जब कोई योगगुरु या आध्यात्मिकता के नाम पर साम्राज्य स्थापित करने वाला मरता है तो कई प्रश्न उठ खड़े होते हैं. कुछ समय पहले की बात है. सत्य साईं बाबा के नाम से जाने जाते सत्यनारायण राजू को गंभीर हालत में सुपर स्पैशियलिटी अस्पताल में जब भरती करवाया गया था तब उन के गुरदे, लिवर, फेफड़े आदि जवाब देने लगे थे, सांस में दिक्कत होने लगी थी, रक्तचाप बहुत नीचा हो गया था और दवाओं ने असर करना बंद कर दिया था. ऐसा किसी भी 86 वर्षीय व्यक्ति के साथ हो सकता है, वह चाहे कोई भी हो. पर जब यह सब साईं बाबा के साथ हुआ तब उन के भक्तों को बड़ा ताज्जुब हुआ, क्योंकि वे सारी उम्र हवा में से भभूत पैदा करने का दावा करते रहे थे. कई तो उन के चित्र में से भी भूत निकलने का दावा किया करते थे. गनीमत है कि उन के शव से भभूत नहीं निकली. भभूतवाद भभूत अर्थात राख को चमत्कारी दवा या आशीर्वाद के तौर पर न वेदों में कहीं प्रयुक्त किया गया है, न उपनिषदों में. यहां तक कि रामायण, महाभारत, गीता आदि में भी राख को कोई महत्त्व नहीं दिया गया है. फिर यह राखवाद की दवा कहां से टपक पड़ी?

यह उन सिद्धों, नाथों और योगियों के संप्रदायों से उत्पन्न हुई है जिन का प्रामाणिक और शास्त्रीय हिंदूधर्म में कोई स्थान नहीं है. ये लोग अकसर हिंदू आबादी से दूर वनों में बड़ा सा धूना लगा कर बैठा करते थे और आग के पास बैठ कर किसी मंत्र का जाप करते हुए शरीर के तपाने, विशेषतया धूप और ग्रीष्म ऋतु में, को तप करना कहते थे. धीरेधीरे इन लोगों ने उदरपूर्ति के लिए यह प्रचार शुरू कर दिया कि उन के मंत्रजाप से वह धूनी (अग्नि) भी अलौकिक शक्तिसंपन्न हो जाती है जिस के पास वे जप करते हैं और उस की राख भी. इसलिए कई योगियों ने भस्म (राख) से तिलक लगाना शुरू कर दिया तो दूसरों ने सारे शरीर पर इसे मलना शुरू कर दिया. यही बाद में आशीर्वाद के तौर पर और दवा आदि के लिए बांटी जाने लगी. राखवादियों ने यह प्रचार किया कि जो इस भस्म को धारण करता है उस से तो मृत्यु भी डरती है. स्वामी दयानंद सरस्वती ने टिप्पणी की है, ‘‘जब रुद्राक्ष भस्म धारण से यमराज के दूत डरते हैं, तो पुलिस के सिपाही भी डरते होंगे? जब रुद्राक्ष भस्म धारण करने वालों से कुत्ता, सिंह, सर्प, बिच्छू, मक्खी और मच्छर आदि भी नहीं डरते तो न्यायाधीश (यमराज) के गण क्यों डरेंगे?’’

(सत्यार्थप्रकाश, एकादश समुल्लास) दरअसल, धूनी वनों में जंगली जानवरों से रक्षा का एक साधन मात्र थी. दूसरे, यह धूनी रमाने वालों की इस विवशता का प्रमाण थी कि वे तथाकथित सिद्धियों वाले और लोगों को अलौकिक शक्ति वाली राख बांटने वाले आग जलाने के लिए माचिस जैसे किसी सरल उपाय से भी वंचित थे. उन्हें दोबारा आग जलाने के लिए चकमक पत्थरों आदि से टक्करें मारनी पड़ती थीं या फिर कहीं वन में लगी आग से लुआठी वगैरह लानी पड़ती थी. इसलिए वे सदा ही कोशिश करते थे कि धूनी कभी बुझने न पाए, वे वृक्ष काटकाट कर उन्हें स्वाहा करते रहते थे. उन्हें न वृक्षों के महत्त्वों से कुछ लेनादेना था न वातावरण के प्रदूषित होने से. बस, वे तो पहुंचे हुए थे जो चमत्कारी राख के उत्पादक थे. पर सब दावों के बावजूद कोई चमत्कारी व्यक्ति एक छोटी सी माचिस नहीं बना पाया. जब शुरूशुरू में योगियों ने राख के चमत्कारी होने के दावे किए तब लोगों ने इस पर विश्वास नहीं किया और इसे धोखा कहा. यही कारण है कि संस्कृत में योग का एक अर्थ धोखा, जालसाजी भी है. धीरेधीरे ये लोगों के सिरों में राख डालने में कामयाब हो गए. ये भभूत के साथसाथ धागे, तावीज आदि भी बेचने लगे. राजेरजवाड़े तक इन के अंध श्रद्धालु बनते गए, हालांकि इन के दावे बुरी तरह फेल हो रहे थे परंतु अंध श्रद्धा ने एक दावा फेल होने पर दूसरे पर आशा लगानी जारी रखी.

