लेखन साबित करता है कि गुलामी के दौर यानी अंगरेजों की हुकूमत के समय में भी मीडिया आज से ज्यादा स्वतंत्र था. आज का शासन जालिम है. उस की दोषपूर्ण नीतियों के खिलाफ कोई कुछ बोल या लिख दे, तो उसे देशद्रोही करार दे दिया जाता है जबकि प्रेमचंद ने अपने जीवनकाल में शासन पद्धति की कड़ी आलोचना करते हुए किसानों के पक्ष में खूब लिखा. एक नजर मुंशी प्रेमचंद की लेखनी पर. किसान अनाज उगाता है. उस अनाज को पूरा देश खाता है. इंडिया कितना भी डिजिटल हो जाए, रोटी डाउनलोड नहीं की जा सकती. अगर देश का किसान किसी मुसीबत में पड़ेगा तो देश के रहने वाले भी मुसीबत में पड़ेंगे.
अभी भी अनाज किसान के पास सस्ता ही मिलता है. वह व्यापारी के पास जा कर महंगा हो जाता है. 15 रुपए किलो बिकने वाले गेहूं से तैयार आटा जब कंपनी बेचती है तो 40 रुपए किलो कीमत का हो जाता है. कृषि कानूनों की आड़ में खेती का निजीकरण होगा, तो अनाज उगाने से ले कर बेचने तक का काम निजी कंपनियों के हाथों में होगा. और फिर महंगाई पर किसी का नियंत्रण नहीं रह जाएगा. लोग कृषि कानूनों की जिस लड़ाई को किसानों की सम?ा रहे हैं, वह उन की अपनी लड़ाई भी है. आज किसानों के पक्ष में न उपभोक्ता खड़े हैं और न ही मीडिया. आज से 80-90 साल पहले कहानीकार प्रेमचंद ने अपनी हर कहानी व उपन्यास में किसानों के शोषण पर जमींदार व शासन व्यवस्था की चोट का जिक्र किया था.
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आज ‘सब से तेज’, ‘सब से पहले’, ‘सब से भरोसेमंद और ‘देशभक्ति’ की बात करने वाले टीवी न्यूज चैनलों व उन के एंकरों ने किसानों के पक्ष में खड़े होने के बजाय सरकार की गोद में बैठना सही सम?ा. इन चैनलों पर बैठे अंजना ओम कश्यप, सुधीर चौधरी, अर्णब गोस्वामी, रूबिका लियाकत जैसे एंकर किसान से अधिक सरकार के पक्ष में खड़े दिखे. वे सरकार से सवाल पूछने व किसानों की मदद करने के बजाय किसानों को खालिस्तानी, पाकिस्तानी और चीनी समर्थक बताने वाली बहस आयोजित करते रहे. अपने जमाने में प्रेमचंद ने किसानों की व्यथा को सम?ा था. आज का पौराणिकजीवी मीडिया किसानों की ही नहीं, किसानों के पक्ष में बोलने वालों की आवाज को भी दबाने का काम करता है. एबीपी न्यूज पर रूबिका लियाकत ने आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह को एक बहस के दौरान बोलने से मना किया तो संजय सिंह ने उन के चैनल को बिका हुआ चैनल बताया.
संजय सिंह ने कहा, ‘तुम अडानी और मोदी की गुलाम हो.’ इस बहस में रूबिका लियाकत ने संजय सिंह से सवाल पूछे पर भाजपा के प्रवक्ता से कोई सवाल नहीं पूछा. आजतक के कार्यक्रम ‘हल्लाबोल’ में अंजना ओम कश्यप ने बहस के दौरान यह साबित करने का काम किया कि किसान आंदोलन राजनीति से प्रेरित है. ‘किसान आंदोलन का कैप्टन कौन’ कार्यक्रम में अंजना ने किसान आंदोलन को पंजाब व कांग्रेस के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह से प्रेरित बता कर आंदोलन की शुरुआत में उस को पंजाब और हरियाणा तक सीमित बताया. उस समय किसानों पर आंसू गैस व पानी की बौछार हो रही थी. चैनलों की बहस में किसानों के आंदोलन को हाशिए पर ढकेलने का काम किया गया. ऐसी ही बहसों का आयोजन सुधीर चौधरी और अर्णब गोस्वामी जैसे कई दूसरे एंकर भी करते रहे. मीडिया की सचाई सम?ाने के बाद किसानों ने चैनलों के रिपोर्टरों को आंदोलन वाली जगह पर घुसने से मना कर दिया. हालत यह हो गई कि चैनल के रिपोर्टरों को अपना माइक व आइडी को छिपा कर किसानों के बीच जाना पड़ा.
