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Rubina Dilaik ने खूबसूरत से अंदाज में फैंस को दी होली की बधाई

बिग बॉस विनर रुबीना दिलैक सोशल मीडिया अकाउंट पर आए दिन एक्टिव रहती हैं. रुबीना दिलैक ने अपने फैंस के लिए सोशल मीडिया अकाउंट पर एक वीडियो शेयर किया है. वीडियो शेयर करते ही फैंस रुबीना को होली की बधाई देने लगे.

दरअसल, वीडियो में रुबीना के गालों पर रंग लगा है और आंखों में चश्मा जिसके बाद वह खुशी  के मारे उछलती दिख रही हैं. इस वीडियो को शेयर करते हुए रुबीना ने लिखा है कि मेरे तरफ से होली की सभी को शुभकामनाएं. मैं दुआ करुंगी कि हर पल खुशियों का रंग मिल जाए और आपकी खुशी गुजरा हो जाए. इस वीडियो में वह बलम पिचकारी गाने पर डांस करती नजर आ रही हैं.

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वैसे तो रुबीना दिलैक हर पल अपने फैंस को बीच छाई रहती हैं लेकिन इस बार फिर से उनके फैंस उन्हें ढ़ेंर सारा प्यार देते नजर आ रहे हैं. रुबीना दिलैके के इस वीडियो पर लगातार लाइक और कमेंट आ रहे हैं.

बता दें कि जल्द ही रुबीना दिलैक अपने सीरियल ‘शक्ति अस्तित्व’ की में वापसी करने वाली हैं. इस खबर को मिलते ही फैंस खुशी से झूम उठे. सभी को बेसब्री से इंतजार है रुबीना के वापसी की. कुछ वक्त पहले ही रुबीना ने वीडियो शेयर कर अपने फैंस को जानकारी दी थी.

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बिग बॉस कि विनर बनने के बाद रुबीना दिलैक काफी ज्यादा पॉपुलयर हो गई हैं, रुबीना के फैंस उन्हें पहले से ज्याजा चाहने लगे हैं.

रुबीना दिलैक फिलहाल कई सारे प्रोजेक्ट्स पर काम कर रही हैं. खबर है कि रुबीना दिलैक जल्द ही अपने नए प्रोजेक्ट्स के बारे में खुलासा करने वाली हैं.

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अपनी फैमली के  साथ वह खूब एंजॉय करती नजर आती हैं. वहीं कई बार अपने पति अभिनव शुक्ला के साथ भी मस्ती करते हुए वीडियो शेयर करती हैं.

लेडीज टौयलेट की कमी क्यों?

मुद्दा लेडीज टौयलेट की कमी क्यों? हमारा समाज बाजार को मर्दों की जगह मानता आया है. यह सोच औरतों को हमेशा चारदीवारी के अंदर समेटने की रही है. बदलते समय के साथ औरतों ने बाजारों में जाना शुरू तो कर दिया है किंतु पब्लिक प्लेसेज में महिला शौचालयों की भारी कमी के चलते उन को भारी समस्या का सामना करना पड़ता है. रेखा और उस की ननद ने आज शौपिंग करने का कार्यक्रम बनाया. उन के साथ शौपिंग की इच्छा लिए रेखा की षोडशी बेटी मोहना भी तैयार हो गई. उत्साहित हो तीनों बाजार पहुंच गईं. खरीदारी करने के बाद उन्होंने कुछ खायापिया. अब मोहना को बाथरूम जाने की इच्छा हुई. उस के पीरियड्स चल रहे थे, सो जाना जरूरी था. लेकिन अनगिनत दुकानों, छोटे रैस्टोरैंट और स्टोर्स में पूछने के बाद भी जब टौयलेट की सुविधा का पता न चला तो मोहना की आंखें छलक पड़ीं. उस की हालत देख कर रेखा ने पास ही में रह रहे लोगों के घर का दरवाजा खटखटाया और बेटी को उन का शौचालय प्रयोग करने की प्रार्थना की.

आप को यह वाकेआ क्या आपबीती लग रहा है? दिल्ली के सरोजिनी नगर में रहने वाली मिसेज धूपर बताती हैं, ‘‘उन का घर मार्केट के पास होने के कारण कई बार उन के घर में महिलाएं इस तरह की प्रार्थना लिए आ जाती हैं, मुझे एकदम साफ बाथरूम पसंद आता है. कई लोग इस्तेमाल करने के बाद उसे गंदा ही छोड़ जाते हैं जिस से मेरा काम बढ़ जाता है. पर क्या करें, बेचारी महिलाओं को दिक्कत तो होती है.’’ कितनी अजीब बात है कि महिलाएं, जो शौपिंग करने के अपने जनून और दीवानगी को ले कर मशहूर हैं, या यों भी कह सकते हैं कि बदनाम हैं, की मूल जरूरत का खयाल रखने वाला कोई नहीं. बड़ेबड़े गुरु, नामीगिरामी एडवरटाइजिंग एजेंसियां, बाजार में बिकने वाले अधिकतर उत्पाद सभी महिलाओं को टारगेट बना कर विज्ञापन कराते हैं. सभी को पता है कि अगर अपना सामान बेचना है तो औरतों को लुभाना होगा.

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फिर भी उन्हें बाजारों में खरीदारी के लंबे समय को आसानी से बिताने के लिए जिन व्यवस्थाओं की जरूरत पड़ती है, उस के बारे में कितने लोग सोच रहे हैं? घरेलू उत्पादों की निर्माता ब्रिटिश कंपनी रेकिट बेंकिसर के प्रैसिडैंट रौबर्ट ग्रुट का मानना है कि भारत में भले ही काफी टौयलेट बन रहे हैं लेकिन उन की स्वच्छता की हालत अभी भी नाजुक है. स्थिति को सुधारने हेतु आवश्यकता है मानसिकता बदलने वाली संसूचनाओं की. स्वच्छता के इर्दगिर्द जो चुप्पी है, उसे तोड़ना होगा. रौबर्ट बताते हैं कि मुंबई के चैंबूर इलाके में रहने वाली अनीता व उन की बेटियों को शौचालय प्रयोग करने के लिए 20 मिनट चल कर जाना पड़ता है. जब रोजाना की जरूरतों की इतनी समस्या है तो बाजारों में टौयलेट के बारे में सोच अभी क्रम में बहुत पीछे है. महिलाओं व लड़कियों की आपबीती गौरी और उस की सहेलियां जब अपने महारानी गर्ल्स कालेज, जयपुर से त्रिपोलिया बाजार में लाख की चूडि़यों की खरीदारी करने जाती हैं तो वे कालेज से ही बाथरूम यूज कर के निकलती हैं. ‘‘क्या करें, वहां ऐसी कोई सुविधा ही नहीं है.’’ वे मुंह बिचका कर बताती हैं, ‘‘हद तो तब हो गई जब मेरी एक विदेशी कजिन यहां आई.

उसे जयपुरी लहरिया सूट खरीदना था. पर इतने बाजारों में घूमते हुए हमें एक जगह भी यूज करने लायक पब्लिक टौयलेट नहीं मिला. कितनी शर्मिंदगी हुई थी उस के सामने.’’ उस ने बताया था कि उस के देश में साफसुथरे पेड टौयलेट की व्यवस्था हर जगह मिल जाती है. काश, यहां भी ऐसा हो सके. ‘‘वर्तमान पीढ़ी की लड़कियों को साफ टौयलेट का अभाव खटकता है. उन्हें यह बात चुभती है कि उन की नैसर्गिक जरूरतों का किसी को ध्यान नहीं है. और वह इसलिए क्योंकि इस पुरुषवादी समाज में औरतों की बात करने की आवश्यकता किसी को नहीं लगती. औरतों को हमेशा से केवल काम करने और भोगने की वस्तु समझा जाता रहा है. और औरतें भी इस दोगले बरताव के प्रति कोई आवाज नहीं उठाना चाहतीं क्योंकि उन्हें सदा से चुप रह कर सहन करना सिखाया जाता है.’’

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आरुषी को मुंबई के गेटवे औफ इंडिया जाना बेहद पसंद है पर आसपास कोई टौयलेट की सुविधा न होने के कारण वह अकसर वहां के ताज होटल में जा कर बाथरूम इस्तेमाल किया करती थी. पर जब से 26/11 का हादसा हुआ तब से हर होटल में घुसने पर काफी सख्त सुरक्षा कर दी गई और कई बार ऐसी इमरजैंसी होती है कि इतना समय भी नहीं होता कि वहां सिक्योरिटी जांच में टाइम लगाया जाए. देशभर में यही हाल नागपुर के बड़े बाजार, जैसे सदर, जरीपटका, धरमपेठ, सक्करधारा, इतवारी और सीताबुल्दी में पब्लिक टौयलेट की कोई व्यवस्था नहीं है. जब औरतों को खरीदारी करने जाना होता है, खासकर इतवारी के बाजार में हफ्तेभर की खरीदारी करते समय, तो उन्हें बाथरूम जाने की खास दिक्क्त का सामना करना पड़ता है. मोहम्मद रेहान जैसे कुछ दुकानदार उन्हें अपनी दुकान में बने शौचालय का इस्तेमाल करने देते हैं लेकिन अधिकतर को इस परेशानी को झेलना ही पड़ता है.

