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उसे किस ने मारा

ईमानदारी की कंटीली राह पर चलने वाले आकाश को ऊंचे सरकारी पद पर आसीन होने पर कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता था.

आज आकाश चला गया…लोग कहते हैं, उस की मौत हार्ट अटैक से हुई है पर मैं कहती हूं कि उसे जमाने ने मौत के आगोश में धकेला है, उसे आत्महत्या के लिए मजबूर किया है. हां, आत्महत्या… आप लोग समझ रहे होंगे कि आकाश की मृत्यु के बाद मैं पागल हो गई हूं…हां…हां मैं पागल हो गई हूं…आज मुझे लग रहा है, इस दुनिया में जो सही है, ईमानदार है, कर्मठ है, वह शायद पागल ही है…यह दुनिया उस के रहने लायक नहीं है.

आज भी ऐसे पागल इस दुनिया में मौजूद हैं, जो अपने उसूलों पर चलते हुए शायद वे भी आकाश की तरह ही सिसकतेसिसकते मौत को गले लगा लें, इस से दुनिया को क्या फर्क पड़ने वाला है. वह तो यों ही चलती जाएगी. सिसकने के लिए रह जाएंगे उस बदनसीब के घर वाले.

दीपाली का प्रलाप सुन कर वसुधा चौंकी थी. दीपाली उस की प्रिय सखी थी. उस के जीवन का हर राज उस का अपना था. यहां तक कि उस के घर अगर एक गमला भी टूटता तो उस की खबर भी उसे लग ही जाती. उन में इतनी अंतरंगता थी.

लेकिन क्या आकाश की हालत के लिए वह स्वयं जिम्मेदार नहीं थी. वह आकाश की जीवनसाथी थी. उस के हर सुखदुख में शामिल होने का हक ही नहीं, उस का कर्तव्य भी था पर क्या वह उस का साथ दे पाई? शायद नहीं, अगर ऐसा होता तो इतनी कम उम्र में आकाश का यह हश्र न होता.

आकाश एक साधारण किसान परिवार से था. पढ़ने में तेज, धुन का पक्का, मन में एक बार जो ठान लेता उसे कर के ही रहता था. अच्छा खातापीता परिवार था. अभाव था तो सिर्फ शिक्षा का…उस के पिताजी ने उस की योग्यता को पहचाना. गांव में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने अपने घर वालों के विरोध के बावजूद बेटे को उच्च शिक्षा के लिए शहर भेजा, तो शहर की चकाचौंध से कुछ पलों के लिए आकाश भ्रमित हो गया था.

यहां की तामझाम, गिटरपिटर अंगरेजी बोलते बच्चों के बीच उसे लगा था कि वह सामंजस्य नहीं बिठा पाएगा पर धीरेधीरे अपने आत्मविश्वास के कारण अपनी कमियों पर आकाश विजय प्राप्त करता गया और अव्वल आने लगा. जहां पहले उस के शिक्षक और मित्र उस के देहातीपन को ले कर मजाक बनाते रहते थे, अब उस की योग्यता देख कर कायल होने लगे. हायर सेकंडरी में जब वह पूरे राज्य में प्रथम आया तो पेपर में नाम देख कर घर वालों की छाती गर्व से फूल उठी.

उसी साल उस का इंजीनियरिंग कालिज इलाहाबाद में चयन हो गया. पिता ने अपनी सारी जमापूंजी लगा कर उस का दाखिला करवा दिया. बस, यही बात उस के बड़े भाइयों को खली, कुछ सालों से फसल भी अच्छी नहीं हो रही थी. भाइयों को लग रहा था, मेहनत वे करते हैं पर उन की कमाई पर मजा वह लूट रहा है.

कहते हैं न कि ईर्ष्या से बड़ा जानवर कोई नहीं होता. वह कभीकभी इनसान को पूरा निगल जाता है. उस के भाइयों का यही हाल था और उन के वहशीपन का शिकार उस के मातापिता बन रहे थे. छुट्टियों में जब आकाश घर गया तो उस की पारखी नजरों से घर में फैला विद्वेष तथा मां और पिताजी के चेहरे पर छाई दयनीयता छिप न सकी. मां ने अपने कुछ जेवर छिपा कर उसे देने चाहे तो उस ने लेने से मना कर दिया.

एक दृढ़ निश्चय के साथ आकाश इलाहाबाद लौट गया था. कुछ ट्यूशन कर ली, साथ ही इंजीनियरिंग के प्रथम वर्ष में प्रथम आने के कारण उसे स्कालरशिप भी मिलने लगी. अब उस का अपना खर्चा निकलने लगा. इंजीनियरिंग करते ही उसे सरकारी नौकरी मिल गई.

नौकरी मिलते ही वह अपने मातापिता को साथ ले आया. भाइयों ने भी चैन की सांस ली. पर पानी होते रिश्तों को देख कर आकाश का मन रोने लगा था.

सरकारी नौकरी मिली तो शादी के लिए रिश्ते भी आने शुरू हो गए. वैसे आकाश अभी कुछ दिन विवाह नहीं करना चाहता था पर मां की आंखों में सूनापन देख कर उस ने बेमन से ही विवाह की इजाजत दे दी.

मातापिता के साथ रहने की बात जान कर कुछ लोगों ने आगे बढ़ अपने कदम पीछे खींच लिए थे. रिश्तों में आती संवेदनहीनता को देख कर उस का मन बहुत आहत हुआ था. मातापिता को इस बात का एहसास हुआ तो वे खुद को दोषी समझने लगे, तब आकाश ने उन को दिलासा देते हुए कहा था, ‘आप स्वयं को दोषी क्यों समझ रहे हैं, यह तो अच्छा ही हुआ कि समय रहते उन की असलियत खुल गई, जो रिश्तों का सम्मान करना नहीं जानते. वे भला अन्य रिश्ते कैसे निभा पाएंगे. रिश्तों में स्वार्थ नहीं समर्पण होना चाहिए.’

आखिर एक ऐसा परिवार मिल ही गया. मातापिता के साथ में रहने की बात सुन कर लड़की का भाई विवेक बोला, ‘हम ने मातापिता का सुख नहीं भोगा. पर मुझे उम्मीद है कि आप के सान्निध्य में मेरी बहन को यह सुख नसीब हो जाएगा.’

विवेक और दीपाली के मातापिता बचपन में ही मर गए थे. उन के चाचाचाची ने उन्हें पाला था पर धीरेधीरे रिश्तों में आती कटुता ने उन्हें अलग रहने को मजबूर कर दिया. विवेक ने जैसेतैसे एक नौकरी तलाशी तथा बहन को ले कर अलग हो गया. नौकरी करतेकरते ही उस ने अपनी पढ़ाई जारी रखी, बहन को पढ़ाया और आज वह स्वयं एक अच्छी जगह नौकरी कर रहा था.

दीपाली आकाश को अच्छी लगी. अच्छे संस्कारिक लोग पा कर विवाह के लिए वह तैयार हो गया. दीपाली ने घर अच्छी तरह से संभाल लिया था. मातापिता भी बेहद खुश थे. घर में सुकून पा कर आफिस के कामों में भी मन रमने लगा. अभी तक तो उसे काम सिखाया जा रहा था पर अब स्वतंत्र विभाग उस को दे दिया गया.

आकाश ने जब अपने विभाग की फाइलों को पढ़ा और स्टोर में जा कर सामान का मुआयना किया तो सामान की खरीद में हेराफेरी को देख कर वह सिहर उठा. पेपर पर दिखाया कुछ जाता, खरीदा कुछ और जाता. कभीकभी आवश्यकता न होने पर भी सामान खरीद लिया जाता. सरप्लस स्टाक इतना था कि उस को कहां खपाया जाए, वह समझ नहीं पा रहा था. अपने सीनियर से इस बात का जिक्र किया तो उन्होंने कहा, ‘अभी नएनए आए हो, इसलिए परेशान हो. धीरेधीरे इसी ढर्रे पर ढलते जाओगे. जहां तक सरप्लस सामान की बात है, उसे पड़ा रहने दो, कुछ नहीं होगा.’

एक दिन आकाश अपने आवास पर आराम कर रहा था कि एक सप्लायर आया और उसे एक पैकेट देने लगा. उस ने पूछा, ‘यह क्या है?’

‘स्वयं देख लीजिए सर.’

पैकेट खोला तो उस के अंदर रखी रकम देख कर आकाश का खून जम गया.

‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, यह रकम मुझे पकड़ाने की.’

‘सर, आप नए हैं, इसलिए जानते नहीं हैं, यह आप का हिस्सा है.’

‘पर मैं इसे नहीं ले सकता.’

‘यह आप की मर्जी सर, पर ऐसा कर के आप बहुत बड़ी भूल करेंगे. आखिर घर आई लक्ष्मी को कोई ऐसे ही नहीं लौटाता है.’

‘अब तुम यहां से जाओ वरना मैं पुलिस को बुलवा कर तुम्हें रिश्वत देने के आरोप में गिरफ्तार करवा दूंगा.’

‘ऐसी गलती मत कीजिएगा. यह आरोप तो मैं आप पर भी लगा सकता हूं,’ निर्लज्जता से मुसकराते हुए वह बोला.

अगले दिन आकाश ने अपने सहयोगी से बात की तो वह बोला, ‘इस में तुम या मैं कुछ नहीं कर सकते. यह तो वर्षों से चला आ रहा है. जो भी इस में अड़ंगा डालने का प्रयत्न करता है उस का या तो स्थानांतरण करवा देते हैं या फिर झूठे आरोप में फंसा कर घर बैठने को मजबूर कर देते हैं, वैसे भी घर आई लक्ष्मी को दुत्कारना मूर्खता है.’

उस ने उसी समय निर्णय लिया था कि लोग चाहे जो भी करें पर वह इस पाप की कमाई को हाथ नहीं लगाएगा. वैसे भी पहली बार नौकरी पर जाने से पहले जब वह पिताजी से आशीर्वाद लेने गया था, तो उन्होंने कहा था, ‘बेटा, जिंदगी की डगर बड़ी कठिन है, जो कठिनाइयों को पार कर के आगे बढ़ता जाता है निश्चय ही सफल होता है. कामनाओं की पूर्ति के लिए ऐसा कोई काम मत करना जिस के लिए तुम्हें शर्मिंदा होना पड़े. जितनी चादर हो उतने ही पैर फैलाना.’

वह उन की बातों को दिल में उतार कर जीवन की नई डगर पर नई आशाओं के साथ चल पड़ा था. अपनी पत्नी दीपाली को अपना फैसला सुनाया तो उस ने भी उस की बात का समर्थन कर दिया. तब उसे लगा था कि जीवनसाथी का सहयोग जीवन की कठिन से कठिन राहों पर चलने की प्रेरणा देता है.

काम को आकाश ने बोझ समझ कर नहीं बल्कि अपनी जिम्मेदारी समझ कर अपनाया था, इसलिए काम को संपूर्ण करने के लिए वह ऐसे जुट जाता था कि न दिन देखता न ही रात, इस के लिए उसे अपने परिवार से भी भरपूर सहयोग मिला.

सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. ऊंचा ओहदा, सम्मान, सुंदर पत्नी, पल्लव और स्मिता जैसे प्यारे 2 बच्चे, बूढ़े मांबाप का सान्निध्य. अपने काम के साथ मातापिता की जिम्मेदारी भी वह सहर्ष निभा रहा था. आखिर उन्होंने ही तो उसे इस मुकाम पर पहुंचने में मदद की थी.

दीपाली और वसुधा साथसाथ पढ़ी थीं. यही कारण था कि विवाह हो जाने के बाद भी हमेशा वे एकदूसरे के संपर्क में रहीं. यहां तक कि वर्ष में एक बार दोनों परिवार मिल कर एकसाथ कहीं घूमने चले जाते. वसुधा के पति सुभाष को भी आकाश का साथ अच्छा लगता. जी भर कर बातें होतीं. लगता, समय यहीं ठहर जाए पर समय कभी किसी के लिए रुका है?

जैसेजैसे खर्चे बढ़ने लगे दीपाली अपने वादे से मुकरने लगी. महीने का अंत होता नहीं था कि हाथ खाली होने लगता था, उस पर बूढ़े मातापिता के साथ 2 बच्चों का खर्चा अलग से बढ़ गया था. दीपाली अकसर अपनी परेशानी का जिक्र वसुधा से करती तो वह उसे संयम से काम लेने के लिए कहती, पर उस पर तो जैसे कोई जनून ही सवार हो गया था, आकाश की बुराई करने का.

यह वही दीपाली है जो एक समय आकाश की तारीफ करते नहीं थकती थी और अब बुराई करते नहीं थकती है. इनसान में इतना परिवर्तन कब, क्यों और कैसे आ जाता है, समझ नहीं पा रही थी वसुधा. आखिर कोई औरत अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए पति से वह सबकुछ क्यों करवाना चाहती है जो वह करना नहीं चाहता. दीपाली और आकाश के बीच की दूरी बढ़ती जा रही थी और वसुधा चाह कर भी कुछ कर नहीं पा रही थी.

दीपाली कहती, ‘वसुधा, आखिर इन की ईमानदारी से किसी को क्या फर्क पड़ता है. जो इन की सचाई पर विश्वास करते हैं वह इन्हें गलत प्रोफेशन में आया कह कर इन का मजाक बनाते हैं और जो नहीं करते वे भी कह देते हैं कि भई, हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और. भला आज के जमाने में ऐसा भी कहीं हो सकता है.’

बाहर तो बाहर आकाश घर में भी शिकस्त खाने लगा था. पत्नी और बच्चों के चेहरे पर छाई असंतुष्टि अकसर सोचने को मजबूर करती कि कहीं वह गलत तो नहीं कर रहा है, पर आकाश के अपने संस्कार उस को कुछ भी गलत करने से सदा रोक देते.

वह बच्चों की किसी मांग को अगले महीने के लिए टाल देने को कहता तो उस की 5 वर्षीय बेटी स्मिता ही कह देती, ‘इस का मतलब आप खरीदवाओगे नहीं. अगले महीने फिर अगले महीने पर टाल दोगे.’

आकाश कभी दीपाली को उस का वादा याद दिलाता तो वह कह देती,  ‘वह तो मेरी नादानी थी पर अब जब दुनिया के रंगढंग देखती हूं तो लगता है कि तुम्हारे इस खोखले दंभ के कारण हम कितना सफर कर रहे हैं. तुम्हारे जैसे लोग जहां आज नई गाड़ी खरीदने में जरा भी नहीं सोचते, वहीं हमें रोज की जरूरतों को पूरा करने के लिए अगले महीने का इंतजार करना पड़ता है. कार भी खरीदी तो वह भी सेकंड हैंड. मुझे तो उस में बैठने में भी शर्म आती है.’

‘दीपाली, इच्छाओं की तो कोई सीमा नहीं होती. वैसे भी घर सामानों से नहीं उस में रहने वालों के आपसी प्यार और विश्वास से बनता है.’

‘प्यार और विश्वास भी वहीं होगा, जहां व्यक्ति संतुष्ट होगा, उस की सारी इच्छाएं पूरी हो रही होंगी.’

‘तो क्या तुम सोचती हो जिन्हें तुम संतुष्ट समझ रही हो, उन में कोई असंतुष्टि नहीं है. वहां जा कर देखो तो पता चलेगा कि वे हम से भी ज्यादा असंतुष्ट हैं.’

‘बस, रहने भी दीजिए…कोरे आदर्शों के सहारे दुनिया नहीं चलती.’

‘अगर ऐसा है तो तुम आजाद हो, अपनी नई दुनिया बसा सकती हो, जैसे चाहे रह सकती हो.’

तब तिलमिला कर उस ने कहा था, ‘बस, अब यही तो सुनने को रह गया था.’

यह कह कर दीपाली तो चली गई पर आकाश वहीं बैठाबैठा अपने सिर के बाल नोंचने लगा. उस बार उन दोनों के बीच लगभग हफ्ते भर अबोला रहा. उन के झगड़े अब इतने बढ़ गए थे कि बच्चे भी सहमने लगे थे, कभीकभी लगता कहीं इन दोनों की तकरार के कारण बच्चे अपना स्वाभाविक बचपन न गंवा बैठें.

इसी की आशंका जाहिर करते हुए मैं ने जबजब दीपाली को समझाना चाहा तबतब एक ही उत्तर मिलता, ‘यह बात मैं भी समझती हूं वसुधा, पर केवल दालरोटी से ही तो काम नहीं चलता. अभी बच्चे छोटे हैं, बड़े होंगे तो उन की पढ़ाई, शादीविवाह में भी तो खर्चा होगा, अगर अभी से कुछ बचत नहीं कर पाए तो आगे कैसे होगा.

रोधो कर जिंदगी घिसटती ही गई. पहला झटका आकाश को तब लगा जब उस के पिताजी को हार्ट अटैक आया. डाक्टर ने आकाश से पिता की बाईपास सर्जरी करवाने की सलाह दी. उस समय आकाश के पास इतने पैसे नहीं थे कि वह खुद के खर्चे पर उन का इलाज करवा पाता. उस के पिताजी उस पर ही आश्रित थे, अत: कानून के अनुसार उन की बीमारी का खर्चा आकाश को कंपनी से मिलना था. उस ने एडवांस के लिए आवेदन कर दिया, पर कागजी खानापूर्ति में ही लगभग 2 महीने निकल गए.

आकाश पिताजी को ले कर अपोलो अस्पताल गया. आपरेशन के पूर्व के टेस्ट चल रहे थे कि उन्हें दूसरा अटैक आया और उन्हें बचाया नहीं जा सका. डाक्टरों ने सिर्फ इतना ही कहा कि इन्हें लाने में देर हो गई.

मां पिताजी से बिछड़ने का दुख सह नहीं पाईं और कुछ ही महीनों के अंतर पर उन की भी मृत्यु हो गई.

आकाश टूट गया था. उसे इस बात का ज्यादा दर्द था कि पैसों के अभाव में वह अपने पिता का उचित उपचार नहीं करा पाया. जबजब इस बात से उस का मन उद्वेलित होता, पिताजी की सीख उस के इरादों को और मजबूत कर देती. अंगरेजी की एक कहावत है ‘ग्रिन एंड बियर’ यानी सहो और मुसकराओ, यही उस के जीने का संबल बन गई थी.

मांपिताजी को तो वह खो चुका था. पल्लव तो अभी छोटा था पर अब बड़ी होती अपनी बेटी की ठीक से परवरिश न कर पाने का दोष भी उस पर लगने लगा था. डोनेशन की मोटी मांग के लिए रकम वह न जुटा पाने के कारण उस स्कूल में बेटी स्मिता का दाखिला नहीं करा पाया जिस में कि दीपाली चाहती थी.

जिस राह पर आकाश चल रहा था उस पर चलने के लिए उसे बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही थी, दुख तो इस बात का था कि उस के अपने ही उसे नहीं समझ पा रहे थे. तनाव के साथ संबंधों में आती दूरी ने उसे तोड़ कर रख दिया. मन ही मन आदर्श और व्यावहारिकता में इतना संघर्ष होने लगा कि वह हाई ब्लडप्रेशर का मरीज बन गया.

अपने ही अंत:कवच में आकाश ने खुद को कैद कर लिया पर दीपाली ने उस की न कोई परवा की और न ही पति को समझना चाहा. उसे तो बस, अपने आकांक्षाओं के आकाश को सजाने के लिए धन चाहिए था. वह रोकताटोकता तो दीपाली सीधे कह देती, ‘अगर तुम अपने वेतन से नहीं कर पाते हो तो लोन ले लो. जिस समाज में रहते हैं उस समाज के अनुसार तो रहना ही होगा. आखिर हमारा भी कोई स्टेटस है या नहीं, तुम्हारे जूनियर भी तुम से अच्छी तरह रहते हैं पर तुम तो स्वयं को बदलना ही नहीं चाहते.’

यह वही दीपाली थी जिस ने मधुयामिनी की रात साथसाथ जीनेमरने की कसमें खाई थीं, सुखदुख में साथ निभाने का वादा किया था. पर जमाने की कू्रर आंधी ने उन्हें इतना दूर कर दिया कि जब मिलते तो लगता अपरिचित हैं. बस, एहसास भर ही रह गया था. बच्चे भी सदा मां का ही पक्ष लेते. मानो वह अपने ही घर में परित्यक्त सा हो गया था.

अपनी लड़ाई आकाश स्वयं लड़ रहा था. प्रमोशन के लिए इंटरव्यू काल आया. इंटरव्यू भी अच्छा ही रहा. पैनल में उस का नाम है, यह पता चलते ही कुछ लोगों ने बधाई देनी भी शुरू कर दी पर जब प्रमोशन लिस्ट निकली तो उस में उस का नाम नहीं था, देख कर वह तो क्या पहले से बधाई देने वाले भी चौंक गए. पता चला कि उस का नाम विजीलेंस से क्लीयर नहीं हुआ है.

उस पर एक सप्लायर कंपनी को फेवर करने का आरोप लगा है, इस के लिए चार्जशीट दायर कर दी गई है. वैसे तो आकाश फाइल पूरी तरह पढ़ कर साइन किया करता था पर यहां न जाने कैसे चूक हो गई. रेट और क्वालिटी आदि की स्कू्रटनी वह अपने जूनियर से करवाया करता था. उन के द्वारा पेश फाइल पर जब वह साइन करता तभी आर्डर प्लेस होता था.

इस फाइल में कम रेट की उपेक्षा कर अधिक रेट वाले को सामान की गुणवत्ता के आधार पर उचित ठहराते हुए आर्डर प्लेस करने की सिफारिश की गई थी. साइन करते हुए आकाश यह भूल गया था कि वह किसी प्राइवेट कंपनी में नहीं एक सरकारी कंपनी में काम करता है जहां सामान की क्वालिटी पर नहीं सामान के रेट पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है.

