Download App

16 वर्ष की समृद्धि बजाज का हर महिला तक सेनेटरी पैड पहुंचाने का अनूठा कदम

भारत एक विकासशील देश है,जहां हर इंसान को समान अधिकार प्राप्त हैं,फिर चाहे वह गरीब हो,अमीर हो,पुरूष हो अथवा महिला.इसके बावजूद देश की विडंबना यह है कि 135 करोड़ की आबादी में से महज छत्तीस प्रतिशत महिलाएं ही माहवारी के दिनो में सैनिटरी पैड का उपयोग करती हैं.

केवल दूरदराज के गाँवों में ही नही बल्कि देश के अत्याधुनिक शहरों में गरीबी से जूझ रही झुग्गियों में रहने वाली यह महिलाएँ,माहवारी के दिनों में स्वच्छता व बेहतर स्वास्थ्य के मूलभूत अधिकारों की अनदेखी कर भूख और सुरक्षा जैसे मुद्दों से त्रस्त हैं.इन्हीं महिलाओं तक सैनीटरी पैड पहुॅचाने की दिशा में काम करने का निर्णय लेकर 16 वर्षीय इंटर्न समृद्धि बजाज ने एक नया कदम उठाते हुए यूथ फॉर ग्लोबलपीस एंडट्रांसफॉर्मेशन (ल्ळच्ज्) की शुरुआत की.

ये भी पढें- भारत पत्रकारिता के लिए सब से खतरनाक देश

उसके बाद 16 वर्षीय समृद्धि बजाज ने मुंबई,अमृतसर, लुधियाना और जालंधर में फैले यूथ फॉर ग्लोबल पीस एंड ट्रांसफॉर्मेशन (ल्ळच्ज्) के वॉलंटियर्स की मदद से आदिवासी महिलाओं,शहर की गरीब व मजबूर 5000 से अधिक वंचित महिलाओं को साथी पैड्स के साथ मिलकर बायोडिग्रेडेबल सैनिटरी पैड वितरित करने के काम को अंजाम दिया.

जब हमने इस संबंध में समृद्धि बजाज से बात की,समृद्धि ने कहा-‘‘भारत में महिलाएं अक्सर सैनिटरीपैड की जगह गंदे कपड़ों का उपयोग करती हैं और कभी-कभी कुछ भी नहीं करती हैं. इन औरतों को गंदे कपड़े आदि के उपयोग से जुड़े स्वास्थ्य जोखिमों का अंदाजा नहीं होता है.यह अफसोस की बात है कि हम अभी भी ऐसी दुनिया में जी रहे हैं,जहां मासिक धर्म अभी भी एक सामाजिक कलंक है.70 प्रतिशत प्रजनन रोग मासिक धर्म के दौरान स्वच्छता को लेकर लापरवाही के कारण होते हैं. इतना ही नही पीरियड एक विषय के रूप में अभी भी निषेध माना जाता है.इसलिए मैने इस दिषा में काम कर हर महिला को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया है. हम चाहते हैं कि यह कलंक खत्म हो.हर महिला को सेनेटरी पैड इस्तेमाल करने का हक होना चाहिए और मासिक धर्म के दौरान स्वच्छता बरकरार रखने के सम्बंध में शिक्षा का अधिकार होना चाहिए.”

ये भी पढ़ें- कोरोना की मार,पढ़ाई का हो रहा बंटाधार

समृद्धि ने आगे बताया- ‘‘हमारी टीम ने काफी रिसर्च करने के बाद गुजरात स्थित एक वास्तविक और भरोसेमंद बायोडिग्रेडेबल सैनिटरीपैड मैन्युफैक्चरर साथी की खोज की. उनके समर्थन के साथ हमने 330 आदिवासी महिलाओं को 1320 बायोडिग्रेडेबल सैनिटरीपैड सफलतापूर्वक वितरित किए.बाकी क्षेत्र की 900 महिलाओं तक यह पैड्स पहुंचायी,जिसकी प्रतिक्रिया शानदार रही.’’

2 अगस्त 2004 को जन्मीटीन एजर समृद्धि बजाज फिलहाल आदित्य बिड़लावल्र्ड अकादमी की छात्रा है. पर दस साल की उम्र से ही वह समाजसेवा के कार्यो से जुड़ गयी थीं.समृद्धि बजाज गरीब व मजदूर वर्ग की महिलाओं की बेहतरी के लिए लगातार काम कर रही हैं. सैनिटरी पैड वितरित करने के साथ ही मासिक धर्म के दौरान स्वच्छता पर महिलाओं को शिक्षित करने को वह एक छोटी सी शुरुआत मानती हैं. दुनिया में बदलाव लाने के दृढ़ संकल्प के साथ वह कई अन्य सामाजिक सेवा की गतिविधियों, मसलन-जैसे भोजन वितरण, कंबल वितरण आदि के साथ मानवता की बेहतरी की दिशा में काम कर रही हैं.

ये भी पढ़ें- बेहाल लखनऊ: ना लकड़ी, ना ऑक्सीजन

समृद्धि कहती हैं-‘‘‘जब मैं 10 साल की थी, तभी से मैं समाज में बदलाव लाना चाहती थी.महिलाएं समाज का सबसे अभिन्न हिस्सा हैं और उनका ध्यान रखा जाना चाहिए.मेरी सोच कहती हैं कि औरतों के विकास से ही देश का विकास संभव है.मेरा लक्ष्य आने वाले महीनों में अधिका धिक वंचित महिलाओं तक पहुँचना है, जिससे खुशियाँ फैलें और बीमारियाँ दूर हों.’’

Gum Hai Kisike Pyar Me : पाखी पर भड़केगा विराट, घर में होगी नए सदस्य की एंट्री

सीरियल ‘गुम है किसी के प्यार में’ इन दिनों लगातार टीआरपी लिस्ट में छाया हुआ है. फैंस भी इस सीरियल को देखना खूब पसंद करते हैं. ऐसे में इस सीरियल में काफी ज्यादा ट्विस्ट आन वाला है.

इस सीरियल में इन दिनों दिखाया जा रहा है कि सई चौहान  हाउस छोड़कर जा चुकी हैै. सई इन दिनों अपने मायके गढ़चिरौली में है. वहीं विराट सई को मनाने के लिए गढ़चिरौली गया है. विराट को जब पता चला कि सई की कही हुई बात सच है तो विराट को सब समझ में आ जाता है.

ये भी पढ़ें- Hina Khan के पिता को श्रद्धांजलि न देने पर गौहर खान हुई ट्रोलर्स का शिकार

ऐसे में गुम है किसी के प्यार में के दर्शकों को काफी ज्यादा ट्विस्ट देखने को मिलने वाला है. विराट को बात पता चलने के बाद वह घुट घुटकर जी रहा है. वैसे दर्शकों को गुम है किसी के प्यार में के अगले एपिसोड़ का काफी ज्यादा इंतजार है.

ये भी पढ़ें- कोरोना ने ली म्यूजिशियन श्रवण राठौर की जान, सदमे में बॉलीवुड

सीरियल के अलगे एपिसोड़ में दिखाया जाएगा कि सई विराट को माफ नहीं करेगी और विराट को घर खाली हाथ ही वापस आना पड़ेगा. ऐसे में उसे घर आने के बाद और भी ज्यादा गुस्सा आएगा. जब पाखी को सारी सच्चाई का पता चलेगा तो वह विराट के करीब आने की कोशिश करेगी.

ये भी पढ़ें- Rubina Dilaik के फोटोशूट से मचा सोशल मीडिया पर धमाल, ट्रोलर्स को

लेकिन विराट तो पहले से ही बहुत ज्यादा उदास है. तो वह अपना पूरा गुस्सा पाखी के ऊपर जोर से चिल्ला देगा. तब पाखी अपने चाल में कामयाब नहीं हो पाएगी. पाखी के इस हालात को देखने के बाद से घर वालों को शक होगा कि पाखी के साथ क्या हुआ है.

ऐसा भी सुनने में आ रहा है कि इस सीरियल में एक नए सदस्य कि एंट्री होने वाल है. जिसके बाद से सीरियल मेंऔर भी ज्यादा धमाल मचेगा.

पीपीई किट पहनकर घर से बाहर निकली राखी सावंत, वायरल हुईं फोटोज

बिग बॉस 14 में धमाल मचा चुकी राखी सावंत अक्सर किसी न किसी वजह से सुर्खियों में बनी रहती हैं. एक बार फिर राखी सावंत को मुंबई के सड़कों पर टहलते देखा गया. इस दौरान राखी सांवत का नया अवतार देखने मिला है.

राखी सावंत को शहर में पीपीई किट में देखकर फैंस और कैमरामैन काफी ज्यादा एक्साइटेड दिखे. ऐसे में राखी सावंत भी हमेशा की तरह इस बार भी काफी ज्यादा बोल्ड नजर आ रही थी. राखी सावंत हाथ में कॉफी का मग लिए नजर आ रही थी.

ये भी पढ़ें- Hina Khan के पिता को श्रद्धांजलि न देने पर गौहर खान हुई ट्रोलर्स का शिकार तो ऐसे दिया जवाब

कैमरामैन को देखकर राखी सावंत खूब पोज देती नजर आ रही थी. राखी सावंत को देखकर लग नहीं रहा है कि उन्हें कोरोना से कोई डर है. हमेशा कि तरह बोल्ड राखी .

 

View this post on Instagram

 

A post shared by Rakhi Sawant (@rakhisawant2511)

राखी सावंत के तस्वीर से फैंस निगाहें नहीं हटा पा रहे थें. वह लोगों से बातचीत भी कर रही थी इस दौरान. राखी के इस लुक को लोग पसंद भी कर रहे हैं. वहीं कुछ फैंस उनकी इस तस्वीर को देखने के बाद से अपनी हंसी को रोक नहीं पा रहे हैं.

ये भी पढ़ें- कोरोना ने ली म्यूजिशियन श्रवण राठौर की जान, सदमे में बॉलीवुड

बता दें कि जब राखी सावंत पीपीई किट पहनकर सब्जी लेने पहुंची तो फैंस अपनी हंसी को रोक नहीं पा रहे थें.

 

View this post on Instagram

 

A post shared by Rakhi Sawant (@rakhisawant2511)

बता दें कि राखी सावंत की मां लंबे समय से बीमार चल रही हैं. ऐसे में राखी सावंत को इलाज के लिए बार -बार अस्पताल जाना पड़ता है. राखी की मां का हाल ही में ऑपरेशन हुआ है. जिसके बारे में राखी ने खुद अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर जानकारी दी थी. राखी ने बताया था कि सभी लोग उनकी मां को स्वस्थ्य होने के लिए कामना करें.

ये भी पढें- Indian Idol 12: जयाप्रदा के आते ही कोरोना गाइडलाइन्स को भूले मेकर्स, फोटो देख उड़े सभी के होश

राखी अपनी मां से बहुत ज्यादा प्यार करती है. राखी कुछ वक्त पहले बिग बॉस में आकर फैंस को खूब ज्यादा एंटरटेन किया था.

NCT दिल्ली एक्ट 2021: केजरीवाल सरकार पर मोदी का कब्जा

कुछ ही रोज पहले प्रकाशित वर्ल्ड फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट में देश की मौजूदा भाजपा सरकार पर नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के हनन के कई आरोप थे. इस रिपोर्ट के आने के बाद भारत में वाजिब खलबली मची जरूर थी लेकिन पक्ष से ले कर विपक्ष तक ने इसे एकसाथ ठंडे बस्ते में डाल दिया. न तो सत्तापक्ष ने जरूरत सम?ा कि उस की सरकार पर ऐसे गहन आरोप लगाने वालों पर ऐक्शन लिया जाए और न विपक्ष ने यह जरूरत सम?ा कि सरकार को इस मसले पर घेरा जाए.

ये भी पढ़ें- लाइलाज नक्सलवाद, बेबस सरकार

खैर, अमेरिकी वर्ल्ड फ्रीडम हाउस की इस रिपोर्ट की संवेदनशीलता न सिर्फ मोदी के अथौरिटेरियन रूप से सरकार चलाए जाने के रवैए से थी, बल्कि भारत के सब से मजबूत स्तंभ कहे जाने वाले न्यायालय की कार्यवाहियों को संदेहों में धकेले जाने से भी थी. रिपोर्ट में कहा गया, ‘‘मोदी कार्यकाल में भारत की ज्युडिशियल स्वतंत्रता भी प्रभावित हुई है.’’ नागरिकों के राजनीतिक अधिकारों के संदर्भ में कहा गया कि मानवाधिकार संगठनों पर दबाव बढ़ गया है, शिक्षाविदों व पत्रकारों को डराया जा रहा है और बड़े हमलों का दौर चल रहा है. रिपोर्ट में मौजूदा सरकार के बनाए ऐसे कानूनों का हवाला दिया गया जिन्होंने नागरिकों के बुनियादी अधिकारों का हनन किया.

इस रिपोर्ट को ‘भ्रमित, असत्य और गलत’ बताया. सरकार ने देश के संघीय ढांचे का हवाला दिया और कहा, ‘‘यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि भारत में संघीय ढांचे के तहत कई राज्यों में चुनाव प्रक्रिया के माध्यम से अलगअलग पार्टियों का शासन है और यह उस निकाय यानी चुनाव आयोग के तहत है जो स्वतंत्र व निष्पक्ष है.’’

सरकार जैसेतैसे इस रिपोर्ट से पल्ला ?ाड़ ही पाई कि इसी महीने उस पर एक और रिपोर्ट का विस्फोट हो गया. स्वीडन के वी-डेम इंस्टिट्यूट ने ताजा रिपोर्ट जारी की जिस में दावा किया गया कि भारत में अभिव्यक्ति की आजादी मौजूदा सरकार के कार्यकाल में कम हुई है और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले देश ने इस तरह की सैंसरशिप शायद ही कभी देखी है.

ये भी पढ़ें- कोरोना संकट: मृत सरकारों को जलाते हैं या दफनाते हैं?

रिपोर्ट के मुताबिक, सैंसरशिप के मामले में भारत की स्थिति अब पाकिस्तान के समान है और बंगलादेश व नेपाल से बदतर है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि भारत में मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने देशद्रोह, मानहानि और आतंकवाद के कानूनों का इस्तेमाल अपने आलोचकों को चुप कराने के लिए किया है. साथ ही, भाजपा के सत्ता संभालने के बाद 7 हजार से अधिक लोगों पर राजद्रोह के आरोप लगाए गए हैं. और जिन पर आरोप लगे हैं उन में से ज्यादातर लोग सत्ता की विचारधारा से असहमति रखते हैं. यहां तक कि, इस रिपोर्ट में इसे भारत के संदर्भ में ‘चुनावी निरंकुशता’ की संज्ञा दी गई.