42 वर्षीय प्रतीक्षा मस्के कहती हैं, ‘‘एक ओर नागपुर स्मार्टसिटी बनने के सपने देख रहा है, जबकि शर्म की बात यह है कि यह एक बड़ा व्यावसायिक केंद्र होते हुए भी यहां के बाजारों में शौचालय जैसी मूलभूत सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं, जहां हैं वहां की साफसफाई की हालत इतनी खराब है कि उन्हें प्रयोग नहीं किया जा सकता.’’ नागपुर के ट्रेडर्स एसोसिएशन ने कई बार महिलाओं के लिए अच्छे शौचालयों को बनवाने की मांग को आगे रखा है, पर प्रशासन द्वारा कभी भी इस ओर ध्यान नहीं दिया गया. वहां के गवर्नर के घर के पास एक पब्लिक टौयलेट जरूर है पर अपनी खराब हालत के कारण वह बेकार है. वहां अकसर असामाजिक तत्त्वों का बोलबाला रहता है.’’ मुंबई के बांद्रा एरिया के बैंडस्टैंड इलाके में बने पब्लिक टौयलेट को वहां से हटवाने के लिए वहां के रसूखदार निवासी, जैसे प्रसिद्ध अभिनेत्री वहीदा रहमान और मशहूर फिल्मकार सलीम खान पूरा प्रयास कर रहे हैं.

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पब्लिक टौयलेट उन्हें मखमल में टाट का पैबंद दिख रहा है लेकिन इस का विकल्प सोचने की फुर्सत किसी को नहीं. बैंडस्टैंड पर समुद्र के किनारे बैठने कई युवा आते हैं. वहां घूमने आई लड़कियां बाथरूम की सुविधा के लिए कहां जाएंगी, इस बारे में शायद किसी ने सोचा ही नहीं. भारत अपने मेलों के लिए प्रसिद्ध है. ऐसे भीड़वाले इलाकों में बीमारी पकड़ने का खतरा काफी हद तक बढ़ जाता है. फिर भी कुछेक मेलों और सभाओं को छोड़ कर, अकसर टौयलेट की, खासकर महिलाओं के लिए, व्यवस्था नहीं रहती. यहां तक कि विश्वप्रसिद्ध कुंभ मेले में भी जो टौयलेट का निर्माण किया जाता है वहां कितनी ही बार सफाई नहीं होती पानी की किल्लत रहती है.

क्या कहते हैं नियम नियमों के अनुसार, हर 50 लोगों पर एक कमोड और एक यूरिनल की व्यवस्था होनी चाहिए और ये पुरुषों व महिलाओं के लिए अलग होने चाहिए. पर जमीनी हकीकत यह है कि कुछ टौप एंड सिनेमा और मौल को छोड़ कर टौयलेट की सुविधा उपलब्ध नहीं होती. प्रोफैसर घोष, प्रोफैसर कुमार और प्रोफैसर पौल अपने एक शोध लेख में लिखते हैं कि भारतीय बाजार सारे साल भीड़ से भरे रहते हैं. ऐसे में टौयलेट की सुविधा का होना और भी आवश्यक हो जाता है. लेकिन जमीनी सचाई यह है कि देश के अधिकतर बाजारों में टौयलेट की सुविधा उपलब्ध ही नहीं होती और जहां होती है, वहां हालत इतनी खराब होती है कि वे प्रयोग करने लायक नहीं होते. डाक्टर की सुनें गंदे टौयलेट को इस्तेमाल करना महिलाओं के लिए बेहद खतरनाक हो सकता है.

डा. राजलक्ष्मी बताती हैं कि स्त्री का शरीर इस तरह रचित होता है कि उस में बहुत जल्दी इन्फैक्शन लग सकता है. और यह इन्फैक्शन फैलते हुए किडनी तक पहुंचते देर नहीं लगती. औरतों की अपेक्षा मर्दों को उन की शारीरिक संरचना के कारण इन्फैक्शन लगने के चांस काफी कम होते हैं. विडंबना यह है कि मर्दों के लिए फिर भी टौयलेट मौजूद होते हैं. यदि यूरिनल मौजूद न भी हों, तब भी मर्द खुले में भी ओट कर के पेशाब करने चले जाते हैं. हमारे समाज में यह साधारण सी बात है जो सब को स्वीकार है. बल्कि हर गलीनुक्कड़ पर आप को आदमी पेशाब करते खुलेआम दिख जाएंगे. पार्कों की दीवारों, दुकानों के पीछे, बसस्टैंड के पीछे आदि कई जगहों पर आदमी पेशाबघर बना कर हर ओर बदबू फैला देते हैं. इस बात पर कोई नाकभौं नहीं सिकोड़ता, न ही उन के लिए यह सुरक्षा के प्रति प्रश्नचिह्न की बात है. लेकिन औरतों के लिए ऐसा करना तो क्या सोचना भी सर्वथा वर्जित है. यही मानसिकता औरतों में भी पलती है. औरतों के लिए पेशाब जाना एक नैसर्गिक क्रिया न हो कर शर्म की बात होती है. वे तो खुलेआम यह भी नहीं पूछ पातीं कि यहां टौयलेट कहां है. वे अकसर दबेढके शब्दों में, इशारों में कहना पसंद करती हैं कि ‘जाना है.’

औरतें अकसर झुंड में टौयलेट जाना चाहती हैं, अकेले नहीं. ग्रुप की जो महिला सब से दबंग होगी वही पूछेगी कि बाथरूम किस ओर है, और फिर सब की सब उस के पीछे मुंह छिपा कर खिसियातीहंसती चल देंगी. स्थिति के पीछे की सोच पुरुषवादी सोच रखने वाला हमारा समाज बाजार को मर्दों की जगह मानता आया है. औरतों का काम घर की चारदीवारी के अंदर ठीक है, उन का बाहर जाने का क्या काम. इसी सोच के चलते बाजार शुरू से ही आदमियों के हिसाब से बनाए गए. बदलते समय के साथ औरतों ने बाजारों में जाना जरूर शुरू कर दिया पर उन के प्रति सोच अब भी नहीं बदली है. इस पुरुषसत्तात्मक समाज ने औरतों की तकलीफ, उन की जरूरतों के बारे में सोचने की ओर कभी ध्यान नहीं दिया. महिला दुकानदारों की भी अपनी परेशानी है. वे सारा दिन पानी नहीं पीतीं क्योंकि फिर बाथरूम कहां ढूंढ़ेंगी. कितनी बार, खासतौर पर पीरियड्स के दौरान, वे आसपास रहने वालों से मिन्नतें कर के उन के बाथरूम इस्तेमाल करती हैं. समाजशास्त्री सरोज पांडे इस भेदभाव का जिम्मेदार हमारे समाज की पितृसत्तात्मक सोच को ठहराती हैं.

हमारे समाज ने महिलाओं को यह सीख भली प्रकार दी हुई है कि अपने प्राकृतिक व्यक्तिगत कार्यों को छिप कर करना हमारे संस्कार हैं. पीरियड्स चल रहे हैं तो छिपाओ, बाथरूम जाना है तो जितनी देर तक रोक सकती हो रोक कर रखो, संभव हो तो घर लौट कर ही जाओ. लड़कियों को हर क्षेत्र में दब कर, झुक कर रहना सिखाया जाता है. जैसे शिक्षा से स्वाधीनता मिलती है, वैसे ही स्वच्छता की कमी के कारण पराधीनता और दमन बढ़ते हैं. घर से बाहर निकलने पर औरतें पानी नहीं पीतीं ताकि उन्हें बाथरूम जाने की परेशानी से बचना पड़े. सरोज कड़े शब्दों में कहती हैं, ‘‘स्वच्छ भारत अभियान के बावजूद महिलाओं के स्वास्थ्य और सुरक्षा के आयामों के प्रति पूरा ध्यान नहीं दिया जा रहा है.’’ पहले शौचालय, फिर देवालय साल 2012 में जब कांग्रेस के नेता जयराम रमेश ने कहा था कि शौचालय, मंदिर से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, तब बीजेपी उन पर टूट पड़ी थी. बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद ने उन को क्षमा मांगने पर जोर देते हुए कई विरोध प्रदर्शन किए थे. कांग्रेस ने भी उन से किनारा करते हुए कह दिया था कि वह हर धर्म को समभाव से देखती है. उन के समर्थन में केवल सुलभ शौचालय संस्था सामने आई थी. तब राजनेता जयराम रमेश ने अपनी सफाई में कहा था कि मंदिर और शौचालय दोनों धर्मनिरपेक्ष शब्द हैं.

