Download App

#coronavirus: जीवन बचाने के लिए संघर्षरत महिलाएं

कोरोना वायरस की वजह से चल रहे लॉकडाउन के दौरान जिन औरतों के पास पैसे और आवश्यक सामग्री नहीं है.वे अपने परिवार और बच्चों के पालन पोषण के लिए जदोजहद कर रही हैं.जिन औरतों के पति बाहर मजदूरी करते हैं.वे लॉक डाउन की वजह से महानगरों में फँसे हुवे हैं.विधवा या बुजुर्ग हैं.जिनका देख रेख करने वाला कोई नहीं है.वैसी महिलाओं को कई तरह के परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है.घर का काम बच्चों के देखभाल करने के अलावा बहुत सारी ऐसी महिलाएँ हैं जिन्हें राशन पानी से लेकर जलावन तक इंतजाम करना है.आइये मिलवातें हैं कुछ वैसी ही महिलाओं से जो लॉक डाउन के दौरान जिंदगी के साथ जदोजहद कर रहीं हैं.

नसीबन खातून का पति तलाक दे दिया है.उनके चार बच्चे हैं.तीन लड़की और एक लड़का.नसीबन रोजी रोटी के लिए कई घरों में साफ सफाई का काम करती है.लेकिन लॉक डाउन की वजह से लोगों ने काम छोड़वा दिया है. अब तक किसी तरह तो काम चला लेकिन अब घर में कुछ भी नहीं है. किराना दुकानदार का भी 700 रुपये उधार हो गए हैं. वो भी हाँथ खड़ा कर लिया है. बोलता है. पहले का बकाया दे दो तब उधार देंगे.जिन घरों में काम करते थे.वे लोग भी एडवांस पैसा देने के लिए तैयार नहीं हैं. काम भी नहीं करवा रहे हैं क्योंकि इन मालिकों को शक है कि हमलोग गरीब बस्ती में रहते हैं. वहाँ से बीमारी इनके घरों तक आ जाएगी.

ये भी पढ़ें-भीलवाड़ा मॉडल : कोरोनावायरस को हराने में कामयाब

रामकली देवी का पति लुधियाना के कम्पनी में काम करता है. काम धंधा बन्द है.घर आना मुश्किल हो गया है. इसके पति के पास खुद पैसे खत्म हो गए हैं. किसी तरह से आना चाहते हैं. कोई उपाय नहीं निकल रहा है. जिस ठीकेदार के अंदर में काम करते थे.ठीकेदार अपना मोबाइल स्विच ऑफ कर दिया है. यहाँ तीन बच्चों के साथ रह रही हूं.राशन पानी सब खत्म हो गया है. कुछ लोग मदद स्वरूप आँटा, चावल और आलू एक सप्ताह तक का दिए हैं. राशन कार्ड में हमलोगों का नाम नहीं है. ऑनलाइन किये थे .लेकिन अभी तक राशन नहीं मिल पाया है. एक सप्ताह के बाद क्या होगा.कैसे और क्या खाकर जिंदा रहेंगे.सोंच सोंच कर मन पागल हो गया है.

मंगरी देवी और रामकली देवी जलावन के लिए लकड़ी काट कर घर लौट रही है. जब हमने पूछा कि गैस नहीं मिला तो उसने बतायी की हमलोगों के पास गैस नहीं है.पति क्या करते हैं तो बतायी मजदूरी करते हैं. काम धंधा सब बन्द है. इसकी वजह से हमलोगों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है.घर का खर्च बच्चों के पालन पोषण की जिम्मेवारी इन गरीब महिलाओं के ऊपर होती है. बच्चे खाने के लिए या अन्य सामान के लिए तंग करते हैं. बच्चों को नहीं मालूम कि पैसे कहाँ से आते हैं. बच्चों को भूख लगेगी माँ से खाना माँगेगा. जब घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं हो और बच्चा खाने के लिए माँग रहा हो .खुद भी जोर से भूख लगी हो.यह सीन याद आते ही कलेजा मुँह को आ जाता है.

ये भी पढ़ें-#lockdown: तड़पा रही है कटिंग चाय और वड़ा पाव की लत

लॉक डाउन की तिथि बढ़ते जा रहा है. गरीब बेबस और लाचार लोग दाने दाने के लिए मुँहताज हैं.टी वी और अखबार में राहत के घोषणाओं का अंबार है. लेकिन जमीनी हकीकत कुछ अलग ही बयाँ कर रहा है. अब तो स्थिति यह आ गयी है. कोरोना से कम लोग भूख और कुपोषण से अधिक मरने लगेंगे.

19 दिन 19 टिप्स: बढ़ती उम्र में सैक्स

इंसान की जिंदगी में सैक्स का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान होता है. मगर 46-48 वर्ष के बाद या इस उम्र के दहलीज पर पहुंचतेपहुंचते आदमी और औरत दोनों में सैक्स का आवेग उदासीन होने लगता है. उम्र के इस पड़ाव पर यह दीये में पड़ी बाती की बुझती हुई लौ के समान होता है. सैक्स की इच्छा तो हर इंसान को ताउम्र होती है मगर इस रसगर्भित आनंद में मन का साथ तन नहीं दे पाता है. अकसर पुरुष या स्त्री इस उम्र में  सैक्स के प्रति इच्छा रहते हुए भी शारीरिक ऊर्जा समाप्त होने के कारण भीतर से अवसादग्रस्त रहने लगते हैं. अवसाद सैक्स को और खत्म कर देता है. डाक्टरों के अनुसार, पुरुष में आए इस ठहराव में शरीर में मौजूद ‘प्रोस्टेट ग्रंथि’ का बहुत बड़ा हाथ होता है. यह ग्रंथि पुरुष की पौरुषता की निशानी है. यह गं्रथि यौवनारंभ से 50-55 वर्ष की आयु तक सक्रिय रहने के बाद अपनेआप आकार में घटने लगती है. मनुष्य में होने वाली यह एक सामान्य प्रक्रिया है.

हजारों मनुष्यों में से एक में पौरुषता की यह निशानी ‘प्रोस्टेट ग्रंथि’ घटने के बजाय बढ़ने लगती है. ऐसे लोगों का आरंभिक अवस्था में संभोग करने को बारबार मन करता है. ऐसे पुरुष जो सप्ताह में एक बार समागम करते थे वे रोज या 2-3 बार संभोग करने को उत्सुक रहते हैं. मगर बाद में वे संभोग करने के योग्य नहीं रह जाते. ऐसे में स्त्री या पत्नी को पति की इस मनोदशा को समझना होगा. पति की उम्र के साथसाथ पत्नी की भी उम्र बढ़ रही है. सैक्स के प्रति अनिच्छा उसे भी हो रही है. लेकिन वह घर के विभिन्न कामधंधों में फंस कर अपने को भुलाए रखती है. यह भी होता है कि स्त्री अपनेआप में यह हार मान लेती है कि अब सैक्स करने की उम्र नहीं रही. साधारणतया स्त्रियों का ऐसा ही विचार होता है, लेकिन उन का यह सोचना गलत होता है. वे अपनी गलत धारणा के कारण प्रकृतिप्रदत्त सैक्स का भरपूर आनंद बढ़ती उम्र के साथ नहीं उठा पातीं. सैक्स एक रति क्रिया है जिस में 2 विपरीत लिंग आपस में एकदूसरे के साथ शारीरिक समागम करते हैं. इस रति क्रिया से शारीरिक ऊर्जा मिलती है. उस से उक्त दोनों शरीर को भरपूर आनंद व संतुष्टि प्राप्त होती है. शरीर फिर से आगे काम करने के लिए रिचार्ज हो जाता है.

समस्याओं का पिटारा

ये भी पढ़ें-19 दिन 19 टिप्स: सैक्स चाहिए बच्चा नहीं

एक दोस्त की पत्नी का कहना है कि सैक्स तो जरूरी है ही लेकिन इस के लिए मन का साथ होना बहुत जरूरी है. मन का साथ तभी होता है जब घरगृहस्थी के झंझटों से छुटकारा मिले. अशांत मन से सैक्स करने का मजा किरकिरा हो जाता है. एक सवाल के जवाब में उन का कहना है कि 45 प्लस के बाद सैक्स का अनोखा आनंद प्राप्त होता है क्योंकि यौवनावस्था में सैक्स उत्तेजित रहता है जबकि प्रौढ़ावस्था में सैक्स परिपक्व होता है विवेक बताते हैं कि यौवनावस्था में उन की सैक्स की इच्छा चरम पर थी. एक रात में 3-3 बार संबंध बना लेते थे. मगर अब प्रौढ़ावस्था में सैक्स का आनंद सिमट कर हफ्तों और महीनों में चला गया है. अब सैक्स की हार्दिक अभिरुचि एकसाथ कमरे के एक बैड पर साथ में लिपट कर रहने पर भी पैदा नहीं हो पाती है.