नियम तो नियम है. इसी बात को आधार बना कर कम रेट वाले कांटे्रक्टर ने आकाश को दोषी ठहराते हुए एक शिकायती पत्र विजीलेंस को भेज दिया था.

नियमों के अनुसार तो गलती उन से हुई थी क्योंकि उन्होंने नियमों की अनदेखी की थी पर उस में उन का अपना कोई स्वार्थ नहीं था वह तो सिर्फ बनने वाले सामान की क्वालिटी में सुधार लाना चाहता था.

आफिस में कानाफूसी प्रारंभ हो गई, ‘बड़े ईमानदार बनते थे. आखिर दूध का दूध पानी का पानी हो ही गया न.’

‘अरे, भाई ऐसे ही लोगों के कारण हमारा विभाग बदनाम है. करता कोई है, भरता कोई है.’

दीपाली के कानों तक जब यह बात पहुंची तो वह तिलमिला कर बोली, ‘तुम तो कहते थे कि मैं किसी का फेवर नहीं करता. जो ठीक होता है वही करता हूं, फिर यह गलती कैसे हो गई. कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुम मुझ से छिपा कर पैसा कहीं और रख रहे हो.’

उस के बाद उस से कुछ सुना नहीं गया, उसी रात उसे जो हार्ट अटैक आया. हफ्ते भर जीवनमृत्यु से जूझने के बाद आखिर उस ने दम तोड़ ही दिया.

खबर सुन कर वसुधा एवं सुभाष, आकाश के साथ बिताए खुशनुमा पलों को आंखों में संजोए आ गए. सदा शिकायतों का पुलिंदा पकड़े दीपाली को इस तरह रोते देख कर, आंखें नम हो आई थीं. पर बारबार मन में यही आ रहा था कि सबकुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया?

मां को रोते देख कर मासूम बच्चे अलग एक कोने में सहमे से दुबके खड़े थे, शायद उन की समझ में नहीं आ रहा कि मां रो क्यों रही हैं तथा पापा को हुआ क्या है. मां को रोता देख कर बीचबीच में बच्चे भी रोने लगते. उन्हें ऐसे सहमा देख कर, दीपाली स्वयं को रोक नहीं पाई तथा उन्हें सीने से चिपका कर रो पड़ी. उसे रोता देख कर नन्हा पल्लव बोला, ‘आंटी, ममा भी रो रही हैं और आप भी लेकिन क्यों. पापा को हुआ क्या है, वह चुपचाप क्यों लेटे हैं, बोलते क्यों नहीं हैं?’

उस की मासूमियत भरे प्रश्न का मैं क्या जवाब देती पर इतना अवश्य सोचने को मजबूर हो गई थी कि बच्चों से उन की मासूमियत छीनने का जिम्मेदार कौन है? एक जिंदादिल, उसूलों के पक्के इनसान को किस ने मारा.

मैं नास्तिक क्यों हूं…

नास्तिकता की ओर बढ़ रही है दुनिया

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मैं नास्तिक क्यों हूं

वीर क्रान्तिकारी शहीद भगत सिंह ने अपनी मौत से पहले लाहौर सेंट्रल जेल में कैद के दौरान एक लेख लिखा था – ‘मैं नास्तिक क्यों हूं. इस लेख का प्रथम प्रकाशन लाहौर से छपने वाले अखबार ‘दि पीपल’ में 27 सितम्बर 1931 में हुआ था. यह लेख भगत सिंह के द्वारा लिखित साहित्य के सर्वाधिक चर्चित और प्रभावशाली हिस्सों में गिना जाता है और बाद में इसका कई बार प्रकाशन हुआ. इस लेख में भगत सिंह ने ईश्वर कि उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किये हैं और इस संसार के निर्माण, मनुष्य के जन्म, मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ साथ संसार में मनुष्य की दीनता, उसके शोषण, दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है.

उन्होंने मनुष्य द्वारा ईश्वर की परिकल्पना के सम्बन्ध में लिखा है- ‘विश्वास’ कष्टों को हलका कर देता है. यहां तक कि उन्हें सुखकर बना सकता है. ईश्वर में मनुष्य को अत्यधिक सान्त्वना देने वाला एक आधार मिल सकता है. उसके बिना मनुष्य को अपने ऊपर निर्भर करना पड़ता है. तूफान और झंझावात के बीच अपने पांवों पर खड़ा रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है.

प्रतिभा उम्र की मोहताज नहीं

उन्होंने लिखा – ईश्वर में विश्वास रखने वाला हिन्दू पुनर्जन्म होने पर राजा होने की आशा कर सकता है. एक मुसलमान या ईसाई स्वर्ग में व्याप्त समृद्धि के आनन्द की तथा अपने कष्टों और बलिदान के लिए पुरस्कार की कल्पना कर सकता है. किन्तु मैं क्या आशा करूं? मैं जानता हूं कि जिस क्षण रस्सी का फन्दा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख़्ता हटेगा, वह पूर्ण विराम होगा. वह अन्तिम क्षण होगा. मैं या मेरी आत्मा सब वहीं समाप्त हो जाएगी. आगे कुछ न रहेगा. एक छोटी सी जूझती हुई जिन्दगी, जिसकी कोई ऐसी गौरवशाली परिणति नहीं है, अपने में स्वयं एक पुरस्कार होगी. यदि मुझमें इस दृष्टि से देखने का साहस हो. बिना किसी स्वार्थ के यहां या यहां के बाद पुरस्कार की इच्छा के बिना, मैंने अनासक्त भाव से अपने जीवन को स्वतन्त्रता के ध्येय पर समर्पित कर दिया है, क्योंकि मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था. जिस दिन हमें इस मनोवृत्ति के बहुत-से पुरुष और महिलाएं मिल जाएंगे, जो अपने जीवन को मनुष्य की सेवा और पीड़ित मानवता के उद्धार के अतिरिक्त कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते, उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारम्भ होगा.

और भी हैं नास्तिक

शहीद भगत सिंह ही नहीं, तर्क की कसौटी पर धर्म और आस्था को कसने वाले और उसे हर लिहाज से कमजोर पाने वाले बुद्धिजीवियों की बात करें तो इस फेहरिस्त में बड़े-बड़े नाम शामिल हैं, जिन्होंने ईश्वर, धर्म और कर्मकांडों को अपनी जीवन से पूरी तरह खारिज कर दिया.

यूज ऐंड थ्रो के दौर में जानवर

इरोड वेंकट नायकर रामासामी ‘पेरियार’(1879-1973) बीसवीं सदी के तमिलनाडु के एक प्रमुख राजनेता थे. भारतीय तथा विशेषकर दक्षिण भारतीय समाज के शोषित वर्ग के लोगों की स्थिति सुधारने में इनका नाम प्रमुखता से लिया जाता है. स्व-सम्मान आंदोलन के इस नास्तिक और बुद्धिवादी नेता ने जस्टिस पार्टी का गठन किया, जिसका सिद्धान्त रूढ़िवादी हिन्दुत्व का विरोध था. असम्बद्धता पर उनके विचार जाति व्यवस्था के उन्मूलन पर आधारित हैं. उनका मानना था कि अगर जाति व्यवस्था से निजात पानी है तो धर्म जैसी चीज का अंत होना आवश्यक है.

पेरियार का जन्म 17 सितम्बर 1879 को पश्चिमी तमिलनाडु के इरोड में एक सम्पन्न, परम्परावादी हिन्दू परिवार में हुआ था. 1885 में उन्होंने एक स्थानीय प्राथमिक विद्यालय में दाखिला लिया. कोई पांच साल से कम की औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद ही उन्हें अपने पिता के व्यवसाय से जुड़ना पड़ा. उनके घर पर भजन तथा उपदेशों का सिलसिला चलता ही रहता था. बचपन से ही वे इन उपदशों में कही बातों की प्रामाणिकता पर सवाल उठाते रहते थे. हिन्दू महाकाव्यों तथा पुराणों में कही बातों की परस्पर विरोधी तथा बेतुकी बातें उनकी तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती थीं. वे बाल विवाह, देवदासी प्रथा, विधवा पुनर्विवाह के विरुद्ध अवधारणा, स्त्रियों तथा दलितों के शोषण के पूर्ण विरोधी थे. उन्होंने हिन्दू वर्ण व्यवस्था का भी बहिष्कार किया था.

आस्था पर अर्थ का चढ़ा आवरण

विनायक दामोदर सावरकर (1883-1966) को कौन नहीं जानता. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रख्यात हिन्दू राष्ट्रवादी नेता के बारे में यह बात कम लोग जानते हैं कि सावरकर पूरी तरह नास्तिक और एक कट्टर तर्कसंगत व्यक्ति थे. वे रूढ़िवादी हिन्दू विश्वास के घोर विरोधी थे. गाय की पूजा को घोर अंधविश्वास मानते थे.

सत्येंद्र नाथ बोस (189 4-1974) एक भौतिक विज्ञानी थे, जो गणितीय भौतिकी में विशेषज्ञता रखते थे. जर्मनी के ख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन और सत्येंद्र नाथ बोस ने मिल कर बोस-आइंस्टीन स्टैटिस्टिक्स की खोज की थी. अपने वैज्ञानिक योगदान के लिए याद किये जाने वाले बोस पूरी तरह एक नास्तिक व्यक्ति थे.

मेघनाद साहा (189 3 – 1956) एक नास्तिक खगोल-भौतिकवादी थे जो कि साहा समीकरण के विकास के लिए याद किये जाते हैं, जो सितारों में रासायनिक और भौतिक स्थितियों का वर्णन करता था.

जवाहरलाल नेहरू (188 9 -1964), भारत के पहले प्रधानमंत्री भी कुछ हद तक नास्तिक थे. उन्होंने अपनी आत्मकथा, टावर्ड फ्रीडम (1936), में धर्म और अंधविश्वास पर अपने विचारों के बारे में लिखा था.

सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर (1910-1995), खगोल-भौतिकीविद थे, जो सितारों की संरचना और विकास पर अपने सैद्धांतिक काम के लिए जाने जाते हैं. उन्हें 1983 में भौतिकी में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. चंद्रशेखर पूरी तरह नास्तिक थे. उनका ईश्वर या धर्म जैसी किसी बात पर विश्वास नहीं था.

गलती गुरतेज की

गोपाराजू रामचंद्र राव (1902-1975), जिनका उपनाम ‘गोरा’ था और वह अपने उपनाम से ही अधिक ख्यात हुए, एक समाज सुधारक, जाति-विरोधी कार्यकर्ता और नास्तिक थे. वह और उनकी पत्नी, सरस्वती गोरा (1912-2007) भी एक नास्तिक और समाज सुधारक महिला थीं. उन्होंने वर्ष 1940 में बकायदा एक नास्तिक केन्द्र  की स्थापना की. इस नास्तिक केन्द्र ने सामाजिक परिवर्तन के लिए उल्लेखनीय कार्य किये. गोरा ने वर्ष 1972 में लिखी अपनी किताब में सकारात्मक नास्तिक के बारे में विस्तार से लिखा. उन्होंने सन् 1972 में पहले विश्व नास्तिक सम्मेलन का भी आयोजन किया. इसके बाद, नास्तिक केन्द्र ने विजयवाड़ा और अन्य स्थानों में कई विश्व नास्तिक सम्मेलनों का आयोजन किया.

