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‘हंसा-एक संयोग’ किन्नरों के दर्द व उनकी व्यथा का चित्रण करती है: सुरेश शर्मा

सिनेमा में आ रहे बदलाव के चलते अब बौलीवुड में कई नए फिल्मकार तेजी से आ रहे हैं, जिन्होंने जमीन से जुड़ी और सामाजिक सरोकार वाली कहानियां अपनी फिल्मों के माध्यम से पेश करने का बीड़ा उठा लिया है. ऐसे ही एक फिल्मकार हैं सुरेश शर्मा. मूलतः रोहतक (हरियाणा) में जन्मे वे पले बढ़े तथा 35 वर्ष (कुछ साल दिल्ली और कुछ साल छत्तीसगढ़़ राज्य के रायपुर शहर में) तक एक पब्लिक लिमिटेड कंपनी में नौकरी करने के बाद फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कूदे हैं. पहले ‘वेदना’नामक डाक्यूमेंटरी बनायी और अब किन्नरों की व्यथा व दर्द को व्यक्त करने वाली एक मानवीय फिल्म ‘हंसा-एक संयोग’ लेकर आ रहे हैं, जो कि 31 मई को देश के सिनेमाघरों में प्रदर्शित होने जा रही है. सुरेश शर्मा ने ‘‘चित्रागृही फिल्मस” के बैनर तले फिल्म ‘‘हंसा-एक संयोग” का निर्माण करने के साथ साथ इसमें एक अहम किरदार भी निभाया है.

2014 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा किन्नरों को समान धारा के साथ जोड़ने और उन्हें कई अधिकार दिए जाने के आदेश के बाद केंद्र व राज्य सरकारें किन्नरों के हित में कई योजनाएं शुरू कर चुकी हैं. सुप्रीम कोर्ट ने किन्नर समुदाय को ‘बैकवर्ड इकोनौमी क्लास’’ में रखा है. इतना ही नहीं गत वर्ष मुंबई में किन्नरों के लिए सौंदर्य प्रतियोगिता का आयोजन भी हुआ था. कुछ माह पहले प्रयागराज में संपन्न ‘‘कुंभ मेले’’ के दौरान पहली बार तमाम विरोधों के बावजूद ‘किन्नर अखाड़ा’ भी मौजूद रहा.

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तो वहीं फिल्म‘हंसा-एक संयोग’ का निर्माण करने वाले सुरेश शर्मा ने‘चित्रागृही फिल्मस’ के ही तहत रायपुर, छत्तीसगढ़ में 30 मार्च 2019 को 15 किन्नरों को अपनी बेटी बनाकर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री व अन्य सम्मानित लोगों की मौजूदगी में पूरे रीति रिवाज के साथ 15 युवा पुरूषों के साथ उनका व्याह करवाया. सभी विवाहित जोड़े को एक लाख रूपए भी दिए. इनमें से सात किन्नर छत्तीसगढ़ की हैं. और बाकी देश के अलग अलग राज्यों की है. इसके लिए इन्हें पूरे विश्व से प्रशंसा पत्र मिले. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी बधाई संदेश भेजा. इस तरह सुरेश शर्मा व फिल्म ‘हंसाःएक संयोग’ ने विश्व रिकार्ड बना डाला.

प्रस्तुत है सुरेश शर्मा से हुई एक्सक्लूसिव बातचीत के अंश…

35 साल की नौकरी छोड़कर फिल्म निर्माण की तरफ मुड़ने की वजह क्या रही?

मेरे संबंध बौलीवुड के साथ साथ छत्तीसगढ़ की अदालतों मे भी रहे हैं. हमारा संबंध न्यायालय के न्यायाधीशों के साथ भी बना रहता था. पहली बार छत्तीसगढ़ में एक फिल्म फेस्टिवल का आयोजन हुआ था,  जिसका नाम था- ‘लीगल अवेयरनेस फिल्म फेस्टिवल’. उस वक्त छत्तीसगढ़ के कुछ मेरे मित्र व मंत्री वगैरह ने मुझसे निवेदन किया कि मैं भी इस फिल्म फेस्टिवल के लिए कोई फिल्म या डाक्यूमेंट्री बना कर दूं. तब मैने‘वेदना’ नामक एक डाक्यूमेंट्री बनायी थी. इसमें मैंने गरीब प्रदेशों के गांवों से पूरे परिवार को पंजाब जैसे संपन्न राज्यों में ले जाया जाता है और उनसे वहां पर मजदूरी कराई जाती है, उनसे ईंट भट्टों पर काम कराया जाता है. वहां पर उनके साथ अन्याय व अत्याचार किया जाता है. कम पैसे दिए जाते हैं. नौकरी करते हुए छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में मुझे इस तरह की कई कहानियां सुनने को मिली थी. मैंने उन्ही पर चार घंटे की डाक्यूमेंटरी बनायी थी, जिसे काट कर संक्षिप्त कर इस फेस्टिवल में दी. फिल्म की प्रशंसा हुई, तो मुझे लगा कि अब कुछ समाज के लिए सकारात्मक काम फिल्म माध्यम में किया जाना चाहिए. फिर नौकरी छोड़कर मुंबई चला आया. अब मेरी फिल्म‘हंसा -एक संयोग’ प्रदर्शन के लिए तैयार है. यूं तो हम पहले एक दूसरी फिल्म बना रहे थे, पर उसमे धोखा मिला. उसके बाद मुझे लेखक संतोश कष्यप ने किन्नरों पर यह कहानी सुनायी, जिस पर मैंने ‘हंसा-एक संयोग’बनायी.

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कहानी में ऐसा क्या था कि आपको लगा कि इस पर फिल्म बननी चाहिए?

-हम लोग रोहतक से हैं. रोहतक में हमारी मां किन्नरों की बड़ी इज्जत करती थी. बचपन में हम किन्नरों को मौसी कहा करते थे.तो बचपन से उनकी तरफ रूझान था. फिर कहानी में जब उनकी व्यथा को सुना, तो मुझे लगा कि सुप्रीम कोर्ट ने इसी के चलते इनके पक्ष में निर्णय सुनाया है और हमें सबसे पहले अब इसी पर फिल्म बनानी चाहिए. मुझे अहसास हुआ कि इनके प्रति नाइंसाफी होती आ रही है. यह बच्चे हमारे ही घरों में पैदा होते हैं. किन्नर किसी किन्नर को पैदा नही करती. क्योंकि किन्नर किसी पुरूष को औरत का सुख तो दे सकती है, पर किन्नर बच्चे पैदा नहीं कर सकती. किन्नर तो एक पुरूष व महिला ही अपने मिलन से पैदा करते हैं. यानी कि यह बच्चे हमारे अपने घरों के हैं, तो फिर इन्हें इनके अधिकार से वंचित क्यों किया जाता है. इनका बचपना छीन लिया जाता है. इन्हे घर से निकाल दिया जाता है. इन्हे स्कूल में पढ़ने नहीं दिया जाता. हर चैराहे पर इन पर छींटाकशी होती है. यदि हमारे साथ ऐसी घटना घटे, तो हम सभ्य इंसान की बजाय गुंडा या मवाली ही बनेंगे. काफी कुछ सोचा. फिर भारत सरकार व कई राज्य सरकारों की गतिविधियों का अवलोकन किया. मैंने पाया कि इनकी मदद करने के मकसद से समाज कल्याण मंत्रालय भी काम कर रहा है. तो मेरे दिमाग में आया कि यदि मैं भी इनकी धारा में जुड़ जाता हूं तो इन्हें मदद मिलेगी और मुझे दुआएं.

क्या इस पर रिसर्च करने की जरुरत पड़ी?

लेखक के पास सिर्फ एक कहानी थी. पर पहली फिल्म के अनुभव से मैं काफी कुछ सीख चुका था. इसलिए मैने स्वयं इस पर रिसर्च करने का निणर्य लिया. मैं छत्तीसगढ़ व हरियाणा सहित देश के कई राज्यों में गया और वहां पर किन्नरों से मिला. किन्नरों के मंडलेश्वरों से मिला. उनकी कहानियां सुनी. कई तरह की जानकारियां इकट्ठा करके लेखक को दी. जिस पर उसने पटकथा लिखी, फिर मैंने लेखक संतोश कश्यप के साथ ही धीरज वर्मा को निर्देशक के तौर पर लेकर यह फिल्म बनायी. रिसर्च के दौरान मुझे पता चला कि सिर्फ भारत में किन्नरों की आबादी लगभग छह करोड़ है. अब तक सैकड़ों किन्नर मुझे ‘पिता’बुलाने लगी हैं. हमने अपनी फिल्म में छत्तीसगढ़ के कई किन्नरों के साथ साथ शबनम मौसी से भी अभिनय करवाया.

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किन्नरों की क्या प्रतिक्रिया मिल रही थी?

-जब हम किन्नरों से मिले और उन्हें बताया कि हम इस तरह की फिल्म बना रहे हैं, तो उत्साहित हुई और हमें कई किन्नरों से मिलवाया. अपनी कहानी सुनायी. कहानी सुनाते हुए वह भी रो रही थीं और हम भी कहानी सुनते हुए रो रहे थे. उनकी आंखों में अपने मां बाप को खोने व अपने घर न जा पाने का दर्द था.

यानी कि आप किन्नरों की व्यथा से प्रभावित हुए? 

जी हां! मैं तो उनके दर्द से इतना प्रभावित हुआ कि मैंने उन्हे समान धारा में लाने के लिए सोचना शुरू किया. तो मुझे याद आया कि 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश देते हुए ट्रांसजेंडर यानी कि किन्नरों को भी सामाजिक जीवन जीने और समानता का अधिकार दिया.  मैंने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को एक कदम आगे बढ़ाते हुए उनके दर्द व वयथा को सिनेमा के परदे पर लाने के साथ ही उसे सार्थक भी किया है.कुछ किन्नरों को अपनी बेटियां भी बनाया है. फिल्म निर्माता की हैसियत से पूरे भारत में मैंने ही इस तरह का काम किया है. हमने 15 किन्नरों की शादी किन्नर नहीं बल्कि पुरूषों से करवायी है. हमने फिल्म में बच्चे के प्रति मां की ममता और बच्चे के लिए मां की बगावत को भी दिखाया है.

हमने अपनी इस फिल्म में समाज के डर का चित्रण करते हुए हर इंसान को संदेश देने का प्रयास किया है कि समाज के डर को दूर कर अपने बच्चे के बारे में सोचना चाहिए. तभी समानता का अधिकार सही मायनों में आएगा.

आपकी फिल्म क्या संदेश देती है?

हम अपनी फिल्म के माध्यम से यही कहना चाहते हैं कि हमने अपने घरों से जिन बच्चों को बाहर कर दिया, अब उन्हें तो हम वापस ला नहीं सकते, पर हम उन्हें रिश्तों में बांध सकते हैं. मैं समाज से कहना चाहूंगा कि यदि किसी के घर में इस तरह का बच्चा पैदा होता है, तो वह उसे सड़कों पर भटकने के लिए घर से बाहर न करें. समाज से न डरे. समाज तो खुद कहता है- ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना.’ समाज की बातो को नजरंदाज कर अपने बच्चे पर ध्यान दें, उसे पढाएं व लिखाएं. सरकार भी आपका साथ देगी. हम फिल्म के माध्यम से इस बात को प्रचारित करने का काम करते रहेंगे. हम अपनी तरफ से समाज में एक सकारात्मक बदलाव लाने का काम करते रहेंगे.

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फिल्म ‘हंसाः एक संयोग’ की खासियत?

फिल्म इस बात की ओर इशारा करती है कि यह समाज ऐसा जहां इंसान जीना चाहता है, पर समाज उसे जीने नहीं देता. किन्नर तो अर्धनारीष्वर है. उसके अंदर आधा पुरूष और आधा स्त्री तत्व है. भारतीय संस्कृति में किन्नर और गंधर्व तो ईश्वर की श्रेणी में आते हैं. हमारे देश में आम धारणा है कि किन्नर के आशिर्वाद से काम सफल हो जाता है. एक तरफ आप किन्नर में इतनी सकारात्मकता देखते हैं, तो दूसरी तरफ जब आपके घर कोई किन्नर पैदा होता है, तो उसके जन्म लते ही आप उसे घर से बाहर कर सारे रिश्ते खत्म कर देते हैं.

