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लॉकडाउन में दीपिका हुई पेंटिंग में बिजी तो पति मांज रहे हैं बर्तन

इन दिनों कोरोना वायरस और लॉकडाउन की वजह से हर कोई घर में ही रह रहा है. इस बीच लोग अपनी फैमली के साथ क्वालिटी टाइम बीता रहे है. इसी बीच सोशल मीडिया पर एक फोटो वायरल हो रहा है जिसमें दीपिका कक्कड़ पेंटिंग कर रही हैं तो वहीं पति शोएब बर्तन मांज रहे हैं.

दीपिका कक्कड़ ने फोटो शेयर किया है जिसमें उनके हाथ में पेंटिंग का ब्रश नजर आ रहा है. कुछ पेंटिग करती नजर आ रही हैं. इस फुर्सत के पल को बेहद शानदार तरीके से बीता रही हैं.

 

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She was in her cozy home, thankfull for everybit of comfort granted! ? . #alhamdulillah #begreatfulforwhatyouhave #alwaysandforever

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दरअसल दीपिका यह पेंटिंग अपने टीशर्ट पर बना रही है. वहीं पति शोएब अपनी पत्नी का पूरा ख्याल रखते हुए घर के कामों में हाथ बांटा रहे हैं.

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पत्नी के इस काम को देखते हुए शोएब घर का काम कर रहे हैं. जिससे दीपिका अपने काम को सही से कर सकें. शोएब खुद को अच्छा बेटा और अच्छा पति मानते हैं.

इस फोटो को देखकर यह कहा जा सकता है कि शेयरिंग इज केयरिंग. पति-पत्नी को एक दूसरे का ख्याल रखना चाहिए. इससे  आपस में प्यार बढ़ता है.

लॉकडाउन की वजह से सभी स्टार्स अपने घर पर फैमली के साथ समय बीता रहे हैं. नए-नए अपडेट सोशल मीडिया के जरिए दे रहे हैं.

बता दें दीपिका कक्कड़ बिग बॉस शो की बिनर भी रह चुकी हैं. दीपिका की शोएब के साथ यह दूसरी शादी है. इससे पहले दीपिका ने बहुत ही कम उम्र में शादी कर लिया था. दीपिका और शोएब लंबे वक्त तक एक –दूसरे को डेट करने के बाद शादी किया था. हालांकि दोनों के परिवार वाले इस शादी से बेहद खुश हैं.

दीपिका शोएब के फैमली को बहुत प्यार करती हैं. वहीं अपनी नन्द के साथ भी अच्छी बॉडिंग शेयर करती हैं.

कोरोनावायरस लॉकडाउन: मुद्दों से भटक रही मायावती

बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती दलित समाज के मुद्दों से भटक रही हैं. चाहे नागरिकता कानून का मुद्दा हो या कोरोना वायरस की त्रासदी से जूझ रहे गरीब, मजदूर और समाज के उपेक्षित वर्ग की बात हो मायावती पूरी तरीके से खामोश है. वह सरकार के हर कदम का स्वागत करते हुए अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ले रही हैं . मायावती का कामकाज केवल राजनीतिक बयान बाजी तक ही सीमित रह गया.

केंद्र सरकार ने द्वारा जब दूसरी बार लॉकडाउन बढ़ाने की बात भी नही की थी तभी मायावती ने उसका समर्थन कर दिया था. मायावती ने कहा ”केंद्र सरकार अगर लॉक डाउन बढ़ाती है तो बीएसपी उसका समर्थन करेगी” मायावती को उस समय तक यह नही पता था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्या घोषणा करने वाले है.

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मायावती ने कहा कि “जनहित को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार के निर्णय का बीएसपी समर्थन करती है”. उस समय तक मायावती को यह  भी नही पता था कि लोक डाउन में क्या नया होने वाला है ? दलित समाज की दिक्कतों को किसी हल किया जाएगा ? . मायावती ने बिना यह जाने ही केंद्र सरकार को अपना सर्मथन दे दिया.

मायावती ने अपने बयान में दिखावे के लिए अंत मे गरीबो और मजदूरों की आवाज उठाते कहा कि सरकार को गरीबों, मजदूरों, किसानों और अन्य मजदूर वर्ग के हितों को ध्यान में रखना चाहिए और तालाबंदी के दौरान उन्हें सहायता प्रदान करनी चाहिए”

राजनीतिक पलायन

नागरिकता कानून की बात हो या लोक डाउन के दौरान परेशानियों की सबसे अधिक गरीब और मजदूर वर्ग इन दोनों में ही परेशान हुआ. इसके बाद भी बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने नागरिकता कानून और लॉक डाउन दोनों के मुद्दे पर दलित मजदूर की मदद का कोई अभियान अपनी पार्टी के द्वारा नहीं चलाया.

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने लॉक डाउन के दौरान अपनी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को आदेश दिया कि वह लोग लॉक डाउन में फंसे परेशान गरीब मजदूर वर्ग की मदद करें . उनको खाना खिलाए और उन्हें सरकारी सुविधा दिलवाने में मदद करें. समाजवादी पार्टी के लोगों ने कई शहरों में इस तरीके का काम किया . इसके विपरीत बहुजन समाज पार्टी के अध्यक्ष मायावती ने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को कोई ऐसा संदेश नहीं दिया कि वह लॉक डाउन के दौरान गरीब और मजदूरो की मदद के लिए सड़कों पर उतरे.

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मायावती के लिए एक तरीके का राजनीतिक पलायन है. मायावती को पता है की दलित वर्ग का बड़ा  हिस्सा हिंदुत्व के नाम पर भारतीय जनता पार्टी के  समर्थन में खड़ा हो चुका है . यही कारण है कि उत्तर प्रदेश के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में मायावती को करारी हार का सामना करना पड़ा था.

खामोशी से बीती अंबेडकर जयंती

14 अप्रैल को भीमराव अंबेडकर जयंती के अवसर पर समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने अंबेडकर जयंती के अवसर पर गरीब और मजदूर वर्ग के लोगों को लॉक डाउन के दौरान खाना खिलाने जैसा काम किया. भारतीय जनता पार्टी के नेता और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ में सहित तमाम दूसरे नेताओं ने भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा पर फूल माला चढ़ाकर अंबेडकर जयंती को मनाया. समाजवादी पार्टी के विधायक अम्बरीश सिंह पुष्कर औऱ ब्लॉक प्रमुख विजय लक्ष्मी ने बाबा साहब की प्रतिमा पर फूल चढ़ा कर गरीबो, दलित और मजदूरों खाना खिलाया.

इसके विपरीत बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती और उनके कार्यकर्ताओं के द्वारा मजदूर और किसानों को किसी भी तरीके की मदद करते नहीं देखा गया. सामान्य तौर पर इस अवसर पर बहुजन समाज पार्टी बड़े आयोजन करती थी. लॉक डाउन के दौरान सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करने के लिए बसपा ने  इस तरह के आयोजनों पर सड़क पर उतरना उचित नही समझा. यही वजह है कि अंबेडकर जयंती पर बहुजन समाज पार्टी ने कोई बड़ा कार्यक्रम नहीं किया. पर बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ता और नेता चाहते तो आज गांव गरीब और मजदूर वर्ग के लोगों को खाना खिला सकते थे . उनकी तकलीफों को पूछ सकते थे उनकी जरूरतों को पूरा कर सकते थे पर बहुजन समाज पार्टी के लोगों ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया.

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ब्राम्हणवाद का प्रभाव

बहुजन समाज पार्टी पर ब्राह्मणवाद का प्रभाव पूरी तौर से देखा जा सकता हैं. बहुजन समाज पार्टी ने जब से “सोशल इंजीनियरिंग” के नाम पर दलित और ब्राह्मण गठजोड़ किया तब से पार्टी में दलित मुद्दों की जगह कम होती गई . यही वजह है कि दलित अब मायावती और बहुजन समाज पार्टी से वह लगाव और अपनापन नहीं रख पाता जो काशीराम के समय  बहुजन समाज पार्टी के साथ था. साल 2009 में जब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी तब उम्मीद की जा रही थी कि बहुमत की के बल पर दलित उत्थान के लिए मायावती कुछ बड़े कदम उठाएंगे . मायावती ने दलित उत्थान की जगह ब्राह्मणवादी सोच को सामने रखते हुए मूर्तियां बनवाने का काम शुरू कर दिया. मायावती ने न केवल दलित महापुरुषों की मूर्तियां लगवाई बल्कि खुद अपनी मूर्ति भी कई शहरों में लगवाई . बहुजन समाज पार्टी अपने शुरुआती दौर में मूर्ति पूजा की घोर विरोधी हुआ करती थी. पर ब्राह्मणवादी सोच के हावी होने के बाद बसपा मूर्ति पूजा में विश्वास करने लगी. इसी का नतीजा था कि बहुजन समाज पार्टी धीरे-धीरे ना केवल उत्तर प्रदेश बल्कि पूरे देश में राजनीतिक रूप से बनवास चली गई. आज जब गरीब दलित और मजदूर वर्ग को मायावती और बहुजन समाज पार्टी की सबसे अधिक जरूरत है तब मायावती पूरी तौर से खामोश हैं  राजनीतिक रूप से उनका काम केवल बयान जारी करना या सोशल मीडिया पर अपने संदेश देना रह गया.

