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हंसते हंसते कट जाएं रस्ते

आज के समय में स्ट्रैस यानी तनाव जिंदगी का अहम हिस्सा बन चुका है. एक अमेरिकी वैज्ञानिक के मुताबिक स्ट्रैस मस्तिष्क में दबी हर प्रेरणा मांसपेशियों और त्वचा में दबाव पैदा करती है. जब तक इसे किसी क्रिया से निकाला नहीं जाता, मांसपेशियों में स्ट्रैस बना रहता है. इस स्ट्रैस से थकान और डिप्रैशन जन्म लेता है जो धीरेधीरे किसी गंभीर बीमारी का रूप ग्रहण कर लेता है. फिर क्यों न इस स्ट्रैस से बचा जाए और खुशहाल जिंदगी जी जाए.

दिल खोल कर हंसें

मत भूलिए कि हंसी कुदरत का अनुपम उपहार है. दिल खोल कर हंसना रूप को निखारता है वहीं यह कई रोगों की अचूक दवा भी है. सुबह का स्वागत खुद को आईने में मुसकराते हुए देख कर करें. पूरा दिन खिलाखिला गुजरेगा. फिर हंसी पर किसी प्रकार का टैक्स तो लगता नहीं, इसलिए बेझिझक मुसकराहटों का आदानप्रदान करें. मशहूर डा. ली बर्क के अनुसार, हंसी शरीर के इलाज का प्राकृतिक व मान्य तरीका है.

गिनिए हंसी के फायदे

हंसी ह्यूमन सिस्टम को सक्रिय करती है. इस से प्राकृतिक किलर सैल्स में वृद्धि होती है जो वायरस से होने वाले रोगों और ट्यूमर सैल्स को नष्ट करते हैं. हंसी दिल की सब से अच्छी ऐक्सरसाइज है. यह टी सेल्स की संख्या में बढ़ोतरी करती है. इस से एंटीबौडी इम्यूनोग्लोब्यूलिन-ए की मात्रा बढ़ती है. यह सांस की नली में होने वाले इन्फैक्शन से बचाव करती है. हंसने से तनाव पैदा करने वाले हारमोंस का लेवल कम होता है. खुल कर हंसना चेहरे और गले की मांसपेशियों के लिए शानदार ऐक्सरसाइज है.

कैफीन को कहें बाय

आमतौर पर लोग स्ट्रैस कम करने के लिए चाय, कौफी, चौकलेट या सौफ्टडिं्रक वगैरह लेते हैं. इन में ड्रग्स की तरह तेजी से असर करने वाले तत्त्व होते हैं. ये तत्त्व शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम कर के स्ट्रैस पैदा करते हैं. कहावत है, जहर को जहर मारता है. कैफीन इसी सिद्धांत पर काम कर के स्ट्रैस कम करती है. यह शरीर में कुछ विषैले तत्त्व पैदा करती है जो फ्री रैडिकल्स पैदा करते हैं. ये मस्तिष्क में तंतुओं की संवेदनशीलता को कम करते हैं. इसी कारण स्ट्रैस कम होने का झूठा एहसास होता है और व्यक्ति दिनप्रतिदिन इस की मात्रा बढ़ाने के लिए मजबूर होता जाता है.

कैफीनरहित दिन बिता कर आप इस से होने वाले स्ट्रैस से छुटकारा पा सकते हैं. आप बदलाव महसूस करेंगे. उत्साह, ऊर्जा, अच्छी नींद, कम हार्टबर्न और मांसपेशियों को लचीला पाएंगे. अगर आप अचानक कैफीन छोड़ते हैं तो माइग्रेन जैसे तेज दर्द के शिकार हो सकते हैं. इसलिए कैफीन से छुटकारा पाने का सब से आसान तरीका अपने डेली रुटीन से प्रतिदिन एक प्याला कौफी कम करना है.

पैदल चलें

पैदल चलना सब से अच्छी ऐक्सरसाइज है. खाने से पहले तेजतेज चलना आंतों को गति देता है जिस से पाचन शक्ति बढ़ जाती है. खाने के बाद टहलने से कब्ज की शिकायत दूर हो जाती है. पैदल चलते समय ली जाने वाली गहरी सांसें फेफड़ों की क्षमता बढ़ाती हैं और खून का प्रवाह भी नियंत्रित करती हैं. नंगे पैर चलने से एक्यूप्रैशर जैसा लाभ मिलता है.

स्ट्रैस एड्रीनल हारमोन के तीखे हमले से पैदा होता है. यह दिल की धड़कन और ब्लडप्रैशर को बढ़ा देता है. ध्यान करना एड्रीनल हारमोन की गति को नियंत्रित कर के स्ट्रैस शिथिल करता है. ध्यान करने का मतलब शरीर और खुद के प्रति जागरूक होना है. अगर इसे बढ़ा लिया जाए तो उन समस्याओं के समाधान खुद ही मिलने शुरू हो जाते हैं जिन के कारण स्ट्रैस पैदा होता है. ऐक्सरसाइज और ध्यान को रुटीन में शामिल कर के तनमन को चुस्त बनाया जा सकता है.

आज की भागदौड़ वाली जिंदगी में व्यक्ति अपनी क्षमता का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल कर रहा है. शारीरिक गतिविधियों के कारण घुटनों में लैक्टिक एसिड पैदा होता है. जब शरीर में इस की मात्रा बहुत बढ़ जाती है तो हम थकान महसूस करते हैं.

दरअसल, इंटरल्यूकिन-6 नामक अणु मस्तिष्क को धीमा चलने का संकेत भेजते हैं. इस का अर्थ होता है कि अब मांसपेशियों से ज्यादा काम नहीं लिया जा सकता. लंबे समय तक चली शारीरिक गतिविधियों के बाद इंटरल्यूकिन-6 का लेवल सामान्य से 60 से 100 गुना तक बढ़ जाता है. तब हमें आराम की जरूरत महसूस होती है.

