पिछले साल 14 मार्च तक कोरोना की मुकम्मल चर्चा होने लगी थी कि यह कैसी महामारी है और कैसे कैसे फ़ैल सकती है लेकिन तब आम लोगों को इसकी भयावहता का अंदाजा नहीं था . इस दिन तक कोरोना से मरने बालों की तादाद उँगलियों पर गिनी जाने लायक थी और इसकी चपेट में आने बालों का आंकड़ा भी सौ के पार नहीं गया था . सरकारी तौर पर कोरोना से केवल 96 लोग संक्रमित हुए थे और 2 की मौत कोरोना से हुई थी .

लेकिन सरकार को आने बाले वक्त का अंदाजा था लिहाजा उसने वक्त रहते ही कोरोना वायरस को महामारी घोषित कर दिया था पर लाक डाउन घोषित नहीं किया था क्योंकि भाजपा को मध्यप्रदेश में सरकार बनाना थी . एक नाटकीय और दिलचस्प घटनाक्रम में कमलनाथ के मुख्यमंत्रित्व बाली कांग्रेस सरकार गिरी तो भाजपा ने सिंधिया खेमे के बगाबती कांग्रेसी विधयाकों की मदद से 23 मार्च को राज्य में सरकार बना ली और शिवराज सिंह ने चौथी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली इसके बाद 24 मार्च को देश भर में लाक डाउन घोषित कर दिया .

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मुआवजे पर पहले हाँ फिर न –

यह एक राजनातिक स्वार्थ और मध्यप्रदेश में बिना चुनाव के सरकार बना लेने की हवस थी जिसकी सजा आज तक देश के लोग भुगत रहे हैं और आगे भी कब तक भुगतेंगे इसका अंदाजा कोई नहीं लगा पा रहा . खैर बात 14 मार्च 2020 की , इस दिन केंद्र सरकार ने अपने एक अहम फैसले में कहा था कि कोरोना वायरस के चलते अगर किसी की मौत होती है तो उसके परिजनों को बतौर मुआवजा 4 लाख रु दिए जायेंगे . यह आदेश देते केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने  यह भी साफ़ किया था कि यह राशि राज्यों के डिजास्टर रेस्पांस फंड यानी आपदा कोष से दी जाएगी .

बात लोगों की समझ में आ पाती इसके पहले ही इस फैसले के चंद घंटों बाद केंद्र सरकार ने दूसरा फैसला यह लिया कि नहीं , कोरोना से मरे लोगों के परिजनों को कोई मुआवजा नहीं दिया जाएगा . इस तरह बात आई गई हो गई थी और अधिकतर लोगों का ध्यान इस तरफ नहीं गया था कि सरकार को आने बाले बुरे दिनों का अंदाजा लग गया था लेकिन उसने पूरे देश को मध्यप्रदेश में सरकार बनाने के एवज में एक ऐसे खतरें में डाल दिया है जो उसके या किसी और के संभाले से नहीं संभल रहा है .

अब तो दो मुआबजा –

सीधे तौर पर आज के हालातों की जिम्मेदार सरकार हर लिहाज से है जिसने पहले देश को मध्यप्रदेश की बलि चढ़ाया फिर अपनी गलती पर पर्दा डालने और खीझ और खिसियाहट मिटाने गलत तरीके से लाक डाउन लगाया जिसके चलते कोरोना से ज्यादा मौतें घर भागने की हड़बड़ी और भागादौड़ी में हुई . पिछले साल इन्हीं दिनों में घर भागते मजदूर भूख , प्यास और गर्मी से सड़कों पर दम तोड़ रहे थे .  इनमें बच्चे , बूढ़े और गर्भवती महिलाएं भी थीं .

आज माहौल अलग है , कोरोना की दूसरी लहर में लोगों के मरने की तादाद बढ़ी है क्योंकि अस्पतालों में बिस्तर ,डाक्टर , दवाइयां और आक्सीजन तक नहीं है . देश में अफरा तफरी का माहौल है .  हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक सरकार के कान उमेठ रहे हैं कि आपने इंतजाम ही सलीके से नहीं किये हम लोगों को यूँ मरते नहीं देख सकते  . विदेशी मीडिया हरिद्वार के कुम्भ और 5 राज्यों की चुनावी रैलियों की तरफ इशारा करते सरकार और नरेन्द्र मोदी के चुनाव और धर्म प्रेम को हालातों का जिम्मेदार ठहरा रहा है तो उसे गलत कहीं से नहीं कहा जा सकता क्योंकि देसी भक्त मीडिया हालातों को कुछ इस तरह पेश कर रहा है मानों मोदी और उनकी सरकार की इसमें कोई गलती नहीं .  कुल जमा कोरोना को दैवीय आपदा और ऊपर बाले की मर्जी साबित करने की कोशिश की जा रही है .जिससे लोगों का ध्यान सरकार की गलती लापरवाही और जिम्मेदारी से हटे .