इस बात का ज्वलंत उदाहरण ‘एनसीटी दिल्ली एक्ट-2021’ के रूप में नयानया सामने आया है.

जीएनसीटी दिल्ली एक्ट 2021

भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 28 मार्च को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (संशोधन) विधेयक 2021 को स्वीकृति प्रदान कर दी है जो अब कानून बन गया है. यह कानून उपराज्यपाल की शक्तियों को बढ़ाता है और दिल्ली में निर्वाचित सरकार की शक्ति को सीमित करता है. अब इस के कानून बन जाने के बाद यह सवाल फिर से उठ खड़ा हुआ है कि आखिर दिल्ली पर राज किस का है, दिल्ली पर अधिकार किस का है? एक तरफ 70 में से 62 विधानसभा सीटों पर जीत दर्ज कर भारी बहुमत से जीती आम आदमी पार्टी की सरकार है, दूसरी तरफ केंद्र सरकार के नियुक्त उपराज्यपाल हैं.

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इसे ‘असंवैधानिक व अलोकतांत्रिक’ करार दिया. वहीं, डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया ने इसे संविधान की व्याख्या के खिलाफ जाने वाला और जनता द्वारा चुनी सरकार की शक्तियां कम कर एलजी को निरंकुश शक्तियां प्रदान करने वाला बताया.

ये भी पढ़ें- कोरोना संकट: देश को राफेल चाहिए या ऑक्सीजन!

साधारण भाषा में कहें तो यह कानून कहता है कि दिल्ली का प्रतिनिधित्व अब जनता द्वारा चुने हुए मुख्यमंत्री नहीं करेंगे बल्कि केंद्र द्वारा चुने हुए उपराज्यपालरूपी बौस करेंगे. यह कानून अधिकारों के हस्तांतरण से है जिस में चुने प्रतिनिधि बिना उपराज्यपाल की आज्ञा के कोई नियमकानून नहीं बना पाएंगे.

कानून कहता है कि कोई भी फैसला लागू किए जाने से पहले एलजी की राय लेनी जरूरी होगी. विधानसभा के बनाए किसी भी कानून में सरकार का मतलब अब एलजी होगा. विधानसभा या उस की कोई समिति प्रशासनिक फैसलों की जांच नहीं कर सकती. अगर ऐसा हुआ तो उल्लंघन में बने सभी नियम रद्द हो जाएंगे. इन बदलावों का यह मतलब होगा कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली का दर्जा अब किसी अन्य केंद्र शासित प्रदेश जैसा हो जाएगा जिस में सीएम कहनेभर को होंगे और सरकार आखिरकार उपराज्यपाल ही चलाएंगे.

केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के इस कदम पर दिल्ली प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अनिल चौधरी कहते हैं कि अब विधायिका स्वतंत्र हो कर कानून नहीं बना पाएगी, प्रशासनिक निर्णय नहीं ले पाएगी. एक तरह से दिल्ली सरकार का मुखिया उपराज्यपाल यानी एलजी होगा जो सीधेतौर पर केंद्रीय गृहमंत्री और प्रधानमंत्री के अधीन होता है. ऐसा करने से पहले केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपा की सरकार ने दिल्ली की जनता से पूछने की जहमत नहीं उठाई. यह लोकतंत्र की हत्या है.’’

उन्होंने ‘सरिता’ से बात करते हुए आगे कहा, ‘‘लोकतंत्र के माने क्या हैं जब लोग अपनी सरकार चुनते हैं, अपने एमएलए और एमपी चुनते हैं. अगर दिल्ली के फैसले वे लेंगे जिन्हें चुना ही नहीं गया तो चुनाव और लोकतंत्र के क्या औचित्य रह जाएंगे? तानाशाही से देश नहीं चलता. हिंदुस्तान के लोकतंत्र का उदाहरण विश्व में दिया जाता है लेकिन अगर दिल्ली में ही हमला हो रहा है तो लोकतंत्र पूरे देश में कैसे सुरक्षित रह पाएगा?’’

कांग्रेस नेता अनिल चौधरी के कहने का संदर्भ इस कानून के माध्यम से भाजपाई सरकार का आम लोगों के राजनीतिक अधिकारों पर हमला करने से था. उन का मानना था कि केंद्र सरकार का यह आम लोगों के अधिकारों पर सीधा हमला है. इस के साथ उन्होंने दिल्ली की सरकार अथवा मुख्यमंत्री केजरीवाल पर केंद्र के साथ मिलीभगत का भी आरोप लगाया. वे कहते हैं, ‘‘दिल्ली के मुख्यमंत्री की भूमिका संदिग्ध है. जो पहले खुद को मजबूत मुख्यमंत्री बताते फिरते थे, आज डरपोक दिख रहे हैं. वे कठपुतली की तरह काम कर रहे हैं. वे हमेशा केंद्र से समन्वय बना कर चल रहे थे, कहते थे कि उन्हें केंद्र से सहयोग मिल रहा है. आज दिल्ली बचीखुची भी खत्म हो रही है, क्या यह उसी तालमेल का नतीजा है?’’

दरअसल, केंद्र सरकार ने संसद में बिल के माध्यम से 1991 अधिनियम की धारा 21, 24, 33 और 44 में संशोधन करने का प्रस्ताव रखा कि दिल्ली में लागू किसी भी कानून के तहत ‘सरकार, प्रशासक या मुख्य आयुक्तों के फैसले को लागू करने से पहले संविधान के अनुच्छेद 239 एए के क्लौज 4 के तहत सभी विषयों के लिए उपराजयपाल की राय लेनी होगी. अनुच्छेद 239 एए में दिल्ली से जुड़े विशेष प्रावधानों का जिक्र है. इस विधेयक के मद्देनजर प्रस्तावों को एलजी तक भेजने या न भेजने को ले कर दिल्ली सरकार कोई फैसला नहीं कर सकेगी, जो लोकसभा, राज्यसभा और राष्ट्रपति से हो कर कानून की शक्ल ले चुका है.

ताजा कानून के अनुसार, विधानसभा का कामकाज लोकसभा के नियमों के हिसाब से चलेगा. यानी विधानसभा में जो व्यक्ति मौजूद नहीं है या उस का सदस्य नहीं है, उस की आलोचना नहीं हो सकेगी.

पहले कई मौकों पर ऐसा हुआ जब विधानसभा में शीर्ष केंद्रीय मंत्रियों के नाम लिए गए थे. इस में एक और प्रावधान यह है कि विधानसभा खुद या उस की कोई कमेटी ऐसा नियम नहीं बनाएगी जो उसे दैनिक प्रशासन की गतिविधियों पर विचार करने या किसी प्रशासनिक फैसले की जांच करने का अधिकार देता हो.

यह उन अधिकारियों की ढाल बनेगा जिन्हें अकसर विधानसभा या उस की समितियों द्वारा तलब किए जाने का डर होता है.

आम आदमी पार्टी के विधायक राजकुमार आनंद इस मसले पर कहते हैं, ‘‘2013 में हम लोग राजनीति में नए थे. हमें केंद्र सरकार की तरफ से एलजी के माध्यम से तरहतरह के नएनए पाठ पढ़ाए जाते रहे कि ‘आप यह नहीं कर सकते, वह नहीं कर सकते.’ एंटी करप्शन ब्यूरो दिल्ली सरकार के अधीन था. उसे छीन लिया गया. 3 साल तक हमें काम नहीं करने दिया गया. हमें मजबूरन सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ा. 239 एए में उस समय (1991) जो संशोधन किए गए थे उस में यह लिखा था कि ‘एलजी’ बस एक काउंटर साइनिंग अथौरिटी हैं. जिस के बाद फैसला इसी तौर पर आया.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘भाजपा चाहती है कि वह किसी भी तरह से हारने के बावजूद पीछे से दिल्ली की सरकार चलाए. यही भाजपा अपने घोषणापत्र में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की बात कर रही थी. इसलिए यह हथकंडा है भाजपा का ऐसे नहीं तो वैसे सत्ता में बने रहने का. बाकी कांग्रेस अपनी जमीन खो चुकी है. वह बीचबीच में राजनीति करने आ जाती है. कांग्रेस चाहती तो इसे अपने कार्यकाल में पूर्ण राज्य का दर्जा दिला सकती थी. लेकिन कांग्रेस ने कभी दिल्ली की नहीं सोची.’’

सुप्रीम कोर्ट का फैसला

लोकसभा में संशोधित बिल पर हुई चर्चा के दौरान गृह राज्यमंत्री किशन रेड्डी ने जवाब देते हुए कहा, ‘‘संविधान के अनुसार दिल्ली विधानसभा से युक्त सीमित अधिकारों वाला एक केंद्रशासित राज्य है. उधर उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि दिल्ली केंद्रशासित राज्य है. सभी संशोधन न्यायालय के निर्णय के अनुरूप हैं.’’

लेकिन इस के उलट, दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने अपने स्टेटमैंट में बिल को ले कर कहा था, ‘‘यह विधेयक सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ के आदेश के खिलाफ है. यदि केंद्र सरकार बिल के माध्यम से ऐसा करना चाहती है तो चुनाव कराने और राज्य में एक निर्वाचित सरकार होने का क्या मतलब है? केंद्र सरकार लोकतांत्रिक होने का ढोंग क्यों करती है?’’

गौरतलब है कि राज्य में अधिकारों की जंग अरविंद केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने के शुरुआती समय से चलती आ रही है. दिल्ली में जब केजरीवाल की सरकार बनी थी तब समयसमय पर विवाद बनते रहे. यही कारण था कि मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और 4 जुलाई, 2018 को सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर अपना फैसला सुनाया था.

दरअसल केंद्र के ताजा कदम से न केवल सहकारी संघवाद को चोट पहुंचाने का मसला खड़ा हुआ है बल्कि 2018 में उच्चतम न्यायालय के 5 न्यायाधीशों की पीठ के फैसले द्वारा निर्धारित मूलभूत सिद्धांत भी उलट गए हैं. फैसले में कहा गया था कि दिल्ली में एलजी मंत्रिपरिषद की सलाह से काम करेंगे, वे स्वतंत्र नहीं. यदि कोई अपवाद है तो मामला राष्ट्रपति को हस्तांतरित किया जाएगा यानी खुद कोई फैसला नहीं लेंगे.

उस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने 239 एए के तहत व्याख्या की कि मंत्रिपरिषद के पास एग्जिक्यूटिव पावर्स हैं. जो फैसला दिल्ली सरकार लेगी वह एलजी को अवगत कराएगी, लेकिन एलजी की उस पर सहमति जरूरी नहीं. राज्य सरकार 3 अपवादों को छोड़ कर बाकी मामले में स्वतंत्र हो कर काम कर सकेगी.

साल 1991 में संविधान में 69वां संशोधन कर अनुच्छेद 239 एए का प्रावधान लाया गया था. जिस में दिल्ली को विशेष प्रावधान के तहत अपने विधायक चुनने का अधिकार था. इसी अधिकार में राज्य को विधानसभा की व्यवस्था के साथ कानून बनाने का अधिकार था. 2018 में तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने एलजी की स्थिति प्रशासक की बताई थी. कोर्ट ने फैसले में कहा था कि निरंकुशता की कोई जगह नहीं है.

कोर्ट का यह फैसला दिल्ली सरकार को राहत पहुंचाने वाला था. वहीं लोकतंत्र में इसे जन की जीत का फैसला भी माना जा रहा था. लेकिन अब सरकार का कोर्ट के उस फैसले के उलट बिल लाना कहीं न कहीं जुडिशियल सिस्टम पर भी चोट करने जैसा है.

जनता को मिलेगा क्या

कांग्रेस और आप पार्टी द्वारा भाजपा पर अलोकतांत्रिक होने का आरोप लगाया जा रहा है. इन आरोपों को ले कर रोहताश नगर से भाजपा विधायक जितेंद्र महाजन कहते हैं कि इस से दिल्ली में समन्वय का माहौल पनपेगा. ‘‘यह पहले से ही केंद्र शासित प्रदेश है, यहां की सरकार के पास राज्यों वाले अधिकार नहीं हैं. जिन चीजों के लिए उसे चुना गया है वे अधिकार हैं उस के पास. कल को ये बोट क्लब पर धरने पर बैठ जाएं तब ला एंड और्डर की स्थिति आएगी कि नहीं? और अगर यह जनता के अधिकारों का हनन है तो जनता देख रही है.’’

दरअसल जितेंद्र महाजन का इशारा कानून के फायदे गिनाने से ज्यादा आम आदमी पार्टी (आप) के रवैए की ओर ज्यादा था. वे कहते हैं, ‘‘आप दिल्ली शहर में अराजकता फैलाएंगे तो उस पर नियंत्रण तो जरूरी है. सरकार यह करेगी कि किसान आंदोलन शांतिप्रिय रहे, ये (आप वाले) जा कर उन्हें भड़काएंगे. कहीं तो रोक लगेगी. लोकतंत्र में सभी को आंदोलन करने का अधिकार है लेकिन किसी को यह अधिकार नहीं कि वह दंगाइयों को भड़काए.’’

क्या है असल मसला

मसला दरअसल, दिल्ली की कुरसी पर कब्जे का है. दिल्ली की कुरसी पर भी कब्जे का मतलब भाजपा अच्छे से जानती है कि देश की भावी दिशा पर कब्जा. दिल्ली पर अधिकार का मतलब यहां से देश की राजनीतिक बिसात पर नियंत्रण करने का है. दिल्ली में जड़ पकड़ते और आग की तरह देश में फैलते आंदोलनों, विशेषकर किसानों के दमन व नियंत्रण का है. इस का अंदाजा मौजूदा किसान आंदोलन में सरकार के सामने खड़ी हुई चुनौती से लगाया जा सकता है जिस का जिक्र भाजपा विधायक ने इशारों में ही सही, कर दिया.

यह मसला देश की राजनीति को पूरी तरह से नियंत्रण में रखने का भी है. इस ताजा कानून से दिल्ली की जनता को आखिर हासिल क्या होगा, यह बात सम?ा से परे है. दिल्ली की जनता, ठगी गई है.