आप किसी भी धर्म के मंदिर में जा सकते हैं. इसी प्रकार आप शौचालय में क्या करते हैं, इस से आप के धर्म पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. उन की बात का असली मर्म न समझ उस पर राजनीति का जाल फैला दिया गया था. लेकिन जब 2013 में प्रधानमंत्री बनने से पूर्व नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में एक युवासभा को संबोधित करते हुए कहा, ‘पहले शौचालय, फिर देवालय’ तो भक्तों ने उन की इस बात को आड़ी नजर से नहीं देखा. मतलब, हर विषय में राजनीति हो जाना हमारे देश की विडंबना है. बात का असली मुद्दा न समझते हुए हमारे नेतागण उस पर राजनीति करने से बाज नहीं आते. धर्म की दोगली सोच कबीर ने चक्की की तुलना भगवान की मूर्ति से करते हुए कहा था, ‘चक्की का महत्त्व भगवान की प्रतिमा से अधिक है क्योंकि चक्की अन्न के दानों को पीसती है और भूख बुझाती है.’ लेकिन समय के साथ धर्म का प्रचार इतना प्रचुर होता चला गया कि सबकुछ इस के लपेटे में आने लगा.

धर्म ने समाज में औरतों को मर्दों की तुलना में दोयम दर्जा दिया. सदियों से उन में यह भावना बिठाई कि उन का वजूद पुरुषों से है. पुरुषों की देखरेख करना, उन के लिए जीना, उन की सुखसुविधाओं का ध्यान रखना ही स्त्रीजीवन का एकमात्र उद्देश्य है. धर्म के ठेकेदारों की इस दोगली सोच के कारण औरतें पिछड़ती चली गईं. अब आलम यह है कि उन की बुनियादी जरूरतों के बारे में किसी को सोचने की आवश्यकता नहीं लगती, खुद औरतों को भी नहीं. वे भी धर्म का चश्मा पहने केवल पुरुषों के बारे में सोच कर संतुष्ट हैं. मानव समाज पुरुषों और औरतों, दोनों से बनता है. फिर यह कैसी विडंबना है कि पूरा समाज, पुरुषों और औरतों समेत, केवल पुरुषों के बारे में ही सोचता है. औरतों की खैरखबर लेने का होश किसी को नहीं. न विकास की ओर ध्यान देने वाले नीतज्ञों को, न राजनेताओं को, न समाजसेवियों को और न ही स्वयं औरतों को. औरतें आज पुरुषवादी सोच से पीडि़त औरतों को केवल चुप करवाने में ही अपनी ऊर्जा नष्ट करती रहती हैं. धर्म का इस में बहुत बड़ा योगदान है.

धर्म हमें सिखाता है कि पुरुष श्रेष्ठ हैं, चाहे वह पिता हो, भाई हो, पति हो, या बेटा. उन के जीवन के बारे में सोचना, उन की सुविधाओं का ध्यान रखना और उन के लिए व्रतअनुष्ठान करना ही औरतों का धर्म है. तभी उन के संस्कारों को अच्छा माना जाता है. सदियों से पोषित ऐसी सोच के कारण पीढ़ीदरपीढ़ी यह समाज औरतों को कमतर रखने की प्रबल कोशिश में लगा रहता है. औरतों के अधिकार, उन की विचारधारा, उन की सुरक्षा और उन की बराबरी के विषय में सोचने का समय किसी के पास नहीं. जब तक औरतें स्वयं अपने बारे में नहीं सोचेंगी, हालात नहीं बदलेंगे. यदि पूंजीपतियों को अपने उत्पाद औरतों को बेचने हैं तो उन्हें उन की जरूरतों की ओर ध्यान देना ही होगा. औरतों को अपनी बुनियादी जरूरतों के बारे में खुल कर चर्चा करनी होगी और आवाज उठानी होगी. अब नहीं तो कब? द्य शोध के हैरतभरे परिणाम ऐक्शन एड संस्था ने पब्लिक टौयलेट की नामौजूदगी में औरतों को होने वाली मुसीबतों को उजागर करते हुए एक मुहिम चलाई. मुहिम का मुद्दा था, ‘अच्छा शहर वही है जहां स्वच्छ सफाई व्यवस्था है.’

19 नवंबर को विश्व शौचालय दिवस के उपलक्ष्य में ऐक्शन एड इंडिया ने कुछ समय पहले एक शोध किया जिस में उस ने दिल्ली में मौजूद 229 शौचालयों का सर्वे किया. शोध का परिणाम इस प्रकार रहा- द्य 35 फीसदी शौचालयों में अर्थात हर 3 में से 1 शौचालय में महिलाओं के लिए अलग सैक्शन नहीं था. द्य 71 फीसदी शौचालय साफ नहीं थे. द्य 53 फीसदी शौचालयों में पानी की सुविधा नहीं थी. द्य 61 फीसदी शौचालयों में साबुन की सुविधा नहीं थी. द्य 50 फीसदी महिला शौचालयों में लाइट नहीं थी, न तो अंदर और न ही परिसर में. द्य 46 फीसदी शौचालयों में गार्ड मौजूद नहीं था. मतलब, सुरक्षा को ले कर चिंताजनक स्थिति. द्य 30 फीसदी शौचालयों में दरवाजे नहीं थे. द्य 45 फीसदी शौचालयों में दरवाजे को बंद करने के लिए चिटकनी नहीं थी.

दुविधा: आरती के जीवन को सुखी बनाने के लिए रघु ने क्या निर्णय लिया?-भाग 1

कपड़े तहियाते हुए आरती के हाथ थम गए. उस की आंखें नेपथ्य में जा टंगीं. मन में तरहतरह के विचार उमड़नेघुमड़ने लगे. उसे लगा कि वह एक स्वप्नलोक में विचर रही है. उसे अभी भी विश्वास न हो रहा था कि पूरे 10 साल बाद उस का प्रेमी मिहिर फिर उस की जिंदगी में आया था और उस ने उस की दुनिया में हलचल मचा दी थी. वह बैंक में अपने केबिन में सिर झुकाए काम में लगी थी कि मिहिर उस के सामने आ खड़ा हुआ. ‘‘अरे तुम?’’ वह अचकचाई. उस चिरपरिचित चेहरे को देख कर उस का दिल जोरों से धड़क उठा.

‘‘चकरा गईं न मुझे देख कर,’’ मिहिर मुसकराया.

‘‘हां, तुम तो विदेश चले गए थे न?’’ उस ने अपने चेहरे का भाव छिपाते हुए पूछा,

‘‘इस तरह अचानक कैसे चले आए?’’

‘‘बस यों ही चला आया. अपने देश की मिट्टी की महक खींच लाई. तुम अपनी सुनाओ, कैसी गुजर रही है हालांकि मुझे यह पूछने की जरूरत नहीं है. देख ही रहा हूं कि तुम मैनेजर की कुरसी पर विराजमान हो. इस का मतलब है कि तुम्हारी तरक्की हो गई है. लेकिन लगता है कि तुम्हारे निजी जीवन में कोई खास बदलाव नहीं आया है. तुम वैसी ही हो जैसी तुम्हें छोड़ कर गया था.’’

‘‘हां, मेरे जीवन में अब क्या नया घटने वाला है? जिंदगी एक ढर्रे से लग गई है. सब दिन एकसमान, न कोई उतार, न चढ़ाव,’’ उस ने सपाट स्वर में कहा.

‘‘यह रास्ता तुम्हारा खुद का अपनाया हुआ है,’’ मिहिर ने उलाहना दिया, ‘‘मैं ने तो तुम्हें शादी का औफर दिया था. तुम्हीं न मानीं.’’

आरती कुछ न बोली.

‘‘अच्छा यह बताओ, लंच के लिए चलोगी? तुम से मिले अरसा हो गया. मुझे तुम से ढेरों बातें करनी हैं.’’

वे दोनों काफी देर तक रेस्तरां में बैठे रहे. बातों के दौरान मिहिर ने कहा, ‘‘आरती, मेरा भाई अमेरिका में रहता है. उस ने मुझे वहां बुलवा लिया. शुरू में काफी संघर्ष करना पड़ा पर अब मुझे अच्छी नौकरी मिल गई है. मुझे वहां की नागरिकता भी मिल गई है. मैं ने वहां अपना घर खरीद लिया है. केवल गृहिणी यानी पत्नी की कमी है. मैं ने अभी तक शादी नहीं की है. मैं अभी भी तुम्हें दिलोजान से चाहता हूं. तुम्हें अपनी बनाना चाहता हूं. इतने दिन तुम्हारी याद के सहारे जिया. अब मैं चाहता हूं कि हम दोनों विवाहबंधन में बंध जाएं. बोलो, क्या कहती हो?’’

‘‘अब मैं क्या बोलूं?’’ वह सिर झुकाए बोली.

‘‘वाह, तुम नहीं तो तुम्हारी जिंदगी के अहम फैसले क्या कोई और लेगा? आरती, तुम्हारा भी जवाब नहीं. तुम्हें कब अक्ल आएगी. मैं और तुम बालिग हैं, अपनी मरजी के मालिक. हमें अपनी जिंदगी अपने ढंग से जीने का हक है.’’