जब बाबर ने 1526 ई. में भारत पर हमला किया तब यहां के शासकों ने उसे रोकने के लिए बहुत से पीर, योगी, जंत्रमंत्र करने वाले इकट्ठे कर लिए थे कि वे अपने धागे, तावीज, भस्म आदि से हमलावर को नष्ट कर देंगे, परंतु किसी का जंत्रमंत्र कोई काम नहीं आया. गुरु नानकदेव, जो इस घटनाक्रम के चश्मदीद गवाह थे, ने लिखा है कि जब शासकों ने सुना कि मीर (बाबर) आ रहा है तो उन्होंने करोड़ों पीरों आदि को इकट्ठा कर लिया, परंतु जब वह आया तो उस की फौजों ने बड़ेबड़े पक्के मकान, मजबूत मंदिर आदि सब आग में जला दिए और राजकुमारों को काट कर मिट्टी में मिला दिया. किसी का कोई जंत्रमंत्र किसी काम न आया, उन से एक भी मुगल अंधा नहीं हुआ : कोटी हू पीर वरजि रहाए जो मीरु सुणिया धाइया. थान मुकाम जले बिज मंदर मुछि मुछि कुइर रुलाइया.. कोई मुगल न होआ अंधा किनै न परचा लाइया.. (आदिग्रंथ, 417-18) इन करोड़ों भभूत, धागे, ताबीज वालों की कृपा से हमलावर इस देश का हाकिम बन गया और सदियों तक के लिए मुगलों का साम्राज्य यहां स्थापित हो गया तथा देश गुलाम हो गया. यदि इन के चक्कर में लोग न पड़ते और शस्त्र उठा कर शत्रु का सामना करते तो वे उसे मिट्टी में मिला सकते थे. परंतु जो शस्त्र के स्थान पर राख, तावीज और धागों में उलझे थे, उन्हें राख में मिलने से कौन रोक सकता था?

जिन की खुद की आंखें राख से अंधी हो चुकी थीं वे मुगलों को क्या खाक अंधा करते. प्रार्थनाएं व दुआएं अस्पताल में मरणासन्न अवस्था में भरती किए गए साईं बाबा के भक्तों ने दुआएं करनी शुरू कर दी थीं और इलाज कर रहे डाक्टरों के विरुद्ध आक्रोश प्रकट करना शुरू कर दिया था कि वे बाबा का ठीक से इलाज नहीं कर रहे. यहां 2 बातें विचारणीय हैं. भक्त पहले तो बाबा से प्रार्थना किया करते थे कि वे उन के दुखों को दूर कर दें. अब वे किस से क्या प्रार्थना कर रहे थे? क्या वे बाबा से यह प्रार्थना कर रहे थे कि वे खुद को ठीक कर लें? क्या उन की प्रार्थना के बिना वे खुद को ठीक नहीं कर सकते थे? क्या वे स्वेच्छा से और शौक से उस गंभीर हालत को पहुंचे थे? कुछ सयाने भक्तों का कहना था कि वे बाबा से प्रार्थना या दुआ नहीं कर रहे, बल्कि उन के बारे में ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं कि वह उन को ठीक कर दे. बिचवान क्यों? परंतु यहां भी यह सवाल पैदा होना लाजिमी है कि यदि ईश्वर बाबा से भी ऊपर की शक्ति है और वे भक्त उसी से बाबा के ठीक होने की प्रार्थनाएं कर रहे थे तो इस का अर्थ है कि वह बीच में एक स्वयंभू बिचवान मात्र था.