आपने फिल्म के लिए कलाकारों का चयन कैसे किया?

हमारी फिल्म की कहानी छत्तीसगढ़ की है. फिल्म में मास्टर रामानुज यानी कि बाल किन्नर के किरदार में बाल कलाकार आयुष, बड़े रामानुज यानी कि किन्नर हंसा के किरदार में आयुश श्रीवास्तव है. यह दोनो कलाकार रायपुर,छत्तीसगढ़ से हैं. उसकी माता सुमित्रा देवी के किरदार में वैष्णवी मैकडोनल्ड,पिता जसवंत सिंह के किरदार में सयाजी शिंदे, दादा बलवंत सिंह के किरदार में शरत सक्सेना, हंसा की किन्नर गुरू अमीना बानो के किरदार में अखिलेंद्र मिश्रा, मंत्रा पाटिल के किरदार में राधिका, वकील भुदड़िया के किरदार में अमन वर्मा, सोनिया के किरदार में दीपशिखा नागपाल व सोनिया के पति सेठ धरमदास के किरदार को मैंने स्वयं निभाया है. अन्य कलाकार हैं-इशित्याक खान, बच्चन पचेरा, गोपाल सिंह, पंकज अवधेश शुक्ला हैं.

आगे की योजना क्या है?

किन्नरों को समान धारा में लाने के लिए मैं निरंतर प्रयास रहत रहूंगा. यह किन्नर कला या सुंदरता के मसले पर किसी से कम नहीं है. इसलिए अब हम इनसें अपनी अगली फिल्मों में अभिनय करवाने के अलावा इस बात के लिए प्रयास कर रहा हूं कि कुछ कंपनियां बड़ी बड़ी हीरोईनो की बनिस्बत इन्हें अपने प्रोडक्ट की मौडल के रूप में लेकर विज्ञापन फिल्में बनाएं.

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आपने जिन 15 किन्नरों की शादी कराई, यह शादियां टिकेंगी?

-जरूर देखिए,यह पहले से ही रिश्ते में हैं. समाज इन्हें शादी के बंधन में नहीं देखना चाहता था. अब हम इन्हे बच्चे एडौप्ट करने की सलाह देने वाले हैं. क्योंकि किन्नर अपने पति रूपी पुरूष को औरत का सुख दे सकती है, पर बच्चे नहीं पैदा कर सकती. इससे देश के अनाथलयों में पल रहे बच्चों को मां बाप मिल सकेंगे.

दूसरी फिल्म की योजना क्या है? 

जी हां! दो फिल्मों पर काम कर रहा हूं. जिसमें से एक छत्तीसगढ़ी भाषा की फिल्म ‘कर्मभूमि है. यह ऐसी फिल्म है जो कि हर किसान को प्रेरणा देगी और उन्हें एक ऐसी राह बताएगी, जिससे उन्हें कभी भी पानी के अभाव में खेतों के सूखने का डर नहीं सताएगा. बाद में इसे देश की अलग अलग भाषाओं में डब करके रिलीज करुंगा. हमारी इस फिल्म को देखकर वह पद्धति व तकनिक की जानकारी मिलेगी, जिससे वह पानी के लिए नहीं तरसेंगे.

दोस्ती की कोख से जन्मी दुश्मनी

गोरखपुर के थाना शाहपुर में किसी अज्ञात व्यक्ति ने फोन कर के सूचना दी कि रेलवे डेयरी कालोनी के पास 2 लोगों की लाशें पड़ी हैं.

यह बात 23/24 जनवरी, 2019 की रात के साढ़े 12 बजे की है. थानाप्रभारी नवीन कुमार सिंह उस समय रात्रि गश्त पर थे.

2 लाशों की खबर पा कर वह सीधे घटनास्थल पर पहुंच गए. इस की सूचना उन्होंने आलाअधिकारियों को भी दे दी थी. एसपी (सिटी) विनय कुमार सिंह, सीओ (कैंट) प्रभात राय भी घटनास्थल पर पहुंच गए.

लाशों की तलाशी लेने पर उन की जेब से मिले आधारकार्ड की वजह से दोनों की पहचान रमेश यादव निवासी कुशीनगर, हनुमानगंज और अरविंद कुमार सिंह निवासी शाहपुर के रूप में हुई. कुशीनगर वहां से दूर था इसलिए पुलिस ने उसी रात अरविंद के घर वालों को सूचना दे कर मौके पर बुला लिया.

अरविंद के पिता राजेश सिंह मौके पर पहुंचे और उन्होंने उन में से एक लाश की पहचान अपने बेटे अरविंद कुमार सिंह उर्फ रानू के रूप में कर दी. राजेश सिंह ने दूसरे मृतक को बेटे के दोस्त रमेश सिंह के रूप में पहचाना. पुलिस ने घटनास्थल से 4 खाली खोखे बरामद किए. सुबह को रमेश के घर वाले भी शाहपुर पहुंच गए.

पहचान होने के बाद पुलिस ने दोनों लाशें पोस्टमार्टम के लिए बाबा राघवदास मैडिकल कालेज, गुलरिहा भिजवा दीं. राजेश सिंह ने बेटे की हत्या के लिए 12 नामजद और 4 अज्ञात के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया. सभी आरोपी रुद्रपुर, देवरिया के थे. मुकदमा दर्ज करने के बाद पुलिस ने जांच शुरू कर दी. चूंकि रिपोर्ट नामजद थी इसलिए पुलिस ने नामजद आरोपियों को हिरासत में ले कर पूछताछ की. लेकिन उन का इस घटना में कहीं कोई हाथ नहीं पाया गया.

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एसएसपी डा. सुनील गुप्ता ने इस दोहरे हत्याकांड के खुलासे के लिए पुलिस की 4 टीमें बनाईं. छानबीन में पुलिस को पता चला कि इस हत्याकांड में रमेश के दोस्त शेरू आदि का हाथ हो सकता है. क्योंकि दोनों की आपस में नहीं बनती थी. दुर्गेश यादव उर्फ शेरू गोरखपुर के गांव जमीन भीटी का रहने वाला था.

इस प्रकार की भी जानकारी मिली कि वारदात में उस का भाई बृजेश यादव उर्फ मंटू भी शामिल रहा हो. पुलिस ने दुर्गेश और बृजेश के घर पर दबिश दी, लेकिन दोनों भाई घर से फरार मिले. काफी कोशिश के बाद भी जब बृजेश और दुर्गेश नहीं मिले तो  आईजी (जोन) जयनारायण सिंह ने उन पर 25-25 हजार रुपए का ईनाम घोषित कर दिया. पुलिस टीमें अपने स्तर से दोनों आरोपियों को तलाशने लगीं.

इसी दौरान 29 जनवरी को शाहपुर थानाप्रभारी नवीन सिंह को एक मुखबिर से खबर मिली कि दोहरी हत्या की घटना में शामिल मुख्य आरोपी दुर्गेश यादव उर्फ शेरू अपने साथी राशिद खान के साथ हनुमान मंदिर बिछिया से मोहद्दीपुर की तरफ आने वाला है.

इस सूचना के बाद नवीन कुमार सिंह, कौआबाग चौकी प्रभारी राजाराम द्विवेदी और स्वाट टीम प्रभारी दीपक कुमार के साथ मोहद्दीपुर ओरवब्रिज के पास पहुंच गए और उन दोनों के आने का इंतजार करने लगे.

थोड़ी देर बाद एक काले रंग की मोटरसाइकिल पर 2 व्यक्ति आते दिखे तो मुखबिर के इशारे पर पुलिस ने मोटरसाइकिल रोकने का इशारा किया. पुलिस को देख दोनों ने मोटरसाइकिल मोड़ कर भागने की कोशिश की, लेकिन हड़बड़ाहट में मोटरसाइकिल फिसल कर गिर गई. तभी पुलिस ने उन्हें हिरासत में ले लिया.

तलाशी लेने पर दोनों के पास से .32 बोर की 1-1 पिस्टल और 5-5 जिंदा कारतूस बरामद हुए. पूछताछ में उन में से एक युवक ने अपना नाम दुर्गेश यादव और दूसरे ने राशिद खान निवासी गांव चेरिया थाना बेलीपार, जनपद गोरखपुर बताया. पुलिस दोनों को शाहपुर थाने ले आई. उन की गिरफ्तारी की जानकारी वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को भी दे दी गई.

सूचना मिलते ही एसएसपी डा. सुनील गुप्ता, एसपी (सिटी) विनय कुमार सिंह और क्षेत्राधिकारी प्रभात राय शाहपुर थाने पहुंच गए. दुर्गेश यादव उर्फ शेरू और राशिद खान से सख्ती से पूछताछ की गई तो दोनों ने दोहरे हत्याकांड का अपराध स्वीकार कर लिया.

पूछताछ में पता चला कि आरोपी दुर्गेश उर्फ शेरू और मृतक रमेश यादव दोनों गहरे दोस्त थे. उन के बीच दांतकाटी रोटी जैसी दोस्ती थी. दोनों एकदूसरे के हमराज भी थे. फिर उन के बीच ऐसा क्या हुआ कि वे एकदूसरे के खून के प्यासे बन गए. पूछताछ के बाद आरोपियों के बयानों से कहानी कुछ इस तरह सामने आई—

24 वर्षीय रमेश यादव मूलरूप से उत्तर प्रदेश के शहर कुशीनगर के धोबी छापर का रहने वाला था. वह 4 भाईबहनों में दूसरे नंबर पर था. बेहद स्मार्ट रमेश पढ़लिख कर जीवन में कुछ बड़ा बनना चाहता था.

हनुमानगंज के धोबी छापर इलाके में जहां वह रहता था, वह इलाका आज भी पिछड़ा माना जाता है. वहां रह कर वह अपने सपनों का महल खड़ा नहीं कर सकता था इसलिए उस ने गांव छोड़ने का फैसला कर लिया. उस के सपनों को साकार करने के लिए घर वालों ने भी उसे पूरी आजादी दे दी थी.

जीवन में आगे बढ़ने के लिए रमेश को जिस चीज की जरूरत होती घर वाले पूरी करते थे. रमेश गोरखपुर शहर आ गया और शाहपुर इलाके में पादरी बाजार मोहल्ले में किराए का कमरा ले कर रहने लगा. यहीं रह कर वह पढ़ता भी था.

इसी मोहल्ले में दुर्गेश यादव उर्फ शेरू भी रहता था. यहां उस का अपना निजी मकान था. उस के परिवार में एक छोटा भाई बृजेश कुमार यादव उर्फ मंटू और मांबाप रहते थे. दुर्गेश के पिता बलवंत यादव प्राइवेट जौब करते थे. हालांकि बलवंत यादव मूलरूप से गगहा थाने के जमीनी भीटी गांव के रहने वाले थे. गांव में उन की खेती की जमीन भी थी.

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चूंकि, रमेश और दुर्गेश पास में रहते थे. दोनों हमउम्र भी थे इसीलिए जल्द ही दोनों के बीच दोस्ती हो गई. धीरेधीरे उन की दोस्ती घनिष्ठ से भी घनिष्ठतम हो गई. दुर्गेश से दोस्ती से पहले रमेश का एक और भी बचपन का दोस्त था- अरविंद कुमार सिंह उर्फ रानू. रानू शाहपुर के गीता वाटिका इलाके की आवास विकास कालोनी में मांबाप के साथ रहता था.

उस के पिता राजेश सिंह सरकारी मुलाजिम थे तो चाचा आरपीएफ में दारोगा थे. रानू के परिवार के लोग बड़े ओहदे पर थे और इज्जतदार भी थे. गोरखपुर के अलावा रानू का देवरिया के रुद्रपुर में पुश्तैनी घर और संपत्ति थी. उस के दादादादी गांव में ही रहते थे, इसलिए वह अकसर गांव आताजाता रहता था.

