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रिटायरमेंट

पूर्व कथा

हंसराज मलिक अपनी कंपनी के चीफ इंजीनियर को डांटते हुए नई मशीनों को लगाने का आर्डर देते हैं. और कल से अपने फैक्टरी आने की बात भी कहते हैं. यह निर्देश देते हुए वह कार में बैठ कर चले जाते हैं.

कार में बैठते ही वह अतीत की यादों में खो जाते हैं कि 20 साल पहले वह अपने परिवार के साथ काम ढूंढ़ने के लिए शहर में आए थे. किस तरह धीरेधीरे अपनी मेहनत के बल पर वह ‘मलिक इंडस्ट्रीज’ के मालिक बन गए.

इतनी तरक्की के बाद भी उन में कोई घमंड नहीं था. अपने कर्मचारियों के साथ दोस्ताना व्यवहार करते हंसराज अपने बिजनेस की बागडोर अपने दोनों बेटों सौरभ और वैभव को सौंप देते हैं. लेकिन उन के व्यापार करने का तरीका बिलकुल अपने पिता के विपरीत था. वे ज्यादा लाभ कमाने के चक्कर में डीलरों को खराब माल देना शुरू कर देते हैं.

रामदीन कंपनी का पुराना डीलर व हंसराज का दोस्त है. खराब माल देने की एवज में वह वैभव व सौरभ की शिकायत हंसराज से करता है तो हंसराज अपने चीफ एकाउंटेंट, चीफ इंजीनियर और बेटों को बुला कर डांटते हैं और रामदीन को हरजाना देने को कहते हैं. रामदीन के जाने के बाद सौरभ व वैभव अपने पिता को हरजाना देने की बात पर नाराज होते हैं.

सब के चले जाने के बाद हंसराज सोच में पड़ जाते हैं कि कंपनी में आखिर चल क्या रहा है. अगले दिन हंसराज फैक्टरी जाते हैं तो वहां वह चीफ क्वालिटी कंट्रोलर और चीफ इंजीनियर की बातें सुन लेते हैं. वे दोनों हंसराज को वहां देख कर चौंक जाते हैं. हंसराज के पूछने पर वे कंपनी और मशीनों की स्थिति से उन्हें अवगत कराते हैं. और अब आगे…

अंतिम भाग

गतांक से आगे…

मशीनों का निरीक्षण करने के बाद शिव आ कर हंसराज को बताता है कि कुछ पुरजे बदलने पड़ेंगे. किंतु जो पुरजे चाहिए वे हमारे स्टाक में नहीं हैं.

‘कितने दिन में पुरजे आएंगे?’ हंसराज पूछते हैं.

‘कम से कम 2 महीने लग जाएंगे?’

‘क्या कहते हो, 2 महीने. यानी कि 2 महीने फैक्टरी बंद. कंपनी का नाम खराब करने में तुम लोगों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है,’ हंसराज अधिक क्रोधित हो उठे, ‘मैं ऐसा नहीं होने दूंगा. शिव, तुम अभी नए पुरजों का आर्डर दो और खराब पुरजों को रिपेयर करवा कर मशीनों को 1-2 दिन में चालू करो.’

रिपेयर के बाद मशीनें सिर्फ 2 दिन चलीं. इस बार हंसराज ने शिव से पूछा, ‘तुम्हें मालूम है कि जब यह फैक्टरी लगी थी तब रामनरेश की कंसलटेंसी ली थी. आजकल वह कहां है, काफी वर्षों से उस से मुलाकात नहीं हुई. वह जरूर इस समस्या का हल निकालेगा.’

शिव ने डायरी निकाली, ‘सर, फोन नंबर तो पुराने हैं,’ डायरी देख कर शिव बोला, ‘लेकिन कृष्णा नगर में मकान का नंबर लिखा है, वहीं जा कर पता चलेगा.’

‘चंदरपाल, सुनो, तुम जाओ,’ हंसराज मलिक बोले, ‘तुम उस को जानते हो और उस के घर भी गए हो.’

‘हां, सर, उस का मकान मैं ने देखा हुआ है,’ कह कर चंदरपाल निकल पड़ा.

रामनरेश घर पर ही मिल गया था. चंदरपाल को देखते ही पहचान लिया, ‘क्या हाल है, चंदरपाल, आज इधर कैसे आना हुआ. आजकल कहां हो?’

‘अभी तो वहीं मलिक इंडस्ट्रीज में टाइमपास कर रहा हूं. आप से थोड़ा सा काम है, सेठजी बात करना चाहते हैं,’ चंदरपाल ने नंबर डायल किया.

‘भई, हंस, किस गुफा में छिपे रहते हो, पुराने दोस्तों को भूल गए लगते हो… हुक्म करो मेरे आका, कैसे इस नाचीज की याद आ गई.’

‘सुना है, रामनरेश तू बड़ा आदमी बन गया. उत्तराखंड में तू ने बड़ीबड़ी फैक्टरियां लगवा दीं तो हम जैसे छोटे दोस्तों को भूल गया,’ हंसराज ने मजाक किया, ‘अच्छा एक बात जिस के लिए चंदरपाल को तेरे पास भेजा है, कुछ मशीनें चेक करवानी हैं, अभी आजा, शाम का नाश्ता एकसाथ करेंगे.’

‘कल सुबह आता हूं, अभी जरा दांतों के डाक्टर के पास जाना है. कल रात से दांत दुख रहे हैं.’

अगले दिन वादे के अनुसार रामनरेश ने फैक्टरी में मशीनों का निरीक्षण किया. निरीक्षण के बाद हंसराज से बोला, ‘यार हंस, तुम्हारी फैक्टरी में मशीनों की ये दुर्गति, मैं तो सोच भी नहीं सकता, तुम ऐसे तो कभी नहीं थे, तुम्हें तो मशीनें अपनी जान से अधिक प्यारी होती थीं.’

हंसराज अब किस मुंह से बताएं कि उन के अपने बेटे ही उन के सिद्धांतों की धज्जियां उडा़ रहे हैं, ‘खैर, इन बातों को छोड़, अब क्या करना है, यह बता.’

‘हंस, एक तो तुम कुछ मशीनों को रिटायर कर के नई मशीनों का आर्डर भेजो, लेकिन मशीनें आने में 7-8 महीने लग ही जाएंगे. तब तक पुराने पुरजों को बदलना पडे़गा, लेकिन पुरजों का आर्डर तुम कालीचरण वर्कशाप को ही देना. वैसे बाजार में सस्ते भी पुरजे मिल जाएंगे, लेकिन उन का कोई भरोसा नहीं होता. अच्छी क्वालिटी के पुरजे केवल कालीचरण ही दे सकता है. मैं कल उत्तराखंड जा रहा हूं पर कोई दिक्कत हो तो मेरे मोबाइल पर कांटेक्ट करना.’’

हंसराज ने शिवनारायण के साथ वैभव और सौरभ को भी खास हिदायत दी कि रामनरेश के बताए उपायों पर अमल करें, लेकिन परचेज डिपार्टमेंट का हैड तिलकराज बेहद चापलूस और रिश्वतखोर था, जहां से उसे अधिक कमीशन मिलता वहीं से सामान खरीदा जाता. छोटे सेठों को उस ने अपनी बातों से गुमराह कर रखा था.

इस बार उस ने वैभव और सौरभ के कान भर दिए कि कालीचरण से रामनरेश की सेटिंग है, रामनरेश को कालीचरण कमीशन देता है. वहां से पुरजे बनवाने की कोई जरूरत नहीं है. दूसरी बहुत सी वर्कशाप हैं, जहां से सस्ता और टिकाऊ सामान बन सकता है.

वैभव और सौरभ को तिलकराज पर भरोसा था. उन दोनों ने रामनरेश की सलाह अनसुनी कर के तिलकराज का रास्ता चुना, लेकिन पुरजे दोचार दिन में ही खराब हो जाते. ऐसे करते हुए 2 महीने बीत गए, मशीनें और भी खराब हो गईं. एक दिन एक मशीन में बहुत जोर से धमाका हुआ और 2 कर्मचारियों को चोट लग गई. घायल कर्मचारियों को अस्पताल में दाखिल कराया गया.

इस घटना को बीते अभी 2 दिन ही हुए थे कि कुछ अन्य मशीनों में भी खराब पुरजों के कारण धमाके हुए और कई कर्मचारी घायल हो गए. शिवनारायण काफी परेशान हो गए कि अब तो हंसराज को पूरी बात बतानी पडे़गी, तभी तिलकराज ने वैभव और सौरभ से कहना शुरू किया कि फैक्टरी में कुछ अनिष्ट हो रहा है, उस के पीछे किसी बुरी आत्मा का हाथ है और शुद्धि के लिए पूजाहवन आदि कराने की जरूरत है.

वैभव और सौरभ दोनों ने आपस में विचार किया कि पूजा करवानी चाहिए. आजकल हर जगह बिना पूजा के कुछ भी कार्य शुरू नहीं होता और हर व्यक्ति बिना भविष्यफल पढ़े घर से बाहर भी नहीं निकलता है. हर जगह वास्तुशास्त्र की धूम है. मशीनों की वास्तु के मुताबिक सेटिंग करानी पडे़गी.

वैभव और सौरभ दोनों की पत्नियां भी उन पंडितों के पीछे पड़ी रहती थीं. उन की किट्टी पार्टियों में आएदिन किसी अंगरेजी में लच्छेदार प्रवचन देने वाले को बुलाया जाता था. वैभव और सौरभ को भी जाना पड़ता था और वे दोनों भी पढ़ाईलिखाई भूल कर ढकोसलों के दलदल में फंसने लगे थे. तिलकराज को यह मालूम था और उस ने इस का पूरा फायदा उठाया.

अब तो तिलकराज का हौसला बढ़ गया, ‘सरजी, आप ने डिंपल कंपनी का नाम तो सुना होगा. फैक्टरी बंद होने की नौबत आ गई थी, तब एक पहुंचे हुए वास्तुशास्त्री से सलाह ले कर पूरी फैक्टरी को नए सिरे से बनवाया. अब तो उन के पौबारह हैं,’ तिलकराज ने आग में घी डाल दिया.

‘तिलक बिलकुल ठीक क ह रहा है. मैं ने भी कई आफिस देखे हैं, जो एकदम नए सिरे से वास्तु के हिसाब से बने हैं,’ वैभव ने सौरभ से कहा.

‘हां, ठीक बात है, पापा ने कभी इस बारे में नहीं सोचा. आज तो जमाना सिर्फ वास्तु का है. हमें शीघ्र ही एक अच्छे वास्तुशास्त्री से मिल कर उपाय कर लेना चाहिए,’ सौरभ ने हां में हां मिलाई फिर तिलक की ओर देख कर बोला, ‘क्या तुम ऐसे किसी व्यक्ति को जानते हो?’

‘सरजी, बहुत विद्वान हैं. शास्त्री नगर के मंदिर के प्रमुख पंडित हैं. ज्योतिष के साथसाथ वास्तुशास्त्र के भी विद्वान हैं. बस, आप एक बार मिलेंगे तो किसी दूसरे के बारे में सब भूल जाएंगे. कहें तो आप की फोन पर बात करवा दूं,’ तिलकराज ने चापलूसी तेज करते हुए कहा.

‘हां, समय है तो बात करवाओ,’ सौरभ की यह बात सुनते ही तिलक ने झट से शास्त्रीजी का मोबाइल लगाया.

‘शास्त्रीजी, मैं तिलक.’

‘हां, वत्स, इस समय कैसे कष्ट उठाया,’ दूसरी तरफ से शास्त्रीजी बोले.

‘हमारे सेठजी आप से मिलना चाहते हैं, क्या आज आप समय निकाल सकेंगे?’’

कुछ क्षण बाद शास्त्रीजी बोले, ‘ठीक है, वत्स. कल 11 बजे का समय उचित रहेगा.’

‘ठीक है, शास्त्रीजी, मैं खुद आप को लेने आ जाऊंगा,’ तिलक ने कहा.

तिलकराज खुद शास्त्री नगर में रहता था और शास्त्रीजी उस के महल्ले के मंदिर में पुजारी थे. तिलक पूजापाठ में बहुत अधिक विश्वास रखता था, उस की पत्नी लगभग पूरा दिन ही मंदिर में रहती थी. शास्त्रीजी का नाम फैलाने में तिलक का काफी हाथ था, जहां भी मौका मिलता, शास्त्रीजी के गीत गाता थकता नहीं था. शास्त्रीजी भी तिलक का पूरा ध्यान रखते थे. चंदे, चढ़ावे और दानदक्षिणा का एक हिस्सा वे तिलक को देते. इस प्रकार तिलक और शास्त्रीजी एकदूसरे के पूरक थे.

अगले दिन ठीक 11 बजे शास्त्रीजी अपनी कार में फैक्टरी पहुंचे. पूरी फैक्टरी का निरीक्षण करने के बाद वैभव और सौरभ के केबिन में अपना लैपटाप निकाला और कुछ गणना के बाद बोले, ‘वत्स, पूरी फैक्टरी बिना सोच के वास्तु के सिद्धांतों के विपरीत बनाई गई है, इसी कारण फैक्टरी में मशीनों का कष्ट रहेगा.’

‘कुछ उपाय बताइए,’ वैभव ने हाथ जोड़ कर कहा.