मुसलिम समाज को ले कर अपने किस बयान से विवादों में आ गई हैं तसलीमा नसरीन

समाज में फैले अंधविश्वास और मुसलिम कट्टरता की कङी आलोचना कर इसलामिक कट्टरपंथियों द्वारा जारी फतवों और निर्वासन झेल रहीं बंग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन एक बार फिर से चर्चा में हैं. हाल ही में उन की लिखी 2 बहुचर्चित किताबें ‘माई गर्लहुड’ और ‘लज्जा’ का अगला भाग ‘शेमलेस’ 14 अप्रैल को रिलीज होनी थी लेकिन लौकडाउन की वजह से रिलीज नहीं हो पाई. इस के तुरंत बाद एक मीडिया हाऊस को दिए इंटरव्यू के बाद तसलीमा फिर से विवादों में आ गई हैं.

निशाने पर तबलीगी जमात

इस बार उन्होंने तबलीगी जमात को अपने निशाने पर लिया और उन पर निशाना साधते हुए बोलीं,”ये जहालत फैला कर मुसलिम समाज को 1400 साल पीछे ले जाना चाहते हैं.”

दिल्ली में तबलीगी जमात के एक धार्मिक कार्यक्रम में हुए जमावड़े और उन में से कइयों के और उन के संपर्क में आए लोगों के कोरोना वायरस संक्रमण की चपेट में आने के बीच तसलीमा ने एक इंटरव्यू में कहा,” मैं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में भरोसा करती हूं लेकिन कई बार इंसानियत के लिए कुछ चीजों पर प्रतिबंध लगाना जरूरी है. यह जमात मुसलमानों को 1400 साल पुराने अरब दौर में ले जाना चाहती है.’’

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विवादों से पुराना नाता रहा है

हालांकि तसलीमा की पहचान हमेशा विवादों से घिरी रहने वाली लेखिका के रूप में है लेकिन वे एक डाक्टर भी हैं. उन्होंने बंग्लादेश के मैमन सिंह मैडिकल कालेज से 1984 में एमबीबीएस की डिग्री ली थी. उन्होंने ढाका मैडिकल कालेज में काम शुरू किया लेकिन नारीवादी लेखन के कारण पेशा छोड़ना पड़ा. बंग्लादेश में रहते हुए तसलीमा ने समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कट्टरता की जम कर आलोचना की. अपने लेखों के माध्यम से उन्होंने धार्मिक अंधविश्वासों की मुखालफत कीं तो कट्टरपंथियों के निशाने पर आ गईं.

अब जब दुनिया कोरोना वायरस महामारी से त्रस्त है, मुसलिम समाज के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा,”हम मुसलिम समाज को शिक्षित, प्रगतिशील और अंधविश्वासों से बाहर निकालने की बात करते हैं लेकिन लाखों की तादाद में मौजूद ये लोग अंधकार और अज्ञानता फैला रहे हैं. मौजूदा समय में साबित हो गया कि ये अपनी ही नहीं दूसरों की जिंदगी भी खतरे में डाल रहे हैं. जब इंसानियत एक वायरस के कारण खतरे में पड़ गई है तो हमें बहुत ऐहतियात बरतने की जरूरत है.’’

जब बंग्लादेश में फैला था हैजा

दुनियाभर में कोरोना वायरस महामारी से जूझते डाक्टरों को देख कर उन्हें 90 की दशक की शुरूआत का वह दौर याद आ गया जब बंग्लादेश में हैजे के प्रकोप के बीच वे भी इसी तरह दिनरात की परवाह किए बिना इलाज में लगी हुई थीं.

उन्होंने कहा,‘‘इस से मुझे वह समय याद आ गया जब 1991 में बंग्लादेश में हैजा बुरी तरह फैला था. मैं मैमन सिंह में संक्रामक रोग अस्पताल में कार्यरत थी जहां रोजाना हैजे के सैकड़ों मरीज आते थे और मैं भी इलाज करने वाले डाक्टरों में से थी. मैं उस समय बिलकुल नई डाक्टर थी.’’

मालूम हो कि बंग्लादेश में 1991 में फैले हैजे में करीब 2,25,000 लोग संक्रमित हुए और 8,000 से अधिक लोग मारे गए थे.

तसलीमा ने कहा,‘‘मुझे दुनियाभर के डाक्टरों को देख कर गर्व हो रहा है कि मैं इस पेशे से हूं. वे मानवता को बचाने के लिए अपनी जान भी जोखिम में डालने से पीछे नहीं हट रहे. आज यह साबित हो गया है कि अज्ञानता और अंधविश्वास नहीं, बल्कि विज्ञान ही ताकतवर है.”

इतना ही नहीं, तसलीमा ने एक ट्टविट  भी किया और यहां तक कह दिया कि जमात एक इसलामिक कट्टरपंथी आंदोलन है.

उन्होंने ट्विट कर कहा,”तबलीगी जमात एक इसलामिक कट्टरपंथी आंदोलन है. यह 1926 में हरियाणा के मेवात से शुरू हुआ. 150 देशों के लगभग 8 करोङ मुसलमान इस जमात में भाग लेते हैं. उजबेकिस्तान, ताजिकिस्तान, कजाकिस्तान ने इस पर प्रतिबंध लगा रखा है.

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धार्मिक अंधविश्वास और अज्ञानता

तसलीमा का यह बयान भी उस समय आया है जब तबलीगी जमात को ले कर देशभर के मीडिया जम कर भड़ास निकाल रहे हैं पर यह कोई नहीं कह रहा कि जब लौकडाऊन की घोषणा की जानी थी, उस से पहले सरकार को इस की जानकारी क्यों नहीं थी? वह भी तब जब इतना बङा जलसा हो रहा था और इस में देश ही नहीं विदेशों से भी बङी संख्या में जमाती इकट्ठे हुए थे.

जाहिर है, विदेश से आने वाले ये लोग एअरपोर्ट होते हुए आए होंगे और इन का डाटा सरकार के पास भी उपलब्ध होगा. बावजूद यह जलसा जारी रहा और इस पर तब ऐक्शन लिया गया जब सामूहिक कार्यक्रम की मनाही हो गई थी और लौकडाउन लागू हो चुका था. इस के बाद सरकार हरकत में आई और एकएक कर इन्हें बाहर निकाला गया. पर चूंकि दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश है और यहां पुलिस प्रशासन केंद्र के अधीन है तो यह बङी चूक हुई कि जिस समय जमात के कार्यक्रम को रोका गया उसी समय इन्हें एकएक कर स्वास्थ्य परीक्षण में ले जाया जाता. जलसे के दौरान और बाद में ये देश के अन्य राज्यों में गए, यह भी एक बङी चूक रही.

उधर दिल्ली के मजनूं का टीला के एक गुरूद्वारे में भी 250 से अधिक लोग धार्मिक जलसे में शामिल थे. इन्हें भी प्रशासन द्वारा बाहर निकाला गया. खबर है कि यहां भी सोशल डिस्टैंसिंग की धज्जियां उड़ाई जा रही  थीं.

ऐसे में तो यही कह सकते हैं कि इन सब के मूल में धार्मिक अंधविश्वास और अज्ञानता भी एक कारण है.

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धर्म बङा या विज्ञान

यों धर्म कोई भी हो इस को मानने वाले कभी सुखी जीवन नहीं बिताते. हिंदू धर्म तो अपने अंधश्रद्धा से हमेशा से ही अज्ञानताओं से घिरा रहा है. यह अंधश्रद्धा ही है कि धर्म के नाम पर यहां कभी राम रहीम और आसाराम जैसे बलात्कारियों के दरबारों में हजारों की भीङ उमङती रही है, तो वहीं मूर्ति पूजन और पिंडदान के नाम पर भक्तों को जम कर लूटाखसोटा जाता है. धार्मिक दरबार में लोगों को धर्म का भय दिखा कर तो कभी राम का वास्ता दे कर खूब बेवकूफ बनाया जाता रहा है. भक्त लुटतेपिटते रहे हैं और तथाकथित गुरू ऐशोआराम की जिंदगी जीते रहे हैं.

खबर है कि तबलीगी जमात के तथाकथित मुखिया मौलाना साद भी मर्सिडीज से चलता है और करोड़ों का मालिक है.

फरार चल रहे मौलाना साद की गिरफ्तारी के बाद संभव है कि कई नए खुलासे हों पर सवाल अहम है और वह यह कि धर्म कोई भी हो देता कुछ नहीं. कुछ देता भी है तो खुद का कर्म, मेहनत, वैज्ञानिक और आधुनिक सोच. फिर धर्म को ले कर कुछ लोग क्यों अज्ञानता की खाई में गिरे पङे हैं?

19 दिन 19 टिप्स: सैक्स चाहिए बच्चा नहीं

विवाह के बाद जोड़े सैक्स का तो जम कर लुत्फ उठाते हैं पर बच्चा पैदा करने से परहेज करते हैं. कई युवा ऐसे भी हैं जो विवाह किए बगैर सैक्स का मजा लेते रहते हैं. कई युवा कंडोम, कौपर टी, गर्भनिरोधक गोलियों आदि का इस्तेमाल कर जिस्मानी रिश्ते बना रहे हैं. इस के पीछे उन का मकसद केवल सैक्स का मजा लेना ही होता है न कि बच्चे को जन्म देना. अगर बच्चा ठहर भी जाता है तो वे उसे गिराने में जरा भी देर नहीं लगाते हैं.

डा. दिवाकर तेजस्वी कहते हैं कि सैक्स का आनंद नैचुरल और सेफ तरीके से उठाया जाए तो मजा दोगुना हो जाता है. ऐसा नहीं करने से कई तरह की बीमारियों और परेशानियों में फंसने की गुंजाइश रहती है.