दुर्गेश से दोस्ती के बाद रमेश ने अपने घर पर एक पार्टी दी. पार्टी में रानू और दुर्गेश भी आए थे. वहीं पर रमेश ने दुर्गेश और रानू का आपस में परिचय कराया था. इस के बाद रानू भी दुर्गेश का दोस्त बन गया था. जितनी गहरी रानू की रमेश से छनती थी, पता नहीं क्यों उतनी रमेश से उस की नहीं बनती थी और न ही उस की दोस्ती उसे रास आ रही थी. इसलिए रानू दुर्गेश से कम ही मिलताजुलता था.

देखने में रमेश जितना मासूम और स्मार्ट दिखता था दरअसल, वो वैसा था नहीं. रमेश किसी बात को ले कर कभीकभी दुर्गेश उर्फ शेरू से नाराज हो जाता था तो उस का रौद्र रूप देख कर वह भीतर तक सहम जाता था.

इस कारण दुर्गेश पर वह भारी पड़ता था. उस समय शेरू अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझता था, जब कभी दुर्गेश एकांत में होता था तो वह जरूर सोचता कि आखिर रमेश उस के साथ ऐसा क्यों करता है.

दरअसल, रमेश के चेहरे पर एक और चेहरा था. उस चेहरे के पीछे एक गंभीर राज छिपा था. उस राज को उस के बचपन के दोस्त रानू के अलावा कोई तीसरा नहीं जानता था. रमेश यादव एक शातिर अपराधी था और पुलिस का मुखबिर भी.

हनुमानगंज थाने में उस पर कई आपराधिक मुकदमे दर्ज थे, पुलिस का मुखबिर होने की वजह से उस के सिर पर थानेदार और अन्य पुलिसकर्मियों का हाथ था. इसीलिए वह किसी से न दबता था और न ही डरता था. मुखबिर होने की वजह से पुलिस भी उस के छोटेमोटे अपराधों को नजरअंदाज कर देती थी.

दुर्गेश रमेश की दबंगई से तंग आ चुका था. दबंगई के साथ ही वह उस से छोटीछोटी बात पर भिड़ जाता और मारपीट करने पर उतर आता था. आखिर दुर्गेश यह कब तक सहन करता, यहीं से उन की दोस्ती में दरार आ गई.

खुद को कमजोर समझने वाला दुर्गेश धीरेधीरे रमेश से अलग हो गया और उस ने अपनी एक अलग मंडली बना ली. इस मंडली में शामिल थे राशिद खान, संदीप यादव, मनीश साहनी, नवनीत मिश्रा उर्फ लकी, अंगेश सिंह और बृजेश यादव उर्फ मंटू.

अब दुर्गेश यादव रमेश से ताकतवर बन कर उस के सामने आना चाहता था ताकि रमेश से अपने अपमान का बदला ले सके. लेकिन यह इतना आसान नहीं था. क्योंकि रमेश अपने साथ हमेशा लोडेड पिस्टल ले कर चलता था. दुर्गेश यही सोचता था कि काश मेरे पास भी पिस्टल होती तो सारी की सारी गोलियां उस के सीने में उतार कर उस से अपना बदला ले लेता.

दोस्त से जानी दुश्मन बने दुर्गेश और रमेश एकदूसरे को देख लेने के लिए दुश्मनी के मैदान में बड़ी लकीर खींच चुके थे.

इस बीच एक और रोमांचक कहानी ने जन्म ले लिया. रोमांचक कहानी की मूल कड़ी थी दुर्गेश की प्रेमिका रूपाली. दुर्गेश और रूपाली दोनों एकदूसरे को दिलोजान से मोहब्बत करते थे.

बात दिसंबर 2018 की है. रूपाली कैंट थाना क्षेत्र स्थित व्हील पार्क में दुर्गेश से मिली. उस दिन वह बेहद उदास थी. उस की उदासी देख कर दुर्गेश तड़प उठा. जब उस ने रूपाली से उस की उदासी का कारण पूछा तो वह फफक कर रो पड़ी. वह बोली, ‘‘तुम्हारा दोस्त रमेश पिछले कई दिनों से मेरे साथ बदतमीजी कर रहा है. जातेआते रास्ते में छेड़ता है. ऊलजलूल फब्तियां कसता है.’’ यह सुन कर गुस्से से दुर्गेश की आंखें सुर्ख हो गईं.

रूपाली की बातें सुन कर दुर्गेश बोला, ‘‘उस कमीने से मैं ने कब की दोस्ती तोड़ दी है. अब वह मेरा दोस्त नहीं, दुश्मन है. तुम्हें छेड़ना उसे बहुत महंगा पड़ेगा. तुम चिंता क्यों करती हो. मैं उसे इस की ऐसी सजा दूंगा जिस की उस ने कल्पना तक नहीं की होगी.’’

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दरअसल दुर्गेश उर्फ शेरू से 36 का आंकड़ा होने के बाद रमेश का दिल दुर्गेश की प्रेमिका रूपाली पर आ गया था. रमेश उस से एकतरफा प्यार करने लगा था. लेकिन रूपाली दुर्गेश के प्रति वफादार थी. उस ने रमेश को कभी लिफ्ट नहीं दी. रूपाली के कठोर व्यवहार से तमतमाया रमेश रूपाली को आतेजाते रास्ते में छेड़ने लगा था.

दुर्गेश यादव जानता था कि वह कभी अकेले दम रमेश से मुकाबला नहीं कर सकता. बदले के जुनून में दुर्गेश ने रमेश को मात देने के लिए आखिरकार रास्ता निकाल ही लिया. इस खेल में उस ने महराजगंज जिले में तैनात सिपाही विकास यादव को शामिल कर लिया. सिपाही विकास यादव दुर्गेश का दूर का रिश्तेदार था. उस के बूते पर दुर्गेश खुद को रमेश से ताकतवर समझने लगा था.

दुर्गेश ने रमेश यादव को ठिकाने लगाने के लिए अपने दोस्तों राशिद खान, संदीप यादव, मनीष साहनी, नवनीत मिश्रा उर्फ लकी, अंगेश सिंह व अपने भाई बृजेश यादव उर्फ मंटू के साथ मिल कर एक योजना बनाई. इस योजना में उस ने सिपाही विकास यादव को भी शामिल कर लिया था. योजना को अंजाम देने के लिए उस ने 23 जनवरी, 2019 की तारीख पक्की कर दी थी.

इस के एक दिन पहले यानी 22 जनवरी को रूपाली को ले कर दुर्गेश और रमेश के बीच हाथापाई हुई थी. इस में रमेश फिर से दुर्गेश पर भारी पड़ गया था.

योजना के अनुसार, 23 जनवरी की रात शाहपुर इलाके की रेलवे डेयरी कालोनी के पास दुर्गेश उर्फ शेरू ने दोस्तों को मीट और लिट्टी की दावत दी थी. दावत में राशिद खान, संदीप यादव, मनीष साहनी, नवनीत मिश्रा, अंगेश सिंह, बृजेश यादव के अलावा सिपाही विकास यादव भी शामिल हुआ था.

दावत में मीट और लिट्टी के साथ शराब भी चली. जब शराब रंग दिखाने लगी तो दुर्गेश ने रमेश को फोन कर दावत खाने के बहाने रेलवे डेयरी कालोनी बुलाया.

उस समय रमेश गोरखपुर रेलवे स्टेशन के बाहर अपने दोस्त अरविंद उर्फ रानू के साथ खड़ा था. दुश्मनी के बावजूद रमेश दुर्गेश के कहने पर रानू के साथ रेलवे डेयरी कालोनी पहुंच गया. उस समय रात के साढ़े 11 बज रहे थे.

रमेश और रानू के पहुंचते ही दुर्गेश और उस के दोस्त चौकन्ने हो गए. रमेश को देखते ही दुर्गेश को रूपाली वाली बात याद आ गई और उस का खून खौल उठा. दुर्गेश ने रमेश और रानू को बैठने के लिए बोला तो रमेश ने पूछा, ‘‘तुम ने मुझे यहां क्यों बुलाया?’’

दुर्गेश ने कहा कि तुम बैठो तो सही तुम्हें बताता हूं कि मैं ने तुम्हें क्यों बुलाया है. तब तक दुर्गेश का भाई बृजेश यादव उर्फ मंटू पीछे से रमेश पर टूट पड़ा. रमेश समझ गया कि यहां रुकना खतरे से खाली नहीं है. जैसे ही रमेश वहां से वापस जाने के लिए पीछे मुड़ा तभी दुर्गेश ने पिस्टल निकाल कर रमेश की खोपड़ी से सटा कर गोली चला दी. गोली लगते ही रमेश का भेजा उड़ गया.

दोस्त को गोली लगी देख रानू सन्न रह गया और जान बचाने के लिए वह तेजी से भागा. रानू को भागते देख दुर्गेश का छोटा भाई बृजेश और राशिद खान उस के पीछे भागे और 15 मीटर की दूरी पर उसे भी गोली मार दी.

गोली लगते ही रानू ने भी मौके पर दम तोड़ दिया. हालांकि रानू की रमेश और दुर्गेश की दुश्मनी के बीच कोई भूमिका नहीं थी. वह घटनास्थल पर मौजूद था और हत्या का एकमात्र गवाह भी, इसलिए दुर्गेश ने उसे भी मार दिया.

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दुर्गेश यादव व राशिद खान से पूछताछ के बाद पुलिस ने उन्हें न्यायालय में पेश कर जेल भेज दिया. इस के बाद पुलिस ने इस दोहरे हत्याकांड के सभी आरोपियों को एकएक कर के गिरफ्तार कर लिया. सिपाही विकास यादव को इस घटना से अलग कर के उस के खिलाफ विभागीय जांच कराई जा रही है. फिलहाल पुलिस का कहना है कि उस का इस घटना से कोई लेनादेना नहीं था. यदि जांच में वह दोषी पाया गया तो उस के खिलाफ भी मुकदमा पंजीकृत किया जाएगा.

4 टिप्स: जाने क्यों झड़ते है आपके बाल…

हेयर फौल आज के इस पोल्युशन भारे टाइम में कोई नई बात नहीं है. आम तौर पर महिलाओं के साथ देखी जाने वाली हेयर फौल की प्रोब्लम पुरुषों में भी देखी जाने लगी हैं. लेकिन बड़े बालों के कारण पुरुषों की तुलना में महिलाएं इससे अधिक रूप से प्रभावित होती हैं. औस्ट्रेलियन जर्नल औफ जनरल प्रैक्टिस में प्रकाशित एक अध्ययन में शोधकर्ताओं में खुलासा किया कि करीब 49 फीसदी महिलाएं अपने जीवन में बालों के झड़ने की समस्या से परेशान होती हैं.

हेयर फौल के कारण

जेनेटिक, हार्मोनल असंतुलन और दूषित पर्यावरण, कई अध्ययनों में कहा गया कि रोजाना 50 से 100 बालों का टूटना सामान्य है लेकिन अगर संख्या निरंतर अंतराल पर बढ़ती है तो आपको इस गंभीर समस्या से निपटने के लिए डॉक्टर से बात करनी चाहिए. इसलिए आज हम आपको ऐसी 4 स्वास्थ्य स्थितियों के बारे में बता रहे हैं, जो बालों के झड़ने की गंभीर समस्या का कारण बन सकते हैं.

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1.गर्भावस्था में बालों का झड़ना

गर्भावस्था एक ऐसी स्थिति है, जिसके दौरान महिलाओं को बहुत सा तनाव हो सकता है और इसलिए बालों का झड़ना अधिक होता है. तनाव बालों की कमजोर का मुख्य कारण होता हैं. इसलिए डिलीवरी के बाद भी आपकी कंघी पर बालों की संख्या आपको बढ़ी हुई दिखाई दे सकती है.

2.हाइपो-थायरायडिज्म

हाइपोथायरायडिज्म की स्थिति में आपका थायराइड हार्मोन स्तर नीचे चला जाता है. इन हार्मोन का स्तर गिरने से आपके बाल कमजोर हो सकते हैं और इसके कारण बाल झड़ सकते हैं.

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3.ल्यूपस से होते है बाल कम

ये एक स्व-प्रतिरक्षित बीमारी है, जिसमें आपका इम्यून सिस्टम आपके शरीर के भीतर स्वस्थ कोशिकाओं पर हमला कर देता है. आपके शरीर के भीतर सूजन व जलन भी बालों के झड़ने के पीछे के प्रमुख कारकों में से एक है.

