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बुरके के पीछे का दर्द- भाग 1 : नसीम के साथ अकरम ने ऐसा क्या किया

उस दिन अपने एक डाक्टर मित्र के यहां बैठा था. बीमारियों का मौसम चल रहा था, इसलिए मरीजों की भीड़ कुछ ज्यादा ही थी. उन में कई बुरकानशीन खातून भी थीं जो ज्यादा उम्र की थीं, वे आपस में बातें कर रही थीं. कुछ बीच की उम्र वाली भी रही होंगी, जो ज्यादातर चुप ही थीं लेकिन उन में से किसी के साथ एक कमसिन जैसी भी थी, जिस के कमसिन होने का अंदाजा उस के चुलबुलेपन से लगता था, क्योंकि वह कभी एक जगह नहीं बैठती थी. साफ था कि उस को बुरका मजबूरी में पहनाया गया था.

आखिर आजिज आ कर उस ने अपना नकाब उलट ही दिया. उफ, वह तो बला की खूबसूरत निकली. काले बुरके से निकले उस के गोरेगुदाज हाथ तो पहले ही दिखाई दे चुके थे और अब उस का नजाकत से तराशा हुआ चेहरा भी सामने था. एकबारगी मेरे मन में यह खयाल कौंधा कि खूबसूरत नाजनीनों को बुरके में अपना हुस्न छिपाने का हक किस ने दिया? क्या यह हम मर्दों पर जुल्म नहीं है?

उस पर से निगाह हटती ही न थी, पर लगातार उधर देखते रहना, बेअदबी होती. इसलिए मैं रिसाले के पन्ने पलटने लगा, जो शायद कई साल पुराना था.

गए वक्त की एक अदाकारा की एक थोड़ी शोख अदा वाली तसवीर पर नजर गड़ाए था कि अचानक मेरे बगल वाली सीट पर एक बुरकानशीन आ कर बैठ गई. मैं ने उधर गरदन घुमाई तो उस ने अपना नकाब उठा दिया.

‘‘अरे, तुम?’’ मुंह से बेसाख्ता निकला.

यह नसीम थी, जो 4 साल पहले मेरी स्टूडैंट रह चुकी थी. वह इंस्टिट्यूट में भी दाखिल बुरके में ही होती थी, पर बिल्डिंग का गेट पार करतेकरते बुरका उतर जाता था और क्लास में पहुंचने तक वह तह कर के बैग के हवाले भी हो चुका होता था.

‘‘जी सर, आप कैसे हैं? डाक्टर के पास क्यों?’’

मु झे ध्यान आया कि यह वही थी जो इस दौरान मु झे अपने नकाब की ओट से लगातार घूरे जा रही थी. पर उस के लगातार मु झे देखे जाने पर मैं ने तवज्जुह नहीं दी थी. पर अब तो नसीम बगल में ही थी. मैं ने कहा, ‘‘मैं ठीक हूं. डाक्टर मेरे मित्र हैं. मिलने आया था. पर तुम तो लखनऊ चली गई थीं? मु झे याद है कि तुम ने बताया था कि यह कोर्स करने के बाद तुम्हारी वहां के एक अखबार में नौकरी पक्की है.’’

‘‘जी, बल्कि उन लोगों ने ही मु झे यह कोर्स करने के लिए मुंबई भेजा था.’’ ‘‘फिर क्या हुआ?’’ मैं जानना चाहता था.

‘‘कुछ नहीं. 2 साल मैं ने वहां ही काम किया.’’

तभी डाक्टर की रिसैप्शनिस्ट ने उस का नाम पुकारा. वह चैंबर में जाने के लिए उठ खड़ी हुई. वह जातेजाते बोली, ‘‘सर, आप जाइएगा नहीं. मु झे आप से जरूरी बात करनी है.’’

मैं ने ‘अच्छा’ कहा और मैं 4 साल पहले की नसीम को याद करने लगा. बड़ी जहीन लड़की थी वह, पूरी क्लास में. उस का स्टडीपेपर भी बहुत अच्छा बना था, खूब मेहनत से सारे डाटा इकट्ठे किए थे, उस के लिए. थोड़ी चुलबुली भी थी और दूसरे स्टूडैंट से खासी फ्री भी थी. पर इस बीच क्या घटा होगा, मैं कयास नहीं लगा पा रहा था. उस की इस बात से कि उसे मु झ से कोई जरूरी बात करनी है, मैं अजीब पसोपेश में था. दरअसल, मरीजों से फ्री होने के बाद मेरा डाक्टर मित्र अपने साथ मु झे कहीं ले जाना चाहता था, इसलिए इंतजार तो मु झे करना ही था. पर अब नसीम की जरूरी बात के बाद क्या करना होगा, तय नहीं कर पा रहा था.

नसीम को डाक्टर के पास कुछ समय लगा. वह लौटी तो मैं ने कहा, ‘‘तुम अपनी दवा बनवाओ, मैं डाक्टर से मिल कर आता हूं.’’

रिसेप्शनिस्ट से कहा कि मु झे 2 मिनट को अंदर जाने दे और मैं ने कल आने को कह कर डाक्टर से छुट्टी ले ली और तुरंत बाहर आ गया. तब तक नसीम अपनी दवा बनवा चुकी थी.

उस ने अपना नकाब फिर से ओढ़ लिया और हम साथ ही वहां से निकल पड़े.

उस को देख कर मन में सवालों का सैलाब घुमड़ रहा था. पर तमाम रास्ते हम में कोई बात न हुई. वह मुंबई वापस क्यों आ गई? लखनऊ में उस के साथ कोई हादसा तो नहीं हुआ? वह मु झ से कौन सी जरूरी बात करना चाहती है? आदि तमाम जिज्ञासाएं थीं.

संकरी गलियों से गुजरते हुए आखिर हम एक मकान के सामने जा कर रुके, जिस के दरवाजे पर ताला लगा हुआ था. नसीम ने बड़ी खुफिया निगाह से इधरउधर देखा फिर चाबी मु झे थमाती हुई बोली, ‘‘आप दरवाजा खोल कर अंदर चले जाइए. मैं बाद में आती हूं. पर दरवाजा अंदर से बंद न करिएगा,’’ और मैं ने देखा कि वह जल्दी से बगल वाली दूसरी गली के मोड़ पर छिप गई.

मैं ताला खोल कर अंदर तो आ गया पर उस के इस तरह से अपनी मौजूदगी को पोशीदा रखने और सहमे हुए बरताव से मैं हैरत में था और चौकन्ना भी.

 

कोरोना मृतकों के परिजनों को मुआवजा क्यों नहीं

पिछले साल 14 मार्च तक कोरोना की मुकम्मल चर्चा होने लगी थी कि यह कैसी महामारी है और कैसे कैसे फ़ैल सकती है लेकिन तब आम लोगों को इसकी भयावहता का अंदाजा नहीं था . इस दिन तक कोरोना से मरने बालों की तादाद उँगलियों पर गिनी जाने लायक थी और इसकी चपेट में आने बालों का आंकड़ा भी सौ के पार नहीं गया था . सरकारी तौर पर कोरोना से केवल 96 लोग संक्रमित हुए थे और 2 की मौत कोरोना से हुई थी .

लेकिन सरकार को आने बाले वक्त का अंदाजा था लिहाजा उसने वक्त रहते ही कोरोना वायरस को महामारी घोषित कर दिया था पर लाक डाउन घोषित नहीं किया था क्योंकि भाजपा को मध्यप्रदेश में सरकार बनाना थी . एक नाटकीय और दिलचस्प घटनाक्रम में कमलनाथ के मुख्यमंत्रित्व बाली कांग्रेस सरकार गिरी तो भाजपा ने सिंधिया खेमे के बगाबती कांग्रेसी विधयाकों की मदद से 23 मार्च को राज्य में सरकार बना ली और शिवराज सिंह ने चौथी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली इसके बाद 24 मार्च को देश भर में लाक डाउन घोषित कर दिया .

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मुआवजे पर पहले हाँ फिर न –

यह एक राजनातिक स्वार्थ और मध्यप्रदेश में बिना चुनाव के सरकार बना लेने की हवस थी जिसकी सजा आज तक देश के लोग भुगत रहे हैं और आगे भी कब तक भुगतेंगे इसका अंदाजा कोई नहीं लगा पा रहा . खैर बात 14 मार्च 2020 की , इस दिन केंद्र सरकार ने अपने एक अहम फैसले में कहा था कि कोरोना वायरस के चलते अगर किसी की मौत होती है तो उसके परिजनों को बतौर मुआवजा 4 लाख रु दिए जायेंगे . यह आदेश देते केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने  यह भी साफ़ किया था कि यह राशि राज्यों के डिजास्टर रेस्पांस फंड यानी आपदा कोष से दी जाएगी .

बात लोगों की समझ में आ पाती इसके पहले ही इस फैसले के चंद घंटों बाद केंद्र सरकार ने दूसरा फैसला यह लिया कि नहीं , कोरोना से मरे लोगों के परिजनों को कोई मुआवजा नहीं दिया जाएगा . इस तरह बात आई गई हो गई थी और अधिकतर लोगों का ध्यान इस तरफ नहीं गया था कि सरकार को आने बाले बुरे दिनों का अंदाजा लग गया था लेकिन उसने पूरे देश को मध्यप्रदेश में सरकार बनाने के एवज में एक ऐसे खतरें में डाल दिया है जो उसके या किसी और के संभाले से नहीं संभल रहा है .

अब तो दो मुआबजा –

सीधे तौर पर आज के हालातों की जिम्मेदार सरकार हर लिहाज से है जिसने पहले देश को मध्यप्रदेश की बलि चढ़ाया फिर अपनी गलती पर पर्दा डालने और खीझ और खिसियाहट मिटाने गलत तरीके से लाक डाउन लगाया जिसके चलते कोरोना से ज्यादा मौतें घर भागने की हड़बड़ी और भागादौड़ी में हुई . पिछले साल इन्हीं दिनों में घर भागते मजदूर भूख , प्यास और गर्मी से सड़कों पर दम तोड़ रहे थे .  इनमें बच्चे , बूढ़े और गर्भवती महिलाएं भी थीं .