नींद है जरूरी

सोना स्ट्रैस दूर करने का सब से आसान तरीका है. 8 घंटे की नींद फिर से काम करने के लिए एनर्जी देती है. इसलिए काम में व्यस्त क्षणों के बीच थोड़ा सा ब्रेक ले कर मीठी झपकी लेनी चाहिए ताकि तनमन तरोताजा हो कर फिर काम करने के लिए तैयार हो जाए. कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 20 मिनट तक ली गई झपकी जादू सा असर करती है. यह काम के उबाऊ क्षणों के बीच आप के तनमन को फूलों पर बिखरी ओस जैसी ताजगी से भर देती है.

याद रखें, हम सभी में ऊर्जा की लहरें कुलांचें भरती हैं. उन्हें बहने का सही रास्ता दीजिए. गार्डनिंग, बुक्स रीडिंग, स्विमिंग, म्यूजिक सुनना, पेंटिंग, ड्राइविंग जैसे अपने मनपसंद शौक को कुछ समय दे कर आप स्ट्रैस से कोसों दूर रह सकते हैं.

अप्रासंगिक नीतियां और खाद्यान्न संकट

भारत कृषि प्रधान देश है. लिहाजा, यहां बहुतायत में खाद्यान्न उत्पन्न होता है. लेकिन सरकार की पुरानी व अप्रासंगिक नीतियों के चलते न सिर्फ हमारे देश का अनाज गोदामों में सड़ता है बल्कि अन्य देशों से आयात करने का अतिरिक्त भार भी देश को वहन करना पड़ता है. वर्षों पुरानी दोषपूर्ण नीतियों व खाद्यान्न खरीद के औचित्य पर सवाल उठा रहे हैं कपिल अग्रवाल.

सरकार की नीतियां एक बार बन गईं सो बन गईं. फिर चाहे उन की जरूरत हो या न हो, बदस्तूर चलती रहती हैं, बेशुमार पैसा पीती रहती हैं. हर साल बजट में उन नीतियों पर मय इन्क्रीमैंट अरबोंखरबों रुपए लुटाए जाते हैं और नतीजा सिफर ही रहता है. ऐसी ही बरसों पुरानी एक नीति है-खाद्यान्नों की खुली खरीद.

न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पर आधारित यह नीति आजादी प्राप्त होने के बाद वर्ष 1950 में तब लागू की गई थी जब हमारे देश में भुखमरी थी और हम पूरी तरह आयात पर निर्भर थे. खासकर अनाज के मामले में भारत आत्मनिर्भर नहीं था और तब समयानुसार सरकार ने किसानों को गेहूं, चावल आदि का उत्पादन करने के लिए तमाम प्रोत्साहन दिए. एक निश्चित मूल्य, जिसे न्यूनतम समर्थन मूल्य कहा गया, पर सरकार ने स्वयं खरीदारी कर के अपनी स्वयं की यानी राशन की दुकानों के माध्यम से रियायती दरों पर जनता को गेहूं, चावल, चीनी आदि उपलब्ध कराया.

उस समय के लिहाज से यह नीति बिलकुल ठीक थी पर अब जबकि स्वयं सरकार की संसदीय समिति व कई आयोग इस नीति को समाप्त करने या बदलने की सिफारिश कर चुके हैं, नीति न केवल जारी है बल्कि हर साल लगभग 80 हजार करोड़ रुपए की भारीभरकम राशि बरबाद की जाती है. अनाज खासकर गेहूं की खरीद, भंडारण, रखरखाव आदि के अलावा भारतीय खाद्य निगम यानी एफसीआई व उस के स्टाफ के वेतन, भत्ते आदि के समस्त खर्चे इस में शामिल हैं.

गत 3 वर्ष पूर्व ही संसद की एक समिति ने इस नीति के साथसाथ एफसीआई की उपयोगिता पर भी सवाल उठाते हुए उसे समाप्त करने की सिफारिश की थी. समिति ने अपने दौरे में पाया था कि एफसीआई के पास अधिकारियों व कर्मचारियों की लंबीचौड़ी फौज तो है पर पूरे साल काम बिलकुल भी नहीं है.

आज हालत यह है कि एक तरफ तो सरकारी गोदामों में गेहूं पड़ा सड़ता रहता है दूसरी ओर बाजार में गेहूं के दाम आसमान छूते रहते हैं. सरकार गेहूं व चावल आदि के उत्पादन को तो बेतहाशा बढ़ावा दे रही है पर दाल व तेल तिलहन को नहीं. नतीजा यह है कि अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप अच्छी गुणवत्ता वाली रबी की फसल यानी गेहूं हमें मिल नहीं पाता और निर्यात की भरपूर संभावनाओं के बावजूद सारा का सारा खाद्यान्न सड़ कर या तो चौथाई दामों में शराब कंपनियों को देना पड़ता है या फिर पशुओं के चारे के रूप में आस्ट्रेलिया, अमेरिका जैसे देश बेहद कम दामों में ले लेते हैं. यानी विकसित देशों के जानवरों का चारा हमारे देशवासियों का निवाला है.

सरकार ने इस साल 4.4 करोड़ टन गेहूं खरीदने का फैसला किया है जोकि पिछले साल की गई 3.8 करोड़ टन की रिकौर्ड खरीद से भी ज्यादा है. करीब 9.2 करोड़ टन गेहूं के अनुमानित उत्पादन का लगभग आधा हिस्सा खरीद कर सरकार न केवल 60 हजार करोड़ रुपए की विशाल राशि बरबाद करेगी बल्कि बाजार में पर्याप्त आपूर्ति की राह अवरुद्ध कर कीमत बेलगाम कर देगी.