4.हाइपर टेंशन

किसी भी बड़ी घटना के बाद आप में चिंता विकसित हो सकता है, जिसे हाइपर टेंशन के रूप में भी जाना जाता है और पोषक तत्वों की कमी के कारण यह विकार बढ़ सकता है, जिसके कारण लोगों में बालों के बढ़ने की स्थिति में असंतुलन हो सकता है. इस प्रक्रिया के कारण लोगों में बालों के झड़ने की शुरुआत हो सकती है.

प्लकर से बाल निकालना : सही या गलत?

प्‍लकर से बाल निकालना या ट्वीजिंग एक ऐसी तकनीक है जिससे आमतौर पर अतिरिक्त बालों को हटाया जाता है. ट्वीजिंग बाल को जड़ से हटा देता है. इसका इस्तेमाल लड़कियां आइब्रो, ठुड्डी, ऊपरी होंठ, निचले होंठ और गाल के बालों को हटाने के लिए करती हैं. ट्वीजिंग दरअसल बालों को तोड़ने की एक विधि है, जिसके अपने फायदे और नुकसान हैं. आइए हम आपको बालों को हटाने के लिए ट्वीजर के इस्तेमाल की अच्छाई और बुराई के बारे में बताते हैं.

इसलिए अच्छा है ट्वीजिंग

आसान : अगर आप अनावश्यक बालों को अस्थाई तौर पर हटाना चाहती हैं तो ट्वीजिंग सबसे आसान विकल्प है. नौन—प्रोफेशनल लोग भी ट्वीजिंग का इस्तेमाल आसानी से कर सकते हैं. इससे ट्वीजिंग महिलाओं के लिए बालों को हटाने का सबसे अच्छा विकल्प बन जाता है.

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कम खर्चीला : अगर आप एक ट्वीजर खरीद लेते हैं तो बालों को हटाना आपके लिए खर्चीला नहीं रह जाता है. एक बार जब आप ट्वीजर के इस्तेमाल में एक्सपर्ट बन जाते हैं तो फिर आपको बालों को हटाने के लिए ब्यूटी सैलून जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. आप घर पर ही ट्वीजिंग कर सकती हैं.

कम तकलीफदेह : ट्वीजिंग अच्छा है या बुरा, इस सवाल पर विचार करते समय आप इससे होने वाले दर्द के बारे में भी सोचती होंगी. पर ट्वीजिंग में थ्रेडिंग की तुलना में कम दर्द होता है, क्योंकि इसमें आप अपनी सुविधा के हिसाब से सिंगल हेयर स्ट्रैंड को हटाती हैं.

विशेषज्ञ होने की जरूरत नहीं : ट्वीजिंग करने के लिए आपको ब्यूटी प्रोफेशनल होने की जरूरत नहीं है. एक बार जब आप इस तकनीक से परिचित हो जाएंगी तो​ फिर आप पूरी बारीकी से ट्वीजिंग कर सकती हैं. यही वजह है महिलाओं में ट्वीजिंग काफी लोकप्रिय है.

इसलिए बुरा है ट्वीजिंग

इनग्रोन हेयर :​ थिक हेयर फालिकल का ट्वीजिंग करना अच्छा नहीं माना जाता है. इससे इनग्रोन हेयर की समस्या आ सकती है. साथ ही इससे त्वचा पर लाली, सूजन और निशान भी आ सकता है.

पिंचिंग स्किन : ट्वीजर के इस्तेमाल के दौरान पिंचिंग स्किन की समस्या सबसे बड़ी होती है. सिर्फ सावधानी से ही इस समस्या से निजात पाया जा सकता है. इस तकनीक से परिचित हो जाने के बाद आपको इस परेशानी से नहीं जूझना पड़ेगा.

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समय : बालों को हटाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली दूसरी विधि की तुलना में ट्वीजिंग में ज्यादा समय लगता है. ट्वीजिंग में लगने वाला समय इस बात पर निर्भर करता है कि बाल कितने बड़े हिस्से पर निकले हैं. चूंकि ट्वीजिंग बालों को हटाने का अस्थाई तरीका है, इसलिए नियमित अंतराल पर इसे दोहराना पड़ता है.

ऊबाउ : अगर आप बहुत बड़े​ हिस्से के बाल को हटाने के बारे में विचार कर रही हैं तो यह एक ऊबाउ काम साबित होगा. चूंकि ट्वीजिंग एक समय में ज्यादा बालों को नहीं हटा सकता है, इसलिए आपको बहुत ज्यादा धैर्य की जरूरत होगी.

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आज ही से शुरू करें ये काम, बुढ़ापे में अच्छी रहेगी याद्दाश्त

एक खास उम्र के पड़ाव पर आ कर शरीर की बहुत सी चीजें कमजोर पड़ने लगती हैं. एक खास उम्र में  कर हमारे शारीरिक और मानसिक विकास में काफी कमजोरी देखी जाती है. हाल ही में हुए एक शोध में ये बात सामने आई कि बढ़ते उम्र के साथ मानसिक तौर पर आने वाली कमजोरी को ठीक किया जा सकता है. इसके लिए जरूरी है कि आप शारीरिक और मानसिक तौर पर अधिक सक्रिय रहें. इसके लिए आप पढ़ने की आदत डाल सकते हैं. इसके अलावा वाद्ययंत्र बजाना, सामूहिक गायन, बागवानी करना, विभिन्न कार्यक्रमों में जाना जैसी चीजें कर सकते हैं. इससे आपका याद्दाश्त अच्छी रहेगी.

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स्वीडन में हुए इस शोध में जानकारों का मानना है कि अधेड़ उम्र में होने वाली मानसिक कमजोरियों को दूर करने के लिए मानसिक और शारीरिक तौर पर सक्रिय रहना बेहद जरूरी है. इससे बुढ़ापे में याद्दाश्त का कमजोर होने को कम किया जा सकता है.

जानकारों की माने ते ये तरीका काफी कारगर और बेहतरीन है. इसमें खुद को स्वस्थ करने के लिए लोगों को बहुत पैसा खर्च करने की भी जरूरत नहीं है. बिना पैसा खर्च किए आम चीजों में खुद को लगा कर याद्दाश्त जैसी बेहद जरूरी चीज को अच्छा किया जा सकता है. स्वीडन में 800 महिलाओं पर यह अध्ययन किया गया जिनकी औसत उम्र 47 थीं.

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और तो सब ठीकठाक है

दरबार जमा हुआ था. सबकुछ निश्चित कर लिया गया था. अब किसी को कोई परेशानी नहीं थी. पंडित गिरधारीलाल की समस्या का समाधान हो चुका था. रजब मियां के चेहरे पर भी संतुष्टि के भाव थे.

हां, कल्लू का मिजाज अभी ठीक नहीं हुआ था. उस ने भरे दरबार में चौधरी साहब की शान में गुस्ताखी की थी. नरेंद्र तो आपे से बाहर भी हो गया था, किंतु चौधरी साहब ने सब संभाल लिया था.

चौधरी जगतनारायण खेलेखाए घाघ आदमी थे. जानते थे कि वक्त पर खोटा सिक्का भी काम आ जाता है. फिर दूध देने वाली गाय की तो लात भी सही जाती है. उन्होंने बड़ी मीठी धमकी देते हुए कल्लू को समझाया था, ‘‘कल्लू भाई, थूक दो गुस्सा. धंधे में क्रोध से काम नहीं चलता. हम तो तुम्हारे ग्राहक हैं. ग्राहक से गुस्सा करना तो व्यवसाय के नियमों में नहीं आता.’’

‘‘लेकिन चौधरी साहब, मैं अपने इलाके का शेर हूं, कुत्ता नहीं. कोई दूसरा गीदड़ मेरी हद में आ कर मेरा हक छीने, यह मुझे बरदाश्त नहीं होगा. वह रशीद का बच्चा, उस का तो मैं पोस्टमार्टम कर ही दूंगा.’’

‘‘कल्लू के मुंह से कौर छीनना इतना आसान तो नहीं है, जितना आप लोगों ने समझ लिया है. आज का फैसला आप के हाथ में है. लेकिन आगे का फैसला मैं अपनी मरजी से लिखूंगा. और हां, यह भी आप लोगों को बता दूं कि अपना आदमी जब बागी हो जाता है तो कहीं का नहीं छोड़ता.’’

‘‘तू क्या कर लेगा? तीन कौड़ी का आदमी. जानता नहीं जुम्मन की लंबी जबान काट कर फेंक दी थी. हरिशंकर आज भी जेल की चक्की पीस रहा है. कृपाराम मतवाला कुत्ते की मौत मरा था. आखिर, तू समझता क्या है अपनेआप को? चिड़ीमार कहीं का.

‘‘दोचार चूहे इधरउधर मार लिए तो बड़ा भेडि़या समझने लगा है अपनेआप को. सुन, हम राजनीति करते हैं. कोई भाड़ नहीं झोेंकते. तुझ जैसे तीन सौ पैंसठ घूमते हैं झाडू लगाते हुए. चल फूट यहां से,’’ नरेंद्र ने एक फूहड़ सी गाली बकी.

चौधरी साहब ने उसे रोक दिया, ‘‘नहीं नरेंद्र, कहने दो उसे, जो वह कहना चाहता है. उसे भी अपनी बात कहने का हक है. भई, देश में लोकतंत्र है. लोकतंत्र के तहत किसी को उचितअनुचित कुछ भी कहने से रोका नहीं जा सकता. बोलने दो इसे. यह समाजवाद का जमाना है. इसे कुछ गलत लगा है. इसे अपने दर्द को कहने का पूरापूरा हक है. फिर यह हमारा आदमी है. यह हमारे लिए कुछ भी सोचे, हम इस का बुरा नहीं सोच सकते.’’

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‘‘हां, हरीश. तुम ध्यान रखना कल्लू भाई का. इसे जब भी कोई जरूरत हो तो उसे पूरी करना. इस समय इसे गुस्सा है. जब यह शांत हो जाएगा तो समझ जाएगा कि कौन अपना है, कौन पराया,’’ चौधरी साहब गांधीवादी मुद्रा में बुद्धआसन लगाए हुए थे.

लेकिन कल्लू एकदम चिकना घड़ा था. वह अपनी हैसियत जानता था. वह यह भी जानता था कि चौधरी साहब के बिना उस का गुजारा नहीं और यह भी मानता था कि अपनेआप को अधिक सस्ता और सुगम बनाने से इनसान की औकात घटती है.

अब चौधरी साहब का दबदबा था. जिस का दबदबा हो उसी के साथ रहने में लाभ था. फिर कल्लू तेजी से घूम कर बाहर निकल गया.

इधर नरेंद्र चौधरी साहब को राजनीति समझा रहा था, ‘‘आप ने बहुत मुंह लगा रखा है उस घटिया आदमी को. उसे न तो बोलने का शऊर है, न ही उठनेबैठने की तमीज. उस दिन धर्मदास को ही दरवाजे पर धक्का मार दिया और फिर पिस्तौल भी निकाल ली. वह तो अच्छा हुआ कि मनोहरलालजी आ गए और बात संभल गई. नहीं तो गजब हो जाता.’’

‘‘अरे, कुछ भी गजब नहीं होता. इंदिरा गांधी को गोली मार दी गई तो मारने वालों पर कौन सा गजब टूट पड़ा? वही अदालत- कचहरी के चक्कर, वकीलों की तहरीरें, न्यायविदों की दलीलें. मुलजिम आनंद करते रहे. उन की रक्षा और देखभाल पर लाखों रुपया पानी की तरह बहाया जाता रहा. अब उच्चतम न्यायालय ने उन में से एक को बरी भी कर दिया है. बाकी को फांसी पर लटका दिया जाएगा. इस से क्या होगा? क्या पंजाब में अब शांति है.

‘‘जुलियस रिबेरो को पद्मश्री से अलंकृत कर दिया गया तो क्या उन की राइफलों में नई गोलियां आ गईं? पंजाब सरकार बरखास्त हो गई तो क्या आतंकवाद दब गया. सबकुछ वैसा ही चल रहा है.