भाजपा कहीं न कहीं हार कर भी इस खेल में बाजीगर बन जाना चाहती है. हारने के बावजूद खुद के लिए शासन करने का नियंत्रण रखना चाह रही है. लेकिन सवाल उस जन का जिसे सफेद ?ाठ परोसा जा रहा है. जिस के मतदान और ओपिनियन को निरस्त किया जा रहा है. यह मात्र दिल्ली सरकार को कमजोर किए जाने की बात नहीं, मसला जनता के सब से मूल राजनीतिक अधिकार को कमजोर किए जाने का भी है. यह प्रयोग अन्य राज्यों पर भी किया जा सकता है और संविधान संशोधन कर के राज्यों के अधिकार इसी तर्ज पर कम किए जा सकते हैं.

हालांकि इस मसले पर यह भी ध्यान रखे जाने की जरूरत है कि आज जो मुख्यमंत्री दिल्ली में सरकार और आमजन के अधिकारों के हनन पर रोपीट रहे हैं, ये वही मुख्यमंत्री हैं जो जम्मूकश्मीर में आर्टिकल 370 के हटाए जाने पर केंद्र को पूरा समर्थन दे रहे थे. जबकि जम्मूकश्मीर की देश में स्थिति दिल्ली की तरह केंद्रशासित प्रदेश की नहीं थी. इस संबंध में जब हम ने आम आदमी पार्टी के विधायक राजकुमार आनंद से सवाल पूछा तो उन्होंने इसे हालात के हवाले कर दिया और वहां के दबाए जा रहे मानव अधिकार को परे रख आतंक को जिम्मेदार ठहरा कर इस से जोड़ कर न देखने की अपील की.

यह तय है कि अधिकारों की इस लड़ाई में भविष्य में केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच काफी सियासी घमासान देखने को मिल सकता है.

Crime Story : नीरव मोदी , हीरा किंग से घोटालेबाज़ तक

जोधपुर के महाराज का महल जो एक फाइव स्टार होटल में तब्दील हो चुका है, 14 अक्टूबर 2016 की शाम फूलों की खुशबु और रंगीन रौशनी से जगमगा रहा था. उस शाम वहां बॉलीवुड के चमकते चेहरे महफ़िल की रौनक बढ़ा रहे थे. शहर के नामचीन लोगों का जमावड़ा लगा था. और इन सबके बीच एक चेहरा ख़ास था –  हीरा सम्राट नीरव मोदी का, जो इस दिन इस शाही होटल में अपने विवाह की पांचवी वर्षगांठ मना रहा था. पार्टी में देश के करोड़पतियों और बॉलीवुड की हस्तियों को मिलाकर लगभग 100 लोग शामिल रहे होंगे. नीरव मोदी की शानोशौकत और रसूख का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उस शाम मोदी कपल और उनके मेहमानों के स्वागत के लिए खुद  जोधपुर के महाराजा गज सिंह (द्वितीय) वहां पधारे थे. जोधपुर के लोगों के लिए यह आश्चर्य की बात थी क्योंकि महाराजा गज सिंह बेहद रिजर्व किस्म के आदमी माने जाते हैं. ख़ास बात यह थी कि उस दिन पार्टी में लखदख कपड़ों में सजी महिलाओं ने नीरव मोदी ब्रांड के बेशकीमती हीरों के गहने पहन रखे थे.

वही नीरव मोदी जो कभी हीरों का बादशाह था, जिसे ‘हीरा किंग’ के नाम से पुकारा जाता था, आज घोटालेबाज़ और भगोड़े के नाम से पुकारा जाता है. कभी शानोशौकत और ऐशो आराम की ज़िन्दगी गुज़ारने वाला मोदी लंदन की काल कोठरी के अँधेरे कोने में बैठा अपनी आज़ादी की भीख मांग रहा है.

ये भी पढ़ें- Crime Story: अवनीश का खूनी कारनामा

नीरव मोदी पंजाब नेशनल बैंक के साथ करीब दो अरब डॉलर की ऋण धोखाधड़ी करने तथा मनी लॉन्ड्रिंग के मामलों में भारत में वांछित है. भारतीय जांच एजेंसियों ने इंटरपोल की मार्फत पहले नीरव मोदी और उसके मामा मेहुल चौकसी के इंटरपोल रेड कॉर्नर नोटिस जारी कराए थे. जिनके आधार पर नीरव मोदी को लंदन में गिरफ्तार किया गया था. 19 मार्च, 2019 को गिरफ्तार किए गए नीरव मोदी पर मनी लॉन्ड्रिंग, सबूतों से छेड़छाड़ और गवाहों को डराने की साजिश रचने का आरोप है. नीरव मोदी पिछले डेढ़ साल से ज्यादा समय से लंदन की जेल में बंद है. भारत की जांच एजेंसियां सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय दोनों ही मोदी की संपत्तियों की छानबीन और जब्ती कर रही हैं. बीते दो साल से उसको भारत लाये जाने के प्रयास हो रहे हैं, मगर वह किसी ना किसी तरह कानून की ज़द में आने से बच जाता था. हालांकि अब उसके सारे दांव उलटे पड़ने लगे हैं और भारत लाये जाने की राहें आसान होती नज़र आ रही हैं.

लंदन की अदालत के हालिया फैसले ने पंजाब नेशनल बैंक से घोटाले के आरोपी भगोड़े हीरा कारोबारी नीरव मोदी की भारत आने के लिए उल्टी गिनती शुरू हो गई है. लंदन की निचली अदालत के बाद अब ब्रिटेन के गृह मंत्रालय ने भी नीरव मोदी को भारत प्रत्यर्पण किए जाने की फाइल पर अपनी मुहर लगा दी है. नीरव मोदी को भारत प्रत्यर्पण करने के लिए लंदन की अदालत ने 25 फरवरी को आदेश जारी किए थे. जज सेमुअल गूजी ने कहा था कि नीरव मोदी को भारत में चल रहे केस में जवाब देना होगा. उन्होंने कहा कि नीरव मोदी के खिलाफ पर्याप्त सबूत हैं.  दो साल चली कानूनी लड़ाई के बाद यह फैसला आया था. गौरतलब है कि घोटाला सामने आने के बाद वह जनवरी 2018 में भारत छोड़कर फरार हो गया था. फिलहाल वह लंदन की एक जेल में कैद है. जज  सेमुअल गूजी का कहना था कि नीरव मोदी को भारत भेजा जाता है तो ऐसा नहीं है कि उन्हें वहां इंसाफ न मिले. कोर्ट ने नीरव मोदी की मानसिक स्थिति ठीक न होने की दलील भी खारिज कर दी और कहा कि ऐसा नहीं लगता उन्हें ऐसी कोई परेशानी है. कोर्ट ने मुंबई की ऑर्थर रोड जेल की बैरक नंबर-12 को नीरव के लिए फिट बताया.

ये भी पढ़ें- Crime Story : नापाक रिश्ता

अपनी गिरफ्तारी के बाद नीरव मोदी ने भारतीय एजेंसियों के दावे को अदालत में चुनौती दी थी और अपनी जमानत याचिका भी दाखिल की, मगर लंदन कोर्ट ने भारतीय जांच एजेंसियों के वकील और नीरव मोदी के वकील की दलील सुनने के बाद नीरव मोदी की जमानत याचिका खारिज कर दी थी और उसे जेल में ही रखने के आदेश दिए. नीरव मोदी को भारत प्रत्यर्पण करने के लिए मुकदमा लगातार लंदन की कोर्ट में चलता रहा और इसी साल 25 फरवरी को लंदन की निचली अदालत ने नीरव मोदी को विभिन्न आपराधिक धाराओं के तहत दोषी मानते हुए उसे भारत प्रत्यर्पण करने के आदेश जारी कर दिए. इसके साथ ही कोर्ट ने अपनी फाइल लंदन के गृह मंत्रालय को भेज दी. नियमानुसार जब कोई न्यायालय लंदन में पकड़े गए किसी बाहरी देश के नागरिक को उसे उसके देश वापस प्रत्यर्पण करने का आदेश देता है तो उस फाइल पर इंग्लैंड के गृह मंत्रालय की मोहर लगनी भी जरूरी होती है और यह पूरी कार्रवाई 28 दिनों के भीतर होनी जरूरी मानी जाती है.

पुश्तैनी धंधे ने दी थी नीरव को ऊंचाइयां  

गुजरात का सूरत शहर हीरों के कारोबार के लिए दुनिया भर में मशहूर है. तीस और चालीस के दशक में यहाँ हीरा कारोबारी केशवलाल मोदी ने अपने हीरे का व्यापार खूब बढ़ाया. 1940 में केशवलाल सिंगापुर चले गए और वहां हीरों का व्यवसाय करने लगे.  केशवलाल के बेटे दीपक केशवलाल मोदी ने भी पिता के कारोबार से जुड़ कर उसको खूब बढ़ाया. पहले सिंगापुर और फिर भारत में भी उन्होंने कारोबार फैलाया. 1960 में दीपक केशवलाल मोदी अपने कारोबार को और विस्तार देने के लिए बेल्जियम चले गए. बेल्जियम का बड़ा शहर एंटवर्प जो पूरी दुनिया में अपने नायाब और बेशकीमती हीरों के लिए विख्यात है, में रह कर दीपक ने कारोबार को भी खूब चमकाया. वह एंटवर्प से अनकट हीरे लाकर भारत में बेचने लगे. नीरव मोदी इन्ही दीपक मोदी की संतान है, जिसे वर्ष 1989 में 18 साल की उम्र में पिता दीपक ने पढ़ने के लिए अमेरिका के पेन्सिलवेनिया यूनिवर्सिटी के वार्टन स्कूल भेजा था. नीरव ने इस यूनिवर्सिटी में जापानी और फाइनेंस की पढ़ाई के लिए एडमिशन लिया था.

ये भी पढ़ें- Crime Story: जिद्दी बीवी

अभी पढ़ाई को साल ही गुज़रा था कि दादा और पिता का हीरा कारोबार कुछ आर्थिक परेशानियों में फंस गया. आर्थिक नुकसान 90 के दशक में और बड़ा हो गया तो नीरव अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर भारत लौट आया और 19 बरस की कम उम्र में ही मुंबई में अपने चाचा के साथ हीरे का काम शुरू किया. तब चाचा से नीरव को तनख्वाह के तौर पर 3,500 रुपये प्रति माह मिलते थे. करीब दस साल के अथक परिश्रम के बाद नीरव मोदी के पास खुद के 50 लाख रुपए जमा हो गए और अब वह अपनी कंपनी खोलने का सपना देखने लगा.

वर्ष 1999 में नीरव मोदी ने ‘फायर स्टार’ नाम से हीरे का अपना कारोबार शुरू किया. पंद्रह लोगों की एक छोटी सी टीम के साथ नीरव ने कारोबार की शुरुआत की. गौरतलब है कि दुनिया में हीरे की 90 फीसदी कटिंग भारत में ही होती है. नीरव मोदी इस बात को बेहतर जानता था. लिहाजा उसने अपनी कंपनी के जरिए पॉलिश किए गए हीरों को अमेरिका और इंग्लैंड के बाजार में बेचना शुरू किया. मगर जल्द ही उसे समझ में आ गया कि सिर्फ पॉलिश किए गए हीरे बेचकर वो आगे नहीं बढ़ सकता है. उसने स्ट्रेटजी बदली और जूलरी के कारोबार में उतर पड़ा.

दरअसल नीरव मोदी जिन हीरा व्यवसाइयों को पॉलिश किए गए हीरे बेचता था, वो जब उन हीरों से जूलरी बनाते थे तब जूलरी के हिसाब से हीरे की फिर से कटिंग होती थी, जिसमें करीब 15-20 फीसदी हीरे का नुकसान हो जाता था. इस पूरी प्रक्रिया में करीब 30 दिनों का वक्त भी लगता था.  नीरव मोदी ने अपने ग्राहकों से कहा कि वो उन्हें पॉलिश किए गए हीरे की बजाय उनकी जूलरी के हिसाब से हीरे दे देंगे, जिससे उनके ग्राहकों के पैसे और टाइम दोनों ही बचेंगे. उनके ग्राहक मान गए और इसके बाद नीरव मोदी ने कॉन्ट्रैक्ट पर अमेरिकी ग्राहकों के लिए जूलरी बनानी शुरू कर दी जिसने उसको सफलता के नए सोपान पर पहुंचा दिया.

बाज़ार पर पैनी नज़र

नीरव मोदी अपने कारोबार का कीड़ा था. वह हीरा बाज़ार के उतार चढ़ाव पर अपनी पैनी निगाह रखता था. यही उसकी सफलता का राज़ था. नीरव को अपनी कंपनी शुरू किये अभी ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ था जब हीरा मार्किट मंदी में जाने लगा और भारत के साथ ही चीन के हीरा कारोबारी भी थोक कारोबारियों और हीरा काटने वाली कंपनियों को बाइपास कर सीधे अमेरिका में कारोबार करने लगे. ये देख कर मोदी ने एक बड़ा फैसला लिया. अमेरिका की एक कंपनी – फ्रेडरिक गोल्डमैन जो नीरव मोदी की कंपनी से सात गुना बड़ी थी, को खरीदने का ऑफर नीरव मोदी ने दिया. इस डील को पूरा होने में करीब डेढ़ साल लगे और  2005 में नीरव मोदी ने इस कंपनी को करीब 1 अरब 60 करोड़ रुपये में खरीद लिया. दो साल बाद 2007 में नीरव मोदी ने अमेरिका की 120 साल पुरानी कंपनी सैंडबर्ग एंड सिकोर्स्की को भी करीब 3 अरब 20 करोड़ रुपये में खरीद लिया.

संगीत और कला में गहरी रूचि रखने वाले नीरव मोदी को जूलरी डिज़ाइन में भी महारत हासिल थी. वह दुर्लभ किस्म के हीरों का बड़ा पारखी था. ये गुण उसे उसके दादा और पिता से मिले थे. इसी के साथ वह दुनिया भर के हीरा कारोबार पर गहरी नज़र रखता था.

2008 में जब दुनिया आर्थिक मंदी से जूझ रही थी तब हीरा कारोबार भी काफी नुकसान में चला गया था. गुलाबी, नीले और सफेद रंग के दुर्लभ और बेशकीमती हीरों की कीमतें आसमान से जमीन पर आ गयी थीं. नीरव मोदी ने इस मौके का फायदा उठाया और बहुत कम कीमतों पर इन हीरों की खरीद की, लेकिन उसने उन्हें बेचने की बजाय उनसे जूलरी बनानी शुरू कर दी.

