भाजपा खेमे में घमासान मचा है. पांच राज्यों में चुनाव के मद्देनज़र उम्मीदवारों की लिस्ट तैयार हो रही है. पश्चिम बंगाल की लिस्ट तैयार हो चुकी है, जिसके जारी होने के बाद भाजपा नेताओं और नेतृत्व के बीच खूब सिरफुटव्वल हुआ है. दूसरी पार्टियों को छोड़ कर भाजपा से जुड़ने वाले नेताओं और फ़िल्मी सितारों को टिकट बांटे जाने से भाजपा के जमीनी कार्यकर्ताओं और नेताओं में भारी रोष व्याप्त है. पश्चिम बंगाल में कई शहरों में स्थानीय भाजपा कार्यालयों के सामने जबरदस्त प्रदर्शन हुए, वहीँ कई जगह कार्यकर्ताओं ने गुस्से के मारे पार्टी दफ्तरों में तोड़फोड़ और हाथापाई तक कर डाली.

गौरतलब है कि ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को कमजोर करने के चक्कर में वहां लम्बे समय से सेंधमारी चल रही थी. भाजपा ने बड़े लालच देकर तृणमूल नेताओं की बड़ी संख्या अपने पाले में घसीटी है, अब उन सबको किसी ना किसी सीट पर टिकट बांटने से अंदरखाने बड़ा बवाल मचा हुआ है. जगतादल और जलपाईगुड़ी सदर इलाके में तृणमूल छोड़ कर भाजपा में आये नेताओं को टिकट दिया गया तो वहां नेताओं ने पार्टी दफ्तर में तोड़फोड़ कर दी. मालदा के हरिशचंद्रपुर और ओल्ड मालदा में भी पार्टी दफ्तर में सिरफुटव्वल और तोड़फोड़ हुई. इन सीटों के अलावा दुर्गापुर, पांडेश्वर समेत कुछ अन्य इलाकों में भी उम्मीदवारों के ऐलान के बाद भाजपा कार्यकर्ताओं का गुस्सा फूटा और उन्होंने विरोध किया. यानी मतदान से पहले ही भाजपा अपनी ही कलह में गोते खा रही है.

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मज़े की बात यह है कि भाजपा अगर बंगाल में चुनाव जीत जाती है तो वहां उसका मुख्यमंत्री कौन होगा, यह अभी तक तय नहीं है. भाजपा के पास मोदी और शाह के अलावा कोई दमदार चमकदार चेहरा नहीं है, जो मौजूदा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की टक्कर में नज़र आता हो. पर मोदी-शाह तो स्टार प्रचारक हैं, वे मुख्यमंत्री बनने तो बंगाल जाएंगे नहीं, उसके लिए तो किसी ना किसी को इस पद का दावेदार घोषित करना होगा. मगर ऐसा कोई चेहरा बंगाल में भाजपा को ढूंढें नहीं मिल रहा है.

मुख्यमंत्री पद के लिए राज्य में भाजपा अध्यक्ष दिलीप घोष के नाम की थोड़ी चर्चा है. घोष पर भाजपा दांव लगा सकती है. दिलीप घोष आरएसएस प्रचारक भी रहे हैं. अपने गंवई अंदाज के लिए घोष बंगाल में जाने जाते हैं. मगर ये ऐसे नेता हैं जो अपना चुनाव क्षेत्र भी अपने दम पर नहीं जीत सकते हैं. इसलिए घोष चुनाव लड़ने का जोखिम भी नहीं उठाएंगे, लेकिन यदि वे मुख्यमंत्री बनते हैं तो उपचुनाव लड़ेंगे मगर तब भी उनकी पूरी कोशिश होगी कि नरेंद्र मोदी ही आकर उनका प्रचार करें.

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भाजपा शासित राज्यों में अक्सर इसी पैटर्न को देखा गया है. जहां पार्टी की राज्य इकाई के अध्यक्ष, जो कि बाद में मुख्यमंत्री बने हैं, उन्होंने पहले चुनाव नहीं लड़ा है. हालांकि जब उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया, तो वे उपचुनाव के जरिए 6 महीने के अंदर विधायक बने. यह पैटर्न भाजपा ने असम और कर्नाटक में फॉलो किया था.