‘वत्स, हमारे शास्त्रों में हर संकट का निवारण है. यदि आप तैयार हैं तो…’

‘शास्त्रीजी शुभ कार्य में देर नहीं होनी चाहिए,’ सौरभ ने उन की बात बीच में काट कर कहा.

‘वत्स, आप को अति शीघ्र यज्ञ करवाना होगा और वास्तु के हिसाब से मशीनों की दिशा बदलनी पडे़गी.’

वैभव और सौरभ के तैयार होने पर शास्त्रीजी ने शुक्रवार के 11 बजे का मुहूर्त निकाला.

‘वत्स, यज्ञ की सफलता के लिए जरूरी है कि कार्य में विघ्न नहीं पड़ना चाहिए, जब तक यज्ञ होगा, फैक्टरी के दरवाजे बंद रहने चाहिए, जो जहां होगा, वहीं रहेगा, कोई भी अंदरबाहर नहीं आएगाजाएगा. यज्ञ का सारा सामान हम लाएंगे ताकि उस में किसी का गंदा हाथ न लग सके. इस महान यज्ञ की लागत और दक्षिणा 2 लाख 21 हजार रुपए होगी, जो आप को एडवांस में देनी होगी. यज्ञ संपन्न होने के बाद वास्तुशास्त्र के हिसाब से फैक्टरी में परिवर्तन के सुझाव दिए जाएंगे. आप को कुछ नहीं करना होगा. सब हम संभाल लेंगे.’

यज्ञ की रकम ले कर शास्त्रीजी तो चले गए. तिलक की खुशी की कोई सीमा नहीं थी, क्योंकि शास्त्रीजी से 20 प्रतिशत कमीशन पहले ही तय हो चुका था.

‘शास्त्रीजी बड़े हाईटेक हैं. लैपटाप ले कर काम करते हैं,’ वैभव ने सौरभ को इशारा किया.

‘भाई, हमारा लैपटाप तो पुराना हो गया है, शास्त्रीजी का लैपटाप एकदम स्लिम नया लेटेस्ट माडल है,’ सौरभ बोला.

‘नया लैपटाप लेने के बाद तिलक, मैं अपना पुराना लैपटाप तुम्हें दे दूंगा. तुम्हारे पास भी लैपटाप जरूर होना चाहिए. आजकल जमाना लैपटाप का है.’

यज्ञ की खबर सुनने से पहले ही हंसराज को अपनी साली के ससुर के देहांत पर पटना जाना पड़ा. ससुर पटना से भी 200 मील दूर एक छोटे शहर में रहते थे. जाने से पहले वह कह गए, ‘मैं 4-5 रोज में आ जाऊंगा.’

बेटों ने पिता के पीछे पूजा करना ज्यादा ठीक समझा. आखिर पूजा का दिन शुक्रवार आ गया. शास्त्रीजी के चेले ने 1 घंटा पहले आ कर पूजा की तैयारियां संपन्न कीं. ठीक 11 बजे फैक्टरी के दरवाजे बंद कर दिए गए और पूजा शुरू की. विधिविधान के साथ शास्त्रीजी के पूजा करने के तरीकों से सब मंत्रमुग्ध हो गए कि ऐसी विधि से पूजा अब तक सिर्फ टेलीविजन सीरियलों में ही देखी थी. 2 घंटे की पूजा के बाद शास्त्रीजी ने शंख बजाया. शंख की ऐसी आवाज वैभव व सौरभ ने महाभारत धारावाहिक में सुनी थी. सभी मुग्ध हो पूजा में तल्लीन थे. जैसे ही दूसरी बार शास्त्रीजी ने शंख बजाया, तभी एक जोर से धमाका हुआ और तीव्र कंपन और घरघराहट के साथ सारी मशीनें रुक गईं. वैभव ने आवाज दी, ‘शिव, फटाफट देखो, क्या हुआ?’

एक मशीन टूट गई थी. शुक्र यह था कि 2 मशीनमैनों को मामूली चोटें आईं, जिन्हें प्राथमिक चिकित्सा के लिए अस्पताल ले जाया गया.

2 रोज बाद जब हंसराज लौटे तो शिवनारायण के साथ निरीक्षण करते समय उन्होंने कहा, ‘शिव, रामनरेश यदि शहर में है तो उसे फौरन बुलाओ.’

संयोग से रामनरेश शहर में थे, जो कुछ समय बाद फैक्टरी में आ गए. रामनरेश ने आते ही शिकायत की, ‘हंस, तुम कंजूस कब से हो गए, मैं ने तुम्हें ऐसा कभी नहीं देखा था.’

‘क्या हुआ, नरेश, आज तो तेरे तेवर गरम हैं.’

‘तुम से कहा था कि कालीचरण वर्कशाप से पुरजे बनवाना, लेकिन सस्ते के चक्कर में एक तो 4 बार पुरजे बनवाए, जिस का परिणाम अब तुम देख रहे हो, साथ में पूरे बाजार में मुझे बदनाम कर दिया कि मैं कालीचरण से कमीशन लेता हूं. आखिर किस जन्म का बदला मुझ से ले रहे हो?’

रामनरेश की बात सुन कर हंसराज भौचक रह गए, लेकिन तुरंत समझ गए कि यह करतूत तिलक की होगी. मौके की नजाकत समझते हुए उन्होंने बात पलट कर रामनरेश से माफी मांगी और पूछा कि अब क्या करना चाहिए.

‘हंस, जो बात मैं ने पहले कही थी, वही दोहरा रहा हूं. नई मशीनों के लिए तुरंत आर्डर दे दो. मशीनें आने में कम से कम 6 महीने लग जाएंगे. तब तक कालीचरण से पुरजे बनवा लो. दो बातें मैं तुम्हारे लाड़लों से कहना चाहता हूं…पहली यह कि बिना किसी सुबूत के किसी पर आरोप नहीं लगाने चाहिए. दूसरी, बाजार में मेरी काफी अच्छी साख है, आज तक ईमानदारी और लगन से काम किया है, तभी आज 62 साल की उम्र में भी लोग मेरे पीछे घूमते हैं, कभी किसी के आगे काम के लिए चापलूसी नहीं की. और तुम मुझे बदनाम कर के क्या हासिल कर लोगे. क्या तुम्हारी मशीनें ठीक हो गईं? अच्छी क्वालिटी के पुरजे लगाने के बदले पूजा और वास्तु के चक्कर में पड़ गए.

‘अंधविश्वास नहीं करना चाहिए. हंस, तुम से एक बात पूछना चाहता हूं कि आज से 20 साल पहले जब तुम ने यह फैक्टरी लगाई थी, मैं उस समय भी तुम्हारा सलाहकार था, हम ने फैक्टरी एक्ट के नियमानुसार निर्माण किया और इसी फैक्टरी से लाभ कमा कर 3 और फैक्टरियां लगाईं. अगर हम ने वास्तु के हिसाब से फैक्टरी का निर्माण नहीं किया तो 20 साल तक लगातार मुनाफा क्यों आया?

‘एक बात मेरी और सुनो, लाभ और हानि, सुख और दुख एक सिक्के के दो पहलू हैं, जो बारीबारी से हमारी जिंदगी में आते हैं. दुनिया का कोई भी आदमी इस से बच नहीं सकता. इतिहास गवाह है, किसी भी अमीर या मशहूर आदमी की जिंदगी देख लो, उतारचढ़ाव, सुख और दुख से कोई नहीं बचा है.

‘क्या आप ने कभी कार ठीक करवाने के लिए कोई पूजा की है, तब इन मशीनों की पूजा क्यों. मेरी मंशा कोई भाषण देने की नहीं है लेकिन तिलक के झूठे प्रचार से मुझे ठेस लगी, शायद इसी कारण कुछ अधिक बोल गया,’ कहतेकहते रामनरेश की आंखें भर गईं और अपना ब्रीफकेस उठा कर अपनी कार में बैठ कर रवाना हो गया.

वैभव और सौरभ पर क्या असर हुआ. यह तो पता नहीं, लेकिन हंसराज ने शिवनारायण को बुला कर कहा कि फौरन नई मशीनों के आर्डर तैयार करें. आर्डर तैयार होते ही खुद हंसराज ने आर्डर और अग्रिम राशि के चेक पर दस्तखत किए और अपनी कार में बैठ कर घर के लिए रवाना हुए.

‘‘साबजी, घर आ गया है,’’ ड्राइवर की आवाज सुन कर हंसराज अतीत से वर्तमान में आ गए और धीरेधीरे चलते हुए कोठी के लान में कुरसी खींच कर बैठे और ड्राइवर से कहा, ‘‘अंदर बीबीजी को कहना, चाय के साथ यहीं लान में आ जाएं.’’

उन्हें लगा कि उन का रिटायरमेंट 5-7 साल के लिए फिर टल गया. अब जब तक बेटे पटरी पर न आ जाएं, उन्हें एक बार फिर कोल्हू का बैल बनना पडे़गा, पर जब कोल्हू अपना ही हो तो बैल बनने में क्या एतराज.

वीआईपी के नए अर्थ

हमारे शब्दछेड़  मित्र प्रो. अर्थसिंह को हर बात में नए अर्थ ढूंढ़ लेने का आदत है. यों उन का नाम पृथ्वीसिंह है मगर हम यार लोग उन की अर्थ निकालने की आदत के कारण उन्हें अर्थ सिंह के नाम से बुलाते हैं. यह नाम ज्यादा ठीक भी बैठता है. वह भी खूब मजा लेते हैं अपने नए डाउन टू अर्थ नाम का.

अभी कल ही प्रोफेसर मिले. पूछा, ‘‘कहां रहते हो?’’

बोले, ‘‘आजकल कुरसियों के नए अर्थ खोज रहा हूं.’’

‘‘कुरसियों के नए अर्थ? क्या विषय है यार?’’

हम ने कह तो दिया मगर तत्काल दिलचस्पी ने हमें घेर लिया. कहा, ‘‘एक्सप्लेन करो.’’

अर्थसिंह ने समझाया, ‘‘वीआईपी होना एक चमकदार कुरसी होना है, क्यों?’’

हम ने कहा, ‘‘ठीक है, मगर इस का मतलब तो सीधा है, वेरी इंपोर्टेंट पर्सन. हां, खुशवंत सिंह के किसी कालम में हम ने 2 गलत से अर्थ पढ़े थे ‘वेरी इंपोर्टेंट (महत्त्वपूर्ण) प्राब्लम’ और ‘वेरी इनकन्विनिएंट (असुविधाजनक) पर्सन.’

अर्थसिंह खिलखिला कर हंसने लगे, ‘‘हां, यार, बडे़ जबर्दस्त अर्थ थे. मगर थे खरखरे, मैं ने भी कोशिश कर कुछ नए अर्थ खोजे हैं, मुलाहिजा फरमाएं, शायद आप को स्वादिष्ठ लगें.

‘‘सब से पहले कुछ मीठे अर्थ…‘वेरी आइडियल (उत्कृष्ट) पर्सन’, ‘वेरी आइडल (आराध्य) पर्सन’, ‘वर्सेटाइल (बहुमुखी) इंडियन पर्सनेलिटी’, ‘वेरी इल्सट्रियस   (उदाहरणीय) पर्सन’ ‘वेरी इंपार्शियल (निष्पक्ष) पर्सन’ ‘वेंचर (साहसिक कार्य) इनीशिएटिंग पर्सन’, ‘वेरी इंटैलिजेंट पायनियर (मार्गदर्शक)’, ‘वेरी इंसपायरिंग (प्रेरक) पर्सन’, ‘वेरी इंटैलिजेंट पर्सन’.’’

हम ने कहा, ‘‘वाह, क्या सही अर्थ हैं…बेहद शालीन व सभ्य. आप ने अपने नाम को सही रूप में चरितार्थ कर दिखाया. आजकल के वीआईपीज को अच्छा लगने वाला काम किया. एक लिस्ट अगर आप सभी वीआईपीज के पास भिजवा दें तो सामाजिक व आध्यात्मिक कार्यों को समर्पित उन की पत्नियों की प्रसिद्ध संस्था आप को सहर्ष सम्मानित कर सकती है. इस बहाने आप अखबारों में छा जाएंगे.’’

प्रो. साहब के चेहरे पर संतुष्टि भरी मुसकान आ चुकी थी. वह बोले, ‘‘अब कुछ और किस्म के अर्थ बडे़ अदब के साथ पेश करता हूं. थोड़े कड़वे हैं, प्लीज, आराम से चखना… ‘वेरी आइडल (समयगंवाऊ) पर्सन’, ‘वेरी इंडिफ्रेंट (उदासीन) पर्सन’, ‘वेरी इग्नोरेंट (अनजान) पर्सन’, ‘वेरी इनआर्टिकुलेट (अस्पष्ट) पर्सन’, ‘वेरी इग्नोरिंग (उपेक्षाकरू) पर्सन’, ‘वेरी वेरी इलिबरल (संकीर्ण) पर्सन’, ‘वेरी इम्मोबाइल (गतिहीन) पर्सन’, ‘वेरी इम्मोडेस्ट (अशिष्ट) पर्सन’, ‘वेरी इम्पेशेंट (उतावले) पर्सन’…’’

‘‘बसबस,’’ अर्थसिंह को रोका हम ने और कहा, ‘‘क्या गजब करते हो यार.’’

