‘‘शेखरजी इतने अच्छे इंसान हैं, कोई भी कुछ करना चाहेगा उन के लिए,’’ फिर थोड़ा संकोच करते हुए बोले, ‘‘वन्याजी, शेखरजी से तो नहीं पूछा कभी पर बारबार अब मन में यह प्रश्न उठ रहा है कि भाभीजी यह बीमारी सुन कर भी यहां…’’ वन्या ने बात पूरी नहीं होने दी. ठंडी सांस लेती हुई बोली, ‘‘जीजाजी इस मामले में दुखी ही रहे कि उन्हें मेरी बहन पत्नी के रूप में मिली.’’ प्रणव ने हैरान होते हुए पूछा, ‘‘अच्छा? शेखरजी जैसे व्यक्ति के साथ किसी को क्या परेशानी हो सकती है?’’
‘‘जीजाजी अपने मातापिता, भाई को बहुत प्यार करते हैं. मेरी बहन की नजर में यह उन की गलती है. मुझे तो समझ नहीं आता कि क्यों कोई पुरुष विवाह के बाद सिर्फ अपनी पत्नी के बारे में ही सोचे. यह क्या बात हुई. मेरी बहन की जिद पूरी तरह गलत है. अपनी बहन के स्वभाव पर मुझे शर्म आती है और अपने जीजाजी पर गर्व होता है. अपने मातापिता को प्यार करना क्या किसी पुरुष की इतनी बड़ी गलती है कि उसे ऐसी बीमारी से निबटने के लिए अकेला छोड़ दिया जाए.’’ धीरेधीरे बोलती हुई वन्या का मुंह गुस्से से लाल हो गया था. उस ने किसी तरह अपने को शांत किया. फिर दोनों ने अंदर जा कर शेखर पर नजर डाली. वे चुपचाप आंख बंद किए लेटे हुए थे. चेहरा बहुत उदास था. प्रणव यही सोच रहे थे किसी स्त्री पर उस की जिद लालच, क्रोध इतना हावी हो सकता है कि वह अपने पति की इस स्थिति में भी स्वयं को अपने पति से दूर रख सके. उन के दिल में चुपचाप लेटे हुए शेखर के लिए स्नेह और सम्मान की भावनाएं और बढ़ गई थीं.
शेखर का इलाज शुरू हो गया तो सौरभ और तन्वी ने पिता की देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी. बच्चों ने कई बार लतिका को मुंबई आने के लिए समझाया पर उस की जिद कायम थी कि पहले शेखर अपने पिता की संपत्ति में अपना हिस्सा मांगें, जो शेखर को किसी भी स्थिति में मंजूर नहीं था. 2 महीने बीत रहे थे. सौरभ ने भागदौड़ कर मुंबई में ही ऐडमिशन ले लिया था जिस से वह पिता की देखभाल अच्छी तरह कर सके. तन्वी की पोस्ंिटग बैंगलुरु में हो गई थी. कुछ दिन वह मुंबई रह कर काम करती, कुछ दिन बैंगलुरु रहती. उस के औफिस में शेखर की बीमारी सुन कर सब उस के साथ सहयोग कर रहे थे. शेखर को धीरेधीरे आराम आ रहा था. अब वे पहले की तरह चलनेफिरने लगे थे. प्रणव के साथ औफिस भी जाना शुरू कर दिया तो जीवन की गाड़ी एक बार फिर ढर्रे पर आ गई. इलाज तो लंबा ही चलने वाला था. पूरी तरह से ठीक होने में टाइम लगने वाला था. शेखर अपने मातापिता, भाई से लगातार संपर्क में रहते थे. वे परेशान न हों, इसलिए शेखर ने अपनी बीमारी के बारे में बताया था कि उन्हें कमरदर्द परेशान कर रहा है, इसलिए बच्चे उन के साथ ही रहना चाहते हैं. सब हैरान थे, बच्चे भी शेखर के पास चले गए हैं. लतिका क्यों अकेली रह रही है. सब ने समझाया भी पर लतिका ने किसी की नहीं सुनी. पिता की बीमारी से परेशान बच्चे भी लतिका से बहुत नाराज थे. एक तरह से अब तीनों ने लतिका के बिना जीने की आदत डाल ली थी.