‘‘राजनीति की शतरंज की चालें चली जाती रहेंगी और घाघ मुहरों के घर बदलते रहेंगे, पर मुहरे वही रहेंगे. धर्मनिरपेक्ष समाजवाद, लोकतंत्रीय संविधान, बीस सूत्री कार्यक्रम सब अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन हम भी अपनी जगह ठीक हैं.

‘‘कल्लू भाई की अपनी राजनीति है, अपना पैंतरा है, लेकिन वह हमारे लिए काम का आदमी है. बड़ा जीवट वाला आदमी है. देखो, उस दिन कालीप्रसाद को बुलाने भेजा तो उसे गिरेबान पकड़ कर घसीटता हुआ ले आया. कालीप्रसाद जैसे धाकड़ और झगड़ालू आदमी के गिरेबान पर हाथ डालना कोई हंसीखेल नहीं है, नरेंद्र.’’

चौधरी साहब आ गए नेताओं वाली भाषण मुद्रा में. लेकिन तभी चपरासी बुद्धा अंदर आया. बोला, ‘‘साहब, दिल्लीपुरा के ठाकुर लोग आए हैं.’’

चौधरी साहब ने उन्हें अंदर भेजने का संकेत किया. कीमती खादी के कपड़ों में झकाझक तड़कभड़क के साथ 5 विशिष्ट व्यक्तियों ने प्रवेश किया.

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चौधरी साहब का इशारा समझ कर सभी साथी बाहर खिसक गए. कुछ देर तक कुशलक्षेम चलता रहा.

‘‘साहब, वह आप का पुलिसिया कुत्ता था, अब वह कैसा है?’’

‘‘अरे भाई, किस पुलिसिए कुत्ते की बात कर रहे हो. उस के बाद तो मैं 7 कुत्ते बदल चुका.’’

अभ्यागतों में रमन नामक सदस्य भी था. वह सोचने लगा, ‘कुत्ते नहीं हुए, चप्पलें हो गईं. 1 साल में 7 कुत्ते बदल डाले.’

उधर चौधरी साहब पूछताछ करने लगे, ‘‘हरदयालजी, वह आप के भतीजे की बहू का कुछ चक्कर था… मामला सिमट गया कि नहीं?’’

‘‘नहीं, साहब. उस में कुछ गड़बड़ हो गई. हम समझे थे कि बलात्कार का मामला दर्ज कराएंगे. बहू पढ़ीलिखी है. साहस के साथ कह देगी कि दुर्गा ने उस के साथ जबरदस्ती की.

‘‘लेकिन बहू पहले दिन ही अदालत में घबरा गई और रोने लगी. वकीलों ने जिरह कर उसे और भी बौखला दिया. फिर बाद में कुछ मामला बना भी तो गवाह बिक चुके थे.

‘‘मुरली बाबू ने कुछ टुकड़े फेंक कर उन्हें खरीद लिया, लेकिन चौधरी साहब, एक बाजी जिच भी हो गई तो क्या अगली मात तो हम ही देंगे.’’

‘‘वह कैसे?’’ चौधरी साहब ने दोनों पैर सोफे पर खींच लिए. तभी अवधनारायण ने उठ कर उन की धोती ठीक कर दी.

हरदयाल अपना नक्शा समझाने लगे, ‘‘ ‘अपनी धरती’ अखबार का संपादक है न, शंभूप्रसाद. वह अपना यार है. कुछ मामला उस से बना है. उसी के आदमियों ने कुछ तसवीरें खींची हैं. गुलजार रेस्तरां में शराब पीते हुए, मालतीमाधवी के साथ रंगरलियां मनाते हुए, मार्क्सवादी नेता अर्जुनकुमार के साथ शतरंज खेलते हुए. बस, उन्हीं सब तसवीरों के आधार पर एक कहानी बन गई. यही फिल्म उस की असलियत खोल कर रख देगी.’’

हरदयाल अपनी योजना और भी विस्तार में समझाता, लेकिन तभी चौधरी साहब ने उसे टोक कर मुख्य मुद्दे पर बात करना जरूरी समझा.

आने वालों में अध्यापक ज्ञानेंद्र, वकील सुरेंद्रनाथ, सरपंच मोतीलाल, नेता ज्वालाप्रसाद और रमन उपस्थित थे. हरदयाल एक दूसरे सिलसिले में वहां आया था.

बात रमन ने ही शुरू की, ‘‘चौधरी साहब, अब पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगा है. हम ने पूरे जिले की नाका चुंगियों का ठेका लिया है. ट्रैफिक से चुंगी वसूल करते हैं. 10 प्रतिशत पार्टी के दफ्तर को देते हैं…’’

‘‘रुकिए, सारी बातें समझदारी के साथ स्पष्ट करनी चाहिए. ऐसा करते हैं, हरदयालजी, आप सब 11 तारीख को हम से मिलना, जो भी उचित होगा, तय कर लेंगे,’’ चौधरी साहब ने रमन की बात बीच में ही काट दी.

हरदयाल चुपचाप उठ कर बाहर चला गया.

‘‘अरे भाई, तुम लोगों में इतनी भी बुद्धि नहीं है कि कोई अन्य बाहरी आदमी बैठा है. ठीक है, आगे कहो.’’

‘‘आगे क्या कहें? 20 प्रतिशत आप के खाते में डाल देते हैं. 20 प्रतिशत सरकारी कामकाज के लिए, खानेपिलाने के लिए रख छोड़ते हैं. बकाया 50 प्रतिशत में हम 4 लोग भागीदार हैं.’’

‘‘फिर?’’

‘‘फिर क्या? वह ज्ञानीशंकर का लड़का नर्मदा अकड़ रहा है. 100-50 लड़के इकट्ठे कर लिए हैं और लड़नेमरने को आमादा है.’’

‘‘ठीक है, ठीक है, कुछ फूल उसे भी भेंट कर दो.’’

‘‘नहीं, चौधरी साहब, वह हरिश्चंद्र की औलाद बनता है. ऐसे लेनेदेने से तो नहीं टूटेगा. और भी जलील करेगा सब के आगे.’’

‘‘चांदी का जूता बहुत भारी होता है, नरेंद्रजी.’’

‘‘चौधरी साहब, नर्मदा अक्खड़- मिजाज और सनकी नौजवान है. उस ने अपना बहुमत बना लिया है. तब तो एक ही उपाय है. उसे साफ कर दिया जाए.’’

‘‘छि:छि:, कैसी छोटी बातें करते हो. ऐसे सनकी और जिद्दी आदमियों की हमें बहुत जरूरत है. मैं कल तहसील आऊंगा खुद नर्मदा से बातें करूंगा. और कुछ?’’

अध्यापक ज्ञानेंद्र ने अपनी बात कही, ‘‘चौधरी साहब, हम ने जिले के परमिट आप की राय के अनुसार ही वितरित किए थे. सेठ भगवानदास को सीमेंट का परमिट दिया गया. मुंशी प्यारेलाल भजनलाल फर्म को मिट्टी का तेल, गोवर्धनप्रसाद को सौफ्ट कोक, अली मुहम्मद को गैस आदि के ठेके दिए गए. हम ने वसूली के लिए चक्कर भी लगाए, लेकिन अधिकांश ने कहा कि उन्होंने अपना धन आप को दे दिया है. यदि ऐसा है तो हमारा हिस्सा दिलवा दीजिए.’’

‘‘देखो, मास्टर ज्ञानेंद्रजी. जब तुम एक निजी पाठशाला में मास्टरी करते थे तो चेहरे पर झुर्रियां थीं, आंखों में गड्ढे थे और कुरतापाजामा में पैबंद लगे थे. तुम्हारी पत्नी क्षयरोग की मरीज लगती थी और बच्चे ऐसे लगते थे जैसे सीधे अनाथाश्रम से आए हों.

‘‘तुम 350 रुपए और मुट्ठीभर इज्जत ले कर बीमार जिंदगी से लड़ रहे थे. मैं ने तुम्हें सड़क से उठा कर  मकान में रखा, मकान में दुकान लगवाई, दुकान में चक्की लगवाई, चक्की की कमाई से तुम्हारी रोटियां चल रही हैं.

‘‘चुनाव में तुम्हें विधान सभा का सदस्य बनाने के लिए 1 लाख रुपए खर्च किए हमारे 2 आदमी किशन और रमेश चुनाव युद्ध में काम आ गए. हम ने उन्हें तालाब में फिंकवा कर मामला रफादफा कर दिया. तुम अच्छे वोटों से जीते, तुम्हारा नाम भी हुआ.

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‘‘अब रही हिसाबकिताब की बात. भाई मास्टर, पहले मुझे अपने 1 लाख रुपए निकालने हैं. 20-20 हजार  रुपए मृत व्यक्तियों के रिश्तेदारों को देने हैं. अभी तो सिर्फ 80 हजार ही वसूल हुए हैं. आप लोग 60 हजार रुपए का प्रबंध कर के मुझे दिलवा दो. फिर चाहो तो मेरा हिस्सा भी तुम खा जाना.

‘‘गांधी, नेहरू जैसे बड़े नेता भी तो चुपचाप सब देखते थे. हिस्सेपट्टे से दूर रहते थे. मेरे पास तो ईमानदारी की कमाई ही बहुत है,’’ चौधरी साहब ने पैर सोफे से नीचे लटका दिए.

‘‘चौधरी साहब, यह तो ठीक है कि अब मेरा पक्का मकान है, लोगबाग इज्जत से देखते हैं, सेहत सुधर गई है, लेकिन राजनीति से इस का कुछ लेनादेना नहीं है.

‘‘हाउसिंग बोर्ड का मकान कर्ज पर लिया है. राजवैद्य चक्रपाणिजी के आयुर्वेदिक उपचार से मुझे स्वास्थ्य लाभ हुआ है. चुनाव में भी लोगों को मेरे चरित्र पर विश्वास था. मैं समझता हूं कि इस चुनाव में किसी का कुछ खर्च नहीं हुआ. क्या प्रमाण है आप के पास? क्या खर्च किया है आप ने?’’

‘‘छि:छि:, उग्र होने से स्वास्थ्य बिगड़ता है, मेरे भाई. सुनो, जिन लोगों को चुनाव से पहले वारुणी की बोतलें वितरित कीं, उन की रसीदें चाहिए क्या? 3 महल्लों में हैंडपंप लगवाए हैं, उन की रसीद चाहिए क्या? 3 हजार कंबल खरीद कर बांटे गए, उन की रसीद चाहिए क्या? कैसी बच्चों जैसी बातें करते हो? बिना खर्चपानी के कोई चुनाव नहीं जीतता. एक प्राइमरी स्कूल के मास्टर की इतनी हस्ती नहीं होती कि वह विधान सभा का चुनाव जीत ले. क्या तुम्हारी सात पुश्तों में भी किसी ने ऐसा सम्मान प्राप्त किया था?

‘‘भाई मेरे, अब तुम सरकार हो, कानून हो, शहर के मालिक हो. तुम किसी को भी जेल में बंद करा सकते हो. किसी को भी जेल से छुड़वा सकते हो. शहर के जुए के अड्डे, रंडियों के कोठे, शराब की भट्ठियां सब तुम्हारी मरजी से चलती हैं.

‘‘मुगल शासनकाल में बादशाह विभिन्न प्रांतों के लिए अलगअलग सूबेदार नियुक्त करता था. वह सूबेदार अपने इलाके का राजा होता था. तुम भी अपने इलाके के राजा हो. किसी का भी तबादला करा सकते हो, नियुक्ति करा सकते हो, निलंबित करा सकते हो. तुम्हारे एक इशारे पर कोई भी पिट सकता है, हवालात में बंद हो सकता है या भगाया जा सकता है. क्या मदरसे की मास्टरी में तुम्हारा यही रोब था?’’

‘‘लेकिन चौधरी साहब, पेट बड़ा हो जाने से खुराक भी ज्यादा हो जाती है. आप ने हमारा पेट बड़ा किया है तो हमें खुराक भी बड़ी चाहिए.’’

‘‘पुलिस विभाग आप के लिए छोड़ दिया है. खाओ और खाने दो. शहर के गुंडेबदमाशों का दोहन करो, लाटरी, जुआ, शराब, चिट आदि की सदाबहार खेती को संभालो.’’