आजकल मातृत्व और पितृत्व की भावना कम होती जा रही है. औरत और मर्द का रिश्ता केवल सैक्ससुख का ही रह गया है. इसी वजह से यह चलन चल पड़ा है कि लोग मांबाप बनने से कतराते हैं. समाजविज्ञानी हेमंत राव कहते हैं कि महज सैक्स का सुख उठाने वाले जोड़े 30-35 साल की उम्र तक तो यह आनंद उठा सकते हैं लेकिन उस आयु तक अगर बच्चा पाने से परहेज किया जाए तो तरहतरह की जिस्मानी और दिमागी परेशानियां शुरू हो जाती हैं. कई ऐसे मामले हैं जहां लंबे समय तक बच्चे न चाहने वाले जोड़ों को बाद में काफी दिक्कतें उठानी पड़ती हैं.

स्त्रीरोग विशेषज्ञ डाक्टर डा. किरण शरण बताती हैं कि हर चीज का समय होता है. बारबार गर्भपात कराने पर बच्चेदानी कमजोर हो जाती है, उस के फटने के आसार भी बढ़ जाते हैं. बारबार गर्भपात कराने से बां झपन की समस्या के होने का भी खतरा होता है. अगर बच्चा ठहर भी जाता है तो जन्म लेने वाले बच्चे के कमजोर और बीमार होने का खतरा बना रहता है. कई ऐसे उदाहरण हैं जहां देर से बच्चा होने पर वह दिमागी और जिस्मानी तौर पर बहुत कमजोर होता है. उस के कई अंगों का ठीक से विकास नहीं हो पाता है.

आज के युवा बच्चे को ऐसेट नहीं बल्कि लाइबिलिटी मानते हैं. यही वजह है कि ‘सैक्स का मजा लो और फिर अपने काम में लग जाओ’ की सोच बढ़ती जा रही है. अब वंश आगे बढ़ाने और मांबाप बनने का आनंद उठाना गुजरे जमाने की बात जैसी होती जा रही है. पहले के लोग बच्चे को बुढ़ापे का सहारा मानते थे पर आज के लोगों की सोच ऐसी नहीं है. उन की सोच है कि पैसा है तो सबकुछ खरीदा जा सकता है. कैरियर बनाओ, पैसा कमाओ और सैक्स का भरपूर मजा उठाओ, यही आज के युवाओं की सोच है.

हमारे देश में आज भी शादी की तमाम रस्मों और हनीमून की प्लानिंग तो की जाती है पर बच्चों की नहीं, जिस का नतीजा अनचाहा गर्भ या गर्भपात ही होता है. डा. नीरू अरोरा कहती हैं, ‘‘गर्भनिरोधक यानी कौंट्रासैप्टिव के चुनाव के मामले में आज कई दंपती यह तय ही नहीं कर पाते हैं कि कौन सा गर्भनिरोधक उन के लिए उपयुक्त है.’’

गर्भनिरोधकों के बारे में महिलाओं के मन में अनेक गलत धारणाएं रहती हैं, जैसे गर्भनिरोधक गोली से भविष्य में गर्भधारण में समस्या होगी, सैक्स की चाहत नहीं रहेगी, कैंसर की संभावना बढ़ेगी, वजन बढ़ जाएगा वगैरह. ये सारी धारणाएं गलत हैं.

डा. नीरू कहती हैं, ‘‘गर्भनिरोधक गोलियों के प्रयोग से ओवेरियन कैंसर व सिस्ट के चांसेस कम होते हैं. इन के प्रयोग से घबराना नहीं चाहिए.’’

गर्भनिरोधक 2 प्रकार के होते हैं, प्राकृतिक व कृत्रिम.

प्राकृतिक गर्भनिरोधक

प्राकृतिक गर्भनिरोधक तरीकों का प्रयोग करते समय किसी भी तरह की गर्भनिरोधक दवाओं का प्रयोग नहीं किया जाता. इस के खास तरीके में सिर्फ मासिक चक्र को ध्यान में रखते हुए ‘सेफ पीरियड’ में ही सैक्स किया जाता है.

सुरक्षित मासिक चक्र : परिवार नियोजन के प्राकृतिक तरीकों में से एक सुरक्षित मासिक चक्र है. इस तरीके के तहत ओव्यूलेशन पीरियड के दौरान शारीरिक संबंध न रखने की सावधानियां बरती जाती हैं.

आमतौर पर महिलाओं में अगला पीरियड शुरू होने के 14 दिन पहले ही ओव्यूलेशन होता है. ओव्यूलेशन के दौरान शुक्राणु व अंडे के फर्टिलाइज होने की ज्यादा संभावना होती है. दरअसल, शुक्राणु सैक्स के बाद 24 से 48 घंटे तक जीवित रहते हैं, जिस से इस दौरान गर्भधारण की संभावना बढ़ जाती है.

फायदा : इस में न किसी दवा की, न किसी कैमिकल की और न ही किसी गर्भनिरोधक की जरूरत होती है. इस में किसी भी तरह का रिस्क या साइडइफैक्ट का डर भी नहीं रहता.

नुकसान : यह तरीका पूरी तरह से कामयाब नहीं कहा जा सकता. यदि पीरियड समय पर नहीं होता तो गर्भधारण की संभावना ज्यादा बढ़ जाती है.

कैलेंडर वाच : प्राकृतिक तरीकों में एक कैलेंडर वाच है, जिसे सालों से महिलाएं प्रयोग में लाती हैं. इस में ओव्यूलेशन के संभावित समय को शरीर का टैंप्रेचर चैक कर के जाना जाता है और उसी के अनुसार सैक्स करने या न करने का निर्णय लिया जाता है. इस में महिलाओं को तकरीबन रोज ही अपने टैंप्रेचर को नोट करना होता है. जब ओव्यूलेशन होता है तो शरीर का तापमान आधा डिगरी बढ़ जाता है.

फायदा : इस में किसी भी प्रकार की दवा या कैमिकल का उपयोग नहीं होता. इस से कोई साइड इफैक्ट नहीं पड़ता और न सेहत के लिए ही कोई नुकसान होता.

नुकसान : यह उपाय भी पूरी तरह से सुरक्षित नहीं है, खासकर उन महिलाओं के लिए जिन की माहवारी नियमित नहीं होती.

स्खलन विधि : इस विधि में स्खलन से पहले सैक्स क्रिया रोक दी जाती है, ताकि वीर्य योनि में न जा सके.

फायदा : इस का कोई भी साइड इफैक्ट नहीं है.

नुकसान : सहवास के दौरान हर पल दिमाग में इस की चिंता रहती है. लिहाजा, सैक्स का पूरापूरा आनंद नहीं मिल पाता. इस के अलावा शुरू में निकलने वाले स्राव में कुछ मात्रा में स्पर्म्स भी हो सकते हैं. इसलिए यह विधि कामयाब नहीं है.

कृत्रिम गर्भनिरोधक

प्रैग्नैंसी रोकने की जिम्मेदारी अकसर महिलाओं को ही उठानी पड़ती है. इसलिए उन्हें इस के लिए इस्तेमाल होने वाले कौंट्रासैप्टिव की जानकारी होना बेहद जरूरी है.

गर्भनिरोधक गोलियां : गर्भनिरोधक गोलियां भी कई प्रकार की होती हैं :

साइकिल गर्भनिरोधक गोली : इस का पूरा कोर्स 21 दिन का होता है. इस की 1 गोली माहवारी के पहले दिन से ही रोज ली जाती है. इस के साथ ही 3 हफ्ते तक बिना नागा यह गोली लेनी चाहिए.

फायदा : इस के उपयोग से माहवारी के समय दर्द से भी आराम मिलता है.

नुकसान : आप यदि एक दिन भी गोली खाना भूल गईं तो प्रैग्नैंट हो सकती हैं, साथ ही सिरदर्द, जी मिचलाना, वजन बढ़ना आदि समस्याएं भी हो जाती हैं.

ओनली कौंट्रासैप्टिव पिल : इसे ओसीपी भी कहा जाता है. इस का भी कोर्स 21 दिनों का होता है, जिस में 7 गोलियां हीमोग्लोबिन की भी होती हैं. इस तरीके से महिलाओं को एनीमिया की शिकायत नहीं होती क्योंकि इस में प्रोजेस्टेरोन और इस्ट्रोजन हार्मोन होते हैं.

आपातकालीन गोलियां: असुरक्षित सहवास के बाद अनचाहे गर्भ से बचने के लिए इस का इस्तेमाल किया जाता है.

फायदा : इस गोली का सेवन यौन संबंध बनाने के 72 घंटों के अंदर किया जाता है तो यह 96 फीसदी तक प्रभावशाली होती है.

नुकसान : इस का प्रयोग करना स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक नहीं है.

कौपर टी : गर्भनिरोधक के रूप में यह विश्व में सब से ज्यादा इस्तेमाल होती है. यह अंगरेजी के टी (ञ्ज) अक्षर के शेप की होती है और इस में पतला सा तार लगा होता है. इसे गर्भाशय के भीतर लगाया जाता है. इस से गर्भ नहीं ठहर पाता. जब भी बच्चे की चाहत हो इसे निकलवाया जा सकता है.

फायदा : इस में 99 फीसदी तक फायदा है. एक बार बच्चा होने के बाद दूसरा बच्चा होने के समय में गैप के लिए कौपर टी एक अच्छा जरिया है.

नुकसान : कौपर टी लगाने के बाद 2-3 महीने तक माहवारी ज्यादा आती है, लेकिन बाद में ठीक हो जाती है. इसे डाक्टर के द्वारा ही लगाया और निकलवाया जाता है.

गर्भनिरोधक इंजैक्शन : यह इस्ट्रोजन व प्रोजेस्टेरौन का इंजैक्शन है. यह 2 महीने या 3 महीने में लगाया जाता है. यह ओव्यूलेशन रोकता है, जिस से गर्भ नहीं ठहरता.