‘‘क्या हुआ? अर्थ गलत हो गया क्या? कौन सा गलत है, बताओ? अभी सही अर्थ खोजने की कोशिश करता हूं.’’

अर्थसिंह को शायद शक होने लगा कि उन्होंने ठीक अर्थ नहीं निकाले हैं.

हम ने उन से साफ कह दिया, ‘‘आज जमाना सही अर्थों का नहीं है, बल्कि सब को उन की पसंद के अर्थ परोसने का है. आप यह कड़वे अर्थ किसी वीआईपी के पास भी नहीं पहुंचने देना, नहीं तो अनर्थ हो जाएगा.’’

प्रोफेसर थोड़े उखड़े, घबराए, लड़खड़ाए. अब वीआईपी शब्द का रोबदाब व असर तो होता ही है. हम ने कहा, ‘‘घबराइए नहीं, इस समय आसपास कोई वीआईपी नहीं है, पर ध्यान रखिएगा.’’

कुछ देर हम दोनों चुप रहे. शायद कड़वे अर्थों का असर होने लगा था. थोड़ी देर बाद प्रो. अर्थसिंह जाने लगे तो हमें लगा कि अभी उन के पास वीआईपी जैसे सजीले, गर्वीले, ग्रेट शब्द के कुछ और अर्थ भी हैं, जो वह बताना चाहते थे मगर हम ने ही उन्हें  रोक दिया था. अब जिम्मेदारी हमारी बनती थी, सो हम ने उन से अनुरोध किया, ‘‘बुरा न मानें, बाकी अर्थ भी बता दें. आप ने सच, बड़ी मेहनत की है.’’

अर्थसिंह बोले, ‘‘वीआईपी के मीठे और कड़वे अर्थ तो आप को बता चुका हूं, अब जो अर्थ बता रहा हूं उन्हें मैं ने खट्टी श्रेणी में रखा है. कुछ नमूने देखें… ‘वैरिड (विविध) इनट्रस्ट पर्सन’, ‘वेरी इंफ्लेमेबल (ज्वलनशील) पर्सन’, ‘वेरी इंबैलैंस (विषम) फिजीशियन’, ‘वेरी इंडिपेंडेंट (स्वतंत्र) पर्सन’, ‘वेरी इमेजिनेटिव (कल्पनाशील) पैट्रिएट (देशभक्त)’, ‘वेरी इनसिंसियर (कपटी) पार्टनर’…कुछ और भी हैं, पर रहने दो.’’

अर्थसिंह के बताए अनर्थ जैसेतैसे निबट गए. शाम को किसी वीआईपी से मिलने जाना था मगर यह निश्चय किया कि कल जाऊंगा ताकि नए अर्थ सुबह तक भूल जाऊं. डर लगने लगा था कहीं याद रह गए तो मुश्किल हो जाएगी.

कांस फिल्म 2019:  दीपिका के साथ क्यों नही थे रणवीर सिंह?

हाल ही में कांस 2019 में दीपिका पादुकोण ने हिस्सा लिया और अपनी अदाओं से सभी का दील जीत लिया. दीपिका पादुकोण की सभी ड्रेसेस और लुक्स रेड कारपेट पर कहर ही ढाते दिखे. दीपिका के अलावा यहां कंगना रनौत और प्रियंका चोपड़ा ने भी शानदार एंट्री की. लेकिन इस बार अभी तक दीपिका ही 72वें कांस फिल्म फेस्टिवल को रुल करती दिखीं. लेकिन यहां देखने वाली बात ये रही की एक्ट्रेस अकेली ही इस इवेंट में हिस्सा लेने पहुंची थी और उनके साथ पति रणवीर सिंह मौजूद नहीं थे.

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इस बारे में जब दीपिका से पूछा गया तो उन्होंने बहुत मजेदार जवाब दिया. दीपिका ने कहा कि रणवीर सिंह मेट गाला इवेंट के लिए ज्यादा बेहतर हैं और कांस फिल्म फेस्टिवल में वो उनसे ऊपर रहेंगी.वाकई में, ऐसा तो उनके फैंस भी मानते हैं, इससे पहले मेट गाला 2019 में अपीयरेंस से पहले दीपिका ने रणवीर के लिए कहा था.

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‘उनके फैशन का अंदाज इतना क्रेजी है और मुझे लगता है कि दरअसल, वोथीम के हिसाब से बिल्कुल ठीक रहते हैं. मुझे लगता है कि वो ऐसे इंसान हैं जो थीम के हिसाब से 100 प्रतिशत न्याय करेंगे. मैं बस उन्हें रीप्रजेंट कर रही हूं.  दीपिका ने मेट गाला 2019 और कांस 2019 दोनों ही इवेंट्स में अकेले ही हिस्सा लिया था. दरअसल, रणवीर सिंह इन दिनों अपनी फिल्म ’83’ की शूटिंग में बिजी हैं.

 

सर्वेक्षण हैं या बैलेन्स शीट

दाद देनी होगी न्यूज चैनल्स और विभिन्न एजेंसियों की जिन्होंने इतनी शिद्दत से नमक हलाली निभाईं कि नमक हलाल फिल्म के अमिताभ बच्चन और सुरेश ओबराय भी शर्मा जाएं. जो सर्वे दिखाये गए वें भाजपा और एनडीए समर्थकों के कलेजे को ठंडक पहुंचाने वाले हैं, पौराणिक भाषा में कहें तो हृदय और मस्तिष्क को शीतलता देने वाले हैं जिन्होंने जोड़-तोड़ और तोड़-मरोड़ कर साबित कर दिया हैं कि ऐसे मानो, चाहे वैसे मानो आएंगे तो मोदी ही. अच्छा तो यह रहा कि किसी ने यह नहीं कहा कि उसके आंकड़े वोटरों से की गई बातचीत पर आधारित न होकर सीधे वैकुंठ से आए हैं इसलिए इन पर शक शुबहा नहीं किया जाना चाहिए यह अधर्म और पाप होगा.

इन पोलों में कई पोल हैं जिन्हें देख मीडिया के कारोबारियों पर तरस और हंसी दोनों आते हैं . एक चैनल ने धमाका सा किया कि भाजपा उत्तर प्रदेश में केवल 22 सीटें ले जा पा रही हैं लेकिन उसके बगल वाले चैनल का एंकर नुमा पत्रकार या पत्रकार नुमा एंकर स्पीकर फटने की हद तक चिल्ला रहा थे कि भाजपा वहां 50 से भी ज्यादा सीटें ले जा रही है. अब देखने वाला बेचारा फंस गया कि किसे सच और किसे गप्प माने. एक राज्य में एक पार्टी को मिल रही सीटों में 5-10 का अंतर आए तो बात हजम होती है पर यहां तो अंतर मानव कल्पना से भी परे आ रहा है. एक चैनल की निगाह में भाजपा बंगाल में 8-10 सीटें ही ले जा पा रही है तो दूसरे की निष्ठा उसे 20 पार करा रही है.

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यह बड़ी मनोरंजक और दिलचस्प शाम थी क्योंकि जो यूपी में भाजपा को पिछड़ता बता रहा था उसने बड़ी चतुराई से उसकी भरपाई ओडिशा और बंगाल से करते एनडीए को बहुमत के करीब पहुंचाकर ही पानी पिया. कुल जमा सार ये कि होड़ इस बात की थी कि आप कैसे भाजपा को सत्ता तक और मोदी को फिर से सबसे बड़ी कुर्सी तक पहुंचा सकते हैं और अगर ऐसा नहीं कर सकते हैं आपका मीडिया योनि में जन्म लेना व्यर्थ है.

मुद्दे की बात इन सर्वेक्षणो में विकट का विरोधाभास है. जो महज अनुमानों के आधार पर वातानुकूलित स्टूडियो में ही तैयार कर लिए गए लगते हैं, और ऐसा कहने की पर्याप्त वजहें भी हैं. जिन्हें संभावना के सिद्धांतो की रत्ती भर की भी जानकारी है, वे बिना कुछ सोचे समझे बता सकते हैं कि सिक्का अगर उछाला जाएगा तो चित और पट दोनों की आने की संभावना फिफ़्टी फिफ़्टी रहती है. कम से कम सांख्यिकी विज्ञान तो इससे ज्यादा कुछ नहीं कह सकता लेकिन मीडिया के शूरवीरों ने एक नई थ्योरी गढ़ दी, कि सिक्का 75 फीसदी चित और 25 फीसदी पट की तरफ भी झुका रह सकता है. इन गणितज्ञों के हुनर और नए शोध को सैल्यूट ठोकने का मन हर किसी का कर रहा है.

कौमर्स के छात्र और उसके जानकारों सहित छोटे बड़े व्यापारी जानते हैं कि ये सर्वे बैलेन्स शीट सरीखे हैं. जिनमें जैसे भी हो आय और व्यय को बराबर बताना पड़ता है और यह दुनिया का सबसे आसान काम है. जिसे चैनल्स और एजेंसियों ने बड़े कलात्मक ढंग से अंजाम दिया.

एक शक यह भी

चुनाव पर खरबों का सट्टा लगा है, और अधिकतर लोगों ने भाजपा और एनडीए पर ही दांव खेला है. पिछले दिनों जब कुछ भाजपा नेताओं ने ही त्रिशंकु लोकसभा की संभावना जताई थी तो लोग इसी पर दांव लगाने लगे थे. खुद नरेंद्र मोदी ने एक सभा में गठबंधन सरकार चलाने का अनुभव है, जैसी बात कहकर सट्टा बाजार फिर गरमा दिया था. मीडिया के सुर भी बदले थे तो भाजपा का भाव बढ़ने लगा था. खाइबाजों के लिए यह घाटे का सौदा था. अब हर कोई टीवी के सर्वेक्षणो का इंतजार कर रहा था जिससे धुंधलका छंटे. मीडिया ने सटोरियों के मन माफिक आंकड़े दिये तो सट्टा बाजार फिर गुलजार हो उठा अब हर कोई भाजपा एनडीए और मोदी पर पैसा लगा रहा है.

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ऐसे में अगर नतीजे त्रिशंकु लोकसभा के आए जिसकी कि उम्मीद ज्यादा है तो सटोरियों की बल्ले बल्ले हो जाएगी. सर्वेक्षण हर कोई जानता है कभी सच और सटीक नहीं होते इनका  आधार या सैंपल प्रामाणिक और वैज्ञानिक नहीं होता. ये बस पैसा कमाने का जरिया होते हैं, जो  बहुत ज्यादा हर्ज की बात नहीं. लेकिन सिरे से ही सभी ने एकजुट होकर 19 मई को ही सरकार बना डाली, यह जरूर चिंता की बात है. क्योंकि मीडिया अब अपने नाम या साख की परवाह नहीं कर रहा है बल्कि नमक का हक अदा कर रहा है.

कम हैरत की बात नहीं हिन्दी भाषी राज्यों में जहां भाजपा और कांग्रेस के बीच कोई 200 सीटों पर सीधा मुक़ाबला है वहीं भाजपा को 2014 की तरह बढ़त पर बताया गया है. बात बिलकुल ही प्रायोजित न लगे इसलिए कांग्रेस की दो चार सीटें बढ़ा दी गईं. चूंकि मीडिया के अनुमान अभी भी विकल्प हीन होते हैं इसलिए उसे झेलना लोगों की मजबूरी भी है. यह किसी दल विशेष के प्रति पूर्वाग्रह नहीं बल्कि मीडिया की विश्वसनीयता की चिंता है. जो जमीनी कम हवा हवाई बातें ज्यादा कर रहा है. वह भी इस द्रुत गति से कि 19 मई को हुई 59 सीटों की वोटिंग का विश्लेषण उसने मिनटों में कर डाला. मीडिया की यह बैलेन्स शीट कितनी खरी उतरी यह 23 मई को ही पता चलेगा. लेकिन उसकी निष्ठा पर कोई संदेह व्यक्त नहीं किया जा सकता.

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4 टिप्स: स्टाइलिश बालों के लिए बेस्ट हैं ये हेयर स्ट्रेटनर

रोजाना कौलेज या औफिस जाने के लिए आप नए-नए हेयस्टाइल ट्राई करना पसंद करते होंगे, जिसके लिए आपको हेयर स्ट्रेटनर मशीन की जरूरत पड़ती है. वहीं अक्सर आप बालों को स्ट्रेट करने के लिए किसी पार्लर या घर पर ही महंगी-महंगी मशीनें खरीदते होंगे. जो आपके बजट से बाहर हो जाता है. तो आज हम आपको कुछ ऐसे हेयर स्ट्रेटनर के बारे में बताएंगे, जिन्हें आप अपने बजट में यानी 1000 रूपए की कीमत के अंदर खरीद पाएंगे. साथ ही स्टाइलिश लुक भी कैरी कर पाएंगे…

1. वेगा हेयर स्ट्रेटनर (Desire flat hair straightener)

अगर आपको भी लंबे और स्ट्रेट हेयर पसंद है तो यह स्ट्रेटनर आपके लिए बेस्ट औप्शन में से एक है. यह फ्लैट हेयर स्ट्रेटनर है, जिसे आप अपने बैग में रखकर कहीं भी ट्रैवल कर सकती हैं. यह आपको 1000 रूपए से कम की कीमत में यानी 899 रूपए में मिल जाएगा.