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कोरोना के दौरान ड्यूटी बजा रहे मृत कर्मचारियों के बारे में भी सरकार की कोई स्पष्ट और समान नीति नहीं है . उत्तरप्रदेश में पंचायत चुनावों में लगी ड्यूटी के दौरान कोई 135 शिक्षकों की जान जा चुकी है जिसे लेकर अब शिक्षक लामबंद होने लगे हैं और मुआबजे में 50 – 50 लाख रु और आश्रितों के लिए अनुकम्पा नियुक्ति मांग रहे हैं . ये चुनाव कोरोना के चलते गैर जरुरी थे खतरा साफ़ दिख रहा था लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी अपने बोस प्रधानमंत्री  नरेन्द्र मोदी की राह चले . अब देखना दिलचस्प होगा कि योगी को इन शिक्षकों के आश्रितों पर दया कब आती है और आती भी है या नहीं . यह माहौल हर राज्य में है कि कोरोना ड्यूटी पर तैनात मरने बाले कर्मचारियों की संख्या बढ़ती जा रही है और राज्य सरकारें अपना रुख साफ़ नहीं कर रही . मृतकों के परिजनों को दुःख में रहते कुछ सूझ नहीं रहा और हर किसी को संक्रमण से बचने की पड़ी है .

इसी हडबडाहट में मुआवजे की मांग या बात कोई नहीं कर रहा कि सरकार अपनी यह जिम्मेदारी ही पूरी कर ले . लाखों लोग बेमौत मर रहे हैं जिससे उनके घर बालों को खाने पीने के लाले पड़ने लगे हैं इसलिए सरकार ने मुफ्त अनाज बांटने का एलान कर डाला जो कि नाकाफी है . 2 महीने सरकार मुफ्त अनाज से कुछ लोगों का पेट भर देगी लेकिन इसके बाद क्या होगा इस पर अभी कोई नहीं सोच रहा कि करोड़ों लोग अप्रेल में ही बेरोजगार हो चुके हैं और काम धंधे और उद्योग व्यापार के पटरी पर लौटने के कोई आसार सरकार के कामकाज करने के तरीकों को देखते नहीं लग रहे .

भोपाल के शाहपुरा इलाके के एक दिहाड़ी मजदूर रामदयाल उइके की मौत कोरोना से हुई है उनकी पत्नी लक्ष्मी कहती हैं कि जमा पूँजी पति के इलाज में खर्च हो गई अब यहाँ वहां की मदद से घर का चूल्हा जल रहा है . झुग्गी बस्ती में किराए से रहने बाली लक्ष्मी को इन दिनों पति की मौत से ज्यादा गम और डर इस बात का सता रहा है कि अब दोनों बच्चों का क्या होगा .कोई 4 साल पहले रोजगार की तलाश में परिवार सहित छिंदवाडा के एक गाँव से भोपाल आई यह आदिवासी महिला हर तरफ से नाउम्मीद हो चुकी है . मुआवजे की बात करने पर वह कुछ भोलेपन और कुछ गुस्से से कहती है जो सरकार इलाज नहीं कर पा रही वह मुआवजा क्या देगी . हाँ कुछ मदद कर दे तो उसकी और बच्चों की जिन्दगी और भविष्य संवर जायेंगे लेकिन ऐसा होगा इसमें उसे शक है क्योंकि ऐसी कोई मांग ही कहीं से नहीं उठ रही और जहाँ से थोड़ी बहुत उठ रही है उस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा .

मांग तो उठ रही है लेकिन ….

केंद्र सरकार के 14 मार्च 2020 के फैसले के बाद छिटपुट मांग मुआवजे की उठी थी पर जल्द ही गायब हो गई थी क्योंकि सरकार ने फैसला वापस ले लिया था लेकिन कुछ जागरूक लोगों को यह तो समझ आ गया था कि कुछ विशेष परिस्थितियों में मौत होने पर आपदा कोष से राहत राशि देने का प्रावधान है जो कि 4 लाख रु तक होती है .  सरकार चूँकि कोविड – 19 को आपदा घोषित कर चुकी थी इसलिए लोगों ने मांग शुरू कर दी .

