सत्ता अगर वाकई बंदूक की नली से मिलती, जैसा कि नक्सली मानते हैं, तो दुनियाभर में राज आतंकियों का होता. लोकतांत्रिक व्यवस्था में खामियां और कमजोरियां हैं और अब तो शोषण व तानाशाही भी लोकतंत्र की ओट में होने लगे हैं. लेकिन हिंसक और सशस्त्र विरोध यानी नक्सलवाद इस का हल नहीं है, न ही सरकार का हिंसक जवाब इस का हल है.

नक्सलवाद की उत्पत्ति स्थान पश्चिम बंगाल राज्य के चुनाव प्रचार में इस बार नदारद वामपंथियों की जगह रामपंथी बेखौफ हो कर जयजय श्रीराम का नारा लगाते नजर आए. इस राज्य में पहले कभी किसी चुनाव में धर्म, हिंदुत्व या तुष्टिकरण का मुद्दा बहुत बड़े पैमाने पर नहीं हो रहा था तो इस की अपनी वजहें भी थीं. इस में भी कोई शक नहीं रह गया है कि यह विधानसभा चुनाव पश्चिम बंगाल से वामपंथ को औपचारिक विदाई देगा जिस का राजनीतिक तौर पर खत्म होना एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक घटना भी होगी. वामपंथ ने कभी पश्चिम बंगाल को जमींदारों के शोषण से मुक्त कराए बिना किसी भेदभाव के किसानों और मजदूरों सहित आम लोगों की बदहाली भी दूर की थी.

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नई पीढ़ी वामपंथ के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानती, लेकिन नक्सलियों के बारे में जरूर उसे सम?ा आ रहा है कि चंद सिरफिरे माओवादी लोग मुद्दत से हथियारों के दम पर सत्ता हथिया लेने को आएदिन हिंसा करते रहते हैं. एक सही बात गलत तरीके से कही जाए तो उस के माने खत्म होने लगते हैं. यही नक्सलियों के साथ हो रहा है जिन्हें माओवादी भी कहा जाता है. इन का मकसद जो भी हो हिंसा के जरिए अपनी मौजूदगी दर्ज कराना जरूर एतराज व चिंता की बात है जिस से फायदा किसी को नहीं होता और न ही इस से उन का मकसद पूरा होने वाला है.

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