 2. नोवा टैम्प्रेचर कंट्रोल प्रौफेशनल हेयर स्ट्रेटनर (Nova Temperature Control Professional Hair Straightener)

अक्सर हेयर को स्ट्रेट करते समय आपको हेयर डैमेज या स्ट्रेटनर का टैम्प्रेचर कंट्रोल करने की जरूरत होती होगी. तो यह स्ट्रेटनर आपके लिए परफेक्ट है. यह टैम्प्रेचर कंट्रोल करके आपके बालों को डैमेज होने से बचाएगा. यह आपको 425 रूपए में मिल जाएगा.

3. सिस्का सुपर ग्लैम हेयर स्ट्रेटनर (Syska Super Glam Hair Straightener)

कौलेज के लिए अगर आप भी पाना चाहती हैं ग्लैमरस लुक के साथ स्ट्रेट हेयर का लुक पाना चाहती हैं, तो यह स्ट्रेटनर जरूर ट्राई करें यह आपको दुकानों में 649 में मिल जाएगी. और आप चाहें तो यह औनलाइन भी खरीद सकती हैं.

4. फिलिप्स कौम्पैक हेयर स्ट्रेटनर (Philips compact Hair Straightener)

फिलिप्स अपने आप में ही एक ब्रैंड है. अगर आप एख ब्रैडेड हेयर स्ट्रेटनर का शौक रखती हैं. तो यह आपके लिए बेस्ट औप्शन है. यह आपको औन्लाइन या मार्केट में 949 रूपए में आसानी से मिल जाएगी.

जायकेदार लहसुनी मुर्ग

लहसुनी मुर्ग बहुत ही स्वादिष्ट डिश है. इसमें डाले जाने वाले मसाले और भरपूरी मात्रा में लहसुन का इस्तेमाल इसे एक बेहतरीन डिश बनाते हैं. चिकन खाने के शौकीन है तो एक बार इस बेहतरीन डिश को ​ट्राई करें.

सामग्री

बोनलेस चि​कन (1/2 kg)

घी (2-3 टेबल स्पून)

पानी (1 कप पानी)

प्याज (1 कप)

लहसुन पेस्ट (5-6 टी स्पून)

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अदरक पेस्ट (3-4 टी स्पून)

धनिया पाउडर (3 टी स्पून)

दही (4 टी स्पून)

लाल मिर्च पाउडर (2 टी स्पून)

बादाम पेस्ट (5-6 टी स्पून)

जायफल (1/4 टी स्पून)

जावित्री पाउडर (1/4 टी स्पून)

कालीमिर्च पाउडर (1/2 टी स्पून)

लहसुन (4 टी स्पून तला हुआ)

केसर का घोल (2 टी स्पून)

स्पून हरा धनिया (2-3 टी स्पून)

बनाने की वि​धि

बादाम को हल्का सा रोस्ट करें और पानी में कुछ देर भिगोने के बाद इसे पीसकर इसका पेस्ट बनाकर एक तरफ रख दें.

एक पैन में घी गर्म करें और इसमें प्याज डालकर फ्राई करें और इसमें अदरक और लहसुन का पेस्ट डालकर अच्छे से मिलाएं.

इसमें धनिया पाउडर और 4 से 5 बड़े चम्मच पानी डालें और इसे लगातार चलाएं.

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इसमें दही और लाल मिर्च पाउडर डालकर दोबारा अच्छे से मिलाएं.

इसके बाद बादाम का पेस्ट डालकर इसे कुछ देर के लिए पकाएं.

चिकन को डालकर अच्छे से मिलाएं.

इसमें अब नमक और पानी डालकर, थोड़ी देर पकाएं या फिर चिकन जब तक पूरी तरह न पक जाएं.

जायफल पाउडर, जावित्री पाउडर, कालीमिर्च पाउडर डालें और इसी के साथ इसमें काटकर फ्राई किया गया लहसुन और केसर भी डालें.

हरा धनिया डालकर गार्निश करें और गर्मागर्म सर्व करें.

महंगा, शक्की और हिचकिचाहट से भरा प्रीमैरिटल हैल्थ टैस्ट

प्रीमैरिटल हैल्थ टैस्ट में लड़के और लड़की की कुछ बड़ी बीमारियों की जांच शादी से पहले कराई जाती है ताकि उन की संतान उन बीमारियों की चपेट में न आने पाए. पर क्या भारतीय समाज इसे स्वीकार कर पाएगा?

17 जनवरी, 2001 को जब खूबसूरत हीरोइन टिंव्कल खन्ना और हैंडसम हीरो अक्षय कुमार की शादी हुई थी तब अक्षय कुमार को सपने में भी गुमान नहीं था कि इस शादी से पहले टिंव्कल ने उस के परिवार वालों का मैडिकल चैकअप कराया था.

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टिंव्कल खन्ना का मानना था कि शादी होगी तो बच्चे भी होंगे इसलिए वे देखना और परखना चाहती थीं कि अक्षय कुमार के परिवार में कोई ऐसी बीमारी तो नहीं है जो आगे जा कर उन के बच्चों पर बुरा असर डालेगी.

टिंव्कल खन्ना ने यह सब जो किया था उसे प्रीमैरिटल हैल्थ टैस्ट कहते हैं जिस का चलन भारत में अभी ज्यादा नहीं है. हां, बौलीवुड से ऐसी खबरें आती रहती हैं. हाल ही में हीरो अर्जुन कपूर और उन की तथाकथित गर्लफ्रैंड मलाइका अरोड़ा को जब मुंबई के एक प्राइवेट अस्पताल में एकसाथ देखा गया तो ये सुर्खियां बन गईं कि वे दोनों शादी से पहले कराए जाने वाले प्रीमैरिटल हैल्थ टैस्ट के लिए वहां पहुंचे थे. ऐसे ही हीरोइन दीपिका पादुकोण और हीरो रणवीर सिंह ने भी अपनी शादी से पहले प्रीमैरिटल हैल्थ टैस्ट कराया था.

क्या बला है यह प्रीमैरिटल हैल्थ टैस्ट? दरअसल, प्रीमैरिटल हैल्थ टैस्ट के जरिए शादी करने वाला जोड़ा यह पता करता है कि उन दोनों में से किसी को भी किसी तरह की कोई जैनेटिक, ब्लड से जुड़ी या इंफैक्शन वाली कोई बीमारी तो नहीं है ताकि होने वाले बच्चे को मातापिता की मौजूदा बीमारियों के खतरे से बचाया जा सके. ऐसा हैल्थ टैस्ट कराना इसलिए भी बेहतर है कि आज दुनियाभर में बच्चों में जैनेटिक और ब्लड से जुड़ी बीमारियों का खतरा तेजी से बढ़ रहा है.

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भारत में चाहे यह सब करना नई बात लगे या अभी सैलिब्रिटी हस्तियों में इस का चलन ही दिखे पर यूरोप समेत कई देशों में तो शादी से पहले प्रीमैरिटल हैल्थ टैस्ट कराना अनिवार्य है.

इस मसले पर दिल्ली के अपोलो अस्पताल में सीनियर कंसल्टैंट डाक्टर अनूप धीर ने बताया, ‘‘शादी से पहले ऐसा कोई हैल्थ टैस्ट कराना लड़के और लड़की का निजी फैसला होता है. उन पर किसी तरह का कोई दबाव नहीं होता है. शादी से पहले कुछ जरूरी टैस्ट करा लेने चाहिए. अमूमन शादी से 2 से

3 हफ्ते पहले तक इस तरह के हैल्थ टैस्ट को कराना सही समय माना जाता है.’’

ऐसे टैस्ट कितने तरीके के होते हैं? इस सवाल का जवाब यही है कि प्रीमैरिटल हैल्थ टैस्ट के तहत शादी से पहले ये 4 टैस्ट जरूर कराने चाहिए :

एचआईवी और एसटीडी टैस्ट

एचआईवी, हैपेटाइटिस बी, हैपेटाइटिस सी और इस तरह की कई दूसरी बीमारियों के होने से कई बार शादीशुदा जिंदगी में मुश्किलें आ जाती हैं. जांच के बाद अगर पता चलता है कि आप के पार्टनर को ऐसी ही कोई बीमारी है तो समय रहते उचित इलाज कराया जा सकता है. इस के अलावा किसी भी तरह की सैक्स से जुड़ी बीमारी के बारे में भी पहले से जानकारी होना सही रहता है ताकि उस का उचित इलाज हो सके और बांझपन या नपुंसकता व गर्भपात के खतरे को कम किया जा सके.

ब्लड ग्रुप का टैस्ट

ब्लड गु्रप में तालमेल न होने से अनेक समस्याएं आ सकती हैं. जांच कराने से महिला की गर्भावस्था के दौरान उस में या होने वाले बच्चे में किसी भी तरह की समस्या आने को रोका जा सकता है.

फर्टिलिटी टैस्ट

महिला का फर्टिलिटी टैस्ट कराना भी बेहद जरूरी है. फर्टिलिटी के बारे में जितनी जल्दी पता चल जाए उतना अच्छा है, ताकि शादी के बाद किसी भी तरह के गैरजरूरी बायोलौजिकल, साइकोलौजिकल, सोशल और इमोशनल ट्रौमा को रोका जा सके.

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जैनेटिक या दूसरे मैडिकल टैस्ट

इस के तहत डायबिटीज, हाइपरटैंशन, किडनी से जुड़ी बीमारियां, थैलेसीमिया और कुछ तरह के कैंसर के टैस्ट किए जाते हैं, ताकि होने वाले बच्चे में इन बीमारियों के खतरे को कम किया जा सके.

सवाल उठता है कि क्या बड़े लोगों की तरह आम लोगों में भी प्रीमैरिटल हैल्थ टैस्ट कराने की संभावना बढ़ रही है या वे इस बात को ले कर कितने जागरूक हैं? इस मुद्दे पर डाइटीशियन नेहा सागर ने बताया, ‘‘अभी तो ज्यादतर लोगों में प्रीमैरिटल हैल्थ टैस्ट को ले कर इतनी जागरूकता नहीं है पर मेरी यह राय है कि इसे करा लेना चाहिए. आज की जीवनशैली ने हमारी बौडी पर बहुत ज्यादा असर डाला है. कहीं से भी कैसा भी पानी पीने या

घर में आरओ सिस्टम लगा न होने के चलते दूषित पानी से हमें लिवर से जुड़ी दिक्कतें हो सकती हैं. इस से हैपेटाइटिस होने का खतरा बढ़ जाता है.’’

लेकिन हमारे देश में जहां शादी को एक धार्मिक संस्कार माना जाता है वहां किसी का ऐसा फैसला लेना आसान नहीं है. खर्च की बात करें तो इस तरह के टैस्ट कराने की कोई फिक्स्ड फीस नहीं है. सारे टैस्ट कराने में कई हजार रुपए खर्च हो सकते हैं जो हर किसी के बूते की बात नहीं है. और फिर यह भी कोई गारंटी नहीं है कि अगर लड़के या लड़की को कोई गंभीर बीमारी निकल भी आई तो उस का इलाज होने तक दूसरा पार्टनर उस से शादी करने का इंतजार कर ही लेगा.

इस के अलावा परिवार वाले भी अड़चन पैदा कर सकते हैं. उन के मन में शक पैदा हो जाएगा कि जब आज तक किसी तरह की कोई शिकायत नहीं आई है तो शादी से पहले टैस्ट कराने का मकसद क्या है? लड़की वालों को तो इसी बात का डर रहेगा कि टैस्ट कराने के चक्कर में लड़का उस के कुंआरेपन को तो नहीं परख रहा है?

कुंआरेपन को जांचने का टैस्ट होता है या नहीं, लेकिन लड़के या लड़की में सैक्स को ले कर कोई कमी है, तो उस का टैस्ट जरूर कराया जा सकता है. लेकिन वहां लड़के में अपनी मर्दानगी के टैस्ट को ले कर हिचकिचाहट हो सकती है. अगर लड़के और लड़की की लव मैरिज है और उन में शादी से पहले सैक्स हो चुका है तो उन में यह मानसिक तनाव भी हो सकता है कि क्या उस के पार्टनर को उस में कोई कमी दिखाई देती है या वह सैक्स करने में पूरी तरह से काबिल ही नहीं है?

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विज्ञान और सेहत के नजरिए से देखा जाए तो शादी से पहले ऐसे हैल्थ टैस्ट लड़के और लड़की की आने वाली जिंदगी को बेहतर बनाने में मददगार साबित हो सकते हैं पर अभी तो भारत जैसे देश में ये शक और हिचकिचाहट से भरे महंगे सौदे ही लग रहे हैं.

अंधविश्वास: पढ़े लिखे लोगों में धार्मिक चोंचले

रश्मि पढ़ीलिखी आधुनिक महिला है. मौडर्न कपड़े पहनने वाली, कार ड्राइव करने वाली, किसी भी मुद्दे पर बेधड़क अपनी राय रखने वाली. उसे देख कर मुझे यही लगता था कि वह बहुत समझदार और खुले विचारों वाली जागरूक महिला है. लेकिन उस दिन मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उस ने मुझे वैभवलक्ष्मी के व्रतों के उद्यापन का न्योता भेजा. उसे एक निश्चित संख्या में विवाहित महिलाओं को खाना खिलाना था. उस के बहुत आग्रह पर जब मैं दोस्ती कायम रखने की खातिर वहां गई तो उस की हालत पर तरस आ गया. उस ने बहुत भारी साड़ी पहनी थी जो शायद उस की शादी के समय की थी. वह उस से संभल नहीं रही थी, गरमी के मारे उस की जान निकल रही थी, फिर भी वह उसी को पहने सारे काम कर रही थी.

