शहरों के कानूनों की गिरफ्त में वर्षों रखने के बाद अब शहंशाहों को समझ आ रहा है कि सिर्फ कानून बना देने से शहर नहीं सुधरता. मकानों को बनाने के कठोर नियम असल में सभी शहरों में बिना एप्रूफ किए मकान बनाने की आदत डाल चुके हैं, शहरों में हर खाली जगह पर कच्ची बस्तियां उग आई हैं. अब गरीबों के लिए एक या 2 कमरों के मकान बनाने के लिए एफएआर, फ्लोर एरिया रेशो को 50' बढ़ाने की छूट दी जा रही है.

अब तक नियम था कि यदि प्लाट 100 मीटर का है तो उस पर 250 मीटर फ्लोर वाला मकान बन सकता है. अब शायद 375 मीटर तक का मकान बनाया जा सकेगा. घनी बस्तियों में ऐसे मकान हर शहर में आज भी देखे जा सकते हैं. इन मकानों की हालत बहुत खस्ता होती है क्योंकि गरीब लोग बाहरी रखरखाब का पैसा नहीं देते.

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फिर भी यह एहसास हो जाना कि कानून की चाबुक से जनता का हांका नहीं जा सकता काफी है. हमारे शासकों को पौराणिक युग से आदत है कि वे मनमानी करते हैं, जब चाहे जिसे घर से निकाल दिया, किसी का अंगूठा कटवा लिया, किसी को पढऩे पर मार डाला. हमारे पुराणों में राजाओ और दैव्यों द्वारा मुनियों यज्ञों में विध्न डालने वालों को सजा देने वालों की राजाओं की कहानियां बहुत हैं पर आम आदमी को परेशानी होने पर या राजा के दूतों के अत्याचार पर कोई कहानियां नहीं दिखती कि राजाओं ने क्या किया.

आज भी हमारे कानून ऐसे ही हैं. एकदम बेरहम, बेदर्दी से बनाए गए. कानून को लागू करने वालों को एक तरह का लाइसेंस दे रखाा है कि जब चाहो जो मर्जी कर लो, जो मर्जी फरमान जारी कर दो. मकान बनाने में ढेरों कानून हैं जो लोगों को मकानों में पूंजी बनाने से रोकते हैं. लोगों को डर लगता है कि नियमों से बाहर गए बने मकान को कभी भी तोड़ा जा सकता है, कभी बैंक लोन उस पर नहीं मिलेगा, हर महीने इंस्पेक्टर आ धमकेगा.

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