‘‘भारत का संविधान महिलाओं की गरिमा का ध्यान रखता है, तब मुसलिम महिलाओं को गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार क्यों न मिले? मुसलिम महिलाओं को तीन तलाक की प्रताड़ना से मुक्ति दिलाने का वादा भाजपा ने अपने घोषणापत्र में किया था. जनता ने हमें तीन तलाक पर रोक लगाने का आदेश दिया है, तब हम अपना फर्ज निभाने से पीछे क्यों हटें?’’
उक्त वक्तव्य कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बीती 21 जून को लोकसभा में तीन तलाक बिल पर बहस के दौरान दिया था. इस विधेयक पर उम्मीद के मुताबिक जम कर बवाल मचा और बहस भी हुई. तीन तलाक के समर्थक और विरोधियों ने अपनेअपने तर्करखे, लेकिन किसी एक ने भी यह सोचने
और कहने की जहमत नहीं उठाई कि तलाक के मुकदमे के दौरान किसी भी महिला को किनकिन पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक और भावनात्मक प्रताड़नाओं व यंत्रणाओं से हो कर गुजरना पड़ता है.
भारतीय संसद और सांसदों से यह उम्मीद भी बेकार की बात होगी कि कोई बहस के दौरान यह कहता कि पहले यह तो देख लीजिए कि हिंदू महिलाओं को अदालतों से तलाक मिलने में कितना वक्त लगता है और इस लंबे वक्त में उन की दिमागी हालत कैसी होती है.
किसी के पास कोई आंकड़ा नहीं है कि तलाक का एक मुकदमा औसतन कितने साल अदालतों में चलता है और वह ‘बेचारी’ वैवाहिक जीवन से मुक्ति पाने के लिए पथराई आंखों से अदालती कार्यवाही को निहारते अपने को व उस वक्त को कोसती रहती है जब उस ने तलाक का मुकदमा दायर किया था या उस पर तलाक का मुकदमा दायर किया गया था.
कभी किसी चुने गए जनप्रतिनिधि ने किसी जिला अदालत में जा कर नहीं देखा होगा कि एक तलाक लेने या देने वाली महिला पर क्या गुजरती है. कानून मंत्री और उन की सरकार हिंदू वोट पाने के लिए मुसलिम तीन तलाक को एक तलाक में तबदील करने में आखिरकार कामयाब हो गए क्योंकि 30 जुलाई को तीन तलाक का बिल राज्यसभा से भी पारित हो गया. इस के पक्ष में 99 और विरोध में 84 मत पड़े.
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दर्द एक गरिमा का
इत्तफाक से भोपाल की इस पीडि़ता का नाम भी गरिमा है जो 4 साल से तलाक का मुकदमा लड़ रही है. 32 वर्षीया गरिमा अपने पति और ससुराल वालों की ज्यादती का शिकार थी. उस के साथ आएदिन मारपीट होती थी और ताने भी कसे जाते थे. एक प्राइवेट स्कूल में मैथ्स की इस टीचर से जब यह सब सहन नहीं हुआ तो 4 साल पहले वह सीधे अदालत जा पहुंची.
तब गरिमा का इरादा था कि वह अभी जवान है और बच्चे भी नहीं हुए हैं, लिहाजा, दूसरा कोई भला आदमी देख कर शादी कर लेगी, जिस से बाकी जिंदगी वह आम महिलाओं की तरह चैन से गुजार सके. अब गरिमा ने यह इरादा त्याग दिया है. खुद के ही दायर किए गए मुकदमे से वह इतनी तंग आ गई है कि उस में जिंदगी जीने तक की इच्छा नहीं बची है. और दोबारा शादी कर बच्चे पैदा कर मातृत्व व स्त्रीत्व को हासिल करना तो उसे डराने लगा है.