अचानक शेखर और बच्चों ने लतिका से बात करना बहुत कम कर दिया तो लतिका ने सोचा, एक बार मुंबई की सैर कर ही ली जाए. उस ने अपनी फ्लाइट बुक करवाई और मुंबई पहुंच गई. उस ने अपने आने की खबर किसी को नहीं दी थी. उस के पास शेखर के फ्लैट का पता भी नहीं था. एअरपोर्ट पहुंच कर उस ने बन्या को फोन किया.
वन्या हैरान हुई, ‘‘अरे दीदी, बताया तो होता.’’
‘‘बस अचानक प्रोग्राम बना लिया. तेरे जीजाजी और बच्चों को सरप्राइज देने का मूड हो आया. चल, अब उन का पता बता.’’ वन्या ने पता बताया, कहा, ‘‘अभी तो घर पर कोई होगा नहीं. चाबी सामने वाले फ्लैट की मिसेज कुलकर्णी से ले लेना.’’
‘‘लेकिन वे मुझे जानती नहीं, चाबी देंगी?’’
‘‘मैं उन्हें फोन कर के बता दूंगी.’’
‘‘ठीक है, तू कब आएगी?’’
‘‘जल्दी आप से मिलूंगी, वैसे आप अभी मेरे घर आ जाओ, शाम को चली जाना.’’
‘‘नहीं, बाद में ही मिलूंगी तुझ से.’’
‘‘अच्छा हुआ दीदी, आप आ गईं. जीजाजी की तबीयत भी…’’
‘‘बस, तू रहने दे. अपने जिद्दी जीजाजी का पक्ष मत ले.’’
‘‘जिद वे नहीं, आप करती हैं.’’
‘‘अच्छा, मैं सामान ले कर अब बाहर निकल रही हूं, फिर मिलेंगे.’’
लतिका शेखर के फ्लैट पर पहुंच गई. वन्या मिसेज कुलकर्णी को फोन कर चुकी थी. वे एक महाराष्ट्रियन महिला थीं. सौरभ व तन्वी से मिलतीजुलती रहती थीं. शेखर की बीमारी की उन्हें जानकारी थी. उन तीनों से सहानुभूति थी. लतिका ने उन से चाबी ली और दरवाजा खोल कर अंदर आ गई. बैग रख कर पूरे घर पर नजर डाली. एकदम साफसुथरा, चमकता घर. लतिका को हैरानी हुई. वह किचन में गई. खाना तैयार था, करेले की सब्जी, साग, दाल. फ्रिज खोल कर देखा, सलाद भी कटा रखा था. लतिका अब हैरान थी. आधे घंटे बाद ही सौरभ आ गया. वन्या ने उसे फोन पर बता दिया था. सौरभ ने एक बेहद औपचारिक मुसकान से मां का स्वागत किया, बोला कुछ नहीं. लतिका ने ही पूछा, ‘‘कैसे हो, बेटा?’’
‘‘ठीक हूं, मां, आप कैसे आ गईं?’’
‘‘बस, तुम लोगों को देखने का मन हो आया.’’ सौरभ कुछ नहीं बोला. फ्रैश होने चला गया. लतिका को धक्का सा लगा. यह बेटा है या कोई अजनबी. लतिका ने फिर पूछा, ‘‘तन्वी कहां है?’’
‘‘बैंगलुरु में, कल आएगी एक हफ्ते के लिए.’’
‘‘तुम्हारे पापा कब तक आएंगे?’’
‘‘बस, आने ही वाले होंगे.’’
‘‘आप चाय पिएंगी?’’
‘‘आने दो उन्हें भी.’’
लतिका देख रही थी, पहले का मस्तमौला सौरभ अब एक जिम्मेदार बेटा बन गया है. उस ने हाथमुंह धो कर शेखर के लिए फल काटे. शेखर के खानेपीने का बहुत ध्यान रखा जाता था. शेखर आ गए. लतिका को देख हैरान हुए, ‘‘कब आईं?’’ ‘‘थोड़ी देर हुई,’’ लतिका उन्हें देखती रह गई. कितने कमजोर हो गए थे शेखर पर उन के चेहरे पर बहुत शांति और संतोष दिखा लतिका को.