इतनी ऊंची खरीद का लक्ष्य रखने का औचित्य समझ से बाहर इसलिए भी है क्योंकि सरकारी गोदाम पहले से ही अनाज से लबालब भरे पड़े हैं. सरकार के गोदामों में फिलहाल 6.6 करोड़ टन अनाज जमा है जो बफर स्टौक के लिए निर्धारित 2.1 करोड़ टन क्षमता से लगभग तीनगुने से भी ज्यादा है. सरकार की सकल भंडारण क्षमता 7.15 करोड़ टन है जबकि कुल स्टौक का आंकड़ा करीब 11 करोड़ टन तक पहुंच सकता है यानी सीधेसीधे लगभग 4 करोड़ टन अनाज खुले में रखा हुआ सड़ेगा.

सरकार की इस नीति से राष्ट्र, समाज, राजकोष, आम जनता को क्या फायदा है, समझ के बाहर है. हां, किसानों और वह भी रसूखदार बड़े किसानों को इस से जबरदस्त फायदा है. किसानों को तो सरकार ने इतनी सुविधाएं, छूट, रियायतें व सब्सिडी दे रखी हैं, जितनी दुनिया के किसी मुल्क में नहीं हैं. एक किसान को आयकर नहीं देना पड़ता, बिजलीपानी मुफ्त, उर्वरक व खाद पर भारी सब्सिडी, फसल पर मुफ्त बीमा और सारी की सारी फसल खरीदने की गारंटी सरकार की. आस्ट्रेलिया, अमेरिका व चीन जैसे अति उन्नत देशों की सरकारें भी अपने किसानों को सब्सिडी तो भरपूर देती हैं पर उन के उत्पाद को खुद खरीदने का ठेका नहीं लेतीं.

अन्य क्षेत्रों की तरह यहां भी चीनी सरकार ने बाजी मार ली है. 1960 के दशक का आयातक चीन आज विश्व के तमाम देशों को थैलीबंद गेहूं व आटा निर्यात करता है. वहां की सरकार ने एक अलग ही तरह का दोहरा मौडल अपनाया है जोकि विश्वभर में अनूठा है. विश्व में सर्वाधिक आबादी वाले इस देश में किसानों को पर्याप्त सब्सिडी दी जाती है पर बाजार पूरी तरह खुला है. अनाज भंडारण, बेचने आदि की कोई पाबंदी नहीं है और सरकार केवल मुनाफाखोरी व कीमतों पर निगरानी रखती है. आयात के लिए जहां सरकार से अनुमति लेनी पड़ती है वहीं निर्यात की पूरी छूट दी गई है.

घरेलू मोरचे पर चीन इस समय पूरी तरह न केवल आत्मनिर्भर है बल्कि निर्यात भी खूब कर रहा है. तमाम अफ्रीकी, लैटिन अमेरिकी व पिछड़े एशियाई देशों में चीनी कंपनियां लीज पर खेती की जमीनें ले कर खाद्यान्न उपजा रही हैं और वहीं का वहीं बेच देती हैं. पश्चिमी अर्जेंटीना, कौंगो, कोस्टारिका, घाना, जाम्बिया आदि कई छोटेछोटे पिछड़े देशों में तो चीनी कंपनियों ने वहां की सरकारों से दीर्घावधि करार किए हैं, जिन के तहत वे वहीं की जमीन पर खाद्यान्न उत्पादन कर वहीं की जनता को बेचेंगी.

दूसरी ओर हमारी सरकार की पूरी तरह से नकारा खाद्य नीतियों का सब से गलत प्रभाव यह है कि निजी कारोबारी व निर्यातकर्ता अनाज बाजार से बिलकुल बाहर हो गए हैं. सरकार ही अनाज की सब से बड़ी भंडारणकर्ता बन गई है.

वर्ष 2013-14 के लिए खाद्यान्न खरीद नीति पर अपनी रिपोर्ट में कृषि लागत व मूल्य आयोग ने अनाज की खरीद को चरणबद्ध ढंग से कम कर के सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत जरूरतभर तक सीमित करने की सिफारिश की है. इस से एक कदम और आगे बढ़ कर विश्व बैंक की वर्ष 2011 की सालाना रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि भारत सरकार को खरीद व भंडारण की अप्रासंगिक नीति त्याग कर सबकुछ बाजार व निजी क्षेत्र के हवाले कर देना चाहिए. रिपोर्ट के एक पैरे में तो यहां तक मशवरा दिया गया है कि खरीद व भंडारण में आ रही लागत के मुकाबले भारत को आयात भी बेहद सस्ता पड़ेगा.

हाल ही में भारतीय उद्योग परिसंघ यानी सीआईआई की एक बैठक के दौरान भारत के केंद्रीय खाद्य मंत्री के वी थौमस ने स्वीकार किया कि खाद्यान्न खरीदारी व प्रबंधन क्षेत्र में निजी क्षेत्र का साथ लिए बिना सरकार अकेले कुछ भी नहीं कर सकती. दूसरी ओर कृषि लागत एवं मूल्य आयोग यानी सीएसीपी के अध्यक्ष अशोक गुलाटी ने भी संपूर्ण व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन पर बल देते हुए कहा कि इस क्षेत्र के राष्ट्रीयकरण से हालात बद से बदतर हुए हैं और हमें निजी क्षेत्र का सहयोग लेना ही होगा.

इस आधुनिक युग में जबकि हर देश अपने लगभग सभी क्षेत्रों को प्रतिस्पर्धा के लिए खोल चुका है, ऐसे में अपने देश की सरकार को भी इस बरसों पुरानी अप्रासंगिक नीति में आमूलचूल परिवर्तन करने होंगे. 

बच्चों के मुख से

मेरा 7 वर्षीय बेटा अवी बहुत बातूनी और हाजिरजवाब है. एक दिन वह अपनी दादी के साथ टीवी पर ‘साथिया साथ निभाना’ देख रहा था. उसे ‘गोपी’ बहू बहुत अच्छी लगती है. उसी दिन रात को उस ने मुझ से कहा, ‘‘मम्मी, जैसे गोपी बहू अहमजी की पत्नी है वैसे ही आप पापा की पत्नी हो और पापा आप के ‘पतना’.’’