2010 का साल नीरव मोदी के लिए बेहद खास था. गोलकुंडा की खान से निकले 12 कैरेट के हीरे से नीरव मोदी ने लोटस नेकलेस बनाया था. नवंबर 2010 में इसे हॉन्ग कॉन्ग में नीलामी के लिए रखा गया, जहां इसकी नीलामी करीब 23 करोड़ रुपये में हुई.  इसके तुरंत बाद इसी साल नीरव ने नीरव मोदी ब्रैंड नाम से अपना डायमंड जूलरी का कारोबार शुरू किया. मुंबई से शुरू हुआ नीरव मोदी का कारोबार जल्दी ही कई देशों में फ़ैल गया और देखते ही देखते नीरव मोदी ने दिल्ली, मुंबई, न्यू यॉर्क, हॉन्ग कॉन्ग, लंदन और मकाउ में अपने स्टोर खोल लिए. भारत में नीरव का स्टोर ‘अर्गायल’ गुलाबी हीरे का इकलौता डिस्ट्रीब्यूटर है. उल्लेखनीय है कि अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा उसकी जूलरी की ब्रैंड अंबेसडर रह चुकी हैं.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कारोबार का विस्तार

कलात्मक चीज़ों के प्रति नीरव मोदी का झुकाव हमेशा से रहा. प्रकृति, कला, कविता, आर्किटेक्टर और आभूषणों की नक्काशी उसको आकर्षित करती थी. वह कला का अच्छा पारखी भी था. अच्छी चीज़ों की तलाश में वह देश-विदेश की सैर किया करता था. इन यात्राओं ने उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने कारोबार को फैलाने और लोगों से जुड़ने में मदद की. जल्दी ही वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ब्रैंड बन गया और दुनिया  की मशहूर हस्तियां उसकी डिजाइन की हुई जूलरी खरीदने लगीं. उसकी सफलता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब फरवरी 2016 में 88वें एकेडमी अवार्ड घोषित हुए इस कार्यक्रम में नीरव मोदी ब्रैंड भी शामिल था. इस मौके पर नीरव मोदी ब्रैंड के 100 कैरेट के बेशकीमती सफेद हीरे पहने हुए यूके की ख्यात अभिनेत्री केट एलिज़ाबेथ विंसलेट लाल कालीन पर चल रही थीं. वह क्षण नीरव मोदी के की ज़िन्दगी के बेहद गौरवशाली क्षण थे.

नीरव मोदी ‘क्रिस्टी’ और ‘सोथेबीस कैटलॉग’ पत्रिकाओं के कवर पर प्रदर्शित होने वाला पहला भारतीय जोहरी हैं. 2017 में फोर्ब्स पत्रिका ने नीरव मोदी को दुनिया के अमीर लोगों की सूची में स्थान दिया. सूची के मुताबिक नीरव मोदी की उस वक्त की कुल संपत्ति करीब 149 अरब रुपये की थी, जिसकी बदौलत उसे इस लिस्ट में जगह मिली थी. दुनिया भर में 100 जूलरी स्टोर खोलने की ख्वाहिश रखने वाले नीरव मोदी ने अपना पहला स्टोर 2014 में दिल्ली की डिफेन्स कॉलोनी में खोला था. इसके बाद 2015 में उसने मुंबई के काला घोड़ा में एक और फ्लैगशिप स्टोर खोला. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नीरव मोदी ने 2015 में ही न्यूयॉर्क और हॉन्ग कॉन्ग में अपने बुटीक खोले. फिर 2016 में हॉन्ग कॉन्ग में दो और बुटीक खोले. लंदन के बॉन्ड स्ट्रीट और मकाउ में भी उसका बुटीक है.

नीरव मोदी की हैसियत का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जब नीरव मोदी को 2015 में न्यूयॉर्क के मेडिसन एवेन्यू में अपना बुटिक खोला था, तो उसके उद्घाटन समारोह में देश-दुनिया की कई जानी-मानी हस्तियों ने शिरकत की थी. इनमें अमेरिका के राष्‍ट्रपति डोनाल्‍ड ट्रम्‍प के अलावा हॉलीवुड अभिनेत्री नाओमी वॉट्स, सुपर मॉडल कोको रोचा के साथ ही भारत से लीसा हेडन और निमरत कौर भी शामिल हुई थीं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़ास करीबियों में कभी नीरव मोदी का नाम भी शामिल था. 23 जनवरी, 2018 से स्विट्जरलैंड के दाओस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के 48वां अधिवेशन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ भारत से एक प्रतिनिधिमंडल दाओस गया था. इस प्रतिनिधिमंडल में नीरव मोदी भी शामिल थे. वहीँ अम्बानी परिवार से भी नीरव मोदी के करीबी सम्बन्ध हैं. मुकेश अम्बानी की बहन दीप्ति सलगांवकर की बेटी इशिता की शादी नीरव मोदी के छोटे भाई नीशल मोदी से हुई है. 24 नवंबर, 2016 में इन दोनों की सगाई में मुकेश अंबानी के मुंबई वाले घर एंटीलिया में एक भव्य कार्यक्रम हुआ था जिसमें शाहरुख खान, आमिर खान, दीपिका पादुकोण, रणवीर सिंह, आलिया भट्ट और करण जौहर जैसी बॉलीवुड की बड़ी हस्तियां शामिल हुई थीं.

प्रत्यर्पण में अभी समय लग सकता है 

लंदन गृह मंत्रालय की मुखिया प्रीति पटेल द्वारा नीरव मोदी प्रत्यर्पण की फाइल पर औपचारिक मुहर लगने के बाद भगोड़े उद्योगपति के भारत वापस आने की उल्टी गिनती शुरू हो गई है. मगर गृह मंत्रालय की ओर से प्रत्यर्पण के आदेशों पर दस्तखत का मतलब ये नहीं है कि उसे तुरंत भारत भेज दिया जाएगा. गृह मंत्रालय की मंजूरी के बावजूद अभी नीरव मोदी हाईकोर्ट में अपील कर सकता है. इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट में अपील और ब्रिटेन में शरण लेने का रास्ता भी उसके पास है.

नीरव ने हाईकोर्ट में अपील की तो क्या होगा?
1. भारतीय जांच एजेंसियों को कोर्ट में साबित करना होगा कि नीरव पर लगे आरोप ब्रिटेन के कानून के तहत भी अपराध हैं.
2. अगर आरोप साबित होते हैं तो हाईकोर्ट नीरव के प्रत्यर्पण का ऑर्डर दे सकता है.
3. हाईकोर्ट यह भी देखेगा कि क्या नीरव के प्रत्यर्पण से मानवाधिकारों का उल्लंघन तो नहीं होगा.
4. ऐसे में नीरव को भारत लाने में भारतीय एजेंसियों को कम से कम 10 से 12 महीने का वक्त लग सकता है.
अगर नीरव मोदी इस फैसले को सुप्रीम अदालत में चुनौती नहीं देता है तो उसे अगले 28 दिनों के भीतर वापस भारत भेज दिया जाएगा.

 

आदिवासियों के हक

लगभग पूरे देश के पहाड़ों पर रहने वाले आदिवासियों को शहरी धार्मिक जीवन पसंद नहीं आया है. वे पहाड़ों में खुश हैं, मस्त हैं. वे अपनी सूखी रोटी, जानवरों के शिकार और फलफूल के सेवन से तंदुरुस्त हैं. अफसोस यह है कि शहरी लोग उन्हें जबरन अपने ढांचे में ढालना चाह रहे हैं और उन के पहाड़ों, जमीन, जंगलों पर कब्जा करना चाह रहे हैं. ज्यादातर आदिवासियों ने तो शहरी हमलों का मुकाबला नहीं किया पर छत्तीसगढ़, ?ारखंड, पश्चिम बंगाल में ऐसे टुकड़े हैं जहां आदिवासियों ने माओवादी ?ांडे के नीचे इकट्ठे हो कर सत्ता से लड़ने की ठान रखी है.
पिछले 10 सालों में जहां 1,700 शहरी, पुलिस व सुरक्षाकर्मी मारे गए हैं, वहीं कई गुना आदिवासी मारे गए हैं और हजारों विभिन्न जेलों में सड़ रहे हैं. माओवादियों को कौन बहका रहा है, यह सवाल इतना जरूरी नहीं है जितना कि हम क्यों नहीं उन को उन के हाल पर छोड़ सकते. क्या उन के जीवन में दखल देने के पीछे जंगलों में छिपे पेड़, जमीन के नीचे के कोयले व लोहे पर गिद्द नजर होने के साथ आदिवासियों को गुलाम बना कर उन से सेवा लेने की इच्छा है?
ये भी पढ़ें- ई-कौमर्स का असर
सरकारें चाहें कांग्रेस की हों, भाजपा की हों या मिलीजुली, यह बरदाश्त करने को तैयार ही नहीं कि देश या राज्य का कोई वर्ग आजाद रहने का हक रखता है. हर सरकार को अपनी धौंस जमाने की इतनी आदत हो गई है कि वह जबरन आदिवासियों के इलाकों में पहुंच रही है. कुछ जगह आदिवासियों ने अपने बचाव में हथियार उठा लिए हैं और छत्तीसगढ़ में अप्रैल के प्रथम सप्ताह में हुआ खूनी संघर्ष इसी का नतीजा है. जहां सरकारविरोधी शहरी को मारनेपीटने के बाद उसे जेल में ठूंस कर उस के घर की औरतों का रेप कर व पैसा जब्त कर उसे जबरन चुप किया जा सकता है, वहीं ये आदिवासी चुप होने को तैयार नहीं हैं, हार मानने को तैयार नहीं हैं.
सरकार का दखल असल में ज्यादा जिम्मेदार है बजाय इस के कि आदिवासियों को ट्रेनिंग देना या हथियार मुहैया करवा देना. आदिवासी अपनी मेहनत का बहुत बड़ा हिस्सा अपना वजूद बनाए रखने में खर्च कर रहे हैं, पेट काट कर वे हथियार जमा करते हैं, पुलिस व प्रशासन में घुसपैठ करते हैं, मीलों अपने गांवों को छोड़ कर जंगलों में छिपते हैं, जान दे कर अपने साथियों को बचाते हैं. असल में यह हक हर नागरिक का है, हर स्त्रीपुरुष का है, पर ज्यादातर को हांक कर, फुसला कर, लालच दे कर, बहला कर, भगवा या राष्ट्रप्रेम का पाठ पढ़ा कर उन का ब्रेनवाश कर लिया जाता है. शहरी लोग अब विरोध करना भूल गए हैं. वे पालतू कुत्ते जैसे हो गए हैं जो सुरक्षा के बदले अपनी स्वतंत्रता खो चुके हैं.
ये भी पढ़ें- संपादकीय
आदिवासियों से किसी तरह की सहानुभूति नहीं रखी जा सकती पर सरकारों को भी उन के जीवन में दखल न देने की आदत डालनी होगी. आदिवासी चाहे गुजरात के हों, हिमाचल के हों, अंडमान के हों, सब को अपनी आजादी मिलनी चाहिए. शहरी सुविधाएं हरेक पर थोपने और बदले में अपनी जीवनशैली छोड़ने को मजबूर करना ठीक नहीं है. यह आदत समाजों और देशों को तोड़ती है और यही देशों के बीच लड़ाई की वजह बनती है.
सत्ता की शरण में अदालत  
सत्ताविरोध को बंद कराने के लिए अदालतों का किस तरह इस्तेमाल किया जा सकता है, इस का एक उदाहरण दिल्ली के एक अतिरिक्त जिला सैशन जज के फैसले में साफ ?ालकता है. फरवरी 2020 में उत्तरपूर्व दिल्ली में हुए हिंदूमुसलिम दंगे में पकड़े गए लोगों को जमानत देने से इनकार करते हुए न्यायाधीश ने कहा कि सरकारविरोधी प्रदर्शन के दौरान दंगा भड़कता है तो केवल दंगे करने वाले ही नहीं, बल्कि प्रदर्शन में शामिल हर इंसान भी बराबर का अपराधी है.
अदालत का तर्क है कि दंगाइयों की भीड़ में हर व्यक्ति को यह सम?ा लेना चाहिए कि उन में से एक की भी गलत हरकत सब को अपराधी बना सकती है. मोहम्मद बिलाल को जमानत देने से इनकार करते हुए न्यायाधीश ने कहा कि यह सफाई, कि वह तो एक अन्य किसी भीड़ में शामिल व्यक्ति के बयान पर पकड़ा गया था जबकि दंगे में उस का कोई हाथ नहीं था, काफी नहीं है.
पुलिस के पास न तो उस के मोबाइल का रिकौर्ड है कि वह कहां था, न सीसीटीवी कैमरों के फुटेज जिस में वह दिख रहा है. फिर भी उसे दंगाई मान लिया गया और जमानत देने से इनकार कर दिया गया.
जनतंत्र में विरोध करने का हक हरेक को है और एक भीड़ में शामिल हो कर किसी मुद्दे पर विरोध करना मौलिक अधिकार है. इस मौलिक अधिकार को छीनने के कानून भी बनाए जा रहे हैं और अदालतों से सरकार के मनमाफिक फैसले भी करवाए जा रहे हैं. आज के वक्त में बेगुनाहों को जेलों में ठूंस कर जनतंत्र की एक तरह से खुली तौर पर हत्या की जा रही है और बेगुनाहों को बचने के लिए अब बहुत मोटा पैसा खर्च करना व सुप्रीम कोर्ट तक जाना पड़ रहा है.
अफसोस यह है कि निचली अदालतें आमतौर पर सर्वोच्च न्यायालयों के निर्णयों तक का संज्ञान नहीं लेतीं. जब तक कोई व्यक्ति अपराधी सिद्ध न हो जाए उसे निर्दोष माना जाए जैसे न्यायिक सिद्धांत अब केवल किताबों के पन्नों पर रह गए हैं क्योंकि पुलिस और अदालत इस पूर्वाग्रह पर चल रहे हैं कि किसी को संदेह में पकड़ा गया है तो वह अपराधी ही है चाहे शिकायत पुलिस ने की हो या किसी आम नागरिक ने.
लोकतंत्र की जान ट्रायल कोर्ट होती है जिस के पास क्रूर ब्रिटिश सरकार के कानूनों के दौर में भी बहुत अधिकार थे. आज अधिकांश अधिकार न्यायाधीशों ने पुलिस की मरजी पर छोड़ दिए हैं जो अपने तरीके से जमानत देने की अर्जी पर सहमति दे या न दे. पुलिस अधिकार हाल के सालों में बेहद बढ़ गए हैं और जनता के अधिकार कम हो गए हैं.
जो फैसला दिल्ली के जिला अतिरिक्त न्यायाधीश ने दिया है वह लगभग सारे देश में सरकारविरोधी आंदोलनों में ही नहीं, घरेलू हिंसा, साधारण मारपीट, चोरी आदि पर भी लागू होने लगे हैं. लोगों को अदालतों पर भरोसा है पर अदालतों को भरोसा दिलाना होगा कि वे सरकार व पुलिस बनाम जनता के मामलों में जनता के साथ हैं, न्याय के साथ हैं.
शरणार्थी नीति पर सवाल मूलतया म्यांमार में बसे लेकिन बंगाली  बोलने वाले रोहिंग्या शरणार्थी पूरे भारत में फैले हुए हैं, वे यहां छोटेमोटे काम कर के गुजारा कर रहे हैं. बंगलादेश व म्यांमार दोनों इन से परेशान हैं क्योंकि इसलाम को मानने वाले बिना किसी देश की नागरिकता के ये लोग कभी बंगलादेश में होते हैं, कभी म्यांमार में तो कभी भारत में. भारत सरकार ने इन्हें विदेशी मान कर खदेड़ने की नीति अपना रखी है मगर खदेड़ कर इन्हें कहां भेजा जाए क्योंकि बंगलादेश और म्यांमार दोनों इन्हें लेने को तैयार नहीं. इन्हें क्या बंगाल की खाड़ी में खड़े जहाजों में पटक दिया जाए जहां ये मर जाएं?
बंगलादेश कुछ ऐसा कर भी रहा है. उस ने सैंकड़ों रोहिंग्या लोगों को एक द्वीप पर बसा दिया है. वहां उन्हें कुछ काम भी दिया है पर यह पक्का है कि ये लोग धीरेधीरे नौकाओं के जरिए वहां से निकल भागेंगे.
भारत सरकार ने जगहजगह से पकड़ कर इन्हें जेलों में बंद कर रखा है और एक याचिका में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की बात मानी है कि बंगलादेश या म्यांमार में इन के साथ जो भी सुलूक हो रहा हो, भारत सरकार इन्हें आजाद घूमने और बसाने नहीं दे रही, तो गलत नहीं है. भारत के सुप्रीम कोर्ट ने वह मानवता दिखाने से इनकार कर दिया जो पश्चिमी देशों के कितने ही देशों की सरकारों ने दिखाई है. सीरिया से भाग कर गए शरणार्थियों को उत्तरी यूरोप की सरकारें भगाना चाहती हैं पर वहां की अदालतों ने अपने देशों के कानूनों का ही हवाला दे कर कहा है कि जो लोग कहीं भी सताए जा रहे हों उन्हें शरण देना राज्य का कर्तव्य है.
यह न भूलें कि भारतीयों के साथ भी ऐसा होता है. करोड़ों भारतीय मूल के लोग दुनियाभर में फैले हैं और कभीकभार उन के खिलाफ लोकल लोग खड़े हो जाते हैं. उस समय वहां की अदालतें उन की सुरक्षा में खड़ी हो जाती हैं. भारत सरकार ने चाहे कभी इसे पसंद नहीं किया और भारत सरकार चाहे सही भी हो पर फिर भी कितने ही देशों ने पंजाबियों को शरण दी कि खालिस्तानी आंदोलन के कारण उन पर भारत में अत्याचार हो रहे हैं और उन्हें शरण चाहिए.
रोहिंग्या लोगों को शरण न देना नैतिकता के खिलाफ है क्योंकि फिर न हम तिब्बतियों को शरण दे सकते हैं और न श्रीलंकाइयों को. एक देश को इतना उदार तो होना ही होगा कि दूसरी जगह के लोग यदि शरण मांग रहे हैं तो उन्हें रहने की जगह दी जाए. इतिहास गवाह है कि भारत ने पारसियों बोहराओं, चीनियों, तुर्कों, अरबों, अफगानों को लगातार शरण दी है. हर देश वैसे ही तरहतरह की नस्लों का मिश्रित देश होता है.
भारत सरकार यहां सिर्फ हिंदूमुसलिम कारणों से रोहिंग्याओं के प्रति भेदभाव कर रही है जो सरकार की नीति का हिस्सा है पर यह देश की मूलभूत भावना की कट्टरता की पोल खोलता है. इस का खमियाजा हमें कब सहना पड़े, कह नहीं सकते. नाजी जरमनी ने यहूदियों के साथ जुल्म किए पर फिर उन के साथ न जाने क्या हुआ कि अंत में उन के चहेते एडोल्ड हिटलर को तहखाने में खुद को गोली मार कर मरना पड़ा था – सिर्फ 5-6 सालों के अत्याचारों के बाद.
नशा धर्म का
धर्म का नशा इतना बड़ा है कि लोग अपनी जान की परवा किए बिना हरिद्वार में हो रहे कुंभ में बिना कोविड टैस्ट कराए पहुंच रहे हैं. वे खुद को बीमारी का निमंत्रण दे रहे हैं. भाजपा सरकार ने इस कुंभ को बंद करने का कोई आदेश नहीं दिया है. धर्मांधता भारत में ही नहीं, दुनियाभर में है. कितने ही देशों में चर्चों ने अपने दरवाजे पिछले फरवरीमार्च से लगातार खुले रखे हैं. जहां भी धर्मसमर्थक सरकार थी वहां उस ने धार्मिक आयोजनों को अनदेखा किया. कितने ही ईसाई पुजारी, जो कहते रहे कि कोविड केवल पापियों को होगा, जीसस ईश्वर की शरण में आने वालों को नहीं होगा, कोविड की चपेट में आ गए और अपनी मान्यता के अनुसार, ‘जीसस से मिलने’ उन के पास पहुंच गए.
भारत में सभी मंदिरों के अघोषित मालिक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघ चालक मोहन भागवत भी कोविड ग्रस्त हो चुके हैं. योगी आदित्यनाथ की तरह कितने ही भाजपा के मंत्री, मुख्यमंत्री कोविड से छटपटाते रहे पर फैसले लेते समय धर्म का धंधा उन पर छाया रहा. उन्होंने मंदिरों में जाना भी चालू रखा, घरों में हवनपूजाएं कराईं, चुनाव सभाओं में भाग लिया, अफसरों से मिले, कमाई के अवसर चालू रखे. हां, भूल कर भी वे उन मजदूरों की ओर नहीं गए जो कोविड के डर के कारण पिछले साल पैदल चल कर घर पहुंचे और फिर वापस आए.
हरिद्वार में कुंभ आयोजन के लिए पुलिस ने एहतियात के तौर पर जगहजगह पोस्ट लगा कर आरटीपीसीआर रिपोर्ट चैक करना चालू रख रखा है पर तीर्थयात्री मुख्य मार्ग छोड़ कर खेतों, जंगलों, गांवों, ऊबड़खाबड़ रास्तों से जाने लगे हैं. वे गांवों की सड़कों को तो नष्ट कर ही रहे हैं, बिना कोविड टैस्ट के जाने की वजह जहां रहेंगे वहां वायरस छोड़ रहे हैं. जो गांव किसी तरह से बचे रहे थे, वे अब गंगामैया की कृपा से कोरोनाग्रस्त हो जाएं, तो बड़ी बात नहीं.

