लेखक-रोहित और शाहनवाज

अग्रलेख पंजाब चुनाव अब शहरी भी नाराज पंजाब की राजनीति आमतौर पर राष्ट्रीय राजनीति से मेल नहीं खाती और न ही किसी लहर या आंधी से प्रभावित होती है. वजह साफ है कि वहां का वोटर हिंदुत्व मुद्दों पर वोट नहीं करता. हालिया निकाय चुनाव में भी यही हुआ. कैसे हुआ, पढि़ए इस खास रिपोर्ट में : 17 फरवरी को पंजाब के निकाय चुनाव के परिणामों में कांग्रेस को मिली बड़ी जीत के माने सिर्फ कांग्रेस की जीत की नजर से देखा जाना ठीक नहीं होगा. इस में भाजपा व उस के भूतपूर्व सहयोगी अकाली दल को मिली करारी हार की चर्चा रत्तीभर भी कम नहीं होनी चाहिए. जिन शहरी नगर इलाकों में चुनाव हुए वहां के अधिकतर समीकरण उस राजनीति के एंगल से सटीक बैठते हैं जो भारतीय जनता पार्टी आम लोगों पर हमेशा थोपती आई है.

वहीं, यह भी कि अगर यह कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध था तो इन कानूनों का खुल कर विरोध किए जाने के बावजूद अकाली दल और आप के खराब प्रदर्शन की वजह क्या रही? खैर, इस बिंदु पर चर्चा आगे की जाएगी, उसे पहले उस बिंदु को बताया जाना जरूरी है जो इस निकाय चुनाव में सब से पहले आमराय बन कर उभरा है. आमतौर पर इस चुनाव परिणाम के पीछे किसान आंदोलन का हावी होना माना जा रहा है, देश की राजधानी दिल्ली के बौर्डर पर महीनों से किसान आंदोलित हैं और इस ऐतिहासिक किसान आंदोलन के जनक, एक प्रकार से कहें तो, पंजाब के किसान रहे जिन्होंने सब से पहले नए विवादित कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन की शुरुआत की और तमाम आरोपों, दमन व सरकार द्वारा चलाई साजिशों के बाद भी अपने आंदोलन को जारी रखा. लेकिन क्या यह इस निकाय चुनाव की पूर्णरूपेण सचाई है? क्या इन निकाय चुनावों में कृषि कानून के विरोध में उठी यह आवाज शहरों के निकायों में इतना बड़ा फेरबदल करने में सक्षम रही कि भाजपा बुरी तरह धराशायी हो गई?

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