जब आप किसी बाबा के सक्रिय न रहने की स्थिति में, बिना बिचवान के, सीधे कथित ईश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं तब फिर इन बिचवई करने वालों के अस्तित्व का औचित्य ही क्या रह जाता है? जब सीधे सौदा हो सकता है, तब दलालों की क्या जरूरत? यदि बाबा वास्तव में शिवलिंग, अंगूठी, भभूत आदि भौतिक पदार्थ अध्यात्म की कथित शक्ति से उत्पन्न करते रहे होते तो उन्हें अपने लिए उसी शक्ति से लिवर, गुरदा आदि उत्पन्न करने में क्या बाधा हो सकती थी? वे जरूरी अंग हवा में से पैदा करते और स्वस्थ हो जाते, पर ऐसा न हो सकता था न हुआ ही. नतीजतन, भभूत बाबा भूतकाल की चीज बन गए. डाक्टरों की शरण क्यों? यदि बाबा आध्यात्मिक शक्ति से सबकुछ करते थे और 86 वर्ष तक उसी से कथित चमत्कार करते रहे होते तो संकट की घड़ी में डाक्टरों की शरण में जाने का कोई औचित्य न था, क्योंकि डाक्टर लोग तो अध्यात्म से इलाज नहीं करते. वे तो भौतिक चीजों और विज्ञान की आधुनिक खोजों के आधार पर इलाज करते हैं. अध्यात्म के बादशाह, बाबा, का इलाज तो अध्यात्म से ही होना चाहिए था और उसे अमेरिका से बुलाए डाक्टरों समेत 27 डाक्टरों के पास अस्पताल में नहीं, बल्कि हिमालय के किसी आश्रम में किसी हजारों वर्षों से समाधि लगाए बैठे योगी और अध्यात्मवाद के चक्रवर्ती सम्राट के पास पहुंचना चाहिए था.

कहां आम भौतिक मैडिकल कालेजों में पढ़े हुए डाक्टर कहे जाते स्त्रीपुरुष और कहां आध्यात्मिक साम्राज्य के बादशाह, डाक्टरों से तो आम आदमी इलाज कराता है. उसी डाक्टर से अब यदि पूज्य, अलौकिक शक्ति संपन्न बाबा भी इलाज करवाता है तो क्या वह (डाक्टर) बाबा की कथित आध्यात्मिक शक्ति से ज्यादा श्रेष्ठ सिद्ध नहीं हो जाता? यह कहा जा सकता है कि शरीर तो भौतिक है, यह तो कोई आध्यात्मिक वस्तु नहीं है. अत: इस के रोगों को शांत करने के लिए भौतिक ज्ञान के मालिक डाक्टरों की शरण में जाने में कुछ भी गलत नहीं है. भौतिकता का अपना क्षेत्र है और आध्यात्मिकता का अपना. अक्षमता की स्वीकृति इस बात को माना जा सकता था, परंतु एक बहुत बड़ी बाधा इन के मार्ग में आ रही है. जब कोई बाबा अध्यात्म के नाम पर भौतिक पदार्थ पैदा करता है, वह चाहे शिवलिंग हो या अंगूठी, पुस्तक हो या रुद्राक्ष के मनके, तब दोनों क्षेत्र पृथक नहीं रहते. तब अध्यात्म भौतिक को पैदा करता है, तब आध्यात्मिक शक्ति से भौतिक पदार्थ पैदा होते हैं. यदि शिवलिंग पैदा हो सकता है तो लिवर, फेफड़ा आदि पैदा करने के मामले में अध्यात्म के भौतिक से पृथक क्षेत्र होने की बात करना शोभा नहीं देता.

यह तो एक तरह से अक्षमता की स्वीकृति ही प्रतीत होती है. मात्र ट्रिक यदि वास्तव में आध्यात्मिक और भौतिक क्षेत्र पृथकपृथक हैं तो स्पष्ट है कि भौतिक पदार्थों से बने शिवलिंग, रुद्राक्ष के मनके, अंगूठियां, चेनें, पुस्तकें आदि आध्यात्मिक शक्ति से पैदा करना एकदम असंभव है. यदि कोई उन्हें ‘पैदा’ करता है तो वह सिर्फ हाथ की सफाई है, ट्रिक मात्र है. यदि कोई वास्तव में उन्हें पैदा करता है, जैसा साईं बाबा के मामले में दावा किया जाता था, तो फिर उसे लिवर, फेफड़ा आदि पैदा कर के आईसीयू से बाहर आ जाना चाहिए था और वैंटिलेटर को अलविदा कह देना चाहिए था. दोनों स्थितियां बिलकुल स्पष्ट हैं. एक स्पष्ट स्टैंड लिया जाए. घालमेल नहीं, गड्डमड्ड नहीं. आशीर्वाद कारगर? यदि आध्यात्मिक शक्तिसंपन्न किसी व्यक्ति के आशीर्वाद से सब रोग व कष्ट दूर हो जाते हैं तो ऐसे व्यक्ति का कथित तौर पर ठीक से इलाज न करने वाले डाक्टरों के विरुद्ध आक्रोश का क्या कोई औचित्य रह जाता है? देखा जाए तो यह कथन ही परस्पर विरोधी है कि आध्यात्मिक शक्तिसंपन्न बाबा का डाक्टर ठीक से इलाज नहीं कर रहे हैं.

अस्पतालों का औचित्य? कहा जाता है कि साईं बाबा ने पुट्टपर्थी में 500 करोड़ रुपए खर्च कर के सुपर स्पैशियलिटी अस्पताल बनाया है. अन्यत्र भी उन्होंने कई अस्पताल खड़े किए हैं. यदि आध्यात्मिक शक्ति से सब रोग नष्ट हो जाते हैं, जैसा दावा किया जाता है, तो इन अस्पतालों का क्या औचित्य है? यह तो ठीक वैसा है जैसे कई ग्रंथों में कहा गया है कि उन के पाठ से सब रोग और दुख नष्ट हो जाते हैं, ‘यह ग्रंथ सब से बड़ी औषधि है’, ‘इस ग्रंथ का पाठ सब रोगों के लिए रामबाण है’, परंतु उन्हीं ग्रंथों को मानने वालों ने मैडिकल कालेज खोल रखे हैं और उन्हीं की दीवारों पर उन ग्रंथों के उक्त कथन अंकित करवा रखे हैं. यदि ग्रंथों के कथन सच्चे और प्रामाणिक हैं तो वे मैडिकल कालेज व्यर्थ हैं और यदि वे कालेज सार्थक हैं तो ग्रंथों की उक्त बातें गलत हैं. दोनों चीजें एक साथ सही नहीं हो सकतीं. राम और वैद्य रामायण में लिखा है कि लक्ष्मण बाण लगने से जब घायल हो कर मूर्छित हो जाते हैं तब राम ने यह नहीं कहा कि इसे फलां ग्रंथ का पाठ सुनाओ, हमें हनुमान चालीसा सुनाओ.

उन्होंने यह भी नहीं कहा कि इसे मेरा (अर्थात राम का) नाम सुनाओ और न ही यह कहा कि कीर्तन करो, ढोलक बजा कर गीत गाओ. उन्होंने किसी अध्यात्म की बात नहीं की, किसी दैवी शक्ति की बात नहीं की और न ही वहां कोई चमत्कार घटित हुआ. उन्होंने सीधे वैद्य की शरण ली और वैद्य ने औषधि दी. यदि अध्यात्म में घायल व मूर्छित को ठीक करने का सामर्थ्य होता तो राम शत्रु रावण के यहां से सुषेन नामक वैद्य को कभी न बुलवाते. उसे शत्रु के यहां से बुलवाना यही दर्शाता है कि उक्त वैद्य के बिना लक्ष्मण की प्राणरक्षा का और कोई चारा नहीं था. राम ने अध्यात्म और भौतिक का घालमेल नहीं किया, अत: उन का वैद्य की शरण ग्रहण करना किसी तरह की दुविधा को पैदा नहीं करता. परंतु पुट्टपर्थी के अस्पताल दुविधा और प्रश्न पैदा करते हैं, क्योंकि इन का सत्य साईं बाबा की इस कथित आध्यात्मिक शक्ति से सामंजस्य नहीं बैठता जिस से वे भौतिक पदार्थ पैदा कर के दिखाते थे और भक्तों के दुख व रोग हरते थे. जब भभूत से, आशीर्वाद से, हवा में हाथ लहराने से और ऐसे ही अन्य किसी तरीके से रोग नष्ट हो जाते थे तो 500 करोड़ रुपए सीमेंटईंटों व आधुनिक यंत्रों पर व्यय करना समझ से बाहर है. जब दुआ कारगर है तब दवा के प्रयोग का क्या औचित्य है? जब बाबा से ही सब दुआएं मांगी जाती थीं, तब उन के गंभीर हालत में पहुंचने पर उन के लिए किस से दुआएं मांगी जा रही थीं? यदि कोई उन से भी आगे बिग बौस है तो पहले ही उस से क्यों दुआएं नहीं मांगी जाती थीं और किसी बिचवान की बिचवई की क्या तुक थी? दुआ बनाम दवा प्रश्न यह भी उठता है कि क्या दुआ वह काम कर सकती है जो सिर्फ दवा कर सकती है?

