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उम्र बढ़ानी है तो खुश रहिए, आशावादी बनिए

‘‘आप कैसे हैं अंकल?’’ निलय ने अपने 71 साल के पड़ोसी अंकल से पूछा.
‘‘खुश हूं बेटा,’’ वे मुसकराते हुए बोले. ‘‘क्या बात है अंकल, लोग खुशी को तरसते हैं और आप खुश हैं, कैसे? मतलब अंकल, हम तो कभी किसी से कह ही नहीं पाते कि हम खुश हैं. हर समय कुछ न कुछ परेशानी लगी ही रहती है. आप इस उम्र में भी खुश हैं तो इस का राज तो बताना ही होगा अंकल,’’ निलय ने अंकल की तरफ गौर से देखते हुए पूछा.

‘‘कोई बड़ी वजह नहीं बेटा. बस, मन में किसी तरह का तनाव या अवसाद नहीं पाला है. जो मिला उसे बेहतर तरीके से एंजौय कर रहे हैं. किसी से किसी तरह का गिलाशिकवा नहीं. किसी से किसी की शिकायत करने की बात सोच कर अपना खून नहीं जला रहे. बेवजह किसी पर गुस्सा नहीं कर रहे. शांति से अपने मनोनुकूल काम में लगे हैं. हर चीज का अच्छा पहलू देख उसे सराहते हैं. चार घड़ी दोस्तों के पास बैठ कर हंसबोल लेते हैं. सुबहशाम टहलते हैं. रास्ते में लोगों की कुशलक्षेम पूछ लेते हैं. किसी से कोई उधार नहीं लिया है. न किसी को देना है, न किसी से लेना है. जो है उसे भी दूसरों में बांट कर खुश हो लेते हैं.
‘‘जिंदगी में, बस, और क्या चाहिए बेटा? छोटीछोटी खुशियां ही सहेज लो और हमेशा अच्छा सोचो, तो सबकुछ है,’’ अंकल ने सहजता से कहा.

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‘‘सच अंकल, आप की बातें सुन कर बहुत खुशी हुई. इस खुशी को मैं अपने घर में भी फैलाऊंगा. शायद इसी खुशी की कमी है जीवन में, जो कहीं सुकून नहीं मिलता.’’ ‘‘हां बेटा, जिंदगी की रेस में दौड़तेभागते हम अकसर खुश रहना भूल जाते हैं. कुछ अधिक पाने की चाह में दिमाग को हजार तरह के तनावों से भर लेते हैं और खुल कर सांस लेना भूल जाते हैं. निराशावादी बन जाते हैं. वक्त गुजरने के बाद इस बात का एहसास होता है कि हम ने क्या खो दिया. अपनी ही जिंदगी के लमहों में कटौती कर डाली. इस के बजाय समय पर यदि हम खुश रहने की अहमियत सम?ा जाएं तो जिंदगी भी लंबी हो जाती है,’’

अंकल ने सम?ाते हुए कहा. खुश रहने के लिए क्या है सब से जरूरी जिंदगी तब सब से अधिक खूबसूरत लगती है जब आप अंदर से खुश होते हो. दिखावे की खुशी से कुछ नहीं होता. दिल खुश हो, सोच सकारात्मक हो तभी इंसान खुश रहता है और बो?िल जिंदगी डियर जिंदगी में बदल जाती है.
हाल ही में द बोस्टन यूनिवर्सिटी स्कूल औफ मैडिसिन द्वारा एक अध्ययन किया गया. इस में पाया गया कि कैसे जीवन के प्रति सकारात्मक नजरिया आप की उम्र बढ़ा सकता है. इस अध्ययन में 69,744 महिलाओं और 1,429 पुरुषों को शामिल किया गया था. महिलाओं की सेहत और सोच को 10 साल तक मौनिटर किया गया जबकि पुरुषों की सेहत, आदत और सोचने के तरीकों को 30 साल तक फौलो किया गया. अध्ययन में पाया गया कि खुशमिजाज लोगों की उम्र सामान्य से औसतन 15 प्रतिशत ज्यादा होती है.

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शोधकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सकारात्मक नजरिए के साथ जीवन जीने वाले 70 प्रतिशत लोगों के 85 साल से भी ज्यादा जीने की संभावना होती है. खुशमिजाज लोगों की सेहतमंद आदतों को भी इस में जोड़ा गया, जैसे नियमित रूप से ऐक्सरसाइज करना, कम धूम्रपान करना, अच्छी डाइट लेना आदि.
सच है कि इंसान की सकारात्मक सोच न सिर्फ उसे जीवन में सफल बनाती है बल्कि उम्र भी बढ़ाती है. आशावादी लोग अपनी जिंदगी में भावनाओं पर नियंत्रण रखने के साथ अच्छी लाइफस्टाइल फौलो करते हैं. उन्हें गम मिटाने के लिए अल्कोहल, शराब, सिगरेट का सहारा नहीं लेना पड़ता. वे दिल खोल कर हंसते हैं, सही डाइट लेते हैं और व्यायाम कर स्ट्रैस लैवल को कंट्रोल करते हैं. ये आदतें उन की जिंदगी का हिस्सा होती हैं जिस से उन की उम्र बढ़ती है.

बढ़ती उम्र में खुश रहने वाले जीते हैं लंबा जीवन बुढ़ापे में खुशहाल रहने वाले बुजुर्ग लंबा और निरोगी जीवन जीते हैं. यह जानकारी एक अध्ययन में सामने आई है. यह अध्ययन सिंगापुर में ड्यूक-एनयूएस मैडिकल स्कूल में किया गया. अध्ययन में पता चला है कि प्रसन्नता में थोड़ी सी बढ़ोतरी भी बुजुर्ग लोगों की उम्र बढ़ाने में फायदेमंद हो सकती है. यह अध्ययन ‘एज एंड ऐजिंग जर्नल’ में प्रकाशित हो चुका है. इस अध्ययन में 4,478 लोगों को शामिल किया गया था. 2009 में शुरू किया गया अध्ययन 31 दिसंबर, 2015 तक जारी रहा. इस में शुरू में खुशी और बाद में किसी भी कारण से मौत की आशंका के बीच संबंधों का अध्ययन किया गया.

पैसा या वक्त – क्या है
ज्यादा महत्त्वपूर्ण
यूनिवर्सिटी औफ ब्रिटिश कोलंबिया ने हाल ही में एक अध्ययन किया जिस के नतीजे बेहद दिलचस्प हैं. इस अध्ययन के लिए ग्रेजुएशन कर रहे 1,000 छात्रों से पूछा गया कि वे वक्त को प्रायोरिटी देते हैं या पैसे को, तो 60 फीसदी छात्रों का जवाब ‘वक्त’ था. 40 फीसदी छात्रों ने पैसे को ज्यादा महत्त्व देने की बात की. ग्रेजुएशन के दौरान और उस के एक साल बाद हैप्पीनैस की स्केल पर जब इन्हीं छात्रों की खुशी को मापा गया तो पाया गया कि पैसे को ज्यादा महत्त्व देने वाले छात्रों की जिंदगी में खुशी का एहसास कम था.
दरअसल, जब आप जिंदगी में सिर्फ पैसे कमाने के पीछे भागते हैं तो इस का बुरा असर आप की मानसिक सेहत पर पड़ता है. दुनियाभर में हुई तमाम रिसर्चें यह बताती हैं कि अगर आप के पास अपनी जरूरतें पूरी करने भर को पैसा है तो आप खुश रह सकते हैं. लेकिन बहुत ज्यादा पैसा होने का मतलब यह नहीं कि आप खुश रहेंगे.

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अमेरिका के 12,000 लोगों के बीच एक सर्वे किया गया. इस सर्वे के मुताबिक, अकाउंट में कितने पैसे हैं, इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता. लेकिन अगर हाथ में थोड़े से पैसे हैं और आप जरूरत की चीजें खरीद सकते हैं तो आप ज्यादा संतुष्ट व खुश होते हैं. यह बात बहुत माने रखती है कि आप के पास जो पैसे हैं आप उसे कैसे खर्च करते हैं. यानी अगर आप अपने पैसों को मैटेरियलिस्टिक चीजों पर खर्च करते हैं तो उतनी खुशी नहीं मिलेगी, मगर उन्हीं पैसों को अगर अपनों के साथ खूबसूरत लमहे बिताने या किसी रोमांचक यात्रा के अनुभव के लिए खर्च करते हैं तो आप के दिल की खुशी बहुत बढ़ जाएगी.

जब हम खुश रहते हैं तो हमारे शरीर में ऐसे हार्मोंस रिलीज होते हैं जो हमारी सेहत को भी दुरुस्त रखते हैं. जबकि दुखी होने की वजह से ऐसे हार्मोंस रिलीज होते हैं जिन की वजह से दिल की बीमारियों से ले कर कैंसर तक हो सकता है. खुश कैसे रहा जाए

अजनबियों से भी करें बात. मान लीजिए, आप अकेले हैं. आप के अपने पास नहीं हैं, तो इस का मतलब यह तो नहीं कि आप मुंह लटका कर बैठे रहें. अपने आसपास दिख रहे अजनबियों की तरफ एक बार मुसकरा कर और बात कर देखिए, कैसे आप की उदासी पल में दूर होती है. 2013 में छपी एक स्टडी के मुताबिक, अजनबियों से बात करने से इंसान को काफी खुशी मिलती है.

पुरानी यादें अकसर लोगों को खुशी देती हैं. पुरानी खूबसूरत यादें हमारी खुशी की वजह बन सकती हैं. इन्हें सोच कर हमें सकारात्मक एहसास होता है और हम खुश होते हैं. इसलिए आप भी पुरानी यादें ताजा करने के लिए पुराने एलबम पलटना शुरू कर दीजिए. हो सके तो डायरी जरूर लिखिए और अपनी डायरी में रोज होने वाली सकारात्मक घटनाओं को लिखिए. ताकि वर्षों बाद आप उन्हें पढ़ें, तो दिल खुशी से ?ाम उठे.
जो दिल चाहे वह करें

जो काम करने या जो खेलने में आनंद आता हो वही करें. कभी पियानो बजाएं, कभी गाना गाएं. कभी चेस खेलें तो कभी ठुमके लगाएं. हंसेंखिलखिलाएं. ये क्रियाएं खुशी बढ़ाती हैं. यह भी कहा जाता है कि जो व्यक्ति चटक रंगों के कपड़े पहनता है वह ज्यादा खुश रहता है. अगर आप को खुश रहना है तो अपनी उम्र की चिंता छोड़नी होगी. जो दिल करे वैसे कपड़े पहनें. स्मार्ट बन कर रहें. ऐक्टिव रहें.

ब्रीदिंग ऐक्सरसाइज और टाइम मैनेजमैंट स्ट्रैटेजी के सहारे भी आप तनावमुक्त रह सकते हैं. दिल से खुश रहने के लिए जिंदगी में वह सब करिए जो करने में आप को सब से ज्यादा आनंद आता है.
दोस्तों से मिलिए, बारिश में नहाइए, हैल्दी लाइफस्टाइल को फौलो करिए और अपने अंदर छिपी फीलिंग्स को दूसरों के साथ सा?ा करिए. खानपान का स्तर अच्छा रखिए और पर्याप्त नींद लेने का प्रयास करिए.

दुनिया का सब से खुश इंसान
अगर आप गूगल पर सर्च करेंगे कि दुनिया का सब से खुश इंसान कौन है, तो आप के सामने नाम आएगा 72 साल के मैथ्यू रिचर्ड का. रिचर्ड तिब्बत में रहने वाले एक बौद्ध हैं जो मूलरूप से फ्रांस के निवासी हैं. वे पेशे से साइंटिस्ट हैं. मैथ्यू रिचर्ड आखिरी बार 1991 में दुखी हुए थे जब उन के गुरु की मौत हुई थी. हालांकि रिचर्ड को दुनिया का सब से खुशहाल इंसान घोषित करने से पहले अमेरिका की विस्कौन्सिन यूनिवर्सिटी ने रिचर्ड पर 12 वर्षों तक एक रिसर्च की. रिसर्च के दौरान उन के सिर पर 256 सैंसर्स लगाए गए. रिसर्च के आधार पर ही यूनाइटेड नैशंस ने उन्हें सब से खुश इंसान घोषित किया.