बिहार के मुजफ्फरपुर से बड़े पैमाने पर इसकी पहल हुई जब कोरोना से मरे 49 लोगों के घर बालों ने मुआवजा राशि की मांग की . आपदा विभाग ने इनमें 27 को मुआवजा दिया भी लेकिन महीनों चक्कर कटवाने के बाद . इस देश में जहाँ सरकारी खानापूर्तियाँ पूरी करना ही एवरेस्ट चढ़ने जैसा काम होता है वहां कुछ लोगों ने इसे कर दिखाया तो सरकारी विभागों ने भी अपनी चालें चलना शुरू कर दीं . बाद में लोगों को तरह तरह से परेशांन किया जाने लगा कि यह कागज नहीं है , वह कागज अधूरा है ,  डेथ सर्टिफिकेट कानूनन ठीक नहीं है , मृतक का पता सही नहीं है जैसे टोटके किये जाने लगे तो पीड़ितों की हिम्मत टूटने लगी.

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ऐसा कई जगहों पर हुआ कि सरकारी विभाग तरह तरह के बहाने बनाकर लोगों को टरकाने लगे तो बात सुप्रीम कोर्ट तक भी गई . 24 अगस्त 2020 को एक फैसले में कोर्ट ने कहा कि वह कोरोना वायरस से जान गंवाने बाले लोगों के परिवारों को सामान मुआवजा देने के लिए राष्ट्रीय नीति तैयार करने के अनुरोध सम्बन्धी याचिका पर सुनवाई नहीं कर सकता . यह याचिका पेशे से एक वकील  हाशिक थाईकांडी ने अधिवक्ता दीपक प्रकाश के जरिये दायर की थी इस पर जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस आरएस रेड्डी की बेंच ने यह कहते उसे ख़ारिज कर दिया कि प्रत्येक राज्य की अपनी अलग नीति है और वे अपनी आर्थिक ताकत के मुताबिक मुआवजा देते हैं . जबकि याचिकाकर्ता इस गंभीर मसले पर एक राष्ट्रीय नीति बनाये जाने की मांग कर रहा था जिससे सभी पीड़ितों को सामान मुआवजा मिल सके .

दीपक प्रकाश ने दलील थी कि कुछ मामलों, दिल्ली सरकार ने एक करोड़ रु का मुआवजा दिया जबकि कुछ राज्य एक लाख रु दे रहे हैं . देश की ज्यादातर आबादी आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की है जहाँ केवल एक व्यक्ति कमाने बाला है और परिवार के दूसरे लोग गुजर बसर के लिए उसकी आय पर ही निर्भर रहते हैं .

अब तो सुनी जाए बात –

अब लाखों लोग घर का मुखिया गंवाने के बाद लक्ष्मी की तरह पूछ रहे हैं कि हमारा क्या होगा . ऐसे में जब भगवान् भी नहीं सुन पा रहा तब यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह न केवल मुआवजा दे बल्कि दूसरी सहायता भी कोरोना से मरे लोगों के परिजनों को दे नहीं तो आने बाले वक्त में इसके नतीजे बेहद विस्फोटक भी हो सकते हैं . भूखे नंगे लोग अपराधों की तरफ बढ़ सकते हैं और बेसहारा हो रही औरतें कामकाज न मिलने पर बदनाम गालियों का भी रुख करने मजबूर हो सकती हैं .

कोरोना पर कई गलतियाँ कर चुकी सरकार को चाहिए कि वह अब तो दूर की सोचे और कोरोना सम्बन्धी अपने पुराने पाप धो ले  . कुछ भी करने के लिए बेहतर विकल्प यही है कि केंद्र सरकार राष्ट्रीय नीति ही बनायें क्योंकि राज्यों के आपदा कोष में इतना पैसा नहीं होता है कि उससे तेजी से मर रहे लोगों के परिजनों को आर्थिक सहायता दी जा सके . इस प्रावधान में एक खोट यह भी है कि इसमें मदद उन्हीं लोगों को दी जाती है जिनमें कमाने बाला एक ही हो .

कोरोना की दूसरी लहर में पैसे बाले भी खर्चीले इलाज के कारण कंगाल हो रहे हैं उन्हें भी सहायता का पात्र माना जाना चाहिए लेकिन दिक्कत की बात मौजूदा सरकार का अडियल और दौहरा रवैया है .  वह धार्मिक आयोजनों पर तो अरबों रु दरियादिली से फूंक देती है लेकिन असल दरिद्र नारायणों को भगवान् भरोसे छोड़ देती है .