‘‘मुझे सोचने का थोड़ा वक्त दो,’’ उस ने कहा.

‘‘हरगिज नहीं,’’ मिहिर ने दृढ़ता से कहा, ‘‘सोचविचार में तुम ने अपनी आधी जिंदगी गंवा दी. अब मैं तुम्हारी एक न सुनूंगा. तुम्हें फैसला अभी, इसी वक्त लेना होगा. अभी नहीं तो कभी नहीं.’’

आरती के मन में उथलपुथल मच गई. जी में आया कि वह तुरंत अपनेआप को मिहिर की बांहों में डाल दे और उस से कहे, मैं तुम्हारी हूं, तुम जो चाहे करो, मुझे मंजूर है. इस के सिवा उस के पास और कोई चारा भी तो न था. वह अपनी एकाकी गतिहीन जिंदगी से बहुत उकता गई थी. अब तक मांबाप का साया सिर पर था पर आगे की सोच कर वह मन ही मन कांप जाती थी. उसे एक सहारे की जरूरत शिद्दत से महसूस हो रही थी. उस ने तय कर लिया कि वह मिहिर का हाथ थाम लेगी. यह निर्णय लेते ही उस के सिर से एक भारी बोझ उतर गया. उस के मन में हिलोरें उठने लगीं.

‘‘ठीक है,’’ वह बोली.

उसे वह दिन याद आया जब मिहिर से पहली बार मिली थी. पहली नजर में ही वह उस की ओर आकर्षित हो गई थी. वह बड़ा हंसोड़ और जिंदादिल था. धीरेधीरे उन में नजदीकियां बढ़ती गईं और एक दिन मिहिर ने विवाह का प्रस्ताव किया. आरती के मन में रस की फुहार फूट निकली. वह भविष्य के सुनहरे सपनों में खो गई. लेकिन उस के मातापिता को उस का प्रेमप्रसंग रास न आया. उन्होंने मिहिर का जम कर विरोध किया. उन्हें मिहिर में खामियां ही खामियां नजर आईं. वह पिछड़ी जाति का था और गरीब घर से था. उन्होंने आरती को समझाने की कोशिश की कि मिहिर उस के लायक नहीं है और वह उस से शादी कर के बहुत पछताएगी. जब उन्होंने देखा कि आरती पर उन की बातों का कोई असर नहीं हो रहा है तो उन्होंने अपना आखिरी दांव चलाया, ‘ठीक है, यदि तू अपनी मनमरजी करने पर तुली है तो यही सही. तू जाने, तेरा काम जाने. लेकिन इस के बाद हमारातुम्हारा रिश्ता खत्म. हम मरते दम तक तेरा मुंह न देखेंगे.’ आरती बहुत रोईधोई पर पिता की बात मानो पत्थर की लकीर थी. और मां ने भी पिता की हां में हां मिलाई.

आरती के मन में भय का संचार हुआ. उस में इतनी हिम्मत न थी कि वह मांबाप से बगावत कर के, समाज की अवहेलना कर के मिहिर से शादी रचाती. वह उधेड़बुन करती रही, सोच में डूबी रही, आगापीछा सोचती रही. दिन बीतते गए और एक दिन मिहिर उस से नाराज हो कर, उस से नाता तोड़ कर उस की दुनिया से दूर चला गया. आरती के मातापिता ने उस के लिए और लड़के तलाश किए पर आरती ने सब को नकार दिया. वह तो मिहिर से लौ लगाए थी. यादों में खोई आरती को मिहिर की आवाज ने झिंझोड़ा, ‘‘मैं कल शाम को तुम्हारे घर आऊंगा. हम अपने भावी जीवन के बारे में बात करेंगे और मैं तुम्हारे मातापिता से भी मिल लूंगा. पिछली बार उन्होंने हमारी शादी में अड़ंगा लगाया था. आशा है इस बार उन्हें कोई आपत्ति न होगी.’’

‘‘नहीं, और होगी भी तो अब मैं उन की सुनने वाली नहीं हूं,’’ वह जरा हिचकिचाई और बोली, ‘‘केवल एक समस्या है.’’

‘‘वह क्या?’’

‘‘रघु की समस्या.’’

‘‘यह रघु कौन है? क्या वह मेरा रकीब है?’’

‘‘हटो भी,’’ आरती हंस पड़ी, ‘‘रघु मेरा भतीजा है. मेरे बड़े भाई का बेटा. कुल 12 साल का है.’’

‘‘तो उस के साथ क्या प्रौब्लम है?’’

‘‘तुम कल घर आ रहे हो न. वहीं पर बातें होंगी.’’

दुविधा

दुविधा: आरती के जीवन को सुखी बनाने के लिए रघु ने क्या निर्णय लिया?-भाग 3

‘‘बोल बेटा.’’

‘‘मैं बोर्डिंग में रह कर पढ़ना चाहता हूं.’’

‘‘अरे, सो क्यों?’’

‘‘मेरे कुछ दोस्त ऊटी के स्कूल में पढ़ने जा रहे हैं. वे मुझे बता रहे थे कि चूंकि मैं ने हमेशा अपनी क्लास में टौप किया है, मुझे आसानी से वहां दाखिला मिल सकता है. बूआ, मेरा बड़ा मन है कि मैं अपने साथियों के साथ उसी स्कूल में पढ़ूं. तुम मेरी मदद करोगी तो यह संभव होगा.’’

‘‘तू सच कह रहा है?’’

‘‘हां बूआ, बिलकुल सच.’’

आरती का मन हलका हो गया. उस ने सपने में भी न सोचा था कि उस की समस्याओं का हल इतनी आसानी से निकल आएगा. उस ने मन ही मन तय कर लिया कि रघु की स्कूली पढ़ाई समाप्त हो जाने पर वह उसे अपने पास बुला लेगी. वह तुरंत मिहिर को फोन करने बैठ गई. रघु उस के पास ही मंडराता रहा. उस ने बूआ और मिहिर की बातें सुन ली थीं. वह जान गया था कि बूआ और मिहिर एकदूसरे को चाहते हैं और विवाह करना चाहते हैं और उस ने अचानक आ कर बूआ को उलझन में डाल दिया था. 

उस ने सहसा बोर्डिंग स्कूल में पढ़ने का निश्चय कर लिया. और सोच लिया कि यदि वहां दाखिला न मिला तो वह मुंबई चला जाएगा. उस ने पलक मारते तय कर लिया कि वह अपनी बूआ की खुशियों के आड़े नहीं आएगा. उस ने अपनी बूआ को करीब से देखा और जाना है. उसे उन के दर्द और तड़प का एहसास है. उस ने बचपन से ही देखा है कि किस तरह उस की बूआ ने पगपग पर सब की मरजी के आगे सिर झुकाया है. वे कितना रोई और कलपी हैं.

क्या रघु भी औरों की तरह बनेगा? नहीं, वह इतना निष्ठुर नहीं बनेगा. वह अपनी बूआ के प्रति संवेदनशील है. वह हमेशा उन का ऋणी रहेगा. उस का रोमरोम बूआ का आभारी है. यदि बचपन में उन्होंने उस की सारसंभाल न की होती तो पता नहीं आज वह किस हाल में होता. उस ने मन ही मन ठान लिया कि वह भरसक कोशिश करेगा कि अपनी बूआ का आगामी जीवन सुखमय बनाए.

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जानकारी सी बीच मैनर्स द्य शकुंतला सिन्हा बीच पर बैठ कर समंदर को देखना जितना अच्छा लगता है उतना ही उस जगह को बेहतर बनाए रखने की हम सब की जिम्मेदारी भी है. इसलिए बीच मैनर्स का पालन करना सभी के लिए जरूरी है. समंदर का नजारा भला किसे अच्छा नहीं लगता. मौका मिलने पर हम समंदर के तट यानी सी बीच पर सैर करना पसंद करते हैं.

सी बीच पर आप चाहें सिर्फ घूमने के इरादे से जाएं या फिर वहां कुछ देर बैठ कर लहरों का इठलाना देखना चाहें या तैरना चाहें या कोई गेम खेलना चाहें, सभीकुछ आनंददायी होता है. अब बीच घूमने का मौसम भी है. न जाड़ा है न गरमी. और वसंत दस्तक दे रहा है. कोरोना का कहर कम हो चला है. ऐसे में आप बीच घूमने का प्रोग्राम बना भी रहे होंगे. आप जाएं पर पूरी सावधानी के साथ – मास्क, सोशल डिस्टैंसिंग और जहां जरूरत हो सैनिटाइजर का उपयोग करें. इन के अतिरिक्त कुछ अलिखित शिष्टाचार या मैनर्स हैं जिन्हें अपनाना चाहिए.

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इस से आप और आप के आसपास के लोगों को बीच एंजौय करने में बेहतर आनंद आएगा. सब से जरूरी बात यह है कि आप जिस बीच पर हों, वहां लौकडाउन हटने के बाद प्रशासन के नियमों का पालन करें. द्य अगर भीड़भाड़ के समय आना होता है तो आप ऐसी जगह चुनें जो किसी दूसरे से बहुत निकट न हो और आप के टैंट या कुरसी से दूसरों को असुविधा न हो ताकि उन के सामने का दृश्य बाधित न हो.