फायदा : इस का 99 फीसदी फायदा होता है. माहवारी भी कम दिनों तक होती है और माहवारी में दर्द नहीं होता.

नुकसान : इस से वजन बढ़ जाता है. इस इंजैक्शन के बाद नियमित व्यायाम और खानपान में संतुलित आहार जरूरी है.

– साथ में रुचि सिंह

#coronavirus: जब मेरी जिन्दगी में हुआ  लॉकडाउन

लेखिका-सुधा रानी तैलंग

लॉकडाउन के दौर में जंहा हम घरों में बन्द है. ऐसे में हर समय मन में डर सा समाया रहता है कि अब आगे क्या होगा .ऐसा अनुभव हमारे जीवन में पहली बार आया है.  इससे पहले भारत पाक युद्ध के समय भी कुछ ऐसे ही माहौल का अनुभव किया था. चारों ओर सन्नाटा होता था. पर उस समय सब के घरों में रेडियो नहीं होते थे ऐसे में सड़कों में लाउडस्पीकर में समाचार आते भारी भीड़ लगती थी व आपस में प्रेम भाई चारे का जज्बा था. लॉकडाउन भी आपात, एक युद्ध  का समय हैं इस जंग को हमें हर हाल में जीतना हैंचाहे हमें कुछ दिनों तक घरों में बन्द रहना पड़े. देख जाये तो लोकडाउन ने हमें बिल्कुल अकेला कर दिया है पर अपनों के साथ . हमारे दिलों में दूसरों की फिक्र व मदद करने की भावना जागी है .

देष में आपसी एकता की भावना देखने मिल रही है..बाजार माल सिनेमा ,पार्टीज व होटल से दूर पर परिवार के पास. लॉकडाउन ने हमारे बीच में एक लक्ष्मण रेखा खींच दी है पर हमारे दिलों को जोड़ दिया है .परिवार को एक दूजे के करीब लाकर खड़ा कर दिया है .सबको एक दूजे की चिन्ता है .पहली बार ही ऐसा हुआ  है जब हमें अपने हाथों से घर का काम करना पड़ रहा है. इससे एक बात तो ये अनुभव हो रही है कि हम मेम साहब से गृह स्वामिनी की फीलिंग कर रहे हैं. आपस में पूरे परिवार के सदस्यों ने काम की जिम्मदारी बाटं ली है .घरों में काम की जिम्मेदारी जरूर बढी है पर खुद के लिये सोचने का हमें समय भी मिला है.

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वैसे देखा जाये तो ये लॉकडाउन का ये समय बेहद उपयोगी व कारगर साबित हो रहा है. पूरे परिवार को साथ बैठने का मौका मिला है. खाली समय में एक ओर तो हमें अपने हाथ की बनी नई रेसिपीज बनाने खाने मिल रही है . घरों का झाड़ू पौछा करने से हमारी  एक्सरसाइज भी हो रही है. अपनी पुरानी हाबीज पेन्टिंग , संगीत सिलाई कढाई ,कुकिंग ,जो भाग दौड़ की जिन्दगी में हम भूल से गये थे उसे पूरी करने का मौका हमें मिला है. पुराने इन्डोर गेम्स चंगा पौआ , सांप सीढी , अन्ताक्षरी व कहानियों का दौर लौटा है. लगभग तीस सालों बाद रामायण ने दूरदर्षन के दिन लौटा दिया है .लोग अतीत को याद करने लगे है .लाकडाउन का समय साहित्य से जुड़े लोगों के लिये तो समय बेहद सार्थक उपयोगी कहा जा सकता है. अभी खाली समय में लिखने का मौका मिला है ऐसे अवसर कम ही आते हैं. सामने नई कहानियों के विचार आ रहे हैं. परिवार की नौंक झौंक व घरेलू हिंसा के ऐसे मौके में घटनायें  घटित हो रही है, अकेले बुर्जुगों को बिना नौकरों के किन परेषानियों का सामना कर पड़ रहा हैं उन पर लिख रही हूं.साथ मैं बुन्देल खण्ड की लोककथाओं की किताब को फाइनल रूप दे रही हूं.रेडियो के लिये झलकी भी तैयार कर रही हूं.मुझे मेरे पंसदीदा लेखक प्रेमचन्द का निर्मला और कालिदास का अभिज्ञानषाकुन्तलम् को भी पढने का अवसर मिला है.

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मेरे विचारों लॉकडाउन का समय अभी बढाना ही बेहतर होगा क्योकि हमारा स्वास्थ्य व सुरक्षा पहले है. सोषल डिस्टेन्स बनाते हुये घरों में रहकर हम ज्यादा सेफ रह सकते हैं.घर पर ही कोई छोटा मोटा काम भी कर सकते हैं जो आगे जाकर अर्निंग भी करा सके .बाहरी भौतिक जगत की चमक दमक से दूर कुछ दिन प्रकृति की गोद में कम संसाधनों व कम खर्च में जीवन यापन करके हम बेहतर स्वस्थ रह सकते है.लॉकडाउन से एक फायदा तो ये हुआ है कि हम सालों बाद अपनी छत से तारों को निहार सकते हैं. स्वच्छ व खुली हवा में सांस ले रहे है ऐसे में हमें लॉकडाउन को बन्धन न समझते हुये .खुषी, आनंद व सन्तोष को अपने जीवन में समावेष करते हुये खूब एन्जाय करना है

#lockdown: तड़पा रही है कटिंग चाय और वड़ा पाव की लत

लेखक-शामी एम् इरफान

मुम्बई की धड़कन को उर्जा प्राप्त होती है कटिंग चाय और वड़ा – पाव से। चाय पर ज्यादा चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आप सभी चाय के गुण – अवगुण से भली – भांति परिचित हैं. चाय- काॅफी ऐसा गर्म पेय पदार्थ है, जिस पर गरीब और अमीर दोनों अपने – अपने स्तर से चर्चा करते रहते हैं. इससे लाभ और हानि को लेकर न सिर्फ़ पत्र – पत्रिकाओं में कुछ न कुछ छपता रहता है, बल्कि सोशल मीडिया पर भी चाय – काॅफी को लेकर बहुत कुछ देखने – सुनने व पढ़ने को मिलता है.

सर्वत्र चाय और काॅफी का सम्मान है. चाय थोड़ी – सी गरीब जरूर है और काॅफी तो शुरू से ही अमीर है लेकिन काॅफी से ज्यादा चाय ही मशहूर है. बिलकुल उसी तरह जैसे दुनिया में अमीरों से अधिक गरीब लोग हैं. यह गरीब ही हैं, जो सबसे ज्यादा चाय का सेवन करते हैं.

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चाय की चुस्की के लिए मेरे एक मित्र कहीं भी जा सकते हैं. उनका कहना है कि ‘चा, चु के लिए मुझे बुलाओ और मैं न आऊँ, ऐसा हो नहीं सकता.’ और कसम से वह चाय की चुस्की के लिए कभी भी कहीं भी बुलाने पर आ जाते हैं और उनकी इस कमजोरी का फायदा उनके अपने लोग बड़ी आसानी से उठाते हैं. या यूँ कहें कि, लोग उनको चाय पिलाकर अपना काम करा लेते हैं और काम निकलने के बाद पहचानते भी नहीं. ऐसे में काम का वाजिब मेहनताना कौन देता है. बस, वह चाय की चुस्की लेकर ही खुश रहते हैं.

देश और दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या करोड़ों में है, जो चाय-काॅफी और वड़ा – पाव के आदी हो चुके हैं और इनकी सही – सही जनसंख्या बता पाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है. चाय के चहेतों की तरह वड़ा – पाव के शौक़ीनो की कमी नहीं है. वड़ा – पाव महाराष्ट्र का फेमस खाद्य पदार्थ है. इसको यूँ भी कह सकते हैं कि, वड़ा सब्जी यानी भाजी है और पाव रोटी यानी चपाती. आप मानो या न मानो, मगर यह सच है कि, भाजी – रोटी की जगह समतुल्य है वड़ा  – पाव और यकीनन इसे खाने से सम्पूर्ण भोजन की फीलिंग्स आती है. वड़ा- पाव खाने से तन-मन को संतुष्टि मिलती है और परम आनंद की अनुभूति होती है.

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वड़ा – पाव देश के कई जगहों में मिलता है. लेकिन जो स्वाद मुम्बई के वड़ा  – पाव में है, वह टेस्ट कहीं और नहीं. मुम्बई में कोलाबा, नारीमन पाॅइन्ट, वी टी, चर्चगेट से कल्याण, विरार तक वड़ा – पाव खाने का अपना अलग ही स्वाद है. सेंट्रल रेलवे पर चलने पर वड़ा का स्वाद ज्यादा मजेदार नहीं होता, पता नहीं क्यों? वहीं जब वेस्टर्न रेलवे पर मुम्बई के नगर – उपनगर में वड़ा – पाव खाते हैं तो, जायका इतना मजेदार होता है कि, मन करता है और खाओ. बस, खाते जाओ. यहाँ पर यह बता देना अपना फर्ज समझता हूँ कि, रेलवे से मुम्बई देश के कई शहरों से जुड़ा है और हर शहर में वड़ा – पाव रेल का सफर करके पहुंच गया है. महाराष्ट्र से सटा प्रदेश गुजरात हो या दूर-दराज बसे शहर जम्मू, कोलकाता या कन्याकुमारी सब जगह जिस तरह चाय मिलती है, बिलकुल उसी तरह वड़ा – पाव भी खाने को मिल जाता है. मगर वह स्वाद, वह टेस्ट उनमें कहाँ जो मुम्बई के टेस्टी-टेस्टी वड़ा – पाव का होता है.