उस की इस बात पर हम सब अपनी हंसी रोक नहीं पाए.

रेनुका नेगी, नई दिल्ली

 

मेरे एक परिचित हैं. आपस में हम मिलते रहते हैं. उन्होंने अपने बेटे का स्कूल में ऐडमिशन करवाया. मैं उन के घर मिलने गई. वहां उन का बेटा भी खेल रहा था. मैं ने उसे प्यार से अपने पास बुलाया और पूछा, ‘‘बेटा, अब तो स्कूल जाना होगा, आप स्कूल वैन से जाओगे?’’ तो वह बच्चा बड़े प्यार से बोला, ‘‘आंटी, अप्रैल से.’’ उस के भोलेपन पर सब हंसने लगे.

रश्मि सिंह राठौड़, सीतापुर (उ.प्र.)

 

मेरा 3 वर्ष का नाती आर्यन अंगूठा चूसता है. उस की इस आदत को छुड़ाने के प्रयास जारी हैं. परंतु आर्यन यह आदत छोड़ता ही नहीं. एक दिन हम सभी कार से कहीं जा रहे थे. उस की मम्मी कार चला रही थीं. बातूनी आर्यन ड्राइविंग सीट के पीछे खड़ा हुआ लगातार बोले जा रहा था. परेशान हो कर उस की मम्मी ने कहा, ‘‘अब एकदम चुप हो जा. आगे जरा भी मुंह खोला तो नीचे उतार दूंगी.’’

‘‘तो मम्मी, मुंह में अंगूठा ले लूं?’’ आर्यन ने सहज रूप से पूछा. हम सब का हंसतेहंसते बुरा हाल था.

मधुरिमा सिंगी, भोपाल (म.प्र.)

 

हमारा पोता रनक 3 साल का था. उस समय बेटाबहू दोनों औफिस जाते थे. वह घूमनाफिरना, खाना, दूध पीना, सोना सब काम मेरे साथ ही करता था पर पौटी साफ करवाने के लिए अपनी दादी को आवाज देता था.

एक दिन उस ने आवाज दी, ‘‘दादी, पौटी हो गई, आ कर साफ कर दो.’’ उस समय उस की दादी लेटी हुई थीं, बोलीं, ‘‘रनक, आज तो कमर में बहुत दर्द हो रहा है. कैसे आऊं?’’ तब रनक ने पूछा, ‘‘फिर पौटी कौन साफ करेगा?’’ दादी बोलीं, ‘‘झक मार कर उठना पड़ेगा.’’

उठीं और जा कर उस की पौटी साफ कर दी. तब रनक मेरे पास आ कर बोला, ‘‘दादी ने झक मार कर पौटी साफ कर दी.’’

एन के सक्सेना, भोपाल (म.प्र.)

केबल टीवी का डिजिटजाइजेशन : जनता का दिवाला

मेरे घर में 4 टैलीविजन हैं. एक केबल कनैक्शन से मात्र 200 रुपए में अभी तक मेरा काम आराम से चल रहा था. ठीक 1 मार्च को कई सारे मुख्य चैनल आने बंद हो गए. इस के बाद केबल वाला पेमैंट लेने आया और सैट टौप बौक्स लगवाने के लिए पूछने लगा. मैं ने सोचा लगवाना तो है ही, सो उस से कह दिया. वह बोला आप के यहां 4 टीवी हैं, लिहाजा 4,800 रुपए दे दें. अब हर माह आप को 600 रुपए किराया देना होगा. मैं ने कहा कि इस से अच्छा तो डिश लगवा ली जाए तो जवाब मिला कि वह भी 4 अलगअलग लगवानी पड़ेंगी और किराया भी हर माह कुछ ज्यादा ही देना पड़ेगा.

मैं ने कहा कि सैट टौप बौक्स की कीमत तो टीवी में 799 रुपए आ रही है. तो वह बोला कि आप अपनेआप खरीद लो. हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है. काफी नोकझोंक के बावजूद वह नहीं माना और हार कर मुझे 4,800 रुपए देने पड़े. अब हर माह मेरी जेब पर 400 रुपए महीने का अतिरिक्त भार पड़ गया. पिक्चर की क्वालिटी में किसी भी तरह का मुझे जरा भी फर्क महसूस नहीं हुआ. सिर्फ चैनल बढ़ गए. बढ़े हुए चैनलों में आधे से ज्यादा बकवास थे. यह कहानी मेरी ही नहीं बल्कि हर टीवी उपभोक्ता की है, जिस की जेब पर सरकार द्वारा अनावश्यक रूप से अतिरिक्त भार डाल दिया गया है.  हालत यह है कि एक औसत निम्न वर्ग के पास खाने को रोटी भले न हो, टैलीविजन जरूर मिल जाएगा. बहरहाल, मैं ने सोचा कि घर से बाहर निकल कर मालुमात तो करूं कि ऐसा मेरे साथ ही किया गया है या सभी के साथ हो रहा है. महल्ले में निकल कर मालूम किया तो मैं हैरान रह गया.

एक महिला ने बताया कि उस के यहां 9 सैट टौप बौक्स लगने थे. जब मैं ने कुल खर्चा पूछा तो औपरेटर बोला कि कैसी बात कर रही हो आंटी,?घर में भी कोई पैसे की पूछताछ करता है. और 9 बौक्स लगा दिए. बाद में मुझ से 21,600 रुपए लिए. जब मैं ने कहा कि इस का रेट तो 700 रुपए प्रति पीस है तो वह बोला कि आंटी, मैं ने आप को अपना मान कर बहुत बढि़या क्वालिटी के इंपोर्टेड बौक्स लगाए हैं. हां, महंगे तो हैं पर हैं बेहद बढि़या. इस के बाद वह बोला कि आंटी, प्रति बौक्स हर माह 450 रुपए की फीस देनी होगी, यानी हर माह 4,050 रुपए. इस से पूर्व हर माह कुल 1 हजार रुपए जाते थे.

