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एक ताजमहल की वापसी : भाग 2

‘चंदा कह रही थी कि आप ने कैमिस्ट्री से एमएससी की है. मैं भी कैमिस्ट्री से एमएससी करना चाहती हूं. आप की मदद चाहिए मुझे,’ प्रमोद को लगा, जैसे रचना नहीं कोई सिने तारिका खड़ी थी उस के सामने.

प्रमोद रचना के साथ इस छोटी सी मुलाकात के बाद चला आया, पर रास्ते भर रचना का रूपयौवन उस के दिमाग में छाया रहा. वह जिधर देखता उधर उसे रचना ही खड़ी दिखाई देती. रचना की मुखाकृति और मधुर वाणी का अद्भुत मेल उसे व्याकुल करने के लिए काफी था. यह वह समय था जब वह पूरी तरह रचनामय हो गया था.

दूसरी बार उसे फिर आलोक बिखेरती रचना द्वारा याद किया गया. इस बार रचना जींस में अपना सौंदर्य संजोए थी. चंदा ने उसे आगाह कर दिया था कि रचना शहर के एक बड़े उद्योगपति की बेटी है. इसलिए वह पूरे संयम से काम ले रहा था. उस के मित्रों ने कभी उसे बताया था कि लड़कियों के मामले में बड़े धैर्य की जरूरत होती है. पहल भी लड़कियां ही करें तो और अच्छा, लड़कों की पहल और सतही बोलचाल उन में जल्दी अनाकर्षण पैदा कर सकता है. इसलिए वह भी रचना के सामने बहुत कम बोल कर केवल हांहूं से ही काम चला रहा था.

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अब की बार रचना ने प्रमोद को शायराना अंदाज में ‘सलाम’ कहा तो उस ने भी हड़बड़ाहट में उसी अंदाज में ‘सलाम’ बजा दिया. एक तेज खुशबूदार सैंट की महक उस में मादकता भरने के लिए काफी थी. चुंबक के 2 विपरीत ध्रुवों के समान रचना उसे अपनी ओर खींचती प्रतीत हो रही थी. कमरे में वे दोनों थे, जानबूझ कर चंदा उन के एकांत में बाधा नहीं बनना चाहती थी.

‘एक हारे हुए खिलाड़ी की ओर से यह एक छोटी सी भेंट स्वीकार कीजिए,’ कह कर रचना ने एक सुनहरी घड़ी प्रमोद को भेंट की तो वह इतना महंगा तोहफा देख कर हक्काबक्का रह गया.

‘जरा इसे पहन कर तो दिखाइए,’ रचना ने प्रमोद की आंखों में झांक कर उस से आग्रह किया.

‘इसे आप ही अपने करकमलों से बांधें तो…’ प्रमोद ने भी मृदु हास्य बिखेरा.

रचना ने जैसे ही वह सुंदर सी घड़ी प्रमोद की कलाई पर बांधी मानो पूरी फिजा ही सुनहरी हो गई. उसे पहली बार किसी हमउम्र युवती ने छुआ था. शरीर में एक रोमांच सा भर गया था. मन कर रहा था कि घड़ी चूमने के बहाने वह रचना की नाजुक उंगलियों को छू ले और छू कर उन्हें चूम ले. पर ऐसा हुआ नहीं और हो भी नहीं सकता था. प्यार की पहली डगर में ऐसी अधैर्यता शोभा नहीं देती. कहीं वह उसे उस की उच्छृंखलता न समझे. समय की पहचान हर किसी को होनी जरूरी है वरना वक्त का मिजाज बदलते देर नहीं लगती.

अब प्रमोद का भी रचना को कोई सुंदर सा उपहार देना लाजिमी था. प्रमोद की न जाने कितने दिन और कितनी रातें इसी उधेड़बुन में बीत गईं. एक युवती को एक युवक की तरफ से कैसा उपहार दिया जाए यह उस की समझ के परे था. सोतेजागते बस उपहार देने की धुन उस पर सवार रहती. उस के मित्रों ने सलाह दी कि कश्मीर की वादियों से कोई शानदार उपहार खरीद कर लाया जाए तो सोने पर सुहागा हो जाए.

मित्रों के उपहास का जवाब देते हुए प्रमोद बोला, ‘मुझे कुल्लूमनाली या फिर कश्मीर से शिकारे में बैठ कर किसी उपहार को खरीदने की क्या जरूरत है? मेरे लिए तो यहीं सबकुछ है जहां मेरी महबूबा है. मेरा मन कहता है कि रचना बनी ही मेरे लिए है. मैं रचना के लिए हूं और मेरा यह रचनामय संसार मेरे लिए कितना रचनात्मक है, यह मैं भलीभांति जानता हूं.’

यह सुन कर सभी दोस्त हंस पड़े. ऐसे मौके पर दोस्त मजाक बनाने का कोई अवसर नहीं छोड़ते. हासपरिहास के ऐसे क्षण मनोरंजक तो होते हैं, लेकिन ये सब उस प्रेमी किरदार को रास नहीं आते, क्योंकि जिस में उस की लगन लगी होती है. उसे वह अपने से कहीं ज्यादा मूल्यवान समझने लगता है. उसे दरख्तों, झीलों, ऋतुओं और फूलों में अपने महबूब की छवि दिखाई देने लगती है, कामदेव की उन पर महती कृपा जो होती है. कुछ तो था जो उस के मनप्राण में धीरेधीरे जगह बना रहा था. वह खुद से पूछता कि क्या इसी को प्यार कहते हैं. वह कभी घबराता कि कहीं यह मृगतृष्णा तो नहीं है. उस का यह पहलापहला प्यार था.

कहते हैं कि प्यार की पहचान मन को होती है, पर मन हिरण होता है, कभी यहां, कभी वहां उछलकूद करता रहता है. वह ज्यादातर इस मामले में अपने को अनाड़ी ही समझता है.

आजकल वह एकएक पल को जीने की कोशिश कर रहा था. वह मनप्राण को प्यार रूपी खूंटे से बांध रहा था. प्रेमरस में भीगी इस कहानी को वह आगे बढ़ाना चाह रहा था. इस कहानी को वह अपने मन के परदे पर उतार कर प्रेम की एक सजीव मूर्ति बनना चाहता था.

धीरेधीरे रचना से मुलाकातें बढ़ रही थीं. अब तो रचना उस के ख्वाबों में भी आने लगी थी. वह उस के साथ एक फिल्म भी देख आया था और अब अपने प्यार में उसे दृढ़ता दिखाई देने लगी थी. अब उसे पूरा भरोसा हो गया था कि रचना बस उस की है.

प्रमोद मन से जरूर कुछ परेशान था. वह अपने मन पर जितना काबू करता वह उसे और तड़पा जाता. वह अकसर अपने मन से पूछता कि प्यार बता दुश्मन का हाल भी क्या मेरे जैसा है? ‘हाल कैसा है जनाब का…’ इस पंक्ति को वह मन ही मन गुनगुनाता और प्रेमरस में डूबता चला जाता. प्रेम का दरिया किसी गहरे समुद्र से भी ज्यादा गहरा होता है. आजकल प्रमोद के पास केवल 2 ही काम रह गए थे. नौकरी की तलाश और रचना का रचना पाठ.

मेरी ननद की बेटी की शादी है बेंगलुरू में और मेरे ससुर भी जाने को कह रहे हैं लेकिन कोरोना से डर लग रहा है!

सवाल

मेरी ननद की बेटी की शादी है. वह बहुत कह रही है शादी में शामिल होने के लिए. घर उन का बेंगलुरु में है और चाहती है कि उन के मांपापा यानी मेरे सासससुर भी आएं. आजकल कोरोना वायरस ने फिर जोर पकड़ लिया है. बुजुर्ग सासससुर को ट्रैवलिंग कराना मुश्किल लग रहा है. दूसरी तरफ मैं भी चाहती हूं कि वे शादी में शामिल हों. दुविधा में हूं कि क्या करूं?

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जवाब

बुजुर्ग सासससुर को शादी में ले जाना कोई दिक्कत की बात नहीं. उन्हें भी काफी समय बाद घर से बाहर निकल कर अच्छा लगेगा. बसप्रीकौशन लेना जरूरी है ताकि किसी प्रकार की असुविधा का सामना न करना पड़े. कुछ बातें जो ध्यान में रखनी हैं वे हैं कि सब से पहले उन का हैल्थ चैकअप करवा लें. उन का ब्लडप्रैशरशुगर आदि नौर्मल होने पर ही और स्वास्थ्य संबंधी कोई अन्य समस्या न होने पर उन्हें अपने साथ यात्रा पर ले जाएं अन्यथा उन की यात्रा का प्लान स्थगित कर दें.

ट्रेन या फ्लाइट से जाने की सोच रहे हैंतो टिकट कन्फर्म हो. जहां तक संभव होपब्लिक कनवैंस से यात्रा करने से बचें. हो सके तो प्राइवेट कैब या अपनी कार से यात्रा करें. दवाइयां साथ में रखें ताकि कोई भी तकलीफ होने पर उन्हें तुरंत दी जा सकें.

