देश की खुशहाली जैसी भी है, उस का एक बड़ा कारण खुदरा व्यापार है. खुदरा व्यापारी थोक विक्रेताओं और उत्पादकों से सामान खरीदते हैं और लोग उन की दुकानों पर आ कर उन से वह सामान खरीदते हैं. लेकिन अब उन की जगह ईकौमर्स वाली विशाल कंपनियां लेने लगी हैं. ज्यादातर ईकौमर्स बिक्री एमेजौन और फ्लिपकार्ट के माध्यम से ही होती है, हालांकि, अब छोटे उत्पादक भी सीधे प्रचार कर के अपना सामान बेचने की कोशिश कर रहे हैं.
एक खुदरा व्यापारी के पास एक तरह की 100-200 चीजें होती हैं. आम खरीदार को दालों, मसालों के लिए कहीं, कपड़ों के लिए कहीं, क्रौकरी के लिए कहीं, फलसब्जियों के लिए कहीं और जाना पड़ता है. जबकि, एमेजौन और फ्लिपकार्ट सबकुछ, सिवा कारों व वाहनों के, एक ही प्लेटफौर्म पर देने लगी हैं. ईकौमर्स कंपनियों की उपभोक्ता के लिए यह सुविधा उन लाखों दुकानदारों को बेकार कर रही है जो देश के समाज व अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी थे. ये मिडिलमैन ही थे जो उत्पादक से नया सामान खरीदने के साथ कुछ मुनाफा  कमा कर बेचा करते थे. ये मध्यवर्ग की पहचान थे. लेकिन अब ये जीरो बन कर रह गए हैं. इन्हें सम झ नहीं आ रहा कि नई चुनौतियों का सामना कैसे करें.
लोकल सर्कल नाम की सर्वे कंपनी ने पता किया है कि कोविड के चलते थोपे गए लौकडाउन के दौरान उपभोक्ताओं को जो आदत पड़ी, वह आज भी जारी है. 49 फीसदी  उपभोक्ता छोटा सामान अब इन ईकौमर्स कंपनियों से खरीदने लगे हैं क्योंकि खरीदारों में से 86 फीसदी को ये सुरक्षित लगती हैं, 50 फीसदी सोचते हैं कि दाम कम हैं, 48 फीसदी को इन की वापस करने की सुविधा भाती है, 40 फीसदी कहते हैं कि उन्हें सामान चुनने में सुविधा रहती है, 45 फीसदी कहते हैं कि बाजार जाए बिना खरीदारी हो जाती है और 45 फीसदी को उक्त सामान के बारे में दूसरों के अनुभव पढ़ने को मिल जाते हैं, साथ ही सामान में किसी तरह की कमी होने पर शिकायत करने का अवसर भी मिलता है और इन कंपनियों द्वारा शिकायत का निदान भी जल्द ही किया जाता है.
सदर बाजार या लोकल गलीमहल्ले का वितरक यह सब नहीं कर पा रहा. वह अब केवल सस्ता, डुप्लीकेट माल अनपढ़ों या अधपढ़ों को बेच पा रहा है. गलीमहल्ले से ले कर बड़ेबड़े बाजारों की बड़ी दुकानों के दुकानदार, आमतौर पर सूदखोरी ज्यादा करते हैं और ग्राहक की शक्ल देख कर दाम लेते हैं. उन की डिस्काउंट पौलिसियां उन की मनमरजी की होती हैं. वे विज्ञापन में तो भरोसा ही नहीं करते.
ये बड़ी कंपनियां अगर खुदरा बाजार को समाप्त कर देंगी तो देश का मध्यवर्ग केवल नौकरीपेशा बन कर रह जाएगा. अपना, छोटा ही सही, खुद का व्यापार मध्यवर्ग की पहचान था. पीढि़यों से खुदरा व्यापार के बल पर करोड़ों परिवार खातेपीते माने गए हैं. अब उन्हें अपने बच्चों को शिक्षा दिला कर नौकरी के लिए भेजना पड़ रहा है वह भी देश से बाहर क्योंकि देश में नौकरियां हैं ही नहीं.
छोटे खुदरा व्यापारी अपना न ब्रैंड बना रहे हैं और न ही ग्राहकसेवा का काम सीख रहे हैं. दुकान के कोने में मूर्ति के आगे दीया जला कर वे सोचते हैं कि लक्ष्मी खुश हो जाएंगी. लक्ष्मी तो अमेरिका की एमेजौन व वालमार्ट कंपनियों के पास जा रही है. ईकौमर्स कंपनियां ग्राहकों को उधार नहीं देतीं पर फिर भी उत्पादकों को महीनों बाद भुगतान करती हैं. हैरानी यह है कि उत्पादकों की हिम्मत नहीं कि वे चूं भी कर सकें. यह सामाजिक परिवर्तन है जिस की जिम्मेदार, बहुत हद तक, केंद्र सरकार है जो इन खुदरा व्यापारियों के बल पर सत्ता में आई है.