खुशवंत सिंह (1915-2014), सिख निष्कर्षण के एक प्रमुख और विपुल लेखक, स्पष्ट रूप से गैर-धार्मिक थे.

इसी कड़ी में कल आगे पढ़िए- बौद्ध धर्म काल्पनिक ईश्वर में विश्वास नहीं करता

फिल्म समीक्षा: गंभीर विषय पर एक कमजोर फिल्म ‘तर्पण’

फिल्म: तर्पण

निर्देशक: नीलम आर सिंह

कलाकार: नंद किशोर पंत, नीलम कुमारी, संजय कुमार, अरूण शेखर और अन्य

अवधि: दो घंटे, छह मिनट

रेटिंग: ढाई स्टार

डिजिटल युग में पहुंचने के बावजूद हमारे देश में लड़कियों और औरतों को वह सम्मान नहीं मिल पाया है, जिसकी वह हकदार हैं. इस मुद्दे को उठाने के लिए लेखक व निर्देशक नीलम आर सिंह ने शिवमूर्ति के उपन्यास ‘‘तर्पण’’ पर इसी नाम की फिल्म बना डाली, जिसमें जात-पात के भेदभाव और उसके लिए होते संघर्ष के बीच फंसी एक नारी की पीड़ा की मार्मिक दास्तान है.

बौलीवुड ही नहीं है भारतीय सिनेमा

कहानीः

शिवमूर्ति के उपन्यास ‘तर्पण’ पर आधारित फिल्म ‘‘तर्पण’’ की कहानी युगों से भारत में चले आ रहे जातिगत संघर्ष और सामाजिक विसंगतियों की गाथा है. ग्रामीण परिवेश की यह कहानी उत्तर प्रदेश के एक गांव की है, जो कि दो टोलों में बंटा हुआ है. एक टोला ब्राम्हणों का यानी कि ऊंची जाति का है तो दूसरा टोला हरिजनों यानी नीच जाति का है. हरिजन टोला में रहने वाली रजपतिया (नीलम कुमारी) एक दिन घूमते-घूमते गन्ना चूसने के लिए गांव के रसूखदार ब्राम्हण धर्मदत्त उपाध्याय( राहुल चैहाण) के खेतों के अंदर चलीजाती है, जहां धर्मदत्त के बेटे चंदर उपाध्याय (अभिषेक मदरेचा)उसका शारीरिक शोषण करने का प्रयास करता है. पर गांव की दो औरतों के आ जाने से वह रजपतिया को छोड़ देता है. जब इस घटना की खबर भीम पार्टी के भाई जी (संजय कुमार) तक पहुंचती है, तो वह अपने स्वार्थ के चलते गांव पहुंचकर रजपतिया के पिता प्यारे (नंद किशोर पंत) को समझाकर पुलिस में रपट लिखाने के लिए कहते हैं. भीम पार्टी के नेता खुद साथ में पुलिस स्टेशन जाते हैं. फिर शुरू होता है जातिगत संघर्ष को उजागर करने वाला बदसूरत शीतयुद्ध.

20 साल बाद फिर लौट रहा है ‘छम्मा-छम्मा’

निर्देशन…

फिल्म की निर्देशक नीलम आर सिंह ने इस फिल्म को डाक्यू ड्रामा और यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ बनाया है. कहीं कोई बेवजह कामेलो ड्रामा या छाती पीट-पीटकर रूदन नहीं है. पूर्वाग्रह से बचते हुए दो समुदायों के बीच संतुलन बनाए रखना एक फिल्मकार के लिए टेढ़ी खीर होती है, इसमें नीलम आर सिंह पूरी तरह से सफल रही हैं. फिल्म इस बात को उकेरने में सफल रहती है कि समाज में किस तरह राजनेता अपनी नेतागीरी को चमकाने के लिए दो जातियों व समुदायों के बीच संघर्ष कराते रहते हैं.

फिल्म की कमियां…

जाति गत संघर्ष और स्वार्थी नेता द्वारा बदले की आग में विवश करने पर होने वाले जातिगत संघर्ष में फंसी हरिजन लड़की रजपतिया की पीड़ा बेहतर ढंग से उभरने की बजाय बहुत सतही रह जाती है. फिल्म भावनात्मक स्तर पर बहुत शुष्क है. यदि निर्देशक ने जातिगत विभाजन व राजनीति को समझकर आधुनिकता के साथ पेश किया होता तो यह एक बेहतरीन फिल्म बन सकती थी. एक पीड़ित लड़की का दर्द दर्शको के दिलों तक न पहुंचने के लिए लेखक व निर्देशक ही दोषी कहे जाएंगे.

इस में अबराम की गलती नहीं

 एक्टिंग…

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो अपराध बोध और भाग्य के बीच फंसे रजपतिया के पिता प्यारे के किरदार में नंद किशोर पंत ने अपने अभिनय से फिल्म में जान डाल दी है. लालच व सम्मान के बीच फंसकर पीड़ित होने वाली मासूम लड़की राजपतिया का दर्द दर्शकों तक ठीक से नही पहुंच पाता, इसमें नीलम कुमारी के अभिनय की कमी की बनिस्बत लेखक व निर्देशक की कमी उभर कर आती है. रजपतिया के चरित्र को ठीक से लिखा ही नहीं गया. उसकी पीड़ा/दर्द को उभारने वाले सीन्स की कमी है. नेता के किरदार में संजय कुमार भी प्रभावित करते हैं. पुरूषत्व और उंची जाति के पोषक चंदर के किरदार में अभिषेक मंदरेचा जमे हैं. लेकिन धर्मदत्त के घर में नौकरानी के रूप में कार्यरत हरिजन टोला की महिला लवंगिया के किरदार में पद्मजा रौय हर किसी पर भारी पड़ जाती हैं.

धार्मिक ढोंग के साए में हुई रणवीर-दीपिका की शादी 

Edited by- Nisha Rai

‘प्यार का पंचनामा’ एक्ट्रेस की आंखों में क्यों आए आंसू

डायरेक्टर लव रंजन की फिल्में ‘प्यार का पंचनामा’ सीरीज में नजर आने वाली हीरोइन सोनाली सहगल आपको जरूर याद होगी. बता दें कुछ समय पहले ही आई ‘प्यार का पंचनामा 2’ में ‘दीदी तेरा देवर दीवाना’ वाला सीन कौन भूल सकता है, जिसे देख दर्शक हंस-हंसकर लोट-पोट हो गए थे.

फोटोग्राफ : अति धीमी गति से सरकती फिल्म

हाल ही में सोनाली सहगल ने मीडिया को  इंटरव्यू दिया हैं, जिसमें उन्होंने नकारी दी हैं कि कुछ समय पहले वो एक फिल्म के औडिशन पर गई थीं, जिसमें उनसे शरीर में कुछ अप्राकृतिक बदलाव करने को कहा गया था. ये सुनकर सोनाली सहगल का रो-रो कर बुरा हाल हो गया था.

मेेरे प्यारे प्राइम मिनिस्टर : उंची दुकान फीका पकवान

सोनाली ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए बताया, ‘मैं उस डायरेक्टर का नाम नहीं लेना चाहती क्योंकि यह गलत होगा. उनकी एक सोच थी, जिसमें मैं फिट नहीं बैठ रही थी लेकिन मैं अपनी शरीर में कोई बदलाव केवल फिल्म के लिए नहीं कराना चाहती थी. ‘मैं एक भावुक इंसान हूं, इसलिए जब मैं घर आई तो मैं बहुत रोई. मेरे हाथ से एक बड़ी फिल्म निकल चुकी थी.

हामिद : कश्मीर के वर्तमान हालातों का सजीव चित्रण…

सोनाली ने इंडस्ट्री में व्याप्त सोच पर बात करते हुए कहा, कई सारे लोग इसी सोच के साथ बड़े होते हैं कि महिलाओं को ऐसा दिखना चाहिए, ऐसा लगना चाहिए. हीरोइन है तो उसकी बौडी इस तरह की होनी चाहिए.

डिग्री और पत्नी त्याग पर खामोशी क्यों ?

‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ महात्मा गांधी की गैरमामूली किताब इस लिहाज से भी है कि इसमें उन्होंने वाकई खुद को उद्घाटित कर के रख दिया है. अपनी निजता सार्वजनिक करने पर गांधी कहीं हिचके या लड़खड़ाए नहीं हैं. यहां तक कि पत्नी के साथ अपने यौन व्यवहार,  किशोरावस्था में छुपकर धूम्रपान और हस्तमैथुन के साथ साथ मांसाहार करने का जिक्र भी उन्होंने बिना किसी संकोच या पूर्वाग्रह के किया हैं. अपने बारे में इस स्तर तक सच बोलने का दुसाहस हर कोई नहीं कर सकता. लोग बहुत कुछ छिपा जाते हैं इस दोहरेपन से गांधी ने खुद को बचाए रखा शायद इसीलिए उन्हें महात्मा की उपाधि मिली और राष्ट्रपिता के खिताब से भी वें नवाजे गए.

भोपाल में होगा हिंदुत्व का लिटमस टेस्ट

हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या किसी अन्य की तुलना गांधी से करना उनका अनादर और अपमान करना ही है. लेकिन मोदी द्वारा फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार को दिये गए चर्चित  अंतरंग साक्षात्कार में कई ऐसी बातें और पहलू गायब थे, जिनके प्रति जिज्ञासा आम लोगों में है. इनमें से अहम बात ये  है, नरेंद्र मोदी की संदिग्ध शैक्षणिक योग्यता और उनका अपनी पत्नी जसोदाबेन को बेवजह छोड़ देना जिसकी त्रासदी और मानसिक व सामाजिक यंत्रणा वें आज तक भुगत रहीं हैं.

इस प्रायोजित इंटरव्यू में मोदी खुद को महान ही बताते दिखे जो अहम की पराकाष्ठा ही कही जाएगी. इस देश और परिवेश में खुद को महान और अवतार बताने का पहला पुराना टोटका है कि अपने जीवन वृत को राम और कृष्ण की लीलाओं की तरह प्रस्तुत करो. मोदी के पास आम खाने पैसे नहीं होते थे तो वे आम तोड़कर खाते थे, जैसी बातें उनके प्रति तात्कालिक सहानुभूति तो उत्पन्न करती हैं. लेकिन उनके प्रति आदर या सम्मान का भाव पैदा नहीं करतीं क्योंकि आज भी यानि उनके राज में करोड़ों लोग भूख और अभावों से ग्रस्त और त्रस्त हैं. जिनके बाबत भव्य लान या वातानुकूलित ड्राइंग रूम में बैठकर बतियाने से वे डरते हैं. इनके प्रति उनकी संवेदना शुद्ध राजनैतिक है. जो वोट जुगाड़ने का जरिया मात्र है नहीं तो लाल बहादुर शास्त्री की सादगी और दो धोतियों में प्रधानमंत्रित्व काल गुजार देने का प्रसंग कभी उनके लिए आत्म प्रचार या ब्रांडिंग का हथियार या जरिया नहीं बना.

