हिन्दू धर्म में अंतिम संस्कार का अपना एक अलग ही विधान पुराणजीवियों के द्वारा बताया गया है. इसमें मरने के बाद सबसे पहले यह देखा जाता था कि मरने वाला अच्छे समय में मरा है या नहीं. अगर मरते समय पंचक लगा होता था तो अंतिम क्रिया के पहले पंचक शाति के लिये पूजा होती थी. अंतिम क्रिया में चिता की लकडी आम और चंदन का प्रयोग होता था. घी और गंगाजल का प्रयोग होता था. शव की अंतिम क्रिया से पहले नदी के पानी में नहलाया जाता था.
मरने वाले की आत्मा को शाति मिले इसके लिये गाय का दान और कई तरह के दान पंडित को दिये जाते थे. चिता के शव की राख को ले जाकर गंगा दी में प्रवाहित किया जाता था. क्योकि हिन्दू धर्म में अंतिम क्रिया गंगा के किनारे सबसे श्रेष्ठ मानी जाती है. अब हर शव गंगा के किनारे नहीं जलाया जा सकता इस कारण शव की चिता के अंष को गंगा में प्रवहित करने का चलन था. अंतिम संस्कार के बाद तेरहवी का संस्कार होता था. जिसमें बाल बनवाने से लेकर दावत खिलाने तक के काम होते थे.
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ना दान ना संस्कार:
कोरोना काल में इस अंतिम संस्कार की परिभाषा बदल गई है. जिन लोगों मौत कोरोना से हो रही है उनके शव को अंतिम संस्कार के लिये घर वालों को नहीं दिया जाता है. यह शव पूरी तरह से पीपी किट में पैक होता है. अस्पताल से शव दाह संस्कार के लिये घाट पर ले जाया जाता है. वहां लकडी की जगह पर बिजली से शव को जलाया जाता है. शव को पीपी किट सहित की जला दिया जाता है. कोरोना से मरने वालों की संख्या बढने के बाद बिजली से जलाने में 3 से 4 घंटे का वक्त लगता है. ऐसे में अब खुले में लकडियों के सहारे ही शवदाह होने लगा है.
इससे शव को जलाने के लिये आम और चंदन तो मिल ही नहीं रहा. जंगल की जलाऊ लकडी वाले पेडो से मिलने वाली लकडी का ही प्रयोग किया जाता है. शव को जलाने के समय किसी भी तरह के अंतिम संस्कार में होने वाली पूजा को नहीं किया जाता है. ना ही घर वालों को कपाल क्रिया करने का मौका मिलता है. शव के जल जाने के बाद जगह को खाली करने के लिये सरकारी जेसीबी मशीन से वहां को साफ कर दिया जाता है. जिससे नये शवों का दाह संस्कार हो सके.
ना घर परिवार ना रिश्तेदार :
अंतिम संस्कार की पूरी प्रकिया को देखे तो कोरोना काल में यह पूरी तरह से बदल गई है. पहले जहां अंतिम क्रिया में घर, परिवार, मित्र और नाते रिश्तेदार शामिल होते थे. अब केवल सरकारी मशीनरी ही काम करती है. पंडित, पुजारी और घाट पर काम करने वाले डोम अब इसका हिस्सा नहीं रह गये है. अंतिम संस्कार के बाद चिता की राख को गंगा में प्रवाहित करना मुष्किल हो गया है. क्योकि सामूहिक अंतिम संस्कार में चिता को पहचान कर उसकी राख ले जाना नामुमकिन हो गया है. उसको उपर वहां जाने पर कोरोना फैलने के खतरे को देखते हुये तमाम परिवार वहां जाने से बचते है.
अंतिम संस्कार के बाद होने वाली पूजा, तेरहवीं संस्कार भी केवल दिखावे के लिये रह गये है. तमाम परिवार अखबारों में विज्ञापन देने और षंातिपाठ से ही पूरी तेरहवीं संस्कार को पूरा मान लिया जाता है. कई परिवारों ने अब ‘जूम एप‘ घर परिवार और दोस्तो को आपस में जोडकर अंतिम संस्कार को पूरा करते है. इस तरह से कोरोना ने पूरे अंतिम संस्कार को बदल दिया है. अंतिम संस्कार को लेकर होने वाले इस बदलाव का विरोध अब कोई वर्ग नहीं कर रहा है. इसे सहज रूप से सभी ने स्वीकार कर लिया है. अब इसका पालन भी लोग करना चाहते है. जिससे किसी और में इस की बीमारी को फैलने से रोका जा सके.
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हाशिये पर तेरहवी संस्कार :
देखा जाये तो हिन्दू धर्म में अंतिम संस्कार और तेंरहवी संस्कार को लेकर विरोध शुरू से रहा है. लेकिन पंडे पुजारी हमेशा ही विरोध करने वालों को गलत बताते थे. यही वजह है कि कोरोना से पहले विद्युत शवदाह में अंतिम संस्कार करने वालों को हिन्दू धर्म का विरोधी माना जाता था. लकडियो के जरीये अंतिम संस्कार का भी विरोध होता था. क्योकि शव को जलाने के लिये पेड का काटना पडता था. यह पर्यावरण को नुकसान पहंुचाता था. धर्म के पांखड के चलते लोग लकडियो का प्रयोग बंद ही नहीं करना चाहते थे. आज कोरोना काल में उसी विद्युत शवदाह की तरफ हर कोई जाना चाहता है.
तेरहवी संस्कार भी केवल नाममात्र का बचा है. उसमें भी अब कोई बाध्यता नहीं रह गई है. इसकी सबसे बडी वजह यह है कि अब लोग ऐसे कार्यक्रमो में कम जाना चाहते है. दूसरे सामान्य परिवार इस तरह से खर्च से बचना चाहते थे. मरीज के इलाज के दौरान अस्पताल में ही इतना खर्च हो जाता है कि लोगो के पास पैसे नहीं होते. उनको कर्ज लेकर काम चलाना पडता है. खर्च का बोझ कम करने के लिये ऐसे खर्चीले संस्कारो को टाल दिया जाता है.
घर वाले भी होते हैं बीमार:
कोरोना संक्रमण में परिवार के एक आदमी के बीमार होने से दूसरे लोगों पर भी प्रभाव पडता है. कई मामलों में एक ही घर के कई कई लोग बीमार होते है. कई मामलों में घर के कई सदस्य अस्पताल में होते है. ऐसे में अगर एक व्यक्ति की मौत हो गई तो उसके क्रियाकर्म को देखने वाला भी कोई नहीं रहता है. ऐसे में तेरहवी और बाकी संस्कार की बात ही कठिन होती है. अस्पताल और इलाज में इतना पैसा खर्च हो जाता है कि परिवार की आर्थिक हालत बेहद खराब हो जाती है. जिसकी वजह से हर परिवार किसी तरह से केवल अपने जीवनयापन की तरफ ही ध्यान दे पाता था. ऐसे में तमाम कर्मकांडो को वह छोडना चाहता है. धार्मिक और पुराणजीवियों के दबाव में अभी तक वह रूढियो और रीति रिवाजों को तोडने का साहस नहीं दिखा पा रहा था. कोरोना काल में रिवाज खुद की टूट रहे है और अब इसका विरोध पुराणजीवी और पंडे भी नहीं कर पा रहे है.
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