कोरोना की सभी गाइडलाइंस को फौलो करते हुए उन्हें मास्क और हैंड ग्लव्स पहनाएं. बुजुर्गों का प्रतिरक्षा तंत्र कमजोर होता हैइसीलिए उन्हें कोरोना से बचने की ज्यादा जरूरत है. अपने साथ कुछ ड्राई फ्रूट्स या स्नैक्स जरूर रखें जिस से भूख लगने पर उन्हें खाने के लिए दिया जा सके. किसी भी हाल में बाहर का खाना खाने से बचें.

यदि आप इन सब बातों को फौलो करें तो अपने सासससुर को निश्ंिचत हो कर अपने साथ ट्रैवल करवा सकती हैं. कोई असुविधा नहीं होगी और आप उन के स्वास्थ्य का खयाल रखती हुई शादी में शामिल करवा कर अपनी ननद की इच्छा पूरी कर सकती हैं. वे भी खुश होंगी और आप के सासससुर को भी अच्छा लगेगा.

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अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem 

 

जमाना बदल गया- भाग 4 : आकांक्षा को अपने नाम से क्यों परेशानी थी

एक दिन राजीव ताला लगाना भूल गए. मैं ने जो उसे खोल कर देखा तो सारे पत्र उस में थे. मुझे बहुत तेज गुस्सा आया. मैं ने राजीव को औफिस से आते ही कहा तो मुझे गालियां देने लगे और बुरी तरह से पिटाई भी की और बाहर से ताला लगा कर कहीं चले गए.फिर मैं ने पड़ोसियों को आवाज दी और बोली “मेरा पति मेरे सोते समय ताला लगा चले गए. अब उन के आने में देर हो रही है बच्चा रो रहा है. अब प्लीज आप ताला तोड़ दो.”

कोई सज्जन पुरुष थे. उन्होंने ताला तोड़ दिया तो मैं उन्हें शुक्रिया कह कर जयपुर आ गई. मम्मीपापा मुझे देख कर दंग रह गए. मेरी मम्मी को तो बहुत गुस्सा आया और वे खूब चिल्लाने लगीं. पापा मेरे सहनशील व्यक्ति थे.उन्होंने कहा,”आकांक्षा के ससुराल में सूचित कर देता हूं. ऐसे मामले में जल्दबाजी ठीक नहीं.”

ससुराल वालों ने अपनी बेटे की गलती को मानने के बदले मेरी सहनशीलता को दोष दिया. खैर, हम ने कुछ नहीं किया. पापा बोले,”ऐसी स्थिति में बेटी को हम बीएड करा कर पैरों पर खड़े कर देते हैं.”

मैं बीएड की तैयारी में लग गई. राजीव का पत्र आया कि तुम आ जाओ सब ठीक हो जाएगा. जब उन्हें पता चला कि मैं बीएड की प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रही हूं तो उन्होंने राजीव को हमारे घर पर भेजा. “अब मैं ठीक रहूंगा, तुम्हें कोई शिकायत का मौका नहीं दूंगा. तुम मेरे साथ आ जाओ. मैं तुम्हें नौकरी भी करने दूंगा,” राजीव कहने लगे.

मैं ने उन्हें कहा,”बगैर बीएड किए मैं यहां से नहीं जाऊंगी.” राजीव उस समय तो यहां से चले गए. फिर जहां नौकरी करते थे वहां के जिले में कोर्ट केस कर दिया,”मेरी पत्नी को मेरे साथ आ कर रहना चाहिए. मैं चाहता हूं वह मेरे साथ रहे.”

सब लोग कहने लगे, “वह इतना खराब तो नहीं है. उस ने कोई लांछन नहीं लगाया तुम्हारे ऊपर.” मेरे घर वालों ने भी कहा कि हम भी ठीकठाक ही जवाब दे देते हैं. ऐसे रिश्ते को तोड़ना ठीक नहीं है. एक बच्चा भी हो गया. मैं कोर्ट में गई. आमनेसामने देख कर समझौते की बात करने लगा. वकील भी बोले यही ठीक रहेगा. उस समय राजीव ने सारी बातें मान लीं.

तब सारे रिश्तेदारों ने मुझे समझाया. मेरी मम्मी तो ज्योतिष के चक्कर में पड़ गईं. बड़ेबड़े ज्योतिषाचार्य के पास गईं. सब ने कहा कि इस का यह उपचार करो, वह यज्ञ करो. यह दान दो वह दान दो. उस मंदिर में पूजा करो, वहां अर्चना करो…

जब तक मैं ने बीएड किया. मम्मी पूरे साल इन्हीं चक्करों में पड़ी रहीं और रुपयों को बरबाद करती रहीं. पापा बहुत नाराज होते. मम्मी कभीकभी उन से छिप कर ऐसे काम करने लगीं कि‌ मेरे मम्मीपापा में भी तकरार होने लगी. पंडितों और ज्योतिषियों ने मम्मी को कह दिया कि इन का डाइवोर्स कभी नहीं होगा. ये दोनों हमेशा साथ रहेंगे, तो मम्मी को विश्वास हो गया कि सब ठीक हो जाएगा.

मुझे लगता कि इन सब का कारण मैं ही हूं. मुझे खुद पर शर्म महसूस होती. फिर भी मैं राजीव के साथ जाने को तैयार नहीं थी. पर ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान…’ कुछ लोग भी बीच में पड़ कर मुझे समझौता करने के लिए मजबूर करने लगे.

मेरे पापा की हालत भी ठीक नहीं थी. उस का दोष भी मेरा भाई मुझ पर ही मढ़ना चाहता था. मेरा बीएड पूरा हो चुका था और राजीव ने अपना ट्रांसफर दूसरे प्रदेश में करा लिया था ताकि दोनों फैमिली का हस्तक्षेप ना रहे. मुझे नौकरी करने की परमिशन मिल गई थी. शाहर भी बड़ा था तो मैं ज्यादा कुछ बोल नहीं पाई.

वहां पर मुझे तुरंत नौकरी मिल गई.अच्छी नौकरी थी. मेरा बेटा भी मेरे साथ ही जाने लगा. पर राजीव अपनी हरकतों से बाज नहीं आए. हरएक बात पर लड़ाईझगड़ा करना, बातबात पर हाथ उठाना उन के लिए बड़ी बात नहीं थी.

अब मैं मां को पत्र लिख सकती थी. स्कूल जाने से मेरा मन भी बदल गया था. इन बातों को मैं ने बड़ा नहीं लिया. मैं ने भी सोचा कि समय के साथ सब ठीक हो जाएगा. इस बीच मैं फिर प्रैगनैंट हो गई. एक बार तो गर्भपात करा दिया. जब दूसरी बार प्रैगनैंट हुई तो गर्भपात  कराने के लिए मैं ने ही मना कर दिया.

पापा को लगता कि मम्मी मुझे ससुराल में रहने नहीं देतीं. पर ऐसी बात नहीं थी. पापा और मम्मी के बीच में तकरारें होने लगीं. मम्मी मेरी बहुत चिंता करतीं. मुझे सर्विस करने की परमिशन तो दे दी पर जौइंट अकाउंट में पैसा जमा होता था, जिस में से मैं निकाल नहीं सकती. राजीव सब ले कर खर्च कर देते. मैं कुछ नहीं कर पाती.

मुझे अपने खर्चे के लिए उन के आगे हाथ फैलाना पड़ता. घर की सारी जरूरतें मेरी सैलरी से ही पूरा करते. कह दूं तो लड़ाईझगड़ा होता. जब डिलीवरी कराने की बात आई फिर पीहर ही गई. मांबाप तो मजबूर थे. एक बच्चा और पैदा हो गया. अब हम 4 लोग हो गए.

इस बीच पापा का देहांत हो गया. मम्मी पढ़ीलिखी सक्षम थीं पर भैया ने घर की बागडोर अपने हाथों में ले ली. मम्मी ऐसी परिस्थिति में डिप्रैशन में रहने लगीं. मुझे लगा ऐसी परिस्थिति में मैं यहां से चली जाऊं तो ज्यादा ठीक है. राजीव तो बुला ही रहे थे.

मैं ने मम्मी को कहा,”मम्मी, आप मेरी प्रेरणास्रोत हो. आप समझदार हो. मैं भी पढ़ीलिखी हूं. मैं अपनेआप को संभाल लूंगी. आप मेरी चिंता मत करो. मैं जा रही हूं. आप अपनेआप को संभालो.”

 

मम्मी धीरेधीरे मेरे अपनेआप को संभालने लगीं. पर मैं ने कोई भी शिकायत राजीव की मम्मी से नहीं की. मेरी तकलीफें दिनप्रतिदिन बढ़ती रहीं. राजीव का ट्रांसफर अलगअलग जगह पर होता रहा. मुझे कई बोल्ड स्टेप उठाने पड़े. मैं जहां जाती थी मुझे नौकरी आराम से मिल जाती थी. अतः नौकरी को ही अपना मनोरंजन समझ कर मैं बराबर काम करती रही.