बकौल रिचर्ड, अगर आप दिनभर अपने बारे में सोचते रहेंगे तो हमेशा उल?ानों में फंसे रहेंगे. इस के विपरीत, आप एक उदारवादी रवैया अपनाएं, इस से दूसरों का व्यवहार भी आप के प्रति बेहतर हो जाएगा. एक दिन में कम से कम 10 से 15 मिनट अच्छे व खुशमिजाज विचारों के बारे में सोचना चाहिए.
हमेशा अपने जेहन को अच्छे विचारों के साथ बनाए रखने का अभ्यास करना चाहिए. इस अभ्यास के सकारात्मक परिणाम 1-2 हफ्तों में ही महसूस किए जा सकते हैं.

मैं 50 वर्षीय गृहणी हूं, कोविड 19 का खतरा अभी खत्म नहीं हुआ था कि, एकबार फिर आ गया मुझे बहुत डर लग रहा है क्या करें?

सवाल
मैं 50 वर्षीय गृहिणी हूं. कोविड-19 का खतरा अभी टला नहीं था कि दोबारा से फिर इस की लहर तेज हो गई है. दहशत फिर से होने लगी है. लेकिन लोगों में लापरवाही आ गई है. सरकार फिर से सुरक्षा उपाय अपनाने पर जोर दे रही है लेकिन लोग जैसे सब हिदायतें मानमान कर तंग आ गए हैं. घर पर कोई आताजाता है तो मुझे डर लगता है कि कहीं संक्रमण घर में न आ जाए. किसी को घर पर आने से मना भी नहीं कर सकते. कुछ रिश्तेदार या प्रियजन बुरा भी मान जाते हैं. बड़ी दुविधा में पड़ जाती हूं कभीकभी. समझ नहीं आता, बेफिक्री के साथ जिंदगी कैसे जिएं?
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जवाब
कोरोना वायरस की दहशत हर शख्स को है. हां, एक साल से ज्यादा वक्त हो गया इस महामारी से जू?ाते हुए, तो लोग तंग जरूर आ गए हैं. कभीकभी लापरवाही बरत देते हैं, हालांकि यह गलत है. अब मुसीबत फिर पड़ी है, तो ?ोलना पड़ेगा ही. देखिए कोरोना से बचाव के लिए उपाय हर कोई अपना रहा है और अपनाने भी चाहिए. इस में नानुकुर करने की कोई बात ही नहीं.
इस महामारी को झेलते हुए इस से लड़ना हमें आ गया है. सुरक्षा उपाय को बनाए रखते हुए जब आप किसी के घर जाएं या कोई आप के घर आए तो गरम या गुनगुने पानी का ही सेवन करें. ठंडी चीजों से दूरी बनाएं. जब आप गरम पानी का सेवन करेंगे, तो रास्ते में किसी तरह के वायरस के संपर्क में यदि आप आए भी होंगे तो गरम पानी की मदद से उस का खतरा कम हो जाएगा.
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घर पर कोई आए तो उस से उचित दूरी बना कर बात करें. घर में किसी कमरे में बैठ कर बातचीत करने की अपेक्षा खुली जगह पर बैठ कर बातें कर सकते हैं, जैसे छत या आंगन. मास्क का इस्तेमाल जरूर करें. ऐसा न सोचें कि अब घर पर ही हैं, तो मास्क क्या लगाना.
घर में आए मेहमानों को ठंडी चीजें जैसे कोल्ड कौफी या कोई ठंडी चीज सर्व करने से बचें. इस के बजाय आप लौंगअदरक वाली चाय सर्व कर सकते हैं. पूरे सुरक्षा उपाय अपना कर ही लोगों को अपने घर में आने दें. कोई बुरा माने तो माने. लापरवाही का अंजाम तो आप को भुगतना पड़ेगा न. इसलिए सतर्क रहें.

भारत पत्रकारिता के लिए सब से खतरनाक देश

लेखक- शाहनवाज

 20 अप्रैल 2021, मंगलवार को अंतर्राष्ट्रीय संस्था ‘रिपोर्टर्स विदआउट बौर्डर्स’ के द्वारा प्रकाशित ‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2021 (वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स)’ के अनुसार भारत को पत्रकारिता के लिए “बुरा” माना जाने वाले देशों में सूचीबद्ध किया गया है और पत्रकारों के लिए दुनिया में सब से खतरनाक स्थानों में से एक है. रिपोर्ट ने भारत को पत्रकारों के लिए “दुनिया के सब से खतरनाक देशों में से एक के रूप में लेबल दिया है जो केवल अपना काम ठीक से करने की कोशिश कर रहे हैं”. बता दें की भारत का स्थान पिछले 2 वर्षों से 180 देशों की लिस्ट में 142वे स्थान पर ही है.

वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स की इस रिपोर्ट के अनुसार भारत की रैंकिंग नीचे नहीं गिरी है, लेकिन भारत को अब भी पत्रकारिता के लिहाज से सुरक्षित देश नहीं माना गया है. बल्कि साफ शब्दों में भारत को पत्रकारिता के लिए सब से खतरनाक देशों में से एक माना है.

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रिपोर्ट के अनुसार, “2019 के लोकसभा चुनाव के बाद जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी द्वारा भारी बहुमत से जीत हासिल की गई है तब से हिंदू राष्ट्रवादी सरकार की लाइन को आगे बढ़ाने और प्रचारित करने के लिए मीडिया पर दबाव बढ़ गया है.”

इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि, “हिंदुत्व का समर्थन करने वाले भारतीयों, वह विचारधारा जिस ने कट्टरपंथी दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवाद को जन्म दिया है, वह पब्लिक डिबेट से ‘राष्ट्र-विरोधी’ विचार की सभी अभिव्यक्तियों को साफ करने की कोशिश कर रहे हैं. उन पत्रकारों के खिलाफ सोशल नेटवर्क पर एकजुटता के साथ हेट कैंपेन (हिंसात्मक अभियान) चलाया जाता है जो हिम्मत करने की कोशिश करते हैं, जो ऐसे विषयों के बारे में बोलते हैं या लिखते हैं जिन से हिंदुत्व के अनुयायी घबराते हैं और उन की हत्याएं भी कर दी जाती है.”

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इस सूचकांक में भारत के पड़ोसी मुल्कों, जिन्होंने इस रिपोर्ट में भारत से बेहतर प्रदर्शन किया है उन में  नेपाल 106वे स्थान पर है, श्रीलंका 127वे स्थान पर है और मिलिट्री शासन से पहले म्यांमार 140वे स्थान पर है. वहीं पाकिस्तान 145वे, बांग्लादेश 152वे और चीन का स्थान सब से नीचे की ओर 177वे नंबर पर आता है. इस लिस्ट में सब से ऊपर पहले स्थान पर नोर्वे, दुसरे पर फिनलैंड, तीसरे पर स्वीडन आता है. वहीं सब से निचले स्थान पर इरीट्रिया 180वे स्थान पर है.

पत्रकारिता में भारत लगातार पिछड़ रहा

जैसा की वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स की रिपोर्ट में यह कहा गया है की पत्रकारिता के मामले में भारत सब से खतरनाक देशों में से एक है, वह किसी कारण से ही कहा गया है. यदि हम ‘रिपोर्टर्स विदआउट बौर्डर्स’ की वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स के ही पिछले 10 सालों की रिपोर्ट खंगाले तो पता चलेगा की पत्रकारिता में  भारत का स्थान पिछले 10 साल पहले (2011) जो था वह और भी गिर कर और भी खराब हो चुका है और लगातार खराब ही होता जा रहा है.

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वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स 2011 और 2012 में पत्रकारिता में भारत 131वे स्थान पर था जो अगले साल 2013 में और अधिक गिर कर 140वे स्थान पर आ गया. 2014 में भारत एक स्थान और खिसक गया और 141वे स्थान पर आ गया. 2015 में भारत में पत्रकारिता की इमेज थोड़ी साफ हुई और भारत 136वे स्थान पर रहा. 2016 से अभी तक लगातार स्थिति और भी खराब होती ही जा रही है. 2016 में भारत 133 वे, 2017 में 136वे, 2018 में 138वे, 2019 में 140वे और 2020 और 21 में 142वे स्थान पर मौजूद है, “दुनिया में पत्रकारिता के लिए सब से खतरनाक देश” के लेबल के साथ.

पत्रकारों को नहीं करने दिया जाता रिपोर्ट

जब बात पत्रकारिता की हो तो भारत में वे पत्रकार जो ग्राउंड पर रह कर ग्रासरूट रिपोर्टिंग करते हैं और सच्चाई तलाशते हैं, उन्हें सब से ज्यादा प्रशासन के द्वारा प्रताड़ित किया जाता है. चाहे वह कहीं भी क्यों न हो. इसी संबंध में सरिता टीम की बात मिलेनियम अखबार में रिपोर्टिंग कर रही निकिता जैन से हुई. निकिता के अनुसार भारत पत्रकारों के लिए बिलकुल भी सुरक्षित देश नहीं है. वह कहती हैं की, “पत्रकारों को रिपोर्टिंग करने के लिए जिस तरह से बेधड़क जेल में डाला जा रहा है मुझे नहीं लगता है की भारत में पत्रकारों के पास प्रेस की स्वतंत्रता है. पत्रकारिता का काम आज के समय में बिलकुल भी सेफ भी नहीं है.”

ग्राउंड पर रह कर रिपोर्टिंग करने के दौरान सामने आने वाली समस्याओं को बताते हुए वह कहती हैं, “ग्राउंड रिपोर्टिंग के समय हमेशा समस्याएं आती ही हैं. पहले तो औफिशियल्स बात करने को तैयार नहीं होते, जब हम प्रोटेस्ट कवर करने जाते हैं तो पुलिस के साथ हैंडलिंग करना बहुत मुश्किल हो जाता है, एडमिनिस्ट्रेशन अलाऊ नहीं करते, जबरदस्ती का रौब झाड़ते हैं, हिंसात्मक हो जाते हैं, कई बार तो हमारे साथ हाथापाई भी करते हैं.”

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वह आगे कहती हैं, “हालांकि रिपोर्टिंग करने के लिए कहीं किसी तरह के नियम कानून नहीं है की किसी को रिपोर्टिंग नहीं करने दिया जाएगा लेकिन अथौरिटीज ने हम पत्रकारों को हमारा काम करने से रोकने के लिए खुद से नियम कानूनों को निर्माण कर दिया है. और इसी वजह से काफी समस्या आती है लोगों से बात करने में, अधिकारियों के पास एप्रोच करने में, क्योंकि उन के ऊपर भी प्रेशर होता है की कहीं कोई जानकारी लीक न हो जाए.”

निकिता ने रिपोर्टिंग के समय उन के साथ हुए प्रशासन के द्वारा पैदा की गई दिक्कतों को बताते हुए कहा कि, “किसान आन्दोलन के दौरान जब मैं अपने सोशल मीडिया प्लेटफार्म के जरिए खबरे पोस्ट कर रही थी तो एडमिनिस्ट्रेशन ने मेरे सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्म को रेस्ट्रिक्ट कर दिया था ताकि मेरी रिपोर्टिंग आम लोगों तक न पहुंच सके. इसी तरह से हाल ही के दिनों में दिल्ली में कोविड के कारण खराब होते हालातों की रिपोर्टिंग के लिए जब मैं दिल्ली के आर.एम.एल. अस्पताल में गई तो वहां पर मौजूद एडमिनिस्ट्रेशन ने रिपोर्टिंग करने के कारण मुझ से मेरा फोन छीन लिया, मुझ पर जोर जोर से चीखने चिल्लाने लगे, धमकियां देने लगे, पुलिस का डर दिखाने लगे. सिर्फ इसीलिए की मैं कुछ भी वहां से रिपोर्ट न कर सकू.”