शेखर ने पूछा, ‘‘कोई परेशानी तो नहीं हुई घर ढूंढ़ने में?’’
‘‘नहीं, आराम से मिल गया घर.’’
इतने में सौरभ ने कहा, ‘‘पापा, मौसम कुछ ठंडा सा है, गरम पानी से हाथमुंह धो कर फल खा लीजिए,’’ फिर सौरभ उन के लिए फल ले आया, कहने लगा, ‘‘जब तक आप ये खत्म करें, मैं चाय चढ़ा देता हूं.’’शेखर जैसे ही सोफे पर बैठे, सौरभ ने उन की कमर के पीछे मुलायम सा तकिया लगाया. लतिका ने नोट किया शायद शेखर को उठनेबैठने में कहीं दर्द है, बोली, ‘‘कैसी तबीयत है? दर्द है क्या?’’
शेखर ने सपाट स्वर में जवाब दिया, ‘‘नहीं, सब ठीक है.’’ सौरभ 3 कप चाय और कुछ नमकीन ले आया. तीनों ने चुपचाप चाय पी. सौरभ ने कहा, ‘‘पापा, अब आप थोड़ी देर लेट लें, थकान होगी.’’
‘‘हां,’’ कह कर शेखर बैडरूम में चले गए. सौरभ अपना बैग खोल कर कुछ काम करने लगा. लतिका ने खुद को अनचाहा महसूस किया. उसे अपनी स्थिति किसी अनचाहे मेहमान से बदतर लगी. अभी तक वह अपने अहं, जिद में आसमान में ही उड़ती आई थी लेकिन अब यहां आ कर जैसे वह जमीन पर गिर गई. थोड़ी देर में उस ने ही पूछा, ‘‘रात को खाने में क्या करना है?’’ सौरभ ने उस की ओर बिना देखे ही जवाब दिया, ‘‘कुछ नहीं, मां. संध्या काकी आती हैं, सब काम वही कर जाती हैं.’’
‘‘क्या बनाया है?’’ बात जारी रखने के लिए लतिका ने पूछा.
‘‘पापा को करेला और साग देना होता है. वह तो रोज बनता ही है, दाल भी बनी होगी, बस, आप के आने से पहले ही निकली होंगी काकी खाना बना कर.’’
‘‘उस के पास चाबी रहती है?’’
‘‘नहीं, सामने वाली आंटी से लेती हैं.’’ शेखर के पास बैडरूम में जाने की हिम्मत नहीं पड़ी लतिका की. थोड़ी देर आराम कर शेखर ड्राइंगरूम में आ गए. इतने में धोबी आ गया. सौरभ ने गिन कर कपड़े धोबी को दिए. लतिका तो हर बात पर हैरान होती रही. अब तक वह सोफे पर ही अधलेटी थी. टेबल पर डिनर लगाने के लिए जब वह सौरभ के पीछे किचन में जाने लगी तो शेखर ने ठंडे स्वर में कहा, ‘‘रहने दो लतिका, सब हो जाएगा,’’ शेखर का स्वर इतना भावहीन था कि लतिका फिर वापस बैठ गई. खाना लगाते हुए सौरभ ने कहा, ‘‘काकी हम दोनों का ही खाना बना कर रख गई हैं, मां. बस, आप अपने लिए रोटी बना लें.’’ ‘‘हां ठीक है,’’ कह कर लतिका किचन में चली गई और अपने लिए 2 रोटी बना लाई. वह सौरभ को बहुत स्नेह से पिता को खाना परोसते हुए देखती रही. दोनों औफिस की, कालेज की बातें करते रहे. लतिका ने नोट किया, जब भी शेखर से उस की नजरें मिलीं, उन नजरों में पतिपत्नी के रिश्ते की कोई मिठास नहीं थी. एकदम तटस्थ, भावहीन थीं शेखर की नजरें उस के लिए. खाना खत्म होते ही सौरभ ने सब समेट दिया, फिर कहने लगा, ‘‘मां, आप आराम करो, मैं पापा को थोड़ा टहला कर लाता हूं.’’