हालांकि दिलीप घोष इस वक़्त राज्य इकाई में अंदरूनी कलह से जूझ रहे हैं. पार्टी के अंदर दिलीप घोष के कई विरोधी पैदा हो गए हैं, जिन्हें घोष को सीएम पद का उम्मीदवार बनाने पर  ऐतराज है. पब्लिक रैलियों में घोष के कई अटपटे बयान भी सुर्खियों में रह चुके हैं, जिसने भाजपा की काफी छीछालेदर करवाई है, जैसे – गोमूत्र में सोना होता है और कोविड-19 के लिए एक दवाई का काम करती है.

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गौरतलब है कि बंगाल का मिडिल क्लास काफी बौद्धिक माना जाता है, जिसके सामने दिलीप घोष के इस तरह के बेसिर-पैर वाले बयानों से भाजपा की छवि तो खराब हुई ही, यह भी पता चला कि पढ़े-लिखों का पार्टी में कितना अभाव है. घोष की व्यक्तिगत जीवन शैली में भी बंगाल की कला संस्कृति का अभाव है और यह सारी बातें उनके ‘बंगाली भद्रलोक’ में फिट बैठने के लिए पक्ष में नहीं दिख रही हैं. इसलिए दिलीप घोष को मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करना भाजपा को नुकसान पहुंचा सकता है.

फिर कौन होगा पश्चिम बंगाल में भाजपा का सीएम् फेस?

दूसरे नंबर पर कोलकाता के मूल निवासी और भाजपा के पुराने नेता तथागत रॉय के नाम पर शायद विचार हो. तथागत रॉय त्रिपुरा और मेघालय के गवर्नर भी रह चुके हैं और कहते रहे हैं कि वह पार्टी के लिए कोई बड़ी जिम्मेदारी उठाने को तैयार हैं. मगर बात रुक जाती है उनकी उम्र पर. तथागत रॉय 75 साल के हैं और फिर तृणमूल नेता सौगात रॉय के भाई हैं. त्रिपुरा और मेघालय के राज्यपाल रहते हुए उनके भी कई विवादित बयान आ चुके हैं, जिन्होंने भाजपा की खिल्ली उड़वाई है. हालांकि भाजपा के ज़्यादातर नेताओं के बयान अन्धविश्वास और कट्टरपंथ के जहर में ही डूबे होते हैं, तथागत भी उससे ऊपर नहीं निकल पाए हैं, लेकिन एज-फैक्टर उनकी महत्वाकांक्षा पर ज़्यादा भारी है.

तीसरा नाम स्वपन दास गुप्ता का चर्चा में है. भाजपा नेतृत्व द्वारा स्वपन दास गुप्ता को नियमित रूप से काफी जिम्मेदारी वाले कार्य सौंपे जा रहे हैं. वह केंद्रीय नेताओं के बंगाल दौरों के समय हमेशा साथ नज़र आ रहे हैं. लेकिन स्वपन दास गुप्ता ज़्यादा समय दिल्ली में रहे हैं. वह पूर्व पत्रकार, स्तंभकार और राज्यसभा सांसद हैं. ऑक्सफर्ड के पूर्व छात्र दासगुप्ता कॉलेज के दिनों से ही 70 के दशक में राज्य से दूर हो गए थे. इसलिए बंगाल की जनता उनको वो प्रेम और सम्मान कभी नहीं देगी जो ममता बनर्जी को मिल रहा है.