ठीक इसी तरह का वाकया बीते कुछ दिनों पहले भी हुआ जब औनलाइन न्यूज पोर्टल चलाने वाले राजेश कुंडू पर हिसार पुलिस ने सांप्रदायिक वैमनस्य को बढ़ावा देने और विभिन्न सामाजिक मीडिया प्लेटफार्मों पर कथित रूप से “भड़काऊ” संदेश पोस्ट करने के लिए भारतीय दंड संहिता के तहत मामला दर्ज कर दिया. इसी तरह से इसी साल फरवरी के महीने में औनलाइन न्यूज पोर्टल न्यूज़ क्लिक के दफ्तर पर प्रवर्तन निदेशालय (एन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट ई.डी.) ने लगातार 5 दिनों तक रेड चलाए रखा. केवल इसीलिए क्योंकि यह न्यूज़ पोर्टल सरकार की नीतियों को लगातार एक्स्पोस करने के साथ साथ लोगों के सरकार के खिलाफ सवाल खड़े कर रहा था. इस रेड के जरिए न्यूज़ एजेंसी को डराने-धमकाने का प्रयास किया गया जो की असफल रहा.

 

पत्रकारों पर बढ़ रहे हमले

कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, केवल साल 2020 में कम से कम 30 पत्रकारों की हत्या कर दी गई थी, जिन में 21 पत्रकारों को “उनके काम के प्रतिशोध में हत्या” की गई थी. दिसम्बर 2019 में ‘ठाकुर फाउंडेशन’ के द्वारा की गई एक स्टडी ‘गेटिंग अवे विद मर्डर’ में यह पाया गया की 2014-19 के दौरान भारत में 200 से अधिक पत्रकारों पर गंभीर हमले किए गए. जिन में 40 पत्रकारों की हत्याएं की गई.

उसी तरह से भारत में निष्पक्ष तरह से पत्रकारिता कर रहे पत्रकारों पर मौजूदा सरकार राजद्रोह जैसे गंभीर धाराएं लगा कर उन के काम में बाधा डालने का काम पिछले 7 सालों से करती आ रही है. आए दिन हर साल ही भारत में सही तरह से पत्रकारिता कर रहे पत्रकारों को आवाज दबाने का काम किया जाता रहा है. इस का ताजा उदाहरण किसान आन्दोलन के दौरान 26 जनवरी के दिन किसानों के द्वारा ट्रेक्टर परेड निकालने के दौरान कुछ गिने चुने मुठ्ठी भर उपद्रवियों के द्वारा भड़की हिंसा में एक किसान की मौत पर देश के नामचीन पत्रकारों के ट्विटर पर ट्वीट करने मात्र से उन पर सेडिशन (राजद्रोह) जैसा आरोप लगाया गया और उन्हें प्रताड़ित किया गया.

निकिता कहती हैं की, “भारत में प्रेस को स्वतंत्रता तब तक नहीं मिल सकती है जब तक देश में राजद्रोह (यूएपीए, एनएसए, सेडिशन) वाले खतरनाक कानूनों को निरस्त नहीं कर दिया जाता. इन सभी कानूनों से समाज में हमेशा डर का वातावरण बना कर रखा गया है ताकि सरकार की पोल खोलने वाला कोई भी सच लोगों के सामने न आ पाए. भारत में हम पत्रकारों के लिए ‘एक्सेस टु इनफार्मेशन’ का होना बहुत जरुरी है अन्यथा सच कभी भी लोगो के सामने नहीं आ पाएगा और जहर की तरह फेक न्यूज हमेशा हवा में घुला मिला रहेगा.”

भारत में आज के समय में केवल वही पत्रकार सुरक्षित हैं जो सरकार की हां में हां मिलाते हैं, जो सरकार के एजेंडे को पूरा करने के लिए सरकार के प्रोपगंडा फैलाने में उन की मदद करते हैं. और ऐसे पत्रकार आज कल टीवी में न्यूज चैनलों में भरे पड़े हैं (कुछ को छोड़ कर). आज के हालात तो यह है की निष्पक्ष पत्रकारों की आवाज दबाने के लिए सरकार पहले के कानूनों में संशोधन कर के सरकार निष्पक्ष पत्रकारिता का गला दबोचने का काम कर रही है, या फिर उन पर राजद्रोह जैसे गंभीर मामले लगा कर उन्हें शांत करने का काम कर रही है. सही मायनों में भारत आज दुनिया में पत्रकारिता के लिए सब से खतरनाक देश बन कर उभर रहा है जिस से भयानक और कुछ नहीं हो सकता.

कोरोना संकट: मृत सरकारों को जलाते हैं या दफनाते हैं?

“पिछले साल की कई गलतियों को भुला दिया जाए तो माना जा सकता हैकि कोरोना एक आपदा थी लेकिन इस बार यह आपदा नहीं बल्कि सिस्टेमेटिक फैलिएर है. सरकारों का फैलिएर है. मेरी मां दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में थी. वह वहां 5 दिनों तक जूझती रही. अस्पताल में किसी ने कोई केयर नहीं की. उन की मौत कल (20 अप्रैल) रात को 3 बजे हुई. उस से पहले पूरे दिन अस्पताल में मेरी मिसैज आठवें माले से यहां से वहां भागती रही कि मांजी की बीपी चेक कर लो, औक्सिजन चेक कर लो लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं. लास्ट में झगड़ा करने पर अटेंडेंट ने बीपी मशीन ही मेरी मिसेज को पकड़ा दी और कहा कि खुद ही चेक कर लो. मेरी मां बिमारी से नहीं मरी है बल्कि उसे सरकार ने मारा है.” सरिता पत्रिका से बात करते हुए इरशद आलम (44) भावुक हो गए.

भारत में कोरोना का दूसराफेजदेश के इतिहास में उस बदनुमा दाग की तरह हमेशा याद रहेगा जो मिटाने से नहीं मिटने वाला.दूसरे फेज का हाल यदि ऐसा ही रहा तो यह भी संभव है कि इस की दुर्गत स्मृति को याद करने के लिए सिर्फ मानव कंकाल ही बचेंगे बाकी नेता उन्ही कंकालों के ढेर पर चढ़ कर वोट की अंतिम अपील भी कर रहे होंगे. माफ़ कीजिए कटु वचन हैं लेकिन हाले ए स्थिति को मद्देनजर रख पाठकों के मन में धूल झोंकना ठीक नहीं. इस समयदेश की तमाम सरकारों का हाल ऐसा हो चुका है जैसे पूरे साल बिन पढ़ाई किए छात्रों का परीक्षा में बैठने पर होता है. कोरोना ने एक साल पहले जो अल्टीमेटम सरकार को दे दिया था उसे मनमौजी नेता “बीत गई सो बीत गई” मान कर चल रही थी. महान दार्शनिक कार्ल मार्क्स ने कहा था, “इतिहास जब खुद को दोहराता है तब वह पहली बार ट्रेजेडी के रूप में होता है और दूसरा मजाक की तरह”. प्रधानमंत्री मोदी काल में शायद यह स्थिति दो बार सटीक बैठी है,एक 2019 के लोकसभा चुनाव में फिर से मोदी के बहुमत सेजीत जाने पर और दूसरा कारोना के एक साल बाद दूसरे फेज पर. दोनों ही स्थितियों में फेल और कोई नहीं भारत की विराट जनता ही हुई है.

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आज स्थिति यह कि पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ है. यह हाहाकार आम जन के घरों से निकलने के बाद, अस्पतालों के चीखपुकार से होते हुए शमशानघाटों औरकब्रिस्तान तक फैल चुका है. जिन्हें अभी भी यह हकीकत मजाक लग रही हो तो एक बार उन सुनसान सड़कों पर निकल पड़िए जहां लगातार हर मिनट तेज रफतार में चलती एम्बुलेंस शौर मचा रही हैं, दावे के साथ कह सकता हूं रात को सोते समय उन के सायरन की आवाज कानों में बिनबिनाने लगेगी. अगर इतने से भी यकीन न हो तो उन कब्रिस्तानों और शमशानों में जाकर लाशों के लगते अम्बारों का अनुभव बिना मन में ‘पुनर्जन्म’ और ‘पाप मुक्ति’ के विचार लिए महसूस किया जा सकता है जहां लाशों को बिना “राम नाम सत है” और “दुआ पढ़ने” की ओपचारिकता के महज मांस और हड्डी के लोथड़े की तरह जलाया और दफनाया जा रहा है. यकीन दिलाता हूं दिमाग के सारे पापपुण्य, कर्मकांड वाले विचारों के परखच्चे उड़ जाएंगे, फिर उमड़ने लगेंगे वह जीवंत सवाल जो कईयों सालों से हम सब नेसरकारों से तो दूर की बातखुद ही से पूछने छोड़ दिए थे.

आईटीओ दिल्ली गेट स्थित कब्रिस्तान शहर का सब से बड़ा कब्रिस्तान है. यह ‘जहीद कब्रिस्तान अहले इस्लाम’ के नाम से जाना जाता है. यह दिल्ली पुलिस हेड क्वार्टर के बगल वाली गली से लगभग 200-250 मीटर भीतर जाकर शुरू होती है. जिस का क्षेत्रफल लगभग 50 एकड़ में फेला हुआ है.आईटीओ के एक छोर से शुरू हुआ यह कब्रिस्तान दूरदूर तक कई छोरों को छूता है.इस के पीछे सट कर टाइम्स औफ इंडिया,डौल मुजियम, एमबीडी औफिस, इत्यादि कई जानेमाने मीडिया हाउस व कार्यालय पड़ते हैं.

इसी कब्रिस्तान में दुखद स्थिति में अपनी 65 वर्षीय मां नसीम बानो को दफनाने एक 44 वर्षीय अरशद आया था जिस के मुंह में कर्म और पापपुण्य के टंटे नहीं थे बल्कि सरकार को ले कर भारी रोष व्याप्त था. सरिता पत्रिका से बात करते हुए अरशद आलम कहते हैं, “कोरोना इतना नहीं है जितना सरकारों ने कर दिया है. जिस तरह के अस्पतालों को बनाने की जरुरत एक साल में होनी थी वह बिलकुल भी नहीं बनाए गए.शुरुआत से ही अस्पतालों में बेड नहीं थे,औक्सिजन नहीं था,मशीनें नहीं थी, बल्कि कहें कि अस्पताल ही नहीं थे. यूपी सरकार पोस्टर लगाते हुए कह रही है हमने कई एम्स बना दिए, 29 अस्पताल बना दिए लेकिनकहां है वो अस्पताल. अरविन्द केजरीवाल कहते फिर रहे हैं कि उन के पास व्यवस्था चाक चौबंद है लेकिन दिल्ली का हल सब के सामने है. (वे थोड़ी हताश मुद्रा में कहते हैं) लोग सिर्फ दवाइयों की कमी,औक्सिजन की कमी और ट्रीटमेंट की कमी से मर रहे हैं. इस में अब आपदा वाली बात नहीं है, इतने समय में सरकारों को संभल जाना चाहिए था.लेकिन नहीं समस्या है कि हिंदुस्तान चल रहा है हिन्दू और मुस्लिम से. लोग राम मंदिर की कीमत चुका रहे हैं. जो हमारे भाई हिन्दू है उन्हें इस सरकार ने मंदिर में फंसा दिया है.”

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कब्रिस्तान में कोरोना के लिए अलग से ढाई एकड़ जमीन अलौट की गई है जहां काफी हद तक कब्र भर भी चुकी हैं. कोरोना का मंजर आंखोदेखी तौर पर इसी से समझा जा सकता है कि 20 अप्रैल को कब्रिस्तान में जब हमारी टीम सुबह 11 बजे पहुंची तो वहां 2 घंटे रुकने पर ही हमारे सामने लगभग 6-7 कोरोना डेडबौडी लाई जा चुकी थी. कई लोग उन में से पिछले दिन के वेटिंग वाले भी थे. मृतकों के परिजनों के मुंह में मास्क तो था लेकिन बाकि सुरक्षा के समान ग्लब्स, पीपीई किट, सोशल डिस्टेंस इत्यादि बिलकुल भी नहीं था. और यह बताने के लिए कोई औफिसियल मौजूद नहीं था कि कितने लोग एकत्रित होने चाहिए और किस तरह की गाइडलाइन्स फौललो की जानी चाहिए. कई चीजों को ले करकब्रिस्तान के वाईस प्रेसिडेंट और केयर टेकर हाजी शमीम अहमद से फोन पर बात हुई.