राजीव तो वैसे ही रहे,”अभी तक झाड़ू नहीं लगी. आज सिर क्यों नहीं धोया? आज तो चौथ का व्रत है. तुम्हारे संस्कार ठीक नहीं. तुम्हारी मां ने तुम्हें कुछ नहीं सिखाया, सुबह उठते ही पहले नहाना चाहिए, फिर रसोई में जाना चाहिए…”

अब मैं स्वयं 40 साल की हो गई थी. मेरी मम्मी के बारे में ही बोलते रहते हैं कि उन्होंने मुझे कुछ नहीं सिखाया. अब तो मेरी बहू आने के दिन आ रहे हैं. पर क्या करूं…मुझे 6:30 बजे सुबह स्कूल के लिए रवाना होना होता है. मैं नहाधो कर खाना बनाती तो पसीने से तरबतर हो जाती. ऐसी स्थिति में स्कूल जाना मुश्किल हो जाता. मगर यह बात उन के दिमाग में नहीं आती. घर में चाय के लिए दूध भले ही ना हो, बच्चे के लिए दूध ना हो पर एक लीटर दूध सोमवार को शिवमंदिर में चढ़ना चाहिए.

पहले तो राजीव मुझे और बच्चों को भी साथ ले कर मंदिर जाते थे. वहां करीब 1 घंटा लगता. हम बुरी तरह थक जाते. फिर बहुत कह कर मना किया.मैं ने कहा, “आप को जो करना है करो, मैं मंदिर नहीं जाऊंगी.”

फिर ससुरजी ने कहा कि उस को नहीं जाना तो छोड़ दे. फिर इस से तो मुझे मुक्ति मिली.राजीव अब भी, जब मेरे बच्चे बड़ेबड़े हो गए यही कहते हैं,”मेरा दिया खाती हो, शर्म नहीं आती? निकल जा मेरे घर से.”

अब निकल कर कहां जाऊंगी? मेरे बच्चे पढ़ रहे हैं. उन को बीच मंझधार में छोड़ कर मैं कैसे जा सकती हूं? बच्चों को तो मम्मी की आवश्यकता है ना… मेरे भी अपने कर्तव्य हैं ना? मैं 1 बच्चे का खर्चा स्वयं वहन करती हूं. इस के बाद भी मेरी इंसल्ट करता रहता है.

मैं समाज से नहीं डरती. उसे जो कहना है कहे. मुझे अपने बच्चों की चिंता है. कोर्ट, केस, तलाक… इन सब के बीच में जो होशियार और होनहार बच्चे हैं उन का भविष्य मैं खराब नहीं करना चाहती. यही सोच कर मैं साथ रह रही हूं. जैसे ही मेरे बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो जाएंगे तो सोचती हूं मैं अलग हो जाऊंगी. उस समय भी मेरे लिए संभव होगा, यह मैं वक्त पर छोड़ती हूं…

बहुत से लोग कहते हैं कि आजकल ऐसा नहीं होता. पढ़ीलिखी आत्मनिर्भर लड़कियों के साथ ऐसा नहीं होता. अब मैं उन्हें क्या कहूं? अब भी समाज में ऐसी बहुत लड़कियां हैं जो खून के आंसू रोती हैं पर दुनिया में अपने को प्रसन्न दिखाती हैं. उसी में से मैं भी एक हूं. जब तक पितृसत्तात्मक समाज रहेगा लड़कियों के साथ ऐसा होता रहेगा

 

एक ताजमहल की वापसी : भाग 1

रचना ने प्रमोद के हाथों में ताजमहल का शोपीस वापस रखते हुए कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो प्रमोद, मैं प्यार की कसौटी पर खरी नहीं उतरी. मैं प्यार के इस खेल में बुरी तरह हार गई हूं. मैं तुम्हारे प्यार की इस धरोहर को वापस करने को विवश हो गई हूं. मुझे उम्मीद है कि तुम मेरी इस विवशता को समझोगे और इसे वापस ले कर अपने प्यार की लाज भी रखोगे.’’ प्रमोद हैरान था. उस ने अभी कुछ दिन पहले ही अपने प्यार की मलिका रचना को प्यार का प्रतीक ताजमहल भेंट करते हुए कहा था, ‘यह हमारे प्यार की बेशकीमती निशानी है रचना, इसे संभाल कर रखना. यह तुम्हें हमारे प्यार की याद दिलाता रहेगा. जैसे ही मुझे कोई अच्छी जौब मिलेगी, मैं तुरंत शादी करने आ जाऊंगा. तब तक तुम्हें यह अपने प्यार से भटकने नहीं देगा.’

रचना रोतेरोते बोली, ‘‘मैं स्वार्थी निकली प्रमोद, मुझ से अपने प्यार की रक्षा नहीं हो सकी. मैं कमजोर पड़ गई…मुझे माफ कर दो…मुझे अब इसे अपने पास रखने का कोई अधिकार नहीं रह गया है.’’

प्रमोद असहज हो कर रचना की मजबूरी समझने की कोशिश कर रहा था कि रचना वापस भी चली गई. सबकुछ इतने कम समय में हो गया कि वह कुछ समझ ही नहीं सका. अभी कुछ दिन पहले ही तो उस की रचना से मुलाकात हुई थी. उस का प्यार धीरेधीरे पल्लवित हो रहा था. वह एक के बाद एक मंजिल तय कर रहा था कि प्यार की यह इमारत ही ढह गई. वह निराश हो कर वहीं पास के चबूतरे पर धम से बैठ गया. उस का सिर चकराने लगा मानो वह पूरी तरह कुंठित हो कर रह गया था.

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कुछ महीने पहले की ही तो बात है जब उस ने रचना के साथ इसी चबूतरे के पीछे बरगद के पेड़ के सामने वाले मैदान में बैडमिंटन का मैच खेला था. रचना बहुत अच्छा खेल रही थी, जिस से वह खुद भी उस का प्रशंसक बन गया था.

हालांकि वह मैच जीत गया था लेकिन अपनी इस जीत से वह खुश नहीं था. उस के दिमाग में बारबार एक ही खयाल आ रहा था कि यह इनाम उसे नहीं बल्कि रचना को मिलना चाहिए था. बैडमिंटन का कुशल खिलाड़ी प्रमोद उस मैच में रचना को अपना गुरु मान चुका था.

अपनी पूरी ताकत लगाने के बावजूद वह रचना से केवल 1 पौइंट से ही तो जीत पाया था. इस बीच रचना मजे से खेल रही थी. उसे मैच हारने का भी कोई गम न था.

मैच जीतने के बाद भी खुद को वह उस खुशी में शामिल नहीं कर पा रहा था. सोचता, ‘काश, वह रचना के हाथों हार जाता, तो जरूर स्वयं को जीता हुआ पाता.’ यह उस के अपने दिल की बात थी और इस में किसी, क्यों और क्या का कोई भी महत्त्व नहीं था. उसे रचना अपने दिल की गहराइयों में उतरते लग रही थी. किसी खूबसूरत लड़की के हाथों हारने का आनंद भला लोग क्या जानेंगे.

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दिन बीतते गए. एक दिन रचना की चचेरी बहन ने बताया कि वह बैडमिंटन मैच खेलने वाली लड़की उस से मिलना चाहती है. वह तुरंत उस से मिलने के लिए चल पड़ा. अपनी चचेरी बहन चंदा के घर पर रचना उस का इंतजार कर रही थी.

‘हैलो,’ मानो कहीं वीणा के तार झंकृत हो गए हों.

उस के सामने रचना मोहक अंदाज में खड़ी मुसकरा रही थी. उस पर नीले रंग का सलवारसूट खूब फब रहा था. वह समझ ही नहीं पाया कि रचना के मोहपाश में बंधा वह कब उस के सामने आ खड़ा हुआ था. हलके मेकअप में उस की नीलीनीली, बड़ीबड़ी आंखें, बहुत गजब लग रही थीं और उस की खूबसूरती में चारचांद लगा रही थीं. रूप के समुद्र में वह इतना खो गया था कि प्रत्युत्तर में हैलो कहना ही भूल गया. वह जरूर उस की कल्पना की दुनिया की एक खूबसूरत झलक थी.

‘कैसे हैं आप?’ फिर एक मधुर स्वर कानों में गूंजा.

वह बिना कुछ बोले उसे निहारता ही रह गया. उस के मुंह से बोल ही नहीं फूट पा रहे थे. चेहरे पर झूलती बालों की लटें उस की खूबसूरती को और अधिक बढ़ा रही थीं. वास्तव में रचना प्रकृति की सुंदरतम रचना ही लग रही थी. वह किंचित स्वप्न से जागा और बोला, ‘मैं अच्छा हूं और आप कैसी हैं?’

‘जी, अच्छी हूं. आप को जीत की बधाई देने के लिए ही मैं ने आप को यहां आने का कष्ट दिया है. माफी चाहती हूं.’

‘महिलाएं तो अब हर क्षेत्र में पुरुषों से एक कदम आगे खड़ी हैं. उन्हें तो अपनेआप ही मास्टरी हासिल है,’ प्रमोद ने हलका सा मजाक किया तो रचना की मुसकराहट दोगुनी हो गई.