और सब लोग वड़ा – पाव बड़ी चाव से क्यों न खायें? इसके खाने से पेट की भूख शांत हो जाती है. बड़े-बुजुर्ग फरमाते थे कि, भूखे पेट भजन नहीं होता और मेरा मानना है कि, भूखे पेट कामकाज नहीं होता. कामकाज भी तो लोग पेट की भूख मिटाने के लिए ही करते हैं. यह पेट की भूख अपनी खुद की होती है और अपने परिवार की होती है. अगर पेट की भूख ना हो तो, लोग बाग कामकाज ही ना करें. ‘कोरोना’ संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए देश में इक्कीस दिनों का लाॅक डाउन किया गया है. ऐसे समय में सबको अपने घरों में रहने का सख्त आदेश है. माॅल, सिनेमाहाल, कल-कारखाने, ऑफिस – दुकानें सब बंद है. सभी अपने घरों में या जहाँ पर वे रहते हैं बंदी की तरह हैं. यहाँ पर वड़ा – पाव खाने के लिए कहाँ से कैसे मिलेगा, मार्केट में जब दुकानें  बंद हो, कमाई रुक गई हो और घरों में राॅशन-पानी की किल्लत चल रही हो?

अनुमानतः मुम्बई की तीन चौथाई आबादी उन कामगार लोगों की है, जो किसी दूसरे देश-प्रदेश, शहर-नगर से यहाँ रोटी- रोज़ी कमाने आये हैं. इनमें से हजारों वड़ा – पाव ही खाकर अपना एक वक्त पेट भरते हैं. हालांकि, रगड़ा-पाव भी खाकर बहुत से लोग अपने पेट की भूख शांत कर लेते हैं. लेकिन रगड़ा पाव खाने वालों की तादाद कम है. बिलकुल उसी तरह जैसे झुणका भाखर खाने वाले बहुत सीमित संख्या में हैं. और इसकी एक वजह यह भी है कि, वड़ा – पाव की तरह यह सब जगह मिलते नहीं.

खाने-पीने की छोटी – बड़ी दुकानों पर, ठेला – स्टालों पर बिकता है गरमागरम ताजा-ताजा वड़ा – पाव और खाने वाले दस – बारह रूपये का एक वड़ा – पाव लेकर खा लेते हैं. कोई अपने घर में वड़ा – पाव नहीं बनाता. सस्ता है, स्वादिष्ट है और सभी को प्रिय भी है. लेकिन लाॅक डाउन में पूरे देश में तालाबंदी है. छोटे-बड़े होटल, खाने-पीने की सारी दुकानें बंद हैं. इस देशबंदी में काम की भी पूरी तरह से बंदी है. जो कोरोना संक्रमण से प्रभावित हाॅटस्पाट क्षेत्र नहीं है, उधर आने-जाने की थोड़ी सी छूट है. इसके बावजूद कहीं जायें भी तो जाकर क्या करें? कहीं भी कुछ खाने को नहीं मिलने वाला.

वड़ा – पाव खाने की तीव्र इच्छा है. आदत पड़ चुकी है और लत से मजबूर हैं. घर में खाने-पकाने को नहीं है, जोड़-जाड़कर थोड़े पैसे बचाकर रखे भी हैं तो क्या? चाहकर भी पेट की भूख शांत नहीं कर सकते. जीभ से लार टपकती है और मुंह में वड़ा – पाव को सोच-सोचकर पानी आता है. कसम से तरस रहे हैं वड़ा – पाव खाने को. मुम्बई आये थे कमाने के लिए और लाॅक डाउन में फंस गये हैं सारे. राहत-मदद तो सब दिखावा है. कानों से सुनने में अच्छा लगता है, मगर सिर्फ सुनने से पेट नहीं भरता. हो सके तो, वड़ा – पाव वाली दुकानें ही खुलवा दो साहेब, हम वड़ा पाव ही खा लेंगे और लाॅक डाउन में भी घर के अंदर ज़िंदा रह लेंगे.

#coronavirus: क्या कोरोना से लड़ाई में मददगार होगा – ‘कन्वलसेंट-प्लाज्मा थेरेपी’  

”  2009-10 के एच1एन1 इंफ्लुएंजा वायरस महामारी के प्रकोप के दौरान इंटेसिंव केयर की आवश्यकता वाले संक्रमित रोगियों का उपयोग किया गया. निष्क्रिय एंटीबाडी उपचार के बाद, सीरम उपचारित रोगियों ने नैदानिक सुधार प्रदर्शित किया. वायरल को बोझ कम हुआ और मृत्यु दर में कमी किया जा सका. यह प्रक्रिया 2018 में इबोला प्रकोप के दौरान भी उपयोगी रही. ”

पूरा विश्व कोरोना संक्रमण से जूझ रहा है, भारत में भी यह संक्रमण तेजी से फैलता जा रहा है. इस समय पुरे विश्व में इस महामारी को मात देने के लिए खोज और अनुसंधान का दौर अपने दुरत गति से कार्य कर रहा है. एक खोज हमारे देश में भी हुआ है , जिसने कोरोना संक्रमण को हारने दिशा में एक उम्मीद का किरण जगा है, देश में कोविड-19 को हारने के लिए नवीन ब्लड प्लाज्मा थेरेपी की खोज हुई है. तो आइये जानते है इसके बारे में …

शनिवार को केंद्र सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के अंतर्गत आने वाली एक संस्थान श्री चित्र तिरुनल इंस्टीच्यूट फार मेडिकल साईंसेज एंड टेक्नोलाजी ने बताया कि संस्थान ने कोरोना  (कोविड-19 ) संक्रमित मरीजों के बेहतर उपचार प्रदान करने के लिए भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने उसे एक नवीन उपचार करने के लिए मंजूरी दे दी है . इस उपचार पद्धति को तकनीकी रूप से ‘ कन्वलसेंट-प्लाज्मा थेरेपी‘  कहा जाता है . इस पद्धति द्वारा ‘किसी बीमार व्यक्ति के उपचार के लिए , ठीक हो चुके व्यक्ति द्वारा हासिल प्रतिरक्षी शक्ति का उपयोग कर के बीमार व्यक्ति को ठीक किया जाता है.

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* यह उपचार किस प्रकार दिया जाता है : – जो व्यक्ति (कोविड-19) कोरोना सक्रमण से  ठीक हो चुका है, उससे व्यक्ति से जाँच कर खून निकाला जाता है. इस से पहले यह पूरी तरह जाँच ठीक हुए व्यक्ति के कम से कम 28 दिनों तक पूर्ण स्वस्थ्य हो , साथ ही उसके सभी टेस्ट निगेटिव होनी चाहिए. डोनर से खून निकने के बाद वायरस को बेअसर करने वाले एंटीबाडीज के लिए सीरम को अलग किया जाता है और जांचा जाता है.  देखा जाता है , खून में कन्वलसेंट सीरम कितना है, जो कि किसी संक्रामक रोग से ठीक हो चुके व्यक्ति से प्राप्त ब्लड सीरम है और विशेष रूप से उस पैथोजेन के लिए एंटीबाडीज में समृद्ध होगा . सब सही पाया जाता है तो यह खून कोविड-19 के रोगी को दिया जाता है. कुछ ही दिनों में संक्रमित रोगी निष्क्रिय प्रतिरक्षण क्षमता प्राप्त कर लेता है और वह जल्द ही ठीक हो जाता है .

* कौन यह उपचार प्राप्त करेगा : – संस्थान द्वारा बताया जाता है कि ‘ वर्तमान में इसकी अनुमति केवल बुरी तरह से संक्रमित रोगियों के उपचार तक ही सीमित है .

* क्या है कन्वलसेंटप्लाज्मा थेरेपी :-  जब एक पैथोजेन की तरह का नोवेल कोरोना वायरस संक्रमित करता है ,तो हमारी प्रतिरक्षी प्रणाली एंटीबाडीज का उत्पादन करती है. एंटीबाडीज आक्रमणकारी वायरस की पहचान करते हैं और चिन्हित करते हैं. श्वेत रक्त कोशिकाएं पहचाने गए घुसपैठियों को संलगन करती हैं और शरीर संक्रमण से मुक्त हो जाता है. ब्लड ट्रांसफ्यूजन की तरह ही यह थेरेपी ठीक हो चुके व्यक्ति से एंटीबाडी को एकत्रित करती है और बीमार व्यक्ति में समावेशित कर देती है.

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* एंटीबाडीज क्या होते हैं :- एंटीबाडीज किसी माइक्रोब द्वारा किसी संक्रमण की अग्रिम पंक्ति प्रतिरक्षी अनुक्रिया होते हैं. वे नोवेल कोरोना वायरस जैसे किसी आक्रमणकारी का सामना करते समय बी लिम्फोसाइट्स नामक प्रतिरक्षी कोशिकाओं द्वारा स्रावित विशेष प्रकार के प्रोटीन होते हैं. प्रतिरक्षी प्रणाली एंटीबाडीज की रूपरेखा तैयार करते हैं जो प्रत्येक आक्रमणकारी पैथोजेन के प्रति काफी विशिष्ट होते हैं. एक विशिष्ट एंटीबाडी और इसका साझीदार वायरस एक दूसरे के लिए बने होते हैं.