मैं ने कहा, ‘‘यार, तुम्हें ऐसे देख मुझे ही बहुत गरमी लग रही है, तो तुम्हारा क्या हाल हो रहा होगा. कपड़े चेंज कर कुछ हलका पहन लो. यहां कौन देख रहा है. हम सब फ्रैंड्स ही तो हैं.’’ इस पर वह लाचारी से बोली, ‘‘नहीं, सासुमां का फोन आया था, कह रही थीं, उद्यापन के समय शादी की साड़ी ही पहननी है.’’

खैर, जब पूरा आयोजन संपन्न हो गया तो उस ने सब को एक पुस्तक बांटी, जो मराठी में थी. मैं ने कहा, ‘‘मुझे तो मराठी नहीं आती, मैं इस का क्या करूंगी?’’ तो वह बोली, ‘‘अरे मुझ से लेले यार, फिर जो मरजी करना. यहां पुणे में मुझे ये ही मिली हैं. इन को बांटना जरूरी है वरना पूजा पूरी नहीं होगी.’’ वहां उपस्थित एक और महिला बोली, ‘‘इस किताब में लिखा है, जिसे भी यह पुस्तक मिले, उसे लक्ष्मी मां के ऐसे ही व्रत रख कर 11 सुहागिनों को खाना खिला कर यह पुस्तक बांटनी होगी तो मां उस पर कृपा करेंगी वरना सारा वैभव छीन लेंगी.’’

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मैं ने कहा, ‘‘जरूर यह इस किताब के प्रकाशक की करतूत है, ताकि उस की किताबें बिकती रहें.’’ तो इस पर वह मुझ से गुस्से से बोली, ‘‘पूजा के मामले में ऐसी घटिया बातें नहीं करते, खासकर, लक्ष्मीजी की किताब के लिए. यदि वे नाराज हो गईं तो सारा वैभव चला जाएगा.’’ हैरियत मुझे तब हुई जब रश्मि ने भी उस की हां में हां मिलाई.

सब के जाने के बाद, मैं ने थकीहारी रश्मि से पूछा, ‘‘एक बात बता, यह कर के तुझे क्या फायदा मिला?’’

इस पर वह बोली, ‘‘अभी तो पता नहीं, पर मेरी मां और सास दोनों कहती हैं कि जो महिला यह व्रत करती है उस के पति को बिजनैस या नौकरी में कभी कोई परेशानी नहीं आती, भरपूर धन मिलता रहता है.’’

वह बात अलग है कि आजकल आईटी कंपनियों में आ रहे रिसैशन की वजह से पिछले महीने ही उस के सौफ्टवेयर इंजीनियर पति की नौकरी चली गई. मगर आश्चर्य की बात यह है कि बजाय यह बात समझने के कि ऐसे धार्मिक कर्मकांड आप की नौकरी बने रहने की गारंटी नहीं देते, वह और ज्यादा पूजापाठ के चक्कर में पड़ गई. कभी ये व्रत, कभी वो पूजा.

रश्मि की ही नहीं, हजारों शिक्षित महिलाओं की यही कहानी है जो कुछ खो जाने के डर से या कुछ ज्यादा पाने के लालच में धार्मिक चोंचलों की गिरफ्त में फंस जाती हैं और पुरुषों को घसीट लेती हैं.

संस्कृत में एक कहावत है, ‘सा विद्या या विमुक्तए’ अर्थात विद्या वह है जो मुक्त कर दे. मगर किस से? अज्ञान से, गलत सोच से, बेसिरपैर की रूढि़वादिता से और धर्म के नाम पर हो रहे ढकोसलों से.

यदि शिक्षा का यह अर्थ है, फिर तो शिक्षित वर्ग को ऐसी धार्मिक चोंचलेबाजियों से दूर ही रहना चाहिए. मगर अफसोस, ऐसा नहीं हो रहा है.

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शिक्षा प्रणाली की विफलता

शिक्षा का असली मकसद होता है इंसान में सहीगलत की पहचान करने की समझ जगाना, उस में सही फैसला लेने की काबिलीयत पैदा करना, उसे दुनिया से और स्कूलकालेज से जो भी जानकारियां और तजरबे हासिल हो रहे हैं उन का सही समय पर सही तरीके से इस्तेमाल करना सिखाना. और सब से जरूरी बात, उसे मानसिक और भावनात्मक रूप से इतना ताकतवर बनाना कि वह जीवन की चुनौतियों व विफलताओं को आसानी से न सिर्फ स्वीकार करे, बल्कि उन का डट कर सामना भी करे.

अब आप ही बताइए, क्या आजकल की शिक्षा प्रणाली इन में से अपना कोई भी मकसद पूरा कर रही है? आजकल की शिक्षा इंसान को सिर्फ रेस के लिए तैयार कर रही है, प्रतियोगिताओं में घोड़े की तरह दौड़ने के लिए प्रोत्साहित कर रही है?

आज की शिक्षा सिखाती है- भागते जाओ, भागते जाओ, तुम्हें यह मिलेगा तुम्हें वह मिलेगा. परंतु वह कभी भी यह नहीं सिखाती कि जब कभी भागतेभागते गिर पड़ो, तो क्या करना है, कैसे खुद को संभालना है. सो, जब गिरने का समय आता है, इंसान संभलने के लिए इधरउधर सहारे खोजने लगता है. मगर आजकल संसार में सहारे मिलते कहां हैं, बुरे वक्त में सगे भाई भी कन्नी काट लेते हैं. ऐसे में वह धर्म की शरण में जाता है जहां कोई पंडित, कोई मौलवी, कोई ज्योतिषी उसे बता देता है, ‘अरे, यह समस्या तो कुछ नहीं है. ये धार्मिक कर्मकांड कर लो, सब ठीक हो जाएगा.’

बस समझिए, जैसे उसे अपनी बीमारी के लिए एक हकीम मिल गया हो. जैसेजैसे वह उस के कहे अनुसार धार्मिक कर्मकांड करता जाता है, पंडित की जेब भरती जाती है और उस का विश्वास बना रहता है कि अब सबकुछ ठीक हो जाएगा.

जरा सोचिए, एक विश्वास जगाने के लिए वह इतना कुछ करता है. यदि यह विश्वास उसे अपनी शिक्षा के साथ ही मिला होता कि खुद पर भरोसा रखो, सब्र और समझ के साथ सही दिशा में काम करते रहो, फिर सबकुछ ठीक हो जाएगा, तो क्या उसे किसी धार्मिक सहारे की जरूरत पड़ती? कभी नहीं.

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धर्म का धंधा, न हो मंदा

शिक्षित मध्यवर्ग में अपने भविष्य को ले कर सब से ज्यादा डर और असुरक्षा की भावना पनपने लगी है. पढ़ेलिखे लोग भी आज कम समय में सबकुछ पाना चाहते हैं और जो है, उसे खोने से डरते हैं. इसलिए जब कोई उन से कहता है, फलांफलां धार्मिक कर्मकांड करने से भगवान खुश होंगे और तुम्हें भी खुश रखेंगे तो वे बिना दिमाग लगाए धार्मिक चोंचलों की चपेट में आ जाते हैं. साथ ही, धार्मिक कथाकहानियों के जरिए उन के मन में ऐसे डर भर दिए जाते हैं कि वे चाह कर भी उन की गिरफ्त से नहीं निकल पाते. उन्हें लगने लगता है कि यदि उन्होंने फलां पूजा संपन्न नहीं कराई तो उन का बड़ा अनर्थ हो सकता है. लेकिन कभीकभी इस अंधभक्ति के बड़े भयंकर परिणाम सामने आते हैं. व्रतों और साधनाओं को पूरा करने में लोग अपनी जान भी गंवा बैठते हैं.

मेरे सामने की ही बात है, एक पढ़ेलिखे 32 वर्षीय चार्टर्ड अकांउटैंट ने फ्लैट लिया. उस के मातापिता बहुत धार्मिक प्रवृत्ति के थे. उन्होंने गृहप्रवेश से पहले 3 दिनों तक अलगअलग तरह के यज्ञ और पूजा का आयोजन रखा. लड़के को उन्हीं दिनों बुखार आया. डाक्टर के बारबार आगाह करने पर भी वह 2 दिन तक घर में चल रहे पूजापाठ के चक्कर में ब्लड टैस्ट टालता रहा. वह अपने मातापिता से उस बारे में बात करता तो वे कहते, ‘बुखार ही तो है, ज्यादा काम करने से हुआ होगा, भगवान सब ठीक करेंगे.’

जब उसे बहुत कमजोरी आने लगी तो डाक्टर ने जबरदस्ती उस का ब्लड सैंपल ले कर लैबोरेटरी भेजा. उसे डेंगू हुआ था. डाक्टर ने उसे तुरंत ऐडमिट होने के लिए कहा. मगर वह ऐडमिट कैसे होता? अगली सुबह 3 दिन से चल रही पूजा का समापन यज्ञ होना था, घर में सभी नातेरिश्तेदार जुटे थे. उस ने सोचा, एक रात की ही बात है, किसी तरह काट लेता हूं. मां भी यही कह रही थी, ‘तुम्हारे नाम से संकल्प लिया है, सो तुम्हारा यज्ञ में रहना जरूरी है, वरना अपशकुन होगा. भगवान पर भरोसा रखो, वे सब ठीक करेंगे.’

अगली सुबह उस के पेट में तेज दर्द हुआ, तो उसे जल्दबाजी में अस्पताल लाया गया. वहां पहुंचते ही उस ने खून की उलटी की और तुरंत उस की मृत्यु हो गई.

जरा सोचिए, कहां गया उस पूजापाठ का प्रताप और क्या हुआ उस गारंटी का जो पंडित ने दी थी कि यह पूजा करने पर नए घर में सब कुशलमंगल होगा.

इंजीनियर पिता और एमए पास मां का सीए बेटा डेंगू से मरा, वह भी इसलिए क्योंकि उस ने पूजापाठ के चक्कर में न तो समय से ब्लड टैस्ट कराया और न ही अस्पताल में ऐडमिट हुआ, जबकि आजकल अनपढ़ लोग भी सुनसुन कर इतना तो जान ही गए हैं कि डेंगू, चिकनगुनिया, स्वाइन फ्लू जैसे बुखारों में कोई रिस्क नहीं लेना चाहिए, इन में जान भी जा सकती है.

यह कैसी धर्मांधता है, यह कैसा अंधविश्वास है जो एक शिक्षित इंसान की भी सोचनेसमझने की शक्ति हर लेता है. हद तो यह है कि अंधविश्वास इतना गहरा है कि उस पंडे से जवाब मांगने की भी हिम्मत नहीं होती. वैसे भी पंडे इतने चतुर होते हैं कि हर बात का उत्तर उन के पास होता है.

मीडिया प्रचार से बढ़ता धर्म का बुखार

पहले कुछ लोग ही पंडितोंज्योतिषियों के चक्कर में पड़ते थे क्योंकि वहां उन्हें अच्छीखासी दक्षिणा देनी पड़ती थी. मगर अब ये सभी बातें न्यूजचैनल, पत्रपत्रिकाओं, इंटरनैट पर हर जगह फ्री में उपलब्ध हैं. हर जगह कोई न कोई बाबा, वास्तुशास्त्री, ज्योतिषी, टैरो रीडर आदि बैठ कर बता रहा होता है कि किस दिन क्या उपाय करने पर क्या लाभ होगा, क्या नहीं करने पर क्या हानि होगी. पढ़ेलिखे लोग भी यह सुन कर अपने अंदर बैठे डर को निकालने के लिए या कुछ ज्यादा पाने के लालच में ऐसे सब उपाय करने लगते हैं.

लोगों के धार्मिक अंधविश्वास में बढ़ते रुझान को समझ कर ऐसी अनेक वैबसाइटें बन गई हैं जो ज्योतिष फल, कर्मकांड, टोनेटोटकों पर आधारित होती हैं. ये आप के लिए घर बैठे ही पूजा का लाभ, दर्शन लाभ, श्रीयंत्र, रुद्राक्ष, अभिमंत्रित अंगूठियां, नग और मालाएं जैसे उपक्रम आयोजित कर देती हैं. उन के द्वारा आप घर बैठेबैठे मंदिरों का महाप्रसाद भी प्राप्त कर सकते हैं. इस के लिए वे औनलाइन पेमैंट ले लेती हैं. इस तरह से मीडिया और इंटरनैट की वजह से भी धर्म का धंधा खूब फलफूल रहा है.

हम में भी है दम

आजकल धार्मिक आयोजनों की आड़ में यही तो कहा जा रहा है कि हमें कोई हलके में न ले, हम भी कुछ हैं. त्योहार, धार्मिक आयोजन समाज में शोऔफ का साधन बन गए हैं. पहले लोग सिर्फ बेटेबेटी की शादियों में अपनी हैसियत का खुला प्रदर्शन करते थे ताकि उन की समाज में इज्जत बढ़े लेकिन अब यह धार्मिक चोंचलेबाजियों के माध्यम से होने लगा है.