संपादकीय

शहरों के कानूनों की गिरफ्त में वर्षों रखने के बाद अब शहंशाहों को समझ आ रहा है कि सिर्फ कानून बना देने से शहर नहीं सुधरता. मकानों को बनाने के कठोर नियम असल में सभी शहरों में बिना एप्रूफ किए मकान बनाने की आदत डाल चुके हैं, शहरों में हर खाली जगह पर कच्ची बस्तियां उग आई हैं. अब गरीबों के लिए एक या 2 कमरों के मकान बनाने के लिए एफएआर, फ्लोर एरिया रेशो को 50′ बढ़ाने की छूट दी जा रही है.

अब तक नियम था कि यदि प्लाट 100 मीटर का है तो उस पर 250 मीटर फ्लोर वाला मकान बन सकता है. अब शायद 375 मीटर तक का मकान बनाया जा सकेगा. घनी बस्तियों में ऐसे मकान हर शहर में आज भी देखे जा सकते हैं. इन मकानों की हालत बहुत खस्ता होती है क्योंकि गरीब लोग बाहरी रखरखाब का पैसा नहीं देते.

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फिर भी यह एहसास हो जाना कि कानून की चाबुक से जनता का हांका नहीं जा सकता काफी है. हमारे शासकों को पौराणिक युग से आदत है कि वे मनमानी करते हैं, जब चाहे जिसे घर से निकाल दिया, किसी का अंगूठा कटवा लिया, किसी को पढऩे पर मार डाला. हमारे पुराणों में राजाओ और दैव्यों द्वारा मुनियों यज्ञों में विध्न डालने वालों को सजा देने वालों की राजाओं की कहानियां बहुत हैं पर आम आदमी को परेशानी होने पर या राजा के दूतों के अत्याचार पर कोई कहानियां नहीं दिखती कि राजाओं ने क्या किया.

आज भी हमारे कानून ऐसे ही हैं. एकदम बेरहम, बेदर्दी से बनाए गए. कानून को लागू करने वालों को एक तरह का लाइसेंस दे रखाा है कि जब चाहो जो मर्जी कर लो, जो मर्जी फरमान जारी कर दो. मकान बनाने में ढेरों कानून हैं जो लोगों को मकानों में पूंजी बनाने से रोकते हैं. लोगों को डर लगता है कि नियमों से बाहर गए बने मकान को कभी भी तोड़ा जा सकता है, कभी बैंक लोन उस पर नहीं मिलेगा, हर महीने इंस्पेक्टर आ धमकेगा.

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यह ठीक है कि मकानों के बारे में छूट देने से शहर रहने लायक नहीं रह जाएंगे पर पहली जरूरत पक्की छत है, साफसफाई, शांति, सुकून, धूप, ताजी हवा, दूसरी. लोग शहरों की ओर भाग रहे हैं क्योंकि गांवों में काम नहीं रह गया. गांव संकरी गलियों वाले बदबूदार हो गए. वहां हवा तो शराब है ही, सामाजिक माहौल और खराब है. शहरों में कुछ हद तक नौकरियां भी मिल जाती हैं और खुली सामाजिक व्यवस्था मिलती है जिस में हर कोई बराबर है. युवाओं को प्यार करने का अवसर मिलता है, बूढ़ों को डाक्टर मिल जाते हैं.

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शहरी नियम बहुत ही लचीलें बनाए जाने चाहिए. केवल बड़े मकानों में तरहतरह के नियम हो ताकि एक तरह के मकान एक क्षेत्र में हों, जिन्होंने बड़ी जगह खुशनुमा वातावरण के लिए किसी कालोनी में ली है, उन्हें हक हो कि वे पड़ोसी को अति न कर दें. वैसे यह सुविधाएं अब गेटड कालोनियों मं मिलने लगी हैं जहां नियम कानून उन के अपने चलते हैं, राजाओं के नहीं.

दिल्ली किस की बिल की या दिल की?

अभी कुछ ही रोज बीते होंगे जब वर्ल्ड फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी. इस रिपोर्ट में देश की मौजूदा भाजपा सरकार पर नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के हनन के कई आरोप लगे थे. इस रिपोर्ट के आने के बाद भारत में वाजिब खलबली मची जरुर थी लेकिन पक्ष से ले कर विपक्ष तक ने इसे एक साथ ठंडे बस्ते में डाल दिया. ना तो सत्ता पक्ष ने जरूरत समझी कि उन की सरकार पर ऐसे गहन आरोप लगाने वालों पर कड़ा एक्शन लिया जाए और ना ही विपक्ष ने जरुरत समझी कि सरकार को इस मसले पर घेरा जा सके.

खैर इस रिपोर्ट की संवेनशीलता न सिर्फ मोदी के औथेरिटेरियन सरकार चलाए जाने के रवय्ये सेथी, बल्कि भारत का सब से मजबूत स्तंभ कहे जाने वाले न्यायालय की कार्यवाहियों को भी संदेहों में धकेले जाने से थी. रिपोर्ट में कहा गया कि, “मोदी कार्यकाल में भारत कीज्युडिशियल स्वतंत्रता भी प्रभावित हुई है.” नागरिकों के राजनीतिक अधिकारों के संदर्भ में कहा गया कि “मानवाधिकार संगठनों पर दबाव बढ़ गया है, शिक्षाविदों और पत्रकारों का डर बढ़ रहा हैऔर बड़े हमलों का दौर चल रहा है.” रिपोर्ट में मौजूदा सरकार के बनाए ऐसे कानूनों का हवाला दिया गया जिस ने नागरिकों के बुनियादी अधिकारों का हनन किया.

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इस रिपोर्ट के आने के बाद सरकार की तरफ से 5 मार्च को एक स्टेटमेंट आया. खुद पर लगे अधिनायकवाद के आरोपों से पल्ला झाड़ते हुए केंद्र ने अपने स्टेटमेंट में इस रिपोर्ट को “भ्रमित, असत्य और गलत” बताया. सरकार ने देश के संघीय ढांचे का हवाला दिया और कहा, “यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि भारत मेंसंघीय ढांचे के तहत कई राज्यों में चुनाव प्रक्रिया के माध्यम से अलगअलग पार्टियों का शासन है और यह उस निकाय चुनाव प्रक्रिया के माध्यम से है जो स्वतंत्र और निष्पक्ष है.”

सरकार जैसेतैसे इस रिपोर्ट से पल्ला झाड़ ही पाई कि इसी महीने एक और रिपोर्ट का विस्फोट सरकार पर हो गया. इसी प्रकार से स्वीडन की ‘वी-डेम इंस्टिट्यूट’ ने एक ताजा रिपोर्ट निकाली जिस में दावा किया गया कि भारत में अभिव्यक्ति की आजादी मोदी कार्यकाल में कम हुई है और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले देश ने इस तरह की सेंसरशिप शायद ही कभी देखी है. रिपोर्ट के मुताबिक, सेंसरशिप के मामले में भारत अब पाकिस्तान के समान है, जबकि भारत की स्थिति बांग्लादेश और नेपाल से बदतर हो चली है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया किभारत में मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने देशद्रोह, मानहानि और आतंकवाद के कानूनों का इस्तेमाल अपने आलोचकों को चुप कराने के लिए किया है. साथ ही भाजपा के सत्ता संभालने के बाद 7 हजार से अधिक लोगों पर राजद्रोह के आरोप लगाए गए हैंऔर जिन पर आरोप लगे हैं उनमें से ज्यादातर लोग सत्ता की विचारधारा से असहमति रखते हैं. यहां तक कि इस रिपोर्ट में इसे भारत के संदर्भ में ‘चुनावी निरंकुशता’ की संज्ञा दी गई. कुल मिला कर केंद्र सरकार पर निरंकुश शासन चलाए जाने के आरोप लगाए गए जिस के चलते भारत की अंतर्राष्ट्रीय छवि को खासा नुकसान पहुंचा है. हांलाकि सरकार भले इन रिपोर्टों को खारिज कर रही हो लेकिन मौजूदा समय में सरकार की कार्यवाहियां इन्ही प्रकार के संदेहों के घेरों में जरूर खड़ी दिखाईदेती है. इस बात का ज्वलंत उदाहरण ‘एनसीटी बिल-2021’ के रूप में नयानया सामने आया है.

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एनसीटी 2021 बिल                                                          

दरअसल, यह बिल 15 मार्च सोमवार को संसद में पेश किया गया था. जिस के बाद से ही ‘आप’ सरकार और विपक्ष की प्रतिक्रया आनी शुरू हो गई थी. अब इस बिल से आने के बाद विधानसभा के चुनावी शौर के बाद थमा मुद्दा फिर से जाग उठा है कि आखिर दिल्ली किस की है? दिल्ली पर अधिकार किसका अधिक है? एक तरफ जनता के 70 में से 62 सीटों पर जीत दर्ज कर भारी बहुमत से जीती सरकार है, दूसरी तरफ केंद्र के चुने उपराज्यपाल हैं.दिल्ली के इस घाव को अब सिर्फ कुरेदा नहीं जा रहा बल्कि इस बार मसलने की पूरी कोशिश की गई है.

दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने इस बिल को ‘असवैंधानिक और अलोकतांत्रिक’ करार दिया. वहीँ डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया ने अपने स्टेटमेंट में कहा, “संविधान की व्याख्या के खिलाफ जाते हुए यह बिल पुलिस,भूमि और पब्लिक और्डर के अतिरिक्त एलजी को अन्य शक्तियां भी देगा. यह बिल जनता द्वारा चुनी दिल्ली सरकार की शक्तियां कम कर एलजी को निरंकुश शक्तियां प्रदान करेगा.”

22 मार्च, सोमवार को लोकसभा से नेशनल कैपिटल टेरिटरी दिल्ली (संशोधन) बिल, 2021 पास हो गया है, और अगर कृषि बिल को पास कराने की राज्य सभा प्रक्रिया को याद करें तो लगता नहीं है कोई ख़ास दिक्कत केंद्र कोहोने वाली है.फिलहाल इस बिल में दिल्ली की चुनी हुई सरकार के ऊपर उपराज्यपाल को प्रधानता देने का प्रावधान है. साधारण भाषा में कहें तो यह यह बिल कहता है कि दिल्ली का प्रतिनिधित्व अब जनता द्वारा चुने हुए मुख्यमंत्री नहीं होंगे बल्कि केंद्र द्वारा चुने हुए उपराज्यपाल रुपी बौसकरेंगे. यह बिल सीधा अधिकारों के हस्तांतरण से है जिस में चुने प्रतिनिधि बिना उपराज्यपाल की आज्ञा के कोई नियमकानून नहीं बना पाएंगे.

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बिल कहता है कि सरकार का कोई भी फैसला लागू करने से पहले एलजी की ‘राय’लेनी जरुरी होगी. इनमें वह फैसले में भी शामिल हैं जो मंत्रिमंडल करेगा. एलजी उन मामलों को तय कर सकेंगे जिनमें उनकी ‘राय’मांगी जानी चाहिए. विधानसभा के बनाए किसी भी कानून में ‘सरकार’ का मतलब एलजी होगा. विधानसभा या उसकी कोई समिति प्रशासनिक फैसलों की जांच नहीं कर सकती और अगर ऐसा है तो उल्लंघन में बने सभी नियम रद्द हो जाएंगे.इन बदलावों का यह मतलब होगा कि राजधानी का दर्जा किसी अन्‍य केंद्रशासित प्रदेश जैसा हो जाएगा.जिस में सीएम कहने भर को होंगे और अंतोगत्वा उपराज्यपाल ही सरकार चलाएंगे.

इस मसले पर दिल्ली कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अनिल चौधरी ने ‘सरिता’ पत्रिका से बात करते हुए बताया कि, “इस बिल के पास होने के बाद विधायिका स्वतंत्र हो कर कानून नहीं बना पाएगी, प्रशासनिक निर्णय नहीं ले पाएगी, यहां उपराज्यपाल ही मुखिया होगा जो सीधे तौर पर गृहमंत्री और प्रधानमंत्री के अधीन नियंत्रण में होंगे. किस ने दिल्ली की जनता से पूछने की जहमत नहीं उठाई. यह लोकतंत्र की हत्या है.”

उन्होंने आगे कहा, “लोकतंत्र के मायने क्या हैं, जब लोग अपनी सरकार चुनते हैं, अपने एमएलए और एमपी चुनते हैं. अगर दिल्ली के फैसलें वे लेंगे जिन्हें चुना ही नहीं गया तो चुनाव और लोकतंत्र के क्या औचित्य रह जाएंगे? तानाशाही से देश नहीं चलता. हिन्दुस्तान के लोकतंत्र का उदाहरण का उदाहरण विश्व में दिया जाता है लेकिन अगर दिल्ली में ही हमला हो रहा है तो पुरे देश में कहां सुरक्षित रह पाएगा.”

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अनिल चौधरी दिल्ली की सरकार पर केंद्र के साथ मिलीभगत का भी आरोप लगाते हैं. वे कहते हैं, “दिल्ली के मुख्यमंत्री की भूमिका संदिग्ध है. जो पहले खुद को मजबूत मुख्यमंत्री बताते फिरते थे आज डरपोक दिख रहे हैं, वे कटपुतली की तरह काम कर रहे हैं. वे हमेशा केंद्र से समन्वय बना कर चल रहे थे कहते थे कि उन्हें केंद्र से सहयोग मिल रहा है. आज दिल्ली बचीकुची भी ख़त्म हो रही है, क्या यह उसी तालमेल का नतीजा है?”

दरअसल, केंद्र सरकार वर्तमान द्वारा बिल के माध्यम से 1991 अधिनियम की धारा 21, 24, 33 और 44 में संशोधन करने का प्रस्ताव है. प्रस्‍तावित संशोधन कहता है कि दिल्‍ली में लागू किसी भी कानून के तहत ‘सरकार, राज्‍य सरकार, उचित सरकार, उप उपराज्यपाल, प्रशासक या मुख्‍य आयुक्‍त या किसी के फैसले’ को लागू करने से पहले संविधान के अनुच्‍छेद 239एए के क्‍लौज 4 के तहतऐसे सभी विषयों के लिए उपराजयपाल की राय लेनी होगी. अनुच्‍छेद 239एए में दिल्‍ली से जुड़े विशेष प्रावधानों का जिक्र है. इस प्रावधान के बाद प्रस्‍तावों को एलजी तक भेजने या न भेजने को लेकर दिल्‍ली सरकार कोई फैसला नहीं कर सकेगी.

संशोधन बिल के अनुसार, विधानसभा का कामकाज लोकसभा के नियमों के हिसाब से चलेगा. यानी विधानसभा में जो व्‍यक्ति मौजूद नहीं है या उसका सदस्‍य नहीं हैउसकी आलोचना नहीं हो सकेगी. पहले कई मौकों पर ऐसा हुआ जब विधानसभा में शीर्ष केंद्रीय मंत्रियों के नाम लिए गए थे. इस में एक और प्रावधान यह है कि विधानसभा खुद या उसकी कोई कमिटी ऐसा नियम नहीं बनाएगी जो उसे दैनिक प्रशासन की गतिविधियों पर विचार करने या किसी प्रशासनिक फैसले की जांच करने का अधिकार देता हो. यह उन अधिकारियों की ढाल बनेगा जिन्‍हें अक्‍सर विधानसभा या उसकी समितियों द्वारा तलब किए जाने का डर होता है.

इस सम्बन्ध में ‘सरिता’ पत्रिका की बात दिल्ली के पटेल नगर विधानसभा के विधायक राजकुमार आनंद से हुई. वे कहते हैं,“2013 में हम लोग राजनीति में नए थे. हमें तरहतरह के नएनए पाठ पढ़ा कर कि ‘आप यह नहीं कर सकते, वह नहीं कर सकते, एंटी करप्शन ब्यूरो दिल्ली सरकार के पास थी उसे छीन लिया गया. 3 साल तक हमें काम नहीं करने दिया गया. हमें मजबूरन सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ा. 239एए में उस समय (1991) जो संशोधन किए गए थे उस में यही लिखा था कि ‘एलजी’ एक काउंटर साइनिंग अथोरिटी हैं. जिस के बाद फैसला इसी तौर पर आया.”

वे आगे कहते हैं, “भाजपा चाहती है कि वे किसी भी तरह से हारने के बावजूद पीछे से दिल्ली की सरकार चला सके. यही भाजपा अपने घोषणापत्र में दिल्ली को पूर्णराज्य का दर्जा देने की बात कर रही थी. इसलिए यह हथकंडा है भाजपा का ऐसे नहीं तो वैसे सत्ता में बने रहने का. बाकि कांग्रेस अपनी जमीन खो चुकी है वह बीचबीच में राजनीति करने आ जाती है. कांग्रेस चाहती तो इसे अपने कार्यकाल में पूर्ण राज्य का दर्जा दिला सकती थी. लेकिन कांग्रेस ने कभी दिल्ली की नहीं सोची.”

 सुप्रीम कोर्ट का फैसला

निचले सदन में इस बिल पर हुई चर्चा में गृह राज्य मंत्री जी. किशन रेड्डी ने जवाब देते हुए कहा, “संविधान के अनुसार दिल्ली विधानसभा से युक्त सीमित अधिकारों वाला एक केंद्रशासित राज्य है.उच्चतम न्यायालय ने भी अपने फैसले में कहा है कि यह केंद्रशासित राज्य है. सभी संशोधन न्यायालय के निर्णय के अनुरूप हैं.”

किन्तु इस के उलट उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने अपने स्टेटमेंट में बिल को ले कर कहा कि, “यह विधेयक सर्वोच्च न्यायालय के संविधान पीठ के आदेश के खिलाफ है. यदि केंद्र बिल के माध्यम से ऐसा करना चाहती हैतो चुनाव कराने और राज्य में एक निर्वाचित सरकार होने का क्या मतलब है?केंद्र लोकतांत्रिक होने का ढोंग क्यों करती है?”

गौरतलब है कि राज्य में अधिकारों की जंग केजरीवाल के शुरूआती समय से चलती आ रही है. दिल्ली में जब केजरीवाल की सरकार बनी थी तब समयसमय पर यह विवाद बनता रहा. यह कारण भी था कि मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और 4 जुलाई, 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर अपना फैसला भी सुनाया था.सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक, दिल्ली में जमीन, पुलिस, और पब्लिक और्डर राज्य सरकार को उपराज्यपाल की मंजूरी लेने की जरुरत नहीं. हांलाकि मंत्रिमंडल द्वारा लिए फैसले की सूचना दी जाएगी.

