सत्ता अगर वाकई बंदूक की नली से मिलती, जैसा कि नक्सली मानते हैं, तो दुनियाभर में राज आतंकियों का होता. लोकतांत्रिक व्यवस्था में खामियां और कमजोरियां हैं और अब तो शोषण व तानाशाही भी लोकतंत्र की ओट में होने लगे हैं. लेकिन हिंसक और सशस्त्र विरोध यानी नक्सलवाद इस का हल नहीं है, न ही सरकार का हिंसक जवाब इस का हल है.

नक्सलवाद की उत्पत्ति स्थान पश्चिम बंगाल राज्य के चुनाव प्रचार में इस बार नदारद वामपंथियों की जगह रामपंथी बेखौफ हो कर जयजय श्रीराम का नारा लगाते नजर आए. इस राज्य में पहले कभी किसी चुनाव में धर्म, हिंदुत्व या तुष्टिकरण का मुद्दा बहुत बड़े पैमाने पर नहीं हो रहा था तो इस की अपनी वजहें भी थीं. इस में भी कोई शक नहीं रह गया है कि यह विधानसभा चुनाव पश्चिम बंगाल से वामपंथ को औपचारिक विदाई देगा जिस का राजनीतिक तौर पर खत्म होना एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक घटना भी होगी. वामपंथ ने कभी पश्चिम बंगाल को जमींदारों के शोषण से मुक्त कराए बिना किसी भेदभाव के किसानों और मजदूरों सहित आम लोगों की बदहाली भी दूर की थी.

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नई पीढ़ी वामपंथ के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानती, लेकिन नक्सलियों के बारे में जरूर उसे सम?ा आ रहा है कि चंद सिरफिरे माओवादी लोग मुद्दत से हथियारों के दम पर सत्ता हथिया लेने को आएदिन हिंसा करते रहते हैं. एक सही बात गलत तरीके से कही जाए तो उस के माने खत्म होने लगते हैं. यही नक्सलियों के साथ हो रहा है जिन्हें माओवादी भी कहा जाता है. इन का मकसद जो भी हो हिंसा के जरिए अपनी मौजूदगी दर्ज कराना जरूर एतराज व चिंता की बात है जिस से फायदा किसी को नहीं होता और न ही इस से उन का मकसद पूरा होने वाला है.

एक बार फिर इन नक्सलियों ने हिंसा के जरिए अपनी बात चिरपरिचित अंदाज में कही जिस से लगा कि नक्सली कोई भटके हुए युवा या भ्रमित बुद्धिजीवी नहीं हैं जो किसी धौंसधपट से डर जाएंगे या फिर बातों के बताशे फोड़ने वालों के ?ांसे में आ जाएंगे. बात वाकई निराशा व हताशाजनक है कि नक्सली आंदोलन जिस वनवे से हो कर गुजरा है उस पर से उन की वापसी की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती. पहले एक नजर ताजे नक्सली हमले पर डाली जानी जरूरी है जो नक्सलियों की कार्यशैली भी दिखाती है. बीजापुर-सुकमा बौर्डर, 3 अप्रैल, 2021 नक्सली बहुत चतुर और शातिर होते हैं, यह बात केंद्र और राज्य सरकारों सहित छत्तीसगढ़ में तैनात सीआरपीएफ के जवानों व स्थानीय पुलिस वालों से भी छिपी नहीं है. नक्सली जो कहते हैं वह आमतौर पर करते हैं और जो नहीं कहते वह जरूर करते हैं. ऐसा ही कुछ वारदात के दिन 3 अप्रैल को बस्तर अंचल के बीजापुर और सुकमा जिलों की सीमाओं पर हुआ. उस दिन सुरक्षा बलों को नक्सलियों के छिपे होने की खबर मिली थी. नक्सलियों की तलाश के लिए अलगअलग कैंपों से कोई 3 हजार जवान इकट्ठा हो कर टेकलगुडा की तरफ नक्सलियों की तलाश में निकल पड़े. नक्सलियों की लोकेशन पता करने के लिए सुरक्षा बलों ने ड्रोन का सहारा लिया था जिस को भांपते नक्सलियों ने अपनी दिशा बदलते दूसरा रास्ता पकड़ लिया.

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यह पूरा इलाका नक्सलियों का गढ़ है जहां आमतौर पर बाहरी लोग नहीं आते. बीजापुर और सुकमा के चारों तरफ घने दुर्गम जंगल हैं जिन के चप्पेचप्पे से नक्सली बेहतर तरीके से वाकिफ हैं. दोनों पक्ष एकदूसरे की टोह लेते अपनी रणनीति बनाते, बदलते रहे. दोनों को एकदूसरे की ताकत का सटीक अंदाजा नहीं था. दोपहर के 11 बजे नक्सलियों ने सुकमा-बीजापुर के बौर्डर पर स्थित गांव जोनागुड़ा के पास जवानों पर हमला कर दिया. यह जगह सुरक्षाबलों के बेस कैंप तरेम से महज 15 किलोमीटर दूर है. यह लड़ाई पूरी तरह रामायण और महाभारत सीरियलों की तरह मायावी सी थी जिस में नक्सली ऊपर पहाडि़यों पर थे और जवान नीचे मैदान में थे. नक्सलियों की संख्या 250 के लगभग थी, तो जवानों की संख्या तकरीबन 2,000 थी. दोनों पक्ष आधुनिक हथियारों से लैस थे.

