौजूदगी में भी उस के घर आता था. विकास पान की एक दुकान पर काम करता था और राजकुमार के गांव का ही रहने वाला था. दोनों के बीच अच्छी दोस्ती थी. पुलिस ने विकास का फोन नंबर सर्विलांस पर लगा दिया और उस की तलाश शुरू कर दी.

वह अपने घर से गायब था. उस की तलाश के लिए पुलिस ने मुखबिर भी लगा दिए. एक मुखबिर की सूचना पर विकास को भिवंडी के सोनाले गांव से हिरासत में ले लिया गया. पुलिस ने विकास से सपना की हत्या के संबंध में पूछताछ की तो वह खुद को बेकसूर बताता रहा. लेकिन सख्ती करने पर उस ने हत्या का जुर्म कबूल कर लिया. उस ने हत्या की जो कहानी बताई, वह चौंकाने वाली निकली.

25 वर्षीय राजकुमार गौतम उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के गांव कारमियां शुक्ला का रहने वाला था. उस के पिता गौतमराम गांव के एक साधारण किसान थे. गांव में उन की थोड़ी सी काश्तकारी थी, जिस में उन की गृहस्थी की गाड़ी चलती थी.

परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण राजकुमार गौतम की कोई खास शिक्षादीक्षा नहीं हो पाई थी. जब वह थोड़ा समझदार हुआ तो उस ने रोजीरोटी के लिए मुंबई की राह पकड़ ली. उस के गांव के कई लोग रहते थे. मुंबई से करीब सौ किलोमीटर दूर तहसील भिवंडी के अवधा गांव में उन्हीं के साथ रह कर वह छोटामोटा काम करने लगा.

भिवंडी का अवधा गांव पावरलूम कपड़ों और कारखानों का गढ़ माना जाता है. राजकुमार गौतम ने भी पावरलूम कारखाने में काम कर कपड़ों की बुनाई का काम सीखा और मेहनत से काम करने लगा. जब वह कमाने लगा तो परिवार वालों ने उस की शादी पड़ोस के ही गांव की लड़की सपना से कर दी. यह सन 2016 की बात है.

राजकुमार गौतम खूबसूरत सपना से शादी कर के बहुत खुश था. वह शादी के कुछ दिनों बाद ही सपना को अपने साथ मुंबई ले गया. किराए का कमरा ले कर वह पत्नी के साथ रहने लगा. शादी के करीब डेढ़ साल बाद सपना ने एक बेटी को जन्म दिया, जिस का नाम नान्या रखा गया.

इसी दौरान राजकुमार की विकास चौरसिया से मुलाकात हो गई. विकास चौरसिया पान की एक दुकान पर काम करता था. दोनों एक ही गांव के रहने वाले थे, इसलिए उन के बीच जल्द ही दोस्ती हो गई.

20 वर्षीय विकास एक महत्त्वाकांक्षी युवक था. वह जो भी कमाता था, अपने खानपान और शौक पर खर्च करता था. राजकुमार गौतम ने जिगरी दोस्त होने की वजह से विकास की मुलाकात अपनी पत्नी से भी करवा दी थी. राजकुमार ने पत्नी के सामने विकास की काफी तारीफ की थी.

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पहली मुलाकात में ही विकास सपना का दीवाना हो गया था. उस ने अपनी बेटी नान्या का जन्मदिन मनाया तो विकास चौरसिया को खासतौर पर अपने घर बुलाया. तब राजकुमार और सपना ने विकास की काफी आवभगत की थी. इस आवभगत में राजकुमार गौतम की सजीधजी बीवी सपना विकास के दिल में उतर गई.

वह जब तक राजकुमार के घर में रहा, उस की निगाहें सपना पर ही घूमती रहीं. जन्मदिन की पार्टी खत्म होने के बाद विकास चौरसिया सब से बाद में अपने घर गया था. उस समय उस ने नान्या को एक महंगा गिफ्ट दिया था. यह सब उस ने सपना को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए किया था.

सपना की छवि विकास की नसनस और आंखों में कुछ इस तरह से समा गई थी कि उस का सारा सुखचैन छिन गया. उस का मन किसी काम में नहीं लग रहा था. सोतेजागते उसे बस सपना ही दिख रही थी. वह उस का स्पर्श पाने के लिए तड़पने लगा था.

राजकुमार को अपनी दोस्ती पर पूरा विश्वास था. लेकिन विकास दोस्ती में दगा करने की फिराक में था. वह तो बस उस की पत्नी सपना का दीवाना था. वह सपना का सामीप्य पाने के लिए मौके की तलाश में रहने लगा था.

इसीलिए मौका देख कर वह राजकुमार के साथ चाय पीने के बहाने अकसर उस के घर जाने लगा था. वह सपना के हाथों की बनी चाय की जम कर तारीफ करता था. औरत को और क्या चाहिए. विकास चौरसिया को यह बात अच्छी तरह मालूम थी कि औरत अपनी तारीफ और प्यार की भूखी होती है. जो विकास ने सोचा था, वैसा ही कुछ हुआ भी. इस तरह दोनों में बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया.

धीरेधीरे दोनों एकदूसरे के काफी करीब आ गए थे. विकास बातचीत के बीच कभीकभी सपना से भद्दा मजाक भी कर लेता था, जिसे सुन कर सपना का चेहरा लाल हो जाता था और वह उस से नजरें चुरा लेती थी.

कुछ दिनों तक तो विकास राजकुमार के साथ ही उस के घर जाता था, लेकिन बाद में वह राजकुमार के घर पर अकेला भी आनेजाने लगा. वह चोरीछिपे सपना के लिए कीमती उपहार भी ले कर जाता था. उपहारों और अपनी लच्छेदार बातों में उस ने सपना को कुछ इस तरह उलझाया कि वह अपने आप को रोक नहीं पाई और परकटे पंछी की तरह उस की गोदी में आ गिरी. सपना को अपनी बांहों में पा कर विकास चौरसिया के मन की मुराद पूरी हो गई.

