दिल्ली के चितरंजन पार्क में एक घर के बेसमेंट में बने छोटे से स्टूडियो में एक जबरदस्त चीख लोगों के रोंगटे खड़े कर देती है. चंद मिनटों में वह चीख रविन्द्रनाथ टैगोर के मधुर गीत में बदल जाती है. मधुर स्वर लहरी धीरे-धीरे सिसकियों में और सिसकियां अचानक उन्मुक्त हंसी में तब्दील हो जाती है. रोशनी के एक वृहद गोले के भीतर मंच पर महाभारत काल की स्त्री के विभिन्न रूपों, मनोभावों, छटपटाहटों, पीड़ा और भय को आज के सन्दर्भ में प्रकट करते हुए बंगाली नायिका कौशिकी देब एक ऊंचे सीढ़ीनुमा स्थान पर आकर बैठती है. चारों ओर रोशनी उग आती है.

लेखक-डायरेक्टर तोरित मित्रा और उनकी नाट्य संस्था ‘संन्सप्तक’ से जुड़ने की कहानी अपनी सुमधुर आवाज में सुनाते हुए नायिका कौशिकी देब की आंखें अचानक छलक पड़ती हैं. यह तोरित दा के प्रति नायिका की श्रद्धा और आत्मीयता का परिचय है. नाट्य मंच के नजदीक ही कुर्सियों पर बैठे कोई दर्शक मंत्रमुग्ध से हैं.

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अभी वह कौशिकी देब द्वारा अभिनीत नाटक की गहराइयों में डूब-उतरा ही रहे हैं कि अचानक इस मंच पर मां-बहन की गालियां बकती सिर पर सूखी घास और लकड़ियों का गट्ठर उठाये एक लड़की प्रवेश करती है. हिन्दी-हरियाणवी मिश्रित गंवार भाषा में वह अपनी बड़ी बहन के मासूम प्यार और बाप की मजबूरियों का बखान करती है. देखते ही देखते देश और समाज का नंगा सच उघड़ कर सामने आने लगता है और लोगों को शर्मिन्दा करने लगता है. खाप के कहर से खुद अपने बेटी का कत्ल करने वाले अपने मजबूर बाप की कहानी कहती सिमरन कभी आंसुओं के समन्दर में डूब जाती है तो कभी गुस्से से थर-थर कांपती खाप के दबंगों को मां-बहन की गालियों से नवाजने लगती है. दर्शक उसके आंसुओं के साथ गहरे दुख में उतर जाता है, तो उसके गुस्से के साथ आक्रोशित होने लगता है. नाटक ‘जन्मांतर’ के रूप में तोरित दा की कलम से निकली कहानी दर्शकों की रूह थर्रा देती है. नेपाल की मिट्टी में पैदा हुई और दिल्ली में पली-बढ़ी अदाकारा सिमरन जिस खूबी से आधे घंटे तक हरियाणवी टोन में गांव की छोरी का किरदार अदा करती है, उसे देखकर इस बात पर यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि वह पहली बार एकल नाटक के मंच पर उतरी हैं. यह कमाल है तोरित दा के नाट्य मंच ‘संन्सप्तक’ और उनकी नाट्य शिक्षा का.

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