ये भी पढ़ें : स्वस्थ स्तनों के लिए इन चीजों को अपनी डाइट में करें शामिल

इस संबंध में 46 वर्षीय रमेश का कहना है कि पहले वे रोज अपनी पत्नी के साथ सैक्स करते थे लेकिन अब वे ऐसा नहीं कर पा रहे हैं. ऐसा भी नहीं है कि इस में उन की अभिरुचि समाप्त हो गई है. रमेश बताते हैं कि उन्हें सैक्स करने की इच्छा तो होती है. बिस्तर पर साथ लेटी पत्नी के कोमल अंगों को सहलाते भी हैं मगर जहां पहले उत्तेजना तुरंत बढ़ जाती थी, अब उस में शिथिलता आ गई है. सैक्स के लिए आतुर मन को शरीर का साथ नहीं मिल पा रहा है. लिहाजा, वे सैक्स का आनंद नहीं उठा पाने के कारण काफी निराश हैं. 47 वर्षीय मनोज का किस्सा तो वाकई खराब है. उन्हें जब सैक्स की इच्छा होती है तब पत्नी की नहीं होती और जब पत्नी की इच्छा है तो उन की नहीं होती. इन दिनों उन्हें रात में सैक्स करने की अपेक्षा दिन में सैक्स करने की इच्छा ज्यादा बलवती रहती है. जबकि दिन में यह संभव नहीं है. वे बताते हैं कि पहले बच्चे छोटेछोटे थे. दिन में भी यह कभीकभी संभव हो जाता था मगर अब बच्चे बड़े हो गए हैं. रात में सैक्स में अभिरुचि नहीं होने की वजह वे बताते हैं कि रात के अंधेरे में पत्नी के शरीर के कोमल अंगों का साफ न दिख कर केवल छू कर अनुभव करना होता है जोकि रोमांच नहीं पैदा कर पाता है. सैक्स से एकदम मन हट जाता है.

ये भी पढ़ें : जानिए सुबह से पानी पीने के फायदे

मनोज आगे कहते हैं कि एक कारण और भी है कि दिनभर के कामधाम के बाद पत्नी जब थक कर चूर हो जाती है और रात को बिस्तर पर निढाल पड़ जाती है, ऐसी स्थिति में सैक्स करना संभव नहीं है. पत्नी ही नहीं, पति भी तो दिनभर दफ्तर के कामों से थकहार कर जब वापस घर लौटता है, उसे सोने के अलावा दूसरे कामों की इच्छा नहीं होती. वहीं, दिन में पत्नी घर में इधरउधर इठलाती, बलखाती, ठुमकती हुई नजर आती है तो बरबस उसे देखपकड़ कर सीने से भींच लेने को जी चाहता है. ऐसे में पत्नी जब तिरछी नजरों के बाण छोड़ती है वह क्षण पूरे शरीर में गुदगुदी पैदा कर देने वाला होता है तथा पत्नी की तरफ से सैक्स के लिए मौन आमंत्रण होता है. यह माना भी जाता है कि रात की अपेक्षा दिन में स्त्री की भावभंगिमाएं एक मर्द को सैक्स के लिए कुछ ज्यादा ही उत्तेजित कर देती हैं. फलस्वरूप, पुरुष बहक जाता है. उम्र के इस पड़ाव पर पत्नी को भी अपने पति का साथ देना चाहिए. ऐसे में पत्नी की जरा सी उपेक्षा गुजरे 45 वर्षों के वैवाहिक जीवन को अशांत कर सकती है.

ये भी पढ़ें : कम हो रहे स्पर्म काउंट को ऐसे बढ़ाएं

स्वस्थ रहने के लिए सैक्स जरूरी

डाक्टरों का कहना है कि बढ़ती उम्र के साथ सैक्स कमजोर नहीं पड़ता बल्कि शरीर का ‘मेटाबोलिज्म’ खत्म होने लगता है. अपनेआप को स्वस्थ रखने के लिए नियमित सैक्स करना जरूरी है. सैक्स भी एक ऐक्सरसाइज ही है. इस के अलावा एक अनुसंधान से पता चला है कि जांघों की पेशियों में तनाव का यौन समागम से संबंध है. ऐसे व्यायाम, जिस में जांघों की पेशियों का व्यायाम हो, कर के यौन सामर्थ्य को बढ़ाया जा सकता है. डाक्टरों का यह भी कहना है कि यौन सक्रियता के घटने का सब से बड़ा कारण पौष्टिक भोजन का अभाव है. शरीर चुस्त और दुरुस्त तथा ऊर्जावान रखने के लिए सही पौष्टिक खानपान की भी जरूरत होती है. उन के अनुसार बढ़ती उम्र के हिसाब से ज्यादा वसायुक्त भोजन से परहेज करना चाहिए. कभीकभी ऐसा भी होता है कि प्रौढ़ावस्था में पहुंचा व्यक्ति कुछ समय तक जरूरत से ज्यादा संभोग कर चुका हो अथवा बहुत अरसे तक काम के बोझ से दबे रहने के कारण उस का ‘तंत्रिका तंत्’ यानी नर्व सिस्टम थक गया हो, जिस के चलते वह संभोग कार्यों में असफल रह जाता हो. ऐसे समय में उसे कुछ समय तक विश्राम करते हुए पौष्टिक भोजन पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए.

सैक्स जैसे अंतरंग कार्यों में सब से महत्त्वपूर्ण भूमिका मस्तिष्क की ही होती है. पत्नी का झगड़ालू स्वभाव, चिंताएं, थकान, एकांत वातावरण का अभाव इत्यादि शिश्न में उत्थान कम आने के कारण बन सकते हैं. मधुमेह से पीडि़त व्यक्ति इस उम्र में आ कर सैक्स से वंचित रह जाते हैं. मनोचिकित्सकों के अनुसार दिनभर की भागदौड़ से थक कर शरीर जब आराम की मुद्रा में आता है, ऐसे में तुरंत सैक्स करना एक प्रकार का शरीर के साथ व्यभिचार करने के समान है. सैक्स एक प्रकार का 2 विपरीत लिंगों का एकांतिक शारीरिक व्यायाम है. पति व पत्नी चिंता से पूरी तरह मुक्त हो कर फोरप्ले करते हुए सैक्स का आनंद लें. इस से बढ़ती उम्र का खयाल ही नहीं रहेगा.

भीलवाड़ा मॉडल : कोरोनावायरस को हराने में कामयाब

लेखक- डॉ दीपक कोहली

कोरोना के  परिप्रेक्ष्य में आजकल “भीलवाड़ा मॉडल” देश ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चा का विषय बना हुआ है. एक समय यह लग रहा था कि राजस्थान के भीलवाड़ा में कोरोना का संकट वुहान( चीन का एक शहर ) और इटली की तरह ही भयंकर है. लेकिन भीलवाड़ा ने  देश में सबसे पहले कोरोना जोन बने वायरस के खिलाफ महायुद्ध जीत लिया है. यह देश का एकमात्र शहर है, जिसने 20 दिनों में कोरोना को हरा दिया. यह यूं ही संभव नहीं हुआ. इस महायुद्ध को जीतने में जिला प्रशासन की ठोस रणनीति, कड़े फैसले, चुनाव की तरह कुशल प्रबंधन और जीतने की जिद काम आयी.

भीलवाड़ा जिले के सभी कर्मचारियों ने रात-रात भर जागकर काम किया और भीलवाड़ा को बेमिसाल बना दिया. यहां हालात इस कदर बिगड़े कि राजस्थान में सर्वाधिक 27 मरीज आ गए. ये सभी एक निजी अस्पताल के स्टाफ व मरीज थे. बढ़ती संख्या से घबराए प्रशासन ने खुद कहा था, ‘भीलवाड़ा बारूद (कोरोना) के ढेर पर है.’ लेकिन हौसला बरकरार रहा.