गरिमा बताती है, ‘‘तलाक एकाध साल में हो जाता, तो मेरी हिम्मत नहीं टूटती. आप या कोई अंदाजा भी नहीं लगा सकता कि मैं 4 साल से रोज तिलतिल कर मर रही हूं. और संसद में तीन तलाक पर हुई बहस को सुन कर मेरे मन में खयाल आया कि किसी ने यह क्यों नहीं कहा कि अगर तुरंत तीन तलाक वाला रिवाज गलत है तो कोई औरत तलाक के लिए अदालतों में सालोंसाल एडि़यां रगड़ती रहे, यह कहां का इंसाफ है?’’
गरिमा की कहानी तलाक का मुकदमा लड़ रही लाखों पत्नियों सरीखी है. जब उस ने यह फैसला लिया तो सब से पहले भाईभाभी ने ही यह कहते मुंह फेर लिया कि तुम जानो और तुम्हारा पति जाने, हमारे हिस्से का काम तो था तुम्हारा कन्यादान करना और वह हम कर चुके हैं. इस जवाब की उम्मीद उसे थी, लिहाजा, कोई झटका उसे नहीं लगा. लेकिन जब वकील के पास गई तो तब से अब तक उसे झटके पर झटके लग रहे हैं.
खैर, मुकदमा दायर हुआ. वकील का आश्वासन था कि उस की पूरी कोशिश रहेगी कि तलाक जल्द हो जाए और पति को उस के किए की सजा भी मिले. पहली तारीख पर गरिमा जब अदालत पहुंची तो हैरान रह गई. वहां सब व्यस्त थे. जो फुरसत में थे वे उसे एक खास निगाह से घूरे जा रहे थे और आपस में फुसफुसा कर बातें कर रहे थे.
वकील साहब ने उस से सारी बातें पूछ कर लंबाचौड़ा वादपत्र तैयार किया जिस में पति और ससुराल वालों को हैवान और इंसानियत के दुश्मन साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. वादपत्र देख कर गरिमा को भी उम्मीद बंधी थी कि उसे न्याय मिलेगा और जल्द मिलेगा. उस ने तो अखबार में वैवाहिक विज्ञापन भी देखने शुरू कर दिए थे कि कितने प्रस्तावों में बगैर बच्चे वाली तलाकशुदा चाही गई है. सोच तो उस ने यहां तक भी डाला था कि तीसरीचौथी पेशी तक जब तलाक की प्रक्रिया आखिरी चरण में होगी तब वह खुद भी विज्ञापन दे देगी.
लेकिन जब तीसरी, चौथी पेशी तक नोटिस, समन और वारंट का रोल चलता रहा, तो वह मायूस हो उठी कि यह कैसा कानून है जिस में प्रतिवादी का अतापता ही नहीं है और वह रोज शान से अपनी खटारा कार में बैठ कर दफ्तर जाता है. वकील उसे हिम्मत बंधाता रहा कि शुरूशुरू में ऐसा होता है, लेकिन उसे आज नहीं तो कल झक मार कर आना ही पड़ेगा, फिर देखना 2 पेशियों में ही वह ढीला हो जाएगा.
आखिरकार, 5वीं पेशी पर पति आया. लेकिन यह देख कर गरिमा हैरान रह गई कि उस के चेहरे पर डर या शिकन नाम की कोई चीज नहीं थी. उलटे, वह खूंखार तरीके से उसे घूरे जा रहा था.
गरिमा बताती है, ‘‘एक पल को तो मैं डर गई थी कि कहीं यह राक्षस मुझे यहीं अदालत में भी मारना शुरू न कर दे क्योंकि वहां पुरुष ही पुरुष थे.’’