शुरुआत नक्सलियों ने गोलियां दागने से की. जवान इस अप्रत्याशित हमले से सकपका गए और छिपने की जगह व ओट ढूंढ़ने लगे जिस से गोलीबारी का जवाब दिया जा सके. उन के लिए यह एक अहम औपरेशन था जो अगर कामयाब हो जाता तो नक्सलियों की रीढ़ उन के ही गढ़ में टूट जाती और एक बड़ी कामयाबी उन के हिस्से में आती. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया क्योंकि नक्सलियों ने उन्हें चौतरफा घेर रखा था जो 3 तरफ से फायरिंग कर रहे थे. रौकेट लौंचर का इस्तेमाल भी उन्होंने किया. हालांकि सुरक्षा बलों के जवान 2 किलोमीटर क्षेत्र में फैले हुए थे लेकिन जल्द ही वे इस में फंसे साबित हो गए. बिखरे होने के चलते भी उन्हें नुकसान उठाना पड़ा. इस के बाद भी वे पूरी हिम्मत व बहादुरी से लड़े और 5 घंटों तक नक्सलियों से जू?ाते रहे.

नक्सलियों की तरफ से इस मुठभेड़ का संचालन और नेतृत्व कुख्यात खूंखार नक्सली कमांडर मांडवी हिडमा कर रहा था जो माओवादियों की पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी यानी पीएलजीए बटालियन नंबर 1 का लीडर भी है. कई खूबियों वाला हिडमा एक गैरमामूली शख्सियत का मालिक है. (देखें बौक्स). शाम के धुंधलके के बाद जब अघोषित युद्ध विराम हुआ तो दोनों पक्ष अपनेअपने लड़ाकों की लाशें बीनने लगे. सुरक्षाबलों के 24 जवानों को बीजापुर अस्पताल ले जाया गया और 7 को इलाज के लिए रायपुर रवाना किया गया. नक्सली भी अपने मृत व घायल साथियों को ट्रैक्टरों में लाद कर चलते बने लेकिन जातेजाते वे एक जवान राकेश्वर सिंह मन्हास को बंधक बना कर साथ ले गए जिसे उन्होंने 5 दिन बाद सहीसलामत रिहा कर दिया.

इस भीषण मुठभेड़ में 24 जवान मारे गए. नक्सलियों ने जातेजाते, आदत के मुताबिक, मृत जवानों के हथियार इकट्ठा किए और उन के जूते वगैरह भी उतार कर ले गए. बाद में सरकार की तरफ से 12 नक्सलियों के ढेर होने का दावा किया गया जिन में वरदी पहने एक महिला भी थी. एक दिलचस्प बात मुठभेड़ के बाद यह सामने आई कि नक्सली अपनी एक खास और अनूठी किस्म की रणनीति, जिसे रिवाज भी कहा जा सकता है, के तहत हर साल 20 फरवरी से 25 अप्रैल तक सुरक्षा बलों पर हमला जरूर करते हैं. 3 अप्रैल के पहले उन्होंने 23 मार्च को भी छत्तीसगढ़ के ही नारायणपुर में सुरक्षा बलों से भरी एक बस को बारूदी सुरंग में विस्फोट कर उड़ा दिया था जिस में 5 जवान मारे गए थे और 15 के लगभग घायल हो गए थे. मारे गए जवानों की लाशें नक्सलियों ने पहाड़ी पर ढेर बना कर रखी थीं और वे वहीं मौजूद थे पहाड़ी पर.

जगहजगह गोलियां, जवानों की लाशें और खून के धब्बे थे. वहां टहल रहे नक्सलियों की मंशा निश्चितरूप से यह जताने की थी कि यहां किसी सरकार का नहीं, बल्कि उन का एकछत्र राज है. यह बात बंधक बनाए गए सीआरपीएफ के कोबरा कमांडो राकेश्वर सिंह की रिहाई के दिन 9 अप्रैल को भी साबित हुई थी जिसे उन्होंने समारोहपूर्वक रिहा किया था. अपनी ताकत और पहुंच का एहसास कराते नक्सलियों ने कुछ शर्तें भी रखीं थीं, मसलन रिहाई मध्यस्थों और मीडियाकर्मियों की मौजूदगी में की जाएगी. ये मध्यस्थ भी बस्तर और छत्तीसगढ़ की नामीगिरामी हस्तियां थीं जिन में पद्मश्री से सम्मानित धर्मपाल सैनी और गोंडवाना समाज के मुखिया तेलम बोरेया के नाम उल्लेखनीय हैं.