बंगाल में क्यों गरमा रही है राजनीति

नरेंद्र मोदी अगर अपनी आत्ममुग्धता के लिए मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं तो यह उनकी जरूरत भी हो गई है, और मजबूरी भी क्योंकि उनकी 2014 बाली छवि को कभी का पलीता लग चुका है. इसमें कोई शक नहीं कि 5 फीसदी के लगभग एक प्रशंसक वर्ग उनका तैयार हो चुका है, जो उनकी हर अदा पर नई-नई प्रेयसी की तरह फिदा रहता है लेकिन इससे दस गुना ज्यादा एक और वर्ग भी निर्मित हो चुका है. जिसे इन बातों से या बातों में कोई दिलचस्पी नहीं कि वे अपनी मां को प्यार करते हैं और उनकी मां भी उन्हें चाहती हैं.

ये और इस तरह की बातें वोट करने का आधार नहीं हैं. आधार है उनका पांच साल का कार्यकाल जिसका मूल्यांकन 23 मई को होगा जिसमें वे फेल भी हो सकते हैं. मैं पहाड़ों पर गया था… मैंने ये पढ़ा वो पढ़ा… स्कूली जीवन में मैं यह करता था, वो करता था…. ये बातें भक्तों को रास आ रहीं हैं क्योंकि इस इंटरव्यू में अक्षय कुमार का रोल, बस शरीर होने भर का था नहीं तो मोदी खुद ही सवाल कर रहे थे और खुद ही जबाब दे रहे थे. किसी पेशेवर पत्रकार के सामने तो मोदी का लड़खड़ा जाना तय था. क्योंकि वह उन्हें आदर्श, महात्मा या अवतार नहीं मानता और पूछता कि आपने एमए की डिग्री किस कालेज से और कब ली हैं और यही मोदी नहीं चाहते.

चुनावी जंग में क्यों भाजपा से पिछड़ रही कांग्रेस?

कम पढ़े लिखे होना गुनाह नहीं है, गुनाह है जनता से सच छिपाना.  इन्दिरा गांधी भी कम  शिक्षित थीं लेकिन उनकी शिक्षा कभी विवादों या शक के दायरे में नहीं रही. पति फिरोज गांधी से उनका अलगाव भी कभी बहुत ज्यादा चर्चा का विषय नहीं बना. इन्दिरा गांधी या और किसी प्रधानमंत्री ने कभी ऐसे साक्षात्कार नहीं दिये जिसमें सिर्फ वें ही वें और उनकी अतिमानव बाली छवि प्रदर्शित होती हो. बात जहां तक अपनी भूतपूर्व गरीबी का हवाला देकर वाहवाही लूटने की है तो कम ही लोग जानते हैं कि मनमोहन सिंह मोदी से ज्यादा अभावों में पढ़े लिखे हैं. पर उन्होंने कभी सार्वजनिक रूप से इसका रोना चुनावी फायदे के लिए नहीं रोया.

नरेंद्र मोदी में अगर सच बोलने की हिम्मत और माद्दा है तो उन्हें अपनी रहस्मय पोशाक उतारनी ही होगी. जिसके चलते विरोधी हर कभी उनकी बोलती बंद कर देते हैं और यह सच उन्हें रियल हीरो भी बना सकता है, नहीं तो उनकी इमेज अभी एक ऐसे नेता की है जो काल्पनिक बातें भी इस तरह करता है मानों वे घटित हुई ही हो.

मुद्दों की बात, जातिधर्म का साथ

प्रेम की इबारत

रात के अंधियारे में पूरा मांडवगढ़ अब कितना खामोश रहता है, यहां की हर चीज में एक भयानकता झलकती है. धीरेधीरे खंडहरों में तबदील होते महल को देख कर इतना तो लगता है कि ये कभी अपार वैभव और सुविधाओं की अद्भुत चमक से रोशन रहते होंगे. कभी गूंजती होंगी यहां रहने वाले सैनिकों की तलवारों की खनक, घोड़ों के टापों की आवाजें, हाथियों की चिंघाड़, जिस की गवाह हैं ये पहाडि़यां, ये दीवारें उस शौर्यगाथा की, जो यहां के चप्पेचप्पे पर बिखरी पड़ी हैं.

यहां बने महल का हर कोना, जिस ने देखे होंगे वह नजारे, युद्ध, संगीत और गायन जिस की स्वर लहरियां बिखरी होेंगी यहां की फिजा में. काश, ये खामोश गवाह बोल सकते तो न जाने कितने भेद खोल देते और खोल देते हर वह राज, जो दफन हैं इन की दीवारों में, इन के दिलों में, इन के फर्श में, मेहराबों में, झरोखों में, सीढि़यों में और यहां के ऊंचेऊंचे गुंबदों में.’’

‘‘चुप क्यों हो गए दोस्त, मैं तो सुन रहा था. तुम ही खामोश हो गए दास्तां कहतेकहते,’’ रानी रूपमती के महल के एक झरोखे ने दूसरे झरोखे से कहा.

‘‘नहीं कह पाऊंगा दोस्त,’’ पहला वाला झरोखा बोलतेबोलते खामोश हो चुका था. किंतु महल की दीवारों ने भी तन्मयता से उन की बातें सुनी थीं. आखिरकार जब नहीं रहा गया तो एक दीवार बोल ही पड़ी :

‘‘दिन भर यहां सैलानियों की भीड़ लगी रहती है. देशीविदेशी इनसानों ने हमारी छाती पर अपने कदमों के जाने कितने निशान बनाए होंगे. अनगिनत लोगों ने यहां की गाथाएं सुनी हैं, विश्व में प्रसिद्ध है यह स्थान.

‘‘मांडवगढ़ के सुल्तानों का इतिहास, उन की वीरता, शौर्य और ऐश्वर्य के तमाम किस्सों ने, जो लेखक लिख गए हैं, यहां के इतिहास को अमर कर दिया है. समूचे मांडव में बिखरा पड़ा है प्रकृति का अद्भुत सौंदर्य. नीलकंठ का रमणीक स्थान हो या हिंडोला महल की शान, चाहे जामा मसजिद की आन हो, हर दीवार, गुंबद अपने में समेटे हुए है एक ऐसा रहस्य, जहां तक बडे़बडे़ इतिहासकार भी कहां पहुंच पाए हैं.’’

‘‘हां, तुम सच कहती हो, ये कहां पहुंचे?’’ दूसरी दीवार बोली, ‘‘यह तो हम जानते हैं, मांडव का हर वह किला, उस की हर मेहराब, हर सीढ़ी, हर दीवार जो आज चुप है…जानती हो बहन, वह बेबस है. काश, कुदरत ने हमें भी जबां दी होती तो हम बोल पड़ते और वह सब बदल जाता, जो यहां के बारे में दोहराया जाता रहा है, बताया जाता रहा है, कहा जाता रहा है.

‘‘हम ने बादशाह अकबर की यात्रा देखी है. कुल 4 बार अकबर ने मांडवगढ़ के सौंदर्य का आनंद उठाया था. हम ने अपनी आंखों से देखा है उस अकबर महान की छवि को, जो आज भी हमारी आंखों में बसी हुई है. हम ने सुल्तान जहांगीर की वह शानोशौकत भी देखी है जिस का आनंद उठाया था, यहां की हवाओं ने, पत्तों ने, इस चांदनी ने.’’

पहली दीवार की तरफ से कोई संकेत न आते देख दूसरी दीवार ने पूछा, ‘‘सुनो, बहन, क्या तुम सो गईं?’’

‘‘नहीं बहन, कहां नींद आती है,’’ पहली दीवार ने एक ठंडी आह भर कर कहा.

‘‘देखो तो, रात की खामोशी में हवाएं उन मेहराबों को, झरोखों को चूमने के लिए कितनी बेताब हो जाती हैं, जहां कभी रानी रूपमती ने अपने सुंदर और कोमल हाथों से स्पर्श किया था,’’ पहली दीवार बोली, ‘‘ताड़ के दरख्तों को सहलाती हुई आती ये हवाएं धीरेधीरे सीढि़यों पर कदम रख कर महल के ऊपरी हिस्से में चली जाती हैं, जहां से संगीत की पुजारिन और सौंदर्य की मलिका रानी रूपमती कभी सवेरेसवेरे नर्मदा के दर्शन के बाद ही अपनी दिनचर्या शुरू करती थीं.’’

‘‘हां बहन, मैं ने भी देखा है,’’ दूसरी दीवार बोली, ‘‘इस हवा के पागलपन को महसूस किया है. यह रात में भी कभीकभी यहीं घूमती है. सवेरे जब सूरज की किरणों की लालिमा पहाडि़यों पर बिखरने लगती है तो यह छत पर उसी स्थान पर अपनी मंदमंद खुशबू बिखेरती है, जहां कभीकभी रूपमती जा कर खड़ी हो जाती थीं. कैसी दीवानगी है इस हवा की जो हर उस स्थान को चूमती है जहांजहां रूपमती के कदम पडे़ थे.’’

पहली दीवार कहां खामोश रहने वाली थी. झट बोली, ‘‘हां, इन सीढि़यों पर रानी की पायलों की झंकार आज भी मैं महसूस करती हूं. मुझे लगता है कि पायलों की रुनझुन सीढ़ी दर सीढ़ी ऊपर आ रही है.’’

दीवारों की बातें सुन कर अब तक खामोश झरोखा बोल पड़ा, ‘‘आप दोनों ठीक कह रही हैं. वह अनोखा संगीत और रागों का मिलन मैं ने भी देखा है. क्या उसे कलम के ये मतवाले देख पाएंगे? नहीं…बिलकुल नहीं.

‘‘पहाडि़यों से उतरती हुई संगीत की वह मधुर तान, बाजबहादुर के होने का आज भी मुझे एहसास करा देती है कि बाजबहादुर का संगीत प्रेम यहां के चप्पेचप्पे पर बिखरा हुआ है.’’

उपरोक्त बातचीत के 2 दिन बाद :

रात की कालिमा फिर धीरेधीरे गहराने लगी. ताड़ के पेड़ों को वही पागल हवाएं सहलाने लगीं. झरोखों से गुजर कर रूपमती के महल में अपने अंदाज दिखाने लगीं.

झरोखों से रात की यह खामोशी सहन नहीं हो रही थी. आखिरकार दीवारों की ओर देख कर एक झरोखा बोला, ‘‘बहन, चुप क्यों हो. आज भी कुछ कहो न.’’

दीवारों की तरफ से कोई हलचल न होते देख झरोखे अधीर हो गए फिर दूसरा बोला, ‘‘बहन, मुझ से तुम्हारी यह चुप्पी सहन नहीं हो रही है. बोलो न.’’

तभी झरोखों के कानों में धीमे से हवा की सरगोशियां पड़ीं तो झरोखों को लगा कि वह भी बेचैन थीं.

‘‘तुम दोनों आज सो गई हो क्या?’’ हवा ने पूरे वेग से अपने आने का एहसास दीवारों को कराया.