शमीम अहमद बताते हैं, “16 अप्रैल से 19 अप्रैल तक क्रमशः 15, 18, 20, 22 कोरोना से हुई मौतों की औसत चल रही है. पिछले साल के मुकाबले इस साल काफी मामले आ रहे हैं. कोरोना की अलग पर्ची बन रही हैं. कोरोना से हुई मौतों के मामले दिन बढ़ने के साथ बढ़ रहे हैं. पिछले साल हव्वा बहुत बड़ा था और मामले बहुत कम थे, जैसे पिछले साल कोरोना 750 कुल मामले आए थे, इस साल दहशत नहीं लेकिन मामले बहुत ज्यादा आ गए यह आकड़ों में दिखने लगा है हर रोज के आकड़े आप के सामने मौजूद हैं.

जब उन से कब्रिस्तान में जगह की कमी के बारे मने पूछा गया तो उन्होंने बताया, “यह सही बात है किअब जगह कम पड़ रही है.इस कब्रिस्तान की कमिटी 1924 से है. सरकार ने 1924 में यह जगह कमिटी कोअलौट की थी. इस का रजिस्ट्रेशन वक्फ बोर्ड में है इसे निजाम चला रही है. हमारी एक जगह रिंग रोड, सराए काले खां पर 14 एकड़ है जो सरकार से 1964 में अलौट हुई थी लेकिन जब वहां पार्क बनने लगा तो हम से 10 एकड़ जमीन इस वायदे पर ली गई की जब आप को जरूरत पड़ेगी तो आपको दे देंगे. वहां 4 एकड़ की जगह पर बाउंड्री बना कर हमें दीतो गई लेकिन उस का तक हम उपयोग नहीं कर पा रहे. जब कोरोना के मामले आने लगे तो हमने वापस वो जमीन मांगी लेकिन सरकार ने वह जमीन हमें नहीं दी है. हम चाह रहे हैं कि कोरोना के सारे मामले हम वहीँ शिफ्ट करें.”

वे आगे कहते हैं, “यह कमी है कि सरकार कुछ भी हमारी मदद नहीं कर रही है. सफाई हम खुद करा रहे हैं. सेनिटाइज तो दूर की बात, सरकार देखने तक नहीं आ रही है. कब्रिस्तान के बाउंड्री के बाहर गंदगी है तो वो भी उठाने को तैयार नहीं है. किसी प्रकार की मदद नहीं मिल रही है. न किट, ना मास्क, न ग्लब्स कुछ नहीं दे रही है. लोग आते हैं किट यहीं फेंक जाते हैं, उन्हें हम ही जलाते हैं.”

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यह दिलचस्प था कि कब्रिस्तान में सफाई का काम वहीँ कब्रिस्तान से सटे वाल्मीकि बस्ती में रह रहे विनोद (40) और रौकी (20) के जिम्मे है. उन का कहना है कि वे दोनों यहां बिना तनख्वाह के काम कर रहे हैं. हालाकि वे इसे समाजसेवा कहते हैं लेकिन यह भी हकीकत है इस के अलावा उन के पास और कोई काम नहीं है. यह बात इस से भी जाहिर होती है कि ना तो कमिटी की तरफ से उन्हें तनख्वाह दी जा रही है ना कोई और माध्यम से उन्हें उन का पारिश्रमिक दिया जा रहा है. जो पैसा थोडा बहुत कमाते हैं वह खड्डा खुदवाई, ताबूत लाने लेजाने, कन्धा देने व अन्य कार्यों के एवज में मृतक के परिवारजन से बक्शीश के तौर पर मिल रही है. विनोद वह कब्रिस्तान के वह पहले वारियर हैं जो सीधे बौडी के संपर्क में आते हैं. लेकिन उन्हें किसी प्रकार की सुरक्षा मुहैया नहीं की गई है.

विनोद कहते हैं,“मुझे ना कोई संस्था दे रही है ना सरकार. मुझे मास्क तक खुद खरीदना पड़ा है, यह ग्लब्स भी मैंने अपनी सेफ्टी के लिए यहांएम्बुलेंस में अस्पताल से आए कर्मियों से मांगे हैं. पीपीई किट नहीं है. मैं अपनी जान पर खेल रहा हूं.”

दरअसल, पिछले साल से ही तमाम सरकारों की यह कमी रही है कि वे कोरोना को ले कर बेसिक स्वास्थ्य सुविधाओं, जानकारियों, उपायों को लोगों तक नहीं पहुंचा पाए. यह दुखद भी है कि आम लोगों के मन मेंकिसी भी सरकार को ले कर भारी अविश्वास पैदा हो गया है और वे अस्पतालों के बदइन्तेजामात को ले कर डरे हुए हैं.

अजमेरी गेट के पास रहने वाले मो. इकबाल (55) जो अपनी पत्नी की बहन अमीना के देहांत के चलते कब्रिस्तान आए थे वे कहते हैं, “कभीकभी यह डाउट हो रहा है कि सरकार ही मार रही है. लोग बीमारों को अस्पताल ले कर जा रहेहैं कि वहां से ठीक होगें, लेकिन अब महसूस हो रहा हैयदि की कोई दिक्कत है तो अस्पताल मत जाओ. कम ससे कम दुर्गति तो नहीं होगी. वे लोग हमारे लोगों के साथ क्या सुलूक कर रहे हैं हमें कुछ नहीं पता चल पा रहा है.इस समय सरकारेंढह हो चुकी हैं. एक साल कोरोना ने इन सरकारों को दिया था कि सारी तैयारियां कर लीजिए, लेकिन इन्होने कुछ नहीं किया. यह बस अपने चुनाओं में व्यस्त रहे. मोदी ने पिछले साल जितना फंड इकठ्ठा किया था सारा इलेक्शन में लगा दिया, यह पब्लिक के लिए काम नहीं कर रहा. इन्सान मर रहा है इंसानियत मर रही है फिर भी इन्हें चुनाव लड़ना है.”

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लोगों के भीतर अविश्वास को और भी पुख्ता ऐसी परिस्थितियां कर रही हैं जो पिछले सालों से लोग लगातार देखने में आ रहेहैं. डानदनाती चुनावी रेलिया, भीड़ भरे धार्मिक आयोजनों में राजनीतिक पार्टियों का सहयोग, और गरीबगुरबों की अनदेखी. पिछले साल जिस समय कोरोना अपने पैर तेजी से पसार रहा था तो अस्पताल बनाने की जगह भाजपा सरकार अपने पार्टी औफिस बनाने के मुहीम में लगी हुई थी. जुलाई 2020 में भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा जानकारी देते हुए बड़े फक्र से कहते हैं कि, “प्रधानमंत्री ने 2014 से पहले तय किया था कि जिला और राज्य दोनों स्तरों पर कार्यालय बनाए जाएंगे. हमने 500 जगहों पर पार्टी कार्यालय बना दिए हैं और शेष 400 पर काम जारी है और जल्द ही पूरा हो जाएगा.” यह इस देश का दुखद भाग्य भी है कि दुनिया का सब से महंगा पार्टी कार्यालय इसी देश में इसी पार्टी का मोदी कार्यकाल में ही बना.

यही कारण भी है कि आम लोग सरकार के किए किसी भी काम पर यकीन करने को तैयार नहीं है. दिल्ली के पंचकुइया रोड़ पर स्थित शमशान घाट इन दिनों काफी व्यस्त चल रहा है. 23 प्लेटफौर्म के इस घाट में जहां पहले रोज के 6-7 डेड बौडी आया करती थीअब इन दिनों यहां हाहाकार मचा हुआ है. सरिता टीम 19 अप्रैल को ढाई बजे इस घाट का दौरा करने पहुंच पाई थी, चारों तरह उस दौरान अफरातफरी मची हुई थी. यह अफरातफरी लगातार आ रही कोरोना मृतकों के चलते हो रही थी. यहां भी अफरातफरी के बीच कोरोना गाइडलाइन फौलो करने की सुद न तो परिजनों को थी ना वहां के कार्यकारियों को. कई डेडबौडी को जगह की कमी के चलते वापस लौटा दिया जा रहा था, कुछ वेटिंग में बाहर खड़ी थीं.

हमारी बात यहां आ रहे मामलों के आकड़ों को ले कर रजिस्टर मैन्टेन करने वाले अधिकारी मुकेश से बात की.जिस समय हम वहां पहुंचे थे उस समय आधा दिन ही हुआ था और अधिकारी ने बताया किआज19 तारीख को कुल 20 डेडबौडी में से 15 कोरोना के मामले हैं, यह भयानक था,18 तारीख को कुल 19 बौडी आई थी जिस में से 13 कोरोना संक्रमित थीं, 17 को 12 और 16 तारिख को 9 मामले आए थे. यानी दिनप्रतिदिन पिछले 4 दिनों में कोरोना से हुई मौतों के मामलों में तेजी से बढ़ोतरी हुई है. और अब लाशों को वापस भी किसी दुसरे शमशान घाट लौटाया जा रहा है.शमशान घाट के अधिकारी ज्यादा तो कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थे किन्तु इस बात पर स्पष्ट सहमती दे रहे थे कि पिछली बार के मुकाबले इस बार बहुत ज्यादा खतरनाक कोरोना प्रहार कर रहा है. हांलाकि वे यह कहते रहे कि लकड़ी,

वहां घाट पर मौजूद कुछ पंडितों से सरिता पत्रिका ने बात की जिस में से 48 वर्षीय पंडित गुलशन शर्मा का कहना था कि, “अब मुर्दा इतने हो रहे हैं कि खुले में जमुना के किनारे जलाए जा रहे हैं. यहां का ही हाल देख लो. ऐसा मंजर पहले कभी नहीं था. यह सब से ज्यादा है. पैर रखने को जगह नहीं है. बौडी जैसे ही आज आती है, दाह संस्कार कर के 4 दिन का समय पारंपरिक तौर पर लगाया जाता है, लेकिन अब क्या हो रहा है कि अगर 4 दिन एक चिता को ब्लौक कर दिया तो पब्लिक परेशान हो जाएगी. इसलिए आज दाग दिया है तो अगले दिन ही सुपुर्द करने की सारी प्रक्रियाएं की जाती हैं.”वे आगे कहते हैं, “इस समय एक भी चिता खाली नहीं है. तुम देखो तो… हमारी जान निकल गई है काम करातेकराते.ऐसा रहा तो कुछ दिन बाद हम भी इसी लाइन में लग जाएंगे..”

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पंचकुइया घाट में ही एक मामला ऐसा भी आया जहां कोरोना के टीके पर ही कई सवाल खड़े हो गए. दरअसल पहाड़गंज के रहने वाले रिंकू अपने परिजन के दाह के लिए यहां आए थे. उन्होंने हमें बताया कि, “एक वैक्सीन लगाने के बाद मेरी बुआ (रामवती देवी) का बीपी चढ़ गया जिस के कारण उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया. वैक्सीन लगाने से पहले ठीक थी, उस के बाद कुछ दिन ठीक रही. लेकिन बीपी हाई हुई फिर अस्पताल लेकर गए तो उन्हें कोरोना बताया दिया. उस के बाद कुछ ही समय में उन की मौत हो गई. कुछ लोग वैक्सीन को गलत बता रहे हैं, ना जाने क्या लगा रहे हैं.”