* यह टीकाकरण से अलग कैसे है:-  यह  थेरेपी निष्क्रिय टीकाकरण के समान है. जब कोई टीका दिया जाता है तो प्रतिरक्षी प्रणाली एंटीबाडीज का निर्माण करती है. इस प्रकार, बाद में जब टीका प्राप्त कर चुका व्यक्ति उस पैथोजेन से संक्रमित हो जाता है तो प्रतिरक्षी प्रणाली एंटीबाडीज स्रावित करती है और संक्रमण को निष्प्रभावी बना देती है. टीकाकरण जीवन पर्यंत प्रतिरक्षण देता है. निष्क्रिय एंटीबाडी थेरेपी के मामले में, इसका प्रभाव तभी तक रहता है, जब तक इंजेक्ट किए गए एंटीबाडीज खून की धारा में रहते हैं. दी गई सुरक्षा अस्थायी होती है.

* क्या यह प्रभावी पद्धति है :- हमारे पास बैक्टिरियल संक्रमण के खिलाफ काफी एंटीबायोटिक्स हैं. तथापि, हमारे पास प्रभावी एंटीवायरल्स नहीं हैं. जब कभी कोई नया वायरल प्रकोप होता है तो इसके उपचार के लिए कोई दवा नहीं होती. इसलिए, कन्वलसेंट सीरम का उपयोग पिछले वायरल महामारियों के दौरान किया गया है.  2009-10 के एच1एन1 इंफ्लुएंजा वायरस महामारी के प्रकोप के दौरान इंटेसिंव केयर की आवश्यकता वाले संक्रमित रोगियों का उपयोग किया गया. निष्क्रिय एंटीबाडी उपचार के बाद, सीरम उपचारित रोगियों ने नैदानिक सुधार प्रदर्शित किया. वायरल को बोझ कम हुआ और मृत्यु दर में कमी किया जा सका. यह प्रक्रिया 2018 में इबोला प्रकोप के दौरान भी उपयोगी रही.

 * क्या इलाज का यह उपाय सुरक्षित है:-  आधुनिक ब्लड बैंकिंग तकनीक जो रक्त जनित पैथोजीन की जांच करते हैं, मजबूत है. डोनर एवं प्राप्तकर्ता के खून के प्रकारों को मैच करना मुश्किल नहीं है. इसलिए, अनजाने में ज्ञात संक्रमित एजेंटों को ट्रांसफर करने या ट्रांसफ्यूजन रियेक्शन पैदा होने के जोखिम कम हैं. संस्थान की निदेशक डा आशा किशोर बताती है कि  जैसाकि हम रक्तदान के मामलों में करते हैं, हमें ब्लड ग्रुप एवं आरएच अनुकूलता का ध्यान रखना होता है। केवल वही लोग जिनका ब्लड ग्रुप मैच करता है, खून दे या ले सकते हैं। खून देने की अनुमति दिए जाने से पूर्व डोनर की सख्ती से जांच की जाएगी तथा कुछ विशेष अनिवार्य कारकों का परीक्षण किया जाएगा. उनकी हेपाटाइटिस, एचआईवी, मलेरिया आदि की जांच की जाएगी जिससे कि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे रिसीवर को अलग पैथोजेन न हस्तांतरित कर दे.

* एंटीबाडीज प्राप्तकर्ता में कितने समय तक बना रहेगा :- जब एंटीबाडी सीरम दिया जाता है तो तो यह प्राप्तकर्ता में कम से कम तीन से चार दिनों तक बना रहेगा.  इस अवधि के दौरान बीमार व्यक्ति ठीक हो जाएगा. अमेरिका एवं चीन की अनुसंधान रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि ट्रांसफ्यूजन प्लाज्मा के लाभदायक प्रभाव पहले तीन से चार दिनों में प्राप्त होते हैं, बाद में नहीं.

* क्या है इस पद्धति की चुनौतियां :-  मुख्य रूप से जीवित बचे लोगों से प्लाज्मा की उल्लेखनीय मात्रा प्राप्त करने में कठिनाई के कारण यह थेरेपी उपयोग में लाये जाने के लिए सरल नहीं है. कोविड-19 जैसी बीमारियों में, जहां अधिकांश पीड़ित उम्रदराज हैं और हाइपरटेंशन, डायबिटीज और ऐसे अन्य रोगों से ग्रसित हैं, ठीक हो चुके सभी व्यक्ति स्वेच्छा से रक्त दान करने के लिए तैयार नहीं होंगे. उसे इसके लिए तैयार करना होगा .  संस्थान की निदेशक डा आशा किशोर बताती है कि हमने ड्रग कंट्रोलर जनरल आफ इंडिया को रक्तदान के नियमों में ढील की अनुमति के लिए एज कटआफ हेतु आवेदन किया है।

* इस पद्धति का इतिहास है पुराना :- इस पद्धति की खोज जर्मनी के फिजियोलाजिस्ट इमिल वान बेहरिंग ने 1890 में की थी .  जब वह डिपथिरिया से संक्रमित एक खरगोश से प्राप्त सीरम से  डिपथिरिया संक्रमण को रोकने में कामयाब हुए थे.  बेहरिंग को 1901 में दवा के लिए सर्वप्रथम नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उस समय एंटीबाडीज ज्ञात नहीं था.  कन्वलसेंट-प्लाज्मा थेरेपी कम प्रभावी था और इसके काफी साइड इफेक्ट थे. एंटीबाडीज फ्रैक्शन को अलग करने में कई वर्ष लगे.

#coronavirus: लॉकडाउन ने बदला पशुओं का व्यवहार 

कैसे बदला जानवरों का स्‍वभाव

लॉकडाउन के कारण भीड़भाड़ न होने से चिडि़याघरों में पशुपक्षी खुद को प्राकृतिक वातावरण में स्वच्छंद महसूस कर रहे हैं. यही कारण है कि चिडि़याघरों में अमूनन बाड़ों में रहने वाले जानवर अब खुले वातावरण में विचरण कर रहे हैं. उधर, कई राज्यों के बेसहारा कुत्ते खाना न मिलने पर गुस्सेल हो रहे हैं.

चिड़ियाघरकर्मी भी जानवरों के व्यवहार से हैरान

कोरोना के डर के बीच लॉकडाउन वन्य जीवों के लिए सौगात ले कर आया है. अब उत्तराखंड में नैनीताल चिडि़याघर में बाघ धूप सेंकने के लिए पेड़ पर चढ़ रहे हैं. आराम करने के लिए अब उन्हें छिपना नहीं पड़ रहा है. भालू गाओं तक पहुंच गए हैं.इनको भोजन देने वाले चिडि़याघर कर्मी भी इन जानवरों के व्यवहार में आए बदलाव से हैरान हैं. नैनीताल के ही गोविंद बल्लभ पंत प्राणी उद्यान में 233 वन्य जीव हैं. इन्हें देखने के लिए बड़ी संख्या में सैलानी यहां पहुंचते थे.

जंगल जैसा वातावरण

बायोलॉजिस्टस  का मानना है कि लॉकडाउन के कारण चिडि़याघर में सन्नाटा पसरा है. इस वजह से सभी जंगली जानवर मस्ती कर रहे हैं.यहां उन्हें जंगल जैसा वातावरण मिल रहा है. आम दिनों में जब पर्यटक आते थे तो गुलदार, बाघ, भालू छिप जाते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है. जंगली जानवर व्यवहार में बेहद शर्मीले होते हैं और प्रकृति के करीब होते हैं. लिहाजा, लॉकडाउन में सभी मस्ती कर रहे हैं.

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भोजन नहीं मिल पा रहा

उधर, जानलेवा कोरोना के कारण इंसान ही नहीं, जानवरों पर भी आफत बरसी है.दरअसल, लॉकडाउन के कारण लोगों के घरों से न निकलने से कुत्तों को भोजन की भारी किल्लत हो रही है. यह स्थिति ज्यादातर राज्यों की है.इन्हें खाना मुहैया न करा पाने के कारण कोलकाता के कई डॉग शेल्टर से काफी संख्या में कुत्तों को छोड़ दिया गया है, जिस से सड़कों पर उनकी तादाद और बढ़ गई है.

बढ़ सकती है स्पर्धा

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एक पशु चिकित्सक ने बताया कि हालात अगर ऐसे ही बने रहे तो कुत्तों को भोजन नहीं मिलने पर उन में आपसी प्रतिस्पर्धा काफी बढ़ जाएगी.उन्हें जहां भी थोड़ा सा भोजन दिखेगा, वे उस पर टूट पड़ेंगे.हालांकि, भोजन के लिए उन की इंसानों पर हमला करने की आशंका कम है. आमतौर पर कुत्तों की प्रवृत्ति ऐसी होती है कि भोजन न मिलने पर वे एक जगह पड़ेपड़े दम तोड़ देते हैं.जो लोग नियमित रूप से कुत्तों को भोजन कराते हैं, कुत्ते हर रोज उन की बाट जोहते रहते हैं और उन लोगों के न आने पर उन में बेचैनी बढ़ सकती है.

लॉकडाउन: भाग 3

लेखक-मनोज शर्मा 

करीब पांच मिनट तक ऐंबुलैंस या सरकारी गाड़ियों के अलावा वहां से कोई नहीं निकला.आज सड़क साफ थी शायद वैसी ही थी जैसी उस रोज़ जब सुलेखा को यहां अंतिम मर्तवा देखा था.पर आज यहां कोई नहीं ना सुलेखा और ना वो किन्नर की टोली और न वो मोती के फूलों की गंध जो सबको लुभाती थी.

पुलिस कर्मी ने मेरे पास आकर कहा यहां कैसे?

मैंने पुनः जेब में पढ़ा काग़ज़ दिखा दिया.पुलिस ने अपने हाथ में थामे डंडे से बाईक पर सामने की ओर चोट करते हुए जल्दी ही वहां से निकलने को कहा.

सुलेखा आदि को न पाकर मैं हताश था एक अजीब निराशा जो अकेलेपन में मैंने महसूस की थी.मेरी आंखे दूर तक खाली सड़की पर उस टोली को तलाशती रही पर वहां कुछ भी नहीं था.