बीजापुर के 2 पत्रकार मुकेश चंद्राकर और गणेश मिश्रा भी हजारों लोगों के साथ मौजूद थे. नक्सलियों ने सरकार के साथ क्या डील की थी, इस का पूरा खुलासा शायद ही कभी हो लेकिन घोषिततौर पर उन्होंने कुंजाम सुक्का नाम के आदिवासी की रिहाई की मांग की थी जो पूरी हुई. इस आदिवासी को सुरक्षा बलों ने मुठभेड़ के दौरान अपने कब्जे में ले लिया था. यह मुठभेड़ 2 देशों के युद्ध सरीखी थी जिस में सरहद पर सैनिक जीजान से लड़ रहे होते हैं, इसी तरह फिल्मी तर्ज पर राकेश्वर सिंह और कुंजाम सुक्का की अदलाबदली हुई. यानी, इस हाथ दे और उस हाथ ले. दिलचस्प इतिहास कुंजाम सुक्का की रिहाई की मांग से नक्सलियों ने एक तीर से कई निशाने साधे जिन में पहला यह जताना था कि अर्धसैनिक बल आदिवासियों के हितैषी नहीं हैं जो अकसर बेगुनाह आदिवासियों को प्रताडि़त और आदिवासी औरतों का यौन शोषण किया करते हैं.

दूसरे, इस से वे यह साबित करने में भी कामयाब रहे कि नक्सली ही आदिवासियों के असल हमदर्द हैं. यह बात सिरे से खारिज नहीं की जा सकती क्योंकि नक्सली इलाकों में जहां अर्धसैनिक बल तैनात हैं वहां ऐसा आएदिन होता रहता है. दरअसल, इस गोरखधंधे को सम?ाने के लिए नक्सली इतिहास को सम?ाना जरूरी है जिस की नींव 60 के दशक में पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के गांव नक्सलबाड़ी में रखी गई थी. इसीलिए माओवादियों को नक्सलवादी कहा जाने लगा. आजादी के बाद इस राज्य में कांग्रेस सत्ता में आई थी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी विपक्षी दल था.

संपन्न सवर्ण परिवारों में जन्मे चारू मजूमदार और कानू सान्याल तब युवा और क्रांतिकारी कम्युनिस्ट नेता हुआ करते थे. इन दोनों ने साल 1967 में खुद को कम्युनिस्ट पार्टी से अलग कर अपनी विचारधारा वाले लोगों को साथ ले कर सरकार के खिलाफ सशस्त्र क्रांति का ऐलान कर उस पर अमल करना भी शुरू कर दिया था. तब इन के प्रमुख साथी कन्हाई चटर्जी और जंगल सांथाल जैसे दर्जनों युवा हुआ करते थे. ये और इन के जैसे सभी जनूनी युवाओं के रोलमौडल आधुनिक चीन के निर्माता मशहूर कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग थे. नक्सलवादियों का स्पष्ट रूप से यह मानना था और आज भी है कि भारतीय मजदूर और किसानों की बदहाली व दुर्दशा के लिए सरकार की नीतियांरीतियां जिम्मेदार हैं. इस न्यायहीन और दमनकारी दबदबे को हथियारों के दम पर ही समाप्त किया जा सकता है जिस के चलते शासन और कृषि तंत्र पर उच्चवर्ग का कब्जा हो गया है.

निश्चितरूप से यह बात गलत कहीं से नहीं थी लेकिन सत्ता बंदूक की नोंक से ही हासिल की जा सकती है, यह एक खतरनाक खयाल था. न केवल पश्चिम बंगाल बल्कि तब पूरे देश में दबदबा सवर्ण शोषकों और जमींदारों का ही था जो किसानों व मजदूरों से गुलामों सरीखा बरताव करते थे और सरकार में भी यही थे. यह भी सच है कि लंबी गुलामी से आजाद हुए देश में लोकतंत्र की स्थापना से रातोंरात किसी चमत्कार की उम्मीद करना एक बेकार की बात थी. माओ शक्ति के पुजारी और हिंसा के हिमायती थे. उन के दर्शन में कार्ल मार्क्स और व्लादिमीर लेनिन का मिश्रण था जो मूलरूप से पूंजीवाद और धर्मविरोधी था और शोषितों को उन के हक दिलाने की वकालत करता था, फिर इस के लिए रास्ता कोई भी चुनना पड़े, इस पर उन के कोई स्पष्ट विचार नहीं थे. माओ ने हिंसा का रास्ता चुना लेकिन किसानों व मजदूरों को प्राथमिकता में रखा. उन का मानना था कि क्रांति गांवदेहातों से आएगी.