आज माहौल अलग है , कोरोना की दूसरी लहर में लोगों के मरने की तादाद बढ़ी है क्योंकि अस्पतालों में बिस्तर ,डाक्टर , दवाइयां और आक्सीजन तक नहीं है . देश में अफरा तफरी का माहौल है .  हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक सरकार के कान उमेठ रहे हैं कि आपने इंतजाम ही सलीके से नहीं किये हम लोगों को यूँ मरते नहीं देख सकते  . विदेशी मीडिया हरिद्वार के कुम्भ और 5 राज्यों की चुनावी रैलियों की तरफ इशारा करते सरकार और नरेन्द्र मोदी के चुनाव और धर्म प्रेम को हालातों का जिम्मेदार ठहरा रहा है तो उसे गलत कहीं से नहीं कहा जा सकता क्योंकि देसी भक्त मीडिया हालातों को कुछ इस तरह पेश कर रहा है मानों मोदी और उनकी सरकार की इसमें कोई गलती नहीं .  कुल जमा कोरोना को दैवीय आपदा और ऊपर बाले की मर्जी साबित करने की कोशिश की जा रही है .जिससे लोगों का ध्यान सरकार की गलती लापरवाही और जिम्मेदारी से हटे .

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कोरोना के दौरान ड्यूटी बजा रहे मृत कर्मचारियों के बारे में भी सरकार की कोई स्पष्ट और समान नीति नहीं है . उत्तरप्रदेश में पंचायत चुनावों में लगी ड्यूटी के दौरान कोई 135 शिक्षकों की जान जा चुकी है जिसे लेकर अब शिक्षक लामबंद होने लगे हैं और मुआबजे में 50 – 50 लाख रु और आश्रितों के लिए अनुकम्पा नियुक्ति मांग रहे हैं . ये चुनाव कोरोना के चलते गैर जरुरी थे खतरा साफ़ दिख रहा था लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी अपने बोस प्रधानमंत्री  नरेन्द्र मोदी की राह चले . अब देखना दिलचस्प होगा कि योगी को इन शिक्षकों के आश्रितों पर दया कब आती है और आती भी है या नहीं . यह माहौल हर राज्य में है कि कोरोना ड्यूटी पर तैनात मरने बाले कर्मचारियों की संख्या बढ़ती जा रही है और राज्य सरकारें अपना रुख साफ़ नहीं कर रही . मृतकों के परिजनों को दुःख में रहते कुछ सूझ नहीं रहा और हर किसी को संक्रमण से बचने की पड़ी है .

इसी हडबडाहट में मुआवजे की मांग या बात कोई नहीं कर रहा कि सरकार अपनी यह जिम्मेदारी ही पूरी कर ले . लाखों लोग बेमौत मर रहे हैं जिससे उनके घर बालों को खाने पीने के लाले पड़ने लगे हैं इसलिए सरकार ने मुफ्त अनाज बांटने का एलान कर डाला जो कि नाकाफी है . 2 महीने सरकार मुफ्त अनाज से कुछ लोगों का पेट भर देगी लेकिन इसके बाद क्या होगा इस पर अभी कोई नहीं सोच रहा कि करोड़ों लोग अप्रेल में ही बेरोजगार हो चुके हैं और काम धंधे और उद्योग व्यापार के पटरी पर लौटने के कोई आसार सरकार के कामकाज करने के तरीकों को देखते नहीं लग रहे .

भोपाल के शाहपुरा इलाके के एक दिहाड़ी मजदूर रामदयाल उइके की मौत कोरोना से हुई है उनकी पत्नी लक्ष्मी कहती हैं कि जमा पूँजी पति के इलाज में खर्च हो गई अब यहाँ वहां की मदद से घर का चूल्हा जल रहा है . झुग्गी बस्ती में किराए से रहने बाली लक्ष्मी को इन दिनों पति की मौत से ज्यादा गम और डर इस बात का सता रहा है कि अब दोनों बच्चों का क्या होगा .कोई 4 साल पहले रोजगार की तलाश में परिवार सहित छिंदवाडा के एक गाँव से भोपाल आई यह आदिवासी महिला हर तरफ से नाउम्मीद हो चुकी है . मुआवजे की बात करने पर वह कुछ भोलेपन और कुछ गुस्से से कहती है जो सरकार इलाज नहीं कर पा रही वह मुआवजा क्या देगी . हाँ कुछ मदद कर दे तो उसकी और बच्चों की जिन्दगी और भविष्य संवर जायेंगे लेकिन ऐसा होगा इसमें उसे शक है क्योंकि ऐसी कोई मांग ही कहीं से नहीं उठ रही और जहाँ से थोड़ी बहुत उठ रही है उस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा .

मांग तो उठ रही है लेकिन ….

केंद्र सरकार के 14 मार्च 2020 के फैसले के बाद छिटपुट मांग मुआवजे की उठी थी पर जल्द ही गायब हो गई थी क्योंकि सरकार ने फैसला वापस ले लिया था लेकिन कुछ जागरूक लोगों को यह तो समझ आ गया था कि कुछ विशेष परिस्थितियों में मौत होने पर आपदा कोष से राहत राशि देने का प्रावधान है जो कि 4 लाख रु तक होती है .  सरकार चूँकि कोविड – 19 को आपदा घोषित कर चुकी थी इसलिए लोगों ने मांग शुरू कर दी .

बिहार के मुजफ्फरपुर से बड़े पैमाने पर इसकी पहल हुई जब कोरोना से मरे 49 लोगों के घर बालों ने मुआवजा राशि की मांग की . आपदा विभाग ने इनमें 27 को मुआवजा दिया भी लेकिन महीनों चक्कर कटवाने के बाद . इस देश में जहाँ सरकारी खानापूर्तियाँ पूरी करना ही एवरेस्ट चढ़ने जैसा काम होता है वहां कुछ लोगों ने इसे कर दिखाया तो सरकारी विभागों ने भी अपनी चालें चलना शुरू कर दीं . बाद में लोगों को तरह तरह से परेशांन किया जाने लगा कि यह कागज नहीं है , वह कागज अधूरा है ,  डेथ सर्टिफिकेट कानूनन ठीक नहीं है , मृतक का पता सही नहीं है जैसे टोटके किये जाने लगे तो पीड़ितों की हिम्मत टूटने लगी.

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ऐसा कई जगहों पर हुआ कि सरकारी विभाग तरह तरह के बहाने बनाकर लोगों को टरकाने लगे तो बात सुप्रीम कोर्ट तक भी गई . 24 अगस्त 2020 को एक फैसले में कोर्ट ने कहा कि वह कोरोना वायरस से जान गंवाने बाले लोगों के परिवारों को सामान मुआवजा देने के लिए राष्ट्रीय नीति तैयार करने के अनुरोध सम्बन्धी याचिका पर सुनवाई नहीं कर सकता . यह याचिका पेशे से एक वकील  हाशिक थाईकांडी ने अधिवक्ता दीपक प्रकाश के जरिये दायर की थी इस पर जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस आरएस रेड्डी की बेंच ने यह कहते उसे ख़ारिज कर दिया कि प्रत्येक राज्य की अपनी अलग नीति है और वे अपनी आर्थिक ताकत के मुताबिक मुआवजा देते हैं . जबकि याचिकाकर्ता इस गंभीर मसले पर एक राष्ट्रीय नीति बनाये जाने की मांग कर रहा था जिससे सभी पीड़ितों को सामान मुआवजा मिल सके .

दीपक प्रकाश ने दलील थी कि कुछ मामलों, दिल्ली सरकार ने एक करोड़ रु का मुआवजा दिया जबकि कुछ राज्य एक लाख रु दे रहे हैं . देश की ज्यादातर आबादी आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की है जहाँ केवल एक व्यक्ति कमाने बाला है और परिवार के दूसरे लोग गुजर बसर के लिए उसकी आय पर ही निर्भर रहते हैं .

अब तो सुनी जाए बात –

अब लाखों लोग घर का मुखिया गंवाने के बाद लक्ष्मी की तरह पूछ रहे हैं कि हमारा क्या होगा . ऐसे में जब भगवान् भी नहीं सुन पा रहा तब यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह न केवल मुआवजा दे बल्कि दूसरी सहायता भी कोरोना से मरे लोगों के परिजनों को दे नहीं तो आने बाले वक्त में इसके नतीजे बेहद विस्फोटक भी हो सकते हैं . भूखे नंगे लोग अपराधों की तरफ बढ़ सकते हैं और बेसहारा हो रही औरतें कामकाज न मिलने पर बदनाम गालियों का भी रुख करने मजबूर हो सकती हैं .

कोरोना पर कई गलतियाँ कर चुकी सरकार को चाहिए कि वह अब तो दूर की सोचे और कोरोना सम्बन्धी अपने पुराने पाप धो ले  . कुछ भी करने के लिए बेहतर विकल्प यही है कि केंद्र सरकार राष्ट्रीय नीति ही बनायें क्योंकि राज्यों के आपदा कोष में इतना पैसा नहीं होता है कि उससे तेजी से मर रहे लोगों के परिजनों को आर्थिक सहायता दी जा सके . इस प्रावधान में एक खोट यह भी है कि इसमें मदद उन्हीं लोगों को दी जाती है जिनमें कमाने बाला एक ही हो .

कोरोना की दूसरी लहर में पैसे बाले भी खर्चीले इलाज के कारण कंगाल हो रहे हैं उन्हें भी सहायता का पात्र माना जाना चाहिए लेकिन दिक्कत की बात मौजूदा सरकार का अडियल और दौहरा रवैया है .  वह धार्मिक आयोजनों पर तो अरबों रु दरियादिली से फूंक देती है लेकिन असल दरिद्र नारायणों को भगवान् भरोसे छोड़ देती है .

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तो फिर ये हक़दार क्यों नहीं –

केंद्र और राज्य सरकारें बात बात में राहत राशि और मुआवजा देते हैं जिसका बड़ा हिस्सा किसानों को जाता है . फसल को नुकसान सूखे से हो , ज्यादा बारिश और ओलों से हो या फिर किसी दूसरी वजह से हो किसानों को मुआवजे का एलान तुरंत हो जाता है . इसी तरह रेल हादसों में मरने बालों और घायलों को भी मुआवजे के एलान में देर नहीं की जाती क्योंकि इसमें गलती तो सरकार की ही होती है जिसे मानवीय भूल करार देते वह दोषी मुलाजिमों को बचा ले जाती है .

