कुछ ही रोज पहले प्रकाशित वर्ल्ड फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट में देश की मौजूदा भाजपा सरकार पर नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के हनन के कई आरोप थे. इस रिपोर्ट के आने के बाद भारत में वाजिब खलबली मची जरूर थी लेकिन पक्ष से ले कर विपक्ष तक ने इसे एकसाथ ठंडे बस्ते में डाल दिया. न तो सत्तापक्ष ने जरूरत सम?ा कि उस की सरकार पर ऐसे गहन आरोप लगाने वालों पर ऐक्शन लिया जाए और न विपक्ष ने यह जरूरत सम?ा कि सरकार को इस मसले पर घेरा जाए.

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खैर, अमेरिकी वर्ल्ड फ्रीडम हाउस की इस रिपोर्ट की संवेदनशीलता न सिर्फ मोदी के अथौरिटेरियन रूप से सरकार चलाए जाने के रवैए से थी, बल्कि भारत के सब से मजबूत स्तंभ कहे जाने वाले न्यायालय की कार्यवाहियों को संदेहों में धकेले जाने से भी थी. रिपोर्ट में कहा गया, ‘‘मोदी कार्यकाल में भारत की ज्युडिशियल स्वतंत्रता भी प्रभावित हुई है.’’ नागरिकों के राजनीतिक अधिकारों के संदर्भ में कहा गया कि मानवाधिकार संगठनों पर दबाव बढ़ गया है, शिक्षाविदों व पत्रकारों को डराया जा रहा है और बड़े हमलों का दौर चल रहा है. रिपोर्ट में मौजूदा सरकार के बनाए ऐसे कानूनों का हवाला दिया गया जिन्होंने नागरिकों के बुनियादी अधिकारों का हनन किया.

इस रिपोर्ट को ‘भ्रमित, असत्य और गलत’ बताया. सरकार ने देश के संघीय ढांचे का हवाला दिया और कहा, ‘‘यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि भारत में संघीय ढांचे के तहत कई राज्यों में चुनाव प्रक्रिया के माध्यम से अलगअलग पार्टियों का शासन है और यह उस निकाय यानी चुनाव आयोग के तहत है जो स्वतंत्र व निष्पक्ष है.’’

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