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शुभेंदु अधिकारी ममता दीदी को छोड़ कर हाल ही में भाजपा में आये हैं. जब वे भाजपा की गोद में आकर बैठे थे तब इस बात की बड़ी चर्चा हुई थी कि उनकी बदौलत अगर दीदी की सत्ता जाती है तो उनको बंगाल की राजगद्दी दी जाएगी. गद्दी का लालच दिखा कर उनको टीएमसी से तोड़ा भी गया था. मगर धीरे-धीरे ये चर्चा हवा हो गई. अब तो उनके माथे पर जहाँ विभीषण का लेबल चस्पा हो गया है, तो वहीँ उनका राजनितिक अनुभव भी कुछ ख़ास नहीं है. ऐसे में उनका इस्तेमाल भाजपा नेतृत्व सिर्फ ममता बनर्जी को चोट देने और नंदीग्राम सीट निकालने भर के लिए ही करेगा. मगर नंदीग्राम का जो सिनैरियो अब है उसमें यह सीट निकालना भी शुभेंदु अधिकारी के लिए मुश्किल ही लग रहा है. ऐसे में भगवा दल के पास पश्चिम बंगाल में ऐसा कोई नेता नहीं है जिसकी लोकप्रियता मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जैसी हो और जिसे ममता के मुकाबले मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट किया जा सके.

मैदान में अकेले मोदी-शाह

दरअसल आज पूरी भाजपा सिर्फ दो चेहरों में सिमट कर रह गयी है – एक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दूसरे गृहमंत्री अमित शाह. जहां-जहां चुनाव हुए और होने हैं, वहां सिर्फ यही दो चेहरे जनता को नज़र आएंगे. इन दोनों के रहते दूसरी पंक्ति के नेताओं को कभी अपना व्यक्तित्व और राजनितिक हुनर दिखाने का मौक़ा ना मिला और ना मिलेगा. या यूं कहें कि इन दोनों के होते पार्टी अपनी दूसरी पंक्ति तैयार ही नहीं कर पा रही है. ऐसा नहीं है कि भाजपा में पढ़े-लिखे और  राजनीति की बेहतर समझ रखने वाले नेता नहीं हैं, खूब हैं, मगर उनकी कुछ पूछ नहीं है. उनकी उपेक्षा की जा रही है. उन्हें बोलने से रोका जा रहा है. यही वजह है कि भाजपा के फायरब्रांड नेता सुब्रह्मनियम स्वामी आयेदिन मोदी-शाह पर टिप्पणी कर अपना गुस्सा जाहिर कर रहे हैं. पार्टी में दूसरी पंक्ति तैयार ना होने देने का सीधा मतलब है पार्टी को कमजोर करना. मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मालिक ने तो मोदी-शाह के खिलाफ मोर्चा ही खोल दिया है.

उल्लेखनीय है कि अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा के पास पढ़े लिखे नेताओं की दूसरी पंक्ति काफी दमदार थी. इसमें कई चेहरे थे जैसे – लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा, राजनाथ सिंह, जसवंत सिंह, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, अरुण शौरी, मुख़्तार अब्बास नकवी, शाहनवाज हुसैन, उमा भारती, साध्वी ऋतम्भरा, विजय गोयल, राजीव प्रताप रूडी, रवि शंकर प्रसाद, अन्ना साहब एमके पाटिल वगैरा. इनमे से अधिकतर नेता उच्च शिक्षा प्राप्त थे. कुछेक को छोड़ दें तो अधिकतर अंधविश्वास, कट्टरपंथ, पोंगा-पंडित वाले दकियानूसी विचारों से भी मुक्त थे. अधिकतर वकालत के पेशे में थे और संविधान की इज्जत करना जानते थे. मगर आज इनमे से कुछ दिवंगत हो चुके हैं और जो बचे हैं वो गुमनामी की हालत में हैं. गहरा राजनितिक अनुभव होने के बावजूद उन्हें मोदी-शाह के आगे बोलने का हक़ नहीं है. इन दोनों ने सबकी बोलती बंद कर रखी है. शाहनवाज हुसैन और मुख्तार अब्बास नकवी जो कभी भाजपा का दमदार मुस्लिम चेहरा और मुखर प्रवक्ता हुआ करते थे, आज कहीं चूं करते भी नहीं दिखते हैं. हुसैन को बिहार की राजनीति में धकेल दिया गया है तो नकवी गुमनामी की चादर तान कर पड़े हैं.