कहीं भगदड़ खासतौर से धार्मिक स्थल पर मचे तो भी सरकार मुआवजे का थाल सजा कर बैठ जाती है जिससे लोग भगवान् को न कोसने लगें और प्रशासन की लापरवाही और बदइन्तजामी का ठीकरा उसके सर न फोड़ें .वोट पकाने और हमदर्दी हासिल करने भी मुआवजे का मलहम सरकारें लगाती हैं लेकिन वह कामयाब हो इसकी कोई गारंटी नहीं रहती . चुनाव नजदीक देखते झारखण्ड के तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास ने तो मुआवजा मदों का रिकार्ड ही तोड़ डाला था इसके बाद भी उन्हें हार का स्वाद चखना पड़ा था उन्होंने इन हादसों पर 4 – 4 लाख रु के  मुआवजे का प्रावधान रखा था –

1 – सर्प दंश 2 – बिजली गिरने पर मौत . 3 – कम बारिश यानी सूखा पड़ने पर पेयजल संकट से मौत . 5 – डोभा , तालाब या नदी में डूबने पर मौत होने पर . 6 –  नाव हादसे में मौत पर . 7 गेस रिसने से मौत होने पर . 8 – भगदड़ मचने पर मौतें होने पर 9 – माइनिंग में हादसे में होने बाली मौतों पर . 10 – जैविक आपदा पर और 11 – सड़क हादसों पर भी मृतक के आश्रितों को मुआवजा . यानी केवल सामान्य मौतों पर ही मुआवजे के इंतजाम तत्कालीन  भाजपा सरकार ने नहीं किये थे .

ऐसे मामलों पर लगभग सभी राज्य सरकारें मुआवजे का प्रावधान रखती हैं यहाँ तक कि राह चलते कोई अज्ञात वाहन से भी मर जाए तो उसे भी आपदा विभाग के जरिये 4 लाख तक का मुआवजा सभी राज्यों में दिया जाता है . और तो और अपने राज्य से बाहर मरने बालों को भी मुआवजा देने सरकारें दौड़ पड़ती हैं . साल 2014 में उत्तरप्रदेश के मुख्यमत्री अखिलेश यादव ने मध्यप्रदेश की  धार्मिक नगरी चित्रकूट के कामदगिरी मंदिर हादसे में मारे गए श्रद्धालुओं को 2 – 2 लाख रु देने का एलान किया था और गंभीर रूप से घायलों को 50 – 50 हजार की राशि दी थी . साल 2006 से लेकर अब तक देश के बड़े नामी मंदिरों में मची दर्जन भर  भगदड़ में मरे सैकड़ों लोगों , हजारों घायलों को सरकार ने करोड़ों का मुआवजा दिया है .

लेकिन कोरोना से मरने बाले शायद उसकी नजर में पापी हैं जो उनके लिए वह कोई सटीक फैसला वह शायद तभी लेगी जब सुप्रीम कोर्ट इस मामले पर सख्त होगा . बार बार फैसले बदलना उसकी मुआवजा न देने की मंशा को ही उजागर करता है . पिछले साल अप्रेल में ही सरकार के जहाजरानी मंत्रालय ने बंदरगाहों के कर्मचारियों की कोरोना से मृत्यु होने उनके आश्रितों को 50 – 50 लाख रु देने की घोषणा की थी और स्वास्थकर्मियों का बीमा करने का भी एलान किया था .

लेकिन अब सवाल आम लोगों का है जो सरकारी लापरवाही और इलाज व आक्सीजन न मिलने से दम तोड़ रहे हैं .  जब हर कोई मुआवजे का हकदार है तो ये क्यों नहीं . सोचा जाना जरुरी है इससे पहले कि इसके भी दुष्परिणाम सामने आने लगें .

कोरोना को लेकर सख्ती: सुप्रीम कोर्ट से लेकर राज्य हाईकोर्ट तक, जानें किस कोर्ट नें क्या कहा सुनवाई में

मद्रास हाईकोर्ट ने सोमवार को राष्ट्रीय चुनाव आयोग कोरोना वायरस महामारी के दौरान चुनावी रैलियों को अनुमति देने को लेकर कड़ी फटकार लगाई है. मीडिया रिपोर्टस् के अनुसार, स्पष्ट रूप से नाराज दिख रहे चीफ जस्टिस संजीब बनर्जी ने कहा कि कोरोना की दूसरी लहर के लिए चुनाव आयोग जिम्मेदार है. चीफ जस्टिस ने आयोग को चेतावनी देते हुए कहा कि 2 मई को काउंटिंग के दिन के लिए कोविड प्रोटोकॉल बनाए जाएं और उनका पालन हो. ऐसा नहीं हुआ तो हम काउंटिंग शेड्यूल को रोकने पर मजबूर हो जाएंगे.

जब रैलियां हो रही थीं, तब क्या आप दूसरे ग्रह पर थे?

मुख्य न्यायाधीश ने अदालत के आदेश के बावजूद रैलियों में कोविड दिशानिर्देशों- जैसे मास्क, सैनेटाइजर का इस्तेमाल, सामाजिक दूरी का पालन न होने की बात कही, तब आयोग के वकील ने कहा इनका पालन हुआ था. इस पर जस्टिस बनर्जी नाराज हो गए और उन्होंने चुनाव आयोग से कहा, जब चुनावी रैलियां हो रही थीं, तब आप क्या किसी और ग्रह पर थे? जस्टिस बनर्जी ने आगे कहा, सार्वजनिक स्वास्थ्य सर्वोपरि है और यह चिंताजनक है कि संवैधानिक अधिकारियों को इस बारे में याद दिलाना पड़ता है. नागरिक जब जिंदा रहेगा तभी वह एक लोकतांत्रिक गणतंत्र द्वारा प्रदत्त अधिकारों का लाभ ले सकेगा. मुख्य न्यायाधीश संजीब बनर्जी तथा जस्टिस सेंथिलकुमार राममूर्ति की पीठ ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की हैं.

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इससे पहले 5 राज्य की हाईकोर्ट पहले ही लगा चुकी हैं फटकार

19 और 22 अप्रैल 2021 : बॉम्बे हाईकोर्ट –

हम इस बुरे समाज का हिस्सा होने पर शर्मिंदा हैं महाराष्ट्र में रेमडेसिविर की कमी पर बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने नोटिस लिया है. जस्टिस एस बी शुकरे और एस एम मोदक की खंडपीठ ने कहा, ‘अगर आप को खुद पर शर्म नहीं आ रही, तोहम इस बुरे समाज का हिस्सा होने पर शर्मिंदा हैं. ऐसे ही हम अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हट रहे हैं. आप हमारे मरीजों के प्रति लापरवाह हैं.’

रेमडेसिविर दवा मरीजों को वक्त पर ना मिलने पर कोर्ट ने कहा, ‘इस जीवन रक्षक दवा का लोगों का ना मिलना उनके मौलिक अधिकारों का हनन है. यह अब साफ है कि प्रशासन अपनी जिम्मेदारियों से पीछे भाग रहा है.’

19 अप्रैल 2021 : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तरप्रदेश के 5 शहरों में लॉकडाउन का आदेश दिया
उत्तर प्रदेश में कोरोना के बढ़ते मामलों को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए सुनवाई की. इस दौरान जस्टिस सिद्धार्थ वर्मा और जस्टिस अजीत कुमार की डिवीजन बेंच ने प्रदेश के सबसे ज्यादा कोविड-19 प्रभावित पांच शहर प्रयागराज, लखनऊ, वाराणसी, कानपुर नगर और गोरखपुर में 26 अप्रैल तक लॉकडाउन लगाने का आदेश दिया था, लेकिन सरकार ने इसे मानने से इनकार कर दिया था. सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले को चुनौती दी गई थी. सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी थी.

20 अप्रैल 2021 : मध्यप्रदेश हाईकोर्ट – दिनों में नहीं, घंटों में मिले रेमडेसिविर

प्रदेश में ऑक्सीजन और रेमडेसिविर इंजेक्शन की किल्लत के बीच मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने केंद्र को कड़ी फटकार लगाई है. जस्टिस मोहम्मद रफीक और जस्टिस अतुल श्रीधरन की डबल बेंच ने तीन याचिकाओं पर एक साथ सुनवाई करते हुए केंद्र व राज्य सरकार को 49 पेज के विस्तृत आदेश देकर 19 बिंदुओं की गाइडलाइन जारी की है. आदेश में हाईकोर्ट ने कहा, ‘हम मूकदर्शक बनकर यह सब नहीं देख सकते. कोरोना के गंभीर मरीजों को एक घंटे में अस्पताल में ही रेमडेसिविर इंजेक्शन सरकार उपलब्ध कराएं. केंद्र सरकार रेमडेसिविर का उत्पादन बढ़ाए. अगर जरूरत पड़े तो आयात करे.’

कोर्ट ने कहा कि केंद्र यह सुनिश्चित करे कि आगे से कोई भी किसी राज्य का ऑक्सीजन न रोक पाए. हाईकोर्ट ने रेमडेसिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी करने वालों पर सख्त कार्रवाई के भी आदेश दिए.

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21 अप्रैल 2021 : दिल्ली हाईकोर्ट – गिड़गिड़ाइए, उधार लीजिए या चुराइए, लेकिन ऑक्सीजन लेकर आइए

दिल्ली हाईकोर्ट ने 21 अप्रैल को ऑक्सीजन की कमी पर केंद्र और दिल्ली सरकार दोनों को फटकार लगाई है. कोर्ट ने केंद्र को इंडस्ट्रीज की ऑक्सीजन सप्लाई फौरन रोकने का निर्देश दिया है. कोर्ट मैक्स अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी को लेकर दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी. कोर्ट ने कहा कि ऑक्सीजन पर पहला हक मरीजों का है.