कुछ इसी प्रकार का हाल वेस्ट दिल्ली के पंजाबी बाग़ में स्थित सब से बड़े शमशान घाट का था. इस के अंदर कुल 70 प्लेटफौर्म हैं. जिन में चिताएं जलाई जा रहीं हैं. इस घाट में मोक्ष, घाट और सीएनजी से बौडी जलाने की व्यवस्था है. लेकिन अपनी कैपेसिटी से अधिक यहां अरेंजमेंट की गई थी. लाशों की बढ़ती संख्या को देखते हुए सामान्य प्लेटफौर्म के अलावा यहां जमीन पर अतिरिक्त अस्थाई 4-5 प्लेटफौर्म बनाए गए थे. इस से समझा जा सकता है कि कितना लोड यहां पड़ रहा था.यहां कोई अधिकारी सीधे किसी मसले पर बात करने को तैयार नहीं हुआ. लेकिन वे भी इस बात को बताते रहे कि हालत गंभीर है. सरिता पत्रिका के वहां के जिम्मेदार लोगों से बात करने की कोशिश की तो दबे जुबान (नाम ना बताने की शर्त पर) में यह जरुर कहते रहे कि, “सरकार मामले छुपा रही है. जो आकड़े बता रही है वह गलत बता रही है. पिछले साल से बुरा हाल हो रहा है. लगभग तीन गुना…. अब 60 तक कोरोना मामला जा रहा है. और यह डेली के इसी तरह के मामले हैं. अब खुद देखो यह जमीन पर ईंटे लगा के काम चलाया जा रहा है.”

इस के अलावा सफाई के मामले में इस घाट परगंदगी जहांतहां बिखरी पड़ी थी. पानी पीने की जगह पर मास्क और ग्लब्स यूं ही फेंके हुई थे, जिसे कोई साफ करने वाला नहीं था, मृतक के बिना सेफ्टी के भीतर दाहस्थल तक जा रहे थे, इन में से कईयों के पास ना तो ग्लब्स था ना ही पीपीई किट की व्यवस्था.

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इसी प्रकार राजेंद्र प्लेस का सतनगर शमशान घाट का था. जो इस रिपोर्ट को लिखे जाने तक कोविड घाट में कन्वर्ट नहीं हुआ था. यह बीएल कपूर अस्पताल के औपोसिट साइड रोड़ पर 60 मीटर की दूरी पर बाईं तरफ चलने पर है. इस में लगभग 37 प्लेटफौर्महैंइस के अलावा मोक्ष के 4 प्लेटफौर्म बनाए गए हैं. बीते दिन 20 अप्रैल को इस घाट में दोपहर 1 बजे तक सब से अधिक 15 मामले आए थे. अब यह दिलचस्प था कि और दिन के मुकाबले यह आकड़ा लगभग 3 गुना अधिक था. समस्या यह कि नार्मल मौत अथवा कोरोना मौत की गफलत यहां चिंताए बढ़ा रहे हैं. सामान्य मौत में रीतिरिवाज से चेहरे को खोल कर दाह करवाया जाता है, लेकिन कोरोना में ऐसा करने से मना किया गया है. अब एकदम से बढ़े मामले शंका बढ़ाते हैं कहीं यह कोरोना से हुई मौत तो नहीं?

कब्रिस्तान में मिले अरशद आलम ने एक बात कही कि, सरकार डाटा छुपा रही है या यह संभव है की बहुत से लोगों का डाटा आ ही नहीं पा रहा. बहुत सारे लोग जिन्हें ये एडमिट नहीं कर रहे उन का तो कोई कोरोना डाटा है ही नहीं. मैं अपनी मां को ले गया, अगर वह उसी दिन डेथ कर जाती तो उन का नाम भी नहीं आता. काफी मौते तो घर में ही हो जा रही है, लोग अस्पताल नहीं जा रहे क्योंकि वहां ट्रीटमेंट ठीक से नहीं हो रहा और लोग अस्पताल के खराब कार्यवाही को ले कर डरे हुए हैं. क्यों? क्योंकी सरकारी अस्पतालों में एक नर्स या डाक्टर दखने नहीं आते सुबह से शाम तक.”

ठीक इसी प्रकार का अंदेशा राजेन्द्र प्लेस केसतनगर के शमशानघाट के पंजाबियों के 38 वर्षीय पंडित नन्नू शर्मा को भी था. वे कहते हैं, “कोविड का पता तो चेक करा के ही चलेगा. बहुत से लोगों की बिना असपताल पहुंचे कोरोना से मौत हो रही है लेकिन चूंकि उन्होंने चेक नहीं कराया तो हम भी उन्हें नार्मल मान कर दाह कर रहे हैं. हम रिस्क में हैं. हमें सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिल रही है.”

कुल मिला कर यह तय है कि हमारी सरकारें पूरी तरह से फ़ैल हो चुकी हैं, और उन के फ़ैल होने से पूरे देश की आवाम भी फ़ैल हो चुकी है. इस त्रासदी को समझना किसी दिल्लीवासी के लिए बड़ी बात नहीं है. जहां हमारी चुनी हुई सरकार खुद मदद की भीख मांग रही है. दिल्ली के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया और स्वास्थ्य मंत्री सत्येन्द्र जैन ट्विटर पर यह बात साझा करते हैं कि ‘दिल्ली के अस्पतालों में 8 से 12 घंटे के लिए ही औक्सीजन उपलब्ध है’. वहीँ कजरीवाल कहते हैं कि वे कोरोना स्थिति से निपटने के लिए युद्ध स्तर पर काम कर रहे हैं. समस्या यह कि जब गले में फंदा पड़ता है तभी युद्ध स्तर पर काम करने की बात क्यों आती है? वहीँ जनता के साथ भौंडा मजाक तो यह कि प्रधानमंत्री मोदी  कह रहे हैं कि सम्पूर्ण लौकडाउन इस का हल नहीं है. यह बात उन करोड़ों गरीबों, मजदूरों, युवाओं और महिलाओं के जख्मों पर नमक है जिन्हें पिछले वर्ष इस का दंश झेलना पड़ा.हांलाकि इस स्थिति का हल क्या है यह भी बताने में विश्व गुरु प्रधानमंत्री मोदी सक्षम नहीं है. सक्षम की बात छोडो वे खुद बड़ीबड़ी रैलियों में भीड़ देख ऐसे उत्साहित हो रहे थे मानो जैसे इस भीड़ के बाद जलती चिताओंका नजारा उन्हें सुकून देगा. इस घड़ी में यह तमाम सरकारों के लिए कितनी बेशर्मी की बात है कि कार्यालय स्तर परजिन समस्याओं को काफी पहले सुलझा लिए जाने चाहिए थे उन्हें जस का तस रख आम जन का मजाक बनाया जा रहा है. इस कोरोना ने कुछके चेहरे से सीधेसीधे पर्दा उठाया भी है. कैसे सरकार ने इस तथाकथित आपदा को अपने राजनीतिक फायदे के लिए अवसर में बदला, कैसे देश की संपत्ति को बेच कुछ चंद लोगों में समित किया, कैसे लोगों को भीड़ जमा कर उन के दाह संस्कार की तैयारियां की.

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स्थिति यह कि इतना सब होने के बाद भी पाखंडी सरकार द्वारा आस्था को अब भी विज्ञान से ऊपर तरजीह दिया जा रहा है. इस कारोना के चपेट में वे महंत नहीं बच पाए जो दिनरात भगवानों की आस्था में डूबे रहते हैं.वे मोलवी नहीं बच पाए तो आयते पढ़ते रहते हैं. देश में मौजूदा हालत साफ़ बताते भी हैं कि यह सरकारें जन हितैषी कभी नहीं बन सकती हैं, यह सरकारें गरीबों के बारे में नहीं सोच सकती हैं, बल्कि यह सरकारें बनी ही जनता पर शासन करने को है. जनता को सिर्फ वोट समझने की जिद ही इन्हें उन के लाशों से खेलने की भी इजाजत देती है.

कोरोना संकट: देश को राफेल चाहिए या ऑक्सीजन!

जिस तरह से कोरोना महामारी ने अपना रौद्र रूप देश में दिखाया है उससे लोग कह रहे हैं लोगों की जान  किसी मच्छर …मक्खी की तरह जा रही है. अव्यवस्था का आलम है कि एक साधारण सी चीज… ऑक्सीजन भी देश में कम पड़ जा रही है. ऐसी स्थितियों में बड़े ही खेद के साथ लोग अब यह कह रहे हैं कि आखिर उनका महान भारत राष्ट्र  आज किस मुकाम पहुंच गया है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने जिस तरह का संबोधन देशवासियों को बीते दिवस 20 अप्रेल की रात  8:45 पर दिया है उसकी प्रतिक्रिया स्वरुप यह कहा जा सकता है कि सब कुछ भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है. भारत सरकार नमक चिड़िया अपने घोसले में बैठ कर के गाने सुन रही है …और दाना चुग रही है. बाहर लोग कैसी बुरी हालत में अपने स्वास्थ्य को लेकर  डॉक्टरों और हॉस्पिटल में दौड़ रहे हैं… श्मशान घाट में लंबी लाइन लगी हुई है. यह देख कर के कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री जी 56 इंच के सीने वाले हमारे प्रधानमंत्री जी आपको यह शोभा नहीं देता कि आप लोक कल्याण मार्ग में चुपचाप मौन साधना में रत हो जाए. आंखें बंद कर ले दाढ़ी बढ़ा ले, आगे गेरूवे कपड़े पहन लें. नहीं नहीं.. आपको देश की जनता ने इसे नहीं चुना है कि आप आम लोगों को उनके हालात पर छोड़ कर के ऊंची ऊंची देते रहें, आज आवश्यकता है जमीन पर आकर के काम करने की. लोगों के दुख सुख को साझा करने की.

आम लोगों को यह देखना चाहिए कि  हमारा प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जैसा गुदड़ी का लाल है.

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मोदी !  किसी हॉस्पिटल, शमशान पहुंच जाते…..

कोरोना वायरस के चलते जिस तरीके से देश में आज तबाही का मंजर है, उसे सारी दुनिया देख रही है. हम नीचे के पायदान से धीरे-धीरे आज चौथे, तीसरे, दूसरे नंबर के बाद आज इस संक्रमण काल को प्रथम पंक्ति में आ गए हैं  और यह त्रासदी झेल रहे हैं.

आज सारी दुनिया की नजर भारत पर है .प्रतिदिन तीन लाख के आसपास कोरोना मरीज सामने आ रहे हैं और जाने कितने लोग हलाक हो रहे हैं. लोगों का तड़प तड़प के मरना हम देख रहे हैं. सारे समाचारों में श्मशान घाट की एक एक पल की घटनाएं सामने आ रही हैं. किस तरह लाइन लगी हुई है, मरने के बाद भी परिजनों से  पैसे लिए जा रहे हैं.ऐसी दारुण दशा में हमारे देश में आपकी सरकार अगर आंख मुंदे हुए है और सिर्फ सांत्वना दे रही है तो यह दुर्भाग्य नहीं तो क्या है.

अफसोस! “संसद” में किसी दो दशक पुरानी बात पर आप के आंसू बहने लगते हैं…! गला रूंध जाता है… आप पानी पी पी कर के देश और दुनिया को दिखाते हैं कि आप कितने संवेदनशील हैं. मगर जब आज देश में कोरोना कोविड-19 के कारण हॉस्पिटलों की दुर्दशा है सिटी स्कैन नहीं है, ऑक्सीजन नहीं है तो आप ढांढस बंधा रहे हैं. क्या यह दोहरा चरित्र नहीं है.

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आपको सारे प्रोटोकॉल तोड़ कर के यह दिखा देना चाहिए कि सचमुच आप 56 इंच के सीने के मालिक हैं.आपका दिल दिमाग इस देश की आम गरीब जनता के लिए रो रहा है और आप रातों को जाग रहे हैं. आप अगर कभी अचानक बिना बताए सारे नियम कानूनों को धता बताते हुए किसी हॉस्पिटल पहुंच जाते और कोरोना मरीज और परिजनों से मिलकर उन्हें  हिम्मत देते , डॉक्टरों से बात करते तो शायद इसका संदेश पूरे देश में बेहतर चला जाता. रेमडेसिवर आदि जीवन रक्षक दवाओं को लेकर के जिस तरह लूट मची हुई है वह शायद बंद हो जाती.

आप अगर किसी श्मशान घाट में अचानक पहुंच जाते और लोगों को देखते किस तरह रो रहे हैं आंसू बहा रहे हैं और उन्हें किस तरह सरकारी करिंदो द्वारा लूटा जा रहा है तो शायद आपके एक जगह पहुंच जाने से सारे देश में संदेश चले जाता कि हमें संवेदनशील बनना है और प्रधानमंत्री हमें देख रहे हैं. हमें याद है लाल बहादुर शास्त्री का व कार्यकाल जब उन्होंने देश की आत्म गौरव को जगाया था और सारा देश एक दिन, एक वक्त का उपवास करने लगा था.

