ज्यादा नहीं कोई 6-7 महीने पहले की बात है, देर रात एक प्रोफेसर मित्र ने फोन पर बताया था फलां चैनल देखो नवकंज लोचन कंजमुख कर…… की तर्ज पर एक नया भक्त पत्रकार अवतरित हुआ है. क्या हाहाकारी तेवर हैं उसके देखना पट्ठा दूसरे चमचों से पहले पद्म पुरुस्कार ले जाएगा.
यूं आमतौर पर मैं टीवी नहीं देखता न्यूज़ चेनल्स तो बिलकुल नहीं, लेकिन प्रोफेसर के कहने या बताने का अंदाज अलग था. ठीक वैसे ही जैसे एक शौकीन दूसरे को बता रहा हो कि मीना बाजार में एक नई जवान हसीन तवायफ आई है. क्या जलवे और हुस्न है उसका, नाचती है तो देखते ही बनते है.
मैंने 2-3 मिनिट उस भक्त चैनल के अधेड़ होते उस श्रद्धावान युवा एंकर के लटके झटके देखे और समझ गया कि भगवा गैंग ने नया पीआरओ या सेल्समेन रख लिया है क्योंकि पुरानों के चहेते कम हो रहे हैं, उनका पत्रकारीय यौवन ढलने लगा है. इसलिए अच्छा किया नया रख लिया इससे मीडिया का बाजार भी गुलजार रहेगा और 4-5 करोड़ भक्तों को भी नयापन दिखता रहेगा.
फिर एक दिन किसी ने बताया कि वह साढ़े तीन लाख रु लेता है एक दिन के, इस बार की आवाज में भी वही कोठों और तवायफ़ों सरीखी गंध और खनक थी कि कोई ऐसी वैसी बाई जी नहीं हैं वे एक मुजरे के लाखों लेती हैं.
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फिर आज सुना कि उसने पद्म पुरुस्कार न मिलने के गम या खीझ में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर कोई आपत्तिजनक टिप्पणी कर दी है जिस पर कोई दर्जन भर एफआईआर देश भर में दर्ज हुई हैं. एक अपरिपक्व और आक्रोशित पत्रकार अतिरेक उत्साह में इससे ज्यादा भी बहुत कुछ कर सकता है पर इतने से ही उसकी निष्ठा का नवीनीकरण हो गया कि उसे माँ बहिन की गालियां देने के गुनाह से उसके ही भगवा भगवानों ने बचा लिया. यह बात जरूर शुक्र की है .
जाने क्यों मुझे अपने पत्रकार होने पर शर्म हो आई. एक ग्लानि, क्षोभ, अपराधबोध, होने लगा कि कल का वो गला फाड़कर चीखने बाला छोरा दुनिया भर की वाहवाही ले उड़ा और आप 40 साल से कलम घिसने के बाद भी मोहल्ला स्तर का भी पुरुस्कार नहीं कबाड़ पाये. उल्टे समाज और रिश्तेदारी में तिरिस्कृत होते रहे, धर्मांध लोगों की गालियां खाते रहे और एक बार तो आपको भरे चौराहे पर निर्वस्त्र कर एक धर्म विशेष के लोगों ने समारोह पूर्वक ठोक दिया था क्योंकि आपने उनके एक धर्म गुरु के व्यभिचार को मैगज़ीन में फींच कर रख दिया था जबकि आप को इस पाप को ढकने की वाजिब कीमत की पेशकश की गई थी जो आपने ठुकरा दी थी. इस पर उन्होंने आपको ऐसा फेंटा कि अभी भी कभी कभी पुराने जख्म रिसने लगते हैं.
भाईसाहब आपको अगर निष्पक्ष और ईमानदारी से लिखने की बीमारी है ही तो पहले कोई सियासी माई बाप ढूंढ लेते यकीन मानिए आज राज्यसभा में होते या खैरात में मिले किसी ऊंचे मलाईदार मुकाम पर होते जहां शराब कबाब और शबाब ज़िंदगी को रंगीन बना देते हैं.