जस्टिस विपिन सांघी और रेखा पल्ली की बेंच ने कहा कि मरीजों के लिए अस्पतालों को ऑक्सीजन की आपूर्ति सुनिश्चित करना केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है. ऐसे में सरकार इतनी लापरवाह कैसे हो सकती है? आप गिड़गिड़ाइए, उधार लीजिए या चुराइए, लेकिन ऑक्सीजन लेकर आइए, हम मरीजों को मरते नहीं देख सकते.

कोर्ट ने पिछले दिनों सर गंगाराम अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी के चलते हुई मौतों का जिक्र करते हुए कहा कि ऑक्सीजन की कमी की वजह से अस्पताल लोगों को एडमिट नहीं कर रहे हैं और लोग घर पर ही मरने लगेंगे. पिछले कुछ दिनों से दिल्ली हाई कोर्ट लगातार विभिन्न अस्पतालों की याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा है, जिसमें अस्पताल ऑक्सीजन की कमी को दूर करने की मांग कर रहे हैं. बीते दिनों हाई कोर्ट को यहां तक कहना पड़ गया था कि अगर कोई सप्लाई रोकता है तो उसे हम बख्शेंगे नहीं और फांसी पर लटका देंगे.

22 अप्रैल 2021 : कोलकाता हाईकोर्ट ने कहा-गाइडलाइन जारी करके खुद बच नहीं सकते

कोरोना की महामारी के बीच चुनावी प्रचार-प्रसार में कोविड के नियमों की जमकर धज्जियां उड़ रही हैं. ऐसे में कलकत्ता हाईकोर्ट ने एक बार फिर से सख्ती दिखाई है. कोर्ट के मुख्य न्यायधीश टीबीएन राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति अरिजीत बनर्जी की खंडपीठ ने चुनाव आयोग को फटकार लगाते हुए कहा कि केवल गाइडलाइन जारी करने से वह अपनी जिम्मेदारियों से नहीं बच सकते. कोर्ट ने चुनावी सभाओं, रैलियों के इंतजाम को लेकर आयोग से कहा कि वह इस बात को सुनिश्चत करे कि पूरे राज्य में कोविड-19 के नियमों का पालन हो.

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सुप्रीम कोर्ट में कोरोना से निपटने के लिए सरकार के नेशन प्लान

कोरोना की दूसरी लहर में ऑक्सीजन की किल्लत और दूसरी परेशानियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में मंगलवार को सुनवाई हुई. कोर्ट ने केंद्र से पूछा कि संकट से निपटने के लिए आपका नेशनल प्लान क्या है? क्या वैक्सीनेशन ही मुख्य विकल्प है.

सुनवाई की शुरुआत में ही सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा, ‘हमें लोगों की जिंदगियां बचाने की जरूरत है. जब भी हमें जरूरत महसूस होगी, हम दखल देंगे. राष्ट्रीय आपदा के समय हम मूकदर्शक नहीं बने रह सकते हैं. हम हाईकोर्ट्स की मदद की जिम्मेदारी निभाना चाहते हैं. इस मामले में उन अदालतों (HCs) को भी अहम रोल निभाना है।’ सुप्रीम कोर्ट अब इस मामले पर 30 अप्रैल को सुनवाई करेगी.

सुप्रीम कोर्ट के केंद्र को 5 निर्देश

1. SC ने केंद्र से पूछा- ऑक्सीजन की सप्लाई को लेकर केंद्र को मौजूदा स्थिति स्पष्ट करनी होगी. कितनी ऑक्सीजन है? राज्यों की जरूरत कितनी है? केंद्र से राज्यों को ऑक्सीजन के अलॉटमेंट का आधार क्या है? राज्यों को कितनी जरूरत है, ये तेजी से जानने के लिए क्या प्रक्रिया अपनाई गई है?

2. गंभीर होती स्वास्थ्य जरूरतों को बढ़ाया जाए। कोविड बेड्स भी बढ़ाए जाएं.

3. वो कदम बताइए जो रेमडेसिविर और फेवीप्रिविर जैसी जरूरी दवाओं की कमी को पूरा करने के लिए उठाए गए।

4. अभी कोवीशील्ड और कोवैक्सिन जैसी दो वैक्सीन उपलब्ध हैं. सभी को वैक्सीन लगाने के लिए कितनी वैक्सीन की जरूरत होगी? इन वैक्सीन के अलग-अलग दाम तय करने के पीछे क्या तर्क और आधार हैं?

5. 28 अप्रैल तक जवाब दें कि 18+ आबादी के वैक्सीनेशन के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़े क्या मामले हैं.

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‘शगुन’ और ‘शकालाका बूमबूम’ फेम टीवी एक्ट्रेस एकता जैन को क्यों पसंद है जोधपुर

‘शाका लाका बूम बूम’,‘कहीं दिया जले कहीं पिया’ और ‘शगुन’ सहित कई टीवी सीरियलों और ‘खली बली’ सहित कई बौलीवुड फिल्मों का हिस्सा रही अभिनेत्री व मॉडल एकता जैन के अंदर विभिन्न भाषाओं में विविधता पूर्ण किरदार निभाने की अद्भुत क्षमता है. उनकी लोकप्रियता का आलम यह है कि फेसबुक पर उनके 5,78,000 फॉलोवर्स और 200 मिलियन पोस्ट रीच है.

एक तरफ एकता जैन जहां अभिनय के क्षेत्र में व्यस्त रहती हैं, वहीं उन्हें नई नई जगहों पर घूमने जाना पसंद है. उनका मानना है कि कि हर बार एक नई जगह जाकर वह काफी कुछ नया सीखती हैं.

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एकता जैन कहती हैं- ‘‘जब मैं मुंबई से बाहर किसी शहर या गांव में जाती हूं तो मैं वहां के लोगों से मिलती हूं, उनसे बातचीत करती हूं, वहां के पहनावे, बोल चाल की भाषा सहित बहुत कुछ जानकारी हासिल करती हॅूं, जो कि मुझे अलग अलग तरह के किरदार निभाने में सहायक होता है.’’ जब महाराष्ट्र में फिल्म व टीवी सीरियलों की शूटिंग पर प्रतिबंध लगा, तो एकता जैन राजस्थान के खूबसूरत शहर जोधपुर की यात्रा पर निकल गयीं.

वहां पर उन्होने राजस्थानी पारंपरिक महिला की तरह कपड़े पहने और जोधपुर के द उम्मेद होटल में कैमरे के लिए पोज दिया. एकता जैन ने पारंपरिक राजस्थानी पोशाक- गुलाबी और हरे घाघरा ओढ़नी और चूड़ा पहना था .उस वक्त वह राजस्थानी दुल्हन की तरह लग रही थीं, क्योंकि उन्होंने महल के खूबसूरत स्थानों में फोटोशूट कराया था.

अपनी जोधपुर की यात्रा की चर्चा करते हुए एकता ने कहा, ‘‘मैं राजस्थान की पारंपरिक संस्कृति और विरासत से प्यार करती हूं. जब आप राजस्थान के बारे में सोचते हैं, तो आप राज्य भर में रंगों, प्राचीन किलों और महलों और मनोरम स्थानों के बारे में सोचते हैं. जोधपुर एक सुंदर शहर है और यह ऐतिहासिक स्मारकों, महलों और समृद्ध विरासत से भरा हुआ है. मैंने अपनी जोधपुर यात्रा के दौरान घुड़सवारी भी सीखी. ‘‘ जहां तक अभिनय कैरियर का सवाल है तो उन्होंने हाल ही में दुष्यंत प्रताप सिंह की फिल्म ‘‘शतरंज’’ में पुलिस इंस्पेक्टर का किरदार निभाया है.

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फिल्म ‘‘शतरंज’’ की चर्चा करते हुए एकता जैन कहती हैं- ‘‘इस फिल्म में मेरा किरदार काफी चुनौतीपूर्ण है. पहली दफा पर्दे पर मैं एक पुलिस इंस्पेक्टर के किरदार में नजर आऊंगी. मैं भले ही एक महिला पुलिस का किरदार निभा रही हूं मगर इस किरदार और मेरी निजी जिंदगी में कई तरह की समानताएं हैं. फिल्म के किरदार की तरह ही निजी जिंदगी में मैं भी काफी ऊर्जावान व जीवंत किस्म की लड़की हूं.

इस फिल्म में कई रोमांचक ट्विस्ट्स देखने को मिलेंगे. इसमें बताया गया है कि कैसे जिंदगी के खेल में लोगों को मोहरे की तरह इस्तेमाल किया जाता है. मैं इस बात को लेकर बेहद खुश हूं कि मुझे दुष्यंत प्रताप सिंह जैसे प्रतिभावान निर्देशक के साथ काम करने का मौका मिल रहा है.‘‘ जबकि वह एक अन्य फिल्म ‘‘त्राहिमाम’’ की शूटिंग पूरी कर चुकी हैं.

एकता जैन एक बड़ी बॉलीवुड फिल्म का हिस्सा बनने के लिए तैयार हैं और औपचारिक घोषणा का इंतजार है. वह अनूप जलोटा के निर्देशन में बन रही फिल्म ‘सत्य साईं बाबा 2’ में भी नजर आएंगी. इसे मुंबई के अलावा बंगलोर मे फिल्माया जाएगा. इतना ही नहीं एकता जैन ने एक अंतर्राष्ट्रीय फिल्म के लिए शूटिंग और डबिंग भी पूरी की है.

कोरोना का कहर: मौत के गर्त में भारत , WHO ने जताई चिंता

अभी हाल ही में सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें एक व्यक्ति अपनी परेशानियां बता रहा…वो कहता है कि “मैं सुबह से यहां मरीज को दिखाने के लिए आया हूं कभी दवाईयों के लिए भाग रहा हूं तो कभी प्लाज्मा के लिए …डॉक्टर्स कहते हैं जाओ प्लाज्मा लाओ….अरे हम मरीज को देखें या भागते ही रहें. कम से कम बेसिक चीजों जैसे कि ऑक्सीजन , बेड, प्लाज्मा, दवाईयां इनकी जरूरत होती है अस्पतालों में वो तक नहीं हैं. कब करेगी सरकार व्यवस्था इसकी ?”