एक बार जब मर्यादा की कडि़यां बिखरीं तो बिखरती ही चली गईं. अब स्थिति ऐसी हो गई थी कि बिना एकदूसरे को देखे दोनों को चैन नहीं मिलता था. उन्हें जब भी मौका मिलता, दोनों अपनी हसरतें पूरी कर लेते. सपना और विकास चौरसिया का यह खेल बड़े आराम से लगभग एक साल तक चला. इस बीच सपना फिर से गर्भवती हो गई.

पहली बार सपना जब गर्भवती हुई थी तो वह अपनी डिलिवरी के लिए अपने गांव चली गई थी. इस बार सपना ने गांव न जा कर अपनी डिलिवरी शहर में ही करवाने का फैसला कर लिया था.

जब सपना की डिलिवरी के 3 महीने शेष रह गए तो राजकुमार अवधा गांव का कमरा खाली कर भादवड़ गांव पहुंच गया और भिवंडी के इंदिरा गांधी अस्पताल में सपना की डिलिवरी करवाई. डिलिवरी के बाद सपना ने पति की सहमति से कौपर टी लगवा ली. यह कौपर टी सपना को रास नहीं आई. इसे लगवाने के बाद सपना को दूसरे तरह की समस्याएं आने लगीं.

सपना की डिलिवरी के 25 दिनों बाद एक दिन दोपहर 2 बजे विकास चौरसिया मौका देख कर राजकुमार गौतम के घर पहुंच गया. उस समय सपना की बेटी नान्या घर के दरवाजे पर खेल रही थी. घर में घुसते ही उस ने दरवाजा बंद कर लिया. उस समय सपना अपने बिस्तर पर लेटी अपनी छोटी बेटी को दूध पिला रही थी. विकास के अचानक आ जाने से सपना उठ कर बैठ गई.

इस से पहले कि सपना कुछ कह पाती विकास ने उस के बगल में बैठ कर बच्ची का माथा चूमा और सपना को बांहों में लेते हुए उस से शारीरिक संबंध बनाने के लिए जिद करने लगा, जिस के लिए सपना तैयार नहीं थी.

सपना ने विकास को काफी समझाने की कोशिश की और कहा, ‘‘देखो, अभी मैं उस स्थिति में नहीं हुई हूं कि तुम्हारी यह इच्छा पूरी कर सकूं. आज तक मैं ने कभी तुम्हारी बातों से कभी इनकार नहीं किया है. आज मैं बीमार हूं, ऊपर से कौपर टीम लगवाई है. अभी तुम जाओ, जब मैं ठीक हो जाऊंगी तो आना.’’

लेकिन वासना के भूखे विकास पर सपना की बातों का कोई असर न हुआ. वह उस के साथ जबरदस्ती करने पर उतारू हो गया और उस पर भूखे भेडि़ए की तरह टूट पड़ा. इस के पहले कि वह अपने मकसद में कामयाब होता, सपना नाराज हो गई और उस ने अपने ऊपर से विकास को नीचे फर्श पर धक्का दे दिया. फिर उठ कर वह उसे अपने घर से बाहर जाने के लिए कहने लगी.

सपना के इस व्यवहार और वासना के उन्माद में वह अपना होश खो बैठा. वह सीधे सपना की किचन में गया और वहां से स्टील का चाकू उठा लाया. उस चाकू से उस ने सपना का गला काट दिया. सपना के गले से खून निकलने लगा और वह फर्श पर गिर पड़ी.

सपना के गले से बहते खून को देख कर विकास चौरसिया की वासना का उन्माद काफूर हो गया. वह डर कर वहां से चुपचाप निकल गया. उस के जाने के बाद दरवाजे पर खेल रही नान्या घर के अंदर आई और मां को उठाने लगी थी. सपना के न उठने पर वह उस से लिपट कर रोने लगी.

विकास चौरसिया से विस्तृत पूछताछ करने के बाद पुलिस ने उसे न्यायालय में पेश कर न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया.

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राजकुमार गौतम को जब यह मालूम पड़ा कि उस की पत्नी का आशिक और हत्यारा और कोई नहीं, बल्कि उस का अपना जिगरी दोस्त था तो उसे इस बात का अफसोस हुआ कि विकास जैसे आस्तीन के सांप को घर बुला कर उस ने कितनी बड़ी गलती की थी.

कथा लिखे जाने तक अभियुक्त विकास चौरसिया थाणे की तलौजा जेल में था. मामले की जांच इंसपेक्टर राजेंद्र मायने कर रहे थे.

मुझे हमेशा अपने वतन से प्यार रहा है: गैवी चहल

पंजाबी सिनेमा में सुपर स्टार माने जा रहे गैवी चहल ने टीवी सीरियल ‘‘मोहे रंग दे’’से करियर की शुरूआत की थी. उसके बाद वह कुछ रियालिटी शो में नजर आए. पर 2012 में गैवी चहल को सलमान खान के साथ फिल्म ‘‘एक था टाइगर’’ में पाकिस्तानी आईएएस एजेंट कैप्टन अबरार का किरदार निभाने का अवसर क्या मिला, उनके करियर में नया मोड़ आ गया. इन दिनों वह अपनी देशभक्तिपूर्ण फिल्म ‘‘ये है इंडिया’’ को लेकर चर्चा में है, जो कि 24 मई को रिलीज होगी.

प्रस्तत है गैवी चहल से हुई एक्सक्लूसिव बातचीत के अंश

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एक वक्त वह था,जब टीवी कलाकारों को फिल्म वाले अछूत की तरह देखते थे.पर अब ऐसा नहीं रहा. आपका अपना अनुभव क्या रहा?

देखिए, आप हर सब्जी में आलू डालेंगे,तो आलू की वैल्यू कम हो जाती है.उसी तरह से टीवी है. टीवी मुफ्त में देखने को मिलता है, तो आप घर में देख सकते हैं. जो कलाकार दर्शक को उसके घर के टीवी में हर दिन मुफ्त में दिख रहा हो, उसके लिए दर्शक तीन सौ रूपए देकर थिएटर में क्यों जाएगा? यही सोच फिल्म वालों की भी रही है. फिल्मकार भी सोचते हैं कि जो चेहरा हर घर में नजर आ रहा है, उसके लिए कोई 300 रूपए की टिकट क्यों देगा? यही लोगों की दिमागी सोच/मेंटालिटी रही है. पर अब धीरे धीरे बदल रही है. अब टीवी से फिल्मों में जाने वालों की संख्या बहुत तेजी से बदल रही है. इन्हें दर्शक फिल्मों में देखना भी पसंद कर रहा है. यानी कि लोगों का नजरिया बदला है. अब टीवी कलाकारों को फिल्मों में भी स्वीकार किया जा रहा है. एक तरह से यह सिस्टम का मसला है. पर अब सिस्टम बदल चुका है. मैने ‘एक था टाइगर’’ के बाद कई हिंदी व पंजाबी फिल्में की. पंजाबी फिल्मों में मुझे सुपर स्टार माना जाता है. अब हिंदी फिल्म ‘‘ये है इंडिया’’ में हीरो बनकर आ रहा हूं.