इस तारीख पर भी कुछ खास नहीं हुआ. पति हाजिरी लगा कर शान से चला गया. उस की तरफ से उस के वकील ने भी लंबाचौड़ा जवाब अदालत में पेश कर दिया था, जिस की प्रति चौथे दिन वकील ने उसे दी. इस जवाब को घर आ कर गरिमा ने पढ़ा तो उस का खून खौल उठा. जवाब में उसे ही झगड़ालू बताया गया था, जो सिवा कलह मचाए रखने के कुछ और नहीं करती. उस के तमाम आरोप इस जवाब में झुठला दिए गए थे और यह बात भी प्रमुखता से कही गई थी कि वाकई में अगर उस के साथ ससुराल में किसी तरह की मारपीट या हिंसा होती थी तो वह कभी पुलिस थाने रिपोर्ट लिखाने क्यों नहीं गई?
इस बात का जवाब पहले ही वह काउंसलर को फैमिली कोर्ट में दे चुकी थी कि वह पुलिस थाने वगैरह के चक्कर में नहीं पड़ना चाहती और उस की मंशा जल्द तलाक की है, न कि बेवजह के पचड़ों में पड़ कर वक्त जाया करने की.
गरिमा कहती है, ‘‘यही वे कानून व वजहें हैं जो कहने को तो औरतों के भले के लिए बने हैं लेकिन हकीकत में देर इन की वजह से ही होती है. किसी पत्नी का इतना कह देना काफी क्यों नहीं माना जाता कि अब वह अपने पति के साथ स्वाभाविक तरीके से नहीं रह सकती और अस्वाभाविक तरीके से रहना एक मुश्किल काम है?’’
गरिमा की यह दलील कानूनी प्रक्रिया और तलाक के कानून पर सवालिया निशान लगाती हुई है कि उस में इतनी पेचीदगियां व उलझनें क्यों हैं और क्यों कानून व सरकारी एजेंसियां पतिपत्नी को समझाइश देते रहते हैं कि तलाक मत लो, साथ रहने की कोशिश करो, वक्त के साथसाथ सब ठीक हो जाता है?
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कुछ ठीक नहीं होता
यह बात भी तलाक का मुकदमा लड़ रही महिलाओं की हालत देख पूरे आत्मविश्वास से कही जा सकती है कि कुछ ठीक नहीं होता, उलटे, अधिकांश मामलों में बात बनने के बजाय बिगड़ती ही जाती है. गरिमा की ही मानें तो हुआ यह कि जैसे ही स्कूल प्रबंधन को यह बात पता चली कि वह तलाक का केस दायर कर चुकी है तो उसे बहाने बना कर नौकरी से चलता कर दिया गया. स्कूल चूंकि नामी था, इसलिए प्रबंधन को डर था कि ऐसी टीचर्स का बच्चों पर गलत प्रभाव पड़ेगा.
गरिमा जैसी महिलाओं की हालत कटी पतंग सरीखी है. इस हालत का जिम्मेदार कौन है? जवाब साफ है, कानूनी प्रक्रिया, जिस के चलते पत्नी तलाक का मुकदमा चलने के दौरान पारिवारिक व सामाजिक रूप से उपेक्षा की शिकार हो कर धीरेधीरे बहिष्कृत होती जाती है. हास्यास्पद बात यह भी है कि इस बारे में कोई सोचने को तैयार नहीं है.
एक तलाक बनाम तीन तलाक
गरिमा जैसी महिलाएं कहीं की नहीं रह जातीं, न घर की न घाट की. अब उन की जमात में तलाक मिलने की आस लगाए मुसलिम महिलाएं भी शामिल हो जाएंगी. तब उन्हें समझ आएगा कि उन की गरिमा की रक्षा सरकार ने किस तरह की है. उन में भी न आत्मसम्मान, आत्मविश्वास रह जाएगा और न उन का ही स्वाभिमान बचेगा. दोटूक कहा जाए तो हिंदू औरतों की तरह उन के भी औरत होने के माने खत्म हो जाएंगे और वे भी सालोंसाल तलाक के लिए गरिमा जैसी भटकती रहेंगी. तब शायद उन्हेें एहसास होगा कि इस से बेहतर तो तीन तलाक ही था.