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तो वहीं दूसरी ओर यमुना विहार के पंचशील नर्सिंग होम के मालिक ने डीएम ऑफिस से ऑक्सीजन खत्म होने पर मदद मांगी तो डीएम ऑफिस की ओर से मदद करने के बजाय नोटिस भेज दिया कि आप खुद 5 बजे तक ऑक्सीजन की व्यवस्था करें नहीं तो आपके खिलाफ एक्शन लिया जाएगा. अब भला सोचिए कि जो डॉक्टर खुद सरकार से मदद मांग रहा है वो कहां से इसकी व्यवस्था करेगा ? कोरोना विकराल हो चुका है…पूरा देश इसकी चपेट में है…लगातार लोगों की जान जा रही है…शर्मसार करने वाली बात ये है कि लोगों की अंतिम विदाई भी ठीक से नहीं हो पा रही है…लोग अपने मरने वाले परिवारजन के अंतिम दर्शन तक नहीं कर पा रहे हैं. शवों को ले जाने के लिए एंबुलेंस तक नहीं मिल पा रहा है…कोरोना की भयावहता के बीच ऐसी तस्वीर आई है, वो बेहद दर्दनाक है दरअसल ये तस्वीर ये महाराष्ट्र के बीड़ की है जिसमें एक अस्पताल से एक एंबुलेंस में ठूंस- ठूंस कर लाशें रखी गई थीं. अब आप खुद सोचिए कि हिंदुस्तान में स्थिति क्या है?

काली और पीली पॉलिथिन में एक-दो नहीं बल्कि पूरे 22 लाशें हैं . छोटी सी एंबुलेंस में एक के ऊपर एक बॉडी रखी हुई है. कुछ बॉडी स्ट्रेचर के ऊपर रखी गई है तो कुछ बॉडी स्ट्रेचर के नीचे. किसी तरह एंबुलेंस में कसकर..भरकर इन लाशों को अस्पताल से कब्रिस्तान तक लाया गया….कोई अपने बेटे को ई- रिक्शा से श्मशान घाट ले जा रहा तो कोई गोद में उठा कर…इस तरह की चरमराती व्यवस्था से सरकार पर सवाल उठ रहा है और उनके मुंह पर एक तमाचा ही है क्या हो रहा है देश में क्या सुध है किसी को या बस चुनाव और आईपीएल ही दिख रहा है उन्हें.

फिलहाल..हर शख्स बेकाबू होते जा रहे कोरोना की रफ्तार से डरा हुआ है..और हो भी क्यों ना आखिरकार केन्द्र सरकार से लेकर राज्य सरकारें भी वायरस की रफ्तार को काबू करने की पूरी जद्दोजहद में जुटी हुई है, लेकिन हर कोशिश नाकाम होती नजर आ रही है. इसी सिलसिले में दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल लगातार अधिकारियों के साथ मीटिंग कर रहे हैं. ऑक्सीजन की किल्लत को दूर करने के लिए कई अहम कदम उठाए गए हैं.

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केजरीवाल ने कहा है कि दिल्ली सरकार ने बैंकॉक से 18 टैंकर और फ्रांस से 21 ऑक्सीजन के प्लांट आयात करने का निर्णय लिया है….टैंकर आज से आने शुरू हों जाएंगे इतना ही नहीं दूसरी तरफ…. दिल्ली हाईकोर्ट ने सीधा कहा कि अगर दिल्ली सरकार से स्थिति नहीं संभल रही तो बताएं, केंद्र को स्थिति संभालने के लिए कहा जाएगा..कोर्ट ने दिल्ली सरकार से हलफनामा दायर करने को कहा है जिसमें दिल्ली में ऑक्सीजन रिफिलर्स की जानकारी मांगी गई है.

लेकिन इतना सब होने के बावजूद भी…भारत में कोरोना महामारी से बिगड़ते हालातों को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organisation) ने चिंता जाहिर की. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के महानिदेशक टेड्रोस अदहानोम गेब्रेयेसस (Who Chief Tedros Adhanom Ghebreyesus) ने भारत में कोरोना वायरस के हाल में तेजी से बढ़ते मामलों को ‘दिल दहलाने वाला’ बताया और कहा कि संयुक्त राष्ट्र एजेंसी ने कई ऑक्सीजन मशीनों समेत भारत में अहम सामग्री की आपूर्ति की है. उन्होंने कहा कि भारत में कोरोना की दूसरी लहर नहीं सुनामी जैसे हालात हैं. लाशों से श्मसान भरे पड़े हैं….दिन – रात श्मशानों पर लाशों के आने का सिलसिला जारी रहता है…ये स्थिति बहुत ही चिंताजनक है.

और यही कारण है कि भारत मौत के गर्त में जाता दिखाई दे रहा है….आगे क्या होंगे देश के हालात ये वक्त पर ही निर्भर करता है.

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कोरोना ने बदल दी ‘अंतिम संस्कार’ की परिभाषा

हिन्दू धर्म में अंतिम संस्कार का अपना एक अलग ही विधान पुराणजीवियों के द्वारा बताया गया है. इसमें मरने के बाद सबसे पहले यह देखा जाता था कि मरने वाला अच्छे समय में मरा है या नहीं. अगर मरते समय पंचक लगा होता था तो अंतिम क्रिया के पहले पंचक शाति के लिये पूजा होती थी. अंतिम क्रिया में चिता की लकडी आम और चंदन का प्रयोग होता था. घी और गंगाजल का प्रयोग होता था. शव की अंतिम क्रिया से पहले नदी के पानी में नहलाया जाता था.

मरने वाले की आत्मा को शाति मिले इसके लिये गाय का दान और कई तरह के दान पंडित को दिये जाते थे. चिता के शव की राख को ले जाकर गंगा दी में प्रवाहित किया जाता था. क्योकि हिन्दू धर्म में अंतिम क्रिया गंगा के किनारे सबसे श्रेष्ठ मानी जाती है. अब हर शव गंगा के किनारे नहीं जलाया जा सकता इस कारण शव की चिता के अंष को गंगा में प्रवहित करने का चलन था. अंतिम संस्कार के बाद तेरहवी का संस्कार होता था. जिसमें बाल बनवाने से लेकर दावत खिलाने तक के काम होते थे.

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ना दान ना संस्कार:

कोरोना काल में इस अंतिम संस्कार की परिभाषा बदल गई है. जिन लोगों मौत कोरोना से हो रही है उनके शव को अंतिम संस्कार के लिये घर वालों को नहीं दिया जाता है. यह शव पूरी तरह से पीपी किट में पैक होता है. अस्पताल से शव दाह संस्कार के लिये घाट पर ले जाया जाता है. वहां लकडी की जगह पर बिजली से शव को जलाया जाता है. शव को पीपी किट सहित की जला दिया जाता है. कोरोना से मरने वालों की संख्या बढने के बाद बिजली से जलाने में 3 से 4 घंटे का वक्त लगता है. ऐसे में अब खुले में लकडियों के सहारे ही शवदाह होने लगा है.

इससे शव को जलाने के लिये आम और चंदन तो मिल ही नहीं रहा. जंगल की जलाऊ लकडी वाले पेडो से मिलने वाली लकडी का ही प्रयोग किया जाता है. शव को जलाने के समय किसी भी तरह के अंतिम संस्कार में होने वाली पूजा को नहीं किया जाता है. ना ही घर वालों को कपाल क्रिया करने का मौका मिलता है. शव के जल जाने के बाद जगह को खाली करने के लिये सरकारी जेसीबी मशीन से वहां को साफ कर दिया जाता है. जिससे नये शवों का दाह संस्कार हो सके.

ना घर परिवार ना रिश्तेदार :

अंतिम संस्कार की पूरी प्रकिया को देखे तो कोरोना काल में यह पूरी तरह से बदल गई है. पहले जहां अंतिम क्रिया में घर, परिवार, मित्र और नाते  रिश्तेदार शामिल होते थे. अब केवल सरकारी मशीनरी  ही काम करती है. पंडित, पुजारी और घाट पर काम करने वाले डोम अब इसका हिस्सा नहीं रह गये है. अंतिम संस्कार के बाद चिता की राख को गंगा में प्रवाहित करना मुष्किल हो गया है. क्योकि सामूहिक अंतिम संस्कार में चिता को पहचान कर उसकी राख ले जाना नामुमकिन हो गया है. उसको उपर वहां जाने पर कोरोना फैलने के खतरे को देखते हुये तमाम परिवार वहां जाने से बचते है.

अंतिम संस्कार के बाद होने वाली पूजा, तेरहवीं संस्कार भी केवल दिखावे के लिये रह गये है. तमाम परिवार अखबारों में विज्ञापन देने और षंातिपाठ से ही पूरी तेरहवीं संस्कार को पूरा मान लिया जाता है. कई परिवारों ने अब ‘जूम एप‘ घर परिवार और दोस्तो को आपस में जोडकर अंतिम संस्कार को पूरा करते है. इस तरह से कोरोना ने पूरे अंतिम संस्कार को बदल दिया है. अंतिम संस्कार को लेकर होने वाले इस बदलाव का विरोध अब कोई वर्ग नहीं कर रहा है. इसे सहज रूप से सभी ने स्वीकार कर लिया है. अब इसका पालन भी लोग करना चाहते है. जिससे किसी और में इस की बीमारी को फैलने से रोका जा सके.

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हाशिये पर तेरहवी संस्कार :

देखा जाये तो हिन्दू धर्म में अंतिम संस्कार और तेंरहवी संस्कार को लेकर विरोध शुरू से रहा है. लेकिन पंडे पुजारी हमेशा ही विरोध करने वालों को गलत बताते थे. यही वजह है कि कोरोना से पहले विद्युत शवदाह में अंतिम संस्कार  करने वालों को हिन्दू धर्म का विरोधी माना जाता था. लकडियो के जरीये अंतिम संस्कार का भी विरोध होता था. क्योकि शव को जलाने के लिये पेड का काटना पडता था. यह पर्यावरण को नुकसान पहंुचाता था. धर्म के पांखड के चलते लोग लकडियो का प्रयोग बंद ही नहीं करना चाहते थे. आज कोरोना काल में उसी विद्युत शवदाह की तरफ हर कोई जाना चाहता है.