मुझे उत्सुकता हुई कि देखूं, ऐसा कौन सा इंपोर्टेड विशेष सैट टौप बौक्स है जो इतना महंगा है. देखा तो बिलकुल वही था जो मेरे यहां 1,200 रुपए में लगा है. फर्क था केवल रंग का. मेरे यहां बिलकुल सफेद था और उस महिला के यहां पैरट ग्रीन कलर का. यानी 450 रुपए (वास्तविक कीमत इतनी ही है) का उपकरण 2,400 रुपए में, और कोई कहनेसुनने वाला नहीं.

सब से बड़ी बात यह है कि केबल औपरेटर न तो रसीद दे रहे हैं और न ही गारंटी कार्ड. मांगने पर साफ मना कर रहे हैं. कहीं पर भी शिकायत कर लीजिए, स्थानीय स्तर पर या केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में, कोई नतीजा नहीं निकलता. घूमफिर कर आना इन्हीं के पास पड़ता है. यानी मजबूरी व एकाधिकार का जबरदस्त फायदा उठाते हुए खुलेआम लूट. जिस से जो मन में आया उस से उतने पैसे ले लिए.

हमारे कौर्पोरेट जगत का यह हाल है कि यदि उस की कमाई में सूई की नोंक के बराबर भी फर्क आता है तो वह सरकार की ओर दौड़ कर घाटाघाटा चिल्लाने लगता है. फिर दोनों मिलबैठ कर कमाई के नएनए रास्ते खोज कर नएनए नुसखे अख्तियार करते रहते हैं. डिजिटलाइजेशन की कहानी भी कुछ ऐसी ही है.

टैलीविजन प्रसारण कारोबार की अर्थव्यवस्था के दो पहिए हैं, प्रसारणकर्ता व स्थानीय केबल औपरेटर. केबल औपरेटर ग्राहकों की संख्या की सही जानकारी न दे कर प्रसारणकर्ताओं व सरकारी राजस्व में डंडी मार रहे थे. ऐसे में सरकार पर दबाव बनाया गया और सरकार ने दूरसंचार नियामक प्राधिकरण यानी ट्राई को इस समस्या का हल खोजने के लिए लगा दिया.

ट्राई ने अगस्त 2010 में अपनी सिफारिशें सरकार को सौंपीं और सरकार ने बड़ा ऐतिहासिक कदम उठाते हुए तमाम लंबित महत्त्वपूर्ण विधेयकों को दरकिनार कर आननफानन दिसंबर 2011 में भारत में केबल टीवी के डिजिटलाइजेशन को अनिवार्य बनाने संबंधी एक विधेयक को संसद से पारित करा लिया. संसद में बगैर किसी बहस के एकमत से पारित ‘केबल टैलीविजन नैटवर्क (विनियमन) संशोधन विधेयक 2011’ में मुख्य बात केवल इतनी सी है कि देश के हर टैलीविजन उपभोक्ता को अपने हर टैलीविजन सेट पर सैट टौप बौक्स लगाना अनिवार्य होगा. संपूर्ण देश में इस की आखिरी मियाद मार्च 2015 मुकर्रर की गई है.

सरकार की मंशा तो यह भी है कि देश के सभी उपभोक्ताओं से के वाई सी यानी नो योर कस्टमर फार्म भरवा कर सारा डाटा कंप्यूटराइज कर दिया जाए. इस सारी कवायद में करोड़ों का खर्चा आएगा, जो सारा का सारा आम जनता से वसूला जाएगा. इस से सरकार को तो राजस्व मिल जाएगा पर आम जनता को क्या हासिल होगा, यह बात समझ से परे है.

चूंकि अपने देश में आयात होने वाले सैट टौप बौक्स की मात्रा 80 फीसदी है इसलिए प्रसारणकर्ता कंपनियों को इस से दोहरा लाभ हासिल हो रहा है. एक तो उन्हें तमाम शुल्कों में भारी रियायत दी गई है, दूसरे, अच्छा मुनाफा ले कर वे इसे स्थानीय केबल औपरेटरों को मुहैया करा रही हैं. इसी प्रकार स्थानीय केबल औपरेटर भी क्वालिटी व ऐक्टिवेशन के नाम पर 1 हजार से ले कर 4 हजार रुपए तक प्रति उपभोक्ता प्रति बौक्स वसूल रहे हैं.

सैट टौप बौक्स क्वालिटी के आ रहे हैं, जिस का फायदा औपरेटर उठा रहे हैं, पर हजारों रुपए खर्च करने के बाद भी आम जनता को बेहतर क्वालिटी व सारे चैनल देखने को नहीं मिल रहे. हर बौक्स में कोई न कोई कमी है, जिस का कोई भी समाधान औपरेटर नहीं करते. उलटा वहां भी केबल औपरेटर अपनी कमाई का जरिया बना रहे हैं यह कह कर कि आप अपना केबल वायर बदलवा लीजिए, वह काफी पुराना हो गया है, सिग्नल ठीक से नहीं पकड़ रहा है, इसीलिए चैनल साफ नहीं आ रहे हैं. प्रति टैलीविजन मासिक किराया अलग से बढ़ा दिया गया है. सब से बड़ी बात यह है कि इस संपूर्ण प्रक्रिया में केबल औपरेटरों की जेब से इकन्नी भी खर्च नहीं हो रही है.

विधेयक में आम जनता के हितार्थ एक शब्द भी नहीं कहा गया है. केबल औपरेटरों की मनमानी व एकाधिकार वाली स्थिति पर भी विधेयक मौन है. केबल औपरेटरों ने अपनेअपने इलाके बांट रखे हैं और एक इलाके में एक ही औपरेटर होता है. इलाके के नागरिक टैलीविजन पर अपने मनपसंद चैनल देखने के लिए पूरी तरह से अकेले एक औपरटर पर निर्भर हैं. उन के पास कोई भी विकल्प नहीं है. बेहद गौर करने वाली बात यह है कि विधेयक में प्रसारणकर्ताओं को केबल औपरेटरों के ब्लैकमेल व तानाशाही रवैए से पूर्ण नजात दिला दी गई है. केबल औपरेटर मनमाने ढंग से चैनल लगाते व गायब कर देते थे और चैनल लगाने के नाम पर प्रसारणकर्ताओं से मोटी रकम ऐंठते थे. केबल औपरेटरों की मनमानी से तंग आ कर ही बड़ेबड़े प्रसारणकर्ताओं ने सरकार पर दबाव बनाया और अपने हक में यह विधेयक लागू कराया.

बहरहाल, इस से केबल औपरेटरों को नुकसान नहीं बल्कि दोहरा फायदा हुआ है. इन दोनों पाटों के बीच असली नुकसान जनता का ही हो रहा है.

हर गांव में खुलेगा एटीएम

चालू वर्ष के अंत तक बैंकों की हर शाखा पर एटीएम मशीन होगी. वित्त मंत्री पी चिदंबरम का इस व्यवस्था को लागू करने पर सब से ज्यादा जोर है. वे रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए कोई ठोस पहल नहीं कर रहे हैं बल्कि उल्टे कुल आबादी के 5 प्रतिशत सरकारी कर्मचारियों का वेतन बढ़ा कर 95 फीसदी अन्य लोगों के लिए महंगाई बढ़ाने का रास्ता निकाल रहे हैं.

वे हर बैंक की हर शाखा पर ही नहीं, बल्कि हर गांव में एटीएम मशीन खुलवाना चाहते हैं. सरकार को गांव तक अपनी वित्तीय नीति का पैसा बैंकों के जरिए सीधे लाभार्थी को देना है इसलिए यह कदम उठाया जा रहा है. यही नहीं, हर परिवार के एक सदस्य का बैंक खाता होना अनिवार्य कर दिया गया है. इसलिए राष्ट्रीयकृत बैंकों को प्रत्येक शाखा पर एक एटीएम लगाने के आदेश दिए गए हैं.

दूरस्थ बसे जिस गांव की जनसंख्या 2 हजार होगी वहां बैंक की शाखा होगी और बैंक को एटीएम लगाना होगा. बैंकों को खाता खुलवाने के लिए अभियान चलाने के भी आदेश दिए गए हैं. बैंक किस तेजी से यह अभियान चला रहे हैं, इस का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले वित्त वर्ष में 85 लाख नए खाते खोले गए. खातों की संख्या करोड़ों में है और कुल परिवार 25 करोड़ के आसपास हैं.

एटीएम सुविधाजनक है और हर घर के नजदीक बैंक और एटीएम खुलने की योजना स्वागतयोग्य है लेकिन असली बात यह है कि इन बैंकों में कामकाज निरंतर होता रहे, इस के लिए ग्रामीणों की वित्तीय स्थिति में सुधार जरूरी है. गांव वालों की आर्थिक हालत ठीक होगी तो ही एटीएम का फायदा होगा वरना एटीएम बौक्स जंग खाते रहेंगे.

सरकारी कौर्पोरेट सेवा केंद्र वित्त वर्ष का बड़ा एजेंडा

सरकार निवेशकों को आकर्षित करने के लिए विशेष पहल कर रही है. वित्त वर्ष 2013-14 को इस एजेंडे में विशेष तरजीह दी गई है और उस के तहत कौर्पोरेट संबंधी शिकायतों के निस्तारण के लिए कौर्पाेरेट सेवा केंद्र खोला जा रहा है. इस कौल सैंटर के जरिए सरकार का प्रयास सूचनाओं का तेजी से प्रसार करना और उद्योगों की शिकायतों में कमी लाना है.

हमारी कारोबार संबंधी प्रक्रिया कुछ ज्यादा जटिल है. दुनिया में आसान कारोबार पर जारी विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, कारोबार संबंधी प्रक्रिया में 185 देशों में भारत का स्थान 132वां है. यही नहीं, विश्व मंच पर विकासशील देशों के तेजी से उभर रहे आर्थिक मंच ब्रिक्स में भी भारत सब से निचले पायदान पर है. ब्रिक्स के सदस्य देशों में भारत के अलावा ब्राजील, रूस और चीन हैं. इस से भी बड़ी चिंता की बात यह है कि भारत इस रिपोर्ट में अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान और नेपाल से भी निचले स्तर पर है. इस तरह की स्थिति से निबटने के लिए सरकार ने इस कौल सैंटर को खोलने की योजना बनाई है और इस का मकसद भारत को निवेश के लिए बेहतर स्थान बनाना है.

कौल सैंटर के जरिए कौर्पाेरेट और निवेशकों में ज्यादा से ज्यादा जागृति लाना है. साथ ही औनलाइन डिलीवरी के जरिए निवेश व कारोबार के क्षेत्र में पारदर्शिता बढ़ाना है. इस योजना के बाद देश का कारोबारी स्तर किस गति से बढ़ेगा, इस पर फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन यह यदि ईमानदार पहल है तो इस केंद्र को कंपनियों के कौल सैंटर की तुलना में कुछ अलग बनाना पड़ेगा.

कंपनियों के कौल सैंटर में शिकायत के बाद समस्या का समाधान नहीं होता है. कारण पूछो तो रटारटाया जवाब मिलता है, ‘शिकायत फौरवर्ड कर दी गई है’. शिकायत पर कार्यवाही हो रही है या नहीं, इस के लिए शिकायतकर्ता अंधेरे में रहता है. अच्छा होगा कि कौर्पोरेट सेवा केंद्र पर शिकायत पर की जा रही कार्यवाही की प्रगति की भी सूचना हो. आवश्यक टैलीफोन नंबर और पता मिल सके तो ज्यादा बेहतर होगा. यदि यह केंद्र भी मशीन बन कर काम करेगा तो लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकेगा.

 

गरीब की आड़ में दलालों की कमाई

हाल ही में 2 खबरें आई हैं जो बेहद चौंकाने वाली हैं. पहली खबर यह कि विश्व बैंक भारत के 7 गरीब राज्यों को गरीबों का स्तर सुधारने के लिए 20 अरब डौलर देगा. भारत में विश्व बैंक के कंट्री डायरैक्टर ओनो रुल का कहना है कि इन सभी सातों राज्यों में गरीबों का स्तर तेजी से गिर रहा है, इसलिए यह फैसला लिया गया कि इस राशि का

60 प्रतिशत इन राज्यों में राज्य सरकार की विकास योजनाओं पर खर्च किया जाएगा और 30 प्रतिशत राशि इन में जो राज्य ज्यादा गति करेगा उसे दी जाएगी. रुल का कहना है कि इन राज्यों में 2010 में गरीबी का स्तर 29.8 प्रतिशत था जिसे 2030 में 5.5 प्रतिशत के स्तर पर लाए जाने का लक्ष्य रखा गया है. उन का कहना है कि जिन राज्यों के लिए यह पैसा स्वीकृत किया गया है उन में बिहार, छत्तीसगढ़, ?ारखंड, ओडिशा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान शामिल हैं.

दूसरी खबर यह है कि वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने अंधाधुंध कर्जमाफी के लिए बैंकों को फटकार लगाई है और कर्जमाफी के संबंध में रिपोर्ट देने को कहा है. असल में सरकार को संदेह है कि कर्जमाफी की आड़ में करोड़ों रुपए के घोटाले हो रहे हैं. निश्चित रूप से बैंक जो भी कर्ज माफ करेंगे वे सरकार के दिशानिर्देश के बिना संभव नहीं हैं और सरकारी नीति के अनुसार, कर्ज गरीबों व किसानों का ही माफ किया जाना है लेकिन बैंक कई मामलों में उद्योगों व अन्य क्षेत्र के कर्ज को भी माफ कर रहे हैं. यानी गरीब के लिए दी गई मलाई को मिलीभगत से मोटी खाल के लोग चाट रहे हैं.

गौर करने की बात यह है कि गरीब के लिए भेजा गया पैसा कौनकौन खा रहा है. कर्जमाफी का लाभ उसे मिल रहा है या उस के नाम पर कोई अन्य मजे ले रहा है. विश्व बैंक का यह पैसा कितने स्तर तक गरीबी को समाप्त करेगा, यह सुनिश्चित करने के लिए भ्रष्टाचार पर रोक जरूरी है.

 

शेयर बाजार में धूम

शेयर बाजार में इस बार धूम मची रही. निवेशकों के भारी उत्साह के बल पर बौंबे स्टौक ऐक्सचेंज यानी बीएसई का सूचकांक नए स्तर की तरफ उछाल मारता रहा.

15 अप्रैल से शुरू हुए सप्ताह के दौरान सूचकांक करीब 1100 अंक चढ़ गया. मंगलवार को सूचकांक 387 अंक उठा जो 7 माह में 1 दिन की सर्वाधिक तेजी रही. अगले ही दिन बाजार में 285 अंक की तेजी आई और सूचकांक 19 हजार अंक के मनोवैज्ञानिक स्तर को पार कर गया. इस से पहले सप्ताह के दौरान बाजार में मायूसी का माहौल था और शुक्रवार को तो बाजार 300 अंक लुढ़क गया था जो फरवरी के बाद 1 दिन की सर्वाधिक गिरावट रही.

अचानक बाजार में आई तेजी की वजह कंपनियों के तिमाही परिणामों के सकारात्मक रहने के अलावा निर्यात को बढ़ावा देने के लिए सरकार की नीतियों और इस दिशा में उठाए जा रहे कदमों को बताया जा रहा है लेकिन असली वजह महंगाई के आंकड़े में गिरावट रहने और बैंक ब्याज दरों में कटौती किए जाने की उम्मीद रही है.

विश्लेषक कहते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम में आई गिरावट ने भी बाजार को सहारा दिया है. सोने की कीमत में लगातार गिरावट का रुख बना हुआ है और निवेशक सोने के बजाय शेयर बाजार की तरफ बढ़ रहे हैं, इसलिए बाजार में तेजी है. कारोबारियों को उम्मीद है कि आने वाले दिनों में बाजार में स्थिरता या तेजी का रुख जारी रहेगा. बाजार का रुख बहुतकुछ बजट सत्र में संसद के चलने पर भी निर्भर करेगा.

 

पाठकों की समस्याएं

मैं संयुक्त परिवार में रहने वाली 2 बेटों की 32 वर्षीय मां हूं. छोटी उम्र में मेरी शादी हो गई थी. मैं आजाद खयालों की हूं, पुरुष दोस्तों का साथ मुझे बेहद पसंद आता है. पति व परिवार वाले पुराने विचारों के हैं, इसलिए मुझ पर गलत इलजाम लगाते हैं, मुझे चरित्रहीन कहते हैं, जिस से मेरे बच्चे भी मुझे गलत समझते हैं. पति से कहती हूं कि या तो अलग घर लें या तलाक दें पर वे सुनते ही नहीं. मेरा इस घर में दम घुटता है. सलाह दीजिए, क्या करूं?

आप का आजाद खयाल होना आप की जिंदगी में जहर घोल रहा है. आप समझ लीजिए कि औरत की एक मर्यादा होती है, पति, बच्चों व ससुराल वालों से निभा कर चलना होता है. आप के स्वभाव का खिलंदड़ापन परिवार में अशांति घोल रहा है. बच्चे भी आप से विमुख हो रहे हैं. आप के पति बहुत ही बैलेंस्ड हैं जो आप की इस गलत हरकत को झेल रहे हैं, उस पर भी आप या तो अलग रहना चाहती हैं या तलाक चाहती हैं जो आप के पति नहीं चाहते. आजादी को हवा देने के लिए ही आप अलग रहना चाहती हैं. संयुक्त परिवार के बंधन आप को रास नहीं आ रहे.