-तौलिया बिछाते या समेटते समय इतनी जोर से न झाड़ें कि किसी को लग जाए या बालू उस पर गिरे.

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-बीच पर कोई गेम खेलना हो तो सावधानी बरतें, किसी से टकराने या चोट लगने की नौबत न आए.  बालू पर चलते समय ध्यान रहे कि बालू दूसरों पर न छिटक पड़े.

-खानेपीने के बचे सामान या अन्य ट्रैश को बीच पर इधरउधर न फेंकें, उन्हें बीच पर रखे ट्रैश बिन में ही डालें. खाना भी ऐसा न हो जिस से महक फैलती हो, जैसे अचार आदि. द्य गाना सुनना हो, तो हैडफोन का इस्तेमाल करें. अभद्र भाषा का प्रयोग न करें. बातें भी जोर से न करें और न दूसरों पर चिल्लाएं.

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– किसी की तरफ घूर कर न देखें.  अगर आप तैरना चाहें तो बीच पर दिए नियमों का पालन करें और लाइफगार्ड की बातों पर ध्यान दें. अनुचित ड्रैस न पहनें.  आप के साथ बच्चे हैं, तो उन पर ध्यान रखें.  सिगरेट न पिएं. बीच पर पब्लिक डिस्प्ले औफ अफैक्शन यानी खुलेआम प्यार का इजहार न करें.  अगर आप के साथ कोई पैट हो तो उसे सुनियोजित क्षेत्र में रखें, उसे अपने साथ ले कर हर जगह न घूमें.

दुविधा: आरती के जीवन को सुखी बनाने के लिए रघु ने क्या निर्णय लिया?-भाग 2

मिहिर आरती के यहां बरामदे में बैठा हुआ था. आरती ने उसे रघु के बारे में विस्तार से बताया. उस के भाई सुरेश ने एक अति सुंदर कन्या से प्रेमविवाह कर लिया था. वे अपने नवजात शिशु को ले कर मुंबई रहने चले गए थे जहां सुरेश की नौकरी लगी थी. पर किन्हीं वजहों से उन में अनबन रहने लगी और एक रोज उस की पत्नी उस से लड़झगड़ कर उसे छोड़ कर चली गई. साथ ही, बच्चे को भी छोड़ गई. सुरेश मजबूरन रघु को बैंगलुरु ले आया क्योंकि मुंबई में उसे देखने वाला कोई न था. ‘तू चिंता मत कर,’ पिता माधवराव ने उसे आश्वासन दिया, ‘बच्चे को यहां छोड़ जा, यह यहां पल जाएगा.’ उन्होंने बच्चे को आरती की गोद में डालते हुए कहा, ‘ले बिटिया, अब तू ही इसे पाल. हमेशा कुत्तेबिल्ली के बच्चों के साथ खेलती रहती है. यह जीताजागता खिलौना आज से तेरे जिम्मे.’

आरती ने शिशु को हृदय से लगा लिया. उस के दिल में ममता का स्रोत फूट निकला. उस नन्ही सी जान के प्रति उस के दिल में ढेर सारा प्यार उमड़ आया. वह सचमुच बच्चे में खो गई. वह बैंक से लौटती तो रघु की देखभाल में लग जाती. रघु भी उस से बहुत हिलमिल गया था और हमेशा उस के आगेपीछे घूमता रहता. वह उसे छोड़ कर एक पल भी न रहता था. कभीकभी रघु को कलेजे से लगा कर वह सोचती कि क्या यही मेरी नियति है? और लड़कियों की तरह उस ने भी सपने देखे थे. उस के हृदय में भी अरमान मचलते थे. वह भी अपना एक घरबार चाहती थी, एक सहचर चाहती थी जो उस को दुलार करे, उस के नाजनखरे उठाए, उस के सुखदुख में साथी हो. पर वह अपनी अधूरी आकांक्षाएं लिए मन ही मन घुटती रही. उसे लगता कि प्रकृति ने उस के साथ अन्याय किया है. और उस के अपनों ने भी उस की अनदेखी की है. सुरेश ने दोबारा शादी कर ली और उस ने रघु को अपने साथ ले जाना चाहा. ‘बेशक ले जाओ,’ माधवराव बोले, ‘तुम्हारी ही थाती है आखिर. इतने दिन हम ने उस की देखभाल कर दी. अब अपनी अमानत को तुम संभालो. मैं और तुम्हारी मां बूढ़े हो चले. अशक्त हो गए हैं. कब हमारी आंखें बंद हो जाएं, इस का कोई ठिकाना नहीं.’

रघु से बिछड़ने की कल्पना से ही आरती का दिल बैठने लगा. ‘यदि मुझे मालूम होता कि इस बालक से एक दिन बिछड़ना होगा तो मैं इस के मोहजाल में न फंसती,’ उस ने आह भर कर सोचा. और जब 7 साल के रघु ने सुना कि उसे मुंबई जाना होगा तो उस ने रोरो कर सारा घर सिर पर उठा लिया, ‘मैं हरगिज मुंबई नहीं जाऊंगा. वहां मेरा मन नहीं लगेगा. मैं बूआ को छोड़ कर नहीं रह सकता.’ पर उस की कौन सुनने वाला था. सुरेश उसे जबरन ले गया. आरती ने बताया कि जबतब रघु फोन पर बहुत रोता और झींकता था. उसे वहां बिलकुल भी अच्छा न लगता था. एक दिन अचानक सुरेश का फोन आया कि रघु गायब है. सुबह स्कूल गया तो घर नहीं लौटा. वे सब परेशान हैं और उसे तलाश कर रहे हैं. घर के लोग चिंतातुर टैलीफोन के इर्दगिर्द जमे रहे. सुबह द्वार की घंटी बजी तो देखा कि रघु खड़ा है, अस्तव्यस्त, बदहवास.

आरती ने दौड़ कर उसे लिपटा लिया.

‘अरे रघु बेटा, तू अचानक ऐसे कैसे चला आया?’

‘बूआ,’ रघु सिसकने लगा, ‘मैं घर से भाग आया हूं. अब कभी लौट कर नहीं जाऊंगा. मुझे वहां बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था. मैं वहां रोज रोता था.’

‘सो क्यों मेरे बच्चे,’ आरती ने उस का सिर सहलाते हुए पूछा.

‘मेरा वहां कोई दोस्त नहीं है. स्कूल से वापस आता हूं तो मां पढ़ने बिठा देती हैं. जरा सा खेलने भी नहीं देतीं. टीवी भी नहीं देखने देतीं. पापा के सामने मुझे प्यार करने का दिखावा करती हैं पर उन की पीठपीछे मुझे फटकारती रहती हैं.’

‘अच्छा, अभी थोड़ा सुस्ता ले. बाद में बातें होंगी.’

‘बूआ, मुझे बहुत भूख लगी है. मैं ने कल से कुछ नहीं खाया.’ उस ने उस का मनपसंद नाश्ता बना कर अपनी गोद में बिठा कर उसे खिलाते हुए कहा, ‘यह तो बता कि तू इस तरह बिना किसी को बताए क्यों भाग आया? तुझे पता है, घर में सब तेरी कितनी फिक्र कर रहे हैं?’ रघु ने अपराधी की तरह सिर झुका लिया. जब सुरेश को सूचना दी गई तो वह बहुत आगबबूला हुआ, ‘इस पाजी लड़के को यह क्या पागलपन सूझा? यहां ऐसा कौन सा कांटों पर लेटा हुआ था? नर्मदा दिनरात उस की सेवाटहल करती थी. सच तो यह है कि आप लोगों के प्यार ने इसे बिगाड़ दिया है. खैर, मैं आ रहा हूं उसे लेने.’ रघु ने सुना तो रोना शुरू कर दिया, ‘मैं हरगिज वापस मुंबई नहीं जाऊंगा. अगर आप लोगों ने मुझे जबरदस्ती भेजा तो फिर घर से भाग जाऊंगा और इस बार वापस यहां भी न आऊंगा.’

‘छि: ऐसा नहीं कहते. हम तेरे पिता से बात करेंगे. कुछ हल निकालेंगे.’

मिहिर ने आरती की ये बातें सुनीं तो बोला, ‘‘इतना तो मेरी समझ में आ गया कि तुम ने रघु को बचपन से पाला है और तुम्हारा उस से गहरा लगाव है पर देखा जाए तो वह तुम्हारी जिम्मेदारी तो नहीं है. तुम ने उस की जिंदगी का ठेका नहीं लिया है. इतने दिन तुम ने उसे संभाल दिया, सो ठीक है. अब उस के मातापिता को उस की फिक्र करने दो. तुम अपनी सोचो.’’ आरती के माथे पर पड़े बल को देख कर उस ने झुंझला कर कहा, ‘‘आरती, मैं तुम्हें समझ नहीं पा रहा हूं. हमेशा दूसरों के लिए जीती आई हो. कभी अपने लिए भी सोचो. यह जीना भी कोई जीना है? बस, मैं ने कह दिया, सो कह दिया, कल हम कचहरी जाएंगे. तुम तैयार रहना.’’