दरअसल केंद्र के इस कदम से न केवल सहकारी संघवाद को चोट पहुंचानेका मसला खड़ा हुआ है बल्कि 2018 में उच्चतम न्यायालय के 5 न्यायाधीश पीठ के फैसले द्वारा निर्धारित मूलभूत सिद्धांतों को भी उलट दिया है. फैसले में कहा गया था कि दिल्ली में एलजी मंत्रिपरिषद की सलाह से काम करेंगे, वे स्वतंत्र नहीं. यदि कोई अपवाद है तो मामला राष्ट्रपति को हस्तांतरित किया जाएगा यानी खुद कोई फैसला नहीं लेंगे.उस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने 239एए के तहत व्याख्या की कि मंत्रिपरिषद के पास एग्जिक्यूटिव पावर्स हैं. जो फैसला दिल्ली सरकार लेगी वह एलजी को अवगत कराएगी, लेकिन एलजी की उस पर सहमति जरुरी नहीं. राज्य सरकार 3 अपवाद को छोड़ कर बाकी मामले में स्वतंत्र हो कर काम कर सकेगी.

साल 1991 में संविधान में 69वां संसोधन कर अनुच्छेद 239एए का प्रावधान लाया गया था. जिस में दिल्ली को विशेष प्रावधान के तहत अपने विधायक चुनने का अधिकार था. इसी अधिकार में राज्य को विधानसभा की व्यवस्था के साथ कानून बनाने का अधिकार था. 2018 में तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने एलजी की स्थिति प्रशासक की बताई थी. कोर्ट ने फैसले में कहा था कि निरंकुशता की कोई जगह नहीं है.

कोर्ट का यह फैसला दिल्ली सरकार को राहत पहुंचाने वाला था. वहीँ लोकतंत्र में इसे जन की जीत का फैसला भी माना जा रहा था. लेकिन सरकार का फैसले के उलट बिल लाना कहीं ना कहीं जुडिशियल सिस्टम पर भी चोट करने जैसा है.

 जनता को क्या मिलेगा?

कांग्रेस दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष अनिल चौधरी ने अपनी बात कहते हुए हमें कहा, “दिल्ली में सरकार पहले भी चलती आई थी, दिल्ली का विकास होता रहा है, काम होता रहा था, आखिर केंद्र को ऐसी क्या जरूरत पड़ गई इस तरह के संशोधन करने की जबकि उन के खुद (भजपा) के घोषणापत्र में पूर्णराज्य की बात थी. उन्हें यह पता है कि इस के बन जाने से दिल्ली की जनता के काम बाधित ही होंगे. फाइल यहां से वहां घुमती रहेगी, कई चीजों में राजनीतिक रोकटोक बढ़ेगी. कई कामों में रुकावट आएंगी.”

दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने भी बिल पास होने के बाद अपनी प्रतिक्रिया दी थी. उन्होंने ट्वीट किया,“आज लोकसभा में जीएनसीटीडी संशोधन विधेयक पारित करना दिल्ली के लोगों का अपमान है. विधेयक प्रभावी रूप से उन लोगों से शक्तियां छीन लेता है जिन्हें लोगों द्वारा वोट दिया गया था और जो लोग पराजित हुए थेउन्हें दिल्ली को चलाने के लिए शक्तियां प्रदान की गईं. भाजपा ने दिल्ली कीजनता को धोखा दिया है.”

दरअसल यहां मसला अब दिल्ली की कुर्सी पर कब्जे का है. दिल्ली पर कब्जे का मतलब भाजपा अच्छे से जानती है देश की भावी दशोदिशा पर कब्जा. दिल्ली पर अधिकार मतलब यहां की राजनीतिक बिसात पर अधिकार बनाए जाने का है. दिल्ली में जड़ पकड़ते और आग की तरह देश में फैलते आन्दोलन के दमन और नियंत्रण का है.यह पूरी तरह से देश की राजनीति को नियंत्रण में रखने का तो है ही, लेकिन इस संशोधन से दिल्ली की जनता को आखिर हांसिल क्या होगा यह बात समझ से परे है. दिल्ली की जनता जिस किसी को भी इस मुगाल्फत में चुनेगी की वह उसे चुनने जा रही है जिस ने उस से सम्बंधित वादे किएथे पता चला किवे तो तभी पूरे होंगे जब हराए हुए नेताओं की हामी उस में ना हो.

भाजपा कहीं ना कहीं हार कर भी इस खेल में बाजीगर बन जाना चाहती है. हारने के बावजूद खुद के लिए शासन करने का नियंत्रण रखना चाह रही है. लेकिन सवाल उस जन का जिसे सफेद झूठ परोसा जा रहा है. जिस के मतदान और ओपिनियन को निरस्त किया जा रहा है. यह मात्र दिल्ली सरकार को कमजोर किए जाने की बात नहीं, मसला जनता के सब से मूल राजनीतिक अधिकार को कमजोर किए जाने का है.

हांलाकि इस मसले पर यह भी ध्यान रखे जाने की जरुरत है कि आज जो मुख्यमंत्री दिल्ली में सरकार और आम जन के अधिकारों के हनन पर रो पीट रहे हैं, यह वही मुख्यमंत्री रहे हैं जो जम्मू और कश्मीर में आर्टिकल 370 के अब्रोगेशन पर केंद्र को पूरा समर्थन दे रहे थे. जबकि जम्मू और कश्मीर की देश में स्थिति दिल्ली की तरह केंद्रशासित प्रदेश की नहीं थी. इस सम्बन्ध में जब हम ने आम आदमी पार्टी के विधायक राजकुमार आनंद से सवाल पूछा तो उन्होंने कहा, “जम्मू कश्मीर के हालत अलग हैं, वहां आतंकवाद है और वह सीमा से सटा हुआ प्रदेश है. दोनों के हालात अलग हैं उन्हें जोड़ कर नहीं देखा जा सकता.”

बहरहाल यह तय है कि अधिकारों की इस लड़ाई में आगे केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच काफी सियासी घमासान देखने को मिल सकता है. किन्तु इन सब के बीच इन दोनों के बीच पिस रही दिल्ली की आम जन क्या चाहती है यह आगे के टकराव का मुख्य बिंदु जरुर होगा.

नोट: काफी जिज्ञासु भाव से सरिता पत्रिका की टीम ने ‘जीएनसीटी दिल्ली संशोधन बिल, 2021’ के संदर्भ में रिपोर्ट तैयार करने के लिएदिल्ली सरकार के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया से संपर्क साधने की पूरी कोशिश की. किन्तु काफी मशक्कत के बाद छोटेबड़े सभी से हो कर गुजरने के बाद उन के पीए ललित विजय ने सवालों की लिस्ट मंगवा कर जिज्ञासा ही खत्म करवा दी. बहरहालइस संदर्भ में डिप्टी सीएम आतिशी मार्लेना, श्रम मंत्री गोपाल राय, स्वास्थ्य मंत्री सत्येन्द्र जैन, फूड सप्लाई मंत्री इमरान हुसैन, राजिंदर पाल गौतम, कैलाश गहलोत व एमपी संजय सिंह इत्यादि नोटेबल ‘आप’ नेताओं से संपर्क साधने की पूरी कोशिश की गई. लेकिन सत्ता में7 साल बैठने के बाद संभव है कि आम से ख़ास बनने की तरफ बढ़ते हुए यह नेता भी माननीय पदवी हांसिल कर चुके होंगे. इन में किसी से इस रिपोर्ट लिखने तक सीधा संपर्क नहीं हो पाया. शायद इसलिए क्योंकि नेता के नीचे नेता, फिर छोटा नेता, फिर पीए और पीएल की नएनए पद बनाने की कांग्रेसनुमा और भाजपाई सरीखे माननीयप्रवृति इन के भी आड़े आ गई होगी.

 

Holi Special: ‘ये रिश्ता का क्या कहलाता है’ में हुआ होली सेलिब्रेशन, सीरत-कार्तिक ने यूं खेली होली

सीरियल ये रिश्ता क्या कहलाता है महीनों बाद टीआरपी लिस्ट में अपनी जगह बनानी शुरू कि है. इस हफ्ते आई टीआरपी कि लिस्ट में शो के प्रॉड्यूसर राजन शाही ने अपनी जगह बना ली है. अब मोहसिन खान और शिवांगी जोशी जमकर सीरियल को टॉप में लाने के लिए मेहनत करते नजर आ रहे हैं.

इन दिनों सीरियल ये रिश्ता क्या कहलाता है में होली स्पेशल एपिसोड़ की शूटिंग चल रही है. इस सीक्वेंस की शूटिंग काफी ज्यादा लंबी हैं. जिस वजह से कलाकारों को सेट पर घंटों- घंटों रुकना पड़ रहा है.