क्या आप ने बच्चों के बारे में सोचा है कि वे आप से क्या सबक लेंगे? स्वभाव आप को ही बदलना होगा. पारिवारिक मर्यादा व जिम्मेदारियों को समझते हुए पति व बच्चों की ओर ज्यादा ध्यान देना होगा. कमोबेश हर परिवार में महिला घर को संवारती है न कि घर से निकल कर दोस्तों के साथ समय बिताती है. पति से तलाक लेने की सोच रही हैं, जरा सोचिए कि तलाक के बाद स्त्री की दशा क्या होती है. उस समय तथाकथित दोस्त भी आप का साथ न देंगे. घर वालों से निभा कर चलेंगी और परिवार का अंग बन कर रहेंगी तभी ठीक रहेगा.

मैं 30 वर्षीय अविवाहित युवक हूं. मेरी शादी की बात चल रही है. मेरा सैक्स करने का बहुत मन करता है. मैं हफ्ते में 2-3 बार हस्तमैथुन कर लेता हूं. इस में आनंद तो है पर क्या इस से मुझे कमजोरी आ जाएगी? क्या मेरे लिए शादी के बाद पार्टनर से सैक्स करना ठीक रहेगा?

अधूरे ज्ञान के कारण आप के मन में सवाल उठ रहे हैं. हस्तमैथुन करने की आदत के कारण आप को शादी के बाद कोई समस्या नहीं आएगी, कोई कमजोरी नहीं होगी. यह स्वाभाविक प्रक्रिया है. इसलिए यह भ्रम मन से निकाल दें. विवाह होने तक संयम रखें.

 मैं 25 वर्षीय अविवाहित हूं. वर्षों से एक लड़की से प्यार करता हूं. वह भी मुझ से बहुत प्यार करती है. मेरे घर वाले लड़की को पसंद तो करते हैं पर हमारी जाति और गोत्र एक ही होने से वे विवाह के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं. हालांकि हमारे गांव अलगअलग हैं, आप ही कोई रास्ता सुझाइए.

कुछ स्थानों पर विवाह के नियम ऐसे ही होते हैं. आप दोनों बालिग हैं. अगर आप चाहें तो कोर्ट मैरिज भी कर सकते हैं परंतु इस का परिणाम क्या होगा, यह आप से बेहतर कौन जान सकता है. क्या इस सब को सहने का दमखम रखते हैं आप. अच्छा तो यही होगा कि आप किसी प्रकार घर वालों को राजी कर लें. घर में अगर कोई ऐसा हो जो आप का साथ दे सकता हो तो उस के द्वारा घर वालों को समझाने का प्रयास करें. हो सकता है कुछ बात बन जाए. हर पहलू पर सोचें और फिर कोई फैसला करें.

मैं 23 वर्षीय अविवाहित युवती हूं. कभीकभी सैक्स करने का इतना मन करता है कि मैं शब्दों में नहीं बता सकती. उस दौरान ऐसा लगता है कि चाहे जो मर्द मिल जाए उसे पकड़ कर खींच लूं. पर मैं अपनी मर्यादा को बखूबी समझती हूं. कैसे समझाऊं अपनेआप को? कुछ उपाय बताएं?

यह अच्छी बात है कि आप अपनी मर्यादा को समझती हैं. इस उम्र में इस तरह की फीलिंग स्वाभाविक है. जब भी इस तरह का मन में खयाल आए तो अपनेआप को कंट्रोल कीजिए. अच्छीअच्छी किताबें पढि़ए. आमतौर पर खाली समय में ऐसे खयाल आते हैं. किसी न किसी रूप में अपनेआप को व्यस्त रखें. कोशिश करें इस तरह के खयाल मन में न आएं. इस के बावजूद अगर आते हैं तो अपनी किसी सहेली से इन बातों को शेयर करें. उस से बातें करें ताकि आप का मन हलका हो सके और धीरेधीरे इस तरह के खयाल मन से दूर हो जाएं. जहां तक किसी मर्द को खींच लेने की बात है तो ऐसी गलती भूल कर भी न करिएगा वरना जिंदगी बरबाद होते देर न लगेगी.

मैं 28 वर्षीय अविवाहित युवक हूं. बहुत अच्छी कंपनी में अच्छे पद पर कार्यरत हूं. बचपन से ही समलिंगी होना मुझे बहुत अच्छा लगता है, और तो और, टीनएजर्स भी मुझे बहुत आकर्षित करते हैं.  हाल ही में मैं कंपनी के काम से गोआ गया तो वहां भी मुझे ऐसे लोग मिल गए और हम ने जिंदगी का भरपूर मजा भी लिया. मैं जानना यह चाहता हूं कि मेरी शादी होने वाली है. क्या मेरे इस समलिंगी होने से विवाहित जीवन पर असर पड़ेगा? अपना ध्यान हटाने की कोशिश बहुत करता हूं पर सफल नहीं हो पाता, क्या करूं?

दरअसल अब तो समलैंगिकता कुछ ज्यादा ही सुनाई देती है, आप स्वयं इसे कोई अजूबा न समझें पर यह भी तय है कि इस से बाहर निकलने का प्रयास अवश्य करें. अपनी इच्छाशक्ति से कुछ भी किया जा सकता है. इस का विवाहित जीवन पर भावनात्मक रूप से असर जरूर पड़ेगा, पत्नी की ओर से सोचिए कि क्या वह आप को किसी और के साथ पसंद करेगी? वैसे शादी होने के बाद हो सकता है स्वयं ही यह आदत छूट जाए. फिर भी प्रयास कीजिए इस से नजात पाने की, तभी विवाहित जीवन सुखी रहेगा.           

-कंचन

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