फसल कटाई के बाद क्या है खास

लेखक-डा. शैलेंद्र सिंह

फसल की कटाई के बाद खेत में फसल अवशेष भूल कर भी न जलाएं. इस से खेत के लाभदायक मित्रजीव नष्ट हो जाते हैं और फसल में शत्रुजीवों का प्रकोप बढ़ जाता है. फसल अवशेषों को पशु चारे के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है या उन की कंपोस्टिंग कर के उत्तम किस्म की खाद बनाई जा सकती है. यदि ये दोनों संभव न हो सकें, तो उन्हें खेत में ही रोटावेटर की मदद से महीन कर के मिट्टी में मिलाया जा सकता है, जो आगामी फसल में मृदा जीवांश कार्बन में योगदान करेंगे. कुछ किसान मशरूम उत्पादन के प्रयोग में भूसे को ले सकते हैं. अनाज भंडारण वाले कमरे/पात्र की साफसफाई कर मैलाथियान का छिड़काव करें. धूप में सुखाए हुए अनाज को छाया में ठंडा कर के ही भंडारण करना चाहिए.

भंडारण के समय नमी का उचित स्तर तय कर लेना चाहिए. नमी का स्तर अनाज वाली फसलों में 12 फीसदी, तिलहनी फसलों में 8 फीसदी, दलहनी फसलों में 9 फीसदी, सोयाबीन आदि के दानों में तकरीबन 10 फीसदी से कम रहना चाहिए. खाली खेतों में गहरी की जुताई करें. इस से आगामी फसल में लगने वाले अनेक रोगों, कीटों और खरपतवारों की सुषुप्त अवस्थाएं सूरज की तेज रोशनी से नष्ट की जा सकती हैं. मृदाजनित रोगजनक व कीट और सूत्रकृमि की रोकथाम में यह एक कारगर उपाय है. ग्रीष्मकालीन उड़द और मूंग की जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें. इन फसलों में सफेद मक्खी और फुदका कीट के नियंत्रण के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल की 1 मिलीलिटर दवा प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें. फलियों की तुड़ाई के बाद शेष फसल को खेत में पलट देने से यह हरी खाद का काम करती है.

ये भी पढ़ें- गरमियों में मूंग की खेती कर मुनाफा कमाएं

चारा फसलों में ज्वार, चरी व मक्का की बोआई करें. पहले लगाई गई लोबिया की 60-70 दिन की अवस्था में मई माह में कटाई करें. जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें. सिंचित क्षेत्रों में खेत में अथवा खेत की मेंड़ों पर हाथी घास (संकर नेपियर) लगाएं. मक्का ग्रीष्मकालीन की बोआई के समय दीमक प्रभावित क्षेत्रों में खेतों में क्लोरोपायरीफास की 2.0 लिटर/हेक्टेयर की दर से डालें. भिंडी और बैगन की फसल को फलीछेदक कीट से बचाएं. इस के लिए नीम तेल 1,500 पीपीएम 3.0 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें. लोबिया/भिंडी की फसल में पत्ती खाने वाले कीट से बचाने के लिए क्विनालफास 25 ईसी की 2.0 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें. बैगन में तनाछेदक कीट से बचाव के लिए कर्ताफ हाइड्रोक्लोराइड की 1.0 ग्राम दवा प्रति लिटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें. लौकी वर्ग की सब्जियों में फलमक्खी के नियंत्रण के लिए विषैले चारे पौइजन बेट का प्रयोग करना चाहिए. एक लिटर के चौड़े मुंह वाले डब्बे में एक लिटर पानी में मिथाइल यूजिनोल 1.5 मिलीलिटर व डाईक्लोरोवास 2.0 मिलीलिटर का प्रयोग करें. यह पौइजन बेट उचित अंतराल वाले स्थानों पर रखें और इसे 3-4 दिन के अंतराल पर बदलते रहना चाहिए. लाल भृंग कीट की रोकथाम के लिए सुबह ओस पड़ने के समय पौधों पर राख का बुरकाव करने से कीट पौधों पर नहीं बैठते हैं.

इस कीट का अधिक प्रकोप होने पर कार्बारिल 5 प्रतिशत के 20 किलोग्राम चूर्ण को राख में मिला कर सुबह पौधों पर बुरकना चाहिए या 0.2 फीसदी सेविन का छिड़काव करें. मिर्च में हरा फुदका के प्रबंधन के लिए नीम तेल 1,500 पीपीएम की 3.0 मिलीलिटर दवा प्रति लिटर पानी के साथ छिड़काव करें या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल की 5.0 मिलीलिटर दवा प्रति 15 लिटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करें. मिर्च में थ्रिप्स के प्रबंधन के लिए इमामेक्टिन बेंजोएट 5 प्रतिशत एसजी 6.0 ग्राम दवा प्रति 15 लिटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करें या स्पाइनोसेड 45 प्रतिशत एससी 5.0 मिलीलिटर दवा प्रति 15 लिटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करें. अदरक की बोआई 30×20 सैंटीमीटर पर 4 सैंटीमीटर की गहराई में करनी चाहिए. बोआई से पहले 20-25 ग्राम के टुकड़ों को कौपरऔक्सीक्लोराइड के 0.3 फीसदी घोल में 10 मिनट तक उपचारित करें. आम के गुम्मा रोग से ग्रसित पुष्प मंजरियों को काट कर जला दें या गहरे गड्ढे में दबा दें. आम के फलों को गिरने से बचाने के लिए एल्फा नैफ्थलीन एसिटिक एसिड 4.5 एसएल के 20 मिलीलिटर को प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

ये भी पढ़ें- अंतिम भाग: आम के प्रमुख कीट एवं उन का प्रबंधन

मिली बग नई कोंपलें, फूलों व फलों का रस चूस कर काफी नुकसान करती हैं. इन के नियंत्रण के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल की 1.0 मिलीलिटर दवा प्रति लिटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें और नीचे गिरी या पेड़ों पर चढ़ रहे कीड़ों को इकट्ठा कर के मार दें और घास को साफ रखें. ब्लैक टिप रोग से फल बेढंगे व काले हो जाते हैं. इस के लिए बोरैक्स 0.6 फीसदी का छिड़काव करें. यदि तेला (हौपर) फूल पर नजर आए, तो मैलाथियान 50 ईसी की 1.0 मिलीलिटर दवा प्रति लिटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें. अप्रैल में नीबू का सिल्ला, लीप माइनर और सफेद मक्खी के नियंत्रण के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल की 1.0 मिलीलिटर दवा प्रति लिटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें.

ये भी पढ़ें-भिंडी की फसल को रोगों व कीड़ों से बचाएं

तने व फलों का गलना रोग के लिए बोर्डो मिश्रण का छिड़काव करें. अमरूद में अप्रैल महीने में सिंचाई न करें. फूलों को तोड़ दें, ताकि फलमक्खी फूलों में अंडे न दे पाए. इस से फल सड़ जाते हैं. पपीते की नर्सरी के लिए 1 क्विंटल देशी खाद मिला कर शैया तैयार करें. बीज को 1.0 ग्राम कैप्टान से उपचारित करें. जब पौधे उग आएं, तो 0.2 फीसदी कैप्टान का छिड़काव करें. इस से पौध आर्द्रगलन से बच जाएगी. तरबूज में कीड़ों के लिए मैलाथियान 50 ईसी की 2.0 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़कें. पाउडरी मिल्ड्यू बीमारी के लिए कार्बंडाजिम 2.0 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़कें. दवा छिड़कने से पहले फल तोड़ लें या फिर छिड़काव 8 से 10 दिन के बाद ही करे.

