‘‘भारत का संविधान महिलाओं की गरिमा का ध्यान रखता है, तब मुसलिम महिलाओं को गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार क्यों न मिले? मुसलिम महिलाओं को तीन तलाक की प्रताड़ना से मुक्ति दिलाने का वादा भाजपा ने अपने घोषणापत्र में किया था. जनता ने हमें तीन तलाक पर रोक लगाने का आदेश दिया है, तब हम अपना फर्ज निभाने से पीछे क्यों हटें?’’

उक्त वक्तव्य कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बीती 21 जून को लोकसभा में तीन तलाक बिल पर बहस के दौरान दिया था. इस विधेयक पर उम्मीद के मुताबिक जम कर बवाल मचा और बहस भी हुई. तीन तलाक के समर्थक और विरोधियों ने अपनेअपने तर्करखे, लेकिन किसी एक ने भी यह सोचने

और कहने की जहमत नहीं उठाई कि तलाक के मुकदमे के दौरान किसी भी महिला को किनकिन पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक और भावनात्मक प्रताड़नाओं व यंत्रणाओं से हो कर गुजरना पड़ता है.

भारतीय संसद और सांसदों से यह उम्मीद भी बेकार की बात होगी कि कोई बहस के दौरान यह कहता कि पहले यह तो देख लीजिए कि हिंदू महिलाओं को अदालतों से तलाक मिलने में कितना वक्त लगता है और इस लंबे वक्त में उन की दिमागी हालत कैसी होती है.

किसी के पास कोई आंकड़ा नहीं है कि तलाक का एक मुकदमा औसतन कितने साल अदालतों में चलता है और वह ‘बेचारी’ वैवाहिक जीवन से मुक्ति पाने के लिए पथराई आंखों से अदालती कार्यवाही को निहारते अपने को व उस वक्त को कोसती रहती है जब उस ने तलाक का मुकदमा दायर किया था या उस पर तलाक का मुकदमा दायर किया गया था.

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