लेखक-रोहित और शाहनवाज

अग्रलेख पंजाब चुनाव अब शहरी भी नाराज पंजाब की राजनीति आमतौर पर राष्ट्रीय राजनीति से मेल नहीं खाती और न ही किसी लहर या आंधी से प्रभावित होती है. वजह साफ है कि वहां का वोटर हिंदुत्व मुद्दों पर वोट नहीं करता. हालिया निकाय चुनाव में भी यही हुआ. कैसे हुआ, पढि़ए इस खास रिपोर्ट में : 17 फरवरी को पंजाब के निकाय चुनाव के परिणामों में कांग्रेस को मिली बड़ी जीत के माने सिर्फ कांग्रेस की जीत की नजर से देखा जाना ठीक नहीं होगा. इस में भाजपा व उस के भूतपूर्व सहयोगी अकाली दल को मिली करारी हार की चर्चा रत्तीभर भी कम नहीं होनी चाहिए. जिन शहरी नगर इलाकों में चुनाव हुए वहां के अधिकतर समीकरण उस राजनीति के एंगल से सटीक बैठते हैं जो भारतीय जनता पार्टी आम लोगों पर हमेशा थोपती आई है.

वहीं, यह भी कि अगर यह कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध था तो इन कानूनों का खुल कर विरोध किए जाने के बावजूद अकाली दल और आप के खराब प्रदर्शन की वजह क्या रही? खैर, इस बिंदु पर चर्चा आगे की जाएगी, उसे पहले उस बिंदु को बताया जाना जरूरी है जो इस निकाय चुनाव में सब से पहले आमराय बन कर उभरा है. आमतौर पर इस चुनाव परिणाम के पीछे किसान आंदोलन का हावी होना माना जा रहा है, देश की राजधानी दिल्ली के बौर्डर पर महीनों से किसान आंदोलित हैं और इस ऐतिहासिक किसान आंदोलन के जनक, एक प्रकार से कहें तो, पंजाब के किसान रहे जिन्होंने सब से पहले नए विवादित कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन की शुरुआत की और तमाम आरोपों, दमन व सरकार द्वारा चलाई साजिशों के बाद भी अपने आंदोलन को जारी रखा. लेकिन क्या यह इस निकाय चुनाव की पूर्णरूपेण सचाई है? क्या इन निकाय चुनावों में कृषि कानून के विरोध में उठी यह आवाज शहरों के निकायों में इतना बड़ा फेरबदल करने में सक्षम रही कि भाजपा बुरी तरह धराशायी हो गई?

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क्या इसे सिर्फ कृषि कानूनों के विरोध में जनता का मैंडेट माना जा सकता है या इस के पीछे और भी समीकरण थे जिन्होंने काम किया? फिर सवाल यह भी कि अगर यह सिर्फ कृषि कानूनों के बूते की बात है तो आप और अकाली दल, जो पंजाब के शहरी लोगों के पास कांग्रेस के अलावा एक विकल्प के तौर पर थे, को बड़ी संख्या में सीटें दे कर क्यों नहीं जिताया गया? इस की पड़ताल पंजाब जा कर ही की जा सकती है. पंजाब निकाय चुनावों पर एक नजर दिल्ली की सीमाओं पर जहां एक तरफ विभिन्न राज्यों के किसान विवादित कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग को ले कर 100 से ज्यादा दिनों से आंदोलनरत हैं वहीं, इसी दौरान 14 फरवरी, 2021 को पंजाब में निकाय चुनाव हुए जिस में रिकौर्ड 71 प्रतिशत वोट पड़े. चुनाव का रिजल्ट 17-18 फरवरी को घोषित किया गया जिस का शोर मचतेमचते तमाम बड़े मीडिया संस्थानों द्वारा दबा दिया गया.

पंजाब निकाय चुनाव में कुल 2,302 वार्डों में से कांग्रेस ने अनुमानतया 68.3 प्रतिशत वोटों के साथ रिकौर्ड 1,480 वार्डों पर परचम लहराया. अकाली दल को सिर्फ 322 वार्ड 14.87 प्रतिशत वोटों के साथ मिले और आप (आम आदमी पार्टी) को 66 वार्डों में जीत 3.04 प्रतिशत वोटों के साथ मिली. यह बड़ी गौरतलब बात है कि निकाय चुनाव में भाजपा महज 58 वार्डों में जीत के साथ 2.67 प्रतिशत वोटों के न्यूनतम स्तर पर सिमट कर रह गई जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में उसे 13 में से 2 सीटें 9.56 प्रतिशत वोटों के साथ और 2017 के विधानसभा चुनाव में 117 में से 3 सीटें और 7.52 प्रतिशत वोट मिले थे. ग्राफ अकाली दल का भी तेजी से गिरा जिसे 2019 के लोकसभा चुनाव में 2 सीटें 27.5 प्रतिशत वोटों के साथ मिली थीं. जबकि 2017 के विधानसभा चुनाव में उसे 15 सीटें और 25.2 प्रतिशत वोट मिले थे. आप भी कम दुर्गति का शिकार नहीं हुई जिस ने 2017 के विधानसभा चुनाव में धमाकेदार एंट्री करते हुए 20 सीटें और 23.7 प्रतिशत वोट हासिल कर विपक्ष की कुरसी हथिया ली.

