किसानों के गुस्से को नजरअंदाज करते हुए कृषि कानून ऐसे ही नहीं बनाए गए हैं. वे गहरी व दूरगामी सोच का परिणाम हैं, जैसे इंग्लैंड में ईस्ट इंडिया कंपनी को मिले चार्टर के समय किया गया था और जैसे वहां के अमीरों व राजा ने कीमती पैसा उस क्षेत्र में लगाया था जिस के बार में सिर्फ सूई की नोंक के बराबर ज्ञान था.

भारतीय जनता पार्टी का थिंकटैंक आजकल देशी और विदेशी पढ़े ऊंची जातियों के एमबीओं से भरा है जो जानते हैं कि व्यापार किस पैटर्न पर चलता है. उन्हें दिख रहा है कि शहरों में उत्पादकता अब नहीं बढ़ रही. शहरी व्यापारी वर्ग बेहद आलसी, धर्मभीरु, रूढ़िवादी है और उस के बलबूते आर्थिक विकास संभव ही नहीं है. विकास तो गांवों में हो सकता है जहां ह्यूमन लेबर आज भी खाली है और उसे नए प्रयोग करने की भी आदत है जिसे जुगाड़ कहते हैं.

इस वर्ग को सस्ते में खरीदने के लिए जरूरी है कि इसे मुहताज बना दो, कंगाल कर दो. देश की बहुत सी भंगी जातियों ने मानवमल साफ करने का काम मुगलों के बसाए शहरों में करने को हामी भरी क्योंकि सामाजिक व्यवस्था ऐसी बनाई गई कि वे जहां थे, भूखे मर रहे थे. उन्हें शहरों में सिर पर मल ढोने को तैयार होना पड़ा.

अब किसानों की यही हालत की जा रही है. वर्तमान सरकार की चाहत है कि किसान के पास न खेत बचें, न जो फसल है उस को बेचने की जगह. वह खरीदार की कम कीमत पर बेचे और उन को बेचे जिन के पास हजारोंलाखों टन अनाज गोदामों में भरा पड़ा है. भोपाल के गोलघर जैसे अनाज भंडार की तर्ज पर आज अडानी, अंबानी और दूसरी कंपनियां सारे देश में बना रही हैं क्योंकि इस में किसानों को मजबूर बना कर बेहद मोटी कमाई के अवसर हैं. सैंसेक्स और निफ्टी में उछालों का कारण यही है. विदेशी पैसे वालों को मालूम है कि अब विशुद्ध भारतीय ईस्ट इंडिया कंपनी का राज है और शायद 200-250 साल यह चले भी. भारत पूंजी निवेश के लिए अच्छा स्थल है. एक अरब लगाओ, 100 अरब पाओ जनता को भूखानंगा रख कर.

नैस्ले, ब्रिटानिया, डाबर, पेप्सिको, रिलायंस रिटेल, जुबिलैंट फूड, केएफसी कंपनियां गांवों से खोज और उन के यहां ही मंहगा ब्रैंडेड माल बेचने की रेस में कूद पड़ी हैं. ये सब विदेशी पैसे पर कूद रही हैं. इन का हिंदुत्व केवल नारों तक है. हिंदुत्व की आड़ में, देशभक्ति की आड़ में देशी कही जाने वाली कंपनियों में मोटर पैसा विदेशी लगा हुआ है, वहीं की तकनीक है, वहीं की मशीनें हैं, वहीं के कंप्यूटर सौफ्टवेयर हैं.

इन कंपनियों ने सरकार को मजबूर किया है कि वह गांवगांव तक सडक़ें ले जाए, बससेवा ले जाए, मार्केट बनाए. इन्हें गांवों की हालत सुधारने में कोई रुचि नहीं है. इन्हें गांवों में समाज सुधारों की चिंता नहीं है. गांवों में स्कूल नहीं चाहतीं ये, कालेज तो दूर की बात है. ये टिकटौक, इंस्टाग्राम और व्हाट्सऐप ज्ञान बेच कर मेहनती मजदूरों को धर्म का असली नशा पिलाने की इच्छुक हैं. सरकार के कदम व इस सब से देश आत्मनिर्भर नहीं बनेगा बल्कि विदेशी कंपनियों पर निर्भरता बढ़ेगी.

टैक्स के पैसे से नहरें बनाने को कहा जा रहा है, पुल बनाने को कहा जा रहा है ताकि व्यापार चमके, कच्चा माल खरीदने में आसानी हो और गांवों में विदेशी ब्रैंड बेचे जा सकें. गांवों को चूसने की तैयारी में देश के धन्ना सेठ, धन्ना मंदिरवादी और धन्ना सत्ताधारी एकसाथ हैं. देश एक है. जो आपत्ति करे, सत्य बताए, पोल खोले वह विशुद्ध ईस्ट इंडिया कंपनी का दोषी है और नंद कुमार की तरह फांसी पर देशद्रोह के आरोप में चढ़ेगा.

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