निर्भरता बनाम आत्मनिर्भरता  
देश में सड़कें बन रही हैं पर न उन की संख्या काफी है और न क्वालिटी अच्छी है. सड़कों के साथ सीवरेज सिस्टम, बारिश के पानी की निकासी, नहरें, बागबगीचे, जंगल भी बनाने होते हैं.  सड़कों का जाल बिछाया जा सके, सड़कों पर टैलीफोन क्नैक्टिविटी रहे, सड़कों के किनारे चलने वालों को सामान मिल सके, सड़कों के किनारे शहर बस सकें और शहरों की सड़कें ट्रैफिक जामों से मुक्त हो सकें, इस सब के लिए भारीभरकम इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत है और केंद्र सरकार एक लाख करोड़ रुपए की पूंजी लगा कर नैशनल बैंक फौर फाइनैंसिंग इंफ्रास्ट्रक्चर ऐंड डैवलपमैंट बैंक बना रही है.
यह कदम अच्छा है पर इस में सरकार की भागीदारी केवल 26 फीसदी जबकि विदेशी भागीदारी 74 फीसदी होगी. हां, कुछ शेयर क्षेत्रीय कंपनियों को भी मिलेंगे पर लगभग हर बड़ी देशी कंपनी को भारी कर्ज विदेशी बैंकों से ही मिला हुआ है.
यह अफसोस की बात है कि देश अभी तक इतनी बचत नहीं कर पा रहा है कि वह अपना इंफ्रास्ट्रक्चर खुद के पैसे से खड़ा कर सके. 70 वर्षों के कांग्रेसी राज में तो आज की सरकार के अनुसार कुछ नहीं हुआ पर 7 साल पुरानी सरकार ने अब जो योजना बनाई है उस में तो पहले ही दिन विदेशियों को आमंत्रित कर डाला गया है कि आओ, हमें लूटो. इस बैंक में जो भी पैसा लगाएगा, उसे ब्याज मिलेगा जो उन कामों से मिलेगा जिन के ठेके सरकार देगी. कुछ पैसा बैंक से मिलेगा पर उधार, जिस का मूल व ब्याज जनता से टैक्स व टोल के जरिए वसूला जाएगा.
यह अगर किसी तरह की उन्नति का द्योतक है तो बहुत खुश होने की बात नहीं है. अंगरेजों के जमाने में भी बहुत सी ब्रिटिश कंपनियां ही नहीं, दूसरी यूरोपीय कंपनियों ने भी देश में काफी महत्त्व के काम किए थे पर हम उन्हें धन्यवाद नहीं देते क्योंकि हमारे अनुसार वे हमें लूट रहे थे. अब संपूर्ण स्वदेशी सरकार यही कर रही है और हम फिर भी उस का गुणगान कर रहे हैं.
भारतीयों में न मेहनत करने में कमी है, न उन में नई खोज करने की क्षमता में कोई कमी है. विदेशों में बसे भारतीय इस बात के सुबूत हैं. विदेशों में गए मजदूर हर साल 80 अरब डौलर बैंकों के मारफत भारत भेजते हैं और शायद उस से 2 गुना पैसा हवाला से. यह भारत की बिना पैसा लगाए शुद्ध आय है.आज दुनियाभर की प्रयोगशालाएं भारतीय मूल के लोगों से भरी हैं जो हर रोज नई खोज कर रहे हैं. वे सब मिल कर देश का निर्माण खुद अपने पैसों से नहीं कर पा रहे हों जबकि भगवान स्वयं उन के साथ हैं, तो क्या आश्चर्य की बात नहीं है? या यह महान संस्कृति का ढोल है जिस की पोल न खुले, इसलिए विदेशियों को भी आमंत्रित किया जा रहा है?
निजीकरण के बाद इस देश में कोई सूरज चमकने लगेगा, यह भूल जाइए. निकम्मी सरकारी कंपनियों के बेचने से सरकार को जमीन निजीकरण क्योंऔर नाममात्र का पैसा तो मिल जाएगा लेकिन आम आदमी को अब इंस्पैक्टरों और कंपनी मैनेजरों की धौंस की जगह प्राइवेट कंपनियों की धौंस व आर्थिक मार को सहना पड़ेगा. उदाहरण के तौर पर, एचडीएफसी बैंक जानामाना है जो बढ़चढ़ कर विज्ञापन करता है, औटो व होम लोन खूब देता है लेकिन वास्तव में, वह ग्राहकों को चूना लगाने से नहीं बाज आता.
एक मामले में वह जीपीएस कंपनी की एक डिवाइस को बैंक कार  के साथ बेचे जाते पकड़ा गया है. जो भी कार लोन लेने आता उस से कहते कि बैंक का नियम है कि जीपीएस डिवाइस लगाओ ताकि बैंक जब चाहे, आप की कार को ट्रेस कर सके. ग्राहक मजबूरन पैसे देता.एचडीएफसी बैंक प्रबंधन ने सारा दोष अपने कुछ मैनेजरों पर डाल कर उन्हें निकाल दिया. जाहिर यह किया गया कि कुछ अफसर ही ग्राहकों को चूना लगा रहे थे और बैंक का इस से कोई लेनादेना नहीं था.