आज चुनाव मैदान में अगर प्रचार के लिए उतरे भाजपा नेताओं की गिनती करें तो चार पांच चेहरे ही नज़र आते हैं, जो अपने अनापशनाप बयानों से ज़्यादा ख्यात हुए हैं जैसे – योगी आदित्यनाथ, स्मृति ईरानी या जेपी नड्डा. वहीँ देवेंद्र फडणवीस, नितिन गडकरी या धर्मेंद्र प्रधान कभी यदाकदा ही बोलते दिखते हैं. वसुंधराराजे सिंधिया, उमा भारती, साध्वी ऋतम्भरा जैसी तेज़तर्रार भाजपा नेत्रियां गुमनामी के परदे में समा चुकी हैं. कल्याण सिंह, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, विनय कटियार, प्रवीण तोगड़िया जैसे राम मंदिर आंदोलन के वो चेहरे जिनकी मेहनत के फल का रसास्वादन अकेले मोदी-शाह ने किया, जिनकी मेहनत से मिले राम मंदिर जीत का सेहरा मोदी-शाह ने अपने सिर बाँध लिया, आज कहाँ खो गए हैं, राजनीति की बिसात पर क्यों नहीं दिखते हैं, पांच राज्यों में चुनाव के वक़्त भी सुप्तावस्था में क्यों हैं, किसी सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर अपने विचार क्यों नहीं व्यक्त करते हैं? सवाल बहुतेरे हैं. क्या ये सब मोदी-शाह से डरे हुए हैं, या सबने मोदी-शाह को अकेला छोड़ दिया है?

परदे के राम के भरोसे भाजपा

राम मंदिर के पक्ष में कोर्ट का फैसला आने के बाद अब यह मुद्दा ख़त्म हो चुका है. इस मुद्दे पर अब भाजपा चुनाव में वोट नहीं पीट पाएगी. रोजी-रोटी, शिक्षा-स्वास्थ, विकास-जीडीपी जैसे मुद्दों से भाजपा हमेशा अपना दामन बचाती रही है. संघ का हिन्दू-मुस्लिम खेल भी पुराना हो चुका है, जनता सब समझने लगी है. ऐसे में क्या तरकीब लगाई जाए जिससे जनता की संवेदनाओं को भुना कर उसे वोट बैंक में तब्दील किया जा सके.

मोदी-शाह इस वक़्त आरएसएस के इशारे पर काम कर रहे हैं. हिन्दू राष्ट्र बनाने की तीव्र इच्छा आरएसएस मोदी-शाह के ज़रिये पूरी करना चाहती है. ऐसे में अब चुनावी वैतरणी पार करने के लिए संघ के इशारे पर परदे के ‘राम’ का सहारा लिया गया है.

गौरतलब है कि टेलीविजन के चर्चित सीरियल ‘रामायण’ में राम की भूमिका निभाने वाले अभिनेता अरुण गोविल को भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता दिलायी गयी है. अब परदे के राम को सामने रख कर  भाजपा चुनावी रैलियां करेगी और जनता की धार्मिक आस्था और राम के प्रति उपजने वाली संवेदना को वोट के रूप में अपने पक्ष में भुनाएगी.

जिस शख्सियत को एक वक्त पर लोग सच में भगवान राम समान समझ पैर छूने लगे थे और जिनकी टीवी पर एक झलक पाने के लिए सड़कें और गलियां तक सुनसान हो जाती थीं, भला उस शख्सियत को सामने देख कर कौन उनके आग्रह पर उनके कहे व्यक्ति के पक्ष में वोट नहीं देगा?

पश्चिम बंगाल समेत पांच राज्यों में चुनावी सरगर्मियों के बीच भाजपा की सदस्यता ग्रहण करने वाले अरुण गोविल के बारे में कहा जा रहा है कि वह विधानसभा चुनाव भी लड़ सकते हैं. मगर फिलहाल तो उनको प्रचार कार्य में लगाया जा रहा है.