तभी वंचितों और शोषकों को बराबरी के हक मिलेंगे. तब न केवल चीन में, बल्कि दुनियाभर के कम्युनिस्टों में माओ का साहित्य उसी तरह पढ़ा व माना जाता था जैसे भारत में रामायण व गीता पढ़े जाते हैं. चारू मजूमदार और कानू सान्याल के अनाम संगठन ने कभी किसी विरोध की परवा नहीं की और माओ के रास्ते पर चल पड़े. देखते ही देखते उन का विस्तार और प्रभाव ओडिशा व आंध्र प्रदेश, अभिवाजित बिहार के ?ारखंड, मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ इलाके (आज छत्तीसगढ़ अलग राज्य है) में पसर गया. इन्हें इन आदिवासी बाहुल्य इलाकों से उम्मीद के मुताबिक समर्थन और सहयोग मिला जो आज के नक्सलियों को भी बदस्तूर मिल रहा है. साल 1969 में पहली दफा नक्सलियों ने भूमि अधिग्रहण को ले कर आवाज उठाई. उन का कहना था कि जमीन उस की ही हो जो उस पर खेती कर रहा है. यह वह दौर था जब 90 फीसदी जमीनों पर जमींदारों,

दबंगों, सवर्णों और रसूखदारों का कब्जा था. गरीब, दलित, आदिवासी और पिछड़े तबके के लोग खेतखलिहानों में उन की गुलामी व चाकरी करने को मजबूर हुआ करते थे क्योंकि वे हर लिहाज से कमजोर थे और उन में जागरूकता भी नहीं थी. उस मांग से नक्सलियों को और भी समर्थन मिला और उन के द्वारा की जाने वाली हिंसा, जो मूलतया शोषकों के खिलाफ होती थी, बढ़ने लगी और बड़ी तादाद में सामाजिक न्याय के लिए आदिवासी युवा नक्सली संगठनों में शामिल होने लगे, जिन का बाकायदा ब्रेनवाश किया जाता है. साल 1972 में पुलिस हिरासत में चारू मजूमदार की मौत हो गई और कानू सान्याल ने 23 मार्च, 2010 में आत्महत्या कर ली. लेकिन तब तक नक्सली आंदोलन शबाब पर आ चुका था और कांग्रेस सरकार तमाम कोशिशों के बाद भी उसे खत्म नहीं कर पाई. धीरेधीरे नक्सली कई गुटों और दलों में बंट गए. वे अपनी सामानांतर सरकार भी चला रहे हैं जिस में अदालतें भी लगती हैं, पंचायतें भी होती हैं और सांस्कृतिक आयोजन भी होते हैं.

जो भी सरकारी मुलाजिम या दबंग आदिवासियों को तंग करता है या घूस मांगता है, उसे ये ‘न्यायप्रिय नक्सली बख्शते नहीं. 11 राज्यों में पसरे रैड कौरीडोर या लाल कौरिडोर के कोई 90 जिलों में आज भी नक्सली हुकूमत ही चलती है. यह रैड कौरिडोर कर्नाटक से शुरू होता है और आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ से होते हुए ?ारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल से नेपाल तक विस्तार ले चुका है. सत्ता दिलाने में भी अहम रोल नक्सली कभी चुनावी और सक्रिय राजनीति में सीधे भागीदारी नहीं करते. लेकिन सत्ता दिलाने में उन का अहम रोल रहता है. पश्चिम बंगाल के चुनावप्रचार में हर किसी ने इस बात का जिक्र किया कि यहां वामपंथियों ने लगातार 34 साल तक शासन किया था. जान कर हैरानी होती है कि इस बार 2021 के चुनाव में रामपंथियों ने कई जगह खुलेआम यह कहते वोट मांगे कि इस बार वाम के नहीं, बल्कि राम के नाम पर वोट दो. आरएसएस और भाजपा को काफी पहले सम?ा आ गया था कि नक्सल आंदोलन के दौर में सीपीएम को सत्ता इन्हीं नक्सलियों के दम पर मिली थी.