‘‘फिर भी आप को हम सब का हिस्सा तो देना ही होगा. आप जबरदस्ती हमारा हिस्सा हजम नहीं कर सकते.’’

‘‘फिर ठीक है, समझ लो, मैं ने सब कुछ हजम कर लिया. अब आप को जो करना है कर लेना.’’

‘‘समझ लीजिए, चौधरी साहब. आप को यह सौदा महंगा पड़ेगा.’’

‘‘जाओ, मास्टर. राजनीति में ऐसी धमकियां तो हमारा नाश्तापानी हैं. हां, लेकिन हाथपैर संभाल कर वार करना.’’

सभी लोग उत्तेजित से निकल गए. नेताजी ने चपरासी से कहा, ‘‘अंदर कोई नहीं आए. जरा रामदुलारी को भेज देना. कंठ बड़ा चटक रहा है.’’

दूसरे दिन तहसील में होहल्ला मचा हुआ था. वकील सुरेंद्रनाथ, नेता ज्वालाप्रसाद और नरेंद्र का कत्ल हो गया था. रात में 8-10 डाकू आए थे गांव में.

सब से पहले गल्ला फकीर मरा. वह पागल था. पुराने कुएं की जगत पर सोया था. होहल्ला सुन कर डाकुओं के सामने सीना तान कर खड़ा हो गया. एक घोड़े की लगाम भी पकड़ ली. तभी आग के एक शोले ने उसे जमीन पर लिटा दिया. एक ही चीख में ठंडा हो गया वह पागल. उस की कहीं चर्चा भी नहीं हुई.

फिर डाकुओं ने ढूंढ़ढूंढ़ कर तीनों व्यक्तियों को मारा. संयोगवश मास्टर ज्ञानेंद्र किसी काम से शहर गए थे. सरपंच होतीलाल को पेचिश लग गई थी. वह सरकारी अस्पताल का लाल पानी पीने के लिए गांव से बाहर ही थे. शायद इसीलिए शहीद होतेहोते बच गए.

सरकारी टेलीफोन की घंटियां घनघना उठीं. नेता, अभिनेता, पत्रकार, फोटोग्राफर आदि की लाइनें लगने लगीं. पुलिस हरकत में आ गई.

दूरदूर तक डाकुओं का पीछा किया गया. उन की धूल भी हाथ न लगी, लेकिन पुलिस को तो कुछ न कुछ करना ही था. 30 आदमियों को गिरफ्तार किया गया. गांवतहसील में कुछ नारेबाजियां हुईं. फिर सबकुछ शांत हो गया.

दूसरे दिन शाम को मास्टर ज्ञानेंद्र चुपचाप आए डरेसहमे से. चौधरी साहब ने उन का स्वागत किया. अंदर के निजी कक्ष में कुछ भेद की बातें हुईं. कुछ देर बाद मास्टर ज्ञानेंद्र कुछ संतुष्ट से, कुछ खुश से बाहर निकले.

ज्ञानेंद्र ने गांव संभाल लिया था. अब उन के मकान की दूसरी मंजिल का काम संगमरमर से हो रहा था. कुछ नई शक्लसूरतें गांव में दिखाई दे रही थीं.

फिर एक दिन चौधरी साहब गांव में आए. सब को आश्वस्त किया. लोग उन से सहमे हुए थे, डरे हुए थे. और तो सब ठीकठाक था. सब जगह शांति थी. लोग अपनेअपने कामों में लग गए थे.

धमाकों से जुड़े कुछ सवाल

शहर में रहरह कर सिलसिलेवार बम धमाके हो रहे थे. चारों तरफ अफरातफरी का माहौल था. मैं टेलीविजन पर नजरें गड़ाए बैठा था. मुन्ना भी वहीं बैठा अपना होमवर्क कर रहा था. अचानक उस ने पूछा, ‘‘पापा, बहुत देर से कोई ब्लास्ट नहीं हुआ है, अगला ब्लास्ट कब होगा?’’

‘‘मैं कैसे बता सकता हूं बेटा?’’

‘‘क्यों पापा, आप इतना टेलीविजन जो देखते हैं.’’

‘‘बेटा, टेलीविजन देखने से ब्लास्ट का पता नहीं चलता.’’

‘‘तो फिर टेलीविजन पर ब्लास्ट कैसे दिखाते हैं?’’

‘‘ब्लास्ट होने पर टेलीविजन वाले वहां पहुंच जाते हैं और उस का फोटो खींचते हैं.’’

‘‘क्या टेलीविजन वाले कहीं भी पहुंच सकते हैं?’’ मुन्ना ने पूछा.

‘‘हां.’’

‘‘नहीं, पापा.’’

‘‘क्यों नहीं, बेटा?’’

‘‘कल हम सुपरमार्केट गए थे न.’’

‘‘हां बेटा, गए तो थे.’’

‘‘वहां कोने में एक भिखारी मर गया था न.’’

‘‘हां, हां.’’

‘‘वहां टेलीविजन वाले क्यों नहीं थे?’’

‘‘बेटा, टीवी वाले तभी पहुंचते हैं जब कोई बड़ा आदमी मरता है या बहुत सारे लोग एकसाथ मरते हैं.’’

तभी टेलीविजन पर प्रधानमंत्री आ गए. वह बम धमाकों के बारे में अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे.

‘‘देखो, यह बहुत बडे़ आदमी हैं,’’ मैं ने टेलीविजन की तरफ इशारा किया.

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‘‘यह कौन हैं, पापा?’’

‘‘यह हमारे पी.एम. यानी प्राइम मिनिस्टर हैं.’’

‘‘पर पापा, यह इतने दुबले हैं, बोलते भी इतना धीरेधीरे हैं, तो बड़े आदमी कैसे हुए?’’

‘‘देखो, मैं बताता हूं. तुम स्कूल में धीरे बोलते हो या जोर से?’’

‘‘धीरे से, पापा.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘जोर से बोलने पर मैडम बहुत डांटती हैं, पर पापा, पी.एम. को कौन मैडम डांटती है?’’

मैं कुछ बोलता तभी ब्रेकिंग न्यूज में एक और ब्लास्ट की खबर आई.

‘‘पापा, पापा, देखो, एक और ब्लास्ट हो गया,’’ मुन्ना उछल कर ताली बजाते हुए बोला.

‘‘मुन्ना बेटा, ऐसा नहीं करते. देखो, कितने लोग मर रहे हैं, सब को कितनी चोटें आई हैं. देखो, सब अंकलआंटी कैसे रो रहे हैं.’’

इतने में टेलीविजन पर गृहमंत्री का इंटरव्यू आने लगा.

‘‘पापा, सब लोग रो रहे हैं पर ये क्यों नहीं रो रहे हैं?’’ मुन्ना ने गृहमंत्री के बारे में पूछा.

‘‘इन्हें शरम आती है, बेटे.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘बेटा, तुम्हें याद है. तुम ने एक बार स्कूल में पैंट में शूशू कर दिया था?’’

‘‘हां.’’

‘‘तुम ने यह बात किसी से बताई थी?’’

‘‘बहुत शरम लगी थी न पापा, इसलिए घर आ कर सिर्फ मम्मी को बताई थी.’’

‘‘देखो, मंत्रीजी भी शरम के मारे सब के सामने रो नहीं पा रहे हैं.’’

‘‘तो फिर यह किस के पास जा कर रोते हैं?’’

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‘‘पी.एम. के पास, बेटे.’’

तभी एक और धमाके की खबर आई.

‘‘पापा, एक एपीसोड में कितने ब्लास्ट होते हैं?’’ मुन्ने ने पूछा.

‘‘बेटा, यह कोई सीरियल थोड़े ही न चल रहा है.’’

‘‘तो फिर टेलीविजन पर सीरियल ब्लास्ट क्यों लिखा है?’’

‘‘अपना होमवर्क मन लगा कर क्यों नहीं करता?’’ मैं ने मुन्ने को हलके से डांटा.

‘‘पापा, बताओ न…बम कौन फोड़ रहा है?’’

‘‘आतंकवादी अंकल, बेटा.’’

‘‘ये अंकल कहां रहते हैं?’’

‘‘क्यों?’’

‘‘दीवाली में उन्हीं से पटाखे खरीदने हैं.’’

‘‘बेटा, वह पटाखे नहीं, बम बनाते हैं.’’

‘‘वह इतना अच्छा बम बनाते हैं तो फिर पटाखा क्यों नहीं बनाते?’’

‘‘मुझे नहीं पता.’’

‘‘पापा, अंकल एक ही साथ इतने सारे बम क्यों फोड़ते हैं?’’

‘‘लोगों को डराने के लिए.’’

‘‘पापा, क्या उन से पुलिस अंकल भी डरते हैं?’’

‘‘बेटा, पुलिस तो बम से भी खतरनाक है.’’

‘‘कैसे, पापा?’’

‘‘बम तो एक ही बार फटता है पर पुलिस जिसे पकड़ती है उसे बारबार फोड़ती है.’’

‘‘क्या पुलिस अंकल भी बम फोड़ते हैं?’’

‘‘नहीं, अच्छा बताओ तुम्हें कौन सा चौकलेट पसंद है?’’

‘‘चुइंगम.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘चुइंगम बहुत बार चबाने से भी खत्म नहीं होता.’’

‘‘ठीक बताया तुम ने, पुलिस भी जिसे पकड़ती है उसे चुइंगम की तरह बहुत बार चबाती है.’’

मुन्ना ने अचानक मेरे हाथ से रिमोट छीन कर कार्टून चैनल लगा दिया. उस में टौम एंड जेरी के बीच निरंतर खींचतान जारी थी. टौम जेरी के पीछे भागता है पर जेरी बारबार चकमा दे कर निकल जाता.

‘‘वह देखो, पापा,’’ मुन्ना बोला, ‘‘बम वाले अंकल के पीछे पुलिस अंकल कैसे भाग रहे हैं,’’ इतना कह कर मुन्ना खिलखिला कर हंस रहा था.

कोई किसी की डेस्टिनी बदल नहीं सकता: इनामुलहक

बहुमुखी प्रतिभा के धनी इनामुलहक कई सफल सीरियलों व कुछ कौमेडी शो का लेखन करने के बाद फिल्म ‘‘फिल्मिस्तान’’ से बतौर अभिनेता चर्चा में आए. उसके बाद उन्होंने अक्षय कुमार के साथ ‘‘एअरलिफ्ट’’ और ‘‘जौली एलएलबी 2’’ जैसी फिल्में की. अब पहली बार वह जैगम इमाम निर्देशित फिल्म ‘‘नक्काश’’ में हीरो बनकर आ रहे हैं. 31 मई को प्रदर्शित हो रही फिल्म ‘‘नक्काश’’ के लिए ‘‘वाशिंगटन डी सी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’’ में इनामुलहक को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के पुरस्कार से नवाजा जा चुका है.

प्रस्तुत है उनसे हुई एक्सक्लूसिव बातचीत के अंश

आपने 2009 में पहली फिल्म ‘‘फिराक’’ की थी. उसके बाद आप अभिनय से दूरी बनाकर लेखन में व्यस्त हो गए. 2014 तक लेखन करते रहे. आपको नही लगा कि इस तरह आपने स्वयं अपने अभिनय करियर में रोड़ा डाला?

मुझे ऐसा नहीं लगता. मैं नहीं समझता कि मैने करियर में रोड़ा डालने का प्रयास किया. मैं आपको बताउं कि बौलीवुड की कार्यशैली ही कुछ अलग है. यह एक तय पैटर्न पर चलता है. यहां फिल्मकार एक फिल्म में जिस रूप में आपको देखता हैं, बार बार उसी तरह के किरदार का आफर देता रहता हैं. उसी रूप में आपको खरीदना या आगे बढ़ाना या इस्तेमाल करना चाहता हैं. आपने एकदम सही कहा कि मेरी पहली फिल्म‘फिराक’थी.‘फिराक’ में मेरा किरदार कुछ ऐसा था कि मैं उसमें सपोर्टिंग कास्ट का हिस्सा था.तो उसके बाद मेरे पास सभी उसी तरह के फिलर किस्म के किरदार के ही आफर आए.मैने सैकड़ो आफर ठुकराए. यहां फिल्मकार कभी विज्युअलाइज नही करता कि यह कलाकार किसी अन्य ब्रैकेट यानी किसी अन्य तरह के किरदार में भी फिट हो सकता है. मैं हमेशा उसके विपरीत सोचता हूं. मैं खुद को दोहराने में बिलकुल यकीन नहीं करता. मुझे कुछ अलग तलाश करना पड़ता है. ‘‘फिराक’’ के बाद अच्छे कंटेंट वाली फिल्म व अच्छे किरदार की मेरी तलाश जारी रही.पूरे तीन वर्ष बाद 2012 में ‘‘फिल्मिस्तान’’ बनी. जो कि 2014 में रिलीज हुई.