यदि ऐसा संभव होता, यदि दुआ दवा का काम कर सकती है तो क्या यह राम को ज्ञात न था? क्या वे अज्ञानी थे जो उन्होंने दुआ को एकदम रद्द कर के दवा को प्राथमिकता दी? सत्य साईं बाबा द्वारा खोले गए अस्पताल दवा के लिए ही हैं, दुआ के लिए नहीं. जब बाबा खुद गंभीर हालत में पहुंचे तब खुद उन्होंने दवा की ही शरण ली, यह तथ्य भी दुआ की निरर्थकता का ही द्योतक है. दुआ क्या है? दुआ है एक कामना, हमारा मनोरथ कि यह ऐसा हो जाए, बीमार बाबा ठीक हो जाएं. टीवी के कई चैनल चिल्ला रहे थे कि हजारों नन्हे हाथ साईं बाबा के लिए दुआ के लिए उठ रहे हैं. महत्त्व उद्यम का हमारे नीतिकारों का कहना है कि दुआ से, मनोरथ या मनोकामना मात्र से, कोई कार्य संपन्न नहीं होता. सब कार्य उद्यम से सिद्ध होते हैं. ऐसा कभी नहीं होता कि शेर दुआ करता है और मृग आ कर खुदबखुद उस के मुंह में पड़ जाता है : उद्यमेन हि सिद्ध्यंति कार्याणि न मनोरथै:, न हि सुप्तस्य सिंहस्य मुखे प्रविशंति मृगा:. अध्यात्म की भूलभुलैया में फंसना उद्यम नहीं, केवल मनोकामना के रथ पर-मनोरथ पर-सवार होना है. पर क्या इच्छाओं के रथ पर सवार हो कर आप कहीं पहुंच सकते हैं? यदि कहीं पहुंचना है तो गति करनी होगी और वह अध्यात्म की भूलभुलैया से निकले बिना एकदम असंभव है. दलदल में फंस कर आप डूब तो सकते हैं, कहीं पहुंच नहीं सकते. अत: हाथ की सफाई दिखाने वालों के झांसे में मत आएं. वे चीजें बना नहीं सकते, केवल पहले से बनी हुई और दूसरों द्वारा बनाई हुई चीजों को मुट्ठी में से निकाल कर दिखा सकते हैं. जब साईं बाबा हवा से ऐसी घड़ी पैदा कर के दिखाते हैं, जिस पर मेड इन स्विस अंकित होता था, तब साफ था कि घड़ी उन्होंने असल में बनाई नहीं थी, बल्कि मंच पर अपनी मुट्ठी में से सिर्फ निकाल कर दिखाई थी, जैसे कोई एक रुपए का सिक्का मुट्ठी में से निकाल कर दिखा दे. रुपए का सिक्का कोई मदारी बनाता नहीं, क्योंकि वह तो पहले से ही भारत सरकार ने बना रखा होता है.