तेरहवी संस्कार भी केवल नाममात्र का बचा है. उसमें भी अब कोई बाध्यता नहीं रह गई है. इसकी सबसे बडी वजह यह है कि अब लोग ऐसे कार्यक्रमो में कम जाना चाहते है. दूसरे सामान्य परिवार इस तरह से खर्च से बचना चाहते थे. मरीज के इलाज के दौरान अस्पताल में ही इतना खर्च हो जाता है कि लोगो के पास पैसे नहीं होते. उनको कर्ज लेकर काम चलाना पडता है. खर्च का बोझ कम करने के लिये ऐसे खर्चीले संस्कारो को टाल दिया जाता है.

घर वाले भी होते हैं बीमार:
कोरोना संक्रमण में परिवार के एक आदमी के बीमार होने से दूसरे लोगों पर भी प्रभाव पडता है. कई मामलों में एक ही घर के कई कई लोग बीमार होते है. कई मामलों में घर के कई सदस्य अस्पताल में होते है. ऐसे में अगर एक व्यक्ति की मौत हो गई तो उसके क्रियाकर्म को देखने वाला भी कोई नहीं रहता है. ऐसे में तेरहवी और बाकी संस्कार की बात ही कठिन होती है. अस्पताल और इलाज में इतना पैसा खर्च हो जाता है कि परिवार की आर्थिक हालत बेहद खराब हो जाती है. जिसकी वजह से हर परिवार किसी तरह से केवल अपने जीवनयापन की तरफ ही ध्यान दे पाता था. ऐसे में तमाम कर्मकांडो को वह छोडना चाहता है. धार्मिक और पुराणजीवियों के दबाव में अभी तक वह रूढियो और रीति रिवाजों को तोडने का साहस नहीं दिखा पा रहा था. कोरोना काल में रिवाज खुद की टूट रहे है और अब इसका विरोध पुराणजीवी और पंडे भी नहीं कर पा रहे है.

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15 सालों तक शाहरुख खान के बॉडी डबल रहे प्रशांत वाल्दे इस फिल्म से बने हीरो

फिल्म इंडस्ट्री में बड़े बड़े स्टार व सुपर स्टार कलाकार के बॉडी डबल या हम शक्ल कलाकारों का बड़ी फिल्मों की शूटिंग में बहुत बड़ा योगदान होता है. तकनीक की मदद से बॉडी डबल कई महत्वपूर्ण फिल्मों के अति खतरनाक दृश्य में स्टार कलाकार की जगह स्वयं अभिनय करते हैं. तो कई बार खतरनाक स्टंट भी निभाते हैं. कई बार यह फिल्मों की एडिट टेबल पर कई फँसे हुए दृश्यों की रीशूट के लिए महत्वपूर्ण साबित होते हैं. लेकिन अधिकतर बॉडी डबल प्रतिभाशाली स्टार्स के चमक दमक और स्टारडम के नीचे गुमनामी के अंधेरे में गुम हो जाते हैं.

यूं भी दर्शक फिल्म देखते समय यही अहसास करता है कि इस खतरनाक सीन को भी उसके चहेते कलाकार ने ही अंजाम दिया है. ऐसे ही एक कलाकार हैं प्रशांत वाल्दे, जिन्हें अब तक बौलीवुड में सुपर स्टार शाहरुख खान का बॉडी डबल माना जाता रहा है. प्रशांत वाल्दे ने सुपर स्टार शाहरुख खान की कई फिल्मों में उनके साथ काम किया.

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अभिनय प्रतिभा और फिल्मों के प्रति अपनी दीवानगी के चलते अब वह अपनी पहली फिल्म ‘‘प्रेमातुर’’ के साथ बौलीवुड में छा जाने के लिए तैयार हैं. हिंदी फिल्म ‘‘प्रेमातुर’’ में दर्शकों को शाहरुख खान की कई फिल्मों के आयकॉनिक दृश्यों की झलक भी नजर आएगी. लेकिन यह एक ऐसी फिल्म हैं, जिसमें अपने प्यार को पाने के दिवानगी नेक्सट लेबल पर देखने को मिलेगी. यह फिल्म सात मई को प्रदर्शित होने वाली है.

शाहरुख खान के बॉडी डबल प्रशांत वाल्दे पिछले 15 वर्षों से उनके साथ काम करते रहे हैं. प्रशांत वाल्दे ओम शांति ओम, डॉन, चेन्नई एक्सप्रेस, डियर जिंदगी, रईस, फैन जैसे कई फिल्मो के शाहरुख खान के बॉडी डबल रहे हैं. शाहरुख की तरह प्रशांत सिर्फ दिखते ही नहीं बल्कि अभिनय और फिल्म मेकिंग के लिए बहुत एक्साइटेड भी रहते हैं. इसलिए प्रशांत वाल्दे ने जब फिल्म अपनी पहली फिल्म परदे पर बतौर हीरो बनायी,तो उसे किंग खान को डेडिकेट किया हैं.

प्रशांत वाल्दे, शाहरुख के लुक लाइक से कहीं ज्यादा उनके बड़े फैन हैं. तभी तो अपनी पहली फिल्म ‘प्रेमातुर’ को किंग खान को समर्पित करते हुए कई सारे पॉपुलर मूव्स और मोमेंट्स रखे हैं. फिल्म देखते समय दर्शक हैरान होता रहेगा कि वह परदे पर शाहरुख खान को देख रहा है.

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‘‘अनुग्रह एंटर्टेन्में’के बैनर तले निर्मित ‘‘प्रेमातुर’ रोमांचक, हॉरर और रोमांटिक फिल्म है. जिसमें प्रशांत वाल्दे के साथ ही हेता शाह,कल्याणी कुमारी , श्रीराज सिंह , अमित सिन्हा , वीर सिंह , और बिंध्या कुमारी विभिन्न किरदारो में नजर आएंगे. इसका निर्देशन सुमित सागर ने किया हैं. जबकि फिल्म के निर्माता स्वयं प्रशांत वाल्दे और सह निर्माता शांतनु घोष, सत्या और प्रवीण वाल्दे हैं.

फिल्म की कहानी, पटकथा व संवाद प्रशांत वाल्दे ने लिखे हैं. रोमांटिक म्यूजिकल फिल्म ‘‘प्रेमातुर’’के गाने ‘आती क्या खंडाला.. ’फेम नितिन रायकवार ने लिखा हैं.

ब्रह्म राक्षस : विक्रम ने कैसे लिया अपनी पत्नी की बेइज्जती का बदला

‘‘आज से हमारा पति पत्नी का रिश्ता खत्म हो गया.’’

‘‘क्यों? उस में मेरा क्या कुसूर था?’’

‘‘कुसूर नहीं था, पर तुम्हारे दामन पर कलंक तो लग ही गया है.’’

‘‘तुम मेरे पति थे. तुम्हारे सामने ही मेरी इज्जत लुटती रही और तुम चुपचाप देखते रहे.’’

‘‘उस समय तुम्हारे पिता भी तो थे.’’

‘‘उन्होंने तो मुझे तुम्हें सौंप दिया था.’’

‘‘मैं अकेला क्या कर सकता था? वे लोग गिरोह में थे और सब के पास हथियार थे.’’

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‘‘तो तुम मर तो सकते थे.’’

‘‘मेरे मरने से क्या होता?’’

‘‘तुम अमर हो जाते.’’

‘‘नहीं, यह खुदकुशी कहलाती.’’

‘‘अब मेरा क्या होगा?’’

‘‘मुझे 10 हजार रुपए तनख्वाह मिलती है. हर महीने 5 हजार रुपए तुम्हें दे दिया करूंगा. इस के लिए तुम्हें कोई कानूनी लड़ाई नहीं लड़नी पड़ेगी. तुम चाहो तो दूसरी शादी भी कर सकती हो.’’

‘‘क्या तुम करोगे दूसरी शादी?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘तो फिर तुम मुझे दूसरी शादी करने की क्यों सलाह दे रहे हो?’’

‘‘यह मेरा अपना विचार है.’’

‘‘मैं जाऊंगी कहां?’’

‘‘तुम अपने पिता के साथ मायके चली जाओ.’’

‘‘और तुम?’’

‘‘मैं अकेला रह लूंगा.’’

‘‘क्या, मेरा कलंक अब कभी नहीं मिटेगा?’’

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‘‘मिटेगा, जरूर मिटेगा. लेकिन कैसे और कब, नहीं बता सकता.’’

‘‘फिर क्या तुम मुझे अपना लोगे?’’

‘‘यह मेरे जिंदा रहने पर निर्भर करता है. अब तुम मायके जाने की तैयारी करो. बाबूजी तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.’’

तारा अपने पिता के साथ मायके चली गई. उस के पति विक्रम ने उस के जाने के बाद अंदर से दरवाजा बंद कर लिया. वह गहरी सोच में पड़ गया.

घर की हर चीज तारा की यादों को ताजा करने लगी थी. तारा की जब इज्जत लूटी जा रही थी, तब विक्रम हथियारों के घेरे में बिलकुल कमजोर खड़ा था. वह नजर उस के दिलोदिमाग को बोझिल बना रही थी. उसे अपने ठंडे खून पर गुस्सा आ रहा था.

तारा ने ठीक ही कहा था, ‘कम से कम मर तो सकते थे.’

क्यों नहीं मरा? वह मौत से क्यों डर गया था?

बहुत से लोगों को उस ने मरते देखा था, फिर भी मौत के डर से छूट नहीं सका. बलात्कारी परशुराम का अट्टहास करता चेहरा बारबार उस की आंखों के सामने घूम रहा था.

डर की एक तेज लहर विक्रम के भीतर से उठी. वह कांप उठा था. सारा शरीर पसीने से गीला हो गया. उसे ऐसा लगने लगा था कि परशुराम का खौफनाक चेहरा उसे जीने नहीं देगा. बहुत कोशिशों के बावजूद भी विक्रम की आंखों के सामने से उस का चेहरा हट नहीं रहा था. वह चेहरा जैसे हर जगह उस का पीछा करने लगा था, बलात्कार का वह घिनौना नजारा भी उस के साथ ही उभरने लगा था.