Hina Khan के पिता को श्रद्धांजलि न देने पर गौहर खान हुई ट्रोलर्स का शिकार तो ऐसे दिया जवाब

बीते मंगलवार को टीवी जगत की मशहूर अदाकारा हिना खान के पिता का देहांत हो गया. यह वक्त हिना खान और उनके परिवार वालों के लिए काफी मुश्किल भरा था. ऐसे में सभी लोग उनके परिवार को सांत्वना और हिम्मत बढ़ाने की सलाह दे रहे थें.

ऐसे में ट्रोलर्स ने एक बार फिर गौहर खान को निशाने पर ले लिया है. ट्रोलर्स ने सोशल मीडिया पर गौहर खान खान का मजाक बनाते हुए लिखा है कि जब गौहर खान के पिता की मौत हुई थी, उस वक्त हिना खान ने उन्हें हिम्मत रखने की बात कही थी लेकिन आज जब हिना खान बुरे हालात से गुजर रही हैं तो गौहर खान के पास समय नहीं है एक ट्विट करने के लिए.

ये भी पढ़ें- कोरोना ने ली म्यूजिशियन श्रवण राठौर की जान, सदमे में बॉलीवुड

जिसके बाद से यह खबर बुरी तरह से मार्केट में फैल गई है. इस पर लगातार ट्रोलर्स गौहर खान को चपेटे में ले रहे हैं. गौहर खान आते बुरे कमेंट को देखने के बाद लाइव आकर उन्हें करारा जवाब दिया है.

ये भी पढ़ें- Indian Idol 12: जयाप्रदा के आते ही कोरोना गाइडलाइन्स को भूले मेकर्स,

एक इंटरव्यू में बात करते हुए गौहर खान ने कहा है कि मैं फेक इंसान नहीं हूं जो इस खबर को भी सोशल मीडिया पर डालू मुझे जो करना था वो मैंने किया. हिना के साथ मेरा कनेक्शन दिल से है और मुझे जो करना था किया इसे मैं सभी के सामने पेश नहीं करना चाहती हूं. अपनी नाकारात्मक सोच को अपने पास ही रखें और इसे यहां तक न आने दें. आगे उन्होंने कहा कि मैं जो फील करती हूं वहीं करती हूं. मुझे किसी को सफाई देने की जरुरत नहीं है.

 

View this post on Instagram

 

A post shared by HK (@realhinakhan)

ये भी पढ़ें- Rubina Dilaik के फोटोशूट से मचा सोशल मीडिया पर धमाल, ट्रोलर्स को

खैर हिना खान और उनके परिवार वालों के लिए यह समय कठिन है. उन्हें ऐसे वक्त पर अपने साथ- साथ एक-दूसरे का ख्याल रखने की जरुरत है. हिना खान पापा से ज्यादा क्लोज थी तो उन्हें जाने का सदमा कम बर्दाश्त होगा.

कोरोना ने ली म्यूजिशियन श्रवण राठौर की जान, सदमे में बॉलीवुड

देश से कोरोना जाने का नाम ही नहीं ले रहा है. इसके साथ ही एक के बाद एक बुरी खबर मिल रही है. जिसे सुनकर दिल दहल जा रहा है. 90 के दौर की सबसे मशहूर जोड़ी नदीम और श्रवण की हुआ करती थी. जिसे लोग खूब ज्यादा देखना पसंद करते थें. आज वह जोड़ी हमेशा के लिए टूट गई है.

दरअसल , श्रवण को कोरोना हुआ था और वह बहुत लंबे समय सेबीमार चल रहे थे लेकिन अब कोरोना से उनकी मौत हो गई है. बॉलीवुड जगत के सभी लोग ने उन्हें श्रद्धाजली दिया है. देश के दिग्गज कलाकारों के होश उड़ गए हैं इनकी मौत की खबर के से.

ये भी पढ़ें- Rubina Dilaik के फोटोशूट से मचा सोशल मीडिया पर धमाल, ट्रोलर्स को

90 के दशक में कुमार सानू ने नदीम और श्रवण के साथ मिलकर कई सुपर हिट म्यूजिक को दिया था. जैसे की कुमार सानू को मौत की खबर मिली है उन्होंने लिखा कि मेरे प्यारे दोस्त के मौत की खबर मिली है, मेरे पास शब्द नहीं है कहने के लिए , भगवान उनके परिवार को सहने की ताकत दें.

ये भी पढ़ें- YRKKH: रणवीर को देखकर रिया भूल जाएगी कार्तिक को, देगी ये रिएक्शन

तो वहीं  अभिनेता अक्षय कुमार  ने लिखा कि बेहद दुख हुआ श्रवण जी के जाने की खबर को सुनकर उन्होंने कई दिग्गज फिल्मों में म्यूजिक कंपोज किया था, इसमें से एक धड़कन भी शामिल है भगवान उनके परिवार को मजबूत बनाएं रखें.

अभिनेता मनोज वाजपेई ने भी श्रवण को याद करते हुए लिखा है कि बहुत दुखद बहुत दुखद

इसके साथ ही लीजेंडरी म्यूजिशियन एआर रहमान ने लिखा है कि हमारे म्यूजिक कम्युनिटी और आपके फैंस हमेशा आपको मिस करेंगे रेस्ट इन पीस, सम्मान और प्रार्थना.

ये भी पढ़ें- कोरोना की नई लहर: बेदम सिनेमाघर, बेदम फिल्म इंडस्ट्री

सभी सिंगर्स और एक्टर्स जो उनसे जुड़े हुए थे उनके जाने का गम जता रहे हैं. उन्हें बहुत ज्यादा दुख है श्रवण के जाने का. लेकिन श्रवण मर कर भी हमेशा लोगों के दिल में जिंदा रहेंगे.

लाइलाज नक्सलवाद, बेबस सरकार

सत्ता अगर वाकई बंदूक की नली से मिलती, जैसा कि नक्सली मानते हैं, तो दुनियाभर में राज आतंकियों का होता. लोकतांत्रिक व्यवस्था में खामियां और कमजोरियां हैं और अब तो शोषण व तानाशाही भी लोकतंत्र की ओट में होने लगे हैं. लेकिन हिंसक और सशस्त्र विरोध यानी नक्सलवाद इस का हल नहीं है, न ही सरकार का हिंसक जवाब इस का हल है.

नक्सलवाद की उत्पत्ति स्थान पश्चिम बंगाल राज्य के चुनाव प्रचार में इस बार नदारद वामपंथियों की जगह रामपंथी बेखौफ हो कर जयजय श्रीराम का नारा लगाते नजर आए. इस राज्य में पहले कभी किसी चुनाव में धर्म, हिंदुत्व या तुष्टिकरण का मुद्दा बहुत बड़े पैमाने पर नहीं हो रहा था तो इस की अपनी वजहें भी थीं. इस में भी कोई शक नहीं रह गया है कि यह विधानसभा चुनाव पश्चिम बंगाल से वामपंथ को औपचारिक विदाई देगा जिस का राजनीतिक तौर पर खत्म होना एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक घटना भी होगी. वामपंथ ने कभी पश्चिम बंगाल को जमींदारों के शोषण से मुक्त कराए बिना किसी भेदभाव के किसानों और मजदूरों सहित आम लोगों की बदहाली भी दूर की थी.

ये भी पढें- कोरोना संकट: मृत सरकारों को जलाते हैं या दफनाते हैं?

नई पीढ़ी वामपंथ के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानती, लेकिन नक्सलियों के बारे में जरूर उसे सम?ा आ रहा है कि चंद सिरफिरे माओवादी लोग मुद्दत से हथियारों के दम पर सत्ता हथिया लेने को आएदिन हिंसा करते रहते हैं. एक सही बात गलत तरीके से कही जाए तो उस के माने खत्म होने लगते हैं. यही नक्सलियों के साथ हो रहा है जिन्हें माओवादी भी कहा जाता है. इन का मकसद जो भी हो हिंसा के जरिए अपनी मौजूदगी दर्ज कराना जरूर एतराज व चिंता की बात है जिस से फायदा किसी को नहीं होता और न ही इस से उन का मकसद पूरा होने वाला है.

एक बार फिर इन नक्सलियों ने हिंसा के जरिए अपनी बात चिरपरिचित अंदाज में कही जिस से लगा कि नक्सली कोई भटके हुए युवा या भ्रमित बुद्धिजीवी नहीं हैं जो किसी धौंसधपट से डर जाएंगे या फिर बातों के बताशे फोड़ने वालों के ?ांसे में आ जाएंगे. बात वाकई निराशा व हताशाजनक है कि नक्सली आंदोलन जिस वनवे से हो कर गुजरा है उस पर से उन की वापसी की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती. पहले एक नजर ताजे नक्सली हमले पर डाली जानी जरूरी है जो नक्सलियों की कार्यशैली भी दिखाती है. बीजापुर-सुकमा बौर्डर, 3 अप्रैल, 2021 नक्सली बहुत चतुर और शातिर होते हैं, यह बात केंद्र और राज्य सरकारों सहित छत्तीसगढ़ में तैनात सीआरपीएफ के जवानों व स्थानीय पुलिस वालों से भी छिपी नहीं है. नक्सली जो कहते हैं वह आमतौर पर करते हैं और जो नहीं कहते वह जरूर करते हैं. ऐसा ही कुछ वारदात के दिन 3 अप्रैल को बस्तर अंचल के बीजापुर और सुकमा जिलों की सीमाओं पर हुआ. उस दिन सुरक्षा बलों को नक्सलियों के छिपे होने की खबर मिली थी. नक्सलियों की तलाश के लिए अलगअलग कैंपों से कोई 3 हजार जवान इकट्ठा हो कर टेकलगुडा की तरफ नक्सलियों की तलाश में निकल पड़े. नक्सलियों की लोकेशन पता करने के लिए सुरक्षा बलों ने ड्रोन का सहारा लिया था जिस को भांपते नक्सलियों ने अपनी दिशा बदलते दूसरा रास्ता पकड़ लिया.

ये भी पढ़ें-कोरोना संकट: देश को राफेल चाहिए या ऑक्सीजन!

यह पूरा इलाका नक्सलियों का गढ़ है जहां आमतौर पर बाहरी लोग नहीं आते. बीजापुर और सुकमा के चारों तरफ घने दुर्गम जंगल हैं जिन के चप्पेचप्पे से नक्सली बेहतर तरीके से वाकिफ हैं. दोनों पक्ष एकदूसरे की टोह लेते अपनी रणनीति बनाते, बदलते रहे. दोनों को एकदूसरे की ताकत का सटीक अंदाजा नहीं था. दोपहर के 11 बजे नक्सलियों ने सुकमा-बीजापुर के बौर्डर पर स्थित गांव जोनागुड़ा के पास जवानों पर हमला कर दिया. यह जगह सुरक्षाबलों के बेस कैंप तरेम से महज 15 किलोमीटर दूर है. यह लड़ाई पूरी तरह रामायण और महाभारत सीरियलों की तरह मायावी सी थी जिस में नक्सली ऊपर पहाडि़यों पर थे और जवान नीचे मैदान में थे. नक्सलियों की संख्या 250 के लगभग थी, तो जवानों की संख्या तकरीबन 2,000 थी. दोनों पक्ष आधुनिक हथियारों से लैस थे.

शुरुआत नक्सलियों ने गोलियां दागने से की. जवान इस अप्रत्याशित हमले से सकपका गए और छिपने की जगह व ओट ढूंढ़ने लगे जिस से गोलीबारी का जवाब दिया जा सके. उन के लिए यह एक अहम औपरेशन था जो अगर कामयाब हो जाता तो नक्सलियों की रीढ़ उन के ही गढ़ में टूट जाती और एक बड़ी कामयाबी उन के हिस्से में आती. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया क्योंकि नक्सलियों ने उन्हें चौतरफा घेर रखा था जो 3 तरफ से फायरिंग कर रहे थे. रौकेट लौंचर का इस्तेमाल भी उन्होंने किया. हालांकि सुरक्षा बलों के जवान 2 किलोमीटर क्षेत्र में फैले हुए थे लेकिन जल्द ही वे इस में फंसे साबित हो गए. बिखरे होने के चलते भी उन्हें नुकसान उठाना पड़ा. इस के बाद भी वे पूरी हिम्मत व बहादुरी से लड़े और 5 घंटों तक नक्सलियों से जू?ाते रहे.

नक्सलियों की तरफ से इस मुठभेड़ का संचालन और नेतृत्व कुख्यात खूंखार नक्सली कमांडर मांडवी हिडमा कर रहा था जो माओवादियों की पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी यानी पीएलजीए बटालियन नंबर 1 का लीडर भी है. कई खूबियों वाला हिडमा एक गैरमामूली शख्सियत का मालिक है. (देखें बौक्स). शाम के धुंधलके के बाद जब अघोषित युद्ध विराम हुआ तो दोनों पक्ष अपनेअपने लड़ाकों की लाशें बीनने लगे. सुरक्षाबलों के 24 जवानों को बीजापुर अस्पताल ले जाया गया और 7 को इलाज के लिए रायपुर रवाना किया गया. नक्सली भी अपने मृत व घायल साथियों को ट्रैक्टरों में लाद कर चलते बने लेकिन जातेजाते वे एक जवान राकेश्वर सिंह मन्हास को बंधक बना कर साथ ले गए जिसे उन्होंने 5 दिन बाद सहीसलामत रिहा कर दिया.

इस भीषण मुठभेड़ में 24 जवान मारे गए. नक्सलियों ने जातेजाते, आदत के मुताबिक, मृत जवानों के हथियार इकट्ठा किए और उन के जूते वगैरह भी उतार कर ले गए. बाद में सरकार की तरफ से 12 नक्सलियों के ढेर होने का दावा किया गया जिन में वरदी पहने एक महिला भी थी. एक दिलचस्प बात मुठभेड़ के बाद यह सामने आई कि नक्सली अपनी एक खास और अनूठी किस्म की रणनीति, जिसे रिवाज भी कहा जा सकता है, के तहत हर साल 20 फरवरी से 25 अप्रैल तक सुरक्षा बलों पर हमला जरूर करते हैं. 3 अप्रैल के पहले उन्होंने 23 मार्च को भी छत्तीसगढ़ के ही नारायणपुर में सुरक्षा बलों से भरी एक बस को बारूदी सुरंग में विस्फोट कर उड़ा दिया था जिस में 5 जवान मारे गए थे और 15 के लगभग घायल हो गए थे. मारे गए जवानों की लाशें नक्सलियों ने पहाड़ी पर ढेर बना कर रखी थीं और वे वहीं मौजूद थे पहाड़ी पर.