सौरभ शेखर के साथ बाहर चला गया. लतिका ने अपने कपड़े बदले, गाउन पहना, अपना बैग शेखर के बैडरूम में ले जा कर रखा. बैड पर लेट कर कमर सीधी करने लगी, उसे यही लगता रहा था जैसे वह किन्हीं अजनबियों के साथ है इतनी देर से. दोनों टहल कर आए. सौरभ बाथरूम में था. शेखर ने कहा, ‘‘लतिका, तुम दूसरे रूम में सो जाना. रात को मुझे कोई जरूरत न पड़ जाए, यह सोच कर सौरभ मेरे साथ ही सोता है.’’ लतिका अपमानित सी खड़ी रह गई, कुछ कह नहीं पाई. फिर सौरभ दूध गरम कर के लाया. शेखर को दूध और दवाएं दीं. लतिका दूसरे कमरे में करवटें बदलती रही. कुछ समझ नहीं आ रहा था उसे, यह क्या हो गया. अगले दिन सुबह उस ने देखा, सौरभ ने वाश्ंग मशीन में कपड़े डाले और सब्जी लेने चला गया. संध्या आई तो उस ने घर के काम निपटाने शुरू कर दिए. संध्या लतिका से मिली तो उस के मुंह से निकला, ‘‘अरे मैडम, आप आ गईं? अच्छा किया, साहब बहुत बीमार रहे. आप के बच्चे तो बहुत ही अच्छे हैं.’’
लतिका ने फीकी सी मुसकान के साथ ‘हां’ में सिर हिला दिया. शेखर औफिस के लिए तैयार हो गए तो सौरभ ने उन्हें नाश्ता और दवाएं दीं. उन का टिफिन पैक कर के उन के हाथ में पकड़ाया. शेखर लतिका से बिना कुछ कहे औफिस चले गए. संध्या ने सब का खाना बना दिया था. वह सब काम कितनी अच्छी तरह कर के जाती है, यह लतिका देख ही चुकी थी. उस के हाथ में भी स्वाद था, यह भी वह रात को देख चुकी थी. थोड़ी देर में सौरभ ने कहा, ‘‘मां, मैं कालेज जा रहा हूं. तन्वी शाम तक आ जाएगी.’’ दिनभर लतिका घर में इधर से उधर घूमती रही, बेचैन, अनचाही, अपमानित सी. दोपहर में उस ने थोड़ा सा खाना खाया. शाम को सब से पहले तन्वी आई. सौरभ ने उसे बता ही दिया था, मां आई हैं. तन्वी ने देखते ही पूछा, ‘‘मां, आप कैसे आ गईं?’’
‘‘तुम लोगों को देखे काफी दिन हो गए थे.’’
‘‘अब आ ही गई हैं तो इस बात का ध्यान रखना मां, पापा को आप की किसी बात से तकलीफ न हो. हम तीनों बहुत दिनों बाद अब संभले हैं. पापा की तबीयत से बढ़ कर हमारे लिए इस समय और कुछ भी नहीं है.’’ रात को सब इकट्ठा हुए. तीनों हंसीखुशी बातें कर रहे थे. शेखर की हर बात का बच्चे ध्यान रख रहे थे और शेखर बच्चों पर अपना भरपूर स्नेह लुटा रहे थे. घर की सारी व्यवस्था सुचारु रूप से चल रही थी. कहां तो लतिका ने सोचा था कि उस के बिना तीनों की हालत खराब होगी, उसे देखते ही तीनों उस के आगे झुकते चले जाएंगे कि आओ, अब संभालो घर. पर यहां तो किसी को उस की जरूरत ही नहीं थी. न शेखर को न बच्चों को. वे तीनों किसी बात पर हंस रहे थे और लतिका सोफे पर एक कोने में बैठी दिल ही दिल में कलप रही थी, यह क्या हो गया? बंटवारे की जिद, अपना गुस्सा, लालच, ईगो सब धराशायी होते दिख रहे थे उसे. अब क्या करे वह? क्या वापस चली जाए? पर पति और बच्चों के बिना वहां अकेली कितने दिन रह सकती है या यहां रह कर पति और बच्चों के दिल में जगह बनाने की कोशिश करनी चाहिए? उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था. वह अपना सिर पकड़े तीनों को हंसतेमुसकराते देखती रही.