‘‘नहीं, नहीं,’’ दीवारें बोलीं.

‘‘देखो, आज अंधेरा कुछ कम है. शायद पूर्णिमा है. चांद कितना सुंदर है,’’ हवा फिर अपनी दीवानगी पर उतरी.

‘‘मैं आज फिर नीलकंठ गई तो वहां मुझे फूलों की खुशबू अधिक महसूस हुई. मैं ने फूलों को देखा और उन के पराग को स्पर्श भी किया. साथ में उन की कोमल पंखडि़यों और पत्तियों को भी….’’

‘‘क्या कहा तुम ने, जरा फिर से तो कहो,’’ एक दीवार की खामोशी भंग हुई.

हवा आश्चर्य से बोली, ‘‘मैं ने तो यही कहा कि फूलों की पंखडि़यों को…’’

‘‘अरे, नहीं, उस से पहले कहा कुछ?’’ दीवार ने फिर प्रश्न दोहराया.

‘‘मैं ने कहा फूलों के पराग को… पर क्या हुआ, कुछ गलत कहा?’’ हवा के चेहरे पर अपराधबोध झलक रहा था. मानो वह कुछ गलत कह गई हो. वह थम सी गई.

‘‘अरे, तुम को थम जाने की जरूरत नहीं… तुम बहो न,’’ दीवार ने उस की शंका दूर की.

हवा फिर अपनी गति में लौटने लगी.

‘‘वह जो लंबा लड़का आता है न और उस के साथ वह सांवली सी सुंदर लड़की होती है…’’

‘‘हां…हां… होती है,’’ झरोखा बोल पड़ा.

‘‘उस लड़के का नाम पराग है और आज ही उस लड़की ने उसे इस नाम से पुकारा था,’’ दीवार का बारीक मधुर स्वर उभरा.

‘‘अच्छा, इस में आश्चर्य की क्या बात है? हजारों लोग  मांडव की शान देखने आतेजाते हैं,’’ हवा ने चंचलता बिखेरी.

‘‘किस की बात हो रही है,’’ चांदनी भी आ कर अब अपनी शीतल किरणों को बिखेरने लगी थी.

‘‘वह लड़का, जो कभीकभी छत पर आ कर संगीत का रियाज करता है और वह सांवलीसलोनी लड़की उसे प्यार भरी नजरों से निहारती रहती है,’’ दीवार ने अपनी बात आगे बढ़ाई.

‘‘अरे, हां, उसे तो मैं भी देखती हूं जो घंटों रियाज में डूबा रहता है,’’ हवा ने मधुर शब्दों में कहा, ‘‘और लड़की बावली सी उसे देखती है. लड़का बेसुध हो जाता है रियाज करतेकरते, फिर भी उस की लंबीलंबी उंगलियां थकती नहीं… सितार की मधुर ध्वनि पहाडि़यों में गूंजती रहती है .’’

‘‘उस लड़की का क्या नाम है?’’ झरोखा, जो खामोश था, बोला.

‘‘नहीं पता, देखना कहीं मेरे दामन पर उस लड़की का तो नाम नहीं,’’ दीवार ने झरोखे से कहा.

‘‘नहीं, तुम्हारे दामन में पराग नाम कहीं भी उकेरा हुआ नहीं है,’’ एक झरोखा अपनी नजरों को दीवार पर डालते हुए बोला.

‘‘हां, यहां आने वाले प्रेमी जोड़ों की यह सब से गंदी आदत है कि मेरे ऊपर खुरचखुरच कर अपना नाम लिख जाते हैं, जिन की खुद की कोई पहचान नहीं. भला यों ही दीवारों पर नाम लिख देने से कोई अमर हुआ है क्या?’’ दीवार का स्वर दर्द भरा था.

‘‘कहती तो तुम सच हो,’’ शीतल चांदनी बोली, ‘‘मांडव की लगभग हर किले की दीवारों का यही हाल है.’’

‘‘हां, बहन, तुम सच कह रही हो,’’ नर्मदा की पवित्रता बोली, जो अब तक खामोशी से उन की यह बातचीत सुन रही थी.

‘‘तुम,’’ झरोखा, दीवार, हवा और शीतल चांदनी के अधरों से एकसाथ निकला.

‘‘हर जगह नाम लिखे हैं, ‘सविता- राजेश’, ‘नैना-सुनीला’, ‘रमेश, नीता को नहीं भूलेगा’, ‘रीतू, दीपक की है’, ‘हम दोनों साथ मरेंगे’, ‘हमारा प्रेम अमर है’, ‘हम दोनों एकदूसरे के लिए बने हैं.’ यही सब लिखते हैं ये प्रेमी जोडे़,’’ नर्मदा की पवित्रता ने कहा.

‘‘बडे़ कठोर प्रेमी हैं ये लोग, जिस बेदर्दी से दीवारों पर लिखते हैं, इस से क्या इन का प्रेम अमर हो गया?’’ दीवार के स्वर में अब गुस्सा था.

‘‘ये क्या जानें प्रेम के बारे में?’’ झरोखे ने कहा, ‘‘प्रेम था रानी रूपमती का. गायन व संगीत मिलन, सबकुछ अलौकिक…’’

नर्मदा की पवित्रता की मुसकान उभरी, ‘‘मेरे दर्शनों के बाद रूपमती अपना काम शुरू करती थीं, संगीत की पूजा करती थीं.’’

बिलकुल, या फिर प्रेम का बावलापन देखा है तो मैं ने उस लड़की की काली आंखों में, उस के मुसकराते हुए होंठों में’’, हवा बोली, ‘‘मैं ने कई बार उस के चंदन से शीतल, सांवले शरीर का स्पर्श किया है. मेरे स्पर्श से वह उसी तरह सिहर उठती है जिस तरह पराग के छूने से.’’

चांदनी की किरणों में हलचल होती देख कर हवा ने पूछा, ‘‘कुछ कहोगी?’’

‘‘नहीं, मैं सिर्फ महसूस कर रही हूं उस लड़की व पराग के प्रेम को,’’ किरणों ने कहा.

‘‘मैं ने छेड़ा है पराग के कत्थई रेशमी बालों को,’’ हवा ने कहा, ‘‘उस के कत्थई बालों मेें मैं ने मदहोश करने वाली खुशबू भी महसूस की है. कितनी खुशनसीब है वह लड़की, जिसे पराग स्पर्श करता है, उस से बातें करता है धीमेधीमे कही गई उस की बातों को मैं ने सुना है…देखती रहती हूं घंटों तक उन का मिलन. कभी छेड़ने का मन हुआ तो अपनी गति को बढ़ा कर उन दोनों को परेशान कर देती हूं.’’

‘‘सितार के उस के रियाज को मैं भी सुनता रहता हूं. कभी घंटों तक वह खोया रहेगा रियाज में, तो कभी डूबने लगेगा उस लड़की की काली आंखों के जाल में,’’ झरोखा चुप कब रहने वाला था, बोल पड़ा.

ताड़ के पेड़ों की हिलती परछाइयों से इन की बातचीत को विराम मिला. एक पल के लिए वे खामोश हुए फिर शुरू हो गए, लेकिन अब सोया हुआ जीवन धीरे से जागने लगा था. पक्षियों ने अंगड़ाई लेने की तैयारी शुरू कर दी थी.

दीवार, झरोखा, पर्यटकों के कदमों की आहटों को सुन कर खामोश हो चले थे.

दिन का उजाला अब रात के सूनेपन की ओर बढ़ रहा था. दीवार, झरोखा, हवा, किरण आदि वह सब सुनने को उत्सुक थे, जो नर्मदा की पवित्रता उन से कहने वाली थी पर उस रात कह नहीं पाई थी. वे इंतजार कर रहे थे कि कहीं से एक अलग तरह की खुशबू उन्हें आती लगी. सभी समझ गए कि नर्मदा की पवित्रता आ गई है. कुछ पल में ही नर्मदा की पवित्रता अपने धवल वेश में मौजूद थी. उस के आने भर से ही एक आभा सी चारों तरफ बिखर गई.

‘‘मेरा आप सब इंतजार कर रहे थे न,’’ पवित्रता की उज्ज्वल मुसकान उभरी.

‘‘हां, बिलकुल सही कहा तुम ने,’’ दीवार की मधुर आवाज गूंजी.

उन की जिज्ञासा को शांत करने के लिए पवित्रता ने धीमे स्वर में कहा.

‘‘क्या तुम सब को नहीं लगता कि महल के इस हिस्से में अभी कहीं से पायल की आवाज गूंज उठेगी, कहीं से कोई धीमे स्वर में राग बसंत गा उठेगा. कहीं से तबले की थाप की आवाज सुनाई दे जाएगी.’’

‘‘हां, लगता है,’’ हवा ने अपनी गति को धीमा कर कहा.

‘‘यहां, इसी महल में गूंजती थी रानी रूपमती की पायलों की आवाज, उस के घुंघरुओं की मधुर ध्वनि, उस की चूडि़यों की खनक, उस के कपड़ों की सरसराहट,’’ नर्मदा की पवित्रता के शब्दों ने जैसे सब को बांध लिया.

‘‘महल के हर कोने में बसती थी वीणा की झंकार, उस के साथ कोकिलकंठी  रानी के गायन की सम्मोहित कर देने वाली स्वर लहरियां… जब कभी बाजबहादुर और रानी रूपमती के गायन और संगीत का समय होता था तो वह पल वाकई अद्भुत होते थे. ऐसा लगता था कि प्रकृति स्वयं इस मिलन को देखने के लिए थम सी गई हो.

‘‘रूपमती की आंखों की निर्मलता और उस के चेहरे का वह भोलापन कम ही देखने को मिलता है. बाजबहादुर के प्रेम का वह सुरूर, जिस में रानी अंतर तक भीगी हुई थी, बिरलों को ही नसीब होता है ऐसा प्रेम…’’

‘‘उन की छेड़छाड़, उन का मिलन, संगीत के स्वरों में उन का खो जाना, वाकई एक अनुभूति थी और मैं ने उसे महसूस किया था.

‘‘मुझे आज भी ऐसा लगता है कि झील में कोई छाया दिख जाएगी और एहसास दिला जाएगी अपने होने का कि प्रेम कभी मरता नहीं. रूप बदल लेता है समय के साथ…’’

‘‘हां, बिलकुल यही सब देखा है मैं ने पराग के मतवाले प्रेम में, उस की रियाज करती उंगलियों में, उस के तराशे हुए अधरों में,’’ झरोखे ने चुप्पी तोड़ी.

‘‘गूंजती है जब सितार की आवाज तो मांडव की हवाओं में तैरने लगते हैं उस सांवली लड़की के प्रेम स्वर, वह देखती रहती है अपलक उस मासूम और भोले चेहरे को, जो डूबा रहता है अपने सितार के रियाज में,’’ दीवार की मधुर आवाज गूंजी.

‘‘कितना सुंदर लगता था बाजबहादुर, जब वह वीणा ले कर हाथों में बैठता था और रानी रूपमती उसे निहारती थी. कितना अलौकिक दृश्य होता था,’’ नर्मदा की पवित्रता ने बात आगे बढ़ाई.