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क्या अब भी आप प्रधानमंत्री से किसी तरह की मदद की उम्मीद करते हैं?

कोरोना की दूसरी लहर से देश बदहाल हो चला है. राज्यों की बदइंतजामी से लोग बेहाल हैं. कोरोना संक्रमित मरीज अस्पताल-दर-अस्पताल भटकने को मजबूर हैं. अस्पताल में बेड नहीं हैं. वेंटिलेटर और आईसीयू बेड नहीं हैं. एंबुलेंस नहीं मिल रही हैं. पूरे देश में दवाओं की कालाबाजारी की खबरें हैं. ऑक्सीजन के लिए मारपीट तक हो रही है. सप्लाई चेन ध्वस्त हो चुकी है. मरीजों से या उनके परिजनों से कहा जा रहा है कि ऑक्सीजन खुद लेकर आओ. रेमिडेसिविर खुद लाओ. दूसरी कई जरूरी दवाएं नहीं मिल रही हैं. राजधानी दिल्ली से लेकर मुंबई तक, सब जगह अस्पतालों में बेड नहीं हैं. लोगों को टेस्ट रिपोर्ट के लिए हफ्ते भर तक इंतजार करना पड़ रहा है. अस्पताल के बाहर लोग जीवन की एक एक सांस गिन रहे हैं. श्मशान के बाहर लाशों की कतारें लगी हैं. पूरे देश में हाहाकार है. लोग फोन और ट्वीट करते करते जान गवां दे रहे हैं. मजदूर फिर से पलायन कर रहे हैं.

लेकिन हमारे प्रधानमंत्री हमसे कहते है कि आक्सीजन पहुंचाने का प्रयास किया जा रहा है. हमारे प्रधानमंत्री हमसे कहते है कि जिन्होंने अपनों को खोया है, वे उनके प्रति संवेदना रखते हैं. वो कहते है कि मैं परिवार के सदस्य के रूप में आपके दुख में शामिल हूं. लेकिन क्या जब वो बंगाल में चुनावी रैलियां कर रहे थे तो लोगों की चित्कार उनके कानों तक पहुंची थी और अगर पहुंची तो उन्होंने कोई सुध ली?

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हमारे प्रधानमंत्री हमसे उम्मीद करते है कि देशवासी आगे आएं और जरूरतमंदों की मदद करें. उन्होंने कहा कि कोरोना काल में मदद के लिए हाथ बढ़ाने वाली सामाजिक संस्थाओं की सराहना करते है और साथ ही उन्होंने आगे भी लोगों का सहयोग करने की अपील भी की, लेकिन क्या हम जो उनसे लगातार अपील कर रहे है वो हमारी बातों को सुन भी पा रहे हैं?

उन्होंने कहा कि हमारी कोशिशें लगातार जारी हैं. ऑक्सीजन की डिमांड तेजी से बढ़ी है.
कोशिश है हर जरूरतमंद को ऑक्सीजन मिलें. लेकिन क्या हमारे प्रधानमंत्री को जरा से अंदेशा नहीं की अबतक कितने लोग ऑक्सीजन और बेड की किल्लत से अपनी जान गंवा चुके हैं. वे कह रहे है कि कोविड के लिए बड़े अस्पताल बनाने का काम भी किया जा रहा है. साथ ही अस्पतालों में बेड बढ़ाने का काम भी निरंतर जारी है. लेकिन क्या हम उनसे पुछ सकते हैं कि कोरोना का पहला मामला भारत में पिछले जनवरी में आया था. आपने और आपकी सरकार ने भारत की जनता के स्वास्थय के लिए एक साल में क्या तैयारी की?

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आप कह रहे हैं कि आक्सीजन पहुंचाने का प्रयास किया जा रहा है, ये तो सरकार कई दिनों से कह रही है. जिसके पास आक्सीजन नहीं पहुंची है और जीवन के कुछ घंटे बचे हैं, वह क्या करे? इस भाषण में इन सारी समस्याओं पर क्या था?

अंत में हम भारत के प्रधानमंत्री से ये पूछना चाहते है कि आपके इस भाषण से उस बूढ़ी मां को क्या मिला जिसका बेटा तड़पते हुए उसके पांवों पर गिरकर मर गया? उस बुजुर्ग को क्या मिला जो फोन ​मिलाता रहा और उसकी पत्नी तड़प कर मर गई? उस व्यक्ति को क्या मिला जो ट्वीट करके मदद मांगता रहा और मर गया? उस बेटे को क्या मिला जो आक्सीजन न मिलने के कारण अपनी मां को नहीं बचा पाया. उस बाप को क्या मिला जो अपने बेटे को दवा न मिलने के चलते नहीं बचा पाया? उन तमाम लोगों को क्या मिलेगा जो इसी हालात से गुजर रहे हैं? क्या इन सवालों में से किसी एक सवाल का भी जवाब है आपके पास?

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लोग ये करें, लोग वो करें, बच्चे ये करें, जवान वो करें, बूढ़े ये करें, डॉक्टर वो करें. बस आप चुनाव प्रचार करें, भाषण दें और कुछ न करें. साहब बंद करो ये नाटक. आपका ये थका हुआ, निरर्थक भाषण मरते हुए किसी एक व्यक्ति को भी नहीं बचा सकता.

कोरोना वैक्सीन लगवा रहे हैं तो रखें इन बातों का ध्यान

कोरोना वायरस संक्रमण की चौथी लहर देश में बड़ी तेजी से बढ़ रही है. अब की बार का वैरिएंट पहले के मुकाबले ज्यादा खतरनाक है. जैसेजैसे कोरोना के केसेस बढ़ रहे हैं, सरकार लोगों पर वैक्सीनेशन करवाने का दबाव बना रही है. वहीं पहले जो लोग वैक्सीनेशन के साइड इफैक्ट से डर रहे थे और इस को टाल रहे थे, वे अब सरकारी और गैरसरकारी अस्पतालों के चक्कर लगा रहे हैं और जल्दी से जल्दी वैक्सीन पाने के लिए खुद को रजिस्टर करवा रहे हैं.

कोरोना की जो वैक्सीन अस्पतालों में उपलब्ध है वह कितनी प्रभावशाली व सुरक्षित है, यह कहना मुश्किल है. कुछ केसेस आए हैं जिन में वैक्सीन लगवाने के बाद मौतें हुई हैं, वहीं बहुतेरे ऐसे लोग हैं जो वैक्सीन लेने के बाद फिर से कोरोना की चपेट में हैं.

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लखनऊ के किंग जौर्ज मैडिकल यूनिवर्सिटी में 40 डाक्टर्स कोरोना पौजिटिव पाए गए हैं जबकि डाक्टर्स, नर्सेस और अन्य मैडिकल स्टाफ को सब से पहले वैक्सीन दी गई थी. लखनऊ की मैडिकल यूनिवर्सिटी के कुलपति डा. विपिन पुरी और चिकित्सा अधीक्षक डा. हिमांशु भी कोरोना संक्रमित पाए गए हैं जबकि इन दोनों सहित मैडिकल कालेज के बाकी 38 डाक्टर्स को वैक्सीन की दोनों डोज 25 मार्च से पहले ही दी जा चुकी हैं.

ऐसे में वैक्सीन से हमारी कितनी सुरक्षा हो सकेगी, यह कहना तो मुश्किल है लेकिन अभी चूंकि यही एक रास्ता है तो लोग जल्दी से जल्दी वैक्सीन पाने की होड़ में दिख रहे हैं. अगर आप भी कोरोना वायरस की वैक्सीन लगवाना चाहते हैं तो जरूर लगवाएं मगर आप को कुछ बातें ध्यान में रखने की जरूरत है.

हैल्थ एक्सपर्ट नियाज अहमद का कहना है कि वैक्सीनेशन करवाने से पहले कुछ बातों का खयाल रखें ताकि इस का साइड इफैक्ट आप की जान के लिए खतरा न बन जाए. ऐसी कई बातें हैं जो वैक्सीन लगवाने से पहले नहीं करनी चाहिए.

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सिगरेट व शराब न पिएं

हैल्थ एक्सपर्ट नियाज अहमद कहते हैं कि अगर आप वैक्सीन लगवाने जा रहे हैं तो 48 घंटे पहले शराब के सेवन को रोक दें. शराब की वजह से होने वाला डिहाइड्रेशन और हैंगओवर वैक्सीन के असर को खत्म कर सकता है. यही नहीं, वैक्सीन लगवाने से पहले खूब पानी पीने और हाइड्रेटेड रहने की सलाह वे देते हैं. इसी तरह अगर आप धूम्रपान करते हैं तो वैक्सीन लेने से 24 घंटे पहले ही इसे रोक दें.

गर्भवती महिलाएं वैक्सीन न लें

हैल्थ एक्सपर्ट कहते हैं कि गर्भवती महिलाओं और बच्चे को स्तनपान करवाने वाली मांओं को कोरोना वैक्सीन अभी नहीं लेनी चाहिए क्योंकि किसी भी वैक्सीन का क्लिनिकल ट्रायल अभी तक गर्भवती महिलाओं पर नहीं हुआ है. इसलिए वैक्सीन का उन की और उन के बच्चे की सेहत पर क्या असर होगा, कहा नहीं जा सकता.

पेनकिलर न खाएं

वैक्सीन लगवाने जा रहे हैं तो 24 घंटे पहले कोई भी दर्द निवारक दवा या जैल का इस्तेमाल न करें. एक्सपर्ट का कहना है कि दर्द की कुछ आम दवाएं वैक्सीन के प्रति इम्यून सिस्टम रिस्पौंस को कम कर सकती हैं. इसलिए वैक्सीन लगवाने से पहले इन्हें नहीं लेना चाहिए. वैक्सीन लगवाने के बाद दर्द महसूस होने पर डाक्टर खुद आप को उस से छुटकारा पाने के लिए दवा देंगे. हां, आप अपनी कोई भी दवाई जो पहले से ले रहे हैं वह पहले की तरह नियमित रूप से ले सकते हैं. मगर जब वैक्सीन लगवाने के लिए जाएं तो डाक्टर या नर्स को यह जरूर बता दें कि आप ने कौन सी दवा ली है और कितनी देर पहले ली है.

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2 खुराकों के बीच कोई अन्य वैक्सीन न लगवाएं

कोरोना वैक्सीन की 2 खुराकें 28 दिन के अंतराल पर दी जा रही हैं. इन दोनों खुराकों के बीच के समय में कोई भी दूसरी वैक्सीन लेना खतरनाक हो सकता है. आमतौर पर कोई भी 2 वैक्सीन एक दिन में लगवाई जा सकती हैं लेकिन कोरोना वैक्सीन के मामले में डाक्टर्स ऐसा करने से मना कर रहे हैं. अगर आप ने फ्लू की या कोई और वैक्सीन लगवाई है तो ऐसे में आप को कम से कम

14 दिनों के बाद ही कोविड वैक्सीन लगवानी चाहिए. इसी तरह अगर आप ने कोविड वैक्सीन की दोनों खुराकें लगवा ली हैं तो कोई और वैक्सीन लगवाने के लिए 14 दिनों का इंतजार करें.

भागने की जल्दी न करें 

वैक्सीन लगवाने के बाद घर आने की जल्दबाजी न करें, बल्कि थोड़ी देर अस्पताल में ही इंतजार करें. एक्सपर्ट्स का कहना है कि वैक्सीन लगवाने के कम से कम 30 मिनट तक उसी जगह पर रहना चाहिए. इस से आप में किसी भी तरह के गंभीर साइड इफैक्ट दिखने पर डाक्टर तुरंत उपचार शुरू कर सकेंगे.

नींद पूरी लें

अगर आप को वैक्सीन लगवाने जाना है तो बेहतर होगा कि आप रात को पूरी नींद लें. एक्सपर्ट्स का कहना है कि अच्छी और पूरी नींद लेने से ही शरीर का इम्यून सिस्टम वैक्सीन के प्रति अच्छा रिस्पौंस देता है. वैक्सीन लगवाने से पहले ही नहीं, बल्कि वैक्सीन लगवाने वाले दिन भी अच्छी नींद लेना बहुत जरूरी है.