उसे बनाना वैसे भी दंडनीय अपराध है. वह सिर्फ अपनी कला से दृष्टिभ्रम पैदा करता है ताकि असावधान दर्शक को लगे कि उस ने सिक्का हवा में से ऐसे ही पैदा किया है. यदि मदारी सच में सिक्के पैदा कर लेते तो जगहजगह खेल दिखा कर उदरपूर्ति न करते, बल्कि नकली मुद्रा बनाने के अपराध में कारागार की हवा खा रहे होते. यही हाल स्विस में बनी नकली घडि़यां बनाने वाले का होता. मौत पर आत्महत्या टीवी के कई चैनल ऐसे भक्तों को दिखा रहे थे जो कहते थे कि यदि बाबा ठीक न हुए तो हम आत्महत्या कर लेंगे. (पर बाबा के मर जाने पर मरा एक भी भक्त नहीं) ये चैनल ऐसा कर के सीधे सारे लोगों को आत्महत्या के लिए ही प्रेरित करते प्रतीत होते थे, जो भारतीय दंड संहिता की नजरों में एक अपराध है. किसी की मौत पर आत्महत्या करने की मंशा से क्या किसी की महानता सिद्ध होती है? क्या इस से मृत व्यक्ति जीवित हो जाता है या आत्महंता अमर हो जाता है? क्या इस से मौत की सेहत पर कोई असर पड़ता है? मौत की समस्या बदस्तूर मुंहबाए खड़ी नजर आती है, मृतक चाहे कभी कितने ही चमत्कार, दर्शन के दावे क्यों न करता रहा हो या उस की शिष्यमंडली चाहे कितनी ही विशाल क्यों न रही हो. मौत चमत्कारों को और चौंधिया देने वाले तामझाम व तथाकथित आभामंडल को चित कर देती है तथाकथित भगवानों व स्वयंभू दलालों को शव मात्र बना देती है. बाढ़ में बहते तिनके इन (कथित भगवानों व दलालों) के मरने पर भावावेश में आत्महत्या करने वाला भक्त उस धक्के को सह नहीं पाता जो उसे अपने पूज्य भगवान के शव में परिवर्तित होने पर लगता है. वह जिसे सर्वशक्तिमान समझता था, उसे जब वह मौत की बाढ़ में बह रहे एक तिनके के समान असहाय पाता है तो उसे यथार्थ का सामना करने में असुविधा होती है. उसे समझ में नहीं आता कि यह सब कैसे हो गया. क्या गुरुजी एक फूला हुआ गुब्बारा मात्र थे कि हवा निकल गई और वह पिचक गया?

भक्त जब कथित भगवान और कटु यथार्थ में सामंजस्य स्थापित करने में असफल रहता है तब वह पलायनवादी मार्ग अपनाता है. जैसे पहले वह गुरुजी के अंचल में छिप कर वास्तविकता से भागता था, उसी तरह वह गुरु के शव में परिणत हो जाने पर मौत के अंचल में छिप जाता है. समस्या जीवन को संतुलित व भलीभांति जीने की है, आत्महत्या करने में क्या है? एक मर गया, दूसरे ने खुद को मार लिया, यह अंधशृंखला ही यदि अध्यात्मवाद है तो इसे एक मनोरोग ही कहना होगा. जो टीवी चैनल यह अस्वस्थ संदेश फैला रहे थे वे दरअसल अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहन सुचारु रूप से करने में आपराधिक लापरवाही बरत रहे थे, यही कहा जा सकता है. चमत्कार चित यह जीवन का एक अपरिवर्तनीय सत्य है कि जो जन्मता है वह अवश्य मरता है, चाहे वह चमत्कार दिखाता रहा हो या देखता रहा हो. मृत्यु एक बहुत बड़ा व अंतिम साधन है सब को एकसमान कर देने का, सब के समतलीकरण का और सब तथाकथित चमत्कारियों, सर्वशक्तिमानों, दंभियों, पाखंडियों, भगवानों, स्वयंभू दलालों, दैवी शक्तियों के दावेदारों आदि के ढोल की पोल खोलने का. जो शव बन गया, जो मर गया, समझो उस के सब पराप्राकृतिक दावे झूठे थे, वह एक नगण्य इंसान था, वह मात्र कालनेमि था, जो आखिर उघड़ गया. तुलसीदास ने रामचरितमानस में इन के बारे में ठीक ही कहा है : उघरे अंत न होहिं निबाहू, कालनेमि जिमि रावण राहू. हमें वास्तविकता को समझ कर, उस पर दृढ़ता से चलना चाहिए. तभी हम वास्तव में जीवन जी पाएंगे, क्योंकि सारी उम्र मतिभ्रमों में पड़े रहने या हम या उस पाखंडी के पीछे मूढ़मति की तरह चलते जाने का नाम जीवन नहीं है.

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