यहां मंशा तीन तलाक कानून की वकालत न करना हो कर सीधेसीधे यह कहने की है कि तलाक कानून में ऐसा प्रावधान जरूरी है, जिस में तलाक की समयसीमा तय हो और यह एक साल से ज्यादा न हो क्योंकि इस के बाद महिला की दुर्दशा होनी शुरू हो जाती है जबकि पुरुष का कुछ नहीं बिगड़ता.
गरिमा और कई गरिमाओं की तरह हिंदू महिलाएं अगर तुरंत तलाक चाहती हैं तो कानून और सरकार को उन की परेशानियां समझनी चाहिए कि तलाक का लंबा खिंचता मुकदमा महिला की जिंदगी खत्म कर देता है. यह न्याय नहीं है बल्कि निर्दोष महिलाओं को उस अपराध की सजा देना है जो, दरअसल, उन्होंने किया ही नहीं होता.
इन से तो बेहतर वो थे
तीन तलाक पर गरमाती सियासत पर दोनों पक्षों के अपने तर्क हैं पर दिक्कत यह है कि दोनों ही कट्टरवादी हैं और अपनी जिद के चलते खासतौर से महिलाओं का भला या हित नहीं देख पा रहे हैं. मुसलमानों के ठेकेदार कहते हैं कि यह उन के मजहब में दखल है तो हिंदू कट्टरवादी यह सोचसोच कर खुश हो रहे हैं कि उन की चुनी सरकार मुसलमानों को सबक सिखा रही है.
इस सबक को सियासी आईने से देखें तो अक्स बेहद भयावह नजर आता है. 6 दिसंबर, 2018 को संसद में इसी मसले पर बहस के दौरान केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने तैश में आ कर यह कहा था कि जब सतीप्रथा और बालविवाह पर कानून बन सकता है तो तीन तलाक पर क्यों नहीं बन सकता?
जोशजोश में और जानेअनजाने में स्मृति ईरानी ने भी यह तो मान ही लिया था कि हिंदू महिलाओं के भले और अधिकार के तमाम कानून कांग्रेस सरकारों की देन हैं यानी उन की और भाजपा की नजर में उस कांग्रेस यानी नेहरूगांधी परिवार की देन है जिस ने लंबे समय तक देश पर राज किया.
स्मृति ईरानी और रविशंकर जैसे मंत्रियों से यह सुनने की उम्मीद कोई नहीं करता कि जब हिंदू महिलाओं को तलाक और बराबरी का हक नेहरू ने दिया था तो मुसलिम महिलाओं को तीन तलाक का हक हम क्यों नहीं दे सकते और जिस तरह हिंदू महिलाओं की गरिमा की रक्षा नेहरू ने की थी तब हम क्यों नहीं मुसलिम महिलाओं की गरिमा की रक्षा कर सकते.
आज की पीढ़ी शायद ही इस तथ्य से परिचित होगी कि आजादी के बाद एक महिला तो महिला, पुरुष तक को भी तलाक लेने का कानूनी अधिकार नहीं था. पुरुषों को 2-3 शादियां करने और पत्नी को छोड़ देने की छूट हासिल थी.
अंगरेजों के शासनकाल में हिंदू महिलाओं के हित में कानून बनाने की बात उठती रहती थी लेकिन फुस्स हो कर रह जाती थी. तब कट्टरवादी हिंदुओं की दलील भी यही रहती थी कि अंगरेज होते कौन हैं हमारे धर्म और रीतिरिवाजों में दखल देने वाले.
आजादी मिली और पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने महिलाओं के हक में ताबड़तोड़ कानून बनाए. इस पर हिंदूवादियों ने उन का जम कर विरोध किया. लेकिन स्वतंत्र भारत में लोकतंत्र स्थापित हो चुका था और संसद में बहुमत कांग्रेस के पास था, लिहाजा, उस ने इस विरोध का लिहाज नहीं किया. इस दिलचस्प ऐतिहासिक तथ्य को इस तरीके से समझा जा सकता है.