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टाइट सेड्यूल के बाद भी कलाकार एक -दूसरे को चीयरअप करने का मौका नहीं छोड़ते हैं. इस बात का सबूत मोहसिन खान और शिंवागी जोशी के नए वीडियोज से पता चलता है. दोनों ही कलाकारों ने सेट पर बनाएं नए वीडियोज को शेयर किया है. जिसमें वह खूब मस्ती करते नजर आ रहे हैं.

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मोहसिन खान ने एक वीडियो शेयर किया है जिसमें वह पंजाबी गाने ब्राउन मुंडे पर ठुमके लगाते नजर आ रहे हैं. इस वीडियो में मोहसिन खान के साथ हिमांशु भड़ाने भई नजर आ रहे हैं. आप इस वीडियो को देखने के बाद अंदाजा लगा सकते हैं कि सेट पर मौजूद कलाकार कितना ज्यादा एंजॉय कर रहे हैं.

 

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सबसे खास बात इस वीडियो कि ये है कि इस वीडियो में पानी की बोतल को लेकर शराब की बोतल की तरह झूमते नजर आ रहे हैं. सभी कलाकार एक-दूसरे के साथ जमकर मस्ती करते नजर आ रहे हैं.

‘Sasural simar ka 2’ के सेट पर पहले दिन पहुंचकर इमोशनल हुई दीपिका कक्कड़, फैंस को दिया मैसेज

ससुराल सिमर का 2 एक्ट्रेस दीपिका कक्कड़ इन दिनों अपने फैंस के बीच छाई हुई हैं. हाल ही में दीपिका ने ससुराल सिमर का 2 का टीजर जारी किया है. इस टीजर को देखने के बाद फैंस ने अपनी खुशी जताई है. इस बीच दीपिका ने अपने यूट्यूब पर दीपिका से सिमर बनने तक के सफर को दिखाया है.

बीते दिनों ही दीपिका ने अपने सोशल मीडिया के जरिए बताया था कि उन्होंने शूटिंग शुरू कर दी है. बता दें कि दीपिका कक्कड़ इस वीडियो में यह बताते हुए नजर आ रही है कि इस सेट पर आना उनके लिए काफी ज्यादा इमोशनल है क्योंकि यहां से उन्हें बहुत कुछ मिला है.

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जल्द ही इस सेट पर शोएब इब्राहिम भी उन्हें ज्वाइन करेंगे. कुछ समय पहले ही फैंस ने इस सीरियल का फर्स्ट लुक साझा किया था. जिसमें दीपिका टीवी पर वापसी के लिए पूरी तरहसे तैयार है. कुछ फैंस का कहना है कि इस सीरियल में एक बार फिर से जुड़ते ही दीपिका कि किस्मत एक बार फिर से चमक गई है.

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ये ही नहीं रातों- रात दीपिका को दो शो में एंट्री मारने का मौका मिला गया है. सीरियल नमक इश्क का में दीपिका जल्द एंट्री करेंगी और इसमें वह रंग बरसे गाने पर डांस करते नजर आएंगी.

बता दें कि सीरियल के मेकर्स ने होली स्पेशल प्रोग्राम का नाम नमक इश्क रे रखा है. वहीं ससुराल सिमर का 2 में दीपिका और शोएब का रोल केमियो का होगा. दीपिका के साथ- साथ शोएब इब्राहिम भी इस सीरियल में वापसी करने वाले हैं.

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इस खबर के बाद फैंस कयास लगा रहे हैं कि नमक इश्क रे में दीपिका की एंट्री के बाद जबरदस्त बगलाव आने वाला है. युग और कहानी के बीच की गलतफैमियों को दूर करती नजर आ रही हैं. वैसे धीरे- धीरे युग की गलतफैमिया दूर हो रही हैं.

आयशा वीडियो कांड: समाज के लिए खतरनाक ट्रैंड

आयशा ने मौत को गले लगाने से पहले बनाए गए अपने वीडियो से यह जताना चाहा कि उन्होंने अपनी शादी को बचाने की पूरी कोशिश की पर वे नाकाम रहीं, और अब यही आखिरी रास्ता बचा है सब को खुश करने का. पर यह वीडियो सोशल मीडिया पर एक नया ट्रैंड छोड़ गया. यह भविष्य में बड़ा खतरनाक हो सकता है. कहते हैं कि जब कोई टूटा हुआ इंसान मुसकराता है तो और ज्यादा दर्द दे जाता है. 26 फरवरी, 2021 को एक ऐसी ही मुसकराहट किसी ने वीडियो में कैद की और उसे जिसजिस ने भी देखा उस का कलेजा मुंह को आ गया. काले लिबास में सिमटी आयशा नाम की उस महिला ने न चाहते हुए या कहिए अपने पति को अपनी मौत का कंफर्मेशन वीडियो इसलिए भेजा ताकि उसे तसल्ली हो जाए कि पत्नी की खुदकुशी ने उसे इस रिश्ते से आजाद कर दिया है.

आयशा ने वीडियो में कहा, ‘‘अगर वह मुझ से आजादी चाहता है तो उसे आजादी मिलनी चाहिए. मेरी जिंदगी यहीं तक है. मैं खुश हूं कि मैं अल्लाह से मिलूंगी. मैं उन से पूछूंगी कि मैं कहां गलत थी? मुझे अच्छे मांबाप मिले. अच्छे दोस्त मिले. हो सकता है कि मेरे साथ या मेरी नियति में कुछ गलत रहा हो. मैं खुश हूं. मैं संतुष्टि के साथ गुडबौय कह रही हूं. मैं अल्लाह से दुआ करूंगी कि मुझे फिर कभी इंसानों की शक्ल नहीं देखनी पड़े.’’ मूल रूप से राजस्थान की रहने वाली आयशा गुजरात के अहमदाबाद शहर के वातवा इलाके में रह रही थी. साबरमती रिवरफ्रंट (वैस्ट) के पुलिस इंस्पैक्टर वी एम देसाई ने कहा, ‘‘हमें आयशा का फोन मिला है. फोन पर पति के साथ 25 फरवरी को हुई 70 मिनट की बातचीत रिकौर्डेड थी. इस बातचीत के दौरान उस के पति ने कहा था, ‘‘मैं तुम्हें लेने नहीं आऊंगा. तुम्हें अवश्य मर जाना चाहिए. उस समय का वीडियो बना कर मुझे भेजना. उस वीडियो को देखने के बाद ही मुझे तुम्हारे मरने का यकीन होगा.’’ ‘‘इस लड़की ने लंबे समय से पति के साथ चल रहे झगड़े के चलते खुदकुशी की है.’’

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इस के बाद गुजरात पुलिस ने आयशा के पति आरिफ खान को राजस्थान के पाली से गिरफ्तार कर लिया. उस के खिलाफ धारा 306 के तहत खुदकुशी के लिए उकसाने का मामला दर्ज किया गया. इस पूरे मामले में यह सामने आया कि आयशा की शादीशुदा जिंदगी में सबकुछ ठीक नहीं था. उस के मातापिता का आरोप है कि पति और उस के परिवार वालों की हिंसा के चलते आयशा के बच्चे की पेट में ही मौत हो गई थी. आयशा तो अब इस दुनिया से चली गई है. चूंकि वह अपनी शादीशुदा जिंदगी में बहुत ज्यादा परेशान थी, इसलिए उस ने मर जाना ही बेहतर समझा. पति पुलिस हिरासत में है. पर सवाल उठता है कि आयशा ने मरने से पहले अपना ऐसा मार्मिक वीडियो बना कर समाज को क्या संदेश देने की कोशिश की है? क्या पारिवारिक समस्याओं को निबटाने का यही एक रास्ता बचा है?

आयशा के वीडियो के बारे में ध्यान से देखेंगे तो उस ने जो भी बोला, उस में सब्र रखने की कोशिश की गई. यह जताया गया कि वह बहुत शांत है और उसे मरने से बिलकुल भी डर नहीं लगता है. पर क्या वाकई ऐसा ही था? बिलकुल नहीं. आयशा किसी तरह से मजबूत दिल की नहीं थी. पर चूंकि उस के पति ने मरने का सुबूत मांग लिया था, तो उस ने सोचा कि अब यही सही. इसी तरह अपने पति की मुराद पूरी कर दी जाए. सच कहें तो आयशा के हर कथन से यही झलक रहा था कि वह हिम्मत हार चुकी थी. पति ने उसे भले ही कोई मानसम्मान न दिया हो, दहेज के लिए ताने दिए हों, मारपीट की हो, पर उस के हर तथाकथित जुल्म का यह जवाब किसी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता है.

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वीडियो बनाने की गलती आयशा की खुदकुशी से पहले के वीडियो ने एक नई तरह की बहस को जन्म दे दिया है. सोशल मीडिया पर इस तरह के ट्रैंड जंगल की आग की तरह बड़ी तेजी से फैलते हैं. हो सकता है कि भविष्य में लोग अब अपनी खुदकुशी वाले वीडियो पोस्ट करने लगेंगे. अपनी मौत का मजा लेने का तरीका समाज के लिए खतरनाक साबित हो सकता है. एकदम फिल्मी मौत की तरह कि अगर तुम 5 मिनट में मुझे बचाने नहीं आए तो मैं अपनी जान दे दूंगा या दे दूंगी. खुदकुशी करने के मामले अभी कौन से कम हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्लूएचओ के मुताबिक, दुनियाभर में हर साल तकरीबन 8 लाख लोग खुदकुशी करते हैं. नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में खुदकुशी के मामलों में 3.6 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2018 में कुल 1,34,516 लोगों ने खुदकुशी की जो साल 2017 के 1,29,887 खुदकुशी के मामलों के मुकाबले 3.6 फीसदी ज्यादा रही.