इस महान प्रेमी को युद्ध और उस के नगाड़ों, तलवारों की आवाजों से कोई मतलब नहीं था, मतलब था तो प्रेम से, संगीत से. बाज बहादुर ने युद्ध कौशल में जरा भी रुचि नहीं ली, खोया रहा वह रानी रूपमती के प्रेम की निर्मल छांह में, वीणा की झंकार में, संगीत के सातों सुरों में.

‘‘ऐसे कलाकार और महान प्रेमी से आदम खान ने मांडव बड़ी आसानी से जीत लिया, फिर शुरू हुई आदम खान की बर्बरता इन 2 महान प्रेमियों के प्रति…’’

‘‘कितने कठोर होंगे वे दिल जिन्होंने इन 2 संगीत प्रेमियों को भी नहीं छोड़ा,’’ हवा ने अपनी गति को बिलकुल रोक लिया.

‘‘हां, वह समय कितना भारी गुजरा होगा रानी पर, बाज बहादुर पर. कितनी पीड़ा हुई होगी रानी को,’’ नर्मदा की पवित्रता बोली, ‘‘रानी इसी महल के कक्ष में फूटफूट कर रोई थीं.’’

‘‘आदम खान रानी के प्रस्ताव से सहमत नहीं हुआ. रानी का कहना था कि वह एक राजपूत हिंदू कन्या है. उस की इज्जत बख्शी जाए…आदम खान ने मांडव जीता पर नहीं जीत पाया रानी के हृदय को, जिस में बसा था संगीत के सुरों का मेल और बाज बहादुर का पे्रम.

‘‘जब आदम खान नियत समय पर रानी से मिलने गया तो उस ने रूपमती को मृत पाया. रानी ने जहर खा कर अमर कर दिया अपने को, अपने प्रेम को, अपने संगीत को.’’

‘‘हां, केवल शरीर ही तो नष्ट होता है, पर प्रेम कभी मरा है क्या?’’ झरोखा अपनी धीमी आवाज में बोला.

तभी दीवार की धीमी आवाज ने वहां छाने लगी खामोशी को भंग किया, ‘‘हर जगह मुझे महसूस होती है रानी की मौजूदगी, कितना कठोर होता है यह समय, जो गुजरता रहता है अपनी रफ्तार से.’’

‘‘पराग, वह लंबा लड़का, जो रियाज करने आता है और उस के साथ आती है वह सुंदर आंखों वाली लड़की. मैं ने उस की बोलती आंखों के भीतर एक मूक दर्द को देखा है. वह कहती कुछ नहीं, न ही उस लड़के से कुछ मांगती है. बस, अपने प्रेम को फलते हुए देखना चाहती है,’’ झरोखा बोला.

‘‘हां, बिलकुल सही कह रहे हो. प्रेम की तड़प और इंतजार की कसक जो उस के अंदर समाई है वह मैं ने महसूस की है,’’ हवा ने अपने पंख फैलाए और अपनी गति को बढ़ाते हुए कहा, ‘‘उस के घंटों रियाज में डूबे रहने पर भी लड़की के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती. वह अपलक उसे निहारती है. मैं जब भी पराग के कोमल बालों को बिखेर देती हूं, वह अपनी पतलीपतली उंगलियों से उन को संवार कर उस के रियाज को निरंतर चलने देती है.’’

‘‘सच, कितनी सुंदर जोड़ी है. मेरे दामन में कभी इस जोड़ी ने बेदर्दी से अपना नाम नहीं खुरचा. अपनी उदासियों को ले कर जब कभी वह पराग के विशाल सीने में खो जाती है तो दिलासा देता है पराग उस बच्ची सी मासूम सांवली लड़की को कि ऐसे उदास नहीं होते प्रीत…’’ दीवार ने कहा.

‘‘यों ही प्रेम अमर होता है, एक अनोखे और अनजाने आकर्षण से बंधा हुआ अलौकिक प्रेम खामोशी से सफर तय करता है,’’ झरोखा बोला.

हवा ने अपनी गति अधिक तेज की. बोली, ‘‘मैं उसे देखने फिर आऊंगी, समझाऊंगी कि ऐ सुंदर लड़की, उदास मत हो, प्रेम इसी को कहते हैं.’’

खामोशी का साम्राज्य अब थोड़ा मंद पड़ने लगा था, सुबह की किरणों ने दस्तक देनी शुरू जो कर दी थी.

नास्तिकता की ओर बढ़ रही है दुनिया

ईश्वर, अल्लाह, खुदा एक ऐसी परिकल्पना है, जिसके होने या न होने की कोई सटीक जानकारी इन्सान को कभी उपलब्ध नहीं हुई. फिर भी इस परिकल्पना में विश्वास रखने वाले लोग अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा उससे जुड़े विभिन्न अनुष्ठानों, धार्मिक क्रियाकलापों, व्रत, त्योहार, तीर्थयात्राओं, दान-पुण्य इत्यादि में व्यतीत कर देते हैं. अधिकांश चीजें तो हम इस डर से करते हैं कि न किया तो लोग क्या कहेंगे? इन चीजों में मनुष्य का बहुत सारा धन, समय और संसाधन लगते हैं. इन्सान हमेशा से अपनी ऊर्जा, धन और जीवन उस चीज के लिए खपा रहा है, जिसके बारे में यह गारन्टी आज तक नहीं मिली कि सचमुच में वह है भी, या नहीं. हम बात कर रहे हैं ‘ईश्वर’ की.

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विज्ञान मानता है कि धरती पर इन्सान की उत्पत्ति कोई तीन लाख साल पहले हुई है, मगर इस लम्बे समय-काल में एक भी ऐसी प्रमाणिक घटना सामने नहीं आयी, जब किसी मनुष्य ने ईश्वर से मुलाकात की कोई सटीक और प्रमाणिक जानकारी दी हो. न जन्म लेकर आने वाले किसी मनुष्य ने कहा कि वह ईश्वर से मिल कर आ रहा है और न मृत्यु के बाद किसी ने लौट कर बताया कि उसने ईश्वर को या उसके सदृश्य किसी को देखा. ईश्वर है या नहीं, इस पर सदियों से संशय बना हुआ है. उसके बारे में असंख्य सवाल हैं कि वह है तो कैसा है? वह कहां है? उसने सृष्टि की रचना क्यों की? उसने मनुष्य की रचना क्यों की? उसने अन्य जीवों की रचना क्यों की? जीवन और मृत्यु का रहस्य क्या है? ईश्वर के नाम पर जो धार्मिक कर्म हम करते हैं क्या उन्हें करने का आदेश ईश्वर ने स्वयं दिया है? दिया तो कब और किसको दिया? अगर हम उस आदेश का पालन न करें तो क्या वह हमें दण्डित करता है? इस धरती पर सिर्फ मनुष्य ही ईश्वर के नाम पर अराधना, भक्ति, पूजा-पाठ, दान-पुण्य, लड़ाई-झगड़ा, जंग या कत्लेआम क्यों करता है, अन्य जीव-जन्तु ईश्वर के नाम पर यह सारे कर्म क्यों नहीं करते? क्या उनको यह छूट ईश्वर ने प्रदान की है? आदि, आदि.

पुरुषों के लिए घातक धंधेवालियां

आश्चर्यजनक है कि यदि सृष्टि की रचना ईश्वर ने की है तो मनुष्य को छोड़कर अन्य कोई भी पशु, पक्षी या वनस्पति ईश्वर के नाम पर कोई धार्मिक कर्मकाण्ड क्यों नहीं करती? ईश्वर का नाम लेकर कोई जीव दूसरे जीव से नहीं लड़ता. उनके बीच धर्म के नाम पर कोई बंटवारा नहीं होता. उनके बीच लड़ाई सिर्फ भोजन, सेक्स और इलाके पर अपने वर्चस्व को लेकर ही होती है, जो जीवन को जीने के सिद्धान्त पर आधारित है.

आस्था ने फैलायी नफरत

दुनिया का हर धर्म और सम्प्रदाय खंगाल लीजिए, उनमें मूल बातें लगभग एक जैसी ही हैं. मुख्य बात यह है कि हर धर्मग्रन्थ कहता है कि ईश्वर एक है. जब ईश्वर एक है तो दुनिया में धर्म भी एक ही होना चाहिए था, मगर ऐसा नहीं है. सैकड़ों धर्म और हजारों सम्प्रदाय हैं और हरेक ने अपने-अपने ईश्वर गढ़ रखे हैं. यानि धार्मिक और आस्थावान लोग धर्मग्रन्थों में कही इस मूल बात को ही नहीं मानते कि ‘ईश्वर एक है.’

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यही नहीं, अलग-अलग धर्म और सम्प्रदाय के मानने वाले लोग अपने-अपने ईश्वर को लेकर दूसरे धर्म और सम्प्रदाय के लोगों से सदियों से लड़ते आये हैं. दुनिया की अब तक की तमाम लड़ाईयां धर्म के नाम पर ही हुई हैं. यहूदियों, ईसाईयों और मुसलमानों के बीच जो जंग सदियों से चली आ रही है उसके मूल में सिर्फ धर्म है. हिन्दू और मुसलमानों के बीच लड़ाई का कारण धर्म है. करोड़ों-अरबों लोग धर्म के नाम पर कत्ल कर दिये गये. सच पूछें तो धर्म और ईश्वर ने सदा से इन्सान की इन्सान से जंग करवायी है. धर्म ने इन्सान के अन्दर डर, कट्टरता, उन्माद, नफरत, नकारात्मक सोच और हिंसा पैदा की है. यानी धर्म एक विध्वंसकारी तत्व है, जो सृष्टि का नाश कर रहा है, न कि विकास. सोचिए अगर धर्म और ईश्वर जैसी अवधारणा इस धरती पर न होती तो न तो धरती के इतने टुकड़े होते और न इन्सान के.

मुझे बचपन की घटना याद आती है. डॉ. जुनैद आलम का परिवार तब हमारे पड़ोस के घर में रमजान के महीने में शिफ्ट हुआ था. ईद वाली सुबह मैं सिंवई का कटोरा लेकर उनके घर पहुंची कि उनकी अम्मा को सिवंई दे आऊं, तो जुनैद भाई को घर पर देखकर मैंने हैरानी जतायी. दरअसल वह नमाज का वक्त था और तमाम घरों के पुरुष मोहल्ले की मस्जिद में ईद की नमाज के लिए गये हुए थे, मगर ये जनाब हाफ पैंट पहने पानी का ट्यूब हाथ में लिए अपने कुत्ते को नहलाने में मशगूल थे.