11 अप्रैल, 1947 को कांग्रेस सरकार ने संविधान सभा के सामने हिंदू कोड बिल पेश किया. यह कोड पूरी तरह हिंदुओं में फैले भेदभाव और स्त्री शोषण के खिलाफ था. साफसाफ कहें तो वर्णव्यवस्था पर प्रहार करता हुआ था, जिस के तहत स्त्री को पैर की जूती और दलित जानवर समझा व माना जाता था.
तब ऊंची जाति वाले और कट्टरवादी यह सोचसोच कर खुश थे कि अंगरेजों के जाने के बाद समाज पर उन का दबदबा बरकरार रहेगा और फिर से वर्णव्यवस्था बहाल हो जाएगी. लेकिन हिंदू कोड बिल के ये प्रावधान देख मानो भूचाल आ गया कि –
मृतक की विधवा, पुत्री और पुत्र को उस की जायदाद का बराबर हिस्सा मिलेगा.
पुत्रियों को उन के पिता की संपत्ति में अपने भाइयों से आधा हिस्सा मिलेगा.
हिंदू पुरुष एक से ज्यादा शादी नहीं कर सकेंगे. और पत्नी को छोड़ नहीं सकेंगे. यानी महिलाओं को भी तलाक देने का अधिकार होगा.
ऐसे कई और प्रावधान उस बिल में थे जो पुरुषों की मनमानी पर रोक लगाते हुए थे और सवर्णों की भी मुश्कें कसते हुए थे. पहली बार देश में महिलाओं को समानता का अधिकार दिया जा रहा था.
आज जैसे तीन तलाक बिल पर मुसलिम कट्टरपंथियों ने बवाल मचाया, ठीक वैसे ही तब संघ समर्थकों और कांग्रेसी हिंदू कट्टरपंथियों ने उक्त बिल का हर स्तर पर जोरदार विरोध किया था. उन्हें जवाहरलाल नेहरू से ऐसी उम्मीद नहीं थी कि वे सब से पहले कुरीतियों पर ही प्रहार करेंगे. लिहाजा, परंपराओं और रीतिरिवाजों का हवाला देते विरोध शुरू हो गया था.
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सनातन धर्मावलंबियों के साथसाथ हैरतअंगेज तरीके से सुधारवादी माने जाने वाले आर्यसमाजी भी इस विरोध में शामिल थे. हिंदूवादी दलों जनसंघ और हिंदू महासभा ने इस का सड़क से संसद तक विरोध करते कहा कि सरकार को इस विधेयक को पारित कराने का कोई हक नहीं. इस बाबत अहम दलील यह दी गई थी कि चूंकि संसद के सदस्य जनता द्वारा चुने हुए नहीं हैं, इसलिए सरकार को विधेयक पारित करने का नैतिक अधिकार नहीं है.
हिंदू कट्टरवादियों का एक बड़ा एतराज पुरुषों से एक से ज्यादा शादियां करने का अधिकार छिनना भी था. इस बाबत उन का कहना था कि बहुविवाह की परंपरा तो सभी धर्मों में है, इसलिए इस कानून को सभी पर लागू किया जाना चाहिए. अर्थात समान नागरिक संहिता होनी चाहिए. यह तर्क किसी भी लिहाज से सुधारवादी नहीं था, जिस में मांग यह की जा रही थी कि दोनों पक्षों को गुनाह करने का हक बराबरी से दिया जाए.