गणपति उत्सव में किस का गणपति बड़ा, किस का पंडाल बड़ा, महल्ले में नवरात्रों में किस ने बड़ी मंडली बुला कर जागरण कराया, दीवाली पर किस ने ज्यादा लाइट लगाई, पटाखे फोड़े, हलदी कुमकुम पर किस ने किस को क्या दिया…इन्हीं सब दिखावे और शोशेबाजी से पढ़ेलिखे लोग भी अपना अहंकार संतुष्ट करते हैं.

भक्ति या गेटटुगेदर

धार्मिक चोंचले मेलजोल के भी बहाने बन गए हैं. लोगों को अपने मित्रोंरिश्तेदारों को बुलाना हो, फैमिली गैदरिंग करनी हो, उन से कुछ लेनदेन निबटाना हो तो जागरण, कथाकीर्तन आदि रख लेते हैं. लेकिन उन में बातें वही होती हैं, किस ने क्या पहना है, कौन क्या लाया है, किसे क्या देना है आदि.

एक बार हमारे पास जागरण का न्योता आया. मैं ने फोन कर के पूछा, ‘‘आंटीजी, कोई विशेष अवसर है क्या?’’, वे बोलीं, ‘‘हां, हमारी 50वीं मैरिज ऐनिवर्सरी है.’’ मैं ने कहा, ‘‘फिर तो कोई बढि़या पार्टी होनी चाहिए थी.’’ इस पर वे पलट कर बोलीं, ‘‘अरे, इसे पार्टी ही समझो, बीच में केक भी कटेगा.’’

थोड़ा और कुरेदने पर कहने लगीं, ‘‘वैसे तो हम पार्टी ही रखने वाले थे लेकिन खर्चा ज्यादा हो रहा था. फिर सोचसमझ कर जागरण रख लिया, मेहमान शाम तक आएंगे. खाने में सिंपल आलू, पूरी, कद्दू से काम चल जाएगा. जागरण में किसी के रुकने के लिए कमरा भी बुक नहीं करना पड़ेगा. कुछ तो केक कटिंग के बाद ही लौट जाएंगे, बाकी जो रुकेंगे, वे सुबह चनापूरी का प्रसाद खा चलते बनेंगे. जागरण में कोई रिटर्न गिफ्ट भी ऐक्स्पैक्ट नहीं करेगा और नाम भी हो जाएगा कि हम ने ऐनिवर्सरी पर जागरण करवाया.’’

मैं ने मन ही मन सोचा, ‘वाह, भगवान के नाम पर क्या प्लानिंग की है, मानना पड़ेगा.’ वे एक बड़े कालेज से रिटायर लैक्चरर थीं.

सवाल तो उठेगा

यदि चाइल्ड डैवलपमैंट की बात करें तो जिज्ञासु होना, सवाल पूछना, बच्चे के व्यक्तित्त्व का एक बहुत बड़ा गुण माना जाता है. शिक्षा में इस गुण का बहुत महत्त्व है क्योंकि जिस के भीतर सवाल उठते हैं, वही उत्तर खोज सकता है, कुछ नया जान सकता है. हमारे जीवन में धार्मिक चोंचलों की घुसपैठ तभी रुक सकती है जब उन पर सवाल उठाए जाएं कि ये क्यों किए जा रहे हैं, इन के पीछे क्या समझ है, ये जो रटेरटाए मंत्र बोले जा रहे हैं, इन का क्या अर्थ है? तो काफी धुंध खुद ही छंट जाएगी.

एक बार एक शिक्षक के घर में सत्यनारायण की कथा चल रही थी. कथा में पंडितजी बारबार यही वर्णन कर रहे थे कि फलां ने सत्यनारायण की कथा कराई तो उस का यह भला हुआ, फलां ने नहीं कराई तो उस की ऐसीऐसी हानि हो गई. घर के सभी लोग बड़े भक्तिभाव से कथा सुन रहे थे. वहां पर एक किशोरवय भी था जो पूरी कथा ध्यानपूर्वक सुन रहा था.

जब कथा पूरी हुई तो वह पूछने लगा, ‘‘पंडितजी, पूरी कथा में असली कथा की तो बात ही नहीं आई. कथा और व्रत करने और न करने के फायदेनुकसान तो बताए गए मगर वह कथा कौन सी थी जो पहली बार की गई, वह तो आप ने सुनाई ही नहीं.’’ इस बात पर पंडितजी भी निरुत्तर हो गए. कहने लगे कि ईश्वर भक्ति में आस्था रखी जाती है, सवाल नहीं पूछे जाते.

हमारे एक रिश्तेदार कृष्णभक्त हैं. वे जहां भी जाते हैं अपने साथ भगवान की मूर्तियों की पूरी बास्केट ले कर जाते हैं. उन में 3 मूर्तियां तो लड्डू गोपाल की ही हैं. वे तीनों को भोग लगाते हैं और शयन भी कराते हैं. एक बार जब वे मेरे यहां आए तो मेरे बेटे ने उन से पूछ लिया, ‘‘आप के पास ये 3 एकजैसे भगवान क्यों हैं, क्या ये आपस में भाई हैं?’’ वे बोले, ‘‘नहीं, ये एक ही लड्डू गोपाल हैं.’’ इस पर बेटा बोला, ‘‘जब ये तीनों एक ही हैं तो आप तीनों की अलगअलग पूजा क्यों करते हैं?’’

जो बात बच्चों के दिमाग में आती है, वह बड़ों के दिमाग में भी तो आती होगी, मगर पता नहीं क्यों वे धर्म से जुड़े सवाल पूछने से घबराते हैं. तीजव्रत की कथा में कुछ दिलचस्प बातें आती हैं, जैसे जो स्त्री इस व्रत के दौरान सो जाती है वह अगले जन्म में अजगर बनती है, जो शक्कर खाती है वह मक्खी, जो व्रत नहीं करती वह विधवा, जो जल पी लेती है वह मछली बन जाती है, और भी न जाने क्याक्या…जब इस कहानी को एक शिक्षित महिला सुनती और पढ़ती है तो वह क्यों कोई सवाल नहीं उठाती, यह सोचने वाली बात है.

लोग धर्म और आस्था के नाम पर सदियों से फैले हुए इस मकड़जाल से तभी बच सकते हैं जब इस का खंडन शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत हो. बच्चों के लिए वही बात सही होती है जो उन के टीचर उन्हें समझाते हैं, जो उन की पुस्तकों में होता है. यदि उन को शुरू से ही स्कूल में सही समझ मिले तो वे इस धार्मिक दलदल से बाहर आ सकते हैं.

मगर सवाल वही है, बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? यह देश के लिए बहुत खराब है कि शिक्षा व्यवस्था की देखरेख उन के हाथों में है जो अपनी चुनावी सफलता के लिए खुद जम कर धार्मिक चोंचलेबाजियां करते हैं.

आगामी अतीत

पूर्व कथा

ज्योत्स्ना अपनी बेटी डा. भावना से शादी में आने वाले मेहमानों की लिस्ट के बारे में पूछती हैं तो वह अपने खास दोस्त को बुलाने की बात कह कर कार में बैठ कर अस्पताल चली जाती है. कार ड्राइव करते हुए उस की आंखों के सामने बीमार पिता का चेहरा घूमने लगता है जो उसे और उस की मां को छोड़ कर चला गया था. अस्पताल में उस की मुलाकात डा. आर्या से होती है. मरीज निबटाने के बाद चाय पीते हुए वह अतीत में खो जाती है. अपने पापा के यों घर छोड़ कर जाने के बाद से वह शादी न करने का फैसला करती है और डा. अमन के प्रणय निवेदन को अस्वीकार कर देती है. ज्योत्स्ना भी समझा कर हार जाती हैं.

लगभग 6 महीने पहले उस के अस्पताल में एक नए मरीज के आने पर वह उसे जानापहचाना लगता है कि कहीं वह उस के पापा तो नहीं. नर्स से पूछने पर मालूम पड़ता है कि मरीज का नाम आशीश शर्मा है.

एक दिन अस्पताल पहुंचने पर वह उस मरीज को न पा कर नर्स से पूछती है तो वह भावना को एक पत्र देती है. जिस में वह उन मांबेटी से माफी मांगता है. उस के मन में विवाह के प्रति जो कड़वाहट होती है वह समाप्त हो जाती है. वह डा. अमन से शादी करने को तैयार हो जाती है और ज्योत्स्ना जुट जाती है उस की शादी की तैयारी में.

एक दिन आधी रात को भावना की नींद खुलती है तो ज्योत्स्ना को न पा कर वह बालकनी में आती है और मां से पूछती है कि यदि पापा आ जाएं तो क्या उन्हें माफ कर दोगी. ज्योत्स्ना कुछ नहीं कहतीं. तभी डा. आर्या की आवाज सुन कर भावना वर्तमान में लौट आती है और अपने आंसू पोंछती हुई बैग और कार्ड ले कर पत्र वाले पते पर जा पहुंचती है. भावना को अपने घर पर देख आशीश शर्मा चौंक जाता है. और अब आगे…

गतांक से आगे…

अंतिम भाग

आशीश शर्मा का पता ढूंढ़तेढूंढ़ते जब भावना उन के घर पहुंची तो शाम गहरा रही  थी. धड़कते हृदय से उस ने घंटी बजा दी. अंदर की आवाज पास आती हुई लग रही थी. थोड़ी देर बाद दरवाजा खुल गया. आशीश शर्मा उसे आश्चर्य व खुशी से भौचक हो निहार रहे थे.

‘‘तुम…तुम डा. भावना हो न?’’

‘‘हां, पापा,’’ वह कठिनाई से बोल पाई. बरसों बाद पापा बोलने के लिए उसे काफी प्रयास करना पड़ा.

‘‘आओ…अंदर आओ, बेटी…’’ आशीश शर्मा की खुशी का वेग उन के हावभाव से संभल नहीं पा रहा था. शायद वह समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें और क्या न करें.

हृदय में उठते तूफान को थामते हुए हाथ का कार्ड पकड़ाते हुए वह बोली,   ‘‘यह मेरी शादी का कार्ड है. आप जरूर आइएगा.’’

‘‘तुम्हारी शादी हो रही है…’’ वह खुशी से बोले. फिर कार्ड पकड़ते हुए धीरे से बोले, ‘‘तुम्हारी मम्मी जानती हैं सबकुछ…’’

‘‘हां…’’ वह झूठ बोल गई, ‘‘आप जरूर आइएगा,’’ कह कर वह बिना एक क्षण भी रुके वापस मुड़ गई.

आशीश शर्मा अंदर आ गए, थके हुए से वह कुरसी में धंस गए.

भावना एक आशा की किरण उन के दिल में जगा कर गुम हो गई थी. वह ही जानते हैं कि अपने परिवार से बिछड़ कर वह कितना तड़पे हैं…अपनी बड़ी होती बेटी को देखने के लिए उन्होंने कितनी कोशिश नहीं की…कितना कोसा उन्होंने खुद को, जब वह दामिनी के चंगुल में फंस गए थे…कैसा जाल फेंका दामिनी ने उन्हें फंसाने के लिए…उन की पत्नी एक शांत नदी की तरह थी और दामिनी थी बरसाती उफनता नाला, जो अपने सारे कगारों को तोड़ कर उन की तरफ बढ़ता रहा और वह स्वयं भी उस में बह गए.

उस समय तो बस, दामिनी को पाना ही जैसे उन का एकमात्र लक्ष्य रह गया था. क्यों इतना आकर्षित हो गए थे वह उस समय दामिनी की तरफ…दामिनी की तड़कभड़क, अपने में समा लेने वाले उद्दाम सौंदर्य के पीछे वह उस की चरित्रहीनता और बददिमागी को नहीं देख पाए.

दामिनी के सामने उन्हें अपनी शांत सौम्य पत्नी बासी व श्रीहीन लगी थी. लगा, उस के साथ जीने में कोई मजा ही नहीं है. एकरस दिनचर्या…तनमन का एकरस साथ…तब नहीं समझा अपनी सीमाओं में रहने वाली नदी की तरह ही उन की पत्नी ने भी उन के जीवन को व उन के परिवार को सीमाओं में बांधा हुआ है.

दामिनी का साथ बहुत लंबे समय तक नहीं रह पाया. शुरू में तो वह दामिनी के सौंदर्य के सागर में डूब गए, लेकिन दामिनी के रूप का तिलिस्म अधिक नहीं रह पाया. धीरेधीरे प्याज के छिलकों की तरह परत दर परत दामिनी का असली चेहरा उन के सामने खुलने लगा. अपनी जिस तनख्वाह में पत्नी व बेटी के साथ वह सुखमय जीवन व्यतीत कर रहे थे, उसी तनख्वाह में दामिनी के साथ गृहस्थी की गाड़ी खींचना मुश्किल ही नहीं दूभर हो रहा था. उस के सैरसपाटे, बनावशृंगार व साडि़यों के खर्चे से वह परेशान हो गए थे. बात इतनी ही होती तो भी ठीक था. दामिनी परले दर्जे की झगड़ालू व बददिमाग थी. उन को हर पल दामिनी की  तुलना में ज्योत्स्ना याद आ जाती. धीरेधीरे उन के बीच की दूरियां बढ़ने लगीं. वह कब, कहां और क्यों जा रही है यह पूछना भी उन के बस की बात नहीं रह गई थी. पति की तरह वह उस पर कोई भी अधिकार नहीं रख पा रहे थे.