19 मार्च को पहला मरीज आया. अगले दिन पांच और मरीज आते ही जिलाधिकारी श्री राजेंद्र भट्ट ने कर्फ्यू लगा दिया. रोज कई बैठकें , अफसरों से फीडबैक और प्लानिंग. सरकार को रिपोर्टिंग. देर रात सोना. जल्दी उठकर फिर वही रूटीन. 3 अप्रैल को 10 दिन का महाकर्फ्यू. यही कड़ा फैसला महायुद्ध में मील का पत्थर साबित हुआ. आखिरकार जिद की जीत हुई. जिस शहर को पहले देश का वुहान (चीनी शहर) और इटली की संज्ञा दी जाने लगी. वहां गंभीर रोगियों की मौत को छोड़ दें तो डॉक्टरों की कड़ी मेहनत ने कोरोना को मात दे दी. तीन डॉक्टर सहित 21 संक्रमित ठीक कर दिए. अब 4 मरीज हैं. यही वजह है कि भीलवाड़ा को हर तरफ से भी तारीफ मिली. क्लस्टर कंटेनमेंट का यह मॉडल देशभर में लागू हो रहा है, अब कोरोना से लड़ने का तरीका पूरा देश भीलवाड़ा से सीखेगा.

ये भी पढ़ें-#lockdown: तड़पा रही है कटिंग चाय और वड़ा पाव की लत

भीलवाड़ा शहर के 55 वार्डों में नगर परिषद के जरिये दो बार सैनिटाइजेशन करवाया गया. हर गली-मोहल्ले, कॉलोनी में हाइपोक्लोराइड एक प्रतिशत का छिडकाव कर सैनिटाइज किया गया. प्रशासन ने संक्रमित स्टाफ वाले अस्पताल को सील करवाया. 22 फरवरी से 19 मार्च तक आए मरीजों की सूची निकलवाई. 4 राज्यों के 36 व राजस्थान के 15 जिलों के 498 मरीज आए. इन सभी के जिलाधिकारियों को सूचना देकर उन्हें आइसोलेट कराया. अस्पताल के 253 स्टाफ व जिले के 7 हजार मरीजों की स्क्रीनिंग की.भीलवाड़ा जिले में देश की सबसे बड़ी 25 लाख लोगों की स्क्रीनिंग कराई गई. छह हजार कर्मचारी जुटे. मरीजों के संपर्क में आए लोगों की पहचान की गई . 7 हजार से अधिक संदिग्ध होम क्वारंटीन में रखे. एक हजार को 24 होटलों, रिसोर्ट व धर्मशालाओं में क्वारंटीन किया. सर्वे की जिम्मेदारी चिकित्सा विभाग की थी. गांवों में फील्ड सर्वे की जिम्मेदारी एडीएम श्री राकेश कुमार को दी गई. यह बड़ी चुनौती थी. कोर टीम रात तीन बजे तक संबंधित एसडीएम से डाटा एकत्रित कर कंपाइल करती. अगले दिन सुबह होते ही रिपोर्ट जिलाधिकारी को सोन दी जाती. इसी आधार पर तय होती थी अगली रणनीति कि अब आगे क्या कदम उठाया जाए.

जिले के राजकीय अस्पताल में कोरोना मरीजों के लिए बनाया आइसोलेशन वार्ड. इसमें कार्यरत डॉक्टर्स व मेडिकल स्टाफ की हर सप्ताह ड्यूटी बदली. वे कोरोना से संक्रमित न हों, इसलिए सात दिन की ड्यूटी के बाद उन्हें भी 14 दिन क्वारंटीन में रखा. नतीजा, अब तक 69 स्टाफ में से एक भी संक्रमित नहीं हुआ.

छह कोरोना पॉजीटिव केस आते ही 20 मार्च को भीलवाड़ा शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया. फिर 14 दिन बाद 3 से 13 अप्रैल तक दस दिन के लिए महाकर्फ्यू. ऐसा करना जरूरी था, ताकि लोग घरों में ही रहें और वायरस का सामुदायिक संक्रमण न हो.

ये भी पढ़ें-#coronavirus: आखिर क्या होती है महामारी?

जिले के ग्रामीण क्षेत्र या गांव का व्यक्ति कोरोना से संक्रमित मिला, उस गांव या क्षेत्र को सेंटर प्वाइंट मानते हुए एक किमी की परिधि को नो मूवमेंट जोन घोषित कर दिया यानि वहां कर्फ्यू भी लगाया. भीलवाड़ा प्रशासन ने जिले की सीमाएं सील कर दीं. 20 चेक पोस्ट बनाकर कर्मचारी तैनात कर दिए, ताकि न कोई बाहर से आ सके, न जिले से बाहर जा सके.

शहर व जिले में रोडवेज व प्राइवेट बसें सहित सभी तरह के वाहन व ट्रेन भी बंद करवाए‌ ताकि कोरोना संक्रमित आ-जा न सकें. कर्फ्यू में लोगों को खाने-पीने का सामान भी होम डिलीवरी के माध्यम से मिलता रहे. इसके लिए सहकारी भंडार के जरिये वाहनों से घर-घर राशन सामग्री, फल-सब्जियां व डेयरी के जरिये दूध पहुंचाया गया. श्रमिकों, असहाय व जरूरतमंदों को निशुल्क भोजन पैकेट व किराना सामान भेजा. इस तरह से भीलवाड़ा ने कोरोना के महासंकट पर विजय प्राप्त की. वर्तमान में भीलवाड़ा में मात्र एक ही कोरोना संक्रमित मरीज है. जिसका इलाज किया जा रहा है. भीलवाड़ा मॉडल वहां के प्रशासन की पूरी टीम के सहयोग से ही संभव हुआ. भीलवाड़ा की जनता से भी वहां के प्रशासन को पूरा सहयोग मिला. भीलवाड़ा में कोरोना वायरस से महायुद्ध जीतने के पश्चात इस मॉडल को पूरे देश में लागू किए जाने का कार्य किया जा रहा है . ताकि देश को कोराना के महासंकट से बचाया जा सके. देश ही क्या विदेशों से भी लोग भीलवाड़ा प्रशासन से संपर्क स्थापित कर उनकी कार्यपद्धति जानने में लगे हैं. इस प्रकार “भीलवाड़ा मॉडल” कोरोनावायरस से महायुद्ध जीतने के लिए संपूर्ण विश्व में एक आदर्श मॉडल बन चुका है.

लॉकडाउन में दीपिका हुई पेंटिंग में बिजी तो पति मांज रहे हैं बर्तन

इन दिनों कोरोना वायरस और लॉकडाउन की वजह से हर कोई घर में ही रह रहा है. इस बीच लोग अपनी फैमली के साथ क्वालिटी टाइम बीता रहे है. इसी बीच सोशल मीडिया पर एक फोटो वायरल हो रहा है जिसमें दीपिका कक्कड़ पेंटिंग कर रही हैं तो वहीं पति शोएब बर्तन मांज रहे हैं.

दीपिका कक्कड़ ने फोटो शेयर किया है जिसमें उनके हाथ में पेंटिंग का ब्रश नजर आ रहा है. कुछ पेंटिग करती नजर आ रही हैं. इस फुर्सत के पल को बेहद शानदार तरीके से बीता रही हैं.

 

View this post on Instagram

 

She was in her cozy home, thankfull for everybit of comfort granted! ? . #alhamdulillah #begreatfulforwhatyouhave #alwaysandforever

A post shared by Dipika (@ms.dipika) on

दरअसल दीपिका यह पेंटिंग अपने टीशर्ट पर बना रही है. वहीं पति शोएब अपनी पत्नी का पूरा ख्याल रखते हुए घर के कामों में हाथ बांटा रहे हैं.

ये भी पढ़ें-Coronavirus से लड़ने के लिए डॉक्टर बना ‘कुमकुम भाग्य’ का ये एक्टर, पहुंचा

पत्नी के इस काम को देखते हुए शोएब घर का काम कर रहे हैं. जिससे दीपिका अपने काम को सही से कर सकें. शोएब खुद को अच्छा बेटा और अच्छा पति मानते हैं.

इस फोटो को देखकर यह कहा जा सकता है कि शेयरिंग इज केयरिंग. पति-पत्नी को एक दूसरे का ख्याल रखना चाहिए. इससे  आपस में प्यार बढ़ता है.

लॉकडाउन की वजह से सभी स्टार्स अपने घर पर फैमली के साथ समय बीता रहे हैं. नए-नए अपडेट सोशल मीडिया के जरिए दे रहे हैं.