आप के ही कुछ साथियों को यह ज्ञान प्राप्त हो गया है और उन्होने ईमान और स्वाभिमान को तिरोहित कर मौजूदा आकाओं के तलवे चोरी छिपे चाटना भी शुरू कर दिये हैं और आप अभी तक प्रतिबद्धता का तार तार हो चुका पल्लू पकड़े तरने का भ्रम पाले बैठे हैं. आपका कुछ नहीं हो सकता आप पत्रकारिता के नाम पर कलंक हैं.
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आज भी अगर आप यह कहेंगे कि एक बड़ी नेत्री के बारे में इस तरह के शब्द इस्तेमाल नहीं किए जाने चाहिए, यह कोई स्वस्थ पत्रकारिता नहीं है तो आप तुरंत कांग्रेसी और वामपंथियों के पिट्ठू करार दे दिये जाएँगे. आप मोदी और राष्ट्र विरोधी तो पहले ही घोषित किए जा चुके हैं. आपको रटते रहना चाहिए कि दौर भड़ुओं और भांड़ों का है और आप भी बूढ़ी तवायफ की तरह पत्रकारिता के बाजार से षडयंत्रपूर्वक गायब किए जा रहे हैं. आपका एक गुनाह यह भी है कि आपने धंधा चमकाने दलाल नहीं रखे न ही कभी खुद दलाल बने क्योंकि आप पत्रकारिता को एक अभियान समझते और मानते रहे.
जिस मूल्य आधारित पत्रकारिता का मुगालता पाले आप लिखे जा रहे हैं उसका अवमूल्यन हुये 6 साल हो चुके हैं फिर भी आप हिम्मत नहीं हार रहे और मैदान नहीं छोड़ रहे तो यह आपकी बेशर्मी और हठधर्मिता है न कि प्रतिबद्धता है. प्रतिबद्ध तो वे हैं जो आज भी द्रौपदी को भरी सभी में निर्वस्त्र कर पुरुषत्त्व दिखा रहे हैं और माता सीता की पवित्रता पर संदेह जताते अपनी मर्यादा का ढिंढोरा पीट रहे हैं. दौर इन्हीं धर्मियों का है आप जैसे विधर्मियों का नहीं जो ज़िंदगी भर समाज सुधार और नवनिर्माण का ढ़ोल पीटते रह गए और समाज को फिर से धर्म की आड़ में बांटने बाले वर्ण व्यवस्था के पेरोकर देश का बंटाढार कर रहे हैं.
दिक्कत ये भी है कि लोग आपसे सहमत तो हैं लेकिन तभी, जब होश में आते हैं वरना तो धर्म की अफीम न्यूज़ चैनल्स के जरिये जमकर परोसी और वितरित की जा रही है और ये नशेड़ी फिर मदहोश हो जाते हैं, बहक जाते हैं कि नहीं हमे उसी भरम में रहने दो जिसमें हम पीढ़ियों से रहते आए हैं. होश में आते हैं तो हम टूटने, बिखरने लगते हैं हमे घबराहट होने लगती है. हमारा दिल, चेतना और कान जो सुनना चाहते हैं वे इसी तरह की बातें हैं कि महामृत्युंजय मंत्र से कोरोना भाग जाता है. इलाज दवा में नहीं बल्कि गोबर और गौ मूत्र में है, कपूर में है इसलिए आप हमें बहकाओ मत.
तो आप भाईसाहब तार्किक और गंभीर पत्रकारिता छोड़ो, मुख्य धारा से जुड़ो, पाठकों को बताओ कि अति दूरदर्शी और अति मानव और लगभग अवतार मोदी जी ने आज जो कहा उसका वैज्ञानिक, आध्यात्मिक और बौद्धिक महत्व क्या है. आपके पास बुद्धि है जो सच को झूठ और झूठ को सच साबित कर सकती है.
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कैसे घंटे घड़ियाल बजाने से कोरोना उम्मीद से कम फैला इसका प्रचार करो लेकिन आप हैं कि करोड़ों मजदूरों की फिक्र में दुबले हुये जा रहे हैं. अरे ये लोग कोई आदमी नहीं हैं बल्कि बैकवर्ड हैं इनकी नियति, किस्मत, भाग्य वगैरह यही है जो मनु, पाराशर, तुलसी, चाणक्य आदि सदियों पहले लिख गए हैं. ये कीड़े मकोड़े अपने पापों की सजा भुगत रहे हैं इन्हें छोड़िए मरने दीजिये. दुनिया के सबसे बुद्धिमान शासक का गुणगान कीजिये आप हाथों हाथ लिए जाएँगे.
