देश में जब कोरोना की पहली लहर आयी थी, हमारी स्वास्थ व्यवस्था की पोल तभी खुल गयी थी. देश में कोरोना की जांच के लिए ज़्यादा लैब नहीं थीं, नए वायरस से लड़ने के लिए दवाई नहीं थी, खुद को कोरोना से बचाने के लिए मेडिकल स्टाफ के पास सुरक्षा कवच नहीं था. अस्पताल आने वाले कोरोना मरीजों से डॉक्टर और नर्सेज डरे हुए थे. मेडिकल स्टाफ अपनी सुरक्षा की कमी का रोना रो रहा था. अस्पतालों में दस्ताने, सैनिटाइज़र, पीपीई किट की भारी कमी थी. लिहाज़ा मरीज के पास जाने से मेडिकल स्टाफ झिझक रहा था. इसके चलते सैकड़ों मरीज़ों को गरम पानी, भंपारा जैसी मामूली चीज़ें भी अस्पताओं में मुहैया नहीं हुईं और कफ से उनके फेफड़े जाम हो गए.

रिकॉर्ड उठा कर देख लें कि शमशान और कब्रिस्तान पहुंचने वाले शव ज़्यादातर उन लोगों के थे जो अस्पतालों में भर्ती थे. घर में आइसोलेट होने वाले मरीज अपने परिजनों की सेवाओं के कारण कोरोना से बच गए. यही कारण है कि अस्पतालों में बढ़ती मौतों को देखते हुए बाद में राज्य सरकारों ने कहना शुरू किया कि कोरोना मरीज़ अस्पताल भागने की जल्दी ना मचाएं, घर में ही खुद को आइसोलेट करें. वजह साफ़ थी कि महामारी से निपटने के लिए देश के अस्पतालों को जितना सक्षम होना चाहिए, उसकी दस फीसदी तैयारी भी उनके पास नहीं थी, जिसके चलते हज़ारों परिवारों ने अपने लोगों को असमय खो दिया.

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पहली लहर शुरू हुई तब पीपीई किट के बारे में लोगों ने जाना, इससे पहले पीपीई किट नहीं बनाई जाती थी. आश्चर्य की बात है कि जो देश प्लेग, स्वाइन फ्लू, चेचक, गोनोरिया, टीबी,  इन्फ्लूएंजा जैसे संचारी रोगों को देखता आया है उसके पास पीपीई किट नहीं थी. कोरोना के आने के बाद यह बननी शुरू हुई. कोरोना ने दहशत फैलाई और मरीज बढ़ने शुरू हुए तो अस्पतालों में कोरोना वार्ड बने. सेनिटाइज़र और मास्क से बाजार पट गए. गरीब आदमी भी दस रूपए का मास्क खरीद कर मुँह पर बाँधने लगा. कुछ लोग रुमाल बाँध कर काम चलाते रहे. लेकिन ज़्यादातर लोगों के मास्क या तो गले में लटके दिखते थे या नाक के नीचे होते थे. हां, किसी पुलिस वाले को देख कर जुर्माने के डर से जरूर कुछ समय के लिए नाक ढक ली जाती थी. सरकार सही मास्क और उसको सही तरीके से लगाने के लिए ना तो जनता को जागरूक कर पायी और ना ही सख्ती से इसका पालन करवा पायी.

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