संसद के बाहर हिंदू महासभा और जनसंघ का साथ कांग्रेस का हिंदूवादी धड़ा भी दे रहा था. इस में एक चौंका देने वाला नाम डाक्टर राजेंद्र प्रसाद का भी था. करपात्री महाराज, जिन का असली नाम हरिहरानंद था, तब हिंदुओं के सर्वमान्य धर्मगुरु थे. करपात्री महाराज ने एक कट्टर हिंदूवादी पार्टी राम राज्य परिषद की स्थापना की थी. वे यह मानते थे कि हिंदू कोड बिल हिंदू रीतिरिवाजों, परंपराओं और धर्मशास्त्रों के विरुद्ध है. इतना ही नहीं, उन्होंने इस मसले पर जवाहरलाल नेहरू को वादविवाद यानी शास्त्रार्थ करने की खुली चुनौती भी दी थी.
तब विरोध इतना उग्र था कि आरएसएस ने दिल्ली में दर्जनों सभाएं आयोजित कीं और देशभर में सभी कट्टर हिंदूवादियों ने हाहाकार मचा कर रख दिया, मानो औरतों को बराबरी के हक मिल गए तो कयामत आ जाएगी. जबकि असल बात यह थी कि मर्दों की मनमानी पर अंकुश लगाया जा रहा था जो परिवारों, समाज और देश की तरक्की के लिए जरूरी भी था. वह बिल मूलतया स्त्री और दलित शोषण के खिलाफ था, जिस से धर्मावलंबी तिलमिलाए हुए थे.
चूंकि तब पहले आम चुनाव सिर पर थे, इसलिए जवाहरलाल नेहरू को लगा कि यह उग्र विरोध सत्ता जाने की वजह भी बन सकता है, इसलिए उन्होंने इसे टरका दिया.
जवाहरलाल नेहरू की मंशा न समझ पाने वाले पहले कानून मंत्री भीमराव अंबेडकर ने पद से इस्तीफा दे दिया था. जवाहरलाल नेहरू ने समझदारी या चालाकी, कुछ भी कह लें, से काम लिया और इस बिल को कई हिस्सों में तोड़ दिया.
1955 में महिला हितों की रक्षा करता हुआ पहला कानून हिंदू मैरिज एक्ट 1955 बना, जिस में तलाक को कानूनी दर्जा दिया गया, अंतर्जातीय विवाह को मान्यता दी गई और एक बार में एक से ज्यादा शादियों को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया.
1955 में ही हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम अस्तित्व में आया, जिस में हिंदू दत्तक ग्रहण और भरणपोषण कानून के अलावा हिंदू अवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम भी लागू हुए. इसी के जरिए पहली बार हिंदू महिलाओं को संपत्ति में हक मिला और लड़कियों को गोद लेने की व्यवस्था हुई.
जवाहरलाल नेहरू की ही वजह से आज महिलाएं उस मुकाम पर हैं जिस की 50 और 60 के दशकों में कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. वे आज शिक्षित हो रही हैं, कार चला रही हैं, हवाई जहाज तक उड़ा रही हैं, तो इस सब के पीछे हाथ जवाहरलाल नेहरू का है, जो हिंदू कट्टरवादियों के सामने झुके नहीं और महिलाओं को उन के अधिकार दिला कर ही दम लिया. अगर ऐसा न होता तो आज महिलाओं और देश की हालत क्या होती, इस का सहज अंदाजा हर कोई लगा सकता है.
अभी तक है मलाल
साल 2014 के और 2019 के चुनावप्रचार की एक खास बात यह थी कि इस में नरेंद्र मोदी ने नेहरूगांधी परिवार को निशाने पर रखा जबकि राहुल गांधी को मुसलमान व ईसाई साबित करने की कसर आरएसएस सहित दूसरे हिंदूवादियों ने नहीं छोड़ी, जो जवाहरलाल नेहरू को भी आधा ईसाई और आधा मुसलमान कहते थे.