जगहजगह गोलियां, जवानों की लाशें और खून के धब्बे थे. वहां टहल रहे नक्सलियों की मंशा निश्चितरूप से यह जताने की थी कि यहां किसी सरकार का नहीं, बल्कि उन का एकछत्र राज है. यह बात बंधक बनाए गए सीआरपीएफ के कोबरा कमांडो राकेश्वर सिंह की रिहाई के दिन 9 अप्रैल को भी साबित हुई थी जिसे उन्होंने समारोहपूर्वक रिहा किया था. अपनी ताकत और पहुंच का एहसास कराते नक्सलियों ने कुछ शर्तें भी रखीं थीं, मसलन रिहाई मध्यस्थों और मीडियाकर्मियों की मौजूदगी में की जाएगी. ये मध्यस्थ भी बस्तर और छत्तीसगढ़ की नामीगिरामी हस्तियां थीं जिन में पद्मश्री से सम्मानित धर्मपाल सैनी और गोंडवाना समाज के मुखिया तेलम बोरेया के नाम उल्लेखनीय हैं.

बीजापुर के 2 पत्रकार मुकेश चंद्राकर और गणेश मिश्रा भी हजारों लोगों के साथ मौजूद थे. नक्सलियों ने सरकार के साथ क्या डील की थी, इस का पूरा खुलासा शायद ही कभी हो लेकिन घोषिततौर पर उन्होंने कुंजाम सुक्का नाम के आदिवासी की रिहाई की मांग की थी जो पूरी हुई. इस आदिवासी को सुरक्षा बलों ने मुठभेड़ के दौरान अपने कब्जे में ले लिया था. यह मुठभेड़ 2 देशों के युद्ध सरीखी थी जिस में सरहद पर सैनिक जीजान से लड़ रहे होते हैं, इसी तरह फिल्मी तर्ज पर राकेश्वर सिंह और कुंजाम सुक्का की अदलाबदली हुई. यानी, इस हाथ दे और उस हाथ ले. दिलचस्प इतिहास कुंजाम सुक्का की रिहाई की मांग से नक्सलियों ने एक तीर से कई निशाने साधे जिन में पहला यह जताना था कि अर्धसैनिक बल आदिवासियों के हितैषी नहीं हैं जो अकसर बेगुनाह आदिवासियों को प्रताडि़त और आदिवासी औरतों का यौन शोषण किया करते हैं.

दूसरे, इस से वे यह साबित करने में भी कामयाब रहे कि नक्सली ही आदिवासियों के असल हमदर्द हैं. यह बात सिरे से खारिज नहीं की जा सकती क्योंकि नक्सली इलाकों में जहां अर्धसैनिक बल तैनात हैं वहां ऐसा आएदिन होता रहता है. दरअसल, इस गोरखधंधे को सम?ाने के लिए नक्सली इतिहास को सम?ाना जरूरी है जिस की नींव 60 के दशक में पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के गांव नक्सलबाड़ी में रखी गई थी. इसीलिए माओवादियों को नक्सलवादी कहा जाने लगा. आजादी के बाद इस राज्य में कांग्रेस सत्ता में आई थी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी विपक्षी दल था.

संपन्न सवर्ण परिवारों में जन्मे चारू मजूमदार और कानू सान्याल तब युवा और क्रांतिकारी कम्युनिस्ट नेता हुआ करते थे. इन दोनों ने साल 1967 में खुद को कम्युनिस्ट पार्टी से अलग कर अपनी विचारधारा वाले लोगों को साथ ले कर सरकार के खिलाफ सशस्त्र क्रांति का ऐलान कर उस पर अमल करना भी शुरू कर दिया था. तब इन के प्रमुख साथी कन्हाई चटर्जी और जंगल सांथाल जैसे दर्जनों युवा हुआ करते थे. ये और इन के जैसे सभी जनूनी युवाओं के रोलमौडल आधुनिक चीन के निर्माता मशहूर कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग थे. नक्सलवादियों का स्पष्ट रूप से यह मानना था और आज भी है कि भारतीय मजदूर और किसानों की बदहाली व दुर्दशा के लिए सरकार की नीतियांरीतियां जिम्मेदार हैं. इस न्यायहीन और दमनकारी दबदबे को हथियारों के दम पर ही समाप्त किया जा सकता है जिस के चलते शासन और कृषि तंत्र पर उच्चवर्ग का कब्जा हो गया है.

निश्चितरूप से यह बात गलत कहीं से नहीं थी लेकिन सत्ता बंदूक की नोंक से ही हासिल की जा सकती है, यह एक खतरनाक खयाल था. न केवल पश्चिम बंगाल बल्कि तब पूरे देश में दबदबा सवर्ण शोषकों और जमींदारों का ही था जो किसानों व मजदूरों से गुलामों सरीखा बरताव करते थे और सरकार में भी यही थे. यह भी सच है कि लंबी गुलामी से आजाद हुए देश में लोकतंत्र की स्थापना से रातोंरात किसी चमत्कार की उम्मीद करना एक बेकार की बात थी. माओ शक्ति के पुजारी और हिंसा के हिमायती थे. उन के दर्शन में कार्ल मार्क्स और व्लादिमीर लेनिन का मिश्रण था जो मूलरूप से पूंजीवाद और धर्मविरोधी था और शोषितों को उन के हक दिलाने की वकालत करता था, फिर इस के लिए रास्ता कोई भी चुनना पड़े, इस पर उन के कोई स्पष्ट विचार नहीं थे. माओ ने हिंसा का रास्ता चुना लेकिन किसानों व मजदूरों को प्राथमिकता में रखा. उन का मानना था कि क्रांति गांवदेहातों से आएगी.

तभी वंचितों और शोषकों को बराबरी के हक मिलेंगे. तब न केवल चीन में, बल्कि दुनियाभर के कम्युनिस्टों में माओ का साहित्य उसी तरह पढ़ा व माना जाता था जैसे भारत में रामायण व गीता पढ़े जाते हैं. चारू मजूमदार और कानू सान्याल के अनाम संगठन ने कभी किसी विरोध की परवा नहीं की और माओ के रास्ते पर चल पड़े. देखते ही देखते उन का विस्तार और प्रभाव ओडिशा व आंध्र प्रदेश, अभिवाजित बिहार के ?ारखंड, मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ इलाके (आज छत्तीसगढ़ अलग राज्य है) में पसर गया. इन्हें इन आदिवासी बाहुल्य इलाकों से उम्मीद के मुताबिक समर्थन और सहयोग मिला जो आज के नक्सलियों को भी बदस्तूर मिल रहा है. साल 1969 में पहली दफा नक्सलियों ने भूमि अधिग्रहण को ले कर आवाज उठाई. उन का कहना था कि जमीन उस की ही हो जो उस पर खेती कर रहा है. यह वह दौर था जब 90 फीसदी जमीनों पर जमींदारों,

दबंगों, सवर्णों और रसूखदारों का कब्जा था. गरीब, दलित, आदिवासी और पिछड़े तबके के लोग खेतखलिहानों में उन की गुलामी व चाकरी करने को मजबूर हुआ करते थे क्योंकि वे हर लिहाज से कमजोर थे और उन में जागरूकता भी नहीं थी. उस मांग से नक्सलियों को और भी समर्थन मिला और उन के द्वारा की जाने वाली हिंसा, जो मूलतया शोषकों के खिलाफ होती थी, बढ़ने लगी और बड़ी तादाद में सामाजिक न्याय के लिए आदिवासी युवा नक्सली संगठनों में शामिल होने लगे, जिन का बाकायदा ब्रेनवाश किया जाता है. साल 1972 में पुलिस हिरासत में चारू मजूमदार की मौत हो गई और कानू सान्याल ने 23 मार्च, 2010 में आत्महत्या कर ली. लेकिन तब तक नक्सली आंदोलन शबाब पर आ चुका था और कांग्रेस सरकार तमाम कोशिशों के बाद भी उसे खत्म नहीं कर पाई. धीरेधीरे नक्सली कई गुटों और दलों में बंट गए. वे अपनी सामानांतर सरकार भी चला रहे हैं जिस में अदालतें भी लगती हैं, पंचायतें भी होती हैं और सांस्कृतिक आयोजन भी होते हैं.

जो भी सरकारी मुलाजिम या दबंग आदिवासियों को तंग करता है या घूस मांगता है, उसे ये ‘न्यायप्रिय नक्सली बख्शते नहीं. 11 राज्यों में पसरे रैड कौरीडोर या लाल कौरिडोर के कोई 90 जिलों में आज भी नक्सली हुकूमत ही चलती है. यह रैड कौरिडोर कर्नाटक से शुरू होता है और आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ से होते हुए ?ारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल से नेपाल तक विस्तार ले चुका है. सत्ता दिलाने में भी अहम रोल नक्सली कभी चुनावी और सक्रिय राजनीति में सीधे भागीदारी नहीं करते. लेकिन सत्ता दिलाने में उन का अहम रोल रहता है. पश्चिम बंगाल के चुनावप्रचार में हर किसी ने इस बात का जिक्र किया कि यहां वामपंथियों ने लगातार 34 साल तक शासन किया था. जान कर हैरानी होती है कि इस बार 2021 के चुनाव में रामपंथियों ने कई जगह खुलेआम यह कहते वोट मांगे कि इस बार वाम के नहीं, बल्कि राम के नाम पर वोट दो. आरएसएस और भाजपा को काफी पहले सम?ा आ गया था कि नक्सल आंदोलन के दौर में सीपीएम को सत्ता इन्हीं नक्सलियों के दम पर मिली थी.

1977 के चुनाव में ज्योति बसु के नेतृत्व में वामपंथियों ने 294 में से रिकौर्ड 231 सीटें जीत कर कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया था. तब ज्योति बसु अपनी घोषणाओं के जरिए लोगों को अप्रत्यक्षरूप से यह भरोसा दिलाने में कामयाब रहे थे कि नक्सलियों की मांगें पूरी की जाएंगी. यह अघोषित वादा उन्होंने पूरी शिद्दत से निभाया भी था जिस के चलते 34 साल कम्युनिस्ट राज वहां रहा. उसी दौर में जमींदारों, साहूकारों और सूदखोरों का वर्चस्व भी सरकारीतौर पर खत्म किया गया था. जमींदारों के कब्जे वाली लाखों एकड़ जमीन भूमिहीन किसानों को बांटी गई थी. इस से 56 फीसदी दलित आदिवासियों को फायदा हुआ था. औपरेशन बर्गा के तहत बंटाईदारों के हित साधे गए थे जिस के चलते कोई 15 लाख बंटाईदारों को 11 लाख एकड़ जमीन मिली थी. लेकिन ज्योति बसु के बाद मुख्यमंत्री बने बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अति उत्साह में आ कर वामपंथी सरकारों, जो नक्सलवाद की देन थे, से तोबा कर ली थी. नतीजतन, 2011 के चुनाव में वे और सीपीएम दोनों खारिज हो गए थे. पूंजीपतियों और उद्योगपतियों से उन की जरूरत से ज्यादा मेलमिलाप को पश्चिम बंगाल की जनता व नक्सलियों ने एक आशंका व खतरे की शक्ल में लिया था जिस का पूरा फायदा ममता बनर्जी को मिला था.

जो उस समय भाजपा समर्थक मानी जातीं थीं. केंद्र सरकार से है लड़ाई 3 अप्रैल की मुठभेड़ के तुरंत बाद असम का चुनावी दौरा बीच में छोड़ गृहमंत्री अमित शाह रायपुर और जगदलपुर पहुंचे तो उन का चेहरा लटका हुआ था. मीडिया के सामने जरूर वे बेहद आक्रामक तेवर यह कहते दिखाते रहे कि ‘जवानों की शहादत बेकार नहीं जाएगी और नक्सलियों से लड़ाई अब निर्णायक दौर में है, तसवीर बदल चुकी है और अब हम हावी हैं.’ जबकि हकीकत एकदम उलट है और निराशाजनक भी है कि अभी भी नक्सली ही हावी हैं. उन्हें उखाड़ फेंकने की बातें इंदिरा गांधी भी करती थीं और मनमोहन सिंह की सरकार भी करती थी लेकिन जब भी कोई बड़ा कदम सरकार ने उठाया तो नक्सलियों ने भी बड़ी वारदात को ही अंजाम दिया. हर हमले के बाद नक्सली और मजबूत हो कर उभरे. इस पर हर कोई मानता है कि अर्धसैनिक बलों की तैनाती इस समस्या का हल नहीं. उलटे उसे और बढ़ावा देने वाली बात है. इन दिनों भोपाल में रह रहीं 55 वर्षीय पार्वती नाग (आग्रह पर बदला हुआ नाम) साल 1995 से ले कर 2010 तक बीजापुर के नजदीक भैरमगढ़ में सरकारी नौकरी में थीं. उन के मुताबिक आदिवासी समुदाय नक्सलियों पर भरोसा करता है और जवानों की गतिविधियों की यथासंभव जानकारी उन तक पहुंचाता है.

उलट इस के, नक्सली गतिविधियों की जानकारी अपवादस्वरूप ही अर्धसैनिक बलों तक पहुंचती है. जबकि आदिवासियों को इन के अधिकांश मूवमैंट्स की जानकारी रहती है. पार्वती बताती हैं, ‘‘तब यानी 90 के दशक में हम आदिवासी युवाओं में नक्सलियों के प्रति जिज्ञासा और सहानुभूति दोनों रहती थी और हम नौकरीपेशा युवा उन की आर्थिक मदद भी अपनी हैसियत के मुताबिक करते थे. ‘‘बाद में बात उस वक्त बिगड़ने लगी जब नक्सली ?ाठे शक की बिना पर आदिवासियों को पुलिस का मुखबिर सम?ा उन की हत्या करने लगे और पुलिस व अर्धसैनिक बल भी इसी मुखबिरी के शक में निर्दोष आदिवासियों को परेशान करने लगे. इस से आदिवासी 2 पाटों के बीच में पिसने लगे. लेकिन इस के बाद भी आदिवासी चाहते यह रहे कि नक्सली आंदोलन सफल हो जिस से उन की जिंदगी आसान हो सके.’’ इस दौरान सरकारें आईं और गईं, पर नक्सली अभियान पर कोई खास असर नहीं हुआ.