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चैनलों ने किसान आंदोलन को विदेशों से प्रेरित बताया. यही नहीं, उन्होंने इस को सरकार गिराने की अंतर्राष्ट्रीय साजिश बताने का काम किया. इस के लिए विदेशी लोगों द्वारा किए गए ट्वीट को आधार बनाया गया. इस में पौप सिंगर रिहाना जैसे तमाम विदेशी और दिशा रवि जैसे समाजसेवियों को निशाने पर लिया गया. दिशा रवि पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया. यहां भी मीडिया सरकार के ही पक्ष में खड़ा दिखाई दिया. गुलामी के युग में भी प्रेमचंद ने किसानों के मुददों को ले कर जिस तरह का लेखन किया, आज की आजाद पत्रकारिता के दौर में मीडिया के लिए इतना लिखना संभव नहीं है. प्रेमचंद की कहानियों को ले कर उस दौर में ऐसा खौफ सत्ता का नहीं था जितना सोशल मीडिया पर कुछ मैसेज लिखने के बाद केंद्र सरकार बना रही है. धनपत राय श्रीवास्तव, जिन को प्रेमचंद के रूप में जाना जाता है, का जन्म 1880 में हुआ और 1936 में इन की मृत्यु हुई.
प्रेमचंद ने 300 से अधिक कहानियां लिखीं. 1918 से ले कर 1936 तक 30 सालों का सफर कथा साहित्य में ‘प्रेमचंद युग’ के नाम से जाना जाता है. यह दौर वह था जब देश गुलाम था. आजादी के लिए सामाजिक और क्रांतिकारी आंदोलन हो रहे थे. अंगरेजों के जुल्म वाले युग में भी प्रेमचंद जमींदारों और कर्ज देने वालों के खिलाफ खुल कर लिख रहे थे. उन के साहित्य में किसान और उस की परेशानियां केंद्र में रहती थीं. आज के किसान आंदोलन के समय देश आजाद है. संविधान ने अभिव्यक्ति की आजादी भी दे रखी है. इस के बाद भी किसानों के समर्थन में ट्वीट करने वालों तक के खिलाफ राष्ट्रद्रोह का मुकदमा लिखा दिया गया. आज के आजादी वाले दौर से कहीं बेहतर प्रेमचंद के समय वाला युग था जहां वे खुल कर किसानों के हित की बात लिख लेते थे. हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कहानीकार प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में पिछड़ी जातियों के किसानों को ही अपना पात्र बनाया था. समाज में किसानों की हालत को सम?ाने के लिए प्रेमचंद की कहानियों से सटीक कोई दूसरा जरिया नहीं है.
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प्रेमचंद की कहानियों में किसानों के जीवन के विभिन्न रंगों का चित्रण किया गया है. प्रेमचंद की कहानियों से ही समाज में किसानों की हालत का पता चलता है. जिस तरह से आज किसान महीनों से आंदोलन कर रहे हैं और सत्ता में बैठे लोग उन्हें ‘देशद्रोही’, ‘परजीवी’ और ‘कीड़ेमकौड़े’ बोल रहे हैं, उस से साफ है कि प्रेमचंद के जमाने के किसान की हालत और आज के किसान की हालत में कोई फर्क नहीं है. प्रेमचंद की कहानियों में किसान को पौराणिक व्यवस्था और कर्ज की आड़ में ब्राह्मण व बनिया परेशान करते थे. आज खेती में सुधार के नाम पर कृषि कानून लागू होने के बाद प्राइवेट कंपनियां ही किसानों की भाग्यविधाता हो जाएंगी. किसानों की मनोदशा और व्यवस्था का दंश पे्रमचंद ने ‘गोदान’ में एक जगह किसान के आर्थिक शोषण को बहुत ही तार्किक व रचनात्मक तरह से पेश करते हुए लिखा.
महाजन एक किसान को 5 रुपए देते हुए कहता है ‘ये 10 रुपए हैं, घर जा कर गिन लेना.’ किसान रुपए गिनने की जिद करता है क्योंकि रुपए कम होते हैं. महाजन उसे 10 रुपए का हिसाब सम?ाते हुए कहता है, ‘एक रुपया नजराने का हुआ कि नहीं?’ किसान जवाब देते कहता है, ‘हां, सरकार.’ इस के बाद महाजन एकएक कर कहता है, ‘एक रुपया तहरीर का?’ किसान फिर जवाब देता है, ‘हां सरकार.’ महाजन अगला जवाब देता है, ‘एक रुपया कागज का?’ किसान उत्तर देता है, ‘हां सरकार.’ महाजन चौथे रुपए का हिसाब देते कहता, ‘एक दस्तूरी का?’ किसान हामी भरते कहता है, ‘हां सरकार.’ और अंत में महाजन कहता है, ‘एक रुपया सूद का?’ किसान चकित होते हुए गुस्से में कहता है, ‘
हां, सरकार.’ महाजन फिर किसान को सम?ाते हुए कहता है, ‘5 नकद, 10 हुए कि नहीं?’ आधी रकम महाजन पहले से ही हड़प जाता है. उस के बाद किसान के पास आधी (5 रुपए) रकम भी नहीं बचती क्योंकि कुछ और रस्में भी होती हैं. पे्रमचंद ने किसान की दुर्दशा व्यक्त करते यह सब दिखाया जो उस समय चलन में था. महाजन को जवाब देते किसान कहता है, ‘नहीं सरकार, एक रुपया छोटी ठकुराइन के नजराने का, एक रुपया बड़ी ठकुराइन के नजराने का, एक रुपया छोटी ठकुराइन के पान खाने का, एक रुपया बड़ी ठकुराइन के पान खाने का, बाकी बचा एक, वह आप की क्रियाकरम के लिए’. पे्रमचंद ने किसानों के दुख और व्यवस्था के दंश को ऐसे ही अपनी हर कहानी में व्यक्त किया है. ‘गोदान’ उपन्यास में मुख्य पात्रों का चयन बहुत अद्भुत तरह से किया गया है.
कहानी का मुख्य नायक होरी है. धनिया होरी की पत्नी और गोबर, सोना, रूपा इन के बच्चे हैं. ?ानिया गोबर की पत्नी यानी भोला की विधवा बेटी का नाम है. होरी के भाई हीरा और शोभा हैं. मालती, मेहता, साहूकार, ?िांगुरी सिंह, पंडित दातादीन, लाला पटेश्वरी, दुलारी सहुआइन गोदान के दूसरे महत्त्वपूर्ण पात्र हैं. कहानी में होरी की इच्छा पछाई गाय लेने की थी. होरी ग्वाला भोला से गाय लाया था. होरी के गांव का नाम बेलारी था. यह गांव भी नहीं एक पुरवा था जिस में 10-12 आधे खपरैल और आधे फूस के घर थे. मालती व मेहता लखनऊ में रहते हैं. राय साहब सेमरी गांव में रहते हैं. ‘गोदान’ उपन्यास यथार्थवाद उपन्यास है, न कि आदर्शवाद. उपन्यास में महाजनी सभ्यता का विरोध हुआ है. कृषक की आर्थिक समस्या का चित्रण हुआ है. यह उपन्यास किसानों की समस्या पर आधारित है. 1936 में लिखे गए इस अंतिम उपन्यास की कथावस्तु किसानों की समस्या है. होरी के पास 5 बीघा जमीन थी. गांव और कथा और शहर की कहानी साथसाथ चलती है उपन्यास में शोषण व अन्याय के विरुद्ध नई पीढ़ी के विद्रोह व असंतोष को दिखाया गया है.
धर्म पर कटाक्ष प्रेमचंद ने केवल महाजन पर ही कटाक्ष नहीं किया. सरकारी नौकरों के किसान और गांव के संबंधों के बारे में लिखा है. उन की कहानियों में यह दिखाया गया कि धर्म के नाम पर पूजापाठ करने वाले लोग भी किस तरह से गलत काम करते हैं. एक जगह ‘गोदान’ में रामसवेक महतो किसान के इस शोषण के संबंध में कहता है, ‘यहां तो जो किसान है, वह सब का नरम चारा है. पटवारी को नजराना और दस्तूरी न दे, तो उस का गांव में रहना मुश्किल. जमींदार के चपरासी और कारिंदों का पेट न भरे, तो निबाह न हो. थानेदार और कौंस्टेबल तो जैसे उस के दामाद हैं,
जब उन का दौरा गांव में हो जाए, किसान का धरम है कि वह उन का आदरसत्कार करे, नजरनियाज दे, वरना एक रिपोर्ट में गांव का गांव बंध जाए.’ ‘गोदान’ का होरी अपनी मर्यादा बचाने के लिए आजीवन संघर्ष करता है, लेकिन उस की मर्यादा आखिर में तारतार हो उसे ग्लानिबोध से पीडि़त करती है. उस के गांव का पुरोहित दातादीन बहुत धूर्त व चालाक है. किसान को ठगने के सारे हथकंडों से वह परिचित है. सो, वह चोरी तो न करता था क्योंकि उस में जान का जोखिम था, पर चोरी के माल में हिस्सा बंटाने अवश्य पहुंच जाता था. कहीं पीठ में धूल न लगने देता था. पे्रमचंद ने अपनी कहनियों में यह भी दिखाया है कि धार्मिक कामों में लगे लोग भी भ्रष्टाचार में डूबे हैं.
लाला पटेश्वरी भी हर पूर्णिमा को सत्यनारायण की कथा सुनते, दूसरी ओर असामियों को आपस में लड़ा कर अपना स्वार्थ सिद्ध करते. यही धार्मिक अलम्बरदार समाज के नियामक हैं तथा होरी जैसे भोलेभाले किसान इन के षड्यंत्रों में फंस कर पिसते जाते हैं. गोबर द्वारा विधवा ?ानिया से विवाह कर लेने पर ये बिरादरी के दंड के रूप में होरी को लूट लेते हैं. होरी यह सब जानता है, लेकिन बिरादरी का भय उस पर इस कदर हावी है कि वह कहता है, ‘हम सब बिरादरी के चाकर हैं, उस से बाहर नहीं जा सकते… आज मर जाएं, तो बिरादरी ही तो इस मिट्टी को पार लगाएगी.’ व्यवस्था पर चोट करती हर कहानी भारत का सब से बड़ा वर्ग किसान है. प्रेमचंद ने इस कृषि के कर्ताधर्ता किसान को अपने उपन्यासों व कहानियों का मुख्य किरदार बनाया था. उन के पहले तथा उन के बाद किसी भी रचनाकार ने प्रमुखता से किसान को केंद्र में नहीं रखा. हिंदी में किसानों की समस्याओं पर ज्यादा कहानियां लिखी नहीं गईं. जो लिखी भी गईं,
उन में प्रेमचंद की सू?ाबू?ा नहीं दिखी. ‘प्रेमाश्रम’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’ जैसे साहित्य में पे्रमचंद ने किसानों की जटिलताओं को दिखाने का प्रयास किया है. पे्रमचंद ने अपनी कहानियों में किसानों के शोषण व उत्पीड़न को चित्रित किया. उन्होंने कहानियों में समस्या का समाधान भी दिखाया है. पे्रमचंद की कहानियों में किसानों के शोषक वर्ग में सामंतों, पुरोहितों एवं महाजनों की कारगुजारियों को प्रमुख रूप से दिखाया गया है. पे्रमचंद के किसान छोटे सीमांत किसान रहे हैं जिन के पास कम जमीन थी. वे परिवार की मदद से खेती करते थे. 5 बीघे के आसपास की खेती के वे मालिक भी होते थे. वह मेहनतकश किसान था. उस की हैसियत इतनी नहीं होती कि वह अपनी खेती के लिए मजदूर रख सके. खेती को करने के लिए उसे गांव के ही महाजन से कर्ज लेना पड़ता था. जिस के ब्याज की दर किसान पर भारी पड़ती थी.
कहानी ‘सवा सेर गेहूं’ में प्रेमचंद ने कर्ज और ब्याज की गणना और इस से उपजने वाली त्रासदी को दिखाने का काम किया है. जमींदारों के सामनेनहीं ?ाके प्रेमचंद किसान आंदोलन के समय आज जैसी पत्रकारिता हो रही, इसी तरह अगर उस दौर में पे्रमचंद ने अपनी कहानियों में किसान की जगह सेठ और व्यवस्था चलाने वालों का साथ दिया होता तब उस जमाने के किसान की सचाई कभी सामने न आ पाती. पे्रमचंद की कहानियों में ‘किसान’ के साथ ही साथ ‘जमींदार’, ‘मजदूर’ और ‘बनिया’ का भी चित्रण होता है. कहानी में किसानों की सचाई दिखाने में फेरबदल नहीं किया गया है. आज के संदर्भ में पे्रमचंद की कहानियों के जरिए हालात को सम?ा जा सकता है. पे्रमचंद का मानना था कि भारत को कृषिप्रधान बनाने में किसानों की ही प्रमुख भूमिका थी. ‘जमींदार’ और ‘बनिया’ केवल अपने लाभ के लिए काम करते थे. पे्रमचंद के दौर में भी जमीन के बड़े हिस्से के मालिक ‘जमींदार’ और ‘बनिया’ भी होते थे.
वे खेती नहीं करते थे. ऐसे में उन को किसान नहीं कहा जाता था. पे्रमचंद ने किसान उसी को माना था जो हल की मुठिया पकड़ कर खेत की जोताई करता था. ‘जमींदार’ और ‘बनिया’ मजदूरों के सहारे ही खेती करवाते थे. हल चलाने, बीज बोने और फसल काटने जैसे काम मजदूर वर्ग ही करता था. खेतिहर मजदूर ज्यादातर भूमिहीन थे. उन के पास नाममात्र की जमीन होती थी. उन के मकान भी अकसर ऐसी जमीन पर बने होते थे जिन के मालिक मजदूर नहीं होते थे. जमींदार के पास जमीन थी, परंतु वह खेती का काम स्वयं नहीं करता था. मजदूर वर्ग खेती के तमाम काम करता था, परंतु वह जमीन का मालिक नहीं होता था. ‘पूस की रात’ कहानी में हल्कू कम जमीन वाला किसान था. वह कभीकभी मजदूरी भी करता था. कर्ज और पाखंड पर किया प्रहार प्रेमचंद ने अपनी कहानियों के केंद्र में किसानों को रखा था.
उन की कहानियों में न तो जमीदारों को किसान माना गया और न मजदूरों को. प्रेमचंद के किसान पात्र स्वयं खेती करते थे. पे्रमचंद के किसान ‘होरी’, ‘हल्कू’ और ‘शंकर’ जैसे पात्र रहे हैं. ये कभी ‘तेवर’ दिखाते थे तो कभी ‘धर्मभीरु’ बन जाते हैं. यह हालत आज के दौर के किसान पर सटीक बैठती है. आज भी किसान एक तरफ सरकार के खिलाफ धरना देने जैसे काम करता है तो वहीं राममंदिर के लिए चंदा देता भी नजर आता है. जिस तरह से आज का किसान आर्थिक संकट में है और वह 5 सौ रुपए की किसान सम्मान निधि पाने से खुश हो जाता है वैसे ही पे्रमचंद का किसान आर्थिक संकट से गुजरता रहता है.
पे्रमचंद ने अपनी कहानियों के जरिए बताया है कि किसान इसलिए परेशान है क्योंकि वह कर्जदार है. वह धर्म से डरता है, इस की वजह से वह कर्ज के बो?ा से दबे होने के बाद भी पौराणिक व्यवस्था में पढ़ कर धार्मिक काम करता था. प्रेमचंद अपने किसान की जाति को सामने रखते थे. प्रेमचंद की कहानियों से पता चलता है कि जाति किसान की एक अनिवार्य पहचान होती है. ग्रामीण समाज की बनावट का मुख्य आधार जातियां हैं. प्रेमचंद जब भी किसान की कहानी लिखते थे, उस की जाति का जिक्र किसी न किसी रूप में जरूर करते थे. ‘दो बैलों की जोड़ी’ में ?ारी का किरदार काछी जाति से था. ‘सवा सेर गेहूं’ कहानी में शंकर कुरमी जाति से था. ‘पंच परमेश्वर’ कहानी में अलगू चौधरी था. ऐसे तमाम उदाहरण हैं. प्रेमचंद दलित जाति के किसी भी पात्र को ले कर जब कहानी लिखते थे तब छुआछूत व भेदभाव को जरूर उठाते थे. ‘पूस की रात’ का हल्कू पिछड़ी जाति का था. प्रेमचंद ने ‘गोदान’ में किसानों की परेशानियों को प्रमुखता से लिखा है. प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में दिखाया है कि हमारे किसानों ने धर्म का एक बड़ा ही विकृत रूप अपनाया है. ‘गोदान’ में गोबर, मातादीन, सिलिया, ?ानिया आदि इस के उदाहरण हैं. पे्रमचंद ने अपनी सहानुभूति का बहुत बड़ा भाग शोषित वर्ग को समर्पित किया है. पे्रमचंद ने अपनी कहानियों में जमीदारों, पूंजीपतियों, महाजनों, धार्मिक पाखंडियों के दोषों पर तीखे प्रहार किए हैं.
प्रेमचंद ने लिखा है कि किसान को सब से अधिक महाजनी सभ्यता से गुजरना पड़ता है. महाजनी सभ्यता क्रूरता तथा शोषण पर आधारित है. किसानों के सम्मान को सम?ा प्रेमचंद ने किसानों के दर्द, आक्रोश और विद्रोह को सामने लाने का काम किया था. यह प्रेमचंद का क्रांतिकारी पक्ष था. ‘प्रेमाश्रम’ में दखलंदाजी और बड़े हुए लगान को तो ‘कर्मभूमि’ में बढ़ते हुए आर्थिक संकट व लगान की लड़ाई को चित्रित किया है. पे्रमचंद ने लिखा कि मुनाफे के लिए किस तरह से किसानों की मेहनत का शोषण किया गया. आज खेती के कानूनों का विरोध करने वाले लोग भी सरकार को यही सम?ाने का काम कर रहे है. ‘प्रेमाश्रम’ में कहानी का चित्रण देखें- ‘किसान बेगार करने को विवश है. विरोध का कोई भाव भी उन में नहीं है. सब के सब सिर ?ाकाए चुपचाप घास छीलते रहे, यहां तक कि तीसरा पहर हो गया. सारा मैदान साफ हो गया. सब ने खुरपियां रख दीं और कमर सीधी करने के लिए जरा लेट गए. बेचारे सम?ाते थे कि काम से अब गला छूट गया लेकिन इतने में तहसीलदार साहब ने आ कर हुक्म दिया- गोबर ला कर इसे लीप दो, कोई कंकड़, पत्थर न रहने पाए, कहां हैं नाजिर जी,
इन सब को डोल व रस्सी दिलवा दीजिए’. ‘प्रेमाश्रम’ सहित कुछ अन्य कहानियों में प्रेमचंद दिखाते हैं कि किसान अपने सम्मान के लिए चिंता करता है. वह गाय पालना चाहता है तो सम्मान के लिए, वह कर्ज लेता है तो अपने सम्मान की रक्षा के लिए, वह अपने जीवन में जो भी जोखिम उठाता है, उन सब का मकसद यही है कि सम्मान यानी, प्रेमचंद के शब्दों में, ‘मरजाद’ बना रहे. 26 जनवरी को लालकिले पर कुछ लोग जब धार्मिक ?ांडे को फहरा आए तब केंद्र सरकार ने जबरन किसान आंदोलन को खत्म करने का दबाव बनाया. ऐसे में भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत के आंसू निकल आए. अपने नेता के आंसू देख किसानों का जोश व सम्मान उठ खड़ा हुआ और मरता आंदोलन जिंदा हो गया. कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन में आज के मीडिया से प्रेमचंद की तुलना करें तो गुलामी के युग में भी पे्रमचंद का लेखन मुखर विरोध और किसानों का साथ देता दिखता है. आज के समय में प्रेमचंद सरीखा लिखने का प्रयास करना अपने पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा लिखाने जैसा है.