एचडीएफसी बैंक हाल में अपनी डिजिटल सेवाओं के बारबार फेल होने पर भी खबरों में आया है. इस की वैबसाइटें बहुत उल झी होती हैं, आम आदमी को उन्हें सम झने में काफी देर लगती है.निजी व सरकारी बैंकों का रवैया एक सा ही है. ऐसे में सरकारी बैंकों को क्यों बेचा जाए? सिर्फ इसलिए कि सरकार के पास पैसा नहीं है और वह विदेशियों को बैंक बेचना चाह रही है. देश की जनता के पास कहां पैसा है? देश तो मंदिर, मूर्ति, तरहतरह के धार्मिक पाखंडों पर पैसा बरबाद करने में लगा है. यह जीपीएस डिवाइस भी बरबादी का एक जरिया थी जो 10 दिनों में ही खराब हो जाती थी.
बसावट और मकान
शहरों को कानूनों की गिरफ्त में वर्षों रखने के बाद शहंशाहों को अब सम झ आ रहा है कि सिर्फ कानून बना देने से शहर नहीं सुधरता. मकानों को बनाने के कठोर नियम, असल में सभी शहरों में बिना एप्रूव कराए मकान बनाने की आदत डाल चुके हैं, वहां खाली जगहों पर कच्ची बस्तियां उग आई हैं. इस बीच गरीबों के लिए एक या 2 कमरों के मकान बनाने के लिए अब एफएआर, फ्लोर एरिया रेशियो, को 50 फीसदी बढ़ाने की छूट दी जा रही है.
अब तक नियम था कि यदि प्लौट 100 मीटर का है तो उस पर 250 मीटर फ्लोर वाला मकान बन सकता है. अब शायद 375 मीटर तक का मकान बनाया जा सकेगा. हालांकि घनी बस्तियों में ऐसे मकान हर शहर में आज भी देखे जा सकते हैं. इन मकानों की हालत खस्ता होती है क्योंकि गरीब लोग बाहरी रखरखाव यानी मैंटिनैंस पर पैसा नहीं खर्च करते या उस के लिए पैसा नहीं देते.
फिर भी प्रशासन को यह एहसास हो जाना कि कानून की चाबुक से जनता को हांका नहीं जा सकता, काफी है. हमारे शासकों को पौराणिक युग से यह आदत है कि वे मनमानी करते हैं, जब चाहे जिसे घर से निकाल दिया, किसी का अंगूठा कटवा लिया, किसी को पढ़ने पर मार डाला. हमारे पुराणों में राजाओं और दैत्यों द्वारा मुनियों के यज्ञों में विघ्न डालने वालों को सजा देने वाले राजाओं की कहानियां तो बहुत हैं पर आम आदमी को परेशानी होने पर या राजा के दूतों द्वारा उन पर अत्याचार किए जाने की कोई कहानी नहीं दिखती कि राजाओं ने क्याक्या किया.
आज भी हमारे कानून ऐसे ही हैं जो एकदम बेरहम, बेदर्दी से बनाए गए. कानून को लागू करने वालों को एक तरह का लाइसैंस दे दिया गया है कि जब चाहो जो मरजी कर लो, जो मरजी फरमान जारी कर दो. ऐसे ही मकान बनाने के लिए ढेरों कानून हैं जो लोगों को मकानों में पूंजी लगाने से रोकते हैं. लोगों को डर लगता है कि नियमों से बाहर बने मकान को कभी भी तोड़ा जा सकता है, बैंक लोन उस पर कभी नहीं मिलेगा और हर महीने इंस्पैक्टर आ धमकेगा अलग.
यह ठीक है कि मकानों के बारे में छूट देने से शहर रहने लायक नहीं रह जाएंगे, लेकिन पहली जरूरत पक्की छत है, साफसफाई, शांति, सुकून, धूप, ताजी हवा नहीं. लोग शहरों की ओर भाग रहे हैं क्योंकि गांवों में काम नहीं रह गया. गांव संकरी गलियों वाले बदबूदार हो गए. वहां हवा तो खराब है ही, सामाजिक माहौल और भी खराब है. शहरों में कुछ हद तक नौकरियां मिल जाती हैं और खुली सामाजिक व्यवस्था मिलती है जिस में हर कोई बराबर है.
शहरी नियम बहुत ही लचीले बनाए जाने चाहिए. केवल बड़े मकानों के लिए तरहतरह के नियम हों ताकि एक तरह के मकान एक क्षेत्र में हों. जिन्होंने खुशनुमा वातावरण के लिए किसी कालोनी में बड़ी जगह ली है, उन्हें यह हक न हो कि वे पड़ोस की अति कर दें. वैसे, ऐसी सुविधाएं अब गेटेड कालोनियों में मिलने लगी हैं जहां नियमकानून उन के अपने चलते हैं, राजाओं के नहीं.

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