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तारा का डर और शर्म से भरा चेहरा भी परशुराम के खौफनाक चेहरे के साथ उभरता रहा. उसे याद आया कि किस तरह तारा मदद के लिए बारबार उस की तरफ देखती और वह हर बार उस से अपनी आंखें चुरा लेता था. परशुराम और उस के साथियों की हंसी अब भी उस के कानों से टकरा रही थी.

तकरीबन एक घंटे बाद बदमाश जा चुके थे. इस के बाद 1-1 कर के धीरेधीरे भीड़ जमा होने लगी थी. सब लोग डरेसहमे बेजान से लग रहे थे. विक्रम पहले की तरह खड़ा रहा, मानो उस के पैर जमीन से चिपक गए हों.

अचानक बाहर शोर सुनाई दिया, तो विक्रम धीरे से उठा. उस ने देखा कि बलात्कारी परशुराम अपने साथियों के साथ फूलमालाओं से लदा मस्ती में जा रहा है.

विक्रम चुपचाप उस भीड़ में शामिल हो गया. कुछ लोगों ने उसे पहचान लिया. उन के चेहरों पर कुटिल हंसी दिखाई दे रही थी.

भीड़ में से एक आदमी बोला, ‘‘इसी की बीवी के साथ बलात्कार हुआ था, इस की आंखों के सामने. और इस के ससुर भी वहीं थे. इस ने अपनी बीवी से संबंध तोड़ लिया है. अब मौज से दूसरी शादी करेगा. इस की बीवी जिंदगीभर अपना कलंक ढोती रहेगी.’’

‘‘पैसे में बड़ी ताकत होती है. पैसे के बल पर ही तो परशुराम को जमानत मिली है.’’

‘‘तारा से ऐसेऐसे सवाल पूछे जाएंगे, जो दूसरे बलात्कार जैसे ही होंगे. एक बार परशुराम ने तारा के पति और पिता के सामने उस के साथ बलात्कार किया, दूसरी बार बचाव पक्ष के वकील भरी अदालत में जज की मौजूदगी में तारा से उलटेसीधे सवाल पूछेंगे, जिस से उसे दूसरे बलात्कार का एहसास होगा.’’

‘‘गवाही देने की भी हिम्मत कौन करेगा? समाज ही तो पालता है परशुराम जैसे लोगों को.’’

जितने मुंह उतनी बातें. धीरेधीरे भीड़ छंटने लगी थी. परशुराम के घर पहुंचतेपहुंचते थोड़े ही लोग रह गए थे. विक्रम अभी भी सिर झुकाए उसी भीड़ में चल रहा था. परशुराम को उस के घर पहुंचा कर भीड़ वापस चली गई थी. विक्रम वहीं डरासहमा खड़ा रहा.

परशुराम जैसे ही अंदर जाने लगा, विक्रम ने धीरे से कहा, ‘‘कुछ मेरी भी सुन लो परशुराम दादा.’’

आवाज सुन कर परशुराम पीछे मुड़ा, ‘‘क्या कहना चाहते हो?’’

‘‘यहां नहीं दादा, उस बाग में चलो,’’ विक्रम बोला.

परशुराम ने उसे घूरते हुए कहा, ‘‘वहां क्यों?’’

‘‘दादा, बात ही कुछ ऐसी है.’’

‘‘अच्छा चलो,’’ घमंड से भरा परशुराम विक्रम के साथ बाग तक गया. उस ने सोचा कि यह डरासहमा आदमी उस का क्या कर लेगा.

उस ने अंदर की जेब में रखे अपने कट्टे को टटोला. वहां पहुंच कर उस ने पूछा, ‘‘हां, अब बताओ?’’

‘‘दादा, मैं ने अपनी बीवी को छोड़ दिया है.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘वह दागी हो गई थी न दादा.’’

परशुराम के होंठों पर मुसकान उभर आई. वह बोला, ‘‘मुझे तुम से हमदर्दी है विक्रम, पर क्या करता तुम्हारी बीवी चीज ही ऐसी थी.’’

उस का इतना ही कहना था कि विक्रम गुस्से से तमतमा गया, मानो उस के जिस्म में कई हाथियों की ताकत आ गई हो. उस ने परशुराम को अपने हाथों में उठा लिया और उसे जमीन पर तब तक उठाउठा कर पटकता रहा, जब तक कि वह मर नहीं गया.

आसपास के सभी लोग यह नजारा देखते रहे, मगर कोई भी उसे बचाने नहीं आया. परशुराम की चीखें चारों तरफ गूंजती रहीं, मगर किसी पर उस का असर नहीं हुआ.

परशुराम की हत्या कर विक्रम सीधे पुलिस स्टेशन पहुंचा, जहां उस ने सारी बातें दोहरा दीं. पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया. तारा को जब इस बात का पता चला, तो वह उस से मिलने जेल आई.

विक्रम ने उसे बड़े ही गौर से देखा और मुसकरा कर कहा, ‘‘तारा, तुम्हारा कलंक मिट गया है. जेल से छूटने के बाद तुम्हें आ कर ले जाऊंगा. मेरा इंतजार करना. करोगी न?’’

‘‘हां, जिंदगीभर,’’ कहतेकहते तारा रो पड़ी.

बांग्लादेश में हिंसा: मोदी विरोध या भारत विरोध?

लेखक- शाहनवाज

बंगलादेश के 50वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आयोजित समारोह में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मुख्य अतिथि बनाए जाने के विरोध में वहां भड़की हिंसा ने कई सवालों को खड़ा किया है. बंगलादेश में स्वतंत्रता के 50 साल पूरे होने पर वहां की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने नरेंद्र मोदी को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया. जिस के विरोध में बंगलादेश में खूनी हिंसा हुई. अल्पसंख्यकों (हिंदू), यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले छात्रों, पत्रकारों, मंदिरों, रेलगाडि़यों आदि पर हमले हुए. इन घटनाओं से 12 लोग जान गंवा चुके हैं.

ऐसे में कुछ बुनियादी सवाल हैं जिन के जवाब बंगलादेश में प्रदर्शन कर रहे लोग ही दे सकते हैं कि आखिर किस वजह से वे नरेंद्र मोदी का विरोध कर रहे हैं? क्या विरोध करने का कारण मोदी का विरोध है या वे भारत का विरोध कर रहे हैं? क्या प्रदर्शन कर रहे लोग नरेंद्र मोदी के केवल अतिथि बनाए जाने का विरोध कर रहे हैं या फिर उन के गुस्से का केंद्र शेख हसीना भी हैं? आखिर नरेंद्र मोदी से बंगलादेश की जनता इतनी खफा क्यों हैं? इन सवालों के जवाब जानने के लिए सरिता की टीम ने बंगलादेश के प्रदर्शनकारी छात्रों व कुछ महत्त्वपूर्ण लोगों से बात की. कब और कैसे शुरू हुआ विरोध 8 मार्च को बंगलादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने नरेंद्र मोदी को 26 मार्च को होने वाले समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में पधारने के लिए आमंत्रित किया.

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उस के बाद 15 मार्च से बंगलादेश में नरेंद्र मोदी के आगमन के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गया. यह आंदोलन मुख्य रूप से बंगलादेश के विभिन्न वामपंथी छात्र संगठनों द्वारा शुरू किया गया. बाद में साधारण लोगों और विभिन्न इसलामी समूहों ने भी नरेंद्र मोदी के आगमन का विरोध करना शुरू कर दिया. बंगलादेश की राजधानी ढाका स्थित जगन्नाथ यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करने वाले और बंगलादेश स्टूडैंट्स यूनियन के असिस्टैंट जनरल सैक्रेटरी खैरूल हसन जहीन बताते हैं, ‘‘नरेंद्र मोदी की विभाजनकारी नीतियों के खिलाफ हमारा आंदोलन पिछले साल से ही शुरू हो चुका था. पिछले साल 17 मार्च को ही जब शेख हसीना ने नरेंद्र मोदी को राष्ट्रपिता मुजीबुर रहमान के 100वें जन्मदिवस की वर्षगांठ के अवसर पर निमंत्रित किया था तभी से ही बंगलादेश के आम व प्रगतिशील नागरिक नरेंद्र मोदी के देश में आगमन का विरोध कर रहे थे.

लेकिन उस समय कोविड-19 के चलते न तो नरेंद्र मोदी यहां आए और न ही हमारा प्रोटैस्ट व आंदोलन आगे बढ़ा.’’ वे आगे बताते हैं, ‘‘इस प्रदर्शन में देश के विभिन्न राजनीतिक दृष्टिकोण रखने वाले लोग, विभिन्न विचारधारा के लोग, स्टूडैंट्स, शिक्षक, वरिष्ठ पत्रकार और आम नागरिक भी मौजूद रहे. इन प्रदर्शनकारियों व आंदोलनकारियों पर केवल मुसलिम होने का आरोप लगाना बड़ी भूल होगी.’’ खैरूल अपनी बात स्पष्ट करते हुए कहते हैं, ‘‘18 मार्च को ढाका यूनिवर्सिटी की मधुर कैंटीन में सभी प्रगतिशील छात्रों ने मिल कर एक प्रैसवार्त्ता का आयोजन किया था.

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लेकिन बंगलादेश की सत्ता में बैठी सरकार (अवामी लीग) के छात्र संगठन (बंगलादेश छात्र लीग) ने इस आयोजन पर हमला कर दिया. बंगलादेश छात्र लीग के कार्यकर्ताओं ने मोदी का विरोध कर रहे सैकड़ों बच्चों को मारापीटा और पत्रकारों के साथ भी बदसुलूकी की.’’ ढाका की जगन्नाथ यूनिवर्सिटी से ही एंथ्रोपोलौजी की पढ़ाई कर रहीं आसमानी आशा बताती हैं, ‘‘इन विरोध प्रदर्शनों में महिलाओं की संख्या पुरुषों के लगभग बराबर थी. लेकिन इन पुलिस और छात्र लीग की बर्बरता का शिकार महिला छात्र ज्यादा हुईं और मैं खुद भी शिकार हुई. ‘‘हम इन प्रदर्शनों में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर साथ रहे हैं. हमारी भूमिका प्रदर्शनों में कम नहीं थी. लेकिन जब कभी पुलिस ने या छात्र लीग ने हम पर हमला किया तो उस में सब से अधिक नुकसान हम महिला छात्राओं को हुआ.