बता दें दीपिका कक्कड़ बिग बॉस शो की बिनर भी रह चुकी हैं. दीपिका की शोएब के साथ यह दूसरी शादी है. इससे पहले दीपिका ने बहुत ही कम उम्र में शादी कर लिया था. दीपिका और शोएब लंबे वक्त तक एक –दूसरे को डेट करने के बाद शादी किया था. हालांकि दोनों के परिवार वाले इस शादी से बेहद खुश हैं.

दीपिका शोएब के फैमली को बहुत प्यार करती हैं. वहीं अपनी नन्द के साथ भी अच्छी बॉडिंग शेयर करती हैं.

कोरोनावायरस लॉकडाउन: मुद्दों से भटक रही मायावती

बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती दलित समाज के मुद्दों से भटक रही हैं. चाहे नागरिकता कानून का मुद्दा हो या कोरोना वायरस की त्रासदी से जूझ रहे गरीब, मजदूर और समाज के उपेक्षित वर्ग की बात हो मायावती पूरी तरीके से खामोश है. वह सरकार के हर कदम का स्वागत करते हुए अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ले रही हैं . मायावती का कामकाज केवल राजनीतिक बयान बाजी तक ही सीमित रह गया.

केंद्र सरकार ने द्वारा जब दूसरी बार लॉकडाउन बढ़ाने की बात भी नही की थी तभी मायावती ने उसका समर्थन कर दिया था. मायावती ने कहा ”केंद्र सरकार अगर लॉक डाउन बढ़ाती है तो बीएसपी उसका समर्थन करेगी” मायावती को उस समय तक यह नही पता था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्या घोषणा करने वाले है.

ये भी पढ़ें- #lockdown: बुरे दिन आने वाले हैं 

मायावती ने कहा कि “जनहित को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार के निर्णय का बीएसपी समर्थन करती है”. उस समय तक मायावती को यह  भी नही पता था कि लोक डाउन में क्या नया होने वाला है ? दलित समाज की दिक्कतों को किसी हल किया जाएगा ? . मायावती ने बिना यह जाने ही केंद्र सरकार को अपना सर्मथन दे दिया.

मायावती ने अपने बयान में दिखावे के लिए अंत मे गरीबो और मजदूरों की आवाज उठाते कहा कि सरकार को गरीबों, मजदूरों, किसानों और अन्य मजदूर वर्ग के हितों को ध्यान में रखना चाहिए और तालाबंदी के दौरान उन्हें सहायता प्रदान करनी चाहिए”

राजनीतिक पलायन

नागरिकता कानून की बात हो या लोक डाउन के दौरान परेशानियों की सबसे अधिक गरीब और मजदूर वर्ग इन दोनों में ही परेशान हुआ. इसके बाद भी बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने नागरिकता कानून और लॉक डाउन दोनों के मुद्दे पर दलित मजदूर की मदद का कोई अभियान अपनी पार्टी के द्वारा नहीं चलाया.

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने लॉक डाउन के दौरान अपनी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को आदेश दिया कि वह लोग लॉक डाउन में फंसे परेशान गरीब मजदूर वर्ग की मदद करें . उनको खाना खिलाए और उन्हें सरकारी सुविधा दिलवाने में मदद करें. समाजवादी पार्टी के लोगों ने कई शहरों में इस तरीके का काम किया . इसके विपरीत बहुजन समाज पार्टी के अध्यक्ष मायावती ने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को कोई ऐसा संदेश नहीं दिया कि वह लॉक डाउन के दौरान गरीब और मजदूरो की मदद के लिए सड़कों पर उतरे.

ये भी पढ़ें- कोरोना संकट में भी जारी है मोदी का इमेज बिल्डिंग अभियान

मायावती के लिए एक तरीके का राजनीतिक पलायन है. मायावती को पता है की दलित वर्ग का बड़ा  हिस्सा हिंदुत्व के नाम पर भारतीय जनता पार्टी के  समर्थन में खड़ा हो चुका है . यही कारण है कि उत्तर प्रदेश के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में मायावती को करारी हार का सामना करना पड़ा था.

खामोशी से बीती अंबेडकर जयंती

14 अप्रैल को भीमराव अंबेडकर जयंती के अवसर पर समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने अंबेडकर जयंती के अवसर पर गरीब और मजदूर वर्ग के लोगों को लॉक डाउन के दौरान खाना खिलाने जैसा काम किया. भारतीय जनता पार्टी के नेता और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ में सहित तमाम दूसरे नेताओं ने भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा पर फूल माला चढ़ाकर अंबेडकर जयंती को मनाया. समाजवादी पार्टी के विधायक अम्बरीश सिंह पुष्कर औऱ ब्लॉक प्रमुख विजय लक्ष्मी ने बाबा साहब की प्रतिमा पर फूल चढ़ा कर गरीबो, दलित और मजदूरों खाना खिलाया.

इसके विपरीत बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती और उनके कार्यकर्ताओं के द्वारा मजदूर और किसानों को किसी भी तरीके की मदद करते नहीं देखा गया. सामान्य तौर पर इस अवसर पर बहुजन समाज पार्टी बड़े आयोजन करती थी. लॉक डाउन के दौरान सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करने के लिए बसपा ने  इस तरह के आयोजनों पर सड़क पर उतरना उचित नही समझा. यही वजह है कि अंबेडकर जयंती पर बहुजन समाज पार्टी ने कोई बड़ा कार्यक्रम नहीं किया. पर बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ता और नेता चाहते तो आज गांव गरीब और मजदूर वर्ग के लोगों को खाना खिला सकते थे . उनकी तकलीफों को पूछ सकते थे उनकी जरूरतों को पूरा कर सकते थे पर बहुजन समाज पार्टी के लोगों ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया.

ये भी पढ़ें-#coronavirus: सच को परदे में रखना चाहती है ट्रोल आर्मी

ब्राम्हणवाद का प्रभाव

बहुजन समाज पार्टी पर ब्राह्मणवाद का प्रभाव पूरी तौर से देखा जा सकता हैं. बहुजन समाज पार्टी ने जब से “सोशल इंजीनियरिंग” के नाम पर दलित और ब्राह्मण गठजोड़ किया तब से पार्टी में दलित मुद्दों की जगह कम होती गई . यही वजह है कि दलित अब मायावती और बहुजन समाज पार्टी से वह लगाव और अपनापन नहीं रख पाता जो काशीराम के समय  बहुजन समाज पार्टी के साथ था. साल 2009 में जब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी तब उम्मीद की जा रही थी कि बहुमत की के बल पर दलित उत्थान के लिए मायावती कुछ बड़े कदम उठाएंगे . मायावती ने दलित उत्थान की जगह ब्राह्मणवादी सोच को सामने रखते हुए मूर्तियां बनवाने का काम शुरू कर दिया. मायावती ने न केवल दलित महापुरुषों की मूर्तियां लगवाई बल्कि खुद अपनी मूर्ति भी कई शहरों में लगवाई . बहुजन समाज पार्टी अपने शुरुआती दौर में मूर्ति पूजा की घोर विरोधी हुआ करती थी. पर ब्राह्मणवादी सोच के हावी होने के बाद बसपा मूर्ति पूजा में विश्वास करने लगी. इसी का नतीजा था कि बहुजन समाज पार्टी धीरे-धीरे ना केवल उत्तर प्रदेश बल्कि पूरे देश में राजनीतिक रूप से बनवास चली गई. आज जब गरीब दलित और मजदूर वर्ग को मायावती और बहुजन समाज पार्टी की सबसे अधिक जरूरत है तब मायावती पूरी तौर से खामोश हैं  राजनीतिक रूप से उनका काम केवल बयान जारी करना या सोशल मीडिया पर अपने संदेश देना रह गया.

मुसलिम समाज को ले कर अपने किस बयान से विवादों में आ गई हैं तसलीमा नसरीन

समाज में फैले अंधविश्वास और मुसलिम कट्टरता की कङी आलोचना कर इसलामिक कट्टरपंथियों द्वारा जारी फतवों और निर्वासन झेल रहीं बंग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन एक बार फिर से चर्चा में हैं. हाल ही में उन की लिखी 2 बहुचर्चित किताबें ‘माई गर्लहुड’ और ‘लज्जा’ का अगला भाग ‘शेमलेस’ 14 अप्रैल को रिलीज होनी थी लेकिन लौकडाउन की वजह से रिलीज नहीं हो पाई. इस के तुरंत बाद एक मीडिया हाऊस को दिए इंटरव्यू के बाद तसलीमा फिर से विवादों में आ गई हैं.