1977 के चुनाव में ज्योति बसु के नेतृत्व में वामपंथियों ने 294 में से रिकौर्ड 231 सीटें जीत कर कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया था. तब ज्योति बसु अपनी घोषणाओं के जरिए लोगों को अप्रत्यक्षरूप से यह भरोसा दिलाने में कामयाब रहे थे कि नक्सलियों की मांगें पूरी की जाएंगी. यह अघोषित वादा उन्होंने पूरी शिद्दत से निभाया भी था जिस के चलते 34 साल कम्युनिस्ट राज वहां रहा. उसी दौर में जमींदारों, साहूकारों और सूदखोरों का वर्चस्व भी सरकारीतौर पर खत्म किया गया था. जमींदारों के कब्जे वाली लाखों एकड़ जमीन भूमिहीन किसानों को बांटी गई थी. इस से 56 फीसदी दलित आदिवासियों को फायदा हुआ था. औपरेशन बर्गा के तहत बंटाईदारों के हित साधे गए थे जिस के चलते कोई 15 लाख बंटाईदारों को 11 लाख एकड़ जमीन मिली थी. लेकिन ज्योति बसु के बाद मुख्यमंत्री बने बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अति उत्साह में आ कर वामपंथी सरकारों, जो नक्सलवाद की देन थे, से तोबा कर ली थी. नतीजतन, 2011 के चुनाव में वे और सीपीएम दोनों खारिज हो गए थे. पूंजीपतियों और उद्योगपतियों से उन की जरूरत से ज्यादा मेलमिलाप को पश्चिम बंगाल की जनता व नक्सलियों ने एक आशंका व खतरे की शक्ल में लिया था जिस का पूरा फायदा ममता बनर्जी को मिला था.

जो उस समय भाजपा समर्थक मानी जातीं थीं. केंद्र सरकार से है लड़ाई 3 अप्रैल की मुठभेड़ के तुरंत बाद असम का चुनावी दौरा बीच में छोड़ गृहमंत्री अमित शाह रायपुर और जगदलपुर पहुंचे तो उन का चेहरा लटका हुआ था. मीडिया के सामने जरूर वे बेहद आक्रामक तेवर यह कहते दिखाते रहे कि ‘जवानों की शहादत बेकार नहीं जाएगी और नक्सलियों से लड़ाई अब निर्णायक दौर में है, तसवीर बदल चुकी है और अब हम हावी हैं.’ जबकि हकीकत एकदम उलट है और निराशाजनक भी है कि अभी भी नक्सली ही हावी हैं. उन्हें उखाड़ फेंकने की बातें इंदिरा गांधी भी करती थीं और मनमोहन सिंह की सरकार भी करती थी लेकिन जब भी कोई बड़ा कदम सरकार ने उठाया तो नक्सलियों ने भी बड़ी वारदात को ही अंजाम दिया. हर हमले के बाद नक्सली और मजबूत हो कर उभरे. इस पर हर कोई मानता है कि अर्धसैनिक बलों की तैनाती इस समस्या का हल नहीं. उलटे उसे और बढ़ावा देने वाली बात है. इन दिनों भोपाल में रह रहीं 55 वर्षीय पार्वती नाग (आग्रह पर बदला हुआ नाम) साल 1995 से ले कर 2010 तक बीजापुर के नजदीक भैरमगढ़ में सरकारी नौकरी में थीं. उन के मुताबिक आदिवासी समुदाय नक्सलियों पर भरोसा करता है और जवानों की गतिविधियों की यथासंभव जानकारी उन तक पहुंचाता है.

उलट इस के, नक्सली गतिविधियों की जानकारी अपवादस्वरूप ही अर्धसैनिक बलों तक पहुंचती है. जबकि आदिवासियों को इन के अधिकांश मूवमैंट्स की जानकारी रहती है. पार्वती बताती हैं, ‘‘तब यानी 90 के दशक में हम आदिवासी युवाओं में नक्सलियों के प्रति जिज्ञासा और सहानुभूति दोनों रहती थी और हम नौकरीपेशा युवा उन की आर्थिक मदद भी अपनी हैसियत के मुताबिक करते थे. ‘‘बाद में बात उस वक्त बिगड़ने लगी जब नक्सली ?ाठे शक की बिना पर आदिवासियों को पुलिस का मुखबिर सम?ा उन की हत्या करने लगे और पुलिस व अर्धसैनिक बल भी इसी मुखबिरी के शक में निर्दोष आदिवासियों को परेशान करने लगे. इस से आदिवासी 2 पाटों के बीच में पिसने लगे. लेकिन इस के बाद भी आदिवासी चाहते यह रहे कि नक्सली आंदोलन सफल हो जिस से उन की जिंदगी आसान हो सके.’’ इस दौरान सरकारें आईं और गईं, पर नक्सली अभियान पर कोई खास असर नहीं हुआ.

साल 2014 में भाजपा केंद्र की सत्ता में आई तो सभी उत्सुकता से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ देख रहे थे जो आतंकवाद को ले कर कांग्रेस सरकार पर यह कहते गरजतेबरसते रहते थे कि ‘सरकार की बेरुखी के चलते आतंकवाद फलताफूलता है. सरकार की नाक के नीचे आतंकवादियों के पास देसीविदेशी फंड पहुंचता है. सरकार सेना और अर्धसैनिक बलों को खुली छूट नहीं देती जिस के चलते आतंकियों के हौसले बुलंद रहते हैं’ वगैरहवगैरह. 3 अप्रैल की मुठभेड़ के बाद नरेंद्र मोदी के इस आशय के कई वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल हुए थे कि वे क्यों ऐसा और वैसा नहीं कर लेते जैसा कि प्रधानमंत्री बनने के पहले भाषणों में कहा करते थे. हिंदू, ईसाई और आदिवासी नक्सलियों और भगवावादियों में हमेशा से ही 36 का आंकड़ा रहा है क्योंकि इन्हीं के आतंक के चलते आरएसएस जैसे कट्टर हिंदूवादी संगठन आदिवासी इलाकों में कभी पूरे पैर नहीं पसार पाए.