स्ट्रैस न लें

बहुत से लोग, जो वैक्सीन के बारे में नकारात्मक खबरें पढ़ रहे हैं, इस बात को ले कर बहुत चिंतित हैं कि पता नहीं वैक्सीन का उन के शरीर पर क्या असर हो जाए. दूसरी ओर उन पर वैक्सीनेशन करवाने का दबाव भी है. ऐसे में स्ट्रैस लैवल हाई है. एक्सपर्ट का कहना है कि तनाव ले कर वैक्सीन करवाना खतरनाक हो सकता है. तनाव के कारण हार्टबीट, ब्लडप्रैशर और बौडी टैंपरेचर बढ़ा होने से वैक्सीन का प्रभाव गलत भी हो सकता है. इसलिए वैक्सीन लगवाने के पहले सही खानपान के साथ खुद को भी बिलकुल रिलैक्स रखें. स्ट्रैस लेने का आप की इम्यूनिटी पर भी बुरा असर पड़ता है.

प्लाज्मा थेरैपी वाले न लें 

एक्सपर्ट की राय है कि जो लोग पिछले डेढ़ महीने में कोरोनो वायरस से संक्रमित हो चुके हैं या फिर जिन्होंने ब्लड प्लाज्मा या मोनोक्लोनल एंटीबौडी थेरैपी ली है उन्हें कोरोना की वैक्सीन लेने से अभी बचना चाहिए.

आप को किसी चीज से एलर्जी तो नहीं

कुछ लोगों को किसी खाद्य पदार्थ, साबुन, तेल, किसी दवा या इंजैक्शन से एलर्जी होती है, ऐसे लोग कोरोना की वैक्सीन लगवाने से पहले डाक्टर की मंजूरी अवश्य ले लें. सीरम इंस्टिट्यूट औफ इंडिया ने भी यह सलाह दी है कि कोविशील्ड वैक्सीन के किसी भी इन्ग्रीडिएंट से अगर किसी को एलर्जी है तो उसे यह वैक्सीन नहीं लगवानी चाहिए.

आजादी -भाग 3: विदेह के पिता जी की क्या इच्छा थी

लेखिका-सुषमा मुनींद्र

इस तरह वह मित्रों के साथ औडियो कैसेट की दुकान पर खड़ा हो संगीत सुन लेता या अन्य दुकानों पर पसंद की वस्तुएं देखता. किंतु एक दिन उस के विलंब का कारण खोजने बाबूजी निकल पड़े. सर से ज्ञात हुआ कि वे नियत समय तक ही पढ़ाते हैं क्योंकि फिर दूसरा समूह आ जाता है. विदेह घर पहुंचा तो जांच बैठा दी गई. बाबूजी पूछने लगे, ‘सर देर तक पढ़ाते हैं, आज पढ़ाया? तुम ?ठ बोलने लगे हो. इसीलिए कहता हूं, मेरे साथ रहो. आजकल के लड़के तुम्हें बरबाद कर देंगे. ?ाठ, चोरी, मक्कारी, नशा, सट्टा सब सिखा देंगे.’ ‘बाबूजी, मेरे मित्र ऐसे नहीं हैं. सभी भले घरों के हैं,’ विदेह कहता. ‘

वे भले हैं, बुरे तो हम हैं जो तुम्हारे पीछे प्राण दिए दे रहे हैं. हमारी बातें सुनने में कड़वी अवश्य हैं पर तुम्हारा हित करेंगी,’ कहते हुए उग्र कृपाशंकर अगले ही क्षण नरम पड़ जाते, ‘बेटा, तुम हमारे एकलौते पुत्र हो. गलत राह पकड़ोगे तो हमें बहुत पीड़ा होगी. तुम से बहुत आशाएं हैं. अब कभी ?ाठ न बोलना. तुम हमारे प्राणाधार हो.’ ‘प्राणाधार नहीं, बल्कि गुलाम कहें तो उपयुक्त होगा.’ लोग गला फाड़फाड़ कर चिल्ला रहे हैं कि भारत आजाद है. अरे, उसे तो आजादी दिखाई ही नहीं देती. देश भले ही आजाद हुआ हो पर वह तब तक आजाद नहीं हो सकता जब तक अम्माबाबूजी उस के पीछे हाथ धो कर पड़े रहेंगे.’ उसे बस एक ही दिन पसंद रहा है अपना जन्मदिवस. मित्र कितना हंगामा करते थे. लेकिन उसे… उसे बाबूजी किसी मित्र के जन्मदिवस पर भी नहीं जाने देते.

जाने देंगे तो इस शर्त पर कि लौटते हुए रात हो जाएगी, सो, वे स्वयं ही लेने आएंगे. उसे यह अनुबंध स्वीकार नहीं. इस से तो अच्छा है वह न जाए. व्यर्थ ही मित्रों के मध्य खिल्ली उड़ेगी. बाबूजी रूठे पुत्र को मनाने लगते, ‘अच्छा बताओ, क्या खाओगे? मैं बाजार से ले आता हूं.’ उसे अच्छा खाना नहीं, मित्रों का साथ चाहिए. हंसीठिठोली, हुड़दंग किस बाजार से खरीद लाएंगे, बाबूजी? अब तो उसे मित्रों ने यह कह बुलाना ही छोड़ दिया है, ‘विदेह को बख्श दो यार, बाबूजी उसे लोरी गाते हुए सुला रहे होंगे.’ अब तो ऐसी छेड़छाड़ रोज का काम हो गया है. स्कूल में जब तक रहा, लड़के उसे छेड़ते रहे.

वह रोंआसा हो आया. पढ़ने में मन नहीं लगा. शिक्षक ने प्रश्न कुछ पूछा और उस ने उत्तर कुछ दिया. पूरी कक्षा हंस पड़ी. छुट्टी हुई तो घर जाने की इच्छा नहीं हुई. निरर्थक इधरउधर भटकता रहा. घर आधा घंटा देर से पहुंचा. दूर से ही दरवाजे पर उस की बाट जोहती अम्मा दिख गई. वह चिढ़ गया. अपने घर के दरवाजे पर खड़ा प्रबोध उछलउछल कर बताने लगा, ‘‘तेरी अम्मा चिंता कर रही हैं. कहां रह गया था. मैं, बस तु?ो ढूंढ़ने ही निकल रहा था.’’ यह सुन विदेह की क्रोधाग्नि में घी पड़ गया, कहने लगा, ‘‘ये अम्मा भी… प्रबोध उस से छोटा है, फिर भी उन्हें विश्वास है कि प्रबोध उसे उंगली पकड़ कर ले आएगा.’’ विदेह ने तय किया कि कल एक घंटा देर से आएगा, कर ले जिसे जो करना है. अब तो इस लाड़दुलार से गुलामी की बू आने लगी है. 5-10 मिनट देर होना अपराध तो नहीं.

अरे, वह कुछ देर मित्रों से बात कर सकता है, साइकिल पंक्चर हो सकती है, चक्का जाम हो जाता है. उसे इतनी आजादी तो मिलनी ही चाहिए. ये अम्माबाबूजी तो उस के मौलिक अधिकार ही छीन लेना चाहते हैं, आत्मविश्वास कम कर रहे हैं, कुंठित कर रहे हैं. अम्मा को तो विलंब का एक कारण ज्ञात है कि दुर्घटना हो गई या उस का अपहरण हो गया. अपहरण ही हो जाए तो अच्छा, इस दासता से तो मुक्ति मिले. उसे भी तो पता चले कि स्कूल से घर के अतिरिक्त भी कोई मार्ग है जिस पर वह बाबूजी की उंगली थामे बिना चल सकता है. अपहरण की बात सुन प्रबोध खूब हंसा, फिर ताली पीट अपने स्थान पर लट्टू सा घूम गया, बोला, ‘‘ग्रेट आइडिया. अपहरण की प्रतीक्षा में न बैठे रहो, मेरी जान.

वरना बाबूजी तुम्हें मानसिक रोगी बना देंगे. अपहरण नहीं होता तो चलो, हम खुद ही भाग चलें. मैं भी अपने घर की गरीबी से परेशान हूं. मुंबई चलेंगे, घूमेंगे, छोटामोटा काम पकड़ लेंगे, आजादी रहेगी,’’ यह सुन कर विदेह के माथे पर पसीना चुहचुहा आया. वह सिहर उठा, पैरों में कंपन समा गया. ‘‘तू फालतू बात करता है, प्रबोध,’’ विदेह घबराया सा बोला. ‘‘एकदम खरी बात कहता हूं. यहां से कटनी जंक्शन तक बस में, फिर रेल में. बहुत सी रेल मिल जाएंगी,’’ प्रबोध बोला. ‘‘तू बस में टिकट कटा लेगा?’’ विदेह ने पूछा. ‘‘और क्या. अपनी चाची को रायपुर छोड़ने अकेला जा चुका हूं. तेरी तरह बाबूजी की उंगली थाम कर नहीं चलता. पर तू क्या भागेगा, बाबूजी का पिट्ठू. मैं ने जीवविज्ञान में पढ़ा है कि जंतु 2 प्रकार के होते हैं. मेरुदंड (वर्टीबरा) वाले और बिना मेरुदंड वाले (नौन वर्टीबरा). तू मेरुदंड वाला होते हुए भी बिना मेरुदंड वाला है, सम?ा?’’ प्रबोध बोला था. वह ऐसा निडर, निर्भय हो बोल रहा था जैसे दुनिया की सैर अकेले कर सकता है.

उस का आत्मविश्वास और साहस देख विदेह की हीनता बढ़ गई. चेहरा निस्तेज हो गया. हाथ स्वमेव पीछे मेरुदंड पर चला गया. उस ने दृढ़निश्चय किया कि अब वह मेरुदंडविहीन नहीं रहेगा. उसे आजादी चाहिए, यह उस का जन्मसिद्ध अधिकार है. वह रातभर योजना बनाता रहा. दूसरे दिन विदेह और प्रबोध यह सोच स्कूल जाने के बहाने घर से निकल पड़े कि स्कूल 8 घंटे चलता है. इस से पहले उन्हें ढूंढ़े जाने का मतलब ही नहीं. तब तक तो वे न जाने कहां पहुंच जाएंगे. बस में विदेह पहली बार यात्रा कर रहा था. अब तक तो अम्माबाबूजी के मध्य बैठता रहा है. अकेले यात्रा करने का उस का यह पहला अनुभव था. उसे लग रहा था कि वह समर्थ है, सक्षम है, स्वावलंबी है, शक्तिवान है, परजीवी और मेरुदंडविहीन नहीं है. जैसेजैसे कटनी जंक्शन नजदीक आ रहा था, उस की प्रसन्नता बढ़ती जा रही थी.

वह आजादी की खुमारी में डूबा था कि पीछे से किसी ने पुकारा, ‘‘विदेह, तुम अकेले कहां जा रहे हो?’’ लखन मामा, जो पिछले स्टेशन से बस में चढ़े थे, मिल गए. विदेह को मस्तिष्क के सारे तंतु सुप्त होते जान पड़े. प्रबोध कोई उपयुक्त बहाना ढूंढ़ता, उस के पहले ही मारे घबराहट के विदेह ने सच बोल दिया. प्रबोध और विदेह स्तब्ध थे. इस तरह रंग में भंग होगा, उन्होंने नहीं सोचा था. कटनी जंक्शन पर उतर, दूसरी बस पकड़ कर मामा दोनों को वापस लौटा ले चले. विदेह और प्रबोध को अगलबगल थामे तूफान मेल की भांति लखन मामा घर में घुसे. अम्मा बुरी तरह रो रही थीं और थाने में रपट लिखा कर लौटे बाबूजी सिर थामे बैठे थे.