निशाने पर तबलीगी जमात

इस बार उन्होंने तबलीगी जमात को अपने निशाने पर लिया और उन पर निशाना साधते हुए बोलीं,”ये जहालत फैला कर मुसलिम समाज को 1400 साल पीछे ले जाना चाहते हैं.”

दिल्ली में तबलीगी जमात के एक धार्मिक कार्यक्रम में हुए जमावड़े और उन में से कइयों के और उन के संपर्क में आए लोगों के कोरोना वायरस संक्रमण की चपेट में आने के बीच तसलीमा ने एक इंटरव्यू में कहा,” मैं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में भरोसा करती हूं लेकिन कई बार इंसानियत के लिए कुछ चीजों पर प्रतिबंध लगाना जरूरी है. यह जमात मुसलमानों को 1400 साल पुराने अरब दौर में ले जाना चाहती है.’’

WhatsApp Image 2020-04-15 at 10.09.13 AM

ये भी पढ़ें- क्या नफरत कोरोना समस्या का हल है: दुनिया कोरोना को ढूंढ रही है और हम

विवादों से पुराना नाता रहा है

हालांकि तसलीमा की पहचान हमेशा विवादों से घिरी रहने वाली लेखिका के रूप में है लेकिन वे एक डाक्टर भी हैं. उन्होंने बंग्लादेश के मैमन सिंह मैडिकल कालेज से 1984 में एमबीबीएस की डिग्री ली थी. उन्होंने ढाका मैडिकल कालेज में काम शुरू किया लेकिन नारीवादी लेखन के कारण पेशा छोड़ना पड़ा. बंग्लादेश में रहते हुए तसलीमा ने समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कट्टरता की जम कर आलोचना की. अपने लेखों के माध्यम से उन्होंने धार्मिक अंधविश्वासों की मुखालफत कीं तो कट्टरपंथियों के निशाने पर आ गईं.

अब जब दुनिया कोरोना वायरस महामारी से त्रस्त है, मुसलिम समाज के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा,”हम मुसलिम समाज को शिक्षित, प्रगतिशील और अंधविश्वासों से बाहर निकालने की बात करते हैं लेकिन लाखों की तादाद में मौजूद ये लोग अंधकार और अज्ञानता फैला रहे हैं. मौजूदा समय में साबित हो गया कि ये अपनी ही नहीं दूसरों की जिंदगी भी खतरे में डाल रहे हैं. जब इंसानियत एक वायरस के कारण खतरे में पड़ गई है तो हमें बहुत ऐहतियात बरतने की जरूरत है.’’

जब बंग्लादेश में फैला था हैजा

दुनियाभर में कोरोना वायरस महामारी से जूझते डाक्टरों को देख कर उन्हें 90 की दशक की शुरूआत का वह दौर याद आ गया जब बंग्लादेश में हैजे के प्रकोप के बीच वे भी इसी तरह दिनरात की परवाह किए बिना इलाज में लगी हुई थीं.

उन्होंने कहा,‘‘इस से मुझे वह समय याद आ गया जब 1991 में बंग्लादेश में हैजा बुरी तरह फैला था. मैं मैमन सिंह में संक्रामक रोग अस्पताल में कार्यरत थी जहां रोजाना हैजे के सैकड़ों मरीज आते थे और मैं भी इलाज करने वाले डाक्टरों में से थी. मैं उस समय बिलकुल नई डाक्टर थी.’’

मालूम हो कि बंग्लादेश में 1991 में फैले हैजे में करीब 2,25,000 लोग संक्रमित हुए और 8,000 से अधिक लोग मारे गए थे.

तसलीमा ने कहा,‘‘मुझे दुनियाभर के डाक्टरों को देख कर गर्व हो रहा है कि मैं इस पेशे से हूं. वे मानवता को बचाने के लिए अपनी जान भी जोखिम में डालने से पीछे नहीं हट रहे. आज यह साबित हो गया है कि अज्ञानता और अंधविश्वास नहीं, बल्कि विज्ञान ही ताकतवर है.”

इतना ही नहीं, तसलीमा ने एक ट्टविट  भी किया और यहां तक कह दिया कि जमात एक इसलामिक कट्टरपंथी आंदोलन है.

उन्होंने ट्विट कर कहा,”तबलीगी जमात एक इसलामिक कट्टरपंथी आंदोलन है. यह 1926 में हरियाणा के मेवात से शुरू हुआ. 150 देशों के लगभग 8 करोङ मुसलमान इस जमात में भाग लेते हैं. उजबेकिस्तान, ताजिकिस्तान, कजाकिस्तान ने इस पर प्रतिबंध लगा रखा है.

ये भी पढ़ें- कोरोना सकंट: तब्लीगी जमात ने बढ़ाई देश भर में चिंता और चुनौती

धार्मिक अंधविश्वास और अज्ञानता

तसलीमा का यह बयान भी उस समय आया है जब तबलीगी जमात को ले कर देशभर के मीडिया जम कर भड़ास निकाल रहे हैं पर यह कोई नहीं कह रहा कि जब लौकडाऊन की घोषणा की जानी थी, उस से पहले सरकार को इस की जानकारी क्यों नहीं थी? वह भी तब जब इतना बङा जलसा हो रहा था और इस में देश ही नहीं विदेशों से भी बङी संख्या में जमाती इकट्ठे हुए थे.

जाहिर है, विदेश से आने वाले ये लोग एअरपोर्ट होते हुए आए होंगे और इन का डाटा सरकार के पास भी उपलब्ध होगा. बावजूद यह जलसा जारी रहा और इस पर तब ऐक्शन लिया गया जब सामूहिक कार्यक्रम की मनाही हो गई थी और लौकडाउन लागू हो चुका था. इस के बाद सरकार हरकत में आई और एकएक कर इन्हें बाहर निकाला गया. पर चूंकि दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश है और यहां पुलिस प्रशासन केंद्र के अधीन है तो यह बङी चूक हुई कि जिस समय जमात के कार्यक्रम को रोका गया उसी समय इन्हें एकएक कर स्वास्थ्य परीक्षण में ले जाया जाता. जलसे के दौरान और बाद में ये देश के अन्य राज्यों में गए, यह भी एक बङी चूक रही.

उधर दिल्ली के मजनूं का टीला के एक गुरूद्वारे में भी 250 से अधिक लोग धार्मिक जलसे में शामिल थे. इन्हें भी प्रशासन द्वारा बाहर निकाला गया. खबर है कि यहां भी सोशल डिस्टैंसिंग की धज्जियां उड़ाई जा रही  थीं.

ऐसे में तो यही कह सकते हैं कि इन सब के मूल में धार्मिक अंधविश्वास और अज्ञानता भी एक कारण है.

ये भी पढ़ें- फेक न्यूज़– पौराणिक काल से वर्तमान तक सक्रिय है भगवा गैंग

धर्म बङा या विज्ञान

यों धर्म कोई भी हो इस को मानने वाले कभी सुखी जीवन नहीं बिताते. हिंदू धर्म तो अपने अंधश्रद्धा से हमेशा से ही अज्ञानताओं से घिरा रहा है. यह अंधश्रद्धा ही है कि धर्म के नाम पर यहां कभी राम रहीम और आसाराम जैसे बलात्कारियों के दरबारों में हजारों की भीङ उमङती रही है, तो वहीं मूर्ति पूजन और पिंडदान के नाम पर भक्तों को जम कर लूटाखसोटा जाता है. धार्मिक दरबार में लोगों को धर्म का भय दिखा कर तो कभी राम का वास्ता दे कर खूब बेवकूफ बनाया जाता रहा है. भक्त लुटतेपिटते रहे हैं और तथाकथित गुरू ऐशोआराम की जिंदगी जीते रहे हैं.

खबर है कि तबलीगी जमात के तथाकथित मुखिया मौलाना साद भी मर्सिडीज से चलता है और करोड़ों का मालिक है.

फरार चल रहे मौलाना साद की गिरफ्तारी के बाद संभव है कि कई नए खुलासे हों पर सवाल अहम है और वह यह कि धर्म कोई भी हो देता कुछ नहीं. कुछ देता भी है तो खुद का कर्म, मेहनत, वैज्ञानिक और आधुनिक सोच. फिर धर्म को ले कर कुछ लोग क्यों अज्ञानता की खाई में गिरे पङे हैं?