साल 2019 में कुल 1,39,123 लोगों ने खुदकुशी की थी. साल 2020 में कोरोना महामारी के बाद लगे लौकडाउन के दौरान लोग घरों में रहे. इस से उन के कामधंधे प्रभावित हुए, जिस से लोगों में डिप्रैशन बढ़ा. जो लोग इस तनाव को झेल नहीं पाए, उन्हें इस से छुटकारा पाने के लिए अपनी जिंदगी से ज्यादा मौत आसान लगी. पर वे भी आयशा की तरह गलत थे. मनोविज्ञानी डाक्टर पुलकित शर्मा ने इस सिलसिले में बताया, ‘‘आयशा ने अपनी खुदकुशी से पहले जो वीडियो बनाया उसे किसी भी नजरिए से सही नहीं ठहराया जा सकता. जिंदगी का अंत समस्याओं का अंत नहीं है, बल्कि इस से तो उन लोगों की समस्याएं बढ़ जाती हैं जो किसी न किसी तरह खुदकुशी करने वाले से जुड़े होते हैं. ‘‘अगर आयशा की मनोस्थिति की बात करें तो बहुत से लोग जो सारी उम्र दुनियाभर के लिए अनजान होते हैं, उन के मन के किसी कोने में यह भाव दबा रहता है कि मरने के बाद ही लोग हमदर्दी जताने के बहाने उन्हें याद रखें.

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अब चूंकि मोबाइल फोन हाथ में रहता है तो वीडियो बना कर अपने साथ हुई ज्यादतियों को लोगों के सामने रखने से उन से हमदर्दी मिलने की ज्यादा उम्मीद रहती है बजाय सुसाइड नोट लिखने के. नोट में आप की भावनाएं तो जाहिर हो जाती हैं पर आप दिखने में कैसे हैं, किस पीड़ा से गुजर रहे हैं, आप के हावभाव कैसे हैं, यह वीडियो से ज्यादा हाईलाइट होता है. ‘‘मेरा मानना है कि यह ट्रैंड समाज के लिए खतरनाक है. आयशा की समस्याएं बहुत बड़ी रही होंगी, पर डिप्रैशन का यह दौर उस की जिंदगी में हमेशा रहेगा और मौत ही इस का हल है, उस की यह सोच सही नहीं थी, क्योंकि जिस तरह एक मौसम के बाद दूसरा मौसम बदलता है, वैसे ही डिप्रैशन का फेज भी हमेशा नहीं रहता. हर किसी की जिंदगी में बुरा दौर आता है, पर थोड़ी सी हिम्मत के साथ उस का सामना करने से वह समय भी टल जाता है.

‘‘आयशा को उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए थी, क्योंकि बहुत से लोग अब उस के किए को जायज ठहराएंगे और अगर कोई उसी की राह पर चलेगा तो यह समाज के लिए कतई सही नहीं होगा. अगर किसी के मन में अपनी जान देने का खयाल आता है तो वह अपनी पिछली जिंदगी के उन अच्छे पलों को जरूर याद करे जब उस के लिए यह दुनिया और अपने ही सबकुछ थे. इस से उसे अपनी मौत के खयाल से पीछे हटने में मदद मिलेगी.’’ लेकिन जिंदगी खत्म करने का यह तरीका एकदम गलत है. अगर आप की जिंदगी में कुछ भी सही नहीं चल रहा है या कोई है जो आप से हद तक नफरत करता है तो क्या उस के लिए अपनी जिंदगी को खत्म कर लेना चाहिए? नहीं, क्योंकि मौत किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकती. जिंदगी का मतलब ही उतारचढ़ाव है, फिर गिरने पर कैसा घबराना. तनाव और हताशा में कोई फैसला नहीं लेना चाहिए.

अरविंद का रामराज्य

दिल्ली में रामराज्य की परिकल्पना साकार करने पर उतारू हो आए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने लगता है रामायण सलीके से पढ़ी ही नहीं है. मुमकिन है कल को वे इस बात की हिमायत करने लगें कि धर्मकर्म करने वाले शंबूक की तरह दलितवध पाप नहीं है, बाली जैसे निर्दोष बंदर को धोखे से मारना क्षत्रिय धर्म है और चरित्र पर शंका होने पर जनता की मांग पर गर्भवती पत्नी का त्याग भी रामराज्य की परिकल्पना का ही बिंदु है.

अकसर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डिग्रियों पर शक जताने वाले अरविंद की डिग्रियों के औचित्य पर शक हो आना कुदरती बात है कि दोनों में फर्क क्या. बूढ़ों को जनता के पैसे से अयोध्या का तीर्थ करवाने वाले अरविंद खुद अपनी लोकप्रियता को मिट्टी में मिलाने पर उतारू हो आए हैं. बेहतर यह होगा कि वे इस धार्मिक अभियान में अपने भूतपूर्व कवि दोस्त कुमार विश्वास को साथ ले लें जो इन दिनों रामकथा बांचते लग्जरी जिंदगी जी रहे हैं

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कसकता दोस्ताना

पिछले साल तक भाजपाई ज्योतिरादित्य सिंधिया और उन के खानदान को गद्दार कहते रहते थे, अब उन के भाजपा में जाने के बाद यही बात राहुल गांधी इशारों में कह रहे हैं कि भाजपा उन्हें वफादारी का इनाम देते मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री नहीं बनाएगी. कभी ज्योतिरादित्य की दादी राजमाता सिंधिया ने भी राहुल की दादी इंदिरा गांधी के साथ ऐसी ही गद्दारी की थी, तब भी कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ी थी. यानी कलंक का टीका स्थायी रूप से सिंधियाओं के माथे पर चिपका रहा है.

लेकिन यहां बात टीन एज की दोस्ती की है जो राहुल को ज्यादा साल रही है. इसे गिल्ट भी कहा जा सकता है और खीझ भी. रही बात सिंधिया की, तो वे, दरअसल, दिलोदिमाग से सनातनी हैं जो मजबूरी में कांग्रेस व राहुल से चिपके थे. राजघरानों के सपूतों को दोस्ती जैसे पाक जज्बे से ज्यादा सत्ता प्यारी होती है, यह उन्होंने साबित भी कर दिया.

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बेशक मंदिर-मसजिद तोड़ी…

आम भारतीय टोल नाके पर तो पैसा देने में कलपता है लेकिन सड़क किनारे अतिक्रमण की जमीन पर बने धर्मस्थल देखते ही जेब ढीली कर देता है. ऊपर वाले का न लिया कर्ज वह जिंदगीभर किस्तों में चुकातेचुकाते एक दिन खुद ऊपर चला जाता है, पीछे छोड़ जाता है तो एक निरा अंधविश्वास. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हाईकोर्ट के आदेश पर फरमान जारी करते तुक की बात यह कही है कि ऐसे अवैध  मंदिरमसजिद तुरंत हटाए जाएं.

यह बात योगीजी के संस्कारों से मेल खाती नहीं है. शायद उन का सोचना यह रहा होगा कि जब अयोध्या में सब से बड़ा मौल बन गया है तो दरिद्रता फैलाती इन छोटीमोटी गुमटियों की जरूरत क्या. इस से कई पंडेपुजारियों का रोजगार छिन जाएगा. उत्तर प्रदेश में वैसे ही ब्राह्मण उन से नाराज हैं, अब देखना दिलचस्प होगा कि यह नया हुक्म क्या गुल खिलाएगा.

गडकरी की घूसखोरी

आंखों और मूंछों से मुसकराते रहने वाले केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी की होली बदरंग भी हो सकती है बशर्ते उन पर लग रहा घूसखोरी का इलजाम परवान चढ़ पाए. किस्सा कुछकुछ चंद्रकांता संतति जैसा है. स्केनिया स्वीडन की कार कंपनी वौक्स्वैगन की ब्रांच है जो हैवी व्हीकल बनाती है. स्वीडन के मीडिया स्वेरगेस, जिस का प्रचलित नाम एसवीटी है, ने बीती 10 मार्च को एक रिपोर्ट में कहा है कि स्केनिया भारत में अपना कारोबार बिना किसी अड़ंगे के कर सके, इस बाबत नितिन गडकरी को एक लग्जरी बस तोहफे में दी गई जो 4 दिसंबर, 2016 को उन की बेटी केतकी की शादी में इस्तेमाल भी की गई थी.

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यह बात आम जनता में नहीं आई. लेकिन अंदरूनी बवंडर मचा तो स्केनिया की तरफ से सफाई आई कि यह बस एक प्राइवेट डीलर ने खरीदी थी, फिर इस का क्या हुआ, उसे पता नहीं. अब सच जो भी हो, कभी सामने आ पाएगा, इस में शक है लेकिन गडकरी की चुनरी में दाग तो लग ही गया है.

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