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तो फिर ये हक़दार क्यों नहीं –

केंद्र और राज्य सरकारें बात बात में राहत राशि और मुआवजा देते हैं जिसका बड़ा हिस्सा किसानों को जाता है . फसल को नुकसान सूखे से हो , ज्यादा बारिश और ओलों से हो या फिर किसी दूसरी वजह से हो किसानों को मुआवजे का एलान तुरंत हो जाता है . इसी तरह रेल हादसों में मरने बालों और घायलों को भी मुआवजे के एलान में देर नहीं की जाती क्योंकि इसमें गलती तो सरकार की ही होती है जिसे मानवीय भूल करार देते वह दोषी मुलाजिमों को बचा ले जाती है .

कहीं भगदड़ खासतौर से धार्मिक स्थल पर मचे तो भी सरकार मुआवजे का थाल सजा कर बैठ जाती है जिससे लोग भगवान् को न कोसने लगें और प्रशासन की लापरवाही और बदइन्तजामी का ठीकरा उसके सर न फोड़ें .वोट पकाने और हमदर्दी हासिल करने भी मुआवजे का मलहम सरकारें लगाती हैं लेकिन वह कामयाब हो इसकी कोई गारंटी नहीं रहती . चुनाव नजदीक देखते झारखण्ड के तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास ने तो मुआवजा मदों का रिकार्ड ही तोड़ डाला था इसके बाद भी उन्हें हार का स्वाद चखना पड़ा था उन्होंने इन हादसों पर 4 – 4 लाख रु के  मुआवजे का प्रावधान रखा था –

1 – सर्प दंश 2 – बिजली गिरने पर मौत . 3 – कम बारिश यानी सूखा पड़ने पर पेयजल संकट से मौत . 5 – डोभा , तालाब या नदी में डूबने पर मौत होने पर . 6 –  नाव हादसे में मौत पर . 7 गेस रिसने से मौत होने पर . 8 – भगदड़ मचने पर मौतें होने पर 9 – माइनिंग में हादसे में होने बाली मौतों पर . 10 – जैविक आपदा पर और 11 – सड़क हादसों पर भी मृतक के आश्रितों को मुआवजा . यानी केवल सामान्य मौतों पर ही मुआवजे के इंतजाम तत्कालीन  भाजपा सरकार ने नहीं किये थे .

ऐसे मामलों पर लगभग सभी राज्य सरकारें मुआवजे का प्रावधान रखती हैं यहाँ तक कि राह चलते कोई अज्ञात वाहन से भी मर जाए तो उसे भी आपदा विभाग के जरिये 4 लाख तक का मुआवजा सभी राज्यों में दिया जाता है . और तो और अपने राज्य से बाहर मरने बालों को भी मुआवजा देने सरकारें दौड़ पड़ती हैं . साल 2014 में उत्तरप्रदेश के मुख्यमत्री अखिलेश यादव ने मध्यप्रदेश की  धार्मिक नगरी चित्रकूट के कामदगिरी मंदिर हादसे में मारे गए श्रद्धालुओं को 2 – 2 लाख रु देने का एलान किया था और गंभीर रूप से घायलों को 50 – 50 हजार की राशि दी थी . साल 2006 से लेकर अब तक देश के बड़े नामी मंदिरों में मची दर्जन भर  भगदड़ में मरे सैकड़ों लोगों , हजारों घायलों को सरकार ने करोड़ों का मुआवजा दिया है .

लेकिन कोरोना से मरने बाले शायद उसकी नजर में पापी हैं जो उनके लिए वह कोई सटीक फैसला वह शायद तभी लेगी जब सुप्रीम कोर्ट इस मामले पर सख्त होगा . बार बार फैसले बदलना उसकी मुआवजा न देने की मंशा को ही उजागर करता है . पिछले साल अप्रेल में ही सरकार के जहाजरानी मंत्रालय ने बंदरगाहों के कर्मचारियों की कोरोना से मृत्यु होने उनके आश्रितों को 50 – 50 लाख रु देने की घोषणा की थी और स्वास्थकर्मियों का बीमा करने का भी एलान किया था .

लेकिन अब सवाल आम लोगों का है जो सरकारी लापरवाही और इलाज व आक्सीजन न मिलने से दम तोड़ रहे हैं .  जब हर कोई मुआवजे का हकदार है तो ये क्यों नहीं . सोचा जाना जरुरी है इससे पहले कि इसके भी दुष्परिणाम सामने आने लगें .

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