साल 2014 में भाजपा केंद्र की सत्ता में आई तो सभी उत्सुकता से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ देख रहे थे जो आतंकवाद को ले कर कांग्रेस सरकार पर यह कहते गरजतेबरसते रहते थे कि ‘सरकार की बेरुखी के चलते आतंकवाद फलताफूलता है. सरकार की नाक के नीचे आतंकवादियों के पास देसीविदेशी फंड पहुंचता है. सरकार सेना और अर्धसैनिक बलों को खुली छूट नहीं देती जिस के चलते आतंकियों के हौसले बुलंद रहते हैं’ वगैरहवगैरह. 3 अप्रैल की मुठभेड़ के बाद नरेंद्र मोदी के इस आशय के कई वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल हुए थे कि वे क्यों ऐसा और वैसा नहीं कर लेते जैसा कि प्रधानमंत्री बनने के पहले भाषणों में कहा करते थे. हिंदू, ईसाई और आदिवासी नक्सलियों और भगवावादियों में हमेशा से ही 36 का आंकड़ा रहा है क्योंकि इन्हीं के आतंक के चलते आरएसएस जैसे कट्टर हिंदूवादी संगठन आदिवासी इलाकों में कभी पूरे पैर नहीं पसार पाए.

लेकिन ईसाई मिशनरियां वहां बेधड़क काम करती रहीं. नक्सलियों को इन से कोई खास दिक्कत महसूस नहीं हुई क्योंकि ये मिशनरियां न केवल आदिवासियों की शिक्षा का इंतजाम करती हैं बल्कि उन की सेहत व जागरूकता पर भी ध्यान देती हैं. इस के एवज में बिलाशक काफी आदिवासियों ने ईसाई धर्म ग्रहण किया जो उन के उपकारों व मदद के प्रति आभार के तौर पर ही देखा जा सकता है. यह बात हमेशा हिंदूवादी संगठनों को खटकती रही जिन की मंशा आदिवासियों को पढ़ानेलिखाने की न हो कर धर्म का प्रचार और विस्तार कर चंदा वसूलने की ही है. धर्म के मामले में नक्सली जब तक कोई बहुत अहम बात न हो, तब तक दखल नहीं देते. लेकिन उन का पूजापाठ न करना, दानदक्षिणा, मोक्ष और लोकपरलोक वाले काल्पनिक सिस्टम में यकीन न करना व आदिवासियों का धार्मिक शोषण भी न होने देना अखरने वाली बात इन्हें थी और आज भी है. यह बात भी बहुत दिलचस्प और गौर करने लायक है कि रैड कौरिडोर में कभी ही किसी ने नक्सलियों और हिंदूवादियों के बीच भिडं़त या विवाद की खबर सुनी होगी लेकिन जहां नक्सली नहीं हैं वहां जरूर भगवागैंग के कार्यकर्ता आएदिन वामपंथियों से टकराते रहते हैं. केरल और पश्चिम बंगाल के चुनावप्रचार में तो भाजपा ने सनातनी हिंदुओं को लुभाने के लिए बाकायदा अपने ‘शहीद’ कार्यकर्ताओं की तसवीरें नुमाइश के तौर पर लगाई थीं.

यह वैचारिक मतभेद, जो फसाद की असल जड़ है, घोषिततौर पर मोदी सरकार के वजूद में आने के बाद ही हर किसी की सम?ा में आने लगा था. लेकिन भाजपा की प्राथमिकता सूची में नक्सली नीचे थे इसलिए सीधा टकराव कभी देखने में नहीं आया. नक्सलियों ने तो अपने मंसूबे साल 2015 में उजागर कर दिए थे जब उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बस्तर यात्रा का विरोध जगहजगह पोस्टर लगा कर भी किया था. तब नक्सलियों के दंडकारण्य जोनल कमेटी के प्रवक्ता गुड्सा उसेंडी ने केंद्र सरकार पर आरोप लगाया था कि वह प्राकृतिक संसाधनों को उद्योगपतियों को बेचने की साजिश कर रही है. अप्रैल 2018 में नरेंद्र मोदी की एक और बस्तर यात्रा के विरोध में नक्सलियों ने बीजापुर-भोपाल-पट्टनम रास्ते पर जवानों से भरी एक बस को आईईडी ब्लास्ट कर उड़ा दिया था जिस में 2 जवान मारे गए थे. साफ दिख रहा है कि नक्सलियों का टकराव अब केंद्र सरकार से है.

उन्हें यह सम?ा आ गया है कि केंद्र सरकार पूंजीपतियों के इशारे पर नाच रही है. इस के बाद ?ारखंड की एक चुनावी रैली में 23 अप्रैल, 2019 को गृहमंत्री की हैसियत से हुसैनाबाद में राजनाथ सिंह ने कहा था कि अव्वल तो नक्सली खत्म हो चुके हैं लेकिन 2023 तक उन का पूरी तरह सफाया कर दिया जाएगा. इस चुनाव में भाजपा सत्ता से बेदखल हो गई थी. राजनाथ सिंह के भाषण के 5 दिनों बाद ही बस्तर के बीजापुर में नक्सलियों ने 2 जवानों की हत्या कर यह संदेशा दे दिया था कि हम थे, हैं और रहेंगे. ऐसी कई छोटीबड़ी वारदातों को वे एक अनियमित अंतराल से अंजाम देते रहते हैं. किसान आंदोलन को समर्थन असल में नक्सली मजदूर और किसान विरोधी किसी भी हरकत पर हिंसक एतराज जताने से नहीं चूकते, लेकिन पिछले साल 26 नवंबर से दिल्ली की विभिन्न बौर्डर्स पर चल रहे किसान आंदोलन पर वे तटस्थ से ही रहे थे. पर तिलमिलाए तब थे जब 12 दिसंबर, 2020 को केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने एक बयान में यह कहा था कि अगर यह किसान आंदोलन माओवादी व नक्सल ताकतों से मुक्त हो जाए तो सरकार के दरवाजे 24 घंटे किसानों के लिए खुले हैं लेकिन नक्सली और माओवादी उन्हें चर्चा करने से रोक रहे हैं. यह एक बचकानी व अपरिपक्व बात थी क्योंकि तब किसान आंदोलन के तार कहीं से भी नक्सलियों से जुड़े साबित नहीं हुए थे और शायद ही पीयूष गोयल जैसे ज्ञानीध्यानी मंत्री यह बता पाएं कि उन की या किसी की भी नजर में नक्सली और माओवादी शब्दों में फर्क व उस का आधार क्या है.

जैसा भी है किसान आंदोलन अभी भी है और सरकार के पोपले दांतों के गैप में सुपारी के दाने सरीखा इस तरह फंसा हुआ है कि किसी टूथपिक से हिलाए नहीं हिल रहा. दर्द और संक्रमण से बचने के लिए उस के पास अपने ही दांत उखड़वाने के सिवा कोई रास्ता नहीं है. 3 अप्रैल की मुठभेड़ के बाद नक्सलियों ने खुलेआम न केवल किसान आंदोलन का समर्थन करते सरकार की दमनकारी नीतियों का विरोध जारी रखने की बात कही, बल्कि 26 अप्रैल को भारत बंद का ऐलान भी कर डाला. ऐसा अमित शाह के छत्तीसगढ़ से वापस जाने के तुरंत बाद परचे बांट कर करना दर्शाता है कि सरकार नक्सली समस्या को हलके में लेने की वही भूल कर रही है जिसे खासतौर से उस के पहले कांग्रेसी सरकार करती रही थी. तो फिर हल क्या अहम सवाल जो नक्सली मुहिम के साथ पिछले 50 साल से मुंहबाए खड़ा है कि फिर इस समस्या का हल क्या. समस्या यह है कि नक्सली इलाकों में तैनात अर्धसैनिक बलों के जवान जानतेपहचानते ही नहीं कि आम आदिवासी कौन और नक्सली कौन. इस के अलावा, उन के कदम वहीं तक जाते हैं जहां तक सड़क है. इस के बाद घने जंगल में उतरने की हिम्मत वे नहीं जुटा पाते और बारबार वजहें कुछ भी हों मुंह की खाने से उन का मनोबल व हिम्मत दोनों टूटने लगे हैं. वे बस, बेमन से अपनी ड्यूटी बजाने दुर्गम इलाकों के तंबुओं में पड़े हैं जहां मौत का खतरा चौबीसों घंटे उन के सिर मंडराता रहता है. यह हर किसी को सम?ा में आ रहा है कि नक्सली एक सही बात गलत ढंग से कह रहे हैं लेकिन किसी दूसरे तरीके से कहेंगे, तो उन की कोई सुनेगा भी नहीं.

50 साल की हिंसा में उन की बात सुनने को कोई सरकार तैयार नहीं, तो वे क्या करें, इस सवाल का जवाब भी ढूंढ़ा जाना जरूरी है कि केंद्र सरकार उन से बातचीत करने में कतरा क्यों रही है. नोटबंदी के वक्त प्रधानमंत्री ने कहा था कि इस से आतंकवाद खत्म हो जाएगा लेकिन यह टोटका भी बेकार का शिगूफा साबित हुआ. आतंक सरहद पर भी कायम है और नक्सली इलाकों में भी बदस्तूर दिख और चल रहा है. नक्सलियों को पूंजीपतियों की फंडिंग जारी है, नए नोट आने से उस पर कोई फर्क नहीं पड़ा. उन के पास अत्याधुनिक हथियार कहां से आते हैं, यह बात भी जिस सरकार को नहीं मालूम वह कैसे उन्हें खत्म करेगी, इस पर तो कुछ सोचना या कहना ही बेकार है. अभी तक नक्सलियों के खिलाफ चलाए गए प्रहार और ग्रीनहंट जैसे तमाम अभियान भी फुस्स साबित हुए हैं.

ऐसे में यह सोचना बेमानी है कि नक्सली समस्या किसी चिराग के घिस जाने से हल हो जाएगी. नक्सलियों की बुनियादी मांगें किसानों और मजदूरों की बेहतरी व बराबरी के दर्जे को ले कर है जिन्हें सच ही मानने को कोई सरकार तैयार नहीं. आदिवासी इलाकों में उम्मीद के मुताबिक विकास नहीं हो रहा है. शोषण अब जमींदार नहीं, बल्कि सरकारी महकमे कर रहे हैं. आदिवासी युवा थोक में बेरोजगारी ढो व भोग रहे हैं. ऐसे में उन का नक्सलियों की शरण में जाना स्वाभाविक है. इन समस्याओं का हल कोई सरकार ढूंढ़ पाए तो बात एक दफा बन भी सकती है लेकिन इस के लिए उसे पूंजीपतियों व उद्योगपतियों से रोमांस लड़ाना छोड़ना पड़ेगा जो कि हालफिलहाल असंभव दिख रहा है तो, हल ‘भगवान भरोसे’ छोड़ देना ही बेहतर है. द्य सुपरमैन सा हिडमा 3 अप्रैल की मुठभेड़ की एक बड़ी वजह माडवी हिडमा था जो नक्सलियों की साउथ जोन विंग का कमांडर है. इस जोन में सुकमा बीजापुर और दंतेवाडा शामिल हैं. हिडमा के बारे में कोई ज्यादा कुछ नहीं जानता सिवा इस के कि वह दुबलापतला है और उस में चीते सी फुरती है. उस की कोई नई तसवीर भी पुलिस के पास नहीं है.

हिडमा कब क्या कर बैठेगा, कहां से आएगा और किस रास्ते से जाएगा, इस की खबर हर किसी को नहीं रहती. सरकार और सुरक्षाबलों के लिए सिरदर्द बने इस नक्सली के कई और भी नाम हैं. इस की मौत की खबर भी आएदिन उड़ती रहती है. साल 2000 में आत्मसमर्पण कर चुके और इन दिनों जगदलपुर में रह रहे पूर्व नक्सली कमांडर बदरना ने हिडमा को बच्चों के नक्सली संगठन ‘बालल संगम’ में भरती किया था. तब वह 16 साल का था. हिडमा भी उस का असली नाम है या नहीं, यह भी कोई नहीं जानता. यह नाम तो उसे संगठन ने दिया था. हां, इतना जरूर जानने वाले जानते हैं कि वह गौंड समुदाय से है और उस के गांव का नाम पूर्वती है. तेजतर्रार हिडमा में सीखने की क्षमता अद्भुद है. नक्सलियों ने ही उसे पढ़ायालिखाया और प्रशिक्षित किया. वह एक अच्छा गायक भी है. ट्रेनिंग पूरी करने के बाद उस की पहली नियुक्ति महाराष्ट्र के गढ़चिरोली में की गई थी. वहां रहते उस ने कई हिंसक वारदातों को सफलतापूर्वक अंजाम दिया. कई लोग मानते हैं कि हिडमा मर चुका है और नक्सलियों की एक रिवाज के मुताबिक उस का पदनाम बतौर उपाधि चल रहा है ठीक वैसे ही जैसे रमन्ना और भूपति जैसों के चल रहे हैं.

यह सस्पैंस हिडमा को और खास बनाता है. 3 अप्रैल को अर्धसैनिक बलों के निशाने पर वही था और वही नक्सलियों का नेतृत्व कर रहा था. इसलिए संभावना इस बात की ज्यादा है कि हिडमा जिंदा है और इस वारदात के बाद भी अपनी शैली में गायब हो गया. दंतेवाड़ा के स्थानीय बाजार यानी साप्ताहिक हाट में वह कई बार गया लेकिन पुलिस उसे पहचान नहीं पाई क्योंकि पुलिस के पास उस का कोई 25 साल पुराना एक फोटो है जिस की बिना पर उसे अब पहचान पाना नामुमकिन है. हिडमा टैक्नोलौजी का भी अच्छा जानकार है. वह हर वारदात का वीडियो जरूर बनाता है और बाद में उसे देख कर अपने कमजोर व मजबूत पहलुओं पर ध्यान दे कर उन्हें सुधारता भी है. उस की इमेज एक सुपरमैन और हीरो सरीखी बन गई है और उस का खौफ सिर चढ़ कर बोलता है. नक्सलियों में उस की इज्जत व पूछपरख किसी हीरो से कम नहीं. सरकार के खुफिया तंत्रों की कमजोरी भी हिडमा को ले कर उजागर हो रही है जो उस के बारे में उतना ही जानते हैं जितना कि बरदाना जैसे नक्सली बता देते हैं.

एक हिडमा ही नहीं, बल्कि पूरे नक्सली अभियान पर यह बात लागू होती है. इसीलिए अर्धसैनिक सुरक्षा बल कुछ खास नहीं कर पाते. हिडमा जैसे कई कमउम्र हीरो नक्सली ठिकानों पर ट्रेनिंग ले रहे हैं. उन के बारे में भी पुलिस कुछ नहीं जानती, यानी, जवानों की भूमिका मुठभेड़ तक में सिमटी है जिस की रणनीति भी उन के वे अफसर तय करते हैं जो घटनास्थल पर नहीं जाते. इस के चलते हर बार नक्सली भारी पड़ते हैं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें