दिल्ली आये मुझे अभी तीन महीने ही हुए थे. नया शहर, नया औफिस, नयी नौकरी. अभी ठीक से सेटल भी नहीं हो पायी थी कि अचानक एक दिन सुबह-सुबह लखनऊ से भाई का फोन आया कि पापा का एक्सीडेंट हो गया है, तुरंत आ जाओ. तुम्हें बार-बार याद कर रहे हैं. घर से पांच सौ किलोमीटर दूर मैं यह खबर सुन कर बदहवास सी हो गई. अब अचानक न तो ट्रेन का रिजर्वेशन मिल सकता था और न मैंने कभी हवाई सफर किया था. ट्रेन का टिकट लेकर बैठ भी जाती तब भी दूसरे दिन ही पहुंचती. सिर घूमने लगा कि क्या करूं. अचानक तय किया कि बस पकड़ो और निकल जाओ. मैंने फटाफट एक बैग में दो जोड़ी कपड़े डाले और औटो रिक्शा लेकर दिल्ली आईएसबीटी की ओर भागी. दिल यह सोच-सोच कर धड़क रहा था कि पता नहीं पापा किस कंडीशन में हैं. भाई तो कह रहा था कि खतरे से बाहर हैं, मगर क्या पता कितनी चोट लगी है. भाई ने बताया था कि सुबह मौर्निंग वाक पर निकले थे कि पीछे से एक बाइक वाले ने जोर की टक्कर मारी थी. बुढ़ापे का शरीर, पता नहीं चोट कितनी गहरी पहुंची होगी.

बस अड्डे पर पहुंच कर मैं राज्य परिवहन की बस में जा बैठी. मगर जब बस काफी देर तक नहीं चली तो मैंने कंडक्टर से पूछा. वह बोला कि जब पूरी भर जाएगी तब चलेगी. मैंने सिर घुमा कर देखा, पीछे सारी सीटें खाली पड़ी थीं. इसे भरने में तो घंटा भर लग जाएगा. मै परेशान हो गयी. बाहर प्राइवेट बसों के चालक जोर-जोर से आवाज लगा रहे थे - सात घंटे में सफर पूरा करें... आइये सात घंटे में सफर पूरा करें... लखनऊ-कानपुर-गोरखपुर... आइये... आइये... . मैं सरकारी बस से उतरी और एक बस चालक से पूछा, ‘लखनऊ कब तक पहुंचा दोगे?’ वह बोला, ‘शाम सात बजे तक.’ मैं तुंरत प्राइवेट बस में चढ़ गयी. सरकारी बस का कंडक्टर मुझे रोकता रह गया, ‘बोला, गलती कर रही हो मैडम, उससे पहले सरकारी बस पहुंच जाएगी. वह ज्यादा किराया लेंगे.’ मगर मुझे तो जल्दी से जल्दी पहुंचने की धुन लगी थी. प्राइवेट बस पूरी तरह भरी हुई थी. जल्दी ही चल पड़ेगी. मैं बैग लिये खट-खट उस पर चढ़ गयी.

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