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सच में उस ने बेटी की आवाज नहीं सुनी. ‘‘अंदर आओ, नानू बुला रहे हैं,’’ अवनी की आवाज आज खुशी से भरी थी. शायद टीवी पर कोई नया बढि़या प्रोग्राम आ रहा होगा, इसी को ले कर उत्साहित है. जबकि द्रोपा को इन प्रोग्रामों में कोई दिलचस्पी नहीं है.

‘‘आती हूं,’’ कह कर वह वहीं कुरसी पर बैठ गई. वह फिर से वही सब सोच रही थी. तो क्या महिलाओं और बच्चियों को सपना देखना मना है? नहीं, शायद यह सोचना गलत है. याद है, विनय भाई 12वीं में पढ़ रहा था. उसे रचनाएं लिख कर छपवाने का शौक जागा. हाथ से लिखी रचनाओं में काफी गलतियां होती थीं. किसी ने सु?ाया, कंप्यूटर पर लिख कर प्रिंट निकाल कर भेज सकते हो और उस में तो एडिट की व्यवस्था होती है, गलती होने की संभावना ही नहीं है.

विनय ने पापा से कंप्यूटर की फरमाइश की. पापा ने छूटते ही कहा, ‘पहले पढ़ाई करो. तुम्हारे इस छोटे से शौक के लिए 60 हजार रुपए खर्च करने की बेवकूफी नहीं करूंगा.’

बात यह नहीं कि महिलाओं और स्त्रियों के सपने टूटते हैं, बात यह है कि उन जैसे मध्यवर्ग परिवारों में पुरुष जब कमाने लग जाते हैं तो पुरुषों को पहले अपने सपने पूरे करने की आजादी हो जाती है. स्त्री स्वयं कमाते हुए भी सपनों को पूरा करने के लिए आजाद नहीं है. सच तो यह है कि उस को तो सपने देखने की इजाजत भी नहीं है क्योंकि आमदनी और खर्च की किस्तों में सपनों के लिए कोई किस्त रखी ही नहीं है.

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