वे दोनों लगभग 5 साल तक एकसाथ रहे. इन 5 सालों में वह इस बात को अच्छी तरह समझ गए थे कि दामिनी के जीवन में फिर कोई आ गया है. वह उस को रोकना चाह कर भी रोक नहीं पाए या फिर शायद उन्होंने रोकना ही नहीं चाहा. तब पहली बार नकारे जाने का दर्द उन की समझ में आया था. सामाजिक मानमर्यादा के लिए इतने सालों तक वह किसी तरह दामिनी से बंधे रहे थे, लेकिन जब दामिनी ने उन्हें खुद ही छोड़ दिया तो उन्होंने भी रिश्ते को बचाने की कोई कोशिश नहीं की…दामिनी ने उन्हें तलाक दे दिया.

पिछले 5 साल तक उन्होंने कितनी बार कोशिश की ज्योत्स्ना के पास वापस लौटने की. वह ज्योत्स्ना के बारे में सबकुछ पता करते रहते थे. ज्योत्स्ना के जीवन में आतेजाते उतारचढ़ाव से वह अनभिज्ञ नहीं थे. कई बार दिल करता कि भाग कर जाएं ज्योत्स्ना के आंसू पोंछने… उन की बेटी डाक्टरी की पढ़ाई कर रही थी, जब वह मेडिकल में निकली थी तब उन्हें हार्दिक खुशी हुई थी…गर्व हो आया था बेटी पर…दामिनी ने तो कभी मां बनना चाहा ही नहीं था.

बेटी जब डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर के आ गई तब न जाने कितनी बार उस अस्पताल के गेट पर खड़े रहे थे पागलों की तरह, बेटी की एक झलक पाने के लिए, लेकिन कारों व लोगों की भीड़ में वह कभी भावना को देख नहीं पाए.

तभी उन के जीवन में यह दुखद मोड़ आया. आफिस में ही उन्हें पक्षाघात का अटैक पड़ा. उन के आफिस के दोस्त जब उन्हें अस्पताल ले जाने लगे तब वह बहुत मुश्किल से उन्हें उस अस्पताल का नाम समझा पाए, जहां उन की बेटी काम करती थी, इस उम्मीद में कि शायद उन की अपनी बेटी से अंतिम समय में मुलाकात हो जाए…और ऐसा हुआ भी पर भावना ने उन्हें पहचाना नहीं या फिर पहचानने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.

वह तो भावना को चिट्ठी लिख कर भी भूल गए थे, लेकिन आज भावना को अपने सामने देख कर उन का अपने परिवार के पास लौटने का सपना अंगड़ाई लेने लगा था. उन की सुप्त भावनाएं फिर जोर पकड़ने लगीं, लेकिन पता नहीं ज्योत्स्ना उन्हें माफ कर पाएगी या नहीं…

तभी बाहर सड़क पर किसी गाड़ी के हार्न की तेज आवाज सुन कर वह अपने अतीत से बाहर निकल आए. न जाने वह कब से ऐसे ही बैठे थे. उन्होंने कार्ड उठा कर उसे उलटापलटा और मन में निश्चय किया कि बेटी की शादी में अवश्य जाएंगे. परिणाम चाहे कुछ भी हो. ज्योत्स्ना उन का अपमान भी कर देगी तब भी वह उस दुख से कम ही होगा जो उन्होंने उसे दिया है और जो उन्हें अपने परिवार से अलग रह कर मिल रहा है. सोच कर उन का हृदय शांत हो गया.

उधर घर आ कर भावना अपने हृदय को शांत नहीं कर पा रही थी. पता नहीं उस ने अच्छा किया या बुरा…मम्मी पर इस की क्या प्रतिक्रिया होगी…मम्मी से कुछ भी कहने की उस की हिम्मत नहीं थी…अब तो जो भी होगा देखा जाएगा, यह सोच कर उस ने अपने दिलोदिमाग को शांत कर लिया.

आखिर विवाह का दिन आ पहुंचा. दुलहन बनी भावना खुद को शीशे में निहार रही थी. मम्मी पसीने से लस्तपस्त इधरउधर सब संभालने में लगी हुई थीं. बरात आने वाली थी. उस के डाक्टर मित्र मम्मी की थोड़ीबहुत मदद कर रहे थे, तभी बैंडबाजे की आवाज आने लगी. ‘बरात आ गई… बरात आ गई’ कहते सब बाहर भाग गए. वह कमरे में अकेली खड़ी रह गई.

पापा अभी तक नहीं आए…पता नहीं आएंगे भी या नहीं…काश, उस की कोशिश कामयाब हो जाती. तभी मम्मी उस को लेने कमरे में आ पहुंचीं.

‘‘चल, भावना…जयमाला के लिए चल,’’ तो वह मम्मी के साथ मंच की तरफ चल दी. जयमाला हुई, खाना खत्म हुआ, फेरे शुरू हो गए…खत्म भी हो गए, उस की निगाहें गेट की तरफ लगी रहीं. उस को ऐसा खोया देख कर मम्मी ने एकदो बार टोका भी पर उस के दिमाग में क्या ऊहापोह चल रही है, उन्हें क्या पता था.

फेरे के बाद उस के डाक्टर मित्र, रिश्तेदार सब अपनेअपने घर चले गए. सुबह विदाई के वक्त कुछ बहुत नजदीकी रिश्तेदार ही रह गए. उस की विदाई की तैयारियां हो रही थीं पर उस का हृदय उदास था. पापा ने यह अवसर खो दिया. इस खुशी के मौके व अकेलेपन के मोड़ पर मम्मी, पापा को माफ कर देतीं.

तभी डा. आर्या अंदर आ कर बोली, ‘‘भावना, तुम्हें कोई पूछ रहा है.’’

‘‘मुझे…’’

‘‘हां, कोई आशीश शर्मा हैं…’’

‘‘आशीश शर्मा…’’ वह खुशी के अतिरेक में डा. आर्या का हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘मेरा एक काम कर दो डाक्टर… उन्हें यहां ले आओ, मेरे कमरे में.’’

‘‘यहां…’’ डा. आर्या आश्चर्य से बोली, ‘‘कौन हैं वह.’’

‘‘सवाल मत करो. बस, उन्हें यहां ले आओ…’’

थोड़ी देर बाद डा. आर्या, आशीश शर्मा को ले कर कमरे में आ गई.

‘‘आप कल शादी में क्यों नहीं आए, पापा,’’ वह उलाहने भरे स्वर में बोली. उस के स्वर के अधिकार से बरसों की दूरी पल भर में छिटक गई. आशीश शर्मा ठगे से खडे़ रह गए. मन किया बेटी को गले लगा लें पर अपने किए अपराध ने पैरों में बेडि़यां डाल दीं. बाप का अधिकार उन के वजूद से छिटक कर अलग खड़ा हो गया.

‘‘बेटी, मैं ने सोचा, तुम्हारी मम्मी की न जाने क्या प्रतिक्रिया हो…तुम्हारी शादी है…उन का मूड मुझे देख कर खराब न हो जाए…मैं जश्न में विघ्न नहीं डालना चाहता था.’’

‘‘मम्मी कहां हैं डा. आर्या…’’ वह आश्चर्यचकित खड़ी डा. आर्या से बोली.

‘‘शायद अंदर वाले कमरे में विदाई की तैयारी कर रही हैं.’’

‘‘चलिए, पापा,’’ वह आशीश शर्मा का हाथ पकड़ कर अंदर जा कर मम्मी के सामने खड़ी हो गई. अचानक इतने वर्षों बाद अपने सामने आशीश शर्मा को यों लाठी के सहारे खड़ा देख कर ज्योत्स्ना संज्ञाशून्य सी देखती रह गईं.

‘‘तुम…’’

‘‘मम्मी, पापा आप से कुछ कहना चाहते हैं…बोलिए न पापा, जो कुछ आप ने पत्र में लिखा था.’’

‘‘मुझे माफ कर दो ज्योत्स्ना…जिस के लिए तुम्हें इतने दुख दिए वह तो वर्षों पहले मुझे छोड़ कर चली गई. मैं जानता हूं कि मेरा अपराध क्षमा के योग्य नहीं है, इसी कारण मैं इतने सालों तक वापस आने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाया…मैं ने कोशिश तो बहुत की…मैं ही जानता हूं, कितना तड़पा हूं तुम दोनों के लिए… भावना की एक झलक पाने के लिए अस्पताल के गेट पर पागलों की तरह खड़ा रहता था…तुम्हें देखने के लिए स्कूल के चक्कर काटा करता था. कभी तुम दिख भी जातीं तो अपनेआप में मगन… फिर सोचता, कितने दुख दिए हैं तुम्हें… बहुत मुश्किल से संभली हो…कहीं मेरे कारण तुम्हारी मुश्किल से संभली जिंदगी फिर से बिखर न जाए…

‘‘यही सब सोच कर मेरी कोशिश कमजोर पड़ जाती. अपनी बीमारी में भी उसी अस्पताल में इसीलिए भरती हुआ कि जिंदगी के आखिरी दिनों में बेटी को जी भर कर देख लूंगा.

‘‘मुझे माफ कर दो ज्योत्स्ना…आज भी अगर भावना जोर नहीं देती तो मैं तुम से माफी मांगने की हिम्मत नहीं जुटा पाता,’’ लाठी को बगल के सहारे टिका कर आशीश शर्मा ने दोनों हाथ जोड़ दिए.

ज्योत्स्ना का मन किया कि वह फूटफूट कर रो पडे़. बेटी की विदाई, आशीश का यों माफी मांगना, इतने वर्षों का संघर्ष…उन की रुलाई गले में आ कर मचलने लगी. आंखें बरसने से पहले उन्होंने बापबेटी की तरफ अपनी पीठ फेर दी, लेकिन हिलती पीठ से भावना समझ गई कि मम्मी रो रही हैं.

मम्मी के दोनों कंधों को पकड़ कर भावना बोली, ‘‘पापा को माफ कर दीजिए…गलती उन से हुई है पर उस की सजा भी उन को मिल चुकी है… अकेलापन उन्होंने भी झेला है, भले ही अपनी गलती से…प्लीज मम्मी…मेरी खातिर…’’ उस ने मम्मी का चेहरा धीरे से अपनी तरफ किया.

‘‘बहुत बड़ी हो गई है तू यह सब करने के लिए…’’ मम्मी रुंधी आवाज में बोलीं पर उन की आवाज में गुस्सा नहीं बल्कि हार कर जीत जाने का एहसास था.

‘‘मम्मी, मैं इस घर को, अपने परिवार को पूर्ण देखना चाहती हूं,’’ कहते हुए भावना ने पापा का हाथ पकड़ कर उन्हें पास खींच लिया. ज्योत्स्ना ने भरी नजरों से आशीश की तरफ देखा, जैसे कह रही हों, तुम मेरी जगह होते तो क्या माफ कर देते, जो मैं करूं. लेकिन आशीश शर्मा ने हिम्मत कर के ज्योत्स्ना के कंधों के चारों तरफ अपनी बांहें फैला दीं. रोती हुई वह पति आशीश के कंधे से लग गईं. दोनों को अपनी बांहों के घेरे से बांध कर भावना भी रो रही थी.

विदाई की बेला पर कार में बैठते हुए भावना आंसू भरी नजरों से गेट पर एकसाथ खडे़ मम्मीपापा की छवि को जैसे अपनी आंखों में समा लेना चाहती थी.

जुआरी

बड़े भैया जब आखिरी बार इंगलैंड से आए तो छोटे भाइयों और उन की पत्नियों ने खातिर तवाजो में कोई कसर नहीं छोड़ी क्योंकि वे जानते थे कि बड़े भैया के पास अपार दौलत है लेकिन उन की मृत्यु के बाद जब उन की वसीयत पढ़ी गई तो ऐसा क्या हुआ कि सभी अपने को ठगा महसूस करने लगे.

‘जिंदगी क्या इतनी सी होती है?’ बड़े भैया अपने बिस्तर पर करवटें बदलते हुए सोच रहे थे और बचपन से अब तक के तमाम मौसम उन की धुंधली नजर में तैरने लगे. अंत में उन की नजर आ कर उन कुछ करोड़ रुपयों पर ठहर गई जो उन्होंने ताउम्र दांत से पकड़ कर जमा किए थे.

कितने बड़े परिवार में उन्होंने जन्म लिया था. बड़ी बहन कपड़े पहना कर बाल संवारती थी, बीच की बहन टिफिन थमाती थी. जूते पहन कर जब वह बाहर निकलते तो छोटा भाई साइकिल पकड़ कर खड़ा मिलता था.

‘भैया, मैं भी बैठ जाऊं?’ साइकिल बड़े भाई को थमाते हुए छोटा विनम्र स्वर में पूछता.

