दफ्तर से आते ही मनीषा ने पर्स मेज पर रखा और स्नानघर में घुस गई. जातेजाते उस ने शयनकक्ष में उड़ती नजर डाली. वहां अपने पति अभिनव को किसी पुस्तक को पढ़ने में लीन पा कर वह आश्वस्त हुई. स्नानघर में से निकल कर वह रोज की तरह चाय बनाने को रसोई की ओर बढ़ी. किंतु चाय की ट्रे लिए अभिनव को आते देख उस का माथा ठनका. ठिठक कर उस ने पूछा, ‘‘तुम ने चाय क्यों बनाई?’’
‘‘बना ली,’’ लापरवाही भरे स्वर में अभिनव ने उत्तर दिया.
असमंजस की मुद्रा में कुछ देर खड़ी रह कर मनीषा ने कदम बढ़ाए. वह अभिनव के पीछे हो ली. उस की समझ में नहीं आया कि इन्होंने चाय आज क्यों बनाई. यह प्रश्न जब उसे फांस की तरह चुभने लगा तो उस ने शयनकक्ष में पहुंचने के पूर्व ही पूछ लिया, ‘‘ऐसी क्या जल्दी हो गई थी आज? आज तो मैं रोज से जल्दी आई हूं.’’
‘‘हां,’’ अभिनव ने मेज पर चाय की ट्रे रखते हुए कहा.
इस ‘हां’ से मनीषा को संतोष न हुआ, ‘‘सिर दुख रहा था क्या?’’
‘‘नहीं तो,’’ अभिनव ने मुसकराते हुए कहा.
‘‘तो?’’
‘‘तो क्या?’’
‘‘तुम ने चाय क्यों बनाई?’’
‘‘यों ही बना ली.’’
‘‘यों ही बना ली?’’
‘‘हां, मन हो गया. सोचा कि तुम्हारी थोड़ी मदद कर दूं.’’
मदद वाली बात मनीषा को अच्छी न लगी क्योंकि अभिनव ने जब कभी भी ऐसी मदद के लिए हाथ बढ़ाया था, उस ने विनम्रतापूर्वक उसे रोक दिया था. साफ कह दिया था कि मुझे किसी की मदद की आवश्यकता नहीं है. पिछले 3 माह से अभिनव एक केस में फंस जाने के चलते नौकरी से मुअत्तल हो कर बैठा था. इस स्थिति में बेकार होने के कारण वह मनीषा का हाथ बंटाने को उत्सुक रहता था. किंतु मनीषा ने उसे ऐसी अनुमति कभी नहीं दी थी. स्पष्ट कहती रही थी कि हाथ बंटा कर मुझे लज्जित न करो.
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