19 दिन 19 टिप्स: सैक्स चाहिए बच्चा नहीं

विवाह के बाद जोड़े सैक्स का तो जम कर लुत्फ उठाते हैं पर बच्चा पैदा करने से परहेज करते हैं. कई युवा ऐसे भी हैं जो विवाह किए बगैर सैक्स का मजा लेते रहते हैं. कई युवा कंडोम, कौपर टी, गर्भनिरोधक गोलियों आदि का इस्तेमाल कर जिस्मानी रिश्ते बना रहे हैं. इस के पीछे उन का मकसद केवल सैक्स का मजा लेना ही होता है न कि बच्चे को जन्म देना. अगर बच्चा ठहर भी जाता है तो वे उसे गिराने में जरा भी देर नहीं लगाते हैं.

डा. दिवाकर तेजस्वी कहते हैं कि सैक्स का आनंद नैचुरल और सेफ तरीके से उठाया जाए तो मजा दोगुना हो जाता है. ऐसा नहीं करने से कई तरह की बीमारियों और परेशानियों में फंसने की गुंजाइश रहती है.

आजकल मातृत्व और पितृत्व की भावना कम होती जा रही है. औरत और मर्द का रिश्ता केवल सैक्ससुख का ही रह गया है. इसी वजह से यह चलन चल पड़ा है कि लोग मांबाप बनने से कतराते हैं. समाजविज्ञानी हेमंत राव कहते हैं कि महज सैक्स का सुख उठाने वाले जोड़े 30-35 साल की उम्र तक तो यह आनंद उठा सकते हैं लेकिन उस आयु तक अगर बच्चा पाने से परहेज किया जाए तो तरहतरह की जिस्मानी और दिमागी परेशानियां शुरू हो जाती हैं. कई ऐसे मामले हैं जहां लंबे समय तक बच्चे न चाहने वाले जोड़ों को बाद में काफी दिक्कतें उठानी पड़ती हैं.

स्त्रीरोग विशेषज्ञ डाक्टर डा. किरण शरण बताती हैं कि हर चीज का समय होता है. बारबार गर्भपात कराने पर बच्चेदानी कमजोर हो जाती है, उस के फटने के आसार भी बढ़ जाते हैं. बारबार गर्भपात कराने से बां झपन की समस्या के होने का भी खतरा होता है. अगर बच्चा ठहर भी जाता है तो जन्म लेने वाले बच्चे के कमजोर और बीमार होने का खतरा बना रहता है. कई ऐसे उदाहरण हैं जहां देर से बच्चा होने पर वह दिमागी और जिस्मानी तौर पर बहुत कमजोर होता है. उस के कई अंगों का ठीक से विकास नहीं हो पाता है.

आज के युवा बच्चे को ऐसेट नहीं बल्कि लाइबिलिटी मानते हैं. यही वजह है कि ‘सैक्स का मजा लो और फिर अपने काम में लग जाओ’ की सोच बढ़ती जा रही है. अब वंश आगे बढ़ाने और मांबाप बनने का आनंद उठाना गुजरे जमाने की बात जैसी होती जा रही है. पहले के लोग बच्चे को बुढ़ापे का सहारा मानते थे पर आज के लोगों की सोच ऐसी नहीं है. उन की सोच है कि पैसा है तो सबकुछ खरीदा जा सकता है. कैरियर बनाओ, पैसा कमाओ और सैक्स का भरपूर मजा उठाओ, यही आज के युवाओं की सोच है.

हमारे देश में आज भी शादी की तमाम रस्मों और हनीमून की प्लानिंग तो की जाती है पर बच्चों की नहीं, जिस का नतीजा अनचाहा गर्भ या गर्भपात ही होता है. डा. नीरू अरोरा कहती हैं, ‘‘गर्भनिरोधक यानी कौंट्रासैप्टिव के चुनाव के मामले में आज कई दंपती यह तय ही नहीं कर पाते हैं कि कौन सा गर्भनिरोधक उन के लिए उपयुक्त है.’’

गर्भनिरोधकों के बारे में महिलाओं के मन में अनेक गलत धारणाएं रहती हैं, जैसे गर्भनिरोधक गोली से भविष्य में गर्भधारण में समस्या होगी, सैक्स की चाहत नहीं रहेगी, कैंसर की संभावना बढ़ेगी, वजन बढ़ जाएगा वगैरह. ये सारी धारणाएं गलत हैं.

डा. नीरू कहती हैं, ‘‘गर्भनिरोधक गोलियों के प्रयोग से ओवेरियन कैंसर व सिस्ट के चांसेस कम होते हैं. इन के प्रयोग से घबराना नहीं चाहिए.’’

गर्भनिरोधक 2 प्रकार के होते हैं, प्राकृतिक व कृत्रिम.

प्राकृतिक गर्भनिरोधक

प्राकृतिक गर्भनिरोधक तरीकों का प्रयोग करते समय किसी भी तरह की गर्भनिरोधक दवाओं का प्रयोग नहीं किया जाता. इस के खास तरीके में सिर्फ मासिक चक्र को ध्यान में रखते हुए ‘सेफ पीरियड’ में ही सैक्स किया जाता है.

सुरक्षित मासिक चक्र : परिवार नियोजन के प्राकृतिक तरीकों में से एक सुरक्षित मासिक चक्र है. इस तरीके के तहत ओव्यूलेशन पीरियड के दौरान शारीरिक संबंध न रखने की सावधानियां बरती जाती हैं.

आमतौर पर महिलाओं में अगला पीरियड शुरू होने के 14 दिन पहले ही ओव्यूलेशन होता है. ओव्यूलेशन के दौरान शुक्राणु व अंडे के फर्टिलाइज होने की ज्यादा संभावना होती है. दरअसल, शुक्राणु सैक्स के बाद 24 से 48 घंटे तक जीवित रहते हैं, जिस से इस दौरान गर्भधारण की संभावना बढ़ जाती है.

फायदा : इस में न किसी दवा की, न किसी कैमिकल की और न ही किसी गर्भनिरोधक की जरूरत होती है. इस में किसी भी तरह का रिस्क या साइडइफैक्ट का डर भी नहीं रहता.

नुकसान : यह तरीका पूरी तरह से कामयाब नहीं कहा जा सकता. यदि पीरियड समय पर नहीं होता तो गर्भधारण की संभावना ज्यादा बढ़ जाती है.

कैलेंडर वाच : प्राकृतिक तरीकों में एक कैलेंडर वाच है, जिसे सालों से महिलाएं प्रयोग में लाती हैं. इस में ओव्यूलेशन के संभावित समय को शरीर का टैंप्रेचर चैक कर के जाना जाता है और उसी के अनुसार सैक्स करने या न करने का निर्णय लिया जाता है. इस में महिलाओं को तकरीबन रोज ही अपने टैंप्रेचर को नोट करना होता है. जब ओव्यूलेशन होता है तो शरीर का तापमान आधा डिगरी बढ़ जाता है.

फायदा : इस में किसी भी प्रकार की दवा या कैमिकल का उपयोग नहीं होता. इस से कोई साइड इफैक्ट नहीं पड़ता और न सेहत के लिए ही कोई नुकसान होता.

नुकसान : यह उपाय भी पूरी तरह से सुरक्षित नहीं है, खासकर उन महिलाओं के लिए जिन की माहवारी नियमित नहीं होती.

स्खलन विधि : इस विधि में स्खलन से पहले सैक्स क्रिया रोक दी जाती है, ताकि वीर्य योनि में न जा सके.

फायदा : इस का कोई भी साइड इफैक्ट नहीं है.

नुकसान : सहवास के दौरान हर पल दिमाग में इस की चिंता रहती है. लिहाजा, सैक्स का पूरापूरा आनंद नहीं मिल पाता. इस के अलावा शुरू में निकलने वाले स्राव में कुछ मात्रा में स्पर्म्स भी हो सकते हैं. इसलिए यह विधि कामयाब नहीं है.

कृत्रिम गर्भनिरोधक

प्रैग्नैंसी रोकने की जिम्मेदारी अकसर महिलाओं को ही उठानी पड़ती है. इसलिए उन्हें इस के लिए इस्तेमाल होने वाले कौंट्रासैप्टिव की जानकारी होना बेहद जरूरी है.

गर्भनिरोधक गोलियां : गर्भनिरोधक गोलियां भी कई प्रकार की होती हैं :

साइकिल गर्भनिरोधक गोली : इस का पूरा कोर्स 21 दिन का होता है. इस की 1 गोली माहवारी के पहले दिन से ही रोज ली जाती है. इस के साथ ही 3 हफ्ते तक बिना नागा यह गोली लेनी चाहिए.

फायदा : इस के उपयोग से माहवारी के समय दर्द से भी आराम मिलता है.

नुकसान : आप यदि एक दिन भी गोली खाना भूल गईं तो प्रैग्नैंट हो सकती हैं, साथ ही सिरदर्द, जी मिचलाना, वजन बढ़ना आदि समस्याएं भी हो जाती हैं.

ओनली कौंट्रासैप्टिव पिल : इसे ओसीपी भी कहा जाता है. इस का भी कोर्स 21 दिनों का होता है, जिस में 7 गोलियां हीमोग्लोबिन की भी होती हैं. इस तरीके से महिलाओं को एनीमिया की शिकायत नहीं होती क्योंकि इस में प्रोजेस्टेरोन और इस्ट्रोजन हार्मोन होते हैं.

आपातकालीन गोलियां: असुरक्षित सहवास के बाद अनचाहे गर्भ से बचने के लिए इस का इस्तेमाल किया जाता है.

फायदा : इस गोली का सेवन यौन संबंध बनाने के 72 घंटों के अंदर किया जाता है तो यह 96 फीसदी तक प्रभावशाली होती है.

नुकसान : इस का प्रयोग करना स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक नहीं है.

कौपर टी : गर्भनिरोधक के रूप में यह विश्व में सब से ज्यादा इस्तेमाल होती है. यह अंगरेजी के टी (ञ्ज) अक्षर के शेप की होती है और इस में पतला सा तार लगा होता है. इसे गर्भाशय के भीतर लगाया जाता है. इस से गर्भ नहीं ठहर पाता. जब भी बच्चे की चाहत हो इसे निकलवाया जा सकता है.

फायदा : इस में 99 फीसदी तक फायदा है. एक बार बच्चा होने के बाद दूसरा बच्चा होने के समय में गैप के लिए कौपर टी एक अच्छा जरिया है.

नुकसान : कौपर टी लगाने के बाद 2-3 महीने तक माहवारी ज्यादा आती है, लेकिन बाद में ठीक हो जाती है. इसे डाक्टर के द्वारा ही लगाया और निकलवाया जाता है.

गर्भनिरोधक इंजैक्शन : यह इस्ट्रोजन व प्रोजेस्टेरौन का इंजैक्शन है. यह 2 महीने या 3 महीने में लगाया जाता है. यह ओव्यूलेशन रोकता है, जिस से गर्भ नहीं ठहरता.

फायदा : इस का 99 फीसदी फायदा होता है. माहवारी भी कम दिनों तक होती है और माहवारी में दर्द नहीं होता.

नुकसान : इस से वजन बढ़ जाता है. इस इंजैक्शन के बाद नियमित व्यायाम और खानपान में संतुलित आहार जरूरी है.

– साथ में रुचि सिंह

#coronavirus: जब मेरी जिन्दगी में हुआ  लॉकडाउन

लेखिका-सुधा रानी तैलंग

लॉकडाउन के दौर में जंहा हम घरों में बन्द है. ऐसे में हर समय मन में डर सा समाया रहता है कि अब आगे क्या होगा .ऐसा अनुभव हमारे जीवन में पहली बार आया है.  इससे पहले भारत पाक युद्ध के समय भी कुछ ऐसे ही माहौल का अनुभव किया था. चारों ओर सन्नाटा होता था. पर उस समय सब के घरों में रेडियो नहीं होते थे ऐसे में सड़कों में लाउडस्पीकर में समाचार आते भारी भीड़ लगती थी व आपस में प्रेम भाई चारे का जज्बा था. लॉकडाउन भी आपात, एक युद्ध  का समय हैं इस जंग को हमें हर हाल में जीतना हैंचाहे हमें कुछ दिनों तक घरों में बन्द रहना पड़े. देख जाये तो लोकडाउन ने हमें बिल्कुल अकेला कर दिया है पर अपनों के साथ . हमारे दिलों में दूसरों की फिक्र व मदद करने की भावना जागी है .

देष में आपसी एकता की भावना देखने मिल रही है..बाजार माल सिनेमा ,पार्टीज व होटल से दूर पर परिवार के पास. लॉकडाउन ने हमारे बीच में एक लक्ष्मण रेखा खींच दी है पर हमारे दिलों को जोड़ दिया है .परिवार को एक दूजे के करीब लाकर खड़ा कर दिया है .सबको एक दूजे की चिन्ता है .पहली बार ही ऐसा हुआ  है जब हमें अपने हाथों से घर का काम करना पड़ रहा है. इससे एक बात तो ये अनुभव हो रही है कि हम मेम साहब से गृह स्वामिनी की फीलिंग कर रहे हैं. आपस में पूरे परिवार के सदस्यों ने काम की जिम्मदारी बाटं ली है .घरों में काम की जिम्मेदारी जरूर बढी है पर खुद के लिये सोचने का हमें समय भी मिला है.

ये भी पढ़ें-#lockdown: घर में ऐसे कर सकते हैं अपनी परीक्षा की तैयारी

वैसे देखा जाये तो ये लॉकडाउन का ये समय बेहद उपयोगी व कारगर साबित हो रहा है. पूरे परिवार को साथ बैठने का मौका मिला है. खाली समय में एक ओर तो हमें अपने हाथ की बनी नई रेसिपीज बनाने खाने मिल रही है . घरों का झाड़ू पौछा करने से हमारी  एक्सरसाइज भी हो रही है. अपनी पुरानी हाबीज पेन्टिंग , संगीत सिलाई कढाई ,कुकिंग ,जो भाग दौड़ की जिन्दगी में हम भूल से गये थे उसे पूरी करने का मौका हमें मिला है. पुराने इन्डोर गेम्स चंगा पौआ , सांप सीढी , अन्ताक्षरी व कहानियों का दौर लौटा है. लगभग तीस सालों बाद रामायण ने दूरदर्षन के दिन लौटा दिया है .लोग अतीत को याद करने लगे है .लाकडाउन का समय साहित्य से जुड़े लोगों के लिये तो समय बेहद सार्थक उपयोगी कहा जा सकता है. अभी खाली समय में लिखने का मौका मिला है ऐसे अवसर कम ही आते हैं. सामने नई कहानियों के विचार आ रहे हैं. परिवार की नौंक झौंक व घरेलू हिंसा के ऐसे मौके में घटनायें  घटित हो रही है, अकेले बुर्जुगों को बिना नौकरों के किन परेषानियों का सामना कर पड़ रहा हैं उन पर लिख रही हूं.साथ मैं बुन्देल खण्ड की लोककथाओं की किताब को फाइनल रूप दे रही हूं.रेडियो के लिये झलकी भी तैयार कर रही हूं.मुझे मेरे पंसदीदा लेखक प्रेमचन्द का निर्मला और कालिदास का अभिज्ञानषाकुन्तलम् को भी पढने का अवसर मिला है.

ये भी पढ़ें-#coronavirus: लौकडाउन में बच्चे की दिनचर्या और भोजन का रखें खास ख्याल

मेरे विचारों लॉकडाउन का समय अभी बढाना ही बेहतर होगा क्योकि हमारा स्वास्थ्य व सुरक्षा पहले है. सोषल डिस्टेन्स बनाते हुये घरों में रहकर हम ज्यादा सेफ रह सकते हैं.घर पर ही कोई छोटा मोटा काम भी कर सकते हैं जो आगे जाकर अर्निंग भी करा सके .बाहरी भौतिक जगत की चमक दमक से दूर कुछ दिन प्रकृति की गोद में कम संसाधनों व कम खर्च में जीवन यापन करके हम बेहतर स्वस्थ रह सकते है.लॉकडाउन से एक फायदा तो ये हुआ है कि हम सालों बाद अपनी छत से तारों को निहार सकते हैं. स्वच्छ व खुली हवा में सांस ले रहे है ऐसे में हमें लॉकडाउन को बन्धन न समझते हुये .खुषी, आनंद व सन्तोष को अपने जीवन में समावेष करते हुये खूब एन्जाय करना है

#lockdown: तड़पा रही है कटिंग चाय और वड़ा पाव की लत

लेखक-शामी एम् इरफान

मुम्बई की धड़कन को उर्जा प्राप्त होती है कटिंग चाय और वड़ा – पाव से। चाय पर ज्यादा चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आप सभी चाय के गुण – अवगुण से भली – भांति परिचित हैं. चाय- काॅफी ऐसा गर्म पेय पदार्थ है, जिस पर गरीब और अमीर दोनों अपने – अपने स्तर से चर्चा करते रहते हैं. इससे लाभ और हानि को लेकर न सिर्फ़ पत्र – पत्रिकाओं में कुछ न कुछ छपता रहता है, बल्कि सोशल मीडिया पर भी चाय – काॅफी को लेकर बहुत कुछ देखने – सुनने व पढ़ने को मिलता है.