गहरी चुप्पी और बीच बीच में गाड़ी का हार्न और शायद कुछ नहीं.खाली सड़को पर बाईक दौड़ती रही सफेद पीली लाईट में पेड़ चमक रहे थे एक बड़ी गाड़ी तेज आवाज करती पास से निकल गयी.तेज हार्न सारे सन्नाटे को परास्त कर रहा था पर लाईट के डिप्पर से वो शांत होता चला गया.नम आंखे कुछ ज़रूरी सेवाओं से लौटते लोगों को देखती रही.अस्पताल के सामने खड़ी भीड़ के पीछे पुलिसकर्मी दूर से ही चलते जाने का निर्देश दे रहे थे.पास ही मास्क लपेटे एक मरीज को कुछ लोग थामे अंदर जाने की जुगत लगा रहे हैं.सारा शहर जैसे आततायी चक्र के भय में जी रहा हो.भय पैर पसारे हर गली हर मोड़ पर जैसे दुबका हो.

पहले एक दिन बीता फिर दो तीन चार इक्कीस और फिर जब डेढ़ महीने बाद जब लाॅकडाऊन खुला ऐसा लगा सब कुछ बदल गया हो सारी दुनिया ही बदली बदली लगी डरी डरी-सी सहमी.

लाॅकडाऊन के उपरांत जब दफ्तर का पहला दिन जैसे कि नया जीवन जीना हो.मैं अपलक अपने कम्प्यूटर की तरफ देखता रहा दिन बढ़ने लगा और लंच पर सोचा क्यों ना सिगनल की ओर हो आऊ.आॅफिस के गेट से बाहर खड़े गार्ड ने मुस्कुराते हुए मुझे देखा उसकी आंखे खिली थी उसने अपनी लंबी मूंछ पर ताव देते हुए मुझसे पूछा !सर आप ठीक है? गर्दन को हल्का हिलाते हुए मैं बाराखंभा के सिगनल की ओर आगे बढ़ता गया.आज तेज धूप है पर ट्रैफिक ज़ोरो पर है जैसे सारा शहर को ही इस सड़क से गुज़रना हो.सिगनल पर ख़ासी भीड़ है दो एक किताब विक्रेता गाड़ी के वाईपर आदि के छोटे मोटे विक्रेता लोग ही दिखे पर किन्नरों की टोली वहां नहीं दिखी.मैं मायूस होकर वापिस ऑफिस लौट आया.तीन बज गये पर मन काम में बिल्कुल नहीं लगा बस मन व्यग्र है सुलेखा को एक नज़र देखने के लिए.

प्रेम एक आत्मिक अनुभूति है जिसे केवल महसूस किया जा सकता है दिखाया या बताया नहीं जा सकता.कुछ लोग सुलेखा जैसी किन्नरों का मजाक उडाते हैं या उनका शरीर नौचते हैं पर ये आवश्यक तो नहीं कि प्रेम में व्यक्ति साध्य हो सुलेखा को तीन चार सालों से देखा पर ये मेरी ही मुर्खता रही कि आज तक उसका कोई सम्पर्क सूत्र न ले सका.शायद समाज प्रतिष्ठा के कारण और लोगों का क्या है उन्हें तो तंज साधने के बहाने चाहिए और वैसे भी सुलेखा जैसी

किन्नर लोगों को आत्मीयता से कौन देखता समझता है ?शायद दो फीसद लोग भी नहीं पर लोग ये क्यों नहीं समझते ये भी इंसान हैं काश इनकी दुनिया भी आम आदमी की सी होती.पर जो भी हुआ अब और नहीं आज ही जब मैं सुलेखा से मिलूंगा सब कुछ जान लूंगा उसका संपर्क और लाॅक डाऊन में बीते संकट भरे दिनों की ज़िन्दगी के बारे में भी.सुलेखा न भी मिली तो उस जैसी दूसरी औरतों(किन्नरों)से.

काम में बिल्कुल भी मन नहीं शैलेस ने मेरी कुर्सी की हत्थी पर हाथ रखते हुए मुझे कहा!

आज तो तुम अपनी फ्रेंड से मिलोगे?

मैं हडबड़ा सा गया आंखों पर से चश्मा हटाते मैंने शैलेश को देखा उसके होठ फैले थे और आंखे फटी थी बीच बीच में कंठ से हंसने की आवाज निकल रही थी.किसी तरह ऑफिस से निकलने का समय हुआ पीली धूप जो ऑफिस के एक कोने से होते हुए गहरी छावं में बदलती रही.मेरे पैर खुद व खुद ऑफिस से बाहर होते गये और सिगनल की ओर दौड़ पड़े.सड़क पर ट्रैफिक था पर दोपहर से कम सिगनल पर गाड़ियां रूकने लगी सहसा मैं हर तरफ देखने लगा पर सुलेखा का कोई अता पता नहीं था.पूरी सड़क मोती के फूलों की गंध से लवरेज थी वैसी ही जैसी उस रोज़ थी और सुलेखा को अंतिम मर्तवा देखा था पर किन्नरों को वहां न पाकर मैं ठिठक गया और उस अधेड़ उम्र की औरत की ओर बढ़ने लगा जो मोती के फूल बेचती थी. सुनो अम्मा!

तुमने सुलेखा को देखा है?

क्या वो आज नहीं आयी?

सुलेखा!अरे वो !

क्या हुआ?

बताओ भी ऐसे क्या देख रही हो?

मेरे इतने सवाल एकसाथ सुनकर वो हतप्रभ होकर मुझे देखने लगी.दायें ओर से एक कार तेजी से निकल गयी.मैं उत्तर की तलाश में फूल वाली को देखता रहा.मेरे प्रश्नों को पुनः सुनकर

उस अधेड़ उम्र की औरत की आंखों में आंसू तैर गये.भगवान के लिए कुछ बोलो !क्या हुआ तुम चुप क्यों हो?

फूल बेचने वाली ने जैसे ही बोलना आरंभ किया मैं थरथर कांपने लगा जैसे मेरे होठ सील दिये गये हो वो तो तीन तारीख से •!

अच्छा!

हां वो कोरोना संक्रमित थी!

अभी कहां हैं सुलेखा?मैंने कांपती आवाज़ से पूछा!

हूं शायद सरकारी अस्पताल में वो जी टी बी है ना!

नम आंखों से देखते हुए मैंने उस औरत को सड़क के एक छोर पर चलने को कहा.जेब से बीस का नोट निकालकर उसके हाथ पर रख दिया प्लीज तुम मुझे सुलेखा का फोन नं दे दो!

वो गंभीरता से मेरे चेहरे को देखती रही.

भैया आपको उससे क्या काम था?

क्या आप उसे जानते थे?ऑफिस के सहकर्मी हंसते हुए निकल गये

हां मैं सुलेखा को जानता हूं प्लीज आप मुझे उसका फोन न दे दो या एड्रैस दे दो?

वो मंडावली हैं ना गली नं 12 में भूप सिहं के मकान में वो लोग किराये पर रहते हैं पर इस समय वो जी टी बी हाॅस्पीटल में हैं.औरत के चिपके होठों पर बार बार खुश्क दिखते थे वो फिर बोली बाबूजी आप क्या करेंगे ये रोग फैलने वाला है कहीं आप भी••!जानते हो! उस मोहल्ले में छह लोगों को कोरोना था.सुलेखा मिलनसार थी वो डरती नहीं थी पर उसे भी वो भी कोरोना की चपेट में ••बोलते बोलते वो चुप हो गयी.

अच्छा आप उसका नं ले लो मेरी बात हुए तो दस बारह दिन हो गए हैं शायद इससे भी ज़्यादा!उसने ब्लाऊज में हाथ घुसेड़कर छोटा सा फोन निकाला और सुलेखा का फोन नं देते हुए कहा बाऊजी देख लेना शायद फोन सुलेखा के पास हो या न हो.फोन नं देकर वो एक पुराने ग्राहक को देखकर उस ओर दौड़ पड़ी.

कहो सर कैसे हो?

एक ठिगने से आदमी ने हंसते हुए उस औरत से एक गजरा लिया और नोट देते हुए उसे अपनी सलामती की बात कही. वो औरत जल्द ही दूसरे ग्राहक में उलझ गयी.मुझे लगा कि वो वापिस लौटेगी पर दस मिनट तक वो वापिस न लौटी.सड़क पर शौर होता रहा एक बड़ी गाड़ी सिगनल पर आकर रूकी पर जैसे ही सिगनल हरा हुआ वो तेजी से घिसटती हुई वहां से निकल गयी.

सुलेखा का नं0 डायल करने पर वो स्वीच आॅफ था.दो तीन बार मिलाने पर यही प्रतिक्रिया सुनाई दी.मेरा कलेजा धड़कने लगा सामने से एक आॅटो आया और मुझे वहां खड़ा देखकर उसने ब्रेक लगाया.

जी सर!बायीं ओर से चेहरा निकला और मुझे ताकने लगा.

जी टी बी हास्पिटल चलोगे?

ऑटो जी टी बी हास्पिटल की तरफ दौड़ पड़ा.

अस्पताल पहुंचते ही मैं रिसैप्सन पर रूका और सुलेखा के बारे में जानना चाहा.

अरे बाबू जी आप!

यहां कैसे?

मास्क लपेटे एक पतली कमजोर सी किन्नर मेरी तरफ बढ़ी और मुझे देखकर रूआंसी हो गयी.

सुलेखा कहां है?

वो रोते हुए बोली बाबूजी सुलेखा नहीं रही!

पिछली तेरह को उसने दम तोड़ दिया!