मैंने पूछा कि आप नमाज के लिए नहीं गये, तो हंसते हुए बोले, ‘नहीं, मेरी इबादत अलग ढंग की है. क्यूपिड (उनका पालतू कुत्ता) के साथ मुझे ज्यादा सुकून मिलता है. यही मेरी इबादत है.’
ईद के रोज कोई मुसलमान नमाज न पढ़े, यह बहुत बड़ा गुनाह था, ऐसा मुझे हमेशा से बताया गया था और इस पर मैं गहरा विश्वास करती थी, मगर उस दिन जुनैद भाई के जवाब ने मेरे विश्वास को बहुत धक्का पहुंचाया. एक मुसलमान ईद के रोज नमाज अता न करे, यह बात मेरे गले से नहीं उतर रही थी. मगर जैसे-जैसे मैं उनके विचारों से रूबरू होती गयी, ऐसे बहुत से सवाल मेरे जेहन में उभरने लगे, जिनका कोई माकूल जवाब किसी मुल्ला, किसी पंडित या किसी धर्मगुरु के पास मैंने नहीं पाया. जुनैद का कहना था, ‘अव्वल तो मैं यह मानता ही नहीं हूं कि अल्लाह जैसी कोई चीज मौजूद है और अगर मान लूं कि है, और मरने के बाद उससे भेंट होनी है, तो एक बार भेंट हो जाए फिर मैं उससे ही पूछ लूंगा कि नमाज पढ़ना, हज करना, रोजा रखना जरूरी है, या नहीं और अगर जरूरी है तो क्यों है?’ वो कहते, ‘मैं उस चीज पर विश्वास करता हूं जिसे मैं अपनी आंखों के सामने देखता हूं, जिसे मैं महसूस करता हूं, जिसे मैं छू सकता हूं और जिससे मैं अपनी भावनाओं को बांट सकता हूं. जैसे मेरा यह क्यूपिड (उनका पालतू कुत्ता), जिसका साथ मुझे हमेशा प्यार और सुकून से भर देता है.’

पहलवानी के नाम पर दहशतगर्दी

जुनैद भाई मेडिकल की पढ़ाई के बाद आज एक सफल सर्जन हैं. उन्होंने एक दलित डॉक्टर लड़की से शादी की और अपने दो बच्चों के छोटे से परिवार में बेहद खुश हैं. वे और उनकी पत्नी दोनों नास्तिक हैं और बेहद सुखी हैं. उनका सारा समय मानवता की भलाई में गुजरता है. जुनैद या उन जैसे नास्तिक लोगों को कम से कम धर्म के नाम पर कोई उकसा नहीं सकता, ईश्वर के नाम पर कोई उनको हिंसा के लिए मजबूर नहीं कर सकता. किसी दंगे-फसाद, धार्मिक उन्माद फैलाने या इन्सानियत का खून बहाने में उनकी कोई भूमिका नहीं होती. जुनैद भाई के सानिध्य ने मेरे सामने यह बात आइने की तरह साफ कर दी कि हम धर्म और ईश्वर के नाम पर ताउम्र जो कुछ भी करते रहते हैं, उनका कोई मतलब नहीं है. हम अपनी जिन्दगी का बड़ा हिस्सा और बड़ा पैसा बेमतलब की चीजों में गंवा रहे हैँ. यह समय और पैसा मानवता की भलाई में लगाया जाये तो धरती का रूप निखर जाये.

इसी कड़ी में कल आगे पढ़िए-मैं नास्तिक क्यों हूं…………….

खतरे में है व्यक्तिगत स्वतंत्रता

व्हाट्सऐप, ट्विटर, फेसबुक आजकल दुनियाभर में सरकारों और समाजों के निशाने पर हैं. जब से फेसबुक का कैंब्रिज एनालिटिक्स को अपने से जुड़े लोगों के व्यवहार के बारे में डेटा बेच कर पैसा कमाने की बात सामने आई है, तब से लगातार डिजिटल मीडिया, डिजिटल संवादों पर सवाल उठ रहे हैं. गूगल के सुंदर पिचाई ने अमेरिकी संसद कोबताया है कि गूगल चाहे तो मुफ्त भेजे जाने वाले जीमेल अकाउंटों के संवाद भी वे पढ़ सकता है.

असल में डिजिटल क्रांति दुनिया के लिए खतरनाक साबित हो रही है कुछ हद तक परमाणु बमों की तरह. परमाणु परीक्षणों का विनाशकारी उदाहरण बाद में देखने को मिला पर उस दौरान किए गए शोध का फायदा बहुत से अन्य क्षेत्रों में बहुत हद तक हुआ है और आजकल जो रैडिएशन के दुष्प्रभाव की बात हो रही है वह परमाणु परीक्षणों से ही जुड़ी है. डिजिटल क्रांति में उलटा हुआ है. पहले लाभ हुआ है, अब नुकसान दिख रहे हैं.

दलितों की बदहाली

न केवल आज डिजिटल मीडिया या सुविधा से अपनी बात मित्रों, संबंधियों, ग्राहकों तक पहुंचाई जा सकती है, इस का जम कर फेक न्यूज फैलाने में भी इस्तेमाल हो सकता है.

दुनियाभर में फेक मैसेज भेजे जा रहे हैं. स्क्रीनों के पीछे कौन छिपा बैठा है यह नहीं मालूम इसलिए करोड़ों को मूर्ख बनाया जा रहा है और लाखों को लूटा भी जा रहा है. लोग फेसबुक, व्हाट्सऐप केजरीए प्रेम करने लगते हैं जबकि असलियत पता ही नहीं होती. जो बात 2 जनों में गुप्त रहनी चाहिए वह सैकड़ों में कब बंट जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता. पीठ पीछे की आप की बात कहां से कहां तक जाएगी आप को पता भी नहीं चलेगा.

पंडों की सरकार, जनता है बेहाल

सरकारों के लिए ये प्लैटफौर्म बहुत काम के हैं. वे कान मरोड़ कर उन से अपने विरोधियों के मेल, मैसेज, बातें सब पता कर लेती हैं.

आज मोबाइल पर कही गई बात भी सुरक्षित नहीं है, क्योंकि उस का रिकौर्ड कहीं रखा जा रहा. न केवल आप ने कहां से किस को फोन किया यह रिकौर्डेड है, क्या बात की यह भी रिकौर्डेड है. हां, उसे सुनना आसान नहीं यह बात दूसरी है. पर खास विरोधी का हर कदम सरकार जान सकती है. टैक कंपनियां असल में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सब से बड़ा अंकुश बन गई हैं. पहले लगा था कि इनसे अपनी बात लाखोंकरोड़ों तक पहुंचाई जा सकती है.

सोशल मीडिया और झूठ

आप कागज पर ही लिखें,यह तो नहीं कहा जा सकता पर यह जरूर ध्यान में रखें कि सरकारी शिकंजा आप के गले में तो है ही आप व्यापारियों के लिए भी टारगेट बन रहे हैं. वे आप की सोच, आप के खरीदने के व्यवहार को भी नियंत्रित कर रहे हैं.

बालों की परेशानियों से बचने के लिए रखें इन 5 बातों का ध्यान

अगर आप अपनी बालों को लेकर हमेशा परेशानी रहती हैं. तो इसमें बालों की परेशानी आपकी खुद की लापरवाही भी होती है. अक्सर आप छोटी-छोटी गलतियां कर बैठती है, जिससे आपके बाल खराब हो जाते हैं. पर आप कुछ बातों का ख्याल रखकर भी इन परेशानीयों से राहत पा सकती हैं.

  1. ज्यादा कंघी न करें

बालों में बहुत ज्यादा कंघी करने से भी बाल टूटते हैं. अपने स्कैल्प पर धीरे से मालिश करें और फिर कंघी करें.

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2. तौलिए से बालों को ज्यादा न रगड़ें

गीले बालों को तौलिए से बहुत ज्यादा न रगड़ें. गीले बालों को सूखे तौलिए से एक बार पोंछकर छोड़ देना चाहिए और हवा से सूखने देने के बाद ही उसमें कुछ लगाना चाहिए.

3. हर दिन शैंपू करना

हर रोज बालों में शैंपू न करें इससे बाल कमजोर होते हैं और टूटने लगते हैं. अच्छे से अच्छे प्रोडक्ट में भी केमिकल होते हैं, जिसके चलते बाल ड्राई होने लगते हैं.

5 टिप्स: दांतों का पीलापन हटाएं और पाएं परफेक्ट स्माइल

4.  बालों में बहुत हीट न लगाएं

बालों में बहुत हीट के इस्तेमाल से भी बाल टूटते-झड़ते हैं. अगर आपको हेयर स्टालिंग करना बहुत पसंद है तो नियमित रूप से बालों की अच्छी कंडिश्निंग करें.

5. नियमित हेयर ट्रीमिंग करवाएं

ट्रीमिंग करवाने में हम कई बार लापरवाही बरतते हैं, लेकिन बहुत जरूरी है कि बाल खराब होने से पहले नियमित रूप से ट्रीमिंग करवाते रहें.

अब घर बैठे करें 5 तरीकों से नेचुरल ब्लीच

 

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जानें कैसे बनाएं कीमा मटर

कीमा मटर को आप आसानी से घर पर बना सकती हैं. इसे आप लंच या डिनर में चावल और रोटी के साथ सर्व कर सकती हैं. कीमा मटर बनाने के लिए कई सारे मसालों का  भी इस्तेमाल  किया जाता है. तो चलिए जानते हैं कैसे बनाएं मटर कीमा.

घर पर बनाएं लजीज ‘पनीर कौर्न कबाब’

सामग्री

– प्याज (1 कप कद्दूकस किया हुआ)

– अदरक पेस्ट (1 टी स्पून)

– लहसुन पेस्ट (1 टी स्पून)

– टुकड़ों में कटा हुआ (2 कप टमाटर)

– नमक (स्वादानुसार)

– धनिया पाउडर (1 टेबल स्पून)

जानें बिस्किट बनाने के रेसिपी

– हल्दी (1/2 टी स्पून)

– लाल मिर्च पाउडर (1/2 टी स्पून)

– 1 टेबल स्पून हरा धनिया (टुकड़ों में कटा हुआ)

– मीट कीमा (1/2 kg)

– हरे मटर (1 कप)

– घी (1/2 कप)

– जीरा (2 टी स्पून)

– लौंग (4)

– दालचीनी (1 टुकड़े)

– कालीमिर्च (4)

– 1 बड़ी इलाइची

– 2 तेजपत्ता

क्रिस्पी अंडा पराठा की रेसिपी

बनाने की वि​धि

– पैन में घी गर्म करें और इसमें जीरा, लौंग, दालचीनी, कालीमिर्च, इलाइची और तेजपत्ता डालें.

– जब साबुत मसाले चटकने लगे तो इसमें लहसुन, अदरक और प्याज डालें, इसे तब तक फ्राई करें जब तक तेल अलग न हो जाए.

– इसमें टमाटर, नमक, धनिया पाउडर, हल्दी और लाल मिर्च पाउडर डालें.

– इसे चलाते रहें जब तक इसका तेल अलग नहीं हो जाता है और इसकी आंच बढ़ा दें, इसमें कीमा और     मटर डालें.

– इसे थोड़ी देर चलाते रहे जब तक कीमा फ्राई नहीं हो जाता, इसके बाद आंच हल्की कर दें और इसे तक पकाएं जब तक तेल अलग न हो जाए.

– हरे धनिए से गार्निश करके इसे सर्व करें.

इस तरह बनाएं लजीज ‘पनीर टिक्का’

 

posted by- saloni

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