इस की असल वजह यह है कि जवाहरलाल नेहरू और उन के बाद इंदिरा, राजीव और सोनिया गांधी ने महिलाओं के हक में कानून बनाने की जिद नहीं छोड़ी. कांग्रेस के 55 साल के शासनकाल को कोसने की अहम वजह यही है कि उन्होंने पुरुषों के दबदबे को तोड़ते महिलाओं की उन्नति और आजादी का रास्ता खोला, जिस से वर्णव्यवस्था और पुरुषों की सत्ता कानूनन खत्म सी हो गई.
जाहिर है हिंदूवादियों को यह मलाल अब तक साल रहा है कि वे नेहरूगांधी खानदान को इस बाबत रोक नहीं पाए और महिलाएं मुख्यधारा से जुड़ती चली गईं. 2014 में भाजपा ने इस का बदला ले लिया. अब वह पूरी कोशिश कर रही है कि महिला हित का कोई कानून न बने. मोदी सरकार का पहला कार्यकाल इस बात का गवाह भी है क्योंकि 5 वर्षों में महिलाओं के हितों से संबधित कोई कानून नहीं बना.
कानून बन भी रहा है तो तीन तलाक पर जो हर्ज या एतराज की बात इस लिहाज से है कि कट्टरवादी तीन तलाक का तो विरोध कर रहे हैं लेकिन विलंबित तलाक पर कोई मुंह नहीं खोल रहा कि इस से महिलाओं को कई दुश्वारियां झेलनी पड़ती हैं.
इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने दहेज कानून में संशोधन किए और दहेज को गैरजमानती अपराध घोषित करते दोषियों को सजा के भी प्रावधान किए. ये संशोधन भी हिंदूवादियों को रास नहीं आए लेकिन वे तब यानी 80 के दशक में भी मजबूर थे क्योंकि उन के विरोध के कोई माने नहीं थे. हिंदूवादी कांग्रेसी भी सिर झुका कर इंदिरा, राजीव और सोनिया गांधी की बातें मानने को मजबूर थे.
लेकिन अब तक षड्यंत्रकारी प्रचार करते ये लोग इस परिवार को हिंदू विरोधी साबित कर चुके थे और इन के पूजापाठ करने और मंदिरों में जाने पर भी एतराज जताते रहते थे.
गुजरे कल की इन बातों का गहरा संबंध तलाक की आज की कानूनी परेशानियों, झमेलों, उलझनों और पेचीदगियों से है जिन के चलते गरिमा जैसी लाखों औरतें कानूनी ज्यादतियों के सामने कराह रही हैं, लेकिन उन की पीड़ा हिंदूवादी सरकार समझने को तैयार नहीं. क्योंकि वह तो नाच ही उन लोगों के इशारे पर रही है जो कैसे भी हो, वर्णव्यवस्था थोप कर देश को हिंदू राष्ट्र बनते देखना चाहते हैं जिस में औरत का दर्जा शूद्र सरीखा होता है.
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लाख टके का सवाल यह भी है कि क्यों समझाइश के नाम पर महिलाओं को उस पति और ससुराल में रहने को बाध्य किया जाता है जहां वे घुटन महसूस करती हैं, पिटती हैं और तरहतरह की अमानवीय क्रूरता का शिकार भी होती रहती हैं. इसे महिलाओं को फिर पीछे धकेलने की कोशिश या साजिश कहा जा सकता है.
दहेज प्रताड़ना, घरेलू हिंसा और बलात्कारों का विरोध आएदिन विभिन्न महिला संगठन सड़कों पर करते रहते हैं क्योंकि ये समस्याएं उन्हें दिखती हैं. नहीं दिखते तो तलाक के सालोंसाल चलते रहने के मुकदमे, जिन के तले दबकर महिला की इच्छा, आत्मविश्वास, स्वाभिमान, स्वतंत्रता और सम्मान दम तोड़ रहे होते हैं. रोज लाखों महिलाओं की ‘मर्यादा’ अदालत में तारतार हो रही होती है और कानून मंत्री कहते हैं कि सरकार को महिलाओं की मर्यादा का पूरा खयाल है.