‘‘ठीक है,’’ आरती ने कहा. उस ने एक विश्वास छोड़ा. वह मिहिर को कैसे समझाए कि अपना न होते हुए भी वह भावनात्मक रूप से रघु से जुड़ी हुई है. उस बालक ने मां की ममतामयी गोद न जानी. उस ने पिता का स्नेह व संरक्षण न पाया. आरती ही उस के लिए सबकुछ थी. आरती का उदास चेहरा देख कर मिहिर द्रवित हुआ, ‘‘आरती, अगर तुम रघु से बिछड़ना नहीं चाहतीं तो एक उपाय है. हम कानूनन रघु को गोद ले सकते हैं.’’

‘‘क्या यह संभव है?’’

‘‘क्यों नहीं. अमेरिका से कई संतानहीन दंपती भारत के अनाथालयों से अनाथ बच्चों को गोद लेते हैं. हां, इस प्रक्रिया में काफी समय लगता है. बहुत कागजी कार्यवाही करनी पड़ती है, बहुत दौड़धूप करनी पड़ती है. अगर तुम चाहो और सुरेश इस के लिए राजी हो तो इस के लिए कोशिश की जा सकती है.’’

‘‘तुम इतना सब करोगे मेरे लिए?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. एक प्रेमी अपनी प्रेयसी के लिए कुछ भी कर सकता है.’’

आरती ने उसे स्नेहसिक्त नेत्रों से देखा. मिहिर उसे एकटक देख रहा था. उस की आंखों में कुछ ऐसा भाव था कि वह शरमा गई.

‘‘मैं तुम्हारे लिए चाय लाती हूं.’’

आरती ने चाय बना कर रघु को आवाज दी, ‘‘बेटा, जरा यह चाय बाहर बरामदे में बैठे अंकल को दे आओ. मैं कुछ गरम पकौड़े बना कर लाती हूं.’’

‘‘अंकल चाय,’’ रघु ने कहा.

‘‘थैंक यू. आओ बैठो. तुम रघु हो न?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘तुम्हारी बूआ ने तुम्हारे बारे में बहुतकुछ बताया है. सुना है कि तुम पढ़ने में बहुत तेज हो. हमेशा अपनी क्लास में अव्वल आते हो.’’

‘‘जी.’’

‘‘अच्छा यह तो बताओ, तुम अमेरिका में पढ़ना चाहोगे?’’

‘‘मैं अमेरिका क्यों जाना चाहूंगा जबकि यहां एक से बढ़ कर एक अच्छे स्कूल हैं.’’

‘‘हां, यह तो है पर वहां तुम अपनी बूआ के साथ रह सकोगे.’’

‘‘बूआ का साथ कितने दिन नसीब होगा? एक न एक दिन तो मुझे उन से अलग होना ही पड़ेगा. स्कूली शिक्षा के बाद पता नहीं कौन से कालेज में, किस शहर में दाखिला मिलेगा.’’ मिहिर के जाने के बाद आरती ऊहापोह में पड़ी रही. उस की जिंदगी में भारी बदलाव आने वाला था. वह अपने कमरे में सोच में डूबी हुई बैठी थी कि रघु उस के पास आया, ‘‘बूआ, मैं तुम से एक बात कहना चाह रहा था.’’

 

Holi Special: चटकदार महंगाई से होली का रंग फीका

कोविड अभी भी लोगों को डरा रहा है, तालाबंदी का भूत फिर से भयभीत कर रहा है. ऐसे में होली का रंग फीका है और बाजार की रौनक गायब है. खरीदारी की कमी से दुकानदार माल लाने से कतरा रहे हैं. जो माल बाजार में है उस के दाम बढ़े हुए हैं जो जेब पर भारी पड़ रहे हैं.

पौराणिकजीवी होली मनाने की अलगअलग वजह बताते हैं. इन में सब से प्रचलित वजह प्रह्लाद और होलिका की कहानी है. ‘विष्णु पुराण’ की एक कथा के अनुसार प्रह्लाद  के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप ने देवताओं से यह वरदान प्राप्त कर लिया कि वह न तो पृथ्वी पर मरेगा न आकाश में, न दिन में मरेगा न रात में, न घर में मरेगा न बाहर, न अस्त्र से मरेगा न शस्त्र से, न मानव से मरेगा न पशु से. इस वरदान को प्राप्त करने के बाद वह स्वयं को अमर सम झ कर नास्तिक और निरंकुश हो गया. वह चाहता था कि उस का पुत्र भगवान नारायण की आराधना छोड़ दे परंतु प्रह्लाद इस बात के लिए तैयार नहीं था.

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हिरण्यकश्यप ने उसे मारने के लिए बहुत सी यातनाएं दीं लेकिन वह हर बार बच निकला. हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि वह आग में नहीं जलेगी. सो, उस ने होलिका को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को ले कर आग में प्रवेश कर जाए जिस से प्रह्लाद जल कर मर जाए. परंतु होलिका का यह वरदान उस समय समाप्त हो गया जब उस ने भगवान भक्त प्रह्लाद का वध करने का प्रयत्न किया. होलिका अग्नि में जल गई परंतु प्रह्लाद का बाल भी बांका नहीं हुआ. इस घटना की याद में लोग होलिका जलाते हैं और उस के अंत की खुशी में होली का पर्व मनाते हैं.

पौराणिकजीवी यह कहानी लोगों को सुनाते हैं. वे लोगों में धर्म के प्रति विश्वास जगाने का काम करते हैं. हाल के कुछ सालों में यह काम तेजी से किया जाने लगा है. इस कहानी से वे ये बताने का काम करते हैं कि पौराणिक व्यवस्था से ही हर समस्या का समाधान होता है जो भक्त है उस का बालबांका नहीं होगा.

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अयोध्या में राममंदिर का बनना शुरू हो चुका है. इस के बाद भी पौराणिकजीवी व्यवस्था महंगाई, बेरोजगारी और तालाबंदी के प्रभाव को खत्म नहीं कर पाई है. तमाम भक्त मंदी, बेरोजगारी और तालाबंदी का शिकार हो कर परेशान हैं. पौराणिक व्यवस्था इस का कोई निदान नहीं कर पा रही है, जिस की वजह से होली का रंग फीका हो गया है.

ग्राहकों की प्रतीक्षा में बाजार

लखनऊ शहर से 3 किलोमीटर दूर बसे बंगला बाजार का अपना अलग महत्त्व है. 30-35 वर्षों पहले यह लखनऊ का सब से प्रमुख ग्रामीण बाजार होता था. सप्ताह में 2 दिन यहां बाजार लगता था. दुकानें छप्परनुमा थीं जिन को गांव की बोली में बंगला कहा जाता था. बंगलों में बाजार लगने के कारण इस का नाम बंगला बाजार पड़ गया. सड़क के किनारों पर बाजार लगता था. सड़क के पीछे बड़ी सी  झील होती थी. लखनऊ शहर का विस्तार होने के बाद अब बंगला बाजार शहर के बीच बस गया.  झील के ऊपर लखनऊ की मशहूर आशियाना कालोनी बन गई.

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सड़क के किनारे बंगलों की जगह पर पक्के घर बन गए और घरों में दुकानें खुल गईं. इस के बाद भी अभी भी सप्ताह में लगने वाली दुकानें सड़क पर लगती हैं. होली और दीवाली या दूसरे त्योहारों पर यहां अच्छीखासी भीड़़ महीनों पहले से दिखने लगती थी.

20 साल से संजय गुप्ता यहां संजय जनरल स्टोर नाम से अपनी दुकान चलाते हैं. पहले उन के परिवार के लोग मिठाई की दुकान चलाते थे. संजय गुप्ता ने अपने लिए जनरल स्टोर खोला. होली पर महंगाई की मार किस तरह से पड़ रही है? जब यह सवाल हम ने संजय गुप्ता से पूछा तो वह बोला, ‘‘भैया, महंगाई की बात ही मत करो. महंगाई की आंधी चल रही है. हर चीज के दाम में आग लगी है. खरीदारों का टोटा है. हम यहीं पलेबढ़े और हम ने यहीं अपनी दुकान भी खोली.

‘‘पहली बार दुकान में होली का माल भरते डर लग रहा है. बंगला बाजार शहर और देहात की मिलीजुली आबादी और खरीदारी कल्चर वाला बाजार है. यहां अपार्टमैंट और बड़े बंगलों में रहने वाले लोग हैं तो छोटे गवंई तरह से रहने वाले लोग भी हैं. होली के एक माह पहले से होली की खरीदारी शुरू हो जाती थी. इस बार चारों तरफ सन्नाटा है. इस की वजह चटकदार महंगाई और लोगों की जेब खाली है.’’

