“पिछले साल की कई गलतियों को भुला दिया जाए तो माना जा सकता हैकि कोरोना एक आपदा थी लेकिन इस बार यह आपदा नहीं बल्कि सिस्टेमेटिक फैलिएर है. सरकारों का फैलिएर है. मेरी मां दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में थी. वह वहां 5 दिनों तक जूझती रही. अस्पताल में किसी ने कोई केयर नहीं की. उन की मौत कल (20 अप्रैल) रात को 3 बजे हुई. उस से पहले पूरे दिन अस्पताल में मेरी मिसैज आठवें माले से यहां से वहां भागती रही कि मांजी की बीपी चेक कर लो, औक्सिजन चेक कर लो लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं. लास्ट में झगड़ा करने पर अटेंडेंट ने बीपी मशीन ही मेरी मिसेज को पकड़ा दी और कहा कि खुद ही चेक कर लो. मेरी मां बिमारी से नहीं मरी है बल्कि उसे सरकार ने मारा है.” सरिता पत्रिका से बात करते हुए इरशद आलम (44) भावुक हो गए.

भारत में कोरोना का दूसराफेजदेश के इतिहास में उस बदनुमा दाग की तरह हमेशा याद रहेगा जो मिटाने से नहीं मिटने वाला.दूसरे फेज का हाल यदि ऐसा ही रहा तो यह भी संभव है कि इस की दुर्गत स्मृति को याद करने के लिए सिर्फ मानव कंकाल ही बचेंगे बाकी नेता उन्ही कंकालों के ढेर पर चढ़ कर वोट की अंतिम अपील भी कर रहे होंगे. माफ़ कीजिए कटु वचन हैं लेकिन हाले ए स्थिति को मद्देनजर रख पाठकों के मन में धूल झोंकना ठीक नहीं. इस समयदेश की तमाम सरकारों का हाल ऐसा हो चुका है जैसे पूरे साल बिन पढ़ाई किए छात्रों का परीक्षा में बैठने पर होता है. कोरोना ने एक साल पहले जो अल्टीमेटम सरकार को दे दिया था उसे मनमौजी नेता “बीत गई सो बीत गई” मान कर चल रही थी. महान दार्शनिक कार्ल मार्क्स ने कहा था, “इतिहास जब खुद को दोहराता है तब वह पहली बार ट्रेजेडी के रूप में होता है और दूसरा मजाक की तरह”. प्रधानमंत्री मोदी काल में शायद यह स्थिति दो बार सटीक बैठी है,एक 2019 के लोकसभा चुनाव में फिर से मोदी के बहुमत सेजीत जाने पर और दूसरा कारोना के एक साल बाद दूसरे फेज पर. दोनों ही स्थितियों में फेल और कोई नहीं भारत की विराट जनता ही हुई है.

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