छोटीमोटी भीड़ जमा थी. मामा गरजे, ‘‘जीजी, संभालो लाड़ले को. आजादी की खोज में मुंबई जा रहा था. किसी आपराधिक गिरोह के हत्थे चढ़ जाता तो आजादी का भूत सिर से उतर जाता.’’ ‘‘मेरे लाल…’’ अम्मा हाल ही में बच्चा जनने वाली गाय सी अपने बछड़े की ओर लपकीं. ‘‘वहीं रुक जाओ, जीजी,’’ मामा गरजे. बाबूजी तो ठगे से खड़े ही थे, अम्मा भी ठिठक गई. मामा बोले, ‘‘गुस्सा तो मु?ो ऐसा आया था कि इस नालायक को बस में ही रुई की तरह धुन दूं, पर तनिक ठंडे दिमाग से इस की बातें सुनीं तो पाया कि बच्चे का उतना दोष नहीं जितना आप दोनों का है. यह बेचारा कुछ क्षण अपने ढंग से जीना चाहता है. इसे अपने हमउम्र दोस्तों के बीच जो आनंद आता है, वह आप लोगों के साथ नहीं आ सकता. यह एक सहज, स्वाभाविक प्रक्रिया है. अधिक भोजन से अर्जीर्ण हो जाता है.

विदेह को लाड़दुलार का अर्जीर्ण हो गया है. क्या प्रेम साथ चिपके रह कर ही प्रदर्शित हो सकता है? इस तरह लोग इस के आत्मविश्वास को खोखला कर रहे हैं. जब तक यह बाहर थपेड़े नहीं खाएगा, मजबूत नहीं बनेगा. इस में प्रतिरोधात्मक क्षमता विकसित नहीं होगी. आप दोनों स्वयं को इस पर इतनी बुरी तरह थोप चुके हैं कि इस का सांस लेना दूभर हो गया है. अभी भी समय है गलती सुधारने का. इस बार तो मैं ने इसे रोक लिया, अगली बार कौन रोकेगा?’’ लखन मामा बहुतकुछ कहते रहे. बाबूजी और अम्मा मुंहफाड़े अवाक खड़े थे. विदेह कमर तक ?ाका जा रहा था जैसे लज्जा से जमीन में गड़ जाना चाहता हो. प्रबोध की मां उसे मारती हुई घसीट ले गई. भीड़ की एक टुकड़ी उन दोनों के साथ हो ली.

इधर कुछ क्षण चुप्पी में गुजरे. फिर बाबूजी कातर स्वर में बोले, ‘‘बेटा, क्षमा कर दे. अपने पिता को क्षमा कर दे.’’ ‘‘बाबूजी…’’ कहते हुए विदेह पिता से लिपट गया. वह भयभीत था, ग्लानि में डूबा था. ग्लानि के उन क्षणों में उसे पिता से लिपटना बड़ा सुखद और सुरक्षित लगा, ‘‘बाबूजी, क्षमा तो मु?ो मांगनी चाहिए. मु?ा से गलती…’’ ‘‘गलती हुई है पर हम दोनों से. मु?ा से स्नेहवश और तुम से अज्ञानतावश. आज तुम्हारे लखन मामा ने मेरी आंखें खोल दीं. ऐसा लगाव किस काम का जो बच्चे का विकास रोक दे, उसे ऐसा दिशाहीन बना दे कि वह घर से भागने जैसा घातक कदम उठा ले. मु?ो क्षमा कर बेटा,’’ कृपाशंकर बोले. पितापुत्र विलाप करते रहे. अम्मा निकट आ विदेह की पीठ पर हाथ फेरने लगी. भीड़ छंट रही थी.

आजादी -भाग 2: विदेह के पिता जी की क्या इच्छा थी

लेखिका-सुषमा मुनींद्र

यदि परसों वह मित्रों के साथ दशहरा का जुलूस देखने चला जाता तो पहाड़ न टूट पड़ता. पर बाबूजी कहां मानने वाले थे. आज उसे स्कूल में कितना नीचा देखना पड़ेगा, लड़के हंसी उड़ाएंगे. कितना खुश था तब वह जब लड़के दशहरे का जुलूस देखने का कार्यक्रम बना रहे थे. उस ने भी हामी भर दी थी. पर बाबूजी ने यह कह गुड़गोबर कर दिया, ‘बेटा, रात में कहां घूमने जाओगे. कितनी तो अपहरण की घटनाएं सुन रहे हैं. बच्चा चोर गिरोह सक्रिय है, दिन में चले जाते तो…’ ‘बाबूजी, आप भी हद कर देते हैं. लाइट क्या दिन में देखी जाती है?’ विदेह ने कहा था. ‘ओह, हां,’ बाबूजी अपने कहे पर हंसने लगे. फिर बोले, ‘तो मेरे साथ चलो, ?ांकी दिखा लाऊंगा. जो कहोगे, खरीद दूंगा.

क्या करूं बेटा, जान बस तुम में ही रहती है.’ विदेह का सारा प्रयास विफल हो गया. जब वह बाबूजी के साथ स्कूटर पर बैठ शहर की सजावट देखने निकला तो उस का उत्साह मर चुका था. वह मुंह फुलाए पीछे बैठा था और बाबूजी कमैंट्री सी कर रहे थे, ‘देखो, गौशाला चौक की ?ांकी… ये भैंसाखाना की…ये सेमरिया चौक की…अच्छी है न…? ?ांकियों के आगे लड़के नाचते चल रह थे. एक ?ांकी के आगे एक ग्वाला ‘अखियां मिलाऊं, कभी अंखियां चुराऊं…’ की धुन पर मस्त ही थिरक रहा था. कितना स्वतंत्र है यह ग्वाला. कितना स्वावलंबी, यह सोच विदेह का जी चाहा स्कूटर से कूद सड़क पर नई उमर की नई फसल की तरह लहराए, ?ामे, नाचे, गाए. पर ऐसा करने से बाबूजी को उस के भीड़ में खो जाने का जोखिम दिखने लगेगा. विदेह को अपनी जिंदगी एकदम निरर्थक, नीरस, उबाऊ लगी अजायबघर के पिंजरे में बंद बंदर की सी.

वह कुछ और आगे बढ़ा तो मित्रमंडली दिख गई. वे लोग गोल घेरा बना खड़े हो लहर, पैप्सी, कोल्डडिं्रक पी रहे थे. मित्रों को देख विदेह चोरों की भांति मुंह छिपाने लगा. फिर भी दयाराम ने देख ही लिया. सो, वह चिल्लाया,’ ओए, विदेह, हमारे साथ क्यों नहीं घूमता रे.’ कृपाशंकर अनसुना कर तेजी से स्कूटर भगा ले गए. विदेह यह सोच बुरी तरह लज्जित हो उठा कि अब स्कूल में लड़के उस का मजाक उड़ाएंगे. वह स्कूल पहुंचा तो सचमुच ही छात्र उस पर टूट पड़े, ‘‘विदेह, अब तो बाबूजी को स्टैपनी बनाना छोड़ दे.’’ ‘‘लौलीपौप खरीदा या ?ान?ाना.’’ ‘‘तू आता तो हम तु?ो गोद में उठा कर सुरक्षित घर तक छोड़ आते.’’ कटाक्ष और ठहाके. विदेह की तीव्र इच्छा हुई कि स्कूल की इस तीनमंजिली इमारत से कूद खुदकुशी कर ले, अपने बाल नोंच ले, कपड़े फाड़ डाले या फिर जोरजोर से रो पड़े.

वह यह देख कर अत्यंत लज्जित था कि छात्राएं भी दुपट्टे से मुंह छिपा कर हंस रही थीं और वे हंसें भी क्यों न, क्योंकि वह है ही ऐसा लल्लू, लड़कियां तक धड़ल्ले से बाइक चलाती स्कूल आती हैं और वह सडि़यल साइकिल से. बाबूजी कहते हैं, ‘‘‘अभी तुम छोटे हो, बाइक से दुर्घटना हो सकती है. साइकिल से जाओ.’ पता नहीं वह कब तक छोटा रहेगा. उस का पड़ोसी प्रबोध 13 साल का है और स्कूटर चला लेता है. साइकिल तो वह बातबात में सीख गया. और विदेह को विधिवत साइकिल सिखाने के लिए बाबूजी हवाई पट्टी ले जाते थे. हांफते हुए पीछेपीछे दौड़ते और गिरने से पहले ही थाम लेते. प्रबोध ताना मारता, ‘जब तक घुटने नहीं फूटेंगे, नजर नहीं खुलेगी. साइकिल कभी नहीं सीख सकोगे तुम.’ शायद इसीलिए उसे साइकिल सीखने में एक वर्ष लग गया क्योंकि बाबूजी ने उस के घुटने नहीं फूटने दिए.

उस से तो प्रबोध का जीवन अच्छा, जहां जाना हो जाओ, कोई पूछने वाला नहीं. फिर भी प्रबोध मरा जाता है मेरे एकलौता होने के लिए. कहता है, ‘विदेह, तेरे तो मजे हैं और हम लोग 8 भाईबहन, सब की उतरन पहनो. न ढंग से खाने को खाना, न सोने को जगह. मैं सौदासुलुफ से पैसे यों ही थोड़ी न चुराता हूं. बढि़या चीज देख कर लालच आता है तो चुराना पड़ जाता है.’ विदेह दुखी भाव से बोलता, ‘प्रबोध, भाड़ में जाए एकलौता होने का सुख. अम्माबाबूजी मेरी एकएक सांस का हिसाब रखते हैं. संडास में थोड़ी देर हो जाए, तो घबराई अम्मा पूछने लगती हैं कि बेटा, कुछ परेशानी है क्या. चीजें मेरे पास बहुत हैं. पर अपनी रुचि की, अपनी पसंद की, अपनी सम?ा से खरीदी हुई एक भी नहीं.

मेरी बड़ी इच्छा होती है कि तेरी तरह सौदासुलुफ लेने जाऊं पर यहां तो सब्जीभाजी लाने अम्मा ?ाला लटकाए चल देती हैं और बाकी सामान बाबूजी ले आते हैं.’ ‘अरे, एकलौता है न, इसलिए नखरे दिखा रहा है,’ प्रबोध बोला. पहले विदेह सचमुच अपने एकलौते साम्राज्य पर इठलाता था, पर अब उसे मातापिता का अतिरिक्त संरक्षण फांस सा चुभता है. बंदिश लगती है, दबाव प्रतीत होता है, असुविधा होती है. पर जैसे, उस की उम्र के अनुपात में अम्माबाबूजी का पुत्रप्रेम भी बढ़ता जा रहा है. उस की स्कूल फीस अब भी बाबूजी यह कह कर जमा करने जाते हैं कि विदेह बच्चा है, पैसे गुमा देगा या कोई लड़का मूर्ख बना कर ठग लेगा या बेचारा घंटाभर कहां लाइन में लगा रहेगा. उस के सहपाठी अपनी फीस स्वयं जमा करते हैं.

मध्यावकाश के बाद का घंटा निकल जाता है, तब कक्षा में यह कहते पहुंचते हैं, ‘सर, फीस जमा कर रहे थे. बहुत लंबी लाइन थी,’ उस की भी इच्छा होती है कि फीस जमा करने के बहाने भौतिक विज्ञान का बोगस घंटा कम से कम एक दिन तो गोल कर दे. पर बाबूजी के चलते ऐसा अवसर कहां मिल सकता है. कितनी कठिनाई से तो उसे ट्यूशन पढ़ने जाने की अनुमति मिली है. बाबूजी तो घर में ही पढ़वाना चाहते थे पर सर के पास समय नहीं है. 6-6 लड़कों के समूह में पढ़ाते हैं. बहुत दिनों तक बाबूजी उसे लेने और छोड़ने जाते रहे. अन्य लड़के आपस में हंसीठट्ठा करते, पढ़ाए गए अध्याय की चर्चा करते हुए घर लौटते और विदेह बाबूजी के साथ, जैसे सिपाही चोर को हथकड़ी डाल कर ले जा रहा हो. उस ने 2 दिन अनशन किया, तब कहीं बाबूजी ने पीछा छोड़ा. अब वह भी लड़कों के साथ हंसताबोलता, पढ़ने में आनंद लेता. उसे यह डेढ़ घंटा प्रिय था. सो, वह कई बार ?ाठ बोल देता, ‘अम्मा, आज सर देर तक पढ़ाएंगे, चिंता न करना.’

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