देश हित में और ज्यादा कुछ करना चाहते हैं तो सोनिया, केजरीवाल ममता बगैरह पर राक्षस होने का, विदेशी एजेंट होने का, सनातन विरोधी होने का आरोप लगाइए. दलितों और मुसलमानों को कोसिये इससे आप महान हों न हों चर्चित जरूर हो जाएँगे. इन दिनों जो 4-5 करोड़ सवर्ण हिन्दू घरों में बैठे पकोड़ी और मिष्ठान उदरस्थ कर रहे हैं वे आपका यह मुजरा जरूर देखेंगे.
किसी संभ्रांत और सम्मानीय नेत्री जिसने महज इसलिए कभी देश का सबसे बड़ा पद इसलिए ठुकरा दिया था कि भाजपा की दो नेत्रियाँ अपने मुंडन की बात करते प्रलाप करने लगीं थीं, उस नेत्री को उसकी इस मूर्खता (त्याग एक तरह की मूर्खता ही होता है) के लिए बेइज्जत कीजिये और फिर 56 इंच का सीना तानकर कहिए कि देखो कलयुगी शूर्पनखा की नाक काट ली तो आप हीरो बना दिये जाएँगे.
और अगर आप ऐसा नहीं कर सकते तो इतमीनान से अपने पत्रकार होने पर शर्मिंदा होते सोचते रहिए कि पढ़ा लिखा बुद्धिजीवी हिन्दू क्यों बौराया जा रहा है. इसे अंत में मिलेगा क्या हाल फिलहाल तो इसे लग रहा है कि वह जातिगत रूप से ही श्रेष्ठ है, भगवा गैंग उसका आत्मविश्वास है और बस अब 2-4 साल में हम विश्वगुरु बनने ही बाले हैं फिर ये जमीन , आसमान, हवा पानी पैसा सब कुछ इसी का होगा जैसा कि वैदिक काल में हुआ करता था.
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आप इन्हें इसके खतरे मत बताइये कि दरअसल में आप ठगे जा रहे हैं, उल्लू बनाए जा रहे हैं. आप के हाथ सिवाय शंख और घंटे घड़ियाल के कुछ नहीं आना और कभी बहुसंख्यक दलित आदिवासी और मुसलमान भी आप जैसे कट्टर होते एक हो गए तो कोई आपकी दुर्गति की ज़िम्मेदारी लेने आगे नहीं आएगा.
बहरहाल मुद्दे की बात मेरी पत्रकार होने की शर्मिंदगी है जो एक तवायफनुमा महंगे पत्रकार की धूर्तता से पैदा हुई. मौजूदा दौर की पत्रकारिता मकसद से भटक रही है, इसमें जोकरों की भरमार हो चली है जिन्हें राजा और उसे नचाने बाले खूब धन और प्रोत्साहन दे रहे हैं. आप याद करते रहिए कि कभी पत्रकारिता एक सम्मानजनक और प्रतिष्ठित पेशा हुआ करता था.
मुझे इस बात की कुंठा या इच्छा नहीं कि यह सब मुझे क्यों नहीं मिल रहा क्योंकि मैंने कभी ऐसा चाहा ही नहीं. मैं जब तक रहूँगा पत्रकार ही रहूँगा और ढोंग पाखंडों से लोगों को आगाह करता रहूँगा क्योंकि मुझे मालूम है कि देश में लोकतन्त्र जितना भी बचा हुआ है मुझ जैसों की वजह से ही बचा हुआ है.
धार्मिक उन्माद फैलाने वाले, धर्म आधारित शासन थोपने वाले पंडे पुजारी मुझ जैसे पत्रकारों से डरते हैं और इस डर का कायम रहना जरूरी है नहीं तो मुट्ठी भर एक जाति विशेष के लोग फिर जो हाहाकार मचाएंगे वह जरूर देश को गुलामी की भट्टी में पूरी तरह झोंक देगा. अभी तो उम्मीद बाकी है .