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फिल्म ‘‘यह है इंडिया’’ है क्या?

यह फिल्म भारत के बारे में है. कहानी का केंद्र एक एनआरआई यानी कि अप्रवासी भारतीय मिकी है, जो कि भारत घूमने आता है और यहां के सिस्टम को देखता है. यह कहानी सुनते सुनते मुझे लगा कि हम सभी अपने देश से लगाव रखते हैं और हम सभी अपने देश के लिए कुछ करना चाहते हैं, तो देश से प्रेम के लिए मुझे यह फिल्म करनी चाहिए. यह लड़का किस तरह भारत में आकर सिस्टम को समझता है और पूरे सिस्टम के खिलाफ अकेले खड़े होकर लड़ाई लड़ता है. इस फिल्म में देश भावना वाली बात है. देश के लिए कुछ करने की बात है.

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फिल्म के अपने किरदार को लेकर क्या कहेंगे?

मैंने इसमें एक अप्रवासी भारतीय लड़के मिकी का किरदार निभाया है. वह अपने माता पिता के साथ इंग्लैंड में रहता है. उसके माता पिता भारतीय ही हैं, पर तीस साल पहले वह इंग्लैंड में जाकर बस गए थे. वह इंग्लैंड में भारत को लेकर जो कुछ सुनता है और किताबों में जो कुछ होता है, उसमें उसे बहुत अंतर नजर आता है, इसलिए वह भारत आकर घूमने का निर्णय लेता हैं.जबकि उसके दोस्त उसे मना करते हैं कि भारत जाकर क्या करोगे? भारत तो गरीबों का देश है. भारत आने के बाद मिकी का साबका किस तरह से तमाम चीजों से पड़ता है और उसे बहुत कुछ समझ में आता है. फिर पोलीटिकली जो कुछ होता है, उसे आप समझ सकेंगे. मिक्की के किरदार के माध्यम से दर्शक भारत की अच्छाई व बुराई सहित हर चीज को देख सकेंगे.

आपने इस फिल्म को देश के कई शहरों में फिल्माया है. शूटिंग के दौरान आप कितना रिलेट कर रहे थे?

हमने इसे लगभग आठ राज्यों के 15 शहरों में इस फिल्म की शूटिंग की है. इससे पहले भी मैं अपना देश भारत काफी घूमा हूं. फिर भी हम दावा नहीं करते कि हमने भारत को अच्छी तरह से देखा है. इसीलिए हमारी फिल्म में संवाद है कि ‘आपने भारत को देखा ही कितना है.’ सच कह तो शूटिंग के दौरान मेरी भी समझ मे आया कि मैंने स्वयं अपने देश को कितना देखा या समझा है? यह अति खूबसूरत देश है. भारत एक ऐसा देश है, जहां आपको एक नहीं कई कल्चर, रहन सहन देखने को मिलते हैं. राजस्थान का कल्चर अलग है. पंजाब का कल्चर अलग है.

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फिल्म ‘‘यह है इंडिया’’ की शूटिंग करने के बाद आपकी सोच में किस तरह का बदलाव आया है?

-मैं तो इस फिल्म से जुड़ने से पहले भी भारत को महान देश मानता रहा हूं. मुझे अपने वतन से प्यार रहा है. मगर इस फिल्म की शूटिंग करते हुए जिस यथार्थ से मेरा साबका पड़ा, उसके बाद तो मेरा अपने वतन के प्रति प्यार काफी बढ़ गया है. अममून हम राह चलते कुछ खा रहे होते हैं और खाली पैकेट या कागज का टुकड़ा सड़क पर फेंक देते हैं, पर अब मैं बहुत सतर्क रहता हूं. हम जा रहे हैं और रात में तेज बारिश के दौरान किसी की कार खराब हो गयी है, तो हम उसकी मदद करने लगते हैं. इस तरह मेरी सोच में इतना बदलाव आया है कि मैं बहुत छोटी छोटी चीजों पर ध्यान देने के अलावा उन पर अमल करने लगा हूं. मेरा मानना है कि इस फिल्म को देखने के बाद लोगों का भारत के प्रति नजरिया बदल जाएगा.

इसके अलावा क्या कर रहे है?

इस साल मेरी तीन पंजाबी फिल्मों के अलावा संजय दत्त के साथ हिंदी फिल्म ‘‘तोरबा’’ रिलीज होगी. इसमें एक अफगानी का किरदार है.

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आपने ‘एक था टाइगर’ में पाकिस्तानी किरदार निभाया था. अब आपने ‘तोरबा’ में भी किसी दूसरे देश के नागरिक का किरदार निभा रहे हैं. क्या कहना चाहेंगे?

सर जी, आपने बहुत अच्छा सवाल किया. आज मैं कलाकार के तौर पर जिस मुकाम पर पहुंचा हूं, उसके पीछे सबसे बड़ी वजह यह है कि सिनेमा मेरा पैशन है. मैं पूरे पैशन के साथ किरदार निभाता हूं. किरदार में खुद को ढालने के लिए आवश्यक तैयारी करता हूं. फिल्म ‘एक था टाइगर’ में मैं पाकिस्तानी आईएएस एजेंट बना था. तो उसके अनुरूप मैंने बौडी लैंग्वेज पकड़ी. पाकिस्तानी किस तरह से बात करते हैं, उसे एडौप्ट की थी. वह एक आईएसआई एजेंट है, तो एक आईएसआई एजेंट किस तरह से काम करेगा, किस तरह से हथियार चलाएगा. किस तरह से गन/बंदूक पकड़ेगा आदि सीखा था. इन सबके बारे में जानकारी हासिल की थी. उसके बाद सेट पर निर्देशक कबीर खान ने काफी मदद की थी.

अब संजय दत्त के साथ फिल्म ‘‘तोरबा’’की है.इसमें मेरा अफगानी किरदार है. अफगानी लोग हिंदी भी बहुत अलग अंदाज में बोलते हैं, तो मैंने अफगानी वेशभूषा अपनाने के साथ साथ उनकी बौडी लैंग्वेज और भाषा को भी पकड़ा.

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क्या अफगानी भाषा को पकड़ने के लिए आपने कोई टीचर रखा?

जी नहीं….हमने कुछ वीडियो देखे. इसके अलावा मुझे दो अफगानी लड़के अफगानी मिल गए, जो कि मूलतः भारतीय थे, पर वहां रहते रहते उस तरह की भाषा बोलने लगे थे. उन्होंने मेरी काफी मदद की.मैंने उन लोगों के साथ लंबी लंबी बातें की.

5 टिप्स: ऐसे करें सही लिपस्टिक का चुनाव

होंठों की सुंदरता बढ़ाने में लिपस्टिक का काफी महत्त्व है. मगर कई महिलाएं लिपस्टिक का सही चुनाव नहीं कर पातीं, जिस का प्रभाव उन के चेहरे पर भी पड़ता है. चलिए जानते हैं, सही लिपस्टिक  का चुनाव कैसे करें.

चुनें रंग स्किन टोन के अनुसार

सबसे अच्छा तरीका है कि कलाई पर उभरी हुई नसों का रंग देखा जाए. यदि नसों का रंग नीला है तो यह कूल स्किन टोन का प्रतीक है और यदि नसों का रंग हरा है स्किन टोन वार्म होती है. कूल स्किन टोन वाली महिलाओं का रंग पेल व्हाइट और व्हाइट होता है जबकि वार्म स्किन टोन वाली महिलाएं व्हीटिश, डस्की और डीप डार्क.

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लिपस्टिक खरीदते वक्त रखें ध्यान

  1. त्वचा के रंग के आधार पर लिपस्टिक खरीदते वक्त कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना बेहद जरूरी है.
  2. हर ब्रांड में एक ही लिपस्टिक के 2-3 कलर टोन आते हैं और यह होंठों के रंग पर निर्भर करता है की कौन सा कलर टोन अच्छा लगेगा.
  3. निचले होंठ के रंग से 2 शेड गहरी लिपस्टिक ही खरीदें. रंग जांचने के लिए लिपस्टिक को निचले होंठ पर लगाएं और ऊपर वाले होंठ के रंग की गहराई से परखें. रंग की गहराई समान होने पर ही लिपस्टिक खरीदें.
  4. लिपस्टिक का सही कलर इफैक्ट देखने के लिए बिना मेकअप ओरिजनल स्किन टोन पर लिपस्टिक लगा कर देखें.
  5. यदि एक साथ कई लिपस्टिक शेड खरीद रही हैं, तो पहले शेड को होंठों से साफ करने के बाद ही दूसरा ट्राय करें.

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न करें ये गलतियां

– ड्रैस के कलर को उभारने वाला लिप शेड लगाएं न की ड्रैस के रंग से मैच करता हुआ.

– तले होंठों पर कभी भी गहरे रंग की लिपस्टिक न लगाएं.

– आंखों पर हैवी मेकअप है तो होंठों को ड्रामैटिक लुक देने से बचें.

बिग बौस 13: खत्म होगा कौमनर्स का कौन्सेप्ट

कलर्स टीवी पर प्रसारित होने वाला रिएलिटी शो ‘बिग बौस’ कंट्रोवर्सियल शोज में से एक है. दरअसल इस शो का पिछला सीजन टीआरपी के मामले में काफी पीछे रहा. ऐसे में बिग बौस के तेरहवें सीजन को हिट बनाने के लिए निर्माता क्या-क्या कर रहे हैं. तो चलिए आपको बता दें, इस सीजन के लिए तैयारियां शुरू कर दी गई है.

मीडिया रिपोर्टस के मुताबिक इस सीजन में कुछ बदलाव भी किए जाएंगे. खबरों की माने तो इस शो के निर्माता कौमनर्स के कौन्सेप्ट को खत्म भी कर सकते हैं. ‘बिग बौस’ के कई सीजन्स में आम आदमी को भी आने का मौका दिया गया. इसके दसवें सीजन में मनवीर गुर्जर विजेता बनें, जो कि एक कौमनर थे.

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आपको बता दें, 10वें सीजन के बाद कौमनर्स वाले कौन्सेप्ट की वजह से ही इस शो की टीआरपी घटने लगी. मसलन ‘बिग बौस’ के पिछले सीजन में तो कई कौमनर्स की पहचान को लेकर सवाल भी किए गए थे. कौमनर्स, सौरभ औरशिवाशीष  की  पहचान को लेकर कई तरह के सवाल भी  उठाए गए. इस वजह से दर्शकों ने निर्माताओं की आलोचना भी की थी.

‘बिग बौस’ के 13वें सीजन में विवेक दहिया, जय भानुशाली और माही विज जैसे सेलिब्रिटी को हिस्सा लेने के लिए औफर दिया गया था,  लेकिन  फिलहाल तीनों कलाकारों ने इस औफर को ठुकरा दिया हैं.

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अवैध संबंध

अवैध संबंध पति के हों या पत्नी के, देरसबेर इन की पोल खुल ही जाती है. इस के बाद नतीजे अपराध के रूप में सामने आते हैं. कह सकते हैं कि इन नतीजों से कभी पत्नी प्रभावित होती है तो कभी पति. यदाकदा प्रेमी या प्रेमिका का नंबर भी आ जाता है. इस कहानी में पति जागीर सिंह को मौत की नींद सोना पड़ा और मंजीत कौर व उस के प्रेमी कुलवंत को…

मनप्रीत कौर सालों के बाद मामा के घर आई थी. गुरप्रीत सिंह और उस की पत्नी ने मनप्रीत की खूब

खातिरदारी की. मामामामी और मनप्रीत के बीच खूब बातें हुईं. बातोंबातों में मनप्रीत ने गुरप्रीत से पूछा,‘‘मामाजी, बड़े मामा जागीर सिंह के क्या हालचाल हैं. उन से मुलाकात होती है या नहीं?’’‘‘नहीं, हम 5 साल पहले मिले थे अनाजमंडी में. जागीर उस समय परेशान भी था और दुखी भी. गले लग कर खूब रोया. उस ने बताया कि भाभी (मंजीत कौर) के किसी कुलवंत सिंह से संबंध हैं और दोनों मिल कर उस की हत्या भी कर सकते हैं.’’

गुरप्रीत ने यह भी बताया कि उस ने जागीर सिंह से कहा था कि वह भाभी का साथ छोड़ कर मेरे साथ मेरे घर में रहे. लेकिन उस ने इनकार कर दिया. वजह वह भी जानता था और मैं भी. उस ने मुझे समझाने के लिए कहा कि वह भाभी को अपने ढंग से संभाल लेगा. बस उस के बाद जागीर सिंह मुझे नहीं मिला.

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‘‘वाह मामा वाह, बड़े मामा ने तुम से अपनी हत्या की आशंका जताई और आप ने 5 साल से उन की खबर तक नहीं ली?’’

‘‘खबर कैसे लेता, भाभी ने तो लड़झगड़ कर घर से निकाल दिया था. मैं उस के घर कैसे जाता? जाता तो गालियां सुननी पड़तीं.’’ गुरमीत ने अपनी स्थिति साफ कर दी.

बात चिंता वाली थी. मनप्रीत ने खुद ही बड़े मामा जागीर सिंह का पता लगाने का निश्चय किया. उस ने मामा के पैतृक गांव से ले कर गुरमीत द्वारा बताई गई संभावित जगह रेलवे बस्ती, गुरु हरसहाय नगर तक पता लगाया. उस की इस छानबीन में जागीर सिंह का तो कोई पता नहीं लगा, पर यह जानकारी जरूर मिल गई कि जागीर सिंह की पत्नी मंजीत कौर रेलवे बस्ती में किसी कुलवंत सिंह नाम के व्यक्ति के साथ रह रही है.

सवाल यह था कि मंजीत कौर अगर किसी दूसरे आदमी के साथ रह रही थी तो जागीर सिंह कहां था? मंजीत ने ये सारी बातें छोटे मामा गुरमीत को बताईं. इन बातों से साफ लग रहा था कि जागीर सिंह के साथ कोई दुखद घटना घट गई थी. सोचविचार कर गुरमीत और मंजीत ने थाना गुरसहाय नगर जा कर इस बारे में पूरी जानकारी थानाप्रभारी रमन कुमार को दी.

बठिंडा (पंजाब) के रहने वाले गुरदेव सिंह के 2 बेटे थे जागीर सिंह और गुरमीत सिंह. उन के पास खेती की कुछ जमीन थी, जिस से जैसेतैसे घर का खर्च चलता था. सालों पहले उन के परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा था. पत्नी के बीमार होने पर उन्हें अपनी जमीन बेचनी पड़ी. इस के बावजूद वह उसे बचा नहीं पाए थे.

पत्नी की मौत के बाद गुरदेव सिंह टूट से गए थे. जैसेतैसे उन्होंने अपने दोनों बेटों की परवरिश की. आज से करीब 15 साल पहले गुरदेव सिंह भी दुनिया छोड़ कर चले गए. पर मरने से पहले गुरदेव सिंह यह सोच कर बड़े बेटे जागीर सिंह का विवाह अपने एक जिगरी दोस्त की बेटी मंजीत कौर के साथ कर गए थे कि वह जिम्मेदारी के साथ उस का घर संभाल लेगी.

मंजीत कौर तेजतर्रार और झगड़ालू किस्म की औरत थी. उस ने घर की जिम्मेदारी तो संभाल ली, लेकिन पति और देवर की कमाई अपने पास रखती थी. दोनों भाई जमींदारों के खेतों में मेहनतमजदूरी कर के जो भी कमा कर लाते, मंजीत कौर के हाथ पर रख देते. लेकिन पत्नी की आदत को देखते हुए जागीर सिंह कुछ पैसे बचा कर रख लेता था.

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इसी बीच जागीर सिंह ने जैसेतैसे अपने छोटे भाई गुरमीत की भी शादी कर दी थी. गुरमीत की शादी के बाद मंजीत कौर और गुरमीत की पत्नी के बीच आए दिन लड़ाईझगड़े होने लगे थे. रोज के क्लेश से दुखी हो कर गुरमीत सिंह अपनी पत्नी को ले कर अलग हो गया. उस के अलग होने के बाद दोनों भाइयों का आपस में मिलना कभीकभार ही हो पाता था. ऐसे ही दोनों भाइयों का जीवनयापन हो रहा था.

समय का चक्र अपनी गति से चलता रहा. इस बीच जागीर सिंह और मंजीत कौर के बीच की दूरियां बढ़ती गईं. उन के घर में हर समय क्लेश रहने लगा था.

जागीर सिंह की समझ में यह नहीं आ रहा था कि अब मंजीत कौर घर में टेंशन क्यों करती है. पहले तो उस के भाई गुरमीत की पत्नी की वजह से वह घर में झगड़ा करती थी, पर अब उसे भी घर से अलग हुए कई साल हो गए थे. फिर एक दिन जागीर सिंह को पत्नी द्वारा घर में कलह रखने का कारण समझ आ गया था.

दरअसल, मंजीत कौर के पड़ोसी गांव जुवाए सिंघवाला निवासी कुलवंत सिंह के साथ गलत संबंध थे. दोनों के बीच के संबंधों के बारे में उसे कई लोगों ने बताया था. लेकिन उसे लोगों की बातों पर विश्वास नहीं हुआ. जब एक दिन उस ने दोनों को अपनी आंखों से देखा और रंगेहाथों पकड़ लिया तो अविश्वास की कोई वजह नहीं बची.

उस दिन वह सिरदर्द होने की वजह से समय से पहले ही काम से घर लौट आया था. तभी उसे पत्नी की सच्चाई पता चली थी. पत्नी की यह करतूत देख कर उसे गहरा आघात लगा.

शोर मचाने पर उस के घर की ही बदनामी होती, इसलिए उस ने पत्नी को समझाना उचित समझा. उस ने उस से कहा, ‘‘मंजीत, तुम जो कर रही हो उस से बदनामी के अलावा कुछ नहीं मिलेगा. समझदारी से काम लो. अब तक जो हुआ, उसे मैं भी भूल जाता हूं और तुम भी यह सब भूल कर आगे से एक नया जीवन शुरू करो.’’

उस समय तो मंजीत कौर ने अपनी गलती मान कर पति से माफी मांग ली, पर उस ने अपने प्रेमी कुलवंत से मिलनाजुलना बंद नहीं किया. बल्कि कुछ समय बाद ही उस ने कुलवंत के साथ मिल कर जागीर सिंह को ही रास्ते से हटाने की योजना बना ली.

मंजीत कौर ने घर में क्लेश कर पति जागीर सिंह को इस बात के लिए राजी कर लिया कि वह गांव वाला घर छोड़ कर गुरुसहाय नगर की रेलवे बस्ती में किराए का मकान ले कर रहे.

मकान बदलने की योजना कुलवंत ने बनाई थी. उसी के कहने पर मंजीत कौर ने यह फैसला लिया था. उस ने जानबूझ कर पति को मकान बदलने के लिए मजबूर किया था. पत्नी की बातों और हावभाव से जागीर सिंह को इस बात की आशंका होने लगी थी कि कहीं जागीर कौर उस की हत्या न करा दे. अचानक उन्हीं दिनों अनाजमंडी में जागीर सिंह की मुलाकात अपने छोटे भाई गुरमीत सिंह से हुई.

दोनों भाई आपस में गले मिल कर बहुत रोए. अपनेअपने मन का गुबार शांत करने के बाद जागीर सिंह ने अपने और मंजीत कौर के रिश्तों के बारे में उसे बताते हुए यह भी शक जताया था कि मंजीत कौर किसी दिन उस की हत्या करा सकती है.

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गुरमीत सिंह ने बड़े भाई से कहा कि घर का माहौल ऐसा है तो उस का मंजीत कौर के साथ रहना ठीक नहीं है. उस ने जागीर सिंह को यह सलाह भी दी कि वह मंजीत कौर को छोड़ दे और बाकी जिंदगी उस के घर आ कर गुजारे. लेकिन जागीर सिंह ने उसे आश्वासन देते हुए कहा, ‘‘तुम चिंता मत करो, मैं मंजीत को समझा कर उसे सीधे रास्ते पर ले आऊंगा.’’

इस बातचीत के बाद दोनों भाई अपनेअपने रास्ते चले गए थे. उस दिन के बाद वे दोनों आपस में फिर कभी नहीं मिले. यह बात सन 2013 के आसपास की है.

गुरमीत सिंह 5 वर्ष पहले अपने भाई से हुई मुलाकात को भूल गया था. एक दिन उस के घर उस के साले बलदेव सिंह की बड़ी बेटी मनप्रीत कौर मिलने के लिए आई और बातोंबातों में उस ने पूछ लिया, ‘‘मामाजी, बड़े मामा जागीर सिंह के क्या हाल हैं और आजकल वह कहां रह रहे हैं?’’

गुरमीत सिंह ने उसे बताया कि करीब 5 साल पहले अनाजमंडी में मुलाकात हुई थी. तब उन्होंने बताया था कि वह गुरु हरसहाय नगर में रह रहे हैं. उस दिन के बाद फिर कभी उन से नहीं मिला.

बहरहाल, 20 सितंबर 2018 को गुरमीत सिंह की तहरीर पर एसएचओ रमन कुमार ने मंजीत कौर और कुलवंत सिंह के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज कर जांच शुरू कर दी. जरूरी जांच के बाद उन्होंने अगले दिन ही मंजीत कौर और कुलवंत को हिरासत में ले लिया.

थाने ला कर जब दोनों से जागीर सिंह के बारे में पूछताछ की तो मंजीत कौर ने बताया कि उस के पति के किसी महिला के साथ नाजायज संबंध थे. उस महिला की वजह से वह उससे मारपीट किया करता था. फिर 5 साल पहले एक दिन वह उस से झगड़ा और मारपीट करने के बाद घर से निकल गया. इस के बाद वह कहां गया, पता नहीं.

रमन कुमार समझ गए कि मंजीत झूठ बोल रही है. इसलिए उन्होंने उस से और उस के प्रेमी से सख्ती से पूछताछ की. आखिर उन्होंने अपना अपराध स्वीकार करते हुए बताया कि 5 साल पहले 23 अप्रैल, 2013 को उन्होंने जागीर सिंह की हत्या कर उस की लाश घर के सीवर में डाल दी थी.

मंजीत कौर ने बताया कि पिछले लगभग 12 सालों से कुलवंत के साथ उस के अवैध संबंध थे, जिन का जागीर सिंह को पता लग गया था और वह इस बात को ले कर उस से झगड़ा किया करता था. इसीलिए उस ने अपने प्रेमी कुलवंत के साथ मिल कर पति को अपने रास्ते से हटाने के लिए उस की हत्या करने की योजना बनाई.

योजनानुसार 23 अप्रैल, 2013 को जागीर सिंह को चाय में नशे की गोलियां मिला कर पिला दीं. जब वह बेहोश हो गया तो गला दबा कर उस की हत्या करने के बाद उन्होंने उस की लाश सीवर में डाल दी.

एसएचओ रमन कुमार ने मंजीत कौर और कुलवंत सिंह को 21 सितंबर, 2018 को अदालत में पेश कर 2 दिनों के पुलिस रिमांड पर ले लिया. रिमांड के दौरान दोनों की निशानदेही पर गांव वालों, गांव के सरपंच और मजिस्ट्रैट की मौजूदगी में उस के घर के सीवर से हड्डियां बरामद कीं.

उस समय म्युनिसिपल कारपोरेशन के अधिकारियों के साथ एफएसएल टीम भी मौजूद थी. पुलिस ने जरूरी काररवाई के बाद हड्डियां एफएसएल टीम के सुपुर्द कर दीं.

दोनों हत्यारोपियों से विस्तार से पूछताछ करने के बाद पुलिस ने 23 सितंबर, 2018 को मंजीत कौर और कुलवंत सिंह को अदालत में पेश कर जिला जेल भेज दिया.

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—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

परेशानी का सबब गेमिंग डिसऔर्डर

अपनी जिम्मेदारी से छुटकारा पाने के लिए बहुत से मातापिता बच्चों के हाथ में अपना मोबाइल फोन थमा देते हैं और फिर यह जानने की कोशिश भी नहीं करते हैं कि बच्चे उस मोबाइल में किस तरह के गेम खेल रहे हैं. बच्चों की यह गेमिंग लत कई बार भारी पड़ जाती है.

राहुल पढ़ने में बहुत होशियार था. वह क्लास में अच्छी रैंक लाता था. राहुल की सब से बड़ी खासीयत यह थी कि उस का व्यवहार लोगों के प्रति काफी विनम्र था. महल्ले के लोग उस की तारीफ करते थे. सबकुछ अच्छा चल रहा था.

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राहुल ने इस वर्ष 12वीं की परीक्षा दी थी, लेकिन जब राहुल का रिजल्ट आया तो राहुल फेल हो गया. यह बात महल्ले में जंगली आग की तरह फैल गई. राहुल के मातापिता परेशान हो उठे, क्योंकि राहुल न केवल होनहार था बल्कि अभी तक वह अपनी कक्षा में अव्वल आता रहा. फेल होने के चलते राहुल ने खुद को कमरे में बंद कर लिया, हालांकि, काफी समझाने के बाद उस ने दरवाजा खोला. राहुल का फेल हो जाना किसी के गले नहीं उतर रहा था.

मांबाप के बहुत पूछने पर राहुल ने जो बताया उसे सुन कर सभी हैरान हो गए. परीक्षा के 2 महीने पहले ही राहुल ने अपने स्मार्टफोन में एक औनलाइन खेला जाने वाला गेम इंस्टौल कर लिया था. राहुल को इस गेम की ऐसी लत लगी कि वह घंटों अपने स्मार्टफोन पर गेम में उलझा रहता था. जब वह अपने कमरे से बाहर नहीं निकलता तो घरवालों को यह लगता कि राहुल परीक्षा की तैयारी कर रहा है. लेकिन माजरा बिलकुल उलटा था.

राहुल पढ़ाई की आड़ में अपना सारा समय औनलाइन गेम खेलने में लगा देता था, जिस का नतीजा सामने था. राहुल की इस लत के चलते उस के पिता नाराज होने लगे तो राहुल ने उन पर ही हमला बोल दिया. यहां मामला केवल परीक्षा में फेल होने तक ही सीमित नहीं था, बल्कि मामला कहीं ज्यादा गंभीर हो चुका था.

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राहुल के पिता राहुल के इस व्यवहार से काफी घबरा गए थे. वे राहुल को ले कर काफी परेशान रहने लगे. उन्होंने अपनी यह परेशानी अपने जानने वाले को बताई तो उस जानने वाले ने राहुल के पिता को राहुल को दिमाग के डाक्टर को दिखाने की सलाह दी. आखिर राहुल को ले कर जब उस के पिता दिमाग के डाक्टर के पास ले कर पहुंचे तो डाक्टर ने राहुल के लक्षणों को देख कर बताया कि राहुल गेमिंग डिस्और्डर का शिकार हो चुका है.

क्या है गेमिंग डिस्और्डर : मनोरोग विशेषज्ञ डा. बी एम त्रिपाठी की मानें तो गेमिंग डिस्और्डर ऐसा मनोरोग है जो बहुत ज्यादा औनलाइन गेम खेलने से होता है. इस में मरीज को गेम के प्रति अति रुचि हो जाती है जो नशे या व्यसन की तरह काम करने लगती है. पहले इस बीमारी को मनोरोग की श्रेणी से बाहर रखा गया था लेकिन हाल ही में डब्लूएचओ यानी विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे भयावह मानते हुए गेमिंग डिस्और्डर को मनोरोग की श्रेणी में सूचीबद्ध कर दिया है.

गेमिंग डिस्और्डर के लक्षण : गेमिंग डिस्और्डर के मरीज औनलाइन गेमिंग को इतनी ज्यादा तरजीह देने लगते हैं कि उन के लिए बाकी के काम और ऐक्टिविटीज निरर्थक लगने लगती हैं. धीरेधीरे मरीज को नींद आनी कम हो जाती है. उस का खानपान अनियमित हो जाता है. इस से वह बातबात पर झुंझलाने लगता है. इसी कड़ी में उस के आपसी निजी संबंध चाहे पारिवारिक हों या सामाजिक, बिखर जाते हैं.

सर्वाइकल की समस्या : हड्डी रोग विशेषज्ञ डा. कृष्णा वर्मा का कहना है कि औनलाइन गेमिंग के ज्यादा इस्तेमाल से हमारी गरदन लगातार मोबाइल की स्क्रीन पर झुकी हुई स्थिति में रहती है. लगातार बैठने की यह स्थिति हमें मुसीबत में डाल सकती है. ऐसी स्थिति में गरदन के पिछले हिस्से में भयानक दर्द व सूजन होने लगती है. परेशानी तब और बढ़ जाती है जब मरीज को कौलर बैल्ट पहनने की नौबत आ जाती है. इन सब के अलावा औनलाइन गेम यूजर के दोनों हथेलियों के अंगूठे बहुत समय तक मुड़े हुए होते हैं. इस से धीरेधीरे अंगूठों में भी तकलीफ महसूस होने लगती है. यही हाल दोनों हाथ की कुहनी का भी होता है जो कि गेम खेलते समय अमूमन मुड़ी हुई अवस्था में होती हैं. आजकल ऐसे मरीजों की संख्या बढ़ रही है जिन्हें कम उम्र में ही हड्डी के रोगों से जूझना पड़ रहा है.

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आंखों पर असर : मोबाइल चाहे कितना ही अच्छा हो या आई प्रोटैक्शन फीचर से लैस हो, ज्यादा इस्तेमाल नुकसानदायक होता ही है. यदि आप औनलाइन गेमिंग के आदी हो चुके हैं तो इस का सीधा असर आप की आंखों पर पड़ता है. छोटी स्क्रीन का मोबाइल हो या बड़ी स्क्रीन का, ज्यादा देर स्क्रीन पर आंख गड़ाए रहने पर नुकसान तो होता ही है, आंखों से पानी गिरना, जलन व खुजली की समस्या भी होने लगती है. सिर में भारीपन महसूस होने लगता है, सो अलग.