पिछले साल और इस साल की होली में महंगाई की तुलना करते संजय गुप्ता बताते हैं, ‘‘होली में सब से अधिक प्रयोग होने वाला घी, तेल और रिफाइंड 25 फीसदी महंगा हो गया है. इस में भी रिफाइंड औयल सब से अधिक महंगा हुआ है. 30 से 40 रुपए लिटर दाम बढ़ गए हैं. आटा, सूजी और मैदा भी 10 से 15 फीसदी महंगा हो गया है. सब से अधिक होली में सूखे मेवे की मांग बढ़ती थी. मेवे की कीमत में 40 फीसदी बढ़ोतरी हुई है. चिरौंजी पहले 1 हजार रुपए किलो थी, अब 1 हजार 3 सौ रुपए किलो हो गई है. मखाना जैसा कम प्रयोग होने वाला मेवा 500 रुपए किलो से बढ़ कर 700 रुपए किलो हो गया.’’

इसी बाजार के एक और दुकानदार नीरज गुप्ता बताते हैं, ‘‘हमारी शैलेंद्र जनरल स्टोर के नाम से दुकान है. यह पिताजी के जमाने से चलती आ रही है. हमारे आसपास 2 तरह के लोग हैं. एक वे हैं जो सरकारी नौकरी करते हैं, दूसरे वे हैं जो प्राइवेट जौब में हैं.

‘‘इस बार सब से खराब हालत प्राइवेट जौब वालों की है. बहुतों की नौकरी चली गई है. तमाम कर्मियों को पूरा वेतन नहीं मिल रहा. किसी की नौकरी अप्रैल में जाने वाली है. ऐसे में कौन मनाए होली, यह सवाल है. त्योहार की खरीदारी के नाम पर केवल खानापूर्ति ही बची है. बढ़ती महंगाई के कारण यहां खुला आरओसी नामक मौल बंद हो गया है. बाजार में लगने वाली त्योहार की भीड़ कहीं दिखाई नहीं दे रही है.’’

गृहिणियों पर महंगाई की मार

खाद्य पदार्थों पर जिस तरह से महंगाई बढ़ी है उस से होली में बनने वाले पकवानों का स्वाद फीका रहेगा. होली पर सब से अधिक गुझिया का महत्त्व होता है. गुझिया बनाने में प्रयोग की जाने वाली चीजों के दाम बढ़ गए हैं. पकवान बनाने के लिए प्रयोग की जाने वाली रसोई गैस की कीमत में पिछले कुछ माह में ही

270 रुपए प्रति सिलैंडर बढ़ गई है. इस की वजह से गृहिणियों पर महंगाई की मार सब से अधिक पड़ी है. जो लोग घरों में गुझिया नहीं बनाते, मिठाई की दुकानों से गुझिया खरीदते हैं, तो वहां भी कीमत बढ़ गई है.

गणेश मिष्ठान भंडार के महेश गुप्ता बताते हैं कि कम से कम कीमत वाली  गुझिया पिछली होली में 360 रुपए प्रति किलो बिकी थी. इस साल इस की कीमत 550 रुपए प्रति किलो होगी.

घरेलू प्रयोग में होने वाली खानेपीने की चीजों के दाम अलगअलग बाजार में भिन्नभिन्न हैं. मध्यवर्ग के लोगों के लिए तो होली की खुशियों पर महंगाई का ग्रहण लग गया है. नेहा सिंह कहती हैं, ‘‘महंगाई की वजह से आम लोगों के लिए दिक्कतें बढ़ गई हैं. होली पर गुझिया बनाना इस बार काफी महंगा होगा. लोग इस बार होली के त्योहार निभाने की खानापूर्ति ही करेंगे.’’

गरिमा रस्तोगी कहती हैं, ‘‘रसोई गैस से ले कर खानपान की सभी चीजों

पर महंगाई छाई है. गरीबों के लिए हालात मुश्किल हो रहे हैं. होली जैसे त्योहार

पर लोगों को  गुझिया बनाने के लिए काम आने वाली चीजों के ज्यादा दाम चुकाने पड़ रहे हैं. होली का त्योहार सभी वर्गो के लोग मनाते हैं. होली पर  गुझिया बनाने की, बस, खानापूर्ति होगी. महंगाई की वजह से गुझिया कम मात्रा में लोग बनाएंगे. गुझिया सब से महत्त्वपूर्ण है. होली की पहचान ही  और पापड़ होते हैं.

‘‘गुझिया के साथ ही पापड़ के दाम भी बढ़ गए हैं. 40 रुपए पैकेट में बिकने वाले साबूदाना पापड़ के दाम अब 80 रुपए हो गए हैं. आलू के पापड़ में भी महंगाई का असर पड़ा है. इसी तरह से नमकीन और दालमोठ के दाम भी बढ़ गए हैं.’’

सूना हो गया कपड़ों का बाजार

महंगाई का असर कपड़ों के बाजार पर भी है. मौल से ले कर फुटपाथ पर लगने वाली दुकानों में सब से कम भीड़ कपड़ों की दुकानों पर दिख रही है.

राकेश कुमार कपड़ों के विक्रेता हैं. वे कहते हैं, ‘‘इस वर्ष कपड़े के दाम में 10 फीसदी तक गिरावट के बाद भी डिमांड नहीं बढ़ रही है. हम लोगों ने नए कपड़ों का और्डर नहीं दिया है. हमें यह नहीं पता है कि होली के करीब आने पर कितना कपड़ा बिकेगा. ऐसे में पिछले साल का बचा हुआ माल ही इस साल खपाया जा रहा है.’’

टेलरिंग की दुकान करने वाले रईस अहमद कहते हैं, ‘‘होली के त्योहार में हमारी दुकान पर सिलाई का काम रातदिन चलता था. आज के समय हमारे पास होली की सिलाई का काम बस देखने भर को है.’’

सिलाई की दुकान ही नहीं, सिलेसिलाए कपड़ों की दुकानों पर भी खरीदारों का टोटा है. बाजार के जानकार रजनीश राज कहते हैं, ‘‘त्योहार के समय पर लोगों की जेबें खाली हैं. महंगाई बढ़ रही है. ऐसे में लोग पहले जरूरी खरीदारी कर रहे हैं. उन को लगता है कि सब से पहले जरूरी चीजों पर खर्च किया जाए. कपड़े पहन कर आनेजाने का काम कम ही होगा, क्योंकि होली के पहले ही कोविड फिर से दस्तक देने लगा है. जब कहीं आनाजाना नहीं है तो कपड़ों पर खरीदारी कर के पैसे बचाए जा सकते हैं. ऐसे में कपड़ों की खरीदारी कम हो रही है.’’

महंगी हो गई बलम पिचकारी

लखनऊ के यहियागंज में पिचकारी का थोक बाजार है. पिछले कुछ सालों से चाइनीज पिचकारियां धूम मचाती रही हैं. पिचकारी की खरीदारी करने वाले अनुराग महाजन कहते हैं, ‘‘पिछली होली के समय जिस पिचकारी की कीमत 60 रुपए दर्जन थी, इस बार यह कीमत बढ़ कर 100 से 120 रुपए तक हो गई है. 100 से 150 रुपए कीमत वाली बलम पिचकारी अब 250 से 300 रुपए तक पहुंच गई है.’’

पिचकारी बेचने वाले दुकानदार संतोष कुमार बताते हैं, ‘‘इस बार होली के लिए नया माल केवल

15 फीसदी ही मंगाया गया है. चाइनीज पिचकारी बाजार में काफी कम मात्रा में हैं. नई पिचकारी जो भारत के बाजारों में तैयार हुई है वह कीमत में अधिक है. अब लोग बच्चों को दर्जन के हिसाब से बिकने वाली सस्ती पिचकारी दे कर त्योहार मना लेंगे. पिचकारी की ही तरह से रंग और गुलाल भी महंगा हो गया है. कैमिकल गुलाल की जगह पर और्गेनिक गुलाल और रंग की डिमांड है जो महंगे होने के कारण कम ही खरीदे जा रहे हैं.’’   –

एक ताजमहल की वापसी

एक ताजमहल की वापसी : भाग 3

रचना…रचना…रचना…यह कैसी रचना थी जिसे वह जितनी बार भी भजता, वह उतनी ही त्वरित गति से हृदय के द्वार पर आ खड़ी होती. हृदय धड़कने लगता, खुमार छाने लगता, दीवानापन बढ़ जाता, वह लड़खड़ाने लगता, जैसे मधुशाला से चल कर आ रहा हो.

इसी तरह हरिवंश राय बच्चन की ‘मधुशाला’ उसे पूरी तरह याद हो गई थी, जरूर ऐसे दीवाने को मधुशाला ही थाम सकती है, जिस के कणकण में मधु व्याप्त हो, रसामृत हो, अधरामृत हो, प्रेमी अपने प्रेमी के साथ भावनात्मक आत्मसात हो.