पुलिस और गुंडों द्वारा हमारे प्राइवेट पार्ट्स पर हमले किए जा रहे थे. उस दौरान मु?ो भी चोटें आईं.’’ कहां किस तरह की घटनाएं बंगलादेश में नरेंद्र मोदी के विरोध में हो रहे शांतिपूर्ण आंदोलन को शुरुआत से ही हिंसा की ओर धकेल दिया गया. 26 मार्च के मेन इवैंट से पहले ही देश के विभिन्न हिस्सों- विश्वविद्यालयों, मदरसों में प्रगतिशील छात्रों का विरोध शुरू हो चुका था. उसे दबाने के लिए पुलिस और बंगलादेश छात्र लीग के कार्यकर्ताओं ने भरसक प्रयास किए और हिफाजत ए इसलाम के आने के बाद यह आंदोलन उग्र होता चला गया. 25 मार्च को ढाका में राष्ट्रीय मसजिद बैतूल मुकर्रम में शुक्रवार की नमाज के बाद लोगों ने आंदोलन शुरू किया. बंगलादेश में सब से बड़ा मदरसा चटगांव में हत्जारी मदरसा है. 26 मार्च को मदरसा छात्रों ने एक जुलूस का आयोजन किया जिस ने कुछ समय बाद हिंसक रुख इख्तियार कर लिया.

इस के बाद ब्राह्मणबारिया जिले में मदरसे के छात्रों और हिफाजत ए इसलाम के कार्यकर्ताओं ने रेलवे स्टेशन पर हमला किया, पुलिस स्टेशन पर हमला किया. बंगलादेश में लोगों ने आजादी की स्वर्ण जयंती के दिन इन सब घटनाओं के बारे में कल्पना भी नहीं की होगी. यही नहीं, नरेंद्र मोदी के भारत में वापसी होने के बाद भी बंगलादेश में हिंसा नहीं थमी. ढाका में हिफाजत ए इसलाम और प्रतिबंधित जमात ए इसलामी द्वारा 29 मार्च को सुबह से ले कर शाम तक बुलाए गए राष्ट्रव्यापी बंद के दौरान हुई हिंसा में कम से कम 500 लोग घायल हो गए. क्यों कर रहे विरोध बंगलादेश की जहांगीरनगर यूनिवर्सिटी से इकोनौमिक्स में पोस्टग्रेजुएशन कर चुके और सोशलिस्ट स्टूडैंट्स फ्रंट के जनरल सैक्रेटरी नासिर उद्दीन पिं्रस कहते हैं, ‘‘बंगलादेश की आजादी का अपना इतिहास है.

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1971 के महान स्वाधीनता संग्राम में सभी धार्मिक संगठनों ने आजादी के लिए संघर्ष का विरोध किया था, चाहे वह मुसलिम लीग हो, जमात ए इसलामी हो या निजाम ए इसलाम हो. इन्हीं कट्टरपंथियों को परास्त करने के बाद ही प्रगतिशील लोगों ने मिल कर बंगलादेश की आजादी की लड़ाई लड़ी थी. लेकिन इस आजादी को 50 साल होने पर एक ऐसे सांप्रदायिक व्यक्ति को चीफ गैस्ट के तौर पर बुलाया जाता है जिस के हाथ हजारों लोगों के कत्ल से रंगे हैं.’’ उन की पार्टी के अमित शाह सरेआम कह रहे हैं कि वे एनआरसी लागू कर बंगाल से बंगलादेशियों को निकाल फेंकेंगे. मोदी को बंगलादेश की स्वतंत्रता की 50वीं वर्षगांठ पर बुलाया जाना देश की आजादी की स्पिरिट के साथ धोखा करने जैसा है.’’ अल्पसंख्यकों पर हमले क्यों इंटरनैट पर प्रसारित सूचनाओं के मुताबिक, बंगलादेश में नरेंद्र मोदी का विरोध समय के साथसाथ उग्र होता जा रहा है. वहां के कई इलाकों, जहां पर मुख्य रूप से हिंदू अल्पसंख्यक रहते हैं, में हिफाजत ए इसलाम संगठन के कार्यकर्ताओं द्वारा बड़े स्तर पर आगजनी की गई.

हिंसक घटनाओं के संबंध में नासिरउद्दीन बताते हैं, ‘‘इन सभी घटनाओं के पीछे हिफाजत ए इसलाम के लोगों का हाथ है और इन्हें सत्ता में बैठी अवामी लीग का समर्थन हासिल है. बंगलादेश में हिफाजत ए इसलाम भारत के आरएसएस की तरह है जिसे बीजेपी का समर्थन मिलता है. राजनीतिक विश्लेषक, लेखक और ढाका यूनिवर्सिटी में कानून के प्रोफैसर डा. आसिफ नजरुल कहते हैं, ‘‘हिफाजत ए इस्लाम का यहां के अल्पसंख्यकों पर हमला करना पूरी तरह से अवामी लीग के पौलिटिकल बैनिफिट्स की ओर इशारा करता है. हिफाजत ए इसलाम जब इस तरह से बंगलादेश में अलगअलग इलाकों में आगजनी करता है तो उसे रोकने के लिए अवामी लीग पुलिस बल का इस्तेमाल करती है और इस के जरिए वह बंगलादेश की जनता को यह संदेश देना चाहती है कि इस तरह की हिंसात्मक कार्यवाहियों को केवल वही रोक सकती है. इस के साथ ही सरकार विश्व में भी यह प्रदर्शित करना चाहती है कि इस तरह के कट्टरपंथियों को रोकने में केवल वह सक्षम है.’’ क्या शेख हसीना बन रहीं डिक्टेटर? बंगलादेश की पीएम शेख हसीना की नीतिनिर्माण के संबंध में बात करते हुए नासिर उद्दीन बताते हैं, ‘‘शेख हसीना की कई ऐसी पौलिसीस हैं जिन से बंगलादेश समय के साथसाथ फासीवादी राष्ट्र बन कर उभर रहा है.

बंगलादेश में अक्तूबर 2018 में सरकार ने डिजिटल सिक्योरिटी एक्ट 2018 लागू किया था. इस एक्ट के तहत यदि कोई व्यक्ति सरकार के विरुद्ध सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर कोई पोस्ट करता है तो उस पर कार्यवाही होगी. ऐसे पोस्ट जिस से सरकार को लगे कि उस से उस की छवि धूमिल हो रही है तो पोस्ट करने वाले को पुलिस बिना किसी वारंट के गिरफ्तार कर सकती है और उस पर मुकदमा चलाया जा सकता है.’’ डा. आसिफ नजरुल कहते हैं, ‘‘बंगलादेश में कट्टरपंथी, इसलामवादी, तालिबानी ताकत के बढ़ने की प्रबल संभावना है. देश के इतिहास में लोगों द्वारा विरोध प्रदर्शन करते हुए कभी भी इतने लोगों की मृत्यु नहीं हुई जितनी इन घटनाओं में हुई है. बंगलादेश छात्र लीग के प्रैसिडैंट बैतूल मुकर्रम नैशनल मसजिद के आगे खड़े हो कर खुलेरूप से लोगों को चेतावनी देते हैं कि यदि कोई मोदीविरोधी प्रोटैस्ट करेगा तो उस का ‘कलेजा चीर देंगे.’ 12 सालों से एक पार्टी सत्ता में है और उस ने हरेक चीज पर अपना एकाधिकार जमा लिया है.

बंगलादेश की आजादी वोट के अधिकार के लिए लड़ी गई थी, लेकिन अवामी लीग का इस तरह से सत्ता पर एकाधिकार जमा लेना देश को फासीवाद की ओर ही ले जा रहा है.’’ विभाजनकारी राजनीति का विरोध, भारत का नहीं बंगलादेश में ये सब घटनाएं घटने के बाद प्रदर्शनकारी छात्रों और लोगों ने भारत की जनता के लिए एक मैसेज दिया है. आसमानी आशा कहती हैं, ‘‘बंगलादेश को आजाद कराने में सब से बड़ा योगदान भारत का है. हम पड़ोसी देश के लोगों, जो पहले एक ही हुआ करते थे, में किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं है. हमारा रिश्ता हजारों सालों का है. बंटवारे का बौर्डर तो कुछ सालों पहले ही बना है. भला हम कैसे भारत का विरोध कर सकते हैं. हमारा विरोध केवल नेताओं की विभाजनकारी नीतियों के खिलाफ है. चाहे वह मोदी हो या फिर शेख हसीना. हमारी लड़ाई धर्म की राजनीति करने वाले नफरती लोगों से है जो अपने राजनीतिक फायदों के लिए समाज को बांटे रखना चाहते हैं.’’ सादिक कहते हैं, ‘‘हमारी लड़ाई दोनों मुल्कों में मौजूद कट्टरपंथी ताकतों से है जो अपने राजनीतिक फायदों के लिए समाज को हमेशा बांट कर रखना चाहते हैं. हम सभी तरह के बंधनों से मुक्त हो कर, आपसी सौहार्द बढ़ा कर, कांटों की दीवारों वाले बौर्डर से आजाद हो कर दुनिया में एक मिसाल बन कर उभारना चाहते हैं जहां हर कोई बराबर होगा.

जहां न तो शोषक होगा और न ही शोषण. हम आपस में मिल कर एक ऐसा समाज का निर्माण करना चाहते हैं जहां की सरकारें जेलों के बिना चलें, जहां लोगों के लिए बुनियादी सुविधाओं का अभाव न हो.’’ बंगलादेश में मोदी के विरोध में कट्टरपंथी संगठनों द्वारा की गई हिंसा का बीजेपी को फायदा नहीं होता हुआ नजर आ रहा. बंगलादेश के लोगों से बात कर हम ने पाया कि बंगलादेश में हुई हिंसा के बारे में चर्चा करने से मोदी की विश्व नेता वाली छवि धूमिल हो सकती है जो अभी बीजेपी नहीं चाहती है. इसीलिए दोनों मुल्कों की मेनस्ट्रीम मीडिया ने इस हिंसा को तूल नहीं दिया और न ही खास दिखाया.

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