‘चल, तू भी क्या याद रखेगा…’ रौब से यह कहते हुए साइकिल का हैंडल पकड़ कर अपना बस्ता छोटे भाई को पकड़ा देते फिर पीठ पर एक धौल मारते हुए कहते, ‘चल, फटाफट बैठ.’

छोटा साइकिल की आगे की राड पर मुसकराता हुआ बैठता. तीसरा जब तक आता उन की साइकिल चल पड़ी होती.

अगले दिन साइकिल पर बैठने का नंबर जब तीसरे भाई का आता तो दूसरे को पैदल ही स्कूल जाना पड़ता. इस तरह तीनों भाई भागतेदौड़ते कब स्कूल से कालिज पहुंच गए पता ही नहीं चला.

कितनी तेज रफ्तार होती है जिंदगी की. कालिज में आने के बाद उन की जिंदगी में बैथिनी क्या आई, वह अपने ही खून से अलग होते चले गए. बैथिनी का भाई सैमसन उन के साथ कालिज में पढ़ता था. ईसाई धर्म वाले इस परिवार का उन के ब्राह्मण परिवार से भला क्या और कैसा मेल हो सकता था. पढ़ाई पूरी होतेहोते तो बैथिनी के साथ उन की मुहब्बत की पींगें आसमान को छूने लगीं. सैमसन का नेवी में चुनाव हो गया तो उन का आर्मी में. वह जब कभी भी अपने प्रेम का खुलासा करना चाहते उन का ब्राह्मण होना आडे़ आ जाता और उन की बैथिनी इस ब्राह्मण घर की दहलीज नहीं लांघने पाती. पिताजी असमय ही काल का ग्रास बन गए और वह आर्मी की अपनी टे्रनिंग में व्यस्त हो गए.

फौज की नौकरी में वह जब कभी छुट्टी ले कर घर आते उन के लिए रिश्तों की लाइन लग जाती और वह बड़े मन से लड़कियां देखने जाते. कभी मां के साथ तो कभी बड़ी बहनों और उन के पतियों के साथ.

पिताजी ने काफी नाम कमाया था, सो बहुत से उच्चवर्गीय परिवार इस परिवार से रिश्ता जोड़ना चाहते थे पर उन के मन की बात किसे मालूम थी कि वह चुपचाप बैथिनी को अपनी हमसफर बना चुके थे. वह मां के जीतेजी उन की नजर में सुपुत्र बने रहे और कपटी आवरण ओढ़ लड़कियां देखने का नाटक करते रहे. वैसे भी पिताजी की मृत्यु के बाद घर में उन से कुछ पूछनेकहने वाला कौन था. 4 बड़ी बेटियों के बाद उन का जन्म हुआ था. उन के बाद 3 छोटे भाई और सब से छोटी एक और बहन भी थी. सो वह अपने ‘बड़ेपन’ को कैश करना बचपन से ही सीख गए थे. चारों बड़ी बहनों का विवाह तो पिताजी ही कर गए थे. अब बारी उन की थी, सो मां की चिंता आंसुओं में ढलती रहती पर न उन्हें कोई लड़की पसंद आनी थी और न ही आई.

छोटे भाइयों को भी अपने राम जैसे भाई का सच पता नहीं था, तभी तो भारतीय संस्कृति व परिवार की डोर थामे वे देख रहे थे कि उन का बड़ा भाई सेहरा बांधे तो उन का भी नंबर आए.

वह जानते थे कि जिस ईसाई लड़की को उन्होंने अपनी पत्नी बनाया है उस का राज एक न एक दिन खुल ही जाएगा, अत: कुछ इस तरह का इंतजाम कर लेना चाहिए कि घर में बड़े होने की प्रतिष्ठा भी बनी रहे और उन की इस गलती को ले कर घर व रिश्तेदारी में कोई बवाल भी न खड़ा हो.

इस के लिए उन्होंने पहले तो सेना की नौकरी से इस्तीफा दिया फिर बैथिनी को ले कर इंगलैंड पहुंच गए. हां, अपने विदेश जाने से पहले वह एक बड़ा काम कर गए थे. उन्होंने इस बीच, सब से छोटी बहन का ब्याह कर दिया था. अब 3 भाई कतार में थे कि बड़े भैया ब्याह करें तो उन का नंबर आए. 70 साल की मां की आंखों में बड़े के ब्याह को ले कर इतने सपने भरे थे कि वह पलकें झपकाना भी भूल जातीं. आखिर इंतजार का यह सिलसिला तब टूटा जब उन से छोटे ने अपना जीवनसाथी चुन कर विवाह कर लिया. मां को  इस प्रकार चूल्हा फूंकते हुए भी तो जवान बेटा नहीं देख सकता था. वह भी तब जब बड़ा भाई विदेश चला गया हो.

घर में आई पहली बहू को मां इतना लाड़दुलार कभी नहीं दे पाईं जितना उन्होंने बड़े की बहू के लिए अपनी झोली में समेट कर रखा था. उस बीच बड़े के गुपचुप ब्याह की खबर हवा में तैरती हुई मां के पास न जाने कितनी बार पहुंची लेकिन वह तो बड़े के खिलाफ कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं थीं. बहू दिशा यह सोच कर कि वह अपना फर्ज पूरा कर रही है, अपने में मग्न रहने का प्रयास करती. मां से बडे़ की अच्छाई सुनतेसुनते जब उस के कान पक जाते तो उन की उम्र का लिहाज कर वह खुद ही वहां से हट जाती थी. संस्कारी, सुशिक्षित परिवार की होने के कारण दिशा बेकार की बातों पर चुप्पी साध लेना ही उचित समझती.

वह जब भी विदेश से आते, मां उन के विवाह का ही राग अलापती रहतीं, जबकि कई बार अनेक माध्यमों से उन के कान में बडे़ बेटे के विवाह की बात आ चुकी थी. बाकी सब चुप ही रहते. वही गरदन हिलाहिला कर मां के प्यार को कैश करते रहते. अपने मुंह से उन्होंने ब्याह की बात कभी न कही, न स्वीकारी और पिताजी के बाद तो साहस किस का था जो उन से कोई कुछ पूछाताछी करता. बडे़ भाई के रूप में वह महानता की ऐसी विभूति थे जिस में कोई बुराई हो ही नहीं सकती.

धीरेधीरे सब भाइयों ने विवाह कर लिया. कब तक कौन किस की बाट देखता? सब अपनीअपनी गृहस्थी में व्यस्तत्रस्त थे तो मां की आंखों में बड़े के ब्याह के सपने थे, जबकि वह विदेश में अपनी प्रेयसी पत्नी के साथ मस्त थे. वह जब भी हिंदुस्तान आते तो अकेले. दिखावा इतना करते कि हर भाई को यही लगता कि बडे़ भैया बस, केवल उसी के हैं पर भीतर से निर्विकार वे सब को नचा कर  फिर से उड़ जाते. जब भी उन के हिंदुस्तान आने की खबर आती, सब के मन उड़ने लगते, आंखें सपने बुनतीं, हर एक को लगता इस बार बड़े भैया जरूर उसे विदेश ले जाने की बात करेंगे. आखिर यही तो होता है. परिवार का एक सदस्य विदेश क्या जाता है मानो सब की लाटरी निकल आती है.

लेकिन उन्होंने किसी भी भाई की उंगली इस मजबूती से नहीं पकड़ी कि वह उन के साथ हवाई जहाज में बैठ सके. शायद उन्हें भीतर से कोई डर था कि घर के किसी भी सदस्य को स्पांसर करने से कहीं उन की पोलपट्टी न खुल जाए. गर्ज यह कि वह अपनी प्रिय बैथिनी के चारों ओर ताउम्र घूमते रहे. जब घूमतेघूमते थक जाते तो कुछ दिनों के लिए भारत चले आते थे.

मां की मौत के बाद ही वह बैथिनी को ले कर घर की दहलीज लांघ सके थे. पर अब फायदा भी क्या था? सब के घर अलगअलग थे, सब की अपनी सोच थी और सब के मन में विदेश का आकर्षण, जो बड़े भैया को देखते ही लाखों दीपों की शक्ल में उजास फैलाने लगता.

वर्ष गुजरते रहे और परिवार की दूसरी पीढ़ी की आंखों में विदेश ताऊ के पास जा कर पैसा कमाने के स्वप्न फीके पड़ते रहे. भारत में उन्होंने अपना ‘एन आर आई’ अकाउंट खुलवा रखा था सो जब भी आते बैंक में जा कर रौब झाड़ते. उन के व्यवहार से भी उन के डालर और पौंड्स की महक उठती रहती.

इंगलैंड में भी उन का अच्छाखासा बैंक बैलेंस था. औलाद कोई हुई नहीं. जब तक काम किया, उस के बाद एक उम्र तक आतेआते उन्हें देश की याद सताने लगी. बैथिनी को भारत नहीं आना था और उन्हें विदेश में नहीं रहना था, सो जीवन की गोधूलि बेला में वह एक बार भाई के बेटे के विवाह में विदेश से देश क्या आए वापस न जाने की ठान ली.

भाइयों के पेट में प्रश्नों का दर्द पीड़ा देने लगा. जिस औरत के साथ बड़े भाई ने पूरा जीवन बिता दिया उसे इस उम्र में कैसे छोड़ सकते हैं? अब वह भाइयों के पास ही रहने लगे थे और क्रमश: वह और बैथिनी एकदूसरे से दूर हो गए थे.

अब परिवार के युवा वर्ग की आशा निराशा में बदल चुकी थी. बस, अब तो यह था कि जो उन की सेवा करता रहे, उसी को लड्डू मिल जाए. पर वह तो जरूरत से ज्यादा ही समझदार थे.  अपने हाथों में भरे हुए लड्डुओं की खुशबू जहां रहते वहां हवा में बिखेर देते और जब तक लड्डू किसी को मिलें उन्हें समेट कर वह वहां से दूसरे भाई के पास चल देते.

अब कुछ सालों से उन का स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा था, सो उन्हें एक भाई के पास जम कर रहना ही पड़ा. शायद वह समझ नहीं पा रहे थे या मानने को तैयार नहीं थे कि उन्हें अपने शरीर को छोड़ कर जाना होगा. एक ‘एन आर आई’ की अकड़ में वह रहते… ‘एन आर आई’ होने के भ्रम में वह बरसों तक इसी खौफ में सांसें गिनते रहे कि कोई उन्हें लूट लेगा. बैथिनी को कितनीकितनी बार उन की बीमारी की खबर दी गई पर उस का रटारटाया उत्तर रहता, ‘उस को ही यहां पर आना होगा, मैं तो भारत में आने से रही.’ सो न वह गए और न बैथिनी आई.

आज वह पलंग पर लेटेलेटे अपने जीवन को गोभी के पत्तों की तरह उतरता देख रहे हैं. उन्हें आज परत दर परत खुलता जीवन जैसे नंगा हो कर खुले आकाश के नीचे बिखेर रहा है और उन के हाथ में पकड़े लड्डू चूरचूर हो रहे हैं पर उन की बंद मुट्ठी किसी को उस में से एक कण भी देने के लिए तैयार नहीं है.

यों तो हमसब ही शून्य में अपने ऊपर आरोपित तामझामों का लबादा ओढ़े खडे़ हैं, सब ही तो भीतर से नंगे, अपनेआप को झूठे आवरणों में छिपाए हुए हैं. कोई पाने के लालच में सराबोर तो कोई खोने के भय से भयभीत. जिंदगी के माने कुछ भी हो सकते हैं.

बडे़ भैया अब गए, तब गए, इसी ऊहापोह में कई दिन तक छटपटाते रहे पर उन की मुट्ठियां न खुलीं. ‘एन आर आई’ के तमगे को लिपटाए एक शख्स अकेलेपन के जंगल से गुजरता हुआ बंद मुट््ठियों को सीने से लगाए एक दिन अचानक ही शांत हो गया. फिर बैथिनी को बताया गया. फोन पर सुन कर बैथिनी बोली, ‘‘जितनी जल्दी हो सके मुझे डैथ सर्टिफिकेट भेज देना,’’ इतना कह कर फोन पटक दिया गया. भली मानस उस की मिट्टी तो सिमट जाने देती.

खैर, अब बडे़ भैया की अटैचियां खुलने की बारी थी. शायद उन में ही कहीं लड्डू छिपा कर रख गए हों. सभी भाई, भतीजे, बहुएं, बड़े भैया के सामान के चारों ओर उत्सुक दृष्टि व धड़कते दिल से गोल घेरे में बैठेखडे़े थे.

‘‘लो, यह रही वसीयत,’’ एक पैक लिफाफे को खोलते हुए छोटा भाई चिल्लाया.

‘‘लाओ, मुझे दो,’’ बीच वाले ने छोटे के हाथ से लगभग छीन कर पढ़ना शुरू किया…आखिर में लिखा था, ‘मेरी सारी चल और अचल संपत्ति मेरी पत्नी बैथिनी को मिलेगी और इंगलैंड व भारत का सब अकाउंट मैं पहले ही उस के नाम कर चुका हूं.’

अब सभी भाई व उन के बच्चे एक- दूसरे की ओर चोर नजरों से देख कर हारे हुए जुआरियों की भांति पस्त हो कर सोफों में धंस गए थे और शून्य में वहीं बडे़ भैया की ठहाकेदार हंसी गूंजने लगी थी.  द्य

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