लेकिन ईसाई मिशनरियां वहां बेधड़क काम करती रहीं. नक्सलियों को इन से कोई खास दिक्कत महसूस नहीं हुई क्योंकि ये मिशनरियां न केवल आदिवासियों की शिक्षा का इंतजाम करती हैं बल्कि उन की सेहत व जागरूकता पर भी ध्यान देती हैं. इस के एवज में बिलाशक काफी आदिवासियों ने ईसाई धर्म ग्रहण किया जो उन के उपकारों व मदद के प्रति आभार के तौर पर ही देखा जा सकता है. यह बात हमेशा हिंदूवादी संगठनों को खटकती रही जिन की मंशा आदिवासियों को पढ़ानेलिखाने की न हो कर धर्म का प्रचार और विस्तार कर चंदा वसूलने की ही है. धर्म के मामले में नक्सली जब तक कोई बहुत अहम बात न हो, तब तक दखल नहीं देते. लेकिन उन का पूजापाठ न करना, दानदक्षिणा, मोक्ष और लोकपरलोक वाले काल्पनिक सिस्टम में यकीन न करना व आदिवासियों का धार्मिक शोषण भी न होने देना अखरने वाली बात इन्हें थी और आज भी है. यह बात भी बहुत दिलचस्प और गौर करने लायक है कि रैड कौरिडोर में कभी ही किसी ने नक्सलियों और हिंदूवादियों के बीच भिडं़त या विवाद की खबर सुनी होगी लेकिन जहां नक्सली नहीं हैं वहां जरूर भगवागैंग के कार्यकर्ता आएदिन वामपंथियों से टकराते रहते हैं. केरल और पश्चिम बंगाल के चुनावप्रचार में तो भाजपा ने सनातनी हिंदुओं को लुभाने के लिए बाकायदा अपने ‘शहीद’ कार्यकर्ताओं की तसवीरें नुमाइश के तौर पर लगाई थीं.

यह वैचारिक मतभेद, जो फसाद की असल जड़ है, घोषिततौर पर मोदी सरकार के वजूद में आने के बाद ही हर किसी की सम?ा में आने लगा था. लेकिन भाजपा की प्राथमिकता सूची में नक्सली नीचे थे इसलिए सीधा टकराव कभी देखने में नहीं आया. नक्सलियों ने तो अपने मंसूबे साल 2015 में उजागर कर दिए थे जब उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बस्तर यात्रा का विरोध जगहजगह पोस्टर लगा कर भी किया था. तब नक्सलियों के दंडकारण्य जोनल कमेटी के प्रवक्ता गुड्सा उसेंडी ने केंद्र सरकार पर आरोप लगाया था कि वह प्राकृतिक संसाधनों को उद्योगपतियों को बेचने की साजिश कर रही है. अप्रैल 2018 में नरेंद्र मोदी की एक और बस्तर यात्रा के विरोध में नक्सलियों ने बीजापुर-भोपाल-पट्टनम रास्ते पर जवानों से भरी एक बस को आईईडी ब्लास्ट कर उड़ा दिया था जिस में 2 जवान मारे गए थे. साफ दिख रहा है कि नक्सलियों का टकराव अब केंद्र सरकार से है.

उन्हें यह सम?ा आ गया है कि केंद्र सरकार पूंजीपतियों के इशारे पर नाच रही है. इस के बाद ?ारखंड की एक चुनावी रैली में 23 अप्रैल, 2019 को गृहमंत्री की हैसियत से हुसैनाबाद में राजनाथ सिंह ने कहा था कि अव्वल तो नक्सली खत्म हो चुके हैं लेकिन 2023 तक उन का पूरी तरह सफाया कर दिया जाएगा. इस चुनाव में भाजपा सत्ता से बेदखल हो गई थी. राजनाथ सिंह के भाषण के 5 दिनों बाद ही बस्तर के बीजापुर में नक्सलियों ने 2 जवानों की हत्या कर यह संदेशा दे दिया था कि हम थे, हैं और रहेंगे. ऐसी कई छोटीबड़ी वारदातों को वे एक अनियमित अंतराल से अंजाम देते रहते हैं. किसान आंदोलन को समर्थन असल में नक्सली मजदूर और किसान विरोधी किसी भी हरकत पर हिंसक एतराज जताने से नहीं चूकते, लेकिन पिछले साल 26 नवंबर से दिल्ली की विभिन्न बौर्डर्स पर चल रहे किसान आंदोलन पर वे तटस्थ से ही रहे थे. पर तिलमिलाए तब थे जब 12 दिसंबर, 2020 को केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने एक बयान में यह कहा था कि अगर यह किसान आंदोलन माओवादी व नक्सल ताकतों से मुक्त हो जाए तो सरकार के दरवाजे 24 घंटे किसानों के लिए खुले हैं लेकिन नक्सली और माओवादी उन्हें चर्चा करने से रोक रहे हैं. यह एक बचकानी व अपरिपक्व बात थी क्योंकि तब किसान आंदोलन के तार कहीं से भी नक्सलियों से जुड़े साबित नहीं हुए थे और शायद ही पीयूष गोयल जैसे ज्ञानीध्यानी मंत्री यह बता पाएं कि उन की या किसी की भी नजर में नक्सली और माओवादी शब्दों में फर्क व उस का आधार क्या है.

जैसा भी है किसान आंदोलन अभी भी है और सरकार के पोपले दांतों के गैप में सुपारी के दाने सरीखा इस तरह फंसा हुआ है कि किसी टूथपिक से हिलाए नहीं हिल रहा. दर्द और संक्रमण से बचने के लिए उस के पास अपने ही दांत उखड़वाने के सिवा कोई रास्ता नहीं है. 3 अप्रैल की मुठभेड़ के बाद नक्सलियों ने खुलेआम न केवल किसान आंदोलन का समर्थन करते सरकार की दमनकारी नीतियों का विरोध जारी रखने की बात कही, बल्कि 26 अप्रैल को भारत बंद का ऐलान भी कर डाला. ऐसा अमित शाह के छत्तीसगढ़ से वापस जाने के तुरंत बाद परचे बांट कर करना दर्शाता है कि सरकार नक्सली समस्या को हलके में लेने की वही भूल कर रही है जिसे खासतौर से उस के पहले कांग्रेसी सरकार करती रही थी. तो फिर हल क्या अहम सवाल जो नक्सली मुहिम के साथ पिछले 50 साल से मुंहबाए खड़ा है कि फिर इस समस्या का हल क्या. समस्या यह है कि नक्सली इलाकों में तैनात अर्धसैनिक बलों के जवान जानतेपहचानते ही नहीं कि आम आदिवासी कौन और नक्सली कौन. इस के अलावा, उन के कदम वहीं तक जाते हैं जहां तक सड़क है. इस के बाद घने जंगल में उतरने की हिम्मत वे नहीं जुटा पाते और बारबार वजहें कुछ भी हों मुंह की खाने से उन का मनोबल व हिम्मत दोनों टूटने लगे हैं. वे बस, बेमन से अपनी ड्यूटी बजाने दुर्गम इलाकों के तंबुओं में पड़े हैं जहां मौत का खतरा चौबीसों घंटे उन के सिर मंडराता रहता है. यह हर किसी को सम?ा में आ रहा है कि नक्सली एक सही बात गलत ढंग से कह रहे हैं लेकिन किसी दूसरे तरीके से कहेंगे, तो उन की कोई सुनेगा भी नहीं.

50 साल की हिंसा में उन की बात सुनने को कोई सरकार तैयार नहीं, तो वे क्या करें, इस सवाल का जवाब भी ढूंढ़ा जाना जरूरी है कि केंद्र सरकार उन से बातचीत करने में कतरा क्यों रही है. नोटबंदी के वक्त प्रधानमंत्री ने कहा था कि इस से आतंकवाद खत्म हो जाएगा लेकिन यह टोटका भी बेकार का शिगूफा साबित हुआ. आतंक सरहद पर भी कायम है और नक्सली इलाकों में भी बदस्तूर दिख और चल रहा है. नक्सलियों को पूंजीपतियों की फंडिंग जारी है, नए नोट आने से उस पर कोई फर्क नहीं पड़ा. उन के पास अत्याधुनिक हथियार कहां से आते हैं, यह बात भी जिस सरकार को नहीं मालूम वह कैसे उन्हें खत्म करेगी, इस पर तो कुछ सोचना या कहना ही बेकार है. अभी तक नक्सलियों के खिलाफ चलाए गए प्रहार और ग्रीनहंट जैसे तमाम अभियान भी फुस्स साबित हुए हैं.

ऐसे में यह सोचना बेमानी है कि नक्सली समस्या किसी चिराग के घिस जाने से हल हो जाएगी. नक्सलियों की बुनियादी मांगें किसानों और मजदूरों की बेहतरी व बराबरी के दर्जे को ले कर है जिन्हें सच ही मानने को कोई सरकार तैयार नहीं. आदिवासी इलाकों में उम्मीद के मुताबिक विकास नहीं हो रहा है. शोषण अब जमींदार नहीं, बल्कि सरकारी महकमे कर रहे हैं. आदिवासी युवा थोक में बेरोजगारी ढो व भोग रहे हैं. ऐसे में उन का नक्सलियों की शरण में जाना स्वाभाविक है. इन समस्याओं का हल कोई सरकार ढूंढ़ पाए तो बात एक दफा बन भी सकती है लेकिन इस के लिए उसे पूंजीपतियों व उद्योगपतियों से रोमांस लड़ाना छोड़ना पड़ेगा जो कि हालफिलहाल असंभव दिख रहा है तो, हल ‘भगवान भरोसे’ छोड़ देना ही बेहतर है. द्य सुपरमैन सा हिडमा 3 अप्रैल की मुठभेड़ की एक बड़ी वजह माडवी हिडमा था जो नक्सलियों की साउथ जोन विंग का कमांडर है. इस जोन में सुकमा बीजापुर और दंतेवाडा शामिल हैं. हिडमा के बारे में कोई ज्यादा कुछ नहीं जानता सिवा इस के कि वह दुबलापतला है और उस में चीते सी फुरती है. उस की कोई नई तसवीर भी पुलिस के पास नहीं है.

हिडमा कब क्या कर बैठेगा, कहां से आएगा और किस रास्ते से जाएगा, इस की खबर हर किसी को नहीं रहती. सरकार और सुरक्षाबलों के लिए सिरदर्द बने इस नक्सली के कई और भी नाम हैं. इस की मौत की खबर भी आएदिन उड़ती रहती है. साल 2000 में आत्मसमर्पण कर चुके और इन दिनों जगदलपुर में रह रहे पूर्व नक्सली कमांडर बदरना ने हिडमा को बच्चों के नक्सली संगठन ‘बालल संगम’ में भरती किया था. तब वह 16 साल का था. हिडमा भी उस का असली नाम है या नहीं, यह भी कोई नहीं जानता. यह नाम तो उसे संगठन ने दिया था. हां, इतना जरूर जानने वाले जानते हैं कि वह गौंड समुदाय से है और उस के गांव का नाम पूर्वती है. तेजतर्रार हिडमा में सीखने की क्षमता अद्भुद है. नक्सलियों ने ही उसे पढ़ायालिखाया और प्रशिक्षित किया. वह एक अच्छा गायक भी है. ट्रेनिंग पूरी करने के बाद उस की पहली नियुक्ति महाराष्ट्र के गढ़चिरोली में की गई थी. वहां रहते उस ने कई हिंसक वारदातों को सफलतापूर्वक अंजाम दिया. कई लोग मानते हैं कि हिडमा मर चुका है और नक्सलियों की एक रिवाज के मुताबिक उस का पदनाम बतौर उपाधि चल रहा है ठीक वैसे ही जैसे रमन्ना और भूपति जैसों के चल रहे हैं.

यह सस्पैंस हिडमा को और खास बनाता है. 3 अप्रैल को अर्धसैनिक बलों के निशाने पर वही था और वही नक्सलियों का नेतृत्व कर रहा था. इसलिए संभावना इस बात की ज्यादा है कि हिडमा जिंदा है और इस वारदात के बाद भी अपनी शैली में गायब हो गया. दंतेवाड़ा के स्थानीय बाजार यानी साप्ताहिक हाट में वह कई बार गया लेकिन पुलिस उसे पहचान नहीं पाई क्योंकि पुलिस के पास उस का कोई 25 साल पुराना एक फोटो है जिस की बिना पर उसे अब पहचान पाना नामुमकिन है. हिडमा टैक्नोलौजी का भी अच्छा जानकार है. वह हर वारदात का वीडियो जरूर बनाता है और बाद में उसे देख कर अपने कमजोर व मजबूत पहलुओं पर ध्यान दे कर उन्हें सुधारता भी है. उस की इमेज एक सुपरमैन और हीरो सरीखी बन गई है और उस का खौफ सिर चढ़ कर बोलता है. नक्सलियों में उस की इज्जत व पूछपरख किसी हीरो से कम नहीं. सरकार के खुफिया तंत्रों की कमजोरी भी हिडमा को ले कर उजागर हो रही है जो उस के बारे में उतना ही जानते हैं जितना कि बरदाना जैसे नक्सली बता देते हैं.

एक हिडमा ही नहीं, बल्कि पूरे नक्सली अभियान पर यह बात लागू होती है. इसीलिए अर्धसैनिक सुरक्षा बल कुछ खास नहीं कर पाते. हिडमा जैसे कई कमउम्र हीरो नक्सली ठिकानों पर ट्रेनिंग ले रहे हैं. उन के बारे में भी पुलिस कुछ नहीं जानती, यानी, जवानों की भूमिका मुठभेड़ तक में सिमटी है जिस की रणनीति भी उन के वे अफसर तय करते हैं जो घटनास्थल पर नहीं जाते. इस के चलते हर बार नक्सली भारी पड़ते हैं.

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