हिंसा को बढ़ावा : समाजशास्त्री

डा. लोकरत्न शुक्ल की मानें तो आज के आधुनिक परिवेश में हर क्षेत्र में एकदूसरे से आगे निकल जाने की होड़ है. जहां पर एक तरफ युवावर्ग अच्छा कैरियर बनाने के पीछे जीतोड़ मेहनत कर रहा है, वहीं दूसरी ओर एक ऐसा वर्ग भी है जो अपना पूरा समय व ऊर्जा इस तरह के खेलों के पीछे बरबाद कर रहा है. इस तरह के खेले जाने वाले हिंसक खेल, बेशक वर्चुअल ही सही लेकिन हथियारों का इस्तेमाल अपने दूसरे साथी खिलाड़ी पर किया जाता है, निश्चितरूप से खिलाड़ी के मन में हिंसा की भावना पैदा करते हैं.

एकदूसरे को खत्म कर के अपने नंबर को बढ़ाते हुए वर्चुअल दुनिया से बाहर निकल कर जब आप वास्तविक दुनिया में अपनेआप को विस्तारित करने लगें तो समझिए वास्तव में स्थिति माफी गंभीर है. हाल ही में इन खेलों के प्रभाव से होने वाले अपराधों की खबरों ने चिंता पैदा कर दी है. जब युवावर्ग या किशोर को अपना समय, अपनी ऊर्जा अपने सर्वांगीय विकास में लगानी चाहिए, वे बाल सुधार गृह में भेजे जा रहे हैं और इस की वजह अगर कोई खेल है, तो स्थिति बहुत ही चिंतनीय है. ऐसे में हम सब की जिम्मेदारी बनती है कि हम ऐसे हिंसात्मक खेलों से खुद को दूर रखें. अपने बच्चों पर इतनी नजर जरूर रखें कि वे मोबाइल का सदुपयोग कर रहे हैं या दुरुपयोग.

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डा. लोकरत्न शुक्ल के अनुसार तकनीकी के इस दौर में आउटडोर खेल खेलने वाले बच्चों की संख्या लगातार घटती जा रही है. बाहरी परिवेश में खेले जाने वाले खेल हमारा शारीरिक विकास तो करते ही हैं, साथ में, उन से हमारे अंदर टीमवर्क की भावना भी विकसित होती है. और ऐसे खेल हमें किसी भी तरह से नुकसान नहीं पहुंचाते हैं.

वयस्कों को भी लत : औनलाइन गेमिंग के शौकीन केवल कम उम्र के बच्चे ही नहीं, बल्कि किशोर व वयस्क भी होते हैं. एक रिपोर्ट की मानें तो यूनाइटेड किंगडम मेें लगभग 200 ऐसे मामले दर्ज हुए हैं जिन में महिलाओं ने अपने पति से तलाक मांगा है, जिस की सब से बड़ी वजह है उन का औनलाइन गेम खेलने के चलते अपनी पत्नियों को समय नहीं दे पाना.

पबजी यानी प्लेयर्स अननोन बैटलग्राउंड एक साउथ कोरियन कंपनी ब्लू होल औपरेट करती है. आज के समय का सब से रोचक व एडवांस फीचर ग्राफिक्स वाला यह गेम इन दिनों लोगों को अपने शिकंजे में जकड़े हुए है. पबजी गेम का डिजाइनर ब्रेंडन ग्रीन है जो आयरलैंड का मूल निवासी है. सब से पहले इस गेम का बीटा वर्जन मार्च 2017 में लौंच हुआ, जिस की सफलता ने इस खेल के लिए एक बड़ा बाजार खोल दिया. इसी कड़ी में फरवरी 2018 में इस का फुल वर्जन एडवांस फीचर के साथ ऐंड्रौयड के प्लेटफौर्म पर परोस दिया गया. यह खेल रोचक तो है लेकिन यह हमें बीमार बना रहा है.

अमेरिकी विशेषज्ञों के अनुसार, यह खेल बच्चों का माइंड डैवलपमैंट रोक रहा है. इस खेल को डिजाइन ही ऐसे किया गया कि इसे खेलने वाले के दिमाग में इस खेल के लिए लालच और जनून पैदा हो जाए. इस में सर्वाइवल टास्क दिए गए हैं. दूसरे को मार कर खुद को बचा रखना ही रैंकिंग को बढ़ाता है. अभी हाल में ही कुछ सट्टेबाजी के मामले भी संज्ञान में आए हैं जिस से इस का दुरुपयोग और बढ़ गया है.

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जब आ जाएं इस की जद में : सिक्के के दो पहलू होते हैं, जहां अच्छाई होती है वहां बुराई भी होती है. दोनों चीजें समानांतर चलती रहती हैं. कोई भी खेल मनोरंजन का साधन मात्र होता है. उसे जनून बनाना, उस खेल का नशा पालना जानबूझ कर आग में कूदने जैसा होता है. अगर आप इस की गिरफ्त में आ जाते हैं तो इस से बाहर भी निकलना आप को खुद ही पड़ेगा.

मनोरोग विशेषज्ञ डा. बी एम त्रिपाठी के अनुसार, गेमिंग डिस्और्डर से बाहर आने के लिए अपना दिमाग दूसरे कार्यों में लगाएं. वह कार्य करें जिस से आप का समुचित विकास हो, परिवार को समय दें व एकांत से बचें.

ऐसे में जब आप गेमिंग डिस्और्डर से जूझ रहे होंगे तो सब से ज्यादा सहायक आप का परिवार ही साबित होगा. अपनों से अपनी बातें शेयर करें, अपनों के साथ अच्छा वक्त बिताएं और जो सब से जरूरी बात है वह यह है कि एकांतवास से बच कर रहें. खुद से लौंग टाइम कमिट करें. अच्छी पत्रिकाएं और पुस्तकें पढ़ने की आदत डालें. इस तरह की बुरी लत से बचाने में पत्रिकाओं में समयसमय पर छपने वाले लेख काफी कारगर साबित हो सकते हैं.

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