उसको कोरोना हो गया था.

हां बाबू जी कोरोना!वो पोजिटिव थी!

सुबकते हुए उस किन्नर ने कहा!

मेरे पैर तले जैसे जमीं ही जैसे निकल गयी हो मैं दो पल चुप रहा.

हैं सुलेखा को कोरोना !

जैसे यकीन न हो रहा हो.

उसे कैसे हो सकता है कोरोना!

नहीं नहीं तुम झूठ बोल रही हो!

नहीं बाबूजी सब सच है!

एकदम सच!

बिल्कुल सच!

हां यही सच है!

सुलेखा नहीं बची.

कोरोना ना उसे मार दिया!

हास्पिटल के सूचना पट को देखते हुए मेरी आंखे भीग गयी.

साहब हम चार में से अब दो बचे हैं बेला भी तीन रोज़ पहले••.कहते हुए वो किन्नर फिर रो दी.

मैं हास्पिटल के अहाते में आते जाते मरीजो व उनके प्रियजनों को देखता रहा.सुलेखा का मुस्कुराता चेहरा भी इसी भीड़ में कहीं छिपा है

काश !लाॅकडाऊन में सुलेखा बच जाती.

काले आसमां में चमकते सितारों को देखता मैं घर की ओर बढ़ गया.

 

लॉकडाउन: भाग 2

लेखक-मनोज शर्मा 

अच्छा! पुलिस का दूसरा कर्मी आश्चर्य से देखता

उसकी बात सुनता रहा.जीप स्टार्ट हुई और सिगनल की तरफ दौड़ गयी.

सब सहकर्मी जो मेरे साथ सड़क पर आगे बढ़ रहे थे चेहरों पर कौतुहलता और चिंता आने लगी.

सड़क के दोनों और लंबी बिल्डिंगों की लाइट्स अब बुझने लगी थी.युकोलिपट्स के लंबे पेड तेज समीर से झूम रहे थे.सुलेखा बैंगनी साड़ी पहने तेज कदमों से मेरी ओर आई उसके चेहरे पर उदासीनता थी वो आगे बढ़कर मुझसे पूछने लगी!भैया ये लाॅक डाऊन क्या होता है! सुना है हर तरफ लाॅकडाऊन होगा!मेरे सहकर्मी मुझे देखकर हंसने लगे औह हो पक्की दोस्ती!

वो लोग बोलते रहे पर मेरे कदम आगे की ओर बढ़ते ही जा रहे थे पर फिर भी मैं दो पल के लिए रूका सुलेखा मेरे मुख से जवाब चाहती थी भैया!

बताओ ना !सब बोल रे हैं लाॅक डाऊन !लाॅकडाऊन मतलब !

एक बड़ी सफेद गाड़ी दोनों के करीब से गुजरी पर सामने लाल सिगनल देखकर वो हल्के हल्के घिसटकर बढ़ने लगी.रोड़ के दूसरी तरफ एक बाईक का हार्न पूरी सड़क पर गूंज गया.हमारे सामने एक ऑटो रूका जिसमें पीछे बैठे व्यक्ति

ने सिगरेट सुलगाई और धूएं को हवा में उड़ेलते हुए उसने पतलून की जेब से नोट निकाला और सुलेखा को बुलाकर कहा !हूं हैलो डियर ये लो!

सुलेखा उस आदमी की ओर मुस्कुराते हुए बढ़ गयी उसने एक नोट को चूमते हुए उसे देने के लिए हाथ बढ़ाया पर जैसे ही सुलेखा ने नोट पकड़ा उस आदमी से उसकी कलाई पकड़नी चाही!अरी सुनो तो!दांत भींचते हुए होठों को फैलाते हुए भोंडी सी हंसी लिए वो सुलेखा को घूरता रहा पर सुलेखा साड़ी के पल्लू को समेटते आगे बढ़ने लगी.

मैं जब तक लाॅकडाऊन का मतलब समझाता वो सड़क के दूसरे छोर पर पहुंच गयी थी मुझे लगा था कि वो सिगनल बदलते ही लौटेगी पर वो दूसरे किन्नरों संग व्यस्त होती गयी.मैंने सुलेखा को बुलाना चाहा मेरी आंखे हर ओर उसे ही ढूंढ

रही थी पर सुलेखा गाड़ियों की भीड़ और पैसे की चाह में मुझसे मिलना भूल गयी.

शैलेश ने मुझे पुकारा! अरे यार तुम्हें चलना नहीं क्या ?

मैंने उसकी बाते सुनकर कोई जवाब नहीं दिया और बढ़ती गाड़ियों को देखता रहा.मुझे फिर पुकारा गया चलोगे! या हम चले?

सहसा मैंने शैलेश को देखा वो मेरे इंतज़ार में आगे बढ़कर खड़ा हो गया था और मेरी राह देख रहा था उसकी आंखे बड़ी थी तथा चेहरे पर रोष था हमारी जैसे ही आंखे मिली उसने फिर इशारे से मुझे आगे बढ़ने को कहा.सड़क पर तेज शोर था मोती के फूलों की गंध अभी भी हर तरफ से आ रही थी.

मैं शैलेश के साथ आगे बढ़ने लगा मेरा सड़क की ओर मुड़ता चेहरा बार बार दौड़ते वाहनों में सुलेखा को खोज रहा था.किन्नरों की टोली गाड़ियों के सामने तालियां बजाती लपक रही थी.फब्तियां और तंज कई राहगीरों के मुख पर चढ़े थे पर किन्नरों की टोली सिद्धहस्त कलाकारों की भांति अपने काज में संलग्न थी पर इस भीड़ में कहीं सुलेखा नहीं दिखाई दी.हम लोग करीब घंटे

में अपने अपने घर पहुंच गये शायद सुलेखा और दूसरे किन्नर भी.

सरकारी आदेश पारित हुआ हर जगह लाॅक डाऊन!एक बार जैसे ज़िन्दगी ही थम गयी हो.यानि घरबंदी!सारे रास्ते बंद!कोई सड़क पर नहीं पहुंच सकता यहां तक कि घर से ही नहीं निकल सकता!तो फिर सिगनल!

मन कोंधा

सुलेखा कैसी होगी!

और वो किन्नर टोली!

सारी दिल्ली के किन्नर!

सारे भारत के किन्नर!

उनके खाने पीने रहन सहन के बारे में सोचकर दिल थम गया जैसे सारी इन्द्रियां सुलेखा को ही

तांक रही हो.आज कितने ही दिन हो चुके हैं सब घर में बैठे हैं पर रोज़ पैसा इकट्ठा करने वाले लोग कैसे जी रहे होंगे और सुलेखा या वो किन्नर टोली कैसे•• क्यींकि उन लोगों को देखकर तो वैसे ही सब उन्हें उपेक्षा भरी नज़रों से देखते हैं.सड़के खाली हैं खुले आसमां की भांति हर आदमी इन दिनों अपनी ज़िन्दगी से ऊब रहा है.बालकाॅनी की तरफ जाकर देखा तो पाया सड़क खाली है कोई इक्का दुक्का लोग ही सड़क पर घंटो तक देखने के बाद दिखाई देता है.

शाम को अलमारी खोली सामने दराज में एक मुड़ा हुआ काग़ज़ मिला सोचा खोलकर देखू.काग़ज़ के कोने पर संगम नर्सिंग होम था नीचे कुछ दवाइयों के नाम लिखे थे.दवाइयों के नाम पढ़ते पढ़ते याद आया पिछले महीने जब गुरनाम को ऑफिस से ले जाकर नर्सिंग होम में एड़मिट किया था क्योंकि उसदिन उसकी तबीयत ज़्यादा ही ख़राब हो गयी थी तभी ये काग़ज़ मेरे साथ आ गया था.सामने टेबल पर रखे फोन से गुरनाम का फोन लगाया दो तीन बैल बजते ही गुरनाम की बीबी ने फोन उठाया! हैलो हां गुड़ इवनिंग हूं यहीं

हैं एक मिनट!

कहो गुरनाम अब कैसे हो?

सब ठीक है अब?

हां मैं भी ठीक हूं!

और बच्चे?

हां सब बच्चे ठीक ठाक हैं !

हां एग्ज़ाम तो हो गये थे !

नहीं साइंस है ना !

भाई बारहवी में हैं ना!

हूं हां हां!

चलो ओके! टेक केयर !

बाय!

फोन रखते ही मुंह पर मास्क लगाकर दवाई की पर्चा जेब में डालकर बाईक उठाकर रोड़ पर चल पड़ा.सोचा कोई न मिले तो बाराखंभा के सिगनल

तक हो आऊं.घर से एक ढेड़ किलोमीटर ही बढ़ा था पुलिस कर्मियों ने मुझे रोकने के हाथ बढ़ाया

तेज स्पीड़ से चलते पहिये वहीं थम गये.हेलमेट बिना उतारे पुलिसकर्मी ने बाहर निकलने का सबब पूछा.मैं सहम सा गया पर जेब से वो पर्चा निकालकर उसमें लिखी दबाई पर अंगुली रखकर बताया कि ये बहुत ज़रूरी है.वहां से निकलने से पहले ही मैंने पुलिस कर्मी को धन्यवाद दिया.

दो एक सिगनल आये पर इस काग़ज़ के सहारे मैं बाराखंभा के सिगनल तक पहुंच गया.शाम तेजी से रात की ओर बढ़ रही थी पर खाली सड़कों पर आज बहुत कम ट्रैफिक था.इस सड़क पर ऐसा सूनापन शायद मैंने पिछले दस बारह सालों में कभी नहीं देखा था.सड़क का हर कोना खाली था गहरा सूनापन बिल्कुल शून्य की तरह.

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