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आपने अक्षय कुमार सहित कुछ बड़े कलाकारों के साथ मल्टीस्टारर फिल्में की. उन्हें करते हुए डर नहीं था कि सारा श्रेय तो यह बड़े कलाकार ही लूट ले जाएंगे. आपकी तरफ लोगों का ध्यान नहीं जा पाएगा? प्रमोशन में भी अवाइड किया जाता है?

आपकी बात कुछ हद सच है. पर मेरा मानना है कि आपने अपना काम इमानदारी से बेहतर किया है, तो कोई चाहे जितना अवाइड कर ले, आपका काम अवाइड नहीं हो सकता. मसलन फिल्म‘ एअरलिफ्ट’ के रिलीज से एक दिन पहले मेरी प्रेस रिलीज भी फाड़कर फेंक दी गयी होगी. पर रिलीज के दूसरे दिन से सारे फोन आने लगे थे कि वह मुझे छापना चाहते हैं. तो मेरा काम बोल रहा था. आप यहां एक हद तक ही उसे रोक सकते हैं, पर यदि उसमें और उसके काम में दम है, तो उसे सामने आने से कोई नहीं रोक सकता. इसके अलावा कोई किसी की डेस्टिनी बदल नहीं सकता. मैं डेस्टिनी में बहुत यकीन करता हूं. अपने काम को पूरी इमानदारी के साथ करता हूं. मुझे जहां पहुंचना होगा, पहुंच जाउंगा. मैं बिना डर के काम कर रहा हूं. पर इंसान हूं, तो कभी कभी मलाल होता है, कि मैं भी इस फिल्म का हिस्सा होता या इस फिल्म के प्रमोशन का हिस्सा होता. पर आपने महसूस किया होगा कि हर फिल्म में फिल्म आलोचकों ने मेरे काम के बारे में एक दो लाइन जरूर लिखी. किसी ने भी मेरे काम को नजरंदाज नहीं किया. यही मेरी यही कमायी है. जबकि हर फिल्म में मेरे जैसे 10-12 कलाकार होते होंगे, पर उनके हिस्से वह एक दो लाइन भी नहीं आती होगी. तो यदि मेरे एक हाथ से कुछ छिन रहा है, तो दूसरे हाथ से कुछ मिल भी रहा है. फिलहाल में फिल्म ‘‘नक्काश’’ को लेकर अति उत्साहित हूं

‘‘नक्काश’’ क्या है?

इस फिल्म की विषयवस्तु वक्त आज की जरुरत है. यह फिल्म वाराणसी के एक नक्काश अल्ला रक्खा की कहानी है. जो मंदिरों में नक्काशी का काम करता है. बनारस में सदियों से मंदिरों की नक्काषी मुस्लिम नक्काश ही करते रहे हैं. जैसा कि आप अयोध्या चले जाएं, तो अयोध्या में फूलों का व्यापार मुस्लिम करते नजर आएंगे. मुस्लिमों के हाथ से होते हुए गंदे के फूल राम जी तक पहुंचते हैं. हमारे देश कि यह सबसे बड़ी खूबसूरती है. अब तक किसी ने भी इन बातों पर एतराज नहीं जताया. लेकिन बीच में कुछ लोगों ने निजी स्वार्थ के चलते या अपनी राजनीति के लिए हिंदू और मुस्लिम शब्दों का उपयोग किया. हमारी फिल्म में अल्ला रक्खा सिद्दिकी भी राजनीति का षकार बढ़ता है.

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 ‘‘नक्काश’’ के अपने किरदार को लेकर क्या कहेंगे?

मैने नक्काश अल्ला रक्खा सिद्दिकी का किरदार निभाया है. अल्ला रक्खा मंदिर में नक्का का काम करता है. मंदिर के बड़े पुजारी का उसे पूरा समर्थन है. अल्ला रक्खा व यह पुजारी दोनों ही मानवता और इंसानियत में यकीन करते हैं. उसका मानना है कि कला का कोई धर्म नहीं होता. कलाकार का कोई धर्म नहीं होता. तो फिल्म में पुजारी जी इस नक्काश से मंदिर में नक्काशी का काम करवाना चाहते हैं. अल्ला रक्खा सिद्दिकी करना भी चाहता हैं, लेकिन इन दोनों के बीच के जो लोग हैं, वह किस तरह के बवाल करते हैं. वही सब फिल्म का हिस्सा हैं.

‘नक्काश’ हिंदू और ‘मुस्लिम’ धर्म पर बात करती है?

बिलकुल नहीं…इसमें चरित्र जरूर हिंदू और मुस्लिम हैं, पर कहानी मानवता की है. यह कहानी है कि हम कब अनजाने में ही एक लाइन को क्रौस कर जाते हैं. मैं फिल्म के रिलीज से पहले कहानी को खुलकर नही बता सकता. इसलिए मुझे संकेत में ही बात करना पडे़गा. लेकिन फिल्म देखने के बाद दर्शकों को खुद इस बात का जवाब मिलेगा कि यह फिल्म आज के वक्त में जरूरी क्यों है?  फिल्म के अंदर यदि हम हिंदू और मुस्लिम शब्द बोल कर इन आवाजों को बढ़ा रहे हैं, तो इसके पीछे हमारा मकसद सही है.

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फिल्म सिर्फ समस्याओं का जिक्र करती है या हल भी बताती है?

मेरी फिल्म कोई हल नहीं बताती है. मेरी राय में सिनेमा का मकसद उपदेश देना नही होना चाहिए. सिनेमा का काम समस्या को लोगों के सामने रखना है ना कि उसका हल बताना है. फिल्म देखकर हर इंसान अपने हिसाब से उसका हल निकालेगा. मेरी राय में समस्या का हल ढूंढ़ने से भी ज्यादा जरूरी है कि समस्या को पहचाना जाए. अमूमन हम अपनी जिंदगी में समझ नहीं पाते हैं कि असली समस्या क्या है? इसलिए हल भी नही ढूंढ़ पाते. पर जब समस्या नजर आती है, तो हम स्वयं उसका हल ढूंढ़ने लगते हैं. तो हमने अपनी फिल्म की कहानी के माध्यम से लोगों तक यह बात पहुंचायी हैं कि समस्या क्या है? हमने फिल्म में कुछ सवाल उठाए हैं और यदि दर्शकों को लगता है कि इन सवालों के जवाब ढूंढ़े जाने चाहिए, तो वह ढूंढ़ेगा. यदि आपको सवालों के जवाब ढूंढ़ने की जरूरत महसूस नही होती है, तो फिल्म देखकर मनोरंजन पाएं और आगे बढ़ जाएं. हम किसी के पीछे डंडा लेकर नही पड़ने वाले हैं कि वह कितने जिम्मेदार नागरिक हैं. सिनेमा की जिम्मेदारी सिर्फ सवाल उठाना है, तभी तो कहा जाता है कि सिनेमा समाज का दर्पण है.

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अपने किरदार के लिए आपका अपना रिसर्च वर्क क्या रहा?

मैं अपने हर किरदार को अलग अलग सोच के साथ करता हूं. हर किरदार को करने से पहले मैं अपनी तरफ से तैयारी जरूर करता हूं. फिल्म ‘नक्काश’ के अल्ला रक्खा सिद्दिकी के किरदार को निभाने से पहले मुझे कुछ अलग तरह की तैयारी करनी पड़ी. नक्काशी एक कारीगीरी, एक कला है. जिससे मैं वाकिफ नहीं था. मैं सहारनपुर से हूं, जहां पर लकड़ी का काम होता है, जिसे टकाई कहा जाता है. नक्काषी के अलग अलग रूप हैं. कश्मीर में इसे कुछ और नाम देते हैं. बनारस में मंदिर के अंदर मेटल पर जो कारीगरी की जाती है,  उसे नक्काशी कहा जाता है. इसलिए इसे समझना जरूरी था. शूटिंग शुरू होने से 15 दिन पहले मैं बनारस में था. मैंने एक कारखाना ज्वाइन किया, जहां मैं उन मजदूरों के साथ रहता भी था.फिर कुछ दिनों तक उसी तरह के कपड़े पहनकर बनारस की गलियों में घूमता रहा. मैंने एक नक्काश की बौडी लैंग्वेज, उसका रहन सहन, उसके बातचीत करने का अंदाज वगैरह समझकर उसे आत्मसात करने की कोशिश की. इसी के साथ यह भी समझने का प्रयास किया कि जब वह लोगों के बीच जाता है, तो लोग उसके साथ किस तरह से व्यवहार करते हैं. मेरे लिए यह बहुत ही नया मसला था. मैं पहली बार बनारस गया था.

देखिए, उत्तर प्रदेश में दो तरह के कल्चर हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पूर्वी उत्तर प्रदेश के कल्चर व रहन सहन में काफी फर्क है. हमारा सहारनपुर हरियाणा के नजदीक है, तो वहां थोड़ा सा कल्चर अलग है. जबकि बनारस धर्म की नगरी है, गंगा नदी है.

नसिरूद्दीन शाह ने कहीं कहा था कि, ‘अभिनेता एक निकम्मा मजदूर है, पर वह मजदूर है, तो निकम्मा नहीं हो सकता. ’यह विरोधा भास है. मैं हमेशा कहता हूं कि जितने भी ‘र’ वाले प्रोफेसर हैं, डौक्टर, लौयर, डांसर, राइटर यह सभी हर दिन रियाज करते हैं. एक डौक्टर कहता है कि, ‘मैं फलां अस्पताल में प्रैक्टिस करता हूं. ’लौयर कहता है कि, ‘मैं पटियाला हाउस कोर्ट में प्रैक्टिस करता हूं. पर एक एक्टर क्या कहता है? क्योंकि उसकी कहीं प्रैक्टिस होती ही नही है. अभिनेता की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह समझता है कि एक्टर होने की वजह से उसे सब कुछ आता है. इसी के चलते फिल्मों की संख्या बढ़ती जाती है. पर लोग याद नहीं रखते.

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फिल्म फेस्टिवल में दर्शकों की क्या प्रतिक्रिया रही?

देखिए,वाशिंगटन डीसी फिल्म फेस्टिवल में मैं नहीं गया था. सिंगापुर फिल्म फेस्टिवल में मैं गया था. फिल्म खत्म होने पर लोगों ने खड़े होकर तालियां बजाकर हमारा स्वागत किया और हर जगह तारीफ हुई. मेरा मानना है कि फिल्म ‘नक्काश’ की असली परीक्षा तो भारतीय दर्शकों के बीच ही होगी. क्योंकि इस फिल्म में जो समस्या है, वह भारतीय दर्शक ही समझ सकता है. सिंगापुर में फिल्म देखने के बाद लोगों ने बडी गर्मजोशी से हमें गले लगाया और प्रशंसा की.

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इसके अलावा क्या कर रहे हैं?

दो वेबसीरीज कर रहा हूं. एक वेब सीरीज निखिल आडवाणी की ‘‘हंसमुख’’ है.यह नेटफिलिक्स पर आएगी. दूसरी है ‘क्रूड अप’. ‘हंसमुख क्रौमिक थ्रिलर है, दूसरी थ्रिलर है. इसके अलावा, मैंने एक सीरियल लिखा है, ‘‘ महाराज की जय हो.’, जो कि स्टार प्लस पर आने वाला है.

भाई सनी देओल की जीत पर सौतेली बहन ईशा ने दी ऐसे बधाई

लोकसभा चुनाव 2019 सनी देओल बीजेपी के टिकट से पंजाब के गुरुदासपुर से चुनावी मैदान में उतरे और पहला लोकसभा चुनाव लड़ा. इस चुनाव में उनकी जीत  हुई. वें एक सफल एक्टर के साथ-साथ एक सफल नेता भी बन गए हैं. इस जीत पर पूरे बौलीवुड और उनके फैंस में खुशी की लहर है.

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इसी बीच की इस जीत पर बहन ईशा देओल ने उन्हें बधाई देते हुए ट्वीट किया. ‘बधाई, आपको मेरी ओर से हमेशा शुभकामनाएं. इसी के साथ ईशा ने अपनी मां हेमा मालिनी की जीत पर भी बधाई दी हैं. उन्होंने लिखा, ‘आपने फिर कर दिखाया. दूसरी पारी के लिए बधाई और मेरी शुभकामनाएं. ड्रीमगर्ल, आप पर गर्व है.

हालांकि सनी देओल अपने पापा धर्मेंद्र देओल के बेहद करीब हैं, लेकिन हेमा मालिनी और उनके बच्चों से सनी की दूरियां अभी तक कम नहीं हुई है. सनी अहाना और ईशा देओल की शादी में भी नहीं पहुंचे थे. बल्कि ईशा की शादी में सनी के न आने पर जब मीडिया ने धर्मेंद्र से सवाल किया था तो वो काफी नाराज भी हुए थे. आशा करते हैं कि बदलते वक्त के साथ इनके रिश्तों में भी बदलाव आए.

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मिसेज चोपड़ा मीडिया और न्यूज

लंबा कद, गोरा रंग, सलीके से   बंधा हुआ जूड़ा, कलफ लगी बढि़या सूती साड़ी और साड़ी के रंग से मेल खाते गहने पहने मिसेज चोपड़ा पूरे दफ्तर में अलग ही दिखती थीं. मैं जिस दफ्तर में काम करती थी वहां काम कम ही होता था. यों समझ लीजिए, अकसर लोग गरमगरम चाय और गरमागरम बहस से टाइम पास करते थे. कुछ ही दिनों में दफ्तर का यह माहौल देखदेख कर मेरा धैर्य जवाब दे गया.

मैं ने अपने एन.जी.ओ. के कोआर्डिनेटर से एक दिन बातों ही बातों में पूछ लिया, ‘‘यह मिसेज चोपड़ा मुझे आफिस में सब से अलग दिखती हैं, यह कैसा काम करती हैं. मैं अभी नई हूं इसलिए इन के बारे में ज्यादा जानती नहीं हूं.’’

सामने बैठे मिस्टर शर्मा बोले, ‘‘यह यहां पी.आर.ओ. के पद पर हैं. पब्लिक और प्रेस से डीलिंग करना ही इन का काम है. यह किसी मजबूरी में नौकरी नहीं कर रही हैं. मिसेज चोपड़ा जैसी हाइक्लास सोसाइटी की औरतें जब अपनी किटी पार्टियों से बोर हो जाती हैं और उन्हें अपना समय बिताना होता है तो वे किसी एन.जी.ओ. से जुड़ जाती हैं. समय भी बीत जाता है, नाम भी मिल जाता है. मिसेज चोपड़ा भी इसी रंग में रंगी हैं.’’

मैं थोड़ी देर में अपनी जगह पर वापस आ कर काम में जुट गई. चूंकि मेरे ऊपर अपनी विधवा मां की जिम्मेदारी थी इसलिए मैं अपना काम बड़ी ईमानदारी से करती थी. मैं कुछ दिनों से यह भी अनुभव कर रही थी कि मिसेज चोपड़ा मुझे पसंद नहीं करती हैं. मेरे हर काम में उन्हें सिर्फ कमी ही नजर आती थी.

मिसेज चोपड़ा ने धीरेधीरे मुझे सताना शुरू कर दिया. मेरी किसी भी रिपोर्ट को रद्द कर देतीं और फिर से नए ढंग से बनाने को कहतीं. कभी आफिस के काम से हटा कर फील्ड वर्क पर लगा देतीं तो कभी अचानक फील्ड वर्क से आफिस भेज देतीं.

एक दिन उन्होंने मुझ से पूछ ही लिया, ‘‘मिस बेला, आप इतना कम क्यों बोलती हैं?’’

मैं ने कहा, ‘‘मैडम, ऐसा तो नहीं है. बस, मैं बोलने से ज्यादा काम करना पसंद करती हूं. फिर हम जो काम कर रहे हैं अगर उस में हम अपने बारे में ही सोचेंगे तो दूसरों के दुख कब शेयर करेंगे.’’

वह अचानक बौस के ढंग में बोलीं, ‘‘मिस बेला, इस केस की डिटेल्स पढि़ए. नेहा के घर वालों का बयान लीजिए और गवाहों से बात कीजिए. पुलिस से भी मिलिए. आजकल बहुत कंपीटीशन है. मैं मीडिया से बात कर के रखती हूं. हम पहले केस सुलझा लेंगे तो हमारा नाम होगा. हमारी बढि़या न्यूज तैयार होगी.’’

मैं सिर झुकाए बोली, ‘‘किसी के दुख पर सफलता की सीढ़ी लगाना अच्छा तो नहीं लगता, मैडम.’’

उन की नजरें मुझ पर जम गईं. अच्छा स्टेटस, पैसा और अच्छे संबंध यही दुनिया में जीने के उन के सिद्धांत थे.

मैं अपने गु्रप के साथ घटनास्थल पर जाने को निकल गई. वह एक बौस की तरह मेरे साथ थीं. मैं ने नेहा के घर वालों से बहुत से सवाल पूछे. नेहा को उस के ससुराल वालों ने जला कर मार दिया था. नशे की हालत में उस के पति ने उस पर तेल छिड़क कर आग लगा दी थी. मिसेज चोपड़ा बहुत खुश थीं कि अगर मीडिया यह न्यूज अच्छी तरह से पेश करता है तो उन का बहुत नाम होगा. उन्होंने प्रेस कान्फ्रेंस बुला कर मीडिया में इस मामले पर हलचल मचा दी.

उन की इस हरकत से मैं बहुत बेचैन थी. अपनी उस बेचैनी को कम करने के लिए मैं उन के केबिन में जा कर फट पड़ी, ‘‘मैडम, इस प्रेस कान्फ्रेंस से नेहा को क्या फायदा पहुंच रहा है? उस की मौत को भुना कर हमें क्या मिलेगा?’’

मेरे अंदर सवालों का ढेर लगा था. उन्हें मुझ पर गुस्सा आ गया, ‘‘मिस बेला, आप को क्या लगता है कि हमारी संस्था सिर्फ नाम कमाने के लिए दूसरों के दुख अपने पास जमा करती है? क्या हम उन के लिए कुछ नहीं करते? अगर किसी की मदद के साथ मीडिया वाले हमें भी कैमरे के सामने ला कर न्यूज बना देते हैं तो इस में बुरा क्या है?’’

मैं ने अपनी आवाज को संतुलित करते हुए जवाब दिया, ‘‘मैडम, हम क्या करते रहे हैं महिलाओं के लिए? जो बात सिर्फ घर वाले जानते हैं हम उन्हें सब के सामने ला कर दुखी लोगों को और दुखी कर देते हैं. थोड़ी सी जबानी सहानुभूति या कभीकभी कुछ आर्थिक सहायता. हमारी संस्था औरत को कभीकभी एक तमाशा बना देती है. मीडिया को तो खबरें ही चाहिए. मैडम, मैं यहां नौकरी नहीं कर पाऊंगी.’’

‘‘हां, यही अच्छा रहेगा. जहां काम में रुचि न हो वहां इनसान को काम नहीं करना चाहिए. आप जा सकती हैं.’’

मैं अपना बैग उठा कर आफिस से बाहर आ गई. मैं हर उस नौकरी को बुरा समझती हूं जिस में किसी के दुख को भुनाया जाता है.

मैं ने कुछ दिन बाद एक स्कूल में नौकरी ज्वाइन कर ली लेकिन मिसेज चोपड़ा और उन की संस्था के बारे में मुझे खबर मिलती रहती थी. नेहा का केस उन्होंने सुलझा लिया था, उन की संस्था की धूम मची हुई थी.

जीवन अपने ढर्रे पर चल रहा था कि एक दिन अचानक सुबह उठने पर पेपर पढ़ा तो रोंगटे खडे़ हो गए. मिसेज चोपड़ा की बेटी आकृति के साथ कुछ दरिंदों ने रेप किया था. वह अपने कालिज से घर आ रही थी कि सुनसान सड़क पर कुछ लड़के कार में उसे उठा कर ले गए थे.

इस खबर को पढ़ने के बाद मैं अपने को वहां जा कर उन से मिलने से रोक नहीं पाई. उन के घर पहुंची तो वह मासूम सी लड़की कमरे में बंद थी और बारबार बेहोश हो रही थी. बहुत ही हृदयविदारक दृश्य था. पूरा स्टाफ वहां था. सब को आकृति पर तरस आ रहा था. मिसेज चोपड़ा का विलाप दिल को चीर रहा था. चोपड़ा साहब विदेश में थे. उन मांबेटी से सब को सहानुभूति हो रही थी. कुछ देर वहां ठहर कर मैं वापस घर आ गई लेकिन अगले दिन भी उन दुखियारी मांबेटी के पास कुछ देर बैठने के लिए मैं गई. फिर कई दिनों तक रोज ही जाती रही. सब को आकृति के सामान्य होने का इंतजार था.

एक दिन अचानक एक प्रसिद्ध एन.जी.ओ. की महिलाएं मीडिया के साथ मिसेज चोपड़ा के घर पहुंच गईं. हर तरफ कैमरे की रोशनियां और उन की बेटी का रोना, मिसेज चोपड़ा बारबार उन लोगों से जाने की प्रार्थना करते हुए सिसक उठीं, लेकिन संस्था की महिलाएं, हाथ में पेपर, पैन लिए मीडिया के लोग, मांबेटी से सवाल पर सवाल पूछे जा रहे थे और अपनी संस्था की शान में कमेंट भी किए जा रहे थे कि हम आप की बेटी को न्याय दिलवाएंगे. मैडम, आप तो खुद एक संस्था चलाती थीं. आज आप आम आदमी की जगह खड़ी हैं. आप को कैसा लग रहा है? मैडम, आप कुछ जवाब दें. आप इस केस में क्या कहना चाहेंगी.

मिसेज चोपड़ा ने कुछ कहने की कोशिश की लेकिन उन के शब्द अंदर ही रह गए और वे गिर पड़ीं.

आफिस के कुछ लोगों के साथ मैं उन को अस्पताल ले गई. आकृति को मैं ने अपनी मां के पास भेज दिया. मिसेज चोपड़ा को हार्टअटैक पड़ा था. उन की देखरेख मैं ने एक दोस्त की तरह की, क्योंकि मेरी मां ने मुझे यही सिखाया था. उन के दिए गए संस्कार मेरे अंदर खून बन कर बहते थे. स्कूल से मैं ने छुट्टियां ली हुई थीं. मिसेज चोपड़ा जब तक अस्पताल से घर आने लायक हुईं हम एक अच्छे दोस्त बन चुके थे.

घर आ कर वह अपने काम में व्यस्त हो गईं और मैं अपने में. जीवन निर्बाध गति से चल रहा था. एक दिन मैं ने टेलीविजन चलाया तो मिसेज चोपड़ा अपने साक्षात्कार में कह रही थीं, ‘‘अगर हम किसी बहन या बेटी की इज्जत करते हैं तो क्या हमें उस को हजारों लोगों के सामने खड़ा कर देना चाहिए. हमें यदि किसी की मदद करनी है तो क्या हम चुपचाप नहीं कर सकते. मैं एक नई संस्था बना रही हूं जिस का मीडिया से बहुत ही कम लेनादेना होगा. हम चुपचाप दुखी जनता के आंसू पोंछेंगे.’’

आज मुझे लगा कि मिसेज चोपड़ा ने अब जो रास्ता चुना है वह सही है. मुझे उन की इस बदली हुई सोच पर खुशी हुई और मैं उन को इस नए कदम के लिए शुभकामनाएं देने को फोन मिलाने लगी, साथ ही मुझे उन को यह भी बताना था कि मैं उन की नई संस्था में काम करने आ रही हूं.

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