हालांकि अरुण गोविल रामायण के पहले ऐसे कलाकार नहीं हैं जो राजनीति में उतरे हैं. इससे पहले भी रामानंद सागर के चर्चित सीरियल के कई कलाकार राजनीति में आ चुके हैं. रामायण में सीता की भूमिका निभाने वाली दीपिका चिखलिया, हनुमान की भूमिका निभाने वाले दारा सिंह और रावण की भूमिका निभाने वाले अरविन्द त्रिवेदी भी भाजपा के टिकट पर चुनावी मैदान में उतर चुके हैं. ‘रामायण’ में सीता का किरदार निभाने वालीं दीपिका चिखलिया ने 1991 में भाजपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव में जीत दर्ज की थी. वह गुजरात की वडोदरा सीट से लड़ी थीं. उन्हें कुल 49.98 फीसदी वोट मिले थे. दीपिका ने कांग्रेस के रंजीत सिंह प्रताप सिंह गायकवाड़ को करीब 34 हजार वोटों से हराया था.

यही नहीं, महाभारत के कई कलाकारों को भी भाजपा अपने टिकट पर मैदान में उतार चुकी है. जिसमे परदे पर द्रौपदी का किरदार निभाने वाली रूपा गांगुली राज्यसभा की मनोनीत सांसद हैं. 2016 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले 2015 में वह भाजपा में शामिल हुईं थीं. बंगाल के पिछले विधानसभा चुनाव में वह हावड़ा नॉर्थ से चुनाव भी लड़ीं लेकिन हार गईं. बाद में अक्टूबर 2016 में राष्ट्रपति ने उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत किया. गांगुली पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की कट्टर आलोचक हैं.

वहीँ महाभारत में ‘कृष्ण’ का रोल निभाने वाले नीतीश भारद्वाज भी 1996 में भाजपा के टिकट पर झारखंड के जमशेदपुर से चुनाव लड़े और जीते थे. जब वह चुनाव प्रचार के लिए जाते थे तो लोग उनका पैर छू कर आशीर्वाद लिया करते थे. कुछ तो तिलक, चंदन लगाकर उनकी आरती भी उतारा करते थे. हालांकि 1999 में वह मध्य प्रदेश की राजगढ़ सीट से तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के भाई लक्ष्मण सिंह से हार गए. नीतीश भारद्वाज कुछ समय तक भाजपा के प्रवक्ता भी रहे, मगर बाद में उन्होंने सियासत की दुनिया छोड़ दी.

‘महाभारत’ में युधिष्ठिर का किरदार निभाने वाले गजेंद्र चौहान ने भी 2004 में भाजपा का दामन थामा था. 2015 में उन्हें प्रतिष्ठित फिल्म ऐंड टेलिविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया का चेयरमैन नियुक्त किया गया जिसका काफी विरोध हुआ था.

अब भाजपा ने राम की भूमिका निभाने वाले अरुण गोविल पर दांव लगाया है. अरुण गोविल की सियासी पारी को लेकर पहले भी चर्चा होती रही है, लेकिन वे राजनीति के अखाड़े में अब तक नहीं उतरे थे. वे हमेशा कहते रहे – ‘कभी सियासत में उतरने का मेरा मन ही नहीं किया और ना ही संयोग बना. मैंने उस रूप में अपने आप को देखा ही नहीं.’ मगर आज जब भाजपा के पास मुद्दे का अकाल है, तो वह परदे के राम की शरण में जा पहुंची है.

उल्लेखनीय है कि कोरोना काल में लगे लॉकडाउन के दौरान रामायण सीरियल का प्रसारण दोबारा टीवी पर कराया गया था. तभी से अरुण गोविल की फिर चर्चा शुरू हो गयी थी. इसी दौरान अरुण गोविल ने एक ट्वीट भी किया था कि उन्हें सरकार की तरफ से आज तक कोई सम्मान नहीं मिला. अब मोदी-शाह उन्हें पूरी सजधज और भगवान राम के गेटअप के साथ राजनितिक बिसात पर जनता के सामने उतार कर पूरा सम्मान देंगे. चुनाव बाद क्या होगा ये तो राम ही जाने !

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