हिंदी को संविधान में राजभाषा का स्थान प्राप्त हुए 69 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं और अगर हम गंभीरता से इस बार विचार करें तो ये पायेंगे कि इतने वर्षों में अगर इस लक्ष्य की और हमने एक कदम भी बढ़ाया होता तो मंजिल के बहुत करीब होते. हमने तो सिर्फ दशकों में उसे अधिनियम में परिवर्तन किया और कुछ परिवर्तन भी नहीं किया बल्कि उसको गोल गोल घुमा कर वहीं ला कर रख दिया गया. हमने इसको इतने वर्षों में इस दिशा में कार्य करने सितम्बर माह की 14 तारीख, प्रथम पखवारा, अंतिम पखवारे तक सीमित कर दिया है. प्रयास चाहे सरकारी हों या संस्थानीय. अगर निरंतर प्रयास किया गया होता या फिर हम आज भी करें तो सकारात्मक परिणाम मिल सकते हैं. अच्छे कार्य के लिए देर कभी भी नहीं होती है. अब भी सिर्फ राजभाषा के लिए नहीं अपितु हिंदी भाषा के लिए प्रगति और उसको गतिमान बनाये रखने की दिशा में हम बहुत काम कर चुके होते.
सरकार ने नीतियां बनाई लेकिन राजभाषा के साथ अंग्रेजी को हमेशा जोड़े रखा, आखिर क्यों ? अंग्रेजी हमारी देश की किसी भी राज्य की मातृभाषा नहीं है. इसको तमिलनाडु की राजभाषा घोषित क्यों गया ? वहां की अपनी मातृभाषा है. संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाएं पास करके समस्त राज्यों से अधिकारी बनते हैं तो फिर उन समस्त विषयों के साथ राजभाषा की परीक्षा अनिवार्य क्यों नहीं रखा गया क्योंकि नौकरशाही और राजनीतिक महत्वाकांक्षा हिंदी को उसका समुचित स्थान देने के लिए प्रतिबद्ध हुए ही नहीं है.
हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप में १४ सितम्बर सन् १९४९ को स्वीकार किया गया. इसके बाद संविधान में अनुच्छेद ३४३ से ३५१ तक राजभाषा के साम्बन्ध में व्यवस्था की गयी. इसकी स्मृति को ताजा रखने के लिये १४ सितम्बर का दिन प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है. केंद्रीय स्तर पर भारत में दूसरी सह राजभाषा अंग्रेजी है.