आत्मसात हो कर वह दीनदुनिया में खो जाए. तनमन के बीच कोई फासला न रह जाए. प्रकृति के गूढ़ रहस्य को इतनी आसानी से पा लिया जाए कि प्यार की तलब के आगे सबकुछ खत्म हो जाए, मन भ्रमर बस एक ही पुष्प पर बैठे और उसी में बंद हो जाए. वह अपनी आंखें खोले तो उसे महबूब नजर आए.

अपनी चचेरी बहन चंदा पर प्रेम प्रसंग उजागर न हो इसलिए रचना प्रमोद से बाहर बरगद के पेड़ के नीचे मिलने लगी. वे शंकित नजरों से इधरउधर देखते हुए एकदूसरे में अपने प्यार को तलाश रहे थे. प्रेम भरी नजरों से देख कर अघा नहीं रहे थे. यह प्रेममिलन उन्हें किसी अमूल्य वस्तु से कम नहीं लग रहा था.

उस ने रचना के लिए अपना मनपसंद गिफ्ट खरीद लिया. उसे लग रहा था कि इस से अच्छा कोई और गिफ्ट हो ही नहीं सकता. रंगीन कागज में लिपटा यह गिफ्ट जैसे ही धड़कते दिल से प्रमोद ने रचना को दिया, तो उस की महबूबा भी रोमांच से भर उठी.

‘इसे खोल कर देखूं क्या?’ अपनी बड़ीबड़ी पलकें झपका कर रचना बोली.

‘जैसा आप उचित समझें. यह गिफ्ट आप का है, दिल आप का है. हम भी आप के हैं,’ प्रमोद बोला.

‘वाऊ,’ रचना के मुंह से एकाएक निकला.

उस ने रंगीन कागज के भीतर से ताजमहल की अनुकृति को झांकते पाया. उस के चेहरे पर रक्ताभा की एक परत सी छा गई. यह वह क्षण था जब वे दोनों आनंद के अतिरेक में आलिंगनबद्ध हो गए थे. एकदूसरे में समा गए थे.

न जाने कितनी देर तक वे उसी अवस्था में एकदूसरे के दिल की धड़कनों को सुन रहे थे. इस एक क्षण में उन्होंने मानो एक युग जी लिया था, प्यार का युग तो अनंतकाल से प्रेमीप्रेमिका को मिलने के लिए उकसाता रहता है.

अपने घर आ कर प्रमोद ने रचना का दिया हुआ उपन्यास खोल कर देखा. उस में एक पत्र रखा मिला. रचना ने बड़े सुंदर और सुडौल अक्षरों में लिखा था, ‘प्रमोद, मैं तुम्हें हृदय की गहराइयों में पाती हूं. यह प्यार रूपी अमृत का प्याला मैं रोज पीती हूं, पर प्यासी की प्यासी रह जाती हूं. यह तृप्तता आखिर क्या है? कैसी है? कब पूरी होगी. इस का उत्तर मैं किस से पूछूं. यदि आप को पता हो तो मुझे जरूर बताएं…रचना…’

प्रमोद को मानो दीवानगी का दौरा पड़ गया. उसे लगा कि ऐसा पत्र शायद ही किसी प्रेमिका ने अपने प्रेमी को लिखा होगा. वह संसार का सब से अच्छा प्रेमी है, जिस की प्रेमिका इतने उदात्त विचारों की है. वह एक अत्यंत सुंदरी और विदुषी प्रेमिका का प्रेमी है. इस मामले में वह संसार का सब से धनी प्रेमी है.

उसे नित्य नईनई अनुभूतियां होतीं. वह प्यार के खुमार में सदैव डूबा रहता. कभी खुद को चांद तो रचना को चांदनी कहता. कभी रचना हीर होती तो वह रांझा बन जाता. कभी वह किसी फिल्म का हीरो, तो रचना उस की हीरोइन. वह प्यार के अनंत सागर में डुबकियां लगाता लेकिन इस पर भी उस के मन को चैन न आता.

‘चैन आए मेरे दिल को दुआ कीजिए…’ अकसर वह इस फिल्मी गीत को गुनगुनाता और बेचैन रहता.

कभीकभी उसे लगता कि यह ठीक नहीं है. देवदास बन जाना कहां तक उचित है. दूसरे ही क्षण वह सोचता कि कोई बनता नहीं है, बस, अपनेआप ही देवदास बन जाने की प्रक्रिया चालू हो जाती है जो एक दिन उसे देवदास बना कर ही छोड़ती है. ‘वह भी देवदास बन गया है,’ यह सोच कर उसे अच्छा लगता. लगेहाथ ‘देवदास’ फिल्म देखने की उत्कंठा  भी उस में जागृत हो उठी.

विचारों की इसी शृंखला में सोतेजागते रहना उस की नियति बन गई, जिस दिन रचना उसे दिखाई नहीं देती तो उस के ख्वाबों में आ पहुंचती. उसे ख्वाबों से दूर करना भी उस के वश में नहीं रहता. यदि आंखें बंद करता तो वह उसे अपने एकदम करीब पाता. आंखें खोलने पर रचनाकृति गायब हो जाती और दुखद क्षणों की अनुभूति बन जाती.

इस बीच, प्रमोद को अचानक अपने मामा के यहां जाना पड़ गया. मामा कई दिन से बीमार चल रहे थे और एक दिन उन का निधन हो गया. उन की तेरहवीं तक प्रमोद का वहां रुकना जरूरी हो गया था.

एक दिन चंदा ने रचना को फोन किया तो पता चला कि रचना के उद्योगपति पिता ने उस का विवाह मुंबई के एक हीरा व्यापारी के बेटे के साथ तय कर दिया है. इस बात पर उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था. चंदा ने जब इस दुखद सामाचार को प्रमोद तक पहुंचाया तो फोन सुनते ही उसे लगा कि उस का गला सूख गया है. अमृत कलश खाली हो गया है. रचना इतनी जल्दी किसी और की अमानत हो जाएगी, उस की कल्पना से बाहर की बात थी. वह रोंआसा हो गया और तनमन दोनों से स्तब्ध हो कर रह गया था.

‘अपने को संभालो भाई, यह अनहोनी होनी थी सो हो गई, एक सप्ताह बाद ही उस का विवाह है. वह विवाह से पहले एक बार आप से मिलना चाहती है,’ चंदा ने फोन पर जो सूचना दी थी. उस से प्रमोद का सिर चकराने लगा. इस दुखद समाचार को सुन कर उस का भविष्य ही चरमरा गया था. उस ने तुरंत रचना से मिलने के लिए वापसी की ट्रेन पकड़ी.

दूसरे दिन प्रमोद उसी बरगद के पेड़ के नीचे खड़ा था जहां उस का प्रेममिलन हुआ था. रचना भी छिपतेछिपाते वहां आई और प्रमोद से लिपट कर जोरजोर से रोने लगी. वह प्रमोद को पिताजी के सामने हार कर शादी के लिए तैयार होने की दास्तान सुना रही थी. उस ने अपनी मां से भी प्रमोद के प्यार की बातें कही थीं, पर उन्होंने उस के मुंह पर अपनी उंगली रख दी.

तब से अब तक मां की उंगली मानो उस के होंठों से चिपकी हुई थी. वह न तो ठीक से रो सकती थी, न हंस सकती थी. उस ने अपने पास संभाल कर रखा ताजमहल का शोपीस प्रमोद को वापस देते हुए कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो प्रमोद, मैं तुम्हारे प्यार की कसौटी पर खरी नहीं उतरी. मैं प्यार के इस खेल में बुरी तरह हार गई हूं. मैं तुम्हारे प्यार की इस धरोहर को वापस करने के लिए विवश भी हो गई हूं. मुझे उम्मीद है कि तुम मेरी इस विवशता को समझोगे और इसे वापस ले कर अपने प्यार की लाज भी रखोगे.’’

रचना इतना कह कर वापस चली गई और वह उसे जाते देख स्तब्ध रह गया. अब रचना पर उस का कोई अधिकार ही कहां रह गया था. एक धनवान ने फिर एक पाकसाफ मुहब्बत का मजाक उड़ाया था. प्रमोद के हाथों में ताजमहल जरूर था पर उस की मुमताज महल तो कब की जा चुकी थी. उस के प्यार का ताजमहल तो कब का धराशायी हो गया था.

वह अपने अश्रुपूरित नेत्रों से बारबार उस ताजमहल की अनुकृति को देखता और ‘हाय रचना’ कह कर दिल थाम लेता. प्रमोद को ऐसा अहसास हो रहा था कि आज मानो संसार के सारे दुखों ने मिल कर उस पर भीषण हमला कर दिया हो. उस ने ताजमहल के शोपीस को यह कहते हुए उसी चबूतरे पर रख दिया कि जिन प्रेमियों का प्यार सफल और सच्चा होगा वही इसे रखने के अधिकारी होंगे उसे अपने पास रखने की पात्रता अब उस के पास नहीं थी. उस के प्यार की झोली खाली हो गई थी और उस में उसे रखने का अवसर उस ने खो दिया था.

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