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इस के बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में उसे महज एक सीट 7.37 फीसदी वोटों के साथ मिली थी. ये आंकड़े बताते हैं कि वोटरों ने सम?ादारी से काम लेते सिर्फ कांग्रेस पर भरोसा जताया और वोटों का बंटवारा नहीं होने दिया जिस के दम पर भाजपा और उस के सहयोगी दल बिहार जैसे राज्य जीत ले जाते हैं. वैसे तो चर्चा हमेशा जीतने वाले पक्ष की गरम होती है लेकिन इस बार मसला अलग है. जून 2020 में कृषि कानूनों के अध्यादेश आने के बाद से ही पंजाब में भारी उथलपुथल चल रही है, जिस का एक संभावित नतीजा इस निकाय चुनाव में देखा जा सकता है. इस नगरीय चुनाव में भाजपा को इतनी करारी हार मिली है कि जिन इलाकों में वह जीतती भी आ रही थी इस बार वह वहां से गायब ही हो गई. मसलन, निकाय चुनाव में भाजपा और अकाली दल के कोर वोटर छिटक जाने से जो दुर्दशा हुई वह किसी से छिपाए भी नहीं छिप रही है.

पंजाब नगरनिगम चुनाव में 8 बड़े नगरनिगम, 109 नगर परिषद और नगर पंचायतों के तहत आने वाले 2,302 वार्डों के चुनाव कराए गए थे. चुनाव का नतीजा यह रहा कि कांग्रेस 7 नगरनिगमों में भारी बहुमत से चुनाव जीती, वहीं एक (मोगा नगर निगम) में सब से बड़ी पार्टी बन कर उभरी. अबोहर नगरनिगम में भाजपा और अकाली दल का हाल तो यह रहा कि 50 में से 49 सीटें अकेले कांग्रेस के खाते में चली गईं और मात्र एक सीट पर अकाली दल जीत पाई, जहां पिछली बार 2019 में नगरनिगम बनाए जाने से पहले अबोहर नगर परिषद में भाजपा और अकाली दल के गठबंधन को 33 में से 16 सीटें हासिल हुई थीं. ये कुछ आंकड़े उस हकीकत को सामने ला देते हैं जो दिखाते हैं कि पंजाब में खेती करने वाला किसान ही नहीं बल्कि शहरों में नौकरीपेशेगत, मजदूर, ठेलेवाला, व्यापारी, दुकानदार, युवा और महिलाएं सभी भाजपा से खासा नाराज चल रहे हैं और वे इस समय चुनाव के माध्यम से केंद्र सरकार को कड़ा संदेश देना चाहते हैं. लेकिन वह क्या संदेश है जो यहां की शहरी आबादी ने बंद लिफाफे में इन परिणामों के माध्यम से केंद्र तक भेजा है?

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यही इस पूरे निकाय चुनाव की सब से दिलचस्प कहानी है. वे टु पंजाब ‘सरिता’ पत्रिका की टीम ने पंजाब के निकाय चुनाव के घोषित परिणामों को देखते हुए ग्राउंड जीरो पर पंजाब का दौरा किया. इस दौरे में ग्राउंड जीरो पर उतर कर उन सभी समीकरणों को खंगालने की कोशिश की जो मीडिया के कैमरों और चीखतेचिल्लाते माइक से दब जाते हैं. इसी कड़ी में ‘सरिता’ टीम सब से पहले दिल्ली से लगभग 400 किलोमीटर दूर पंजाब के होशियारपुर जिले की तरफ गई. यह निकाय क्षेत्र पिछली बार भाजपाअकाली दल का गढ़ रहा था. लेकिन इस बार यहां 50 में से 41 सीटें जीत कर कांग्रेस ने अपने किल्ले गाड़ दिए. यह टाउन हिमाचल के ऊना से 20-25 किलोमीटर की दूरी पर है. बड़े शहरों की तरह यहां बहुत ज्यादा भीड़भाड़ और चहलपहल नहीं थी. लेकिन दिलचस्प यह था कि बाकी राज्यों के शहरों में जिस तरह से चुनाव के बाद पोस्टर, बैनर और होर्डिंग जगहजगह लदे दिख जाते हैं वैसा यहां देखने को बहुत कम मिला. थोडे़बहुत कांग्रेस और आप के पोस्टर कहींकहीं दिख भी रहे थे लेकिन भाजपा के काफी कम देखने को मिले. पंजाब का होशियारपुर टाउन हिंदू बहुल इलाका है.

इस के बावजूद उत्तर भारत के अन्य राज्यों की तरह यहां मंदिरों के धार्मिक प्रचार करने वाले पोस्टर व बैनर नहीं दिखाई दिए. ठीक ऐसा ही गुरुद्वारे को ले कर भी था. इस बीच ‘सरिता’ टीम इस जिले के कई बाजारों और रैजिडैंशियल इलाकों में घूमी जहां लोगों से बात कर एक चीज देखने को मिली कि इस बार का शहरी वोटर साइलैंट वोटर था, जो भाजपा से नाराज चल रहा था. यहां का व्यापारी तबका अतीत में भाजपाअकाली को वोट देते आ रहा था. उस ने इस बार कांग्रेस को चुना. होशियारपुर के सराजा चौक में व्यापारी मानिक जैन खुद को भाजपा समर्थक बताते हैं और कहते हैं, ‘‘इस बार का व्यापारी छिपा वोटर था, जो भाजपा के समर्थक भी थे, उन्होंने भी सामने से उम्मीदवार को हां तो कह दिया लेकिन बैकडोर से कांग्रेस को वोट दिया.’’ जो तथ्य उभर कर सामने आया वह सिर्फ कृषि कानूनों के संबंध में आक्रोश को ले कर नहीं था बल्कि इस के साथ वह महंगाई, बेरोजगारी और केंद्र में भाजपा सरकार की गलत आर्थिक नीतियों इत्यादि के चलते था. अमित जैन होशियारपुर में कारोबारी हैं, उन का कहना था, ‘‘बात सिर्फ कृषि की नहीं है. भजपा मुद्दों को ले कर बात ही नहीं कर रही है.

भाजपा ने वोट सिर्फ नरेंद्र मोदी के नाम पर मांगा, काम पर नहीं. भाजपा वाले बस, मोदीजीमोदीजी कहते रहे. अभी इस समय महंगाई का हाल देख लो. पैट्रोलडीजल के दाम ऐसे बढ़ रहे हैं कि निजी गाड़ी से चलना मुश्किल हो रहा है.’’ यह तय है कि इस बार का पंजाब निकाय चुनाव भाजपा के लिए अपनी ही पिच पर क्लीन बोल्ड होने जैसा था. जाहिर है मोदी के चेहरे के साथ भाजपा लड़ा करती है और यहां तो लोगों की मुख्य नाराजगी उसी चेहरे को ले कर थी. ठीक इसी प्रकार की समस्याएं पंजाब के मोगा निकाय, जो होशियारपुर से लगभग 150 किलोमीटर की दूरी पर है, में भी देखने को मिली. ‘सरिता’ टीम ने यहां आम लोगों और कारोबारियों से बात की. यहां कुल 50 वार्डों में कांग्रेस ने 20 ्रमें जीत हासिल की, वहीं अकाली दल ने 15 और इंडिपैंडैंट कैंडिडेट्स 10 सीटों पर जीते. एकमात्र सीट जो भाजपा के हिस्से आई वह भी पहले से भाजपा के सीट पर जीतते आ रहे पार्षद की बहू थी,

जो इस बार महिला रिजर्व हो गई. मोगा का यह इलाका होशियारपुर से थोड़ा अलग था. बड़ेबड़े बाजार, चर्चित ब्रैंड के आउटलेट्स, घनी आबादी वाले इस इलाके में हमेशा चहलपहल देखी जा सकती है. कमाल यह था कि भाजपा के साथ धर्म के कट्टरपंथी समर्थन रखने वाले लोग खुल कर अपना समर्थन नहीं जता पा रहे थे. वे हिचकिचाए से दिखाई दे रहे थे. कोई अगर भाजपा के समर्थन में होता भी तो अमूमन छिपा ही रहता. मोगा में भी रोजगार की समस्या युवाओं को घेरे हुए है. मोगा में 30 वर्षीय धनपतराय अपनी बेरोजगारी का जिम्मेदार मोदी की गलत नीतियों को मानते हैं. वे कहते हैं, ‘‘सरकार ने रोजगार का कोई अवसर प्रदान नहीं किया. यह बात नहीं कि योजनाएं नहीं हैं लेकिन बिना प्रबंधन के उन योजनाओं का इंपैक्ट जमीन पर होता हुआ दिखाई नहीं देता. बाजार में कामधंधा ही नहीं होगा तो मेरे जैसे युवा आखिर करेगा ही क्या? मैं ने डिगरी ले ली डिप्लोमा भी लिया हुआ है, लेकिन काम के अभाव में मु?ो घर पर खाली बैठना पड़ रहा है.’’

बेरोजगार युवा तो ठीक, लेकिन जिन के पास अपना कामधंधा है, वे भी खाली बैठने को मजबूर हैं. कई दुकानदारों और खुद का कामधंधा करने वाले लोगों से बात की तो वे बताते हैं कि इस समय बाजार में मक्खियां मारने के अलावा कोई काम नहीं है. चैंबर रोड पर होटल कमल के मालिक बताते हैं, ‘‘अब होटल लाइन ठंडी पड़ी हुई है. पहले जो रौनक हुआ करती थी, अब वह नहीं रह गई है. धंधा इतना मंदा चल रहा है कि यहां कस्टमर के साथ भावतोल वाली स्थिति आ चुकी है. लौकडाउन के बाद तो होटल इंडस्ट्री का पूरा भट्टा ही बैठ गया है.’’ पंजाब के शहरों में यह तय है कि वहां भाजपा को वोट न देने का कारण केवल केंद्र सरकार द्वारा विवादित कृषि कानून लाना और उस के बाद किसानों का कानूनों के खिलाफ सड़कों पर उतर जाना ही नहीं, बल्कि इस से भी काफी बड़ी समस्याएं लोगों को ?ोलनी पड़ रही हैं. और वह है महंगाई और केंद्र सरकार द्वारा बनाई जाने वाली गलत आर्थिक नीतियां.

मतदाताओं के मन की रोचकता पंजाब निकाय चुनाव के नतीजों को यदि हम गौर से देखें तो कुछ रोचक तथ्य निकल कर सामने आते हैं. पंजाब में हिंदू आबादी शहरों की तरफ केंद्रित है. आंकड़ों से यह पता चलता है कि पंजाब के जिन 8 नगरनिगमों में निकाय चुनाव हुए वहां का सामाजिक ढांचा कुछ ऐसा है कि भाजपा के लिए ही बड़ी परेशानी का सबब बन चुका है और देश के बाकी राज्यों के लिए बेमिसाल उदाहरण. ज्यादातर नगरनिगम निकायों में हिंदू आबादी बहुसंख्यक है. उस के बावजूद उन्होंने तथाकथित हिंदू दक्षिणपंथी पार्टी भाजपा को वोट नहीं दिया. यदि हम भाजपा की राजनीति को आधार मानें तो आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि भाजपा को वोट देने वाला आमतौर पर हिंदू होता है और उस में भी समर्पित तौर पर बड़ी संख्या सवर्णों की होती है.

लेकिन यह फार्मूला पंजाब के इस निकाय चुनाव से कितना मेल खाया, कहना मुश्किल नहीं है क्योंकि पार्टी को मिली सीट के आधार पर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस बार पंजाब में भाजपा के खिलाफ जबरदस्त माहौल हिंदू समुदाय के भीतर भी देखने को मिला. इस बार पंजाब की इस शहरी आबादी ने इस धार्मिक कांठी को दरकिनार कर मुद्दों को ले कर चुनाव में शिरकत की. यहां हुए अधिकतर निकायों में हिंदू बहुसंख्यक थे. इस के बावजूद कुछकुछ जगहों में भाजपा को एक भी सीट न मिलना व कुछ जगह कैंडिडेट को मात्र परिवार के ही वोट मिलना भाजपा की पौराणिक व दकियानूसी राजनीति पर गहरी चोट करता है. पंजाब के सभी 8 नगरनिगमों, जिन में हाल ही में चुनाव हुए, में भाजपा की पहले की स्थिति और हाल की स्थिति में जमीनआसमान का अंतर है.

उदाहरण के लिए अबोहर, जो कि फाजिल्का जिले का एक शहर है, में पिछली बार भाजपा ने 12 सीटें हासिल की थीं, इस बार भाजपा यहां निल बटा सन्नाटा रही. यहां की आबादी का 83.27 प्रतिशत हिंदू है. इसी प्रकार होशियारपुर का क्षेत्र, यहां पर पिछली बार भाजपा को 17 सीटें हासिल हुई थीं, इस बार वह 4 सीटें ही हासिल कर पाई. यहां की आबादी के 75.6 प्रतिशत हिंदू होने के बावजूद भाजपा अपने पूर्व वोटरों को रि?ाने में नाकामयाब रही. वहीं, हिंदू बहुल क्षेत्र होने के बावजूद भाजपा कपूरथला निकाय में न तो पिछली बार सीट हासिल कर पाई और न इस बार एक भी सीट हासिल करने में कामयाब हो पाई. मोहाली में भी कुछ ऐसा ही रहा, जहां इस बार के चुनाव में भाजपा का डब्बा गोल रहा. भाजपा ने पिछली बार यहां से 6 सीटें हासिल की थीं. मोहाली में हिंदुओं की संख्या सिखों के तकरीबन बराबर ही है. बटाला में भाजपा ने इस बार 4 सीटें हासिल कीं जो पिछली बार से 7 कम हैं बावजूद इस के कि यहां आबादी का 56 प्रतिशत हिस्सा हिंदुओं का है. पठानकोट में 88 प्रतिशत हिंदू आबादी होने के बावजूद भाजपा को इस बार सिर्फ 12 सीटें ही मिलीं जोकि पिछली बार 29 थीं.

वहीं, 38 सीटें कांग्रेस के हिस्से में आईं. यानी पंजाब में भाजपा को एकमात्र समर्थन देने वाले वोटरों का भाजपा की कार्यशैली से मोह भंग हो गया. नहीं चली धर्म की काठी इनकार नहीं किया जा सकता कि नए कृषि कानूनों के चलते पंजाब के लोग भाजपा के खिलाफ संगठित हो कर लामबंद हुए लेकिन सिर्फ यही कारण भाजपा के हारने का रहा, इसे हाथोंहाथ भी नहीं लिया जा सकता. सरिता टीम ने जो चीज ग्राउंड पर जा कर खंगाली, वह यह कि पंजाब में नए विवादित कृषि कानून भाजपा के खिलाफ विरोध का जरीया बन कर उभरा जरूर है किंतु वही सार्वभौमिक रहा, यह कहना सरासर गलत होगा. देखा जाए तो जिन क्षेत्रों में निकाय चुनाव हुए वहां आंदोलन का सीधा प्रभाव नगण्य है. बल्कि इन इलाकों में किसान आंदोलन से प्रभावित लोग अधिक निवास करते हैं. किसी का रोजगार आंदोलन के चलते ठप पड़ा है तो किसी का अपना धंधा रुका पड़ा है, लेकिन व्यापक चित्र में इन शहरी लोगों की अपनी समस्याएं समयसमय पर उभरती रही हैं, और ये समस्याएं उन रीतिनीति और कुप्रबंधन के चलते पैदा हुईं जो भाजपा सरकार द्वारा चलाए शासन के जरीए यहां के लगातार लोग ढोते आ रहे हैं.

इस के साथ ही पंजाब के जिन इलाकों में सरिता टीम गई उन शहरी इलाकों में सरकार द्वारा जबरन थोपे गए कृषि कानूनों से तो लोग खफा थे ही किंतु साथ ही वे बढ़ती महंगाई से परेशान भी थे. इस का कारण वे केंद्र की आर्थिक नीतियों की नाकामियों को मान रहे थे. लोगों का कहना था कि अगर कृषि कानून नहीं भी होते तो भी निकाय चुनावों के परिणाम लगभग ऐसे ही आने थे, क्योंकि कृषि कानूनों के अलावा भी महंगाई, पैट्रोलडीजल के बढ़ते दाम, बेरोजगारी, ठप पड़ा व्यापार, घटिया आर्थिक नीतियां इत्यादि समस्याएं पूरे देश में पसरी पड़ी हैं. 5 नदियों की इस धरती पर केंद्र में मोदी के सत्ता में आने के बाद 2017 से देखने को मिल रहा है कि यहां लोग कमोबेश आइडैंटिटी और रिलीजियस पौलिटिक्स की जगह अपने स्थानीय मुद्दों पर अधिक जोर दे रहे हैं. यह हाल लोकसभा से ले कर पंचायत चुनाव तक में देखने को मिल रहा है. इस का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कांग्रेस के आलाकमान का योगदान पंजाब में हाथ की छठी उंगली के बराबर है जिस का वजूद तो है लेकिन किसी प्रकार की भूमिका नहीं है. फिर भी वह पूर्ण बहुमत से जीत रही है. लेकिन भाजपा पार्टी ने जब अपने आलाकमान नेताओं को यहां प्रचारितप्रसारित करने की कोशिश की तो लोगों ने उन्हें सिरे से नकार दिया.

इस निकाय चुनाव में पंजाब के शहरी लोगों का कांग्रेस को यों समर्थन देना, कांग्रेस के प्रति जनभावना से कहीं अधिक भाजपा के खिलाफ आक्रोश का होना देखा जा सकता है. यही कारण भी है कि कुछकुछ सीटों में तो भाजपा का वोट डबल डिजिट तक भी नहीं पहुंच पाया. यहां लोगों ने भाजपा को हराने के लिए अपने वोटों को न सिर्फ एकजुट किया बल्कि ऐसी पार्टी को जीत का ताज दिया जो राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा की मुखालफत कर सके. अब प्रश्न यह कि क्या पंजाब का हिंदू अब भाजपा की उस डिवीसिव पौलिटिक्स यानी बंटवारे की राजनीति को सम?ा चुका है जिस के फेर में फंस कर वह हमेशा बेवकूफ बन जाया करता था. कृषि कानूनों के बाद पंजाब में चल रहे आंदोलन से और उस आंदोलन को भाजपा सरकार द्वारा दबाए जाने से एक चीज, जो खासकर पंजाब में उभर कर सामने आई वह यह कि वोटर के जेहन से भाजपा को वोट देने का मौरल ग्राउंड खत्म हो गया है. भाजपा की वह तथाकथित राष्ट्रवादी छवि धूमिल होने लगी जिस आधार पर वह वोट मांगती है और इस के धूमिल होते ही उस की सभी गलत आर्थिक नीतियां और कुप्रबंधन लोगों के सामने स्पष्टरूप से दिखाई देने लगे जिसे सरकार 7 सालों से लोगों पर थोपती आ रही है. कहा जा सकता है कि इस आंदोलन ने शीशे पर लगी धूल की मोटी परत को साफ करने का काम किया है और उस कुरूप चेहरे को सामने ला खड़ा किया है जो भाजपा लंबे समय से लोगों से छिपाती आ रही थी.

कुप्रबंधन के कई चेहरे इस का एक बड़ा असर यह हुआ कि पंजाब के जिन निकायों में चुनाव हुआ वहां हिंदू वोटर होने के बावजूद भाजपा हैदराबाद निकाय चुनाव की तर्ज पर अपने भ्रामक प्रचार नारा ‘जय श्री राम’ को लगाने से दूर रही. इस चुनाव में पहले ही जीत की उम्मीद खो चुके भाजपा के बड़े नेताओं ने अपने कैंडिडेट्स का साथ नहीं दिया और न ही प्रचारप्रसार किया. विरोध का स्तर इतना था कि भाजपा के जीते सांसद भी अपने नगर इकाइयों में न तो प्रचार कर पाए और न ही अपने कैंडिडेट्स जिता पाए. उलटा, यह देखने में आया कि जिन जगहों से भाजपा के सांसद जीते थे वहां से भाजपा एक भी सीट नहीं जीत पाई. गुरदासपुर इस का बेहतरीन उदाहरण है. इस का एक कारण यह भी था कि वहां आम लोगों को फिरोजपुर में रोका गया. वहीं जमीनी और नगरीय स्तर पर भाजपा के पास अपना काम दिखाने के लायक कुछ बचा ही नहीं था. इस के चलते वहां भाजपा के पास न तो कहने के लिए कुछ था और न ही दिखाने लायक कुछ. इन दबी कुंठाओं में वे परिघटनाएं हैं जिन से पंजाब के लोग ही नहीं, पूरे देश के लोग ग्रसित हुए. जिन में नोटबंदी, जीएसटी, लौकडाउन, गिरती अर्थव्यवस्था, बढ़ती महंगाई व बेरोजगारी मुख्य कारण हैं. कुप्रबंधन के चलते शहर से ले कर दूरदराज के गांवों तक में लोगों को भारी तकलीफों का सामना करना पड़ा. भाजपा सरकार के कुप्रबंधन को इन्हीं कुछ घटनाओं से सम?ा जा सकता है जिस ने आम लोगों की रोजमर्राई जिंदगी दुश्वार कर रखी है. भाजपा के केंद्र में आने के बाद 8 नवंबर, 2016 की रात 8 बजे प्रधानमंत्री ने मात्र 4 घंटे के नोटिस पर देश में 500 और 1,000 रुपए के नोटों को अवैध घोषित कर दिया.

इस नोटबंदी के क्या फायदे व नुकसान हुए, वह अलग मसला है लेकिन सरकार द्वारा जैसा कुप्रबंधन इस दौरान देखा गया उस ने भाजपा द्वारा सरकार चलाने के मैनेजमैंट स्किल्स पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए. नोटबंदी के 50 दिनों के भीतर सरकार ने 74 बार नियमकानूनों में फेरबदल किए. कथित भ्रष्टाचार को खत्म करने के मकसद से की गई नोटबंदी ने एक नए प्रकार के भ्रष्टाचार को जन्म दिया. मार्केट में लंबे समय तक नई करैंसी फ्लो नहीं हो पाई और दूरगामी इस का प्रभाव इकोनौमी पर देखने को मिला. लोगों ने नौकरियां गंवाईं, लाइन में लगेलगे लोगों ने जीवन गंवाया, छोटे व्यापारियों की कमर टूट गई और जिस उद्देश्य से नोटबंदी की गई उस का अभी तक कोई अतापता नहीं चल पाया. इसी प्रकार, लौकडाउन भाजपा सरकार के कुप्रबंधन का अब तक का सब से बड़ा जीताजागता उदाहरण है जिसे विचारते हुए अपना सिर पीटने का मन करता है. 24 मार्च, 2020 की रात 8 बजे प्रधानमंत्री मोदी ने देश में 21 दिनों के लिए संपूर्ण लौकडाउन का ऐलान कर दिया जिसे 8 जून को पहले अनलौक तक आगे बढ़ाया गया. एकाएक देश में सबकुछ बंद हो गया.

सरकार ने बिना किसी नोटिस जारी किए लोगों को उन्हें उन के घरों में कैद कर दिया जिस के भयंकर परिणाम निकले. लाखों की संख्या में लोगों की नौकरियां चली गईं. इन्फ्लेशन (मंदी) की स्थिति पैदा हो गई. इकोनौमी ठप पड़ गई. करोड़ों प्रवासी मजदूर सैकड़ों किलोमीटर दूर भूखेप्यासे, पैदल, लाठीडंडा खाते हुए अपने घरगांव जाने को मजबूर हुए. 30 जनवरी, 2020 को देश में पहला कोविड का केस सामने आया. लेकिन 24 मार्च तक सरकार ने कोविड से बचने के कोई उपाय नहीं किए. बजाय इस के, मोदी अमेरिका के तत्कालीन प्रैसिडैंट डोनाल्ड ट्रंप पर करोड़ों रुपए लुटा उन का चुनाव प्रचार करने में व्यस्त थे. यदि 30 जनवरी के बाद ही स्थिति को कंट्रोल कर लिया जाता तो नैशनवाइड लौकडाउन की जरूरत ही न पड़ती. लौकडाउन के बाद जो स्थितियां पैदा हुईं उन्हें सरकार कंट्रोल नहीं कर पाई और यही लौकडाउन भाजपा सरकार का सब से बड़ा मिसमैनेजमैंट साबित हुआ. हाल ही में हर दिन पैट्रोलडीजल के बढ़ते दामों और बढ़ती महंगाई ने आम जनता की बचीखुची जमापूंजी की आखिरी बूंद निकाल बाहर करने का काम किया है. लोगों के पास रोजगार नहीं है. जिन्हें काम मिल भी रहा है वे बहुत कम मेहनताने में काम करने को मजबूर हैं.

और ऐसे में पैट्रोलडीजल के बढ़ते दामों ने जरूरत की सभी चीजों को महंगा कर दिया है. नाराजगी पौराणिक पौलिसियों पर जब से भाजपा सत्ता में आई है तब से उस का पूरा जोर धार्मिक एजेंडे की पौलिसीज बनाने पर है. जो पूंजीवादी साम्राज्यवाद के लिफाफे में साथ हैं. उदाहरण के लिए सीएए-एनआरसी, लव जिहाद, धारा 370, गौरक्षा, आयुर्वेद विज्ञान, ट्रिपल तलाक, आरक्षण विरोधी, धर्मांतरण इत्यादि जैसे मुद्दे ही सरकार ने हमेशा प्राथमिक बनाए रखे हैं जो समाज को जाति, धर्म, लिंग इत्यादि के आधार पर बांटते हैं. इस पूरी लिस्ट में अब कृषि कानून भी शामिल है. दरअसल इन पौराणिक मानसिकता वाले सत्ताधारियों को किसानों से कोई लेनादेना नहीं है. यहां तक कि मनुस्मृति में कृषि का काम ब्राह्मणों के लिए पाप कहा गया है. पराशर स्मृति में कहा गया है कि, ब्राह्मणश्चेत्कृषिं कुर्यात्तान्महादोषमाप्नुयात् ॥8॥ संवत्सरेण यत्पापं मत्स्यघाती द्धमालुयात्। अयोमुखेन काष्ठने तदेकाहेन लांगली ॥11॥ पाशकोमत्स्नघाती च व्याधा: शकुनिकस्तथा। अदाताकर्षकश्चेव पंचैते समभागिन ॥13॥2॥ अर्थात, ब्राह्मण अपने हाथों से हल जोत कर कृषि करे तो महापापी हो जाता है. मछलियां मारने वाला एक वर्ष तक जितने पाप का भागी होता है, उतने ही हल जोतने वाला एक ही दिन में हो जाता है.

फंदे से जंतुओं को पकड़ने वाला, मत्स्यघाती, बहेलिया, चिड़ीमार और कृषण हो कर अपने हाथ खेती करने वाला ये पांचों बराबर हैं. इन आदेशों से यह जाहिर होता है कृषि धार्मिक ग्रंथों के हिसाब से ब्राह्मणों के लिए अपवित्र काम माना गया है. जिस से यह साफ हो जाता है कि कृषि कानूनों का निर्माण करने वाले को किसानों के जीवन में क्या फर्क पड़ेगा या नहीं, इस की कोई चिंता नहीं है. किसानों के प्रति दुर्भावना और उदासीनता का कारण भी वही पौराणिक कथाएं हैं जिन्हें पढ़ कर भाजपा नेतृत्व तैयार हुआ है. दक्षिणी राज्यों की तरह पंजाब का वोटर कभी इन धार्मिक ?ांसों में नहीं आया. इसलिए नहीं कि वहां सिख ज्यादा हैं, बल्कि इसलिए कि वह धर्म, जाति, संप्रदाय, क्षेत्र और भाषा के नाम पर वोट नहीं करता. वह अपने स्वाभिमान व हितों को प्राथमिकता देता है. यही मानसिकता अब पंजाब के हिंदुओं की भी हो गई है और यह सिलसिला मार्चअप्रैल में होने जा रहे 5 राज्यों- पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, असम सहित पुदुचेरी जहां भाजपा की हालत पंजाब सरीखी ही है, में जारी रहा तो भाजपा का हिंदू राष्ट्र का सपना हिंदी इलाकों में भी दम तोड़ देगा.

डिवीसिव पौलिसी कभी भी सामाजिक और आर्थिक उद्धार का कारण नहीं बन सकती. जब समाज आपस में बंटता है तो हर समुदाय की अपनी जरूरतें होती हैं, जिन को पूरा कर पाना किसी भी सरकार के लिए चैलेंजिंग होता है. यह इस बात पर सब से अधिक निर्भर करता है कि सत्ता किन लोगों के हाथों में है. उसी से ही डिवीसिव सोसाइटी को ले कर पौलिसीज के निर्माण में प्राथमिकताएं तय होती हैं. इस समय सत्ता पौराणिक मानसिकता वाले लोगों के हाथों में है. जिन की समाज को बांटे रखना ही प्राथमिकता है. भाजपा बेहद हिंसक रूप से यह खेल पश्चिम बंगाल में खेल रही है. पता नहीं कि पंजाब की तरह बंगाल के लोग इस ?ांसे में ज्यादा आएंगे या नहीं. भाजपा संघ की टौप लीडरशिप उन ग्रंथों, पुराणों, स्मृतियों को पढ़ व उन्हें आत्मसात कर यहां तक पहुंची है जिन में समाज को बांटे रखने के कायदेकानून मौजूद हैं. इन्हीं समृतियों व पुराणों में सवर्णों के राजपाट की बातें हैं. ये वही पुराण व ग्रंथ हैं जिन में वर्ण व जातियों के आधार पर काम के बंटवारे को ले कर अधिकारों व सीमाओं की लंबीचौड़ी व्याख्याएं दी गई हैं. इन ग्रंथों में दलितों और महिलाओं को गुलाम सम?ा गया और उन्हें सवर्णों की संपत्ति माना गया है.

उन पर तमाम तरह की बंदिशें लगाई गई हैं. इन्हीं स्मृतियों में शूद्रों के हिस्से सेवा और ब्राह्मणों के हिस्से मेवा की बात की गई है. काम के बंटवारे को ले कर ब्राह्मणों के हिस्से आराम करना, सेवा करना, पूजापाठ करवाना, ज्ञान (पाखंड) परोसना व पढ़ना है. वहीं, समाज के निचले तबकों के हिस्से परिश्रम करना, दुत्कार ?ोलना, सेवा करना, अछूत होना और अंत में मर जाना है. मौजूदा सत्ता का इंटरैस्ट समाज को हर प्रकार से बांटे रखना है ताकि मूल मुद्दे इस के नीचे दब कर रह जाएं. लोग भाजपाइयों के भटकाऊ मुद्दों को अपनी अस्मिता सम?ा उस में उल?ो रहें और ये अपने वेस्टेड इंटरैस्ट यानी पौराणिक रीतिनीतियों को लागू करने के साथ धर्मजीवी बन कर पुराने ढर्रे पर चीजें चलाते रहें. पंजाब निकाय चुनाव में भाजपा की हार से यह तय हो जाता है कि पंजाब की शहरी जनता, जिन में अच्छीखासी आबादी हिंदुओं की ही है, ने ही भाजपा की डिवीसिव पौलिटिक्स को नकार कर मुद्दों पर वोट किया है. वहीं, जिन जगहों पर यह भटकाऊ पौलिटिक्स हावी है वहां भाजपा अभी भी किसी न किसी तरह से जीतती दिखाई दे रही है. पंजाब की शहरी हिंदू जनता अब भाजपा की उस घटिया पौलिटिक्स से परेशान हो चुकी है, त्रस्त हो चुकी है जिस का शिकार वह लंबे समय से हो रहे थे. जनता को अब यह सम?ा में आ चुका है कि उस के घर का चूल्हा ‘ट्रिपल तलाक, धारा 370, लव जिहाद, आयुर्वेद विज्ञान’ जैसे मुद्दों से नहीं जलने वाला और न ही मंदिरमसजिद की राजनीति करने वालों का साथ दे कर जलने वाला है.

पंजाब के किसानों के साथ शहरी आबादी अब सम?ा चुकी है कि घर के बाहर चाहे जितना भी मोदीमोदी कर लो, घर का राशन मोदी के नाम पर नहीं, बल्कि जेब के पैसों से आता है. जिस तथाकथित शेर को भाजपा के आईटी सैल पलवाने की कोशिश में हैं, उस का खर्चा उठाने की हिम्मत अब लोगों में रही नहीं. वे अब यह सम?ा चुके हैं कि मोदी का नाम ले कर या उन की तारीफ कर पैट्रोल पंप वाला सस्ते में पैट्रोलडीजल नहीं देगा. गैस सिलैंडर, सब्जियां, चावलआटा इत्यादि जरूरत की चीजें खरीदते समय लोग अपने जेब का वजन हलका होते हुए महसूस करने लगे हैं. भाजपा पाखंडअंधविश्वास दे सकती है लेकिन एक जनकल्याणकारी जीवन देना, शिक्षा देना, स्वास्थ्य देना, स्वस्थ वातावरण देना, प्रबंधन देना भाजपा के बूते की बात नहीं है. द्य अमरिंदर बने हीरो उत्तरी भारत में पंजाब इकलौता राज्य है जहां भगवा गैंग को हमेशा मुंह की खानी पड़ती है और कांग्रेस पिछले 5 चुनावों से जीतती आ रही है. इस में कोई शक नहीं कि देशभर में कांग्रेस अपने सब से बुरे दौर से गुजर रही है लेकिन पंजाब उसे हिम्मत देता रहा है. तो इस की एक बड़ी वजह तेजतर्रार मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी हैं जिन की साख व लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर की परवा न करते हुए उन्होंने भाजपाई दिग्गज अरुण जेटली को अमृतसर सीट से पटखनी दे कर देश को चौंका दिया था. इस के बाद 2017 के विधानसभा में भी उन्होंने कांग्रेस को सत्ता दिला दी थी बावजूद इस के कि उस वक्त कांग्रेस अंदरूनी कलह का शिकार थी.

हालिया निकाय चुनाव में अमरिंदर सिंह ने न खुद को एक बार फिर साबित कर दिया है बल्कि अकाली दल और भाजपा को यह एहसास भी करा दिया है कि उन के छलप्रपंच पंजाब में नहीं चलने दिए जाएंगे. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में भी उन्होंने भाजपा को यहां पांव नहीं पसारने दिए थे. यह एक बड़ी वजह है जिस के चलते पंजाब के किसान बेधड़क हो कर आंदोलनरत हुए और भाजपा का हिंदू वोटबैंक भी सचेत हो गया.

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