वे सब के सब नौजवान थे जिनकी आखो में आने वाली जिंदगी को लेकर तरह तरह के सपने थे कि बड़ा होकर ये करूंगा, वो करूंगा, ये बनूंगा, वो बनूंगा लेकिन अब उन सभी का दाह संस्कार हो गया है और पीछे रह गए हैं तो रोते बिलखते मां बाप और परिजन जो किस्मत और उस घड़ी को कोस रहे हैं कि क्यों उन्होंने अपने घर के लाडले चिरागों को गणेश विसर्जन में जाने दिया. लेकिन ये ही नहीं बल्कि कोई उस भगवान गणेश को नहीं कोस पा रहा जिसकी मूर्ति विसर्जित करने ये लोग ढ़ोलढ़मांके के साथ नाचते , गाते, गुलाल उड़ाते इस उम्मीद के साथ गए थे कि बप्पा मोरिया उनकी मुराद पूरी करेगा .

अगर इन नौनिहालों की मुराद मरने की थी तो वो जरूर पूरी हो गई है जिसके बाबत पूरे भोपाल में सिर्फ बतोलेबाजी चल रही है कि ऐसा होता तो ऐसा नहीं होता और मूर्ति विसर्जन के दौरान क्या क्या एहतियात बरतनी चाहिए.  कोई यह नहीं कह रहा कि आखिर झांकियां बैठाने की तुक क्या है और इनसे किसको क्या मिलता है. अकेले भोपाल में इस बार छोटी बड़ी कोई दस हजार झांकियां गणेश की लगी थीं इनमें से अधिकतर गरीब बस्तियों यानि झुग्गी झोपड़ी वाले इलाकों में थीं .

झांकियों के कारोबार का गुणा भाग कि इनसे किसको क्या और कितना मिलता है और क्यों. झांकियों का धंधा दिनों दिन फल फूल रहा है. लगाने से पहले एक नजर भोपाल के छोटे तालाब पर हुये उस बड़े हादसे पर डाला जाना जरूरी है जिससे समझ आए कि इन दिनों धार्मिक जुनून सर चढ़कर बोल रहा है .

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