सर्वत्र चाय और काॅफी का सम्मान है. चाय थोड़ी – सी गरीब जरूर है और काॅफी तो शुरू से ही अमीर है लेकिन काॅफी से ज्यादा चाय ही मशहूर है. बिलकुल उसी तरह जैसे दुनिया में अमीरों से अधिक गरीब लोग हैं. यह गरीब ही हैं, जो सबसे ज्यादा चाय का सेवन करते हैं.

ये भी पढ़ें-#coronavirus: आखिर क्या  होती है महामारी ?

चाय की चुस्की के लिए मेरे एक मित्र कहीं भी जा सकते हैं. उनका कहना है कि ‘चा, चु के लिए मुझे बुलाओ और मैं न आऊँ, ऐसा हो नहीं सकता.’ और कसम से वह चाय की चुस्की के लिए कभी भी कहीं भी बुलाने पर आ जाते हैं और उनकी इस कमजोरी का फायदा उनके अपने लोग बड़ी आसानी से उठाते हैं. या यूँ कहें कि, लोग उनको चाय पिलाकर अपना काम करा लेते हैं और काम निकलने के बाद पहचानते भी नहीं. ऐसे में काम का वाजिब मेहनताना कौन देता है. बस, वह चाय की चुस्की लेकर ही खुश रहते हैं.

देश और दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या करोड़ों में है, जो चाय-काॅफी और वड़ा – पाव के आदी हो चुके हैं और इनकी सही – सही जनसंख्या बता पाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है. चाय के चहेतों की तरह वड़ा – पाव के शौक़ीनो की कमी नहीं है. वड़ा – पाव महाराष्ट्र का फेमस खाद्य पदार्थ है. इसको यूँ भी कह सकते हैं कि, वड़ा सब्जी यानी भाजी है और पाव रोटी यानी चपाती. आप मानो या न मानो, मगर यह सच है कि, भाजी – रोटी की जगह समतुल्य है वड़ा  – पाव और यकीनन इसे खाने से सम्पूर्ण भोजन की फीलिंग्स आती है. वड़ा- पाव खाने से तन-मन को संतुष्टि मिलती है और परम आनंद की अनुभूति होती है.

ये भी पढ़ें-लॉक डाउन में जी उठी यमुना

वड़ा – पाव देश के कई जगहों में मिलता है. लेकिन जो स्वाद मुम्बई के वड़ा  – पाव में है, वह टेस्ट कहीं और नहीं. मुम्बई में कोलाबा, नारीमन पाॅइन्ट, वी टी, चर्चगेट से कल्याण, विरार तक वड़ा – पाव खाने का अपना अलग ही स्वाद है. सेंट्रल रेलवे पर चलने पर वड़ा का स्वाद ज्यादा मजेदार नहीं होता, पता नहीं क्यों? वहीं जब वेस्टर्न रेलवे पर मुम्बई के नगर – उपनगर में वड़ा – पाव खाते हैं तो, जायका इतना मजेदार होता है कि, मन करता है और खाओ. बस, खाते जाओ. यहाँ पर यह बता देना अपना फर्ज समझता हूँ कि, रेलवे से मुम्बई देश के कई शहरों से जुड़ा है और हर शहर में वड़ा – पाव रेल का सफर करके पहुंच गया है. महाराष्ट्र से सटा प्रदेश गुजरात हो या दूर-दराज बसे शहर जम्मू, कोलकाता या कन्याकुमारी सब जगह जिस तरह चाय मिलती है, बिलकुल उसी तरह वड़ा – पाव भी खाने को मिल जाता है. मगर वह स्वाद, वह टेस्ट उनमें कहाँ जो मुम्बई के टेस्टी-टेस्टी वड़ा – पाव का होता है.

और सब लोग वड़ा – पाव बड़ी चाव से क्यों न खायें? इसके खाने से पेट की भूख शांत हो जाती है. बड़े-बुजुर्ग फरमाते थे कि, भूखे पेट भजन नहीं होता और मेरा मानना है कि, भूखे पेट कामकाज नहीं होता. कामकाज भी तो लोग पेट की भूख मिटाने के लिए ही करते हैं. यह पेट की भूख अपनी खुद की होती है और अपने परिवार की होती है. अगर पेट की भूख ना हो तो, लोग बाग कामकाज ही ना करें. ‘कोरोना’ संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए देश में इक्कीस दिनों का लाॅक डाउन किया गया है. ऐसे समय में सबको अपने घरों में रहने का सख्त आदेश है. माॅल, सिनेमाहाल, कल-कारखाने, ऑफिस – दुकानें सब बंद है. सभी अपने घरों में या जहाँ पर वे रहते हैं बंदी की तरह हैं. यहाँ पर वड़ा – पाव खाने के लिए कहाँ से कैसे मिलेगा, मार्केट में जब दुकानें  बंद हो, कमाई रुक गई हो और घरों में राॅशन-पानी की किल्लत चल रही हो?

अनुमानतः मुम्बई की तीन चौथाई आबादी उन कामगार लोगों की है, जो किसी दूसरे देश-प्रदेश, शहर-नगर से यहाँ रोटी- रोज़ी कमाने आये हैं. इनमें से हजारों वड़ा – पाव ही खाकर अपना एक वक्त पेट भरते हैं. हालांकि, रगड़ा-पाव भी खाकर बहुत से लोग अपने पेट की भूख शांत कर लेते हैं. लेकिन रगड़ा पाव खाने वालों की तादाद कम है. बिलकुल उसी तरह जैसे झुणका भाखर खाने वाले बहुत सीमित संख्या में हैं. और इसकी एक वजह यह भी है कि, वड़ा – पाव की तरह यह सब जगह मिलते नहीं.

खाने-पीने की छोटी – बड़ी दुकानों पर, ठेला – स्टालों पर बिकता है गरमागरम ताजा-ताजा वड़ा – पाव और खाने वाले दस – बारह रूपये का एक वड़ा – पाव लेकर खा लेते हैं. कोई अपने घर में वड़ा – पाव नहीं बनाता. सस्ता है, स्वादिष्ट है और सभी को प्रिय भी है. लेकिन लाॅक डाउन में पूरे देश में तालाबंदी है. छोटे-बड़े होटल, खाने-पीने की सारी दुकानें बंद हैं. इस देशबंदी में काम की भी पूरी तरह से बंदी है. जो कोरोना संक्रमण से प्रभावित हाॅटस्पाट क्षेत्र नहीं है, उधर आने-जाने की थोड़ी सी छूट है. इसके बावजूद कहीं जायें भी तो जाकर क्या करें? कहीं भी कुछ खाने को नहीं मिलने वाला.

वड़ा – पाव खाने की तीव्र इच्छा है. आदत पड़ चुकी है और लत से मजबूर हैं. घर में खाने-पकाने को नहीं है, जोड़-जाड़कर थोड़े पैसे बचाकर रखे भी हैं तो क्या? चाहकर भी पेट की भूख शांत नहीं कर सकते. जीभ से लार टपकती है और मुंह में वड़ा – पाव को सोच-सोचकर पानी आता है. कसम से तरस रहे हैं वड़ा – पाव खाने को. मुम्बई आये थे कमाने के लिए और लाॅक डाउन में फंस गये हैं सारे. राहत-मदद तो सब दिखावा है. कानों से सुनने में अच्छा लगता है, मगर सिर्फ सुनने से पेट नहीं भरता. हो सके तो, वड़ा – पाव वाली दुकानें ही खुलवा दो साहेब, हम वड़ा पाव ही खा लेंगे और लाॅक डाउन में भी घर के अंदर ज़िंदा रह लेंगे.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें