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सेटर्सः विषय के साथ न्याय करने में विफल

रेटिंग: ढाई  स्टार

अवधिः 2 घंटे 5 मिनट

निर्माताः नरेंद्र हीरावत और विकास मनी

निर्देशकः अश्विनी चौधरी

पटकथा: विकास मनी और अश्विनी चौधरी

कलाकारःपवन मल्होत्रा, आफताब शिवदसानी, श्रेयष तलपड़े, सोनाली सेहगल, इशिता दत्ता, विजय राज व अन्य.

कैमरामैन: संतोष थुंडियाली

शिक्षा व्यवस्था को दीमक की तरह चाट रहे पेपर लीक कराने व नकल कराने वाले गिरोह और इनकी कार्यशैली को लेकर अब तक कई फिल्में बन चुकी हैं. कुछ माह पहले इमरान हाशमी की फिल्म ‘‘व्हाय चीट इंडिया’’ भी इसी विषय पर बनी थी. अब उसी घिसे पिटे विषय पर अश्वनी चैधरी फिल्म ‘‘सेटर्स’’ लेकर आए हैं, जिसमें उन्होंने दिखाया है कि इस गिरोह की मदद अपराधियों को सजा देने वाले जज से लेकर पुलिस विभाग के उच्चाधिकारी भी अपने बेट या बेटी को व्यावसायिक परीक्षा में पास कराने के लिए लेते रहते हैं. ऐसे में वह इस गिरोह पर अंकुश कैसे लगाएंगे. फिल्म में विस्तार से इस गिरोह की कार्यप्रणाली का चित्रण किया गया है. इस फिल्म की एक ही खासियत है कि इस फिल्म में मोबाइल व ब्लू टूथ की हाई टेक/नई तकनीक का उपयोग यह गिरोह किस तरह करता है, उसका भी चित्रण है.

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कहानीः

फिल्म की कहानी के केंद्र में वाराणसी में रह रहे दबंग व बाहुबली भइयाजी (पवन मल्होत्रा) और उनके लिए काम करने वाले अपूर्वा चैधरी(श्रेयष तलपड़े) के इर्द गिर्द घूमती है. यह दोनों अपने गुर्गों (जीशान कादरी,विजय राज,मनु रिषि,नीरज सूद) के साथ मिलकर व्यावसायिक परीक्षाओं के पेपर व उनके जवाब परीक्षर्थियों को उंचे दाम पर मुहैया कराकर शिक्षा तंत्र में दीमक लगाने का काम कर रहे हैं. पर यह कहानी मुंबई, वाराणसी, लखनउ, दिल्ली व जयपुर तक जाती है. कहानी शुरू होती है मुंबई से जहां रेलवे भर्ती की परीक्षा के प्रश्नपत्र और उनके जवाब मुहैया कराने के लिए प्रति परीक्षार्थी दस लाख रूपए के हिसाब से पचास लोगों में बेचते हैं. एक लड़की अपूर्वा उर्फ अप्पू से यह कहकर प्रश्नपत्र व उनके जवाब लेने से इंकार कर देती है कि वह अपने पिता का घर गिरवी नही रखेगी और उसने जो पढ़ा है, उसी आधार पर वह परीक्षा देगी. इससे प्रभावित होकर अप्पू उस लड़की को मुफ्त में ही प्रशनपत्र व उनके जवाब दे देता है. परीक्षा खत्म होते ही सारा पैसा इकट्ठा कर वह अपने साथियों के साथ वाराणसी पहुंचकर धन व हिसाब भईयाजी को सौप देता है. उधर वाराणसी के डीआई जी दिल्ली के दबाव में एटीएस के एस पी आदित्य (आफताब शिवदासानी) को जिम्मेदारी देते हैं कि प्रश्नपत्र लीक कराने वाले यानी कि सेटर्स के गिरोह का भंडाफोड़कर उन्हे जेल के अंदर भेजे. आदित्य घर जाकर अपनी पत्नी से बात करता है, तो पता चलता है कि आदित्य, उनकी  पत्नी ऐश्वर्या व अपूर्वा चैधरी कभी गहरे दोस्त हुआ करते थे. आदित्य व अपूर्वा ने एक साथ पुलिस विभाग की नौकरी पाने के लिए परीक्षा दी थी, आदित्य सफल हुए थे और अपूर्वा असफल. इतना ही नही आदित्य को पता है कि अपूर्वा पेपर सेटर्स है. अब आदित्य अपनी टीम गठित करता है. वह अपनी टीम में ईशा (सोनाली सहगल), जमील अंसारी (जमील खान)व दिव्यांकर (अनिल मोंगे) को जोड़ता है. इधर आदित्य अपनी टीम के साथ मिलकर शिक्षा जगत के इस घपले को उजागर करने के साथ ही सबूतों के साथ भईया जी व अपूर्वा को गिरफ्तार करने की योजना बनाकर काम शुरू करते हैं. उधर बैंकिग की परीक्षा होनी है. इस बार फिर अपूर्वा ने 49 लोगों से पैसे लिए हैं. बैंक में प्रोबीशनरी आफिसर की परीक्षा भईयाजी की बेटी प्रेरणा (ईशा दत्ता) भी दे रही है. पर वह अपूर्वा से कहकर स्वयं परीक्षा देकर अपनी पढ़ाई के आधार पर पास होना चाहती है. अपूर्वा उसकी यह हसरत पूरी कर देता है. जिसके बाद प्रेरणा, अपूर्वा से प्यार करने लगती है. मगर आदित्य के चंगुल में अपूर्वा के तीन साथी पकड़े जाते हैं. पुलिस तीनों की जमकर पिटाई करती है, मगर तीनों सच नहीं कबूलते. उधर अपूर्वा के बार बार कहने के बावजूद भईया जी, मंत्री जी की मदद से इन तीनों को छुड़ाने से इंकार करते हुए भइयाजी एक राजनीतिक पार्टी के मुखिया अतुल दुबे(अतुल तिवारी) से मिलकर उस पार्टी का नेता बनकर दिल्ली जाने की तैयारी कर लेते है.पर अपूर्वा जज से मिलकर अपने तीनों साथियों को जमानत पर रिहा कराने में सफल हो जाता है. यहीं से भइयाजी और अपूर्वा के रास्ते अलग हो जाते हैं. अब इंजीनियरिंग की परीक्षा होनी है, जिसके पेपर जयपुर में छप रहे हैं. भइयाजी ने अपने आदमी को पेपर हासिल करने के लिए लगा रखा है, जबकि अपूर्वा खुद लगा हुआ है, जीत अपूर्वा की होती है. उसके बाद मेडिकल की परीक्षा होनी है. इस बार हर परीक्षार्थी से अपूर्वा पचास लाख रूपए लेता है. आदित्य की टीम और अपूर्वा के बीच चूहे बिल्ली का खेल जारी रहता है. भइयाजी खुद आगे बढ़कर अपूर्वा के संबंध में आदित्य को जानकारी देते हैं, फिर भी आदित्य को असफलता हासिल होती है. एक दिन भइयाजी की बेटी प्रेरणा, अपूर्वा के पास आकर कह देती हैं कि वह उसी से शादी करेगी. अंततः मेडिकल की परीक्षा खत्म होते ही अपूर्वा, प्रेरणा व निजाम (विजय राज) के साथ नेपाल चला जाता है. आदित्य कुछ नही कर पाते.

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निर्देशनः

‘‘लाडो’’ और ‘‘धूप’’ जैसी कम बजट की बेहतरीन फिल्मों के निर्देशित कर चुके अश्विनी चौधरी ‘सेटर्स’ में उत्कृष्ट कलाकारों की मौजूदगी के बावजूद बुरी तरह से मात खा गए हैं. पटकथा के स्तर पर भी वह मात खा गए. अश्विनी  चौधरी ने शिक्षा जगत में हो रहे घोटालों पर बात करने की बजाय अपना सारा ध्यान अपराधी के पीछे भागती पुलिस यानी कि चूहे बिल्ली के खेल के माध्यम से फिल्म को रोमांचकारी बनाए रखने पर ही दिया. हमारे देश में शिक्षा जगत व शिक्षा तंत्र के लिए नासूर बन चुके व्यापम सहित कई घोटाले हुए हैं. मगर फिल्मकार इस तरह के घोटालो व सेटर्स के चलते युवा पीढ़ी शिक्षा तंत्र को  किस तरह का नुकसान हो रहा है, इस नुकसान के क्या परिणाम हो रहे हैं, उस पर कोइ बात नहीं करती. यह फिल्म महज एक चोर को पकड़ने के लिए भागती पुलिस की रोमांचक गाथा बनकर रह जाती है. पूरी फिल्म देखने के बाद इस बात का अहसास होता है कि फिल्मकार का यह दावा खोखला है कि उन्होंने इस विषय पर गहन शेधकार्य किया है. यह कहानी महज पुलिस विभाग के जांच अधिकारी की डायरी का पन्ना मात्र है. लेखक व निर्देशक ने रिसर्च और लेखन में थोड़ी सी मेहनत की होती,तो यह एक बेहतरीन फिल्म बन सकती थी. लेखक ने कुछ चरित्र बहुत बेतरीन तरीके से लिखे हैं.

कैमरामैन बधाई के पात्र

फिल्म के कैमरामैन संतोष थुंडियाली बधाई के पात्र हैं. वह अपने कैमरे की मदद से मुंबई, दिल्ली,जयपुर व वाराणसी की गलियों, वाराणसी में गंगा नदी के घाटों के साथ ही यहां के रहन सहन आदि की बारीकियों सुंदरता के साथ परदे पर उकेरने में सफल रहे हैं.

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अभिनयः

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो भइयाजी के किरदार में पवन मल्होत्रा के अभिनय की तारीफ की जाएगी. कुछ वर्षों से कौमिक फिल्मों के पर्याय बन चुके श्रेयष तलपड़े ने अपूर्वा के अलग अंदाज व मिजाज के किरदार को बाखूबी निभाया हैं. उन्होंने भाषा पर काम कर किरदार को जीवंत बनाया है. श्रेयष ने जिस सहजता के साथ अपूर्वा के किरदार को निभाया है, उससे उनके अंदर की अभिनय क्षमता का अहसास होता है. और सवाल उठता है कि अब तक उन्हें इस तरह के किरदार फिल्मकार देने से क्यों डरते रहे हैं? आफताब शिवदासानी भी लंबे समय बाद कुछ बेहतर परफार्म करते आए. इशिता दत्ता व सोनाली सहगल के हिस्से करने को कुछ आया ही नहीं. अन्य कलाकार अपने अपने किरदारों में ठीक ठाक रहे.

आलू और कमल ककड़ी की सब्जी

आलू की सब्जी तो आपने कई बार खाई होगी लेकिन इस रेसिपी में आलू और कमल ककड़ी को एक साथ मिलाकर बनाया जाता है. बहुत सारे मसालें डालकर बनाई गई इस सब्जी को आप चावल या रोटी के साथ सर्व कर सकती हैं.

सामग्री

आलू  (6-7 छिला हुआ)

देसी घी (1/2 टेबल स्पून)

हरी मिर्च (3)

दालचीनी पाउडर (2 टी स्पून)

ग्रीन सैलेड विद फेटा

कमल ककड़ी (4-5)

हरा धनिया (टुकड़ों में कटा हुआ)

लहसुन की कलियां  (बारीक कटा हुआ)

बेसन (2 टेबल स्पून)

आमचूर पाउडर (1 टी स्पून)

बड़ी इलाइची पाउडर (1 टी स्पून)

चीज चिकन कबाब रेसिपी

कालीमिर्च पाउडर (1 टी स्पून)

नमक (स्वादानुसार)

पानी

बनाने की वि​धि

आलुओं को बहुत ही पतले साइज में काट लें.

इन्हें थोड़ी देर के लिए पानी में भिगो दें और इसके बाद इन्हें नमक वाले पानी में उबालकर छान लें और एक तरफ रख दें.

वहीं कमल ककड़ी को छीलकर तिरछा काट लें और कुछ देर के लिए पानी में डालकर एक तरफ रख दें। इसे नमक वाले पानी में उबालकर छान लें.

एक पैन में घी गर्म करें और इसमें लहसुन डालें और एक बार लहसुन ब्राउन हो जाए तो इसमें हरी मिर्च और बेसन डालकर भून लें.

तंदूरी फ्रूट चाट रेसिपी

इसके बाद इसमें नमक, हरा धनिया, आमचूर पाउडर, दालचीनी पाउडर, बड़ी इलाइची पाउडर, हरी इलाइची का पाउडर और काली मिर्च का पाउडर डालें.

इसमें आलू और कमल ककड़ी डालें और इसे हरा धनिया डालकर गार्निश करें और गर्मागर्म सर्व करें.

अचारी बैंगन रेसिपी

अचारी बैंगन बहुत ही स्वादिष्ट रेसिपी है. छोटे बैंगन को लम्बाई में काट कर इन्हें डीप फ्राई करने के बाद इसमें टैंगी मसाला भर कर भूना जाता है. इस बैंगन की डिश को आप लंच में परांठे के साथ सर्व कर सकती हैं.

मसाले के लिए:

साबुत धनिया (ड्राई रोस्ट 2 टेबल स्पून)

सौंफ (ड्राई रोस्ट 1 टेबल स्पून)

जीरा (ड्राई रोस्ट 1 टी स्पून)

मेथी दाना (1 1/2 टी स्पून)

सरसों के दाने (2 टी स्पून सफेद)

कलौंजी (1/2 टी स्पून)

अजवाइन (1 टी स्पून)

आमचूर (4 टी स्पून)

हल्दी पाउडर (1/4 टी स्पून)

लाल मिर्च पाउडर (स्वादानुसार)

बैंगन को भूनने के लिए:

सरसों का तेल (5 टेबल स्पून)

तेजपत्ता (2)

लौंग (3-4)

1 टी स्पून हींग (2 बड़े चम्मच पानी में भीगी हुई)

स्वादानुसार (नमक)

ग्रीन सैलेड विद फेटा

बनाने की वि​धि

बैंगन को लम्बाई में काट लें मगर इसे डंठल से अलग न करें.

इसे हल्का सा दबाकर इसके अंदर नमक और हल्दी लगाएं और इसे डीप फ्राई करें.

एक पैन में साबुत धनिया, सौंफ और जीरा को ड्राई रोस्ट करें.

इनको अन्य मसाले डालकर पीस लें.

3.मसाले के साथ बैंगन को डीप फ्राई कर लें और इन्हें एक तरफ रख दें.

एक कड़ाही में सरसों का तेल गर्म करें, इसमें तेजपत्ता, लौंग और हींग का पाउडर डालें.

इसके बाद स्टफड बैंगन डालकर भूनें.

अपने स्वादानुसार नमक डाल दें, इसे भूनें और गर्मागर्म सर्व करें.

चीज चिकन कबाब रेसिपी

दमकती त्वचा पाने के लिए अपनाएं ये 5 टिप्स

त्वचा को भी सांस लेते रहने के लिए उसे नियमित रूप से साफ करना बेहद जरूरी है. अगर आप त्वचा की साफ-सफाई को नजरअंदाज करती हैं तो आपकी परेशानियां बढ़ेंगी और आपकी त्वचा अपनी चमक खो देगी. तो आइए बताते हैं, आप कैसे इन होममेड टिप्स को अपनाकर अपनी त्वचा का आसानी से ख्याल रख सकती हैं.

टमाटर

टमाटर को स्किन पर रब करने से अच्छा और आसान कुछ नहीं हो सकता. यह सिर्फ न आपकी स्किन साफ करेगा बल्कि आपके रोम छिद्र को खोलने, स्किन को लचीला बनाने और टाइट करने में मदद करेगा.

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दही

औयली से लेकर कौम्बिनेशन स्किन के लिए दही बेस्ट औप्शन है. दो छोटे चम्मच दही से डेली दिन के आखिर में मसाज करें और पानी से धो लें. यह आपकी त्वचा को साफ रखेगा. साथ ही, खराब होने से भी बचाएगा.

मुल्तानी मिट्टी

अगर आपकी त्वचा औयली है, तो आप मुल्तानी मिट्टी से बने पेस्ट को आसानी से इस्तेमाल कर सकती हैं, जो कि नैचुरल क्ले है, जो काफी लंबे समय से स्किन को साफ करने में इस्तेमाल की जाती है.

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पपीता

ओटमील और थोड़े दूध में मैश किया पपीता मिलाकर स्किन पर रब करें. चेहरे और गर्दन पर लगाने के बाद अच्छे से धो लें. यह सिर्फ आपकी स्किन को साफ नहीं करेगा बल्कि टैन मिटाने, दाग-धब्बे दूर करने में भी सहायक है.

 बेसन

बेसन को हर तरह की त्वचा को साफ करने के लिए बेहतर औप्शन माना जाता है. इसे दही के साथ मिलाकर स्किन पर मसाज़ कर सकते हैं. यह औयली और कौम्बिनेशन स्किन के लिए अच्छा होता है.

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मेरी कोई जाति भी नहीं

नास्तिकता की ओर बढ़ रही है दुनिया

मैं नास्तिक क्यों हूं…

काल्पनिक ईश्वर में विश्वास नहीं करता बौद्ध धर्म

तमिलनाडु में वेल्लोर के तिरूपत्तूर की निवासी 35 साल की एक वकील एम.ए.स्नेहा ने अपने धर्म के साथ जाति का भी जिक्र कभी नहीं किया. उनके जन्म और स्कूल के सर्टिफिकेट्स में भी जाति और धर्म के कौलम खाली हैं. स्नेहा को हाल ही में तमिलनाडु सरकार ने एक सर्टिफिकेट जारी किया है, जो कहता है कि इनकी कोई जाति या धर्म नहीं है. इन्हें भारत का पहला ऐसा नागरिक माना जा सकता है, जिन्हें अधिकारिक तौर पर अनुमति मिली है. यह सर्टिफिकेट पाने के लिए स्नेहा को नौ साल लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी है. उन्होंने वर्ष 2010 में ‘नो कास्ट, नो रिलिजन’ के लिए आवेदन किया था और 5 फरवरी 2019 को कई मुश्किलें पार करने के बाद उन्हें यह सर्टिफिकेट मिला है. अब स्नेहा पहली ऐसी शख्स हैं जिनके पास यह प्रमाणपत्र है. स्नेहा खुद ही नहीं, बल्कि उनके माता-पिता भी बचपन से ही अपने आवेदन पत्रों में जाति और धर्म का कौलम खाली छोड़ते थे. स्नेहा खुद ही नहीं, बल्कि अपनी तीन बेटियों के फौर्म में भी जाति और धर्म के कौखाली छोड़ती हैं.

सामाजिक परिवर्तन की दिशा में स्नेहा का यह कदम बहुत महत्वपूर्ण माना जा रहा है. खुद साउथ एक्टर कमल हसन ने स्नेहा और उनके प्रमाणपत्र की फोटो ट्विटर पर शेयर की. स्नेहा नास्तिक हैं और उनका कहना है कि जब जाति और धर्म के मानने वालों के लिए प्रमाणपत्र होते हैं तो हम जैसे नास्तिक लोगों के लिए क्यों नहीं? स्नेहा को बिना जाति और धर्म के खुद की एक अलग पहचान चाहिए थी, जो उन्हें हासिल हो चुकी है. स्नेहा के इस कदम की हर जगह तारीफ हो रही है.

नास्तिक घोषित करवाने कोर्ट पहुंचे

हाल ही में गुजरात हाईकोर्ट में राजीव उपाध्याय नाम के एक 35 वर्षीय आटोरिक्शा चालक ने खुद को नास्तिक का दर्जा दिये जाने के सम्बन्ध में याचिका दायर की हैं. इस याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से पूछा है कि राज्य किसी व्यक्ति को नास्तिक का दर्जा क्यों नहीं दे सकता है? दरअसल अब तक एंटी कनवर्जन लौ के मुताबिक, एक धर्म से दूसरे धर्म में जाने की इजाजत तो है, मगर नास्तिक होने की नहीं है. उपाध्याय ने पहले अहमदाबाद के डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर से उनके धर्म को एंटी कनवर्जन लॉ के तहत हिन्दू से बदल कर नास्तिक करने का आवेदन किया था, मगर कलेक्टर ने उनसे कहा कि – ‘कोई भी नागरिक अपनी इच्छा से एक धर्म से दूसरे धर्म में परिवर्तन कर सकता है, लेकिन कानून में एक धर्म से नास्तिक हो जाने का कोई प्रावधान नहीं है.’ इसके बाद उपाध्याय ने हाईकोर्ट का रुख किया. उनकी याचिका पर सुनवाई फिलहाल जारी है. अगर फैसला उनके हित में होता है तो यह फैसला मील का पत्थर साबित होगा.

एक समस्या भी 

धर्म का जिक्र न करने वाले या नास्तिक लोगों की संख्या हालांकि बढ़ रही है, लेकिन कानूनी मामलों में उनकी पहचान विवादों के दायरे में है क्योंकि नास्तिक लोगों का कोई पर्सनल लौ नहीं है. ऐसे में कानूनी मामलों में उनके जन्म के आधार पर धर्म तय किया जाता है. साल 2012 में श्रीरंग बलवंत खंबेटे नाम के वकील ने ठाणे की सेशन कोर्ट में खुद को गैर धर्मिक घोषित करने की मांग की थी. कोर्ट ने कहा कि उन्हें अपना धर्म त्यागने की अनुमति है. उन्हें ‘गैर-धार्मिक’ की श्रेणी दी जा सकती है, मगर इसमें यह भी खतरा है कि इससे उनके परिवार के सदस्यों के लिए स्थिति जटिल हो सकती है, उनकी सम्पत्ति और संस्कारों को लेकर कानूनी पेंच आ सकते हैं.

अब जाने दो उसे 

रिश्ते बेजान सामान की तरह नहीं होते जिन्हें पुराना होने पर घर से निकाल दिया जाए. वे तो ऐसी अमूल्य पूंजी हैं जिन्हें दिल रूपी घर में सहेजा जाता है.

मुझे नाकारा और बेकार पड़ी चीजों से चिढ़ होती है. जो हमारे किसी काम नहीं आता फिर भी हम उसे इस उम्मीद पर संभाले रहते हैं कि एक दिन शायद वह काम आए. और जिस दिन उस के इस्तेमाल का दिन आता है, पता चलता है कि उस से भी कहीं अच्छा सामान हमारे पास है. बेकार पड़ा सामान सिर्फ जगह घेरता है, दिमाग पर बोझ बनता है बस.

अलमारी साफ करते हुए बड़बड़ा रहा था सोम, ‘यह देखो पुराना ट्रांजिस्टर, यह रुकी हुई घड़ी. बिखरा सामान और उस पर कांच का भी टूट कर बिखर जाना…’ विचित्र सा माहौल बनता जा रहा था. सोम के मन में क्या है, यह मैं समझ नहीं पा रहा था.

मैं सोम से क्या कहूं, जो मेरे बारबार पूछने पर भी नहीं बता रहा कि आखिर वजह क्या है.

‘‘क्या रुक गया है तुम्हारा, जरा मुझे समझाओ न?’’

सोम जवाब न दे कर सामान को पैर से एक तरफ धकेल परे करने लगा.

‘‘इस सामान में किताबें भी हैं, पैर क्यों लगा रहे हो.’’

सोम एक तरफ जा बैठा. मुझे ऐसा भी लगा कि उसे शर्म आ रही है. संस्कारों और ऊंचे विचारों का धनी है सोम, जो व्यवहार वह कर रहा है उसे उस के व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं माना जा सकता क्योंकि वह ऐसा है ही नहीं.

‘‘कल किस से मिल कर आया है, जो ऐसी अनापशनाप बातें कर रहा है?’’

सोम ने जो बताया उसे सुन कर मुझे धक्का भी लगा और बुरा भी. किसी तांत्रिक से मिल कर आया था सोम और उसी ने समझाया था कि घर का सारा खड़ा सामान घर के बाहर फेंक दो.

‘‘खड़े सामान से तुम्हारा क्या मतलब है?’’

‘‘खड़े सामान से हमारा मतलब वह सामान है जो चल नहीं रहा, बेकार पड़ा सामान, जो हमारे काम में नहीं आ रहा वह सामान…’’

‘‘तब तो सारा घर ही खाली करने वाला होगा. घर का सारा सामान एकसाथ तो काम नहीं न आ जाता, कोई सामान आज काम आ रहा है तो कोई कल. किताबों को पैरों से धकेल कर बाहर फेंक रहे हो. ट्रांजिस्टर में सैल डालोगे तो बजेगा ही… क्या तुम ने पूरी तरह समझा कि वह तांत्रिक किस सामान की बात कर रहा था?’’

‘‘हमारे घर का वास्तु भी ठीक नहीं है,’’ सोम बोला, ‘‘घर का नकशा भी गलत है. यही विकार हैं जिन की वजह से मुझे नौकरी नहीं मिल रही, मेरा जीवन ठहर गया है भाई.’’

सोम ने असहाय नजरों से मुझे देखा. विचित्र सी बेचैनी थी सोम के चेहरे पर.

‘‘अब क्या घर को तोड़ कर फिर से बनाना होगा? नौकरी तो पहले से नहीं है… लाखों का जुगाड़ कहां से होगा? किस घरतोड़ू तांत्रिक से मिल कर आए हो, जिस ने यह समझा दिया कि घर भी तोड़ दो और घर का सारा सामान भी बाहर फेंक दो.’’

हंसी आने लगी थी मुझे.

मां और बाबूजी कुछ दिन से घर पर नहीं हैं. सोम उन का ज्यादा लाड़ला है. शायद उदास हो गया हो, इसलिए बारबार जीवन ठहर जाने का गिला कर रहा है. मैं क्या करूं, समझ नहीं पा रहा था.

‘‘तुम्हें नीलू से मिले कितने दिन हो गए हैं? जरा फोन करना उसे, बुलाना तो, अभी तुम्हारा जीवन चलने लगेगा,’’ इतना कह मैं ने मोबाइल उठा कर सोम की तरफ उछाल दिया.

‘‘वह भी यहां नहीं है, अपनी बूआ के घर गई है.’’

मुझे सोम का बुझा सा स्वर लगा. कहीं यही कारण तो नहीं है सोम की उदासी का. क्या हो गया है मेरे भाई को? क्या करूं जो इसे लगे कि जीवन चलने लगा है.

सुबहसुबह मैं छत पर टहलने गया. बरसाती में सामान के ढेर पर नजर पड़ी. सहसा मेरी समझ में आ गया कि खड़ा सामान किसे कहते हैं. भाग कर नीचे गया और सोम को बुला लाया.

‘‘यह देख, हमारे बचपन की साइकिलें, जिन्हें जंग लगी है, कभी किसी काम में नहीं आने वालीं, सड़े हुए लोहे के पलंग और स्टूल, पुराना गैस का चूल्हा, यह पुराना टीवी, पुराना टूटा टेपरिकार्डर और यह साइकिल में हवा भरने वाला पंप…इसे कहते हैं खड़ा सामान, जो न आज काम आएगा न कल. छत का इतना सुंदर कोना हम ने बरबाद कर रखा है.’’

आंखें फैल गईं सोम की. मां और बाबूजी घर पर नहीं थे सो बिना रोकटोक हम ने घर का सारा कबाड़ बेच दिया. सामान उठा तो छत का वह कोना खाली हो गया जिसे हम साफसुथरा कर अपने लिए छोटी सी आरामगाह बना सकते थे.

नीचे रसोई में भी हम ने पूरी खोज- खबर ली. ऊपर वाली शैल्फ पर जला हुआ पुराना गीजर पड़ा था. बिजली का कितना सामान जमा पड़ा था, जिस का उपयोग अब कभी होने वाला नहीं था. पुरानी ट्यूबें, पुराने हीटर, पुरानी इस्तरी.

हम ने हर जगह से खड़ा सामान निकाला तो 4 दिन में घर का नकशा बदल गया. छत को साफ कर गंदी पड़ी दीवारों पर सोम ने आसमानी पेंट पोत दिया. प्लास्टिक की 4 कुरसियां ला कर रखीं, बीच में गोल मेज सजा दी. छत से सुंदर छोटा सा फानूस लटका दिया. जो खुला भाग किसी की नजर में आ सके वहां परदा लगा दिया, जिसे जरूरत पड़ने पर समेटा भी जा सके और फैलाया भी.

‘‘एक हवादार कमरे का काम दे रहा है यह कोना. गरमी के मौसम में जब उमस बढ़ने लगेगी तो यहां कितना आराम मिला करेगा न,’’ उमंग से भर कर सोम ने कहा, ‘‘और बरसात में जब बारिश देखने का मन हो तो चुपचाप इसी कुरसी पर पसर जाओ…छत की छत, कमरे का कमरा…’’

सोम की बातों को बीच में काटते हुए मैं बोल पड़ा, ‘‘और जब नीलू साथ होगी तब और भी मजा आएगा. उस से पकौड़े बनवा कर खाने का मजा ही कुछ और होगा.’’

मैं ने नीलू का नाम लिया इस पर सोम ने गरदन हिला दी.

‘‘सच कह रहे हो भाई, नीचे जा कर देखो, रसोई भी हलकीफुलकी हो गई है… देख लेना, जब मां आएंगी तब उन्हें भी खुलाखुला लगेगा…और अगर मां ने कबाड़ के बारे में पूछा तो क्या कहेंगे?’’

‘‘उस सामान में ऐसा तो कोई सामान नहीं था जिस से मां का काम रुकेगा. कुछ काम का होता तब तो मां को याद आएगा न?’’

मेरे शब्दों ने सोम को जरा सा आश्वासन क्या दिया कि वह चहक कर बोला, ‘‘भाई क्यों न रसोई के पुराने बरतन भी बदल लें. वही प्लेटें, वही गिलास, देखदेख कर मन भर गया है. मेहमान आएं तो एक ही रंग के बरतन मां ढूंढ़ती रह जाती हैं.’’

सोम की उदासी 2 दिन से कहीं खो सी गई थी. सारे पुराने बरतन थैले में डाल हम बरतनों की दुकान पर ले गए. बेच कर, थोड़े से रुपए मिले. उस में और रुपए डाल कर एक ही डिजाइन की कटोरियां, डोंगे और प्लेटें ला कर रसोई में सजा दीं.

हैरान थे हम दोनों भाई कि जितने रुपए हम एक पिक्चर देखने में फूंक देते हैं उस से बस, दोगुने ही रुपए लगे थे और रसोई चमचमा उठी थी.

शाम कालिज से वापस आया तो खटखट की आवाज से पूरा घर गूंज रहा था. लपक कर पीछे बरामदे में गया. लकड़ी का बुरादा उड़उड़ कर इधरउधर फैल गया था. सोम का खाली दिमाग लकड़ी के बेकार पड़े टुकड़ों में उलझा पड़ा था. मुझे देख लापरवाही से बोला, ‘‘भाई, कुछ खिला दे. सुबह से भूखा हूं.’’

‘‘अरे, 5 घंटे कालिज में माथापच्ची कर के मैं आया हूं और पानी तक पूछना तो दूर खाना भी मुझ से ही मांग रहा है, बेशर्म.’’

‘‘भाई, शर्मबेशर्म तो तुम जानो, मुझे तो बस, यह कर लेने दो, बाबूजी का फोन आया है कि सुबह 10 बजे चल पड़ेंगे दोनों. शाम 4 बजे तक सारी कायापलट न हुई तो हमारी मेहनत बेकार हो जाएगी.’’

अपनी मस्ती में था सोम. लकड़ी के छोटेछोटे रैक बना रहा था. उम्मीद थी, रात तक पेंट आदि कर के तैयार कर देगा.

लकड़ी के एक टुकड़े पर आरी चलाते हुए सोम बोला, ‘‘भाई, मांबाप ने इंजीनियर बनाया है. नौकरी तो मिली नहीं. ऐसे में मिस्त्री बन जाना भी क्या बुरा है… कुछ तो कर रहा हूं न, नहीं तो खाली दिमाग शैतान का घर.’’

मुझे उस पल सोम पर बहुत प्यार आया. सोम को नीलू से गहरा जुड़ाव है, बातबेबात वह नीलू को भी याद कर लेता.

नीलू बाबूजी के स्वर्गवासी दोस्त की बेटी है, जो अपने चाचा के पास रहती है. उस की मां नहीं थीं, जिस वजह से वह अनाथ बच्ची पूरी तरह चाचीचाचा पर आश्रित है. बी.ए. पास कर चुकी है, अब आगे बी.एड. करना चाहती है. पर जानता हूं ऐसा होगा नहीं, उसे कौन बी.एड. कराएगा. चाचा का अपना परिवार है. 4 जमातें पढ़ा दीं अनाथ बच्ची को, यही क्या कम है. बहुत प्यारी बच्ची है नीलू. सोम बहुत पसंद करता है उसे. क्या बुरा है अगर वह हमारे ही घर आ जाए. बचपन से देखता आ रहा हूं उसे. वह आती है तो घर में ठंडी हवा चलने लगती है.

‘‘कड़क चाय और डबलरोटी खाखा कर मेरा तो पेट ही जल गया है,’’ सोम बोला, ‘‘इस बार सोच रहा हूं कि मां से कहूंगा, कोई पक्का इंतजाम कर के घर जाएं. तुम्हारी शादी हो जाए तो कम से कम डबल रोटी से तो बच जाएंगे.’’

सोम बड़बड़ाता जा रहा था और खातेखाते सभी रैक गहरे नीले रंग में रंगता भी जा रहा था.

‘‘यह देखो, यह नीले रंग के छोटेछोटे रैक अचार की डब्बियां, नमक, मिर्च और मसाले रखने के काम आएंगे. पता है न नीला रंग कितना ठंडा होता है, सासबहू दोनों का पारा नीचा रहेगा तो घर में शांति भी रहेगी.’’

सोम मुझे साफसाफ अपने मनोभाव समझा रहा था. क्या करूं मैं? कितनी जगह आवेदन दिया है, बीसियों जगह साक्षात्कार भी दे रखा है. सोचता हूं जैसे ही सोम को नौकरी मिल जाएगी, नीलू को बस, 5 कपड़ों में ले आएंगे. एक बार नीलू आ जाए तो वास्तव में हमारा जीवन चलने लगेगा. मांबाबूजी को भी नीलू बहुत पसंद है.

दूसरी शाम तक हमारा घर काफी हलकाफुलका हो गया था. रसोई तो बिलकुल नई लग रही थी. मांबाबूजी आए तो हम गौर से उन का चेहरा पढ़ते रहे. सफर की थकावट थी सो उस रात तो हम दोनों ने नमकीन चावल बना कर दही के साथ परोस दिए. मां रसोई में गईं ही नहीं, जो कोई विस्फोट होता. सुबह मां का स्वर घर में गूंजा, ‘‘अरे, यह क्या, नए बरतन?’’

‘‘अरे, आओ न मां, ऊपर चलो, देखो, हम ने तुम्हारे आराम के लिए कितनी सुंदर जगह बनाई है.’’

आधे घंटे में ही हमारी हफ्ते भर की मेहनत मां ने देख ली. पहले जरा सी नाराज हुईं फिर हंस दीं.

‘‘चलो, कबाड़ से जान छूटी. पुराना सामान किसी काम भी तो नहीं आता था. अच्छा, अब अपनी मेहनत का इनाम भी ले लो. तुम दोनों के लिए मैं लड़कियां देख आई हूं. बरसात से पहले सोचती हूं तुम दोनों की शादी हो जाए.’’

‘‘दोनों के लिए, क्या मतलब? क्या थोक में शादी करने वाली हो?’’ सोम ने झट से बात काट दी. कम से कम नौकरी तो मिल जाए मां, क्या बेकार लड़का ब्याह देंगी आप?’’

चौंक उठा मैं. जानता हूं, सोम नीलू से कितना जुड़ा है. मां इस सत्य पर आंख क्यों मूंदे हैं. क्या उन की नजरों से बेटे का मोह छिपा है? क्या मां की अनुभवी आंखों ने सोम की नजरों को नहीं पढ़ा?

‘‘मेरी छोड़ो, तुम भाई की शादी करो. कहीं जाती हो तो खाने की समस्या हो जाती है. कम से कम वह तो होगी न जो खाना बना कर खिलाएगी. डबलरोटी खाखा कर मेरा पेट दुखने लगता है. और सवाल रहा लड़की का, तो वह मैं पसंद कर चुका हूं…मुझे भी पसंद है और भाई को भी. हमें और कुछ नहीं चाहिए. बस, जाएंगे और हाथ पकड़ कर ले आएंगे.’’

अवाक् रह गया मैं. मेरे लिए किसे पसंद कर रखा है सोम ने? ऐसी कौन है जिसे मैं भी पसंद करता हूं. दूरदूर तक नजर दौड़ा आया मैं, कहीं कोई नजर नहीं आई. स्वभाव से संकोची हूं मैं, सोम की तरह इतना बेबाक कभी नहीं रहा जो झट से मन की बात कह दूं. क्षण भर को तो मेरे लिए जैसे सारा संसार ही मानो गौण हो गया. सोम ने जो नाम लिया उसे सुन कर ऐसा लगा मानो किसी ने मेरे पैरों के नीचे से जमीन ही निकाल ली हो.

‘‘नीलू भाई को बहुत चाहती है मां. उस से अच्छी लड़की हमारे लिए कोई हो ही नहीं सकती…अनाथ बच्ची को अपना बना लो, मां. बस, तुम्हारी ही बन कर जीएगी वह. हमारे घर को नीलू ही चाहिए.’’

आंखें खुली रह गई थीं मां की और मेरी भी. हमारे घर का वह कोना जिसे हम ने इतनी मेहनत से सुंदर, आकर्षक बनाया वहां नीलू को मैं ने किस रूप में सोचा था? मैं ने तो उसे सोम के लिए सोचा था न.

नीलू को इतना भी अनाथ मत समझना…मैं हूं उस का. मेरा उस का खून का रिश्ता नहीं, फिर भी ऐसा कुछ है जो मुझे उस से बांधता है. वह मेरे भाई से प्रेम करती है, जिस नाते एक सम्मानजनक डोर से वह मुझे भी बांधती है.

‘‘तुम्हें कैसे पता चला? मुझे तो कभी पता नहीं चला.’’

‘‘बस, चल गया था पता एक दिन…और उसी दिन मैं ने उस के सिर पर हाथ रख कर यह जिम्मेदारी ले ली थी कि उसे इस घर में जरूर लाऊंगा.’’

‘‘कभी अपने मुंह से कुछ कहा था उस से तुम दोनों ने?’’ बारीबारी से मां ने हम दोनों का मुंह देखा.

मैं सकते में था और सोम निशब्द.

‘‘नीलू का ब्याह तो हो भी गया,’’ रो पड़ी थीं मां हमें सुनातेसुनाते, ‘‘उस की बूआ ने कोई रिश्ता देख रखा था. 4 दिन हो गए. सादे से समारोह में वह अपने ससुराल चली गई.’’

हजारों धमाके जैसे एकसाथ मेरे कानों में बजे और खो गए. पीछे रह गई विचित्र सी सांयसांय, जिस में मेरा क्याक्या खो गया समझ नहीं पा रहा हूं. पहली बार पता चला कोई मुझ से प्रेम करती थी और खो भी गई. मैं तो उसे सोम के लिए इस घर में लाने का सपना देखता रहा था, एक तरह से मेरा वह सपना भी कहीं खो गया.

‘‘अरे, अगर कुछ पता चल ही गया था तो कभी मुझ से कहा क्यों नहीं तुम ने,’’ मां बोलीं, ‘‘सोम, तुम ने मुझे कभी बताया क्यों नहीं था. पगले, वह गरीब क्या करती? कैसे अपनी जबान खोलती?’’

प्रकृति को कोई कैसे अपनी मुट्ठी में ले सकता है भला? वक्त को कोई कैसे बांध सकता है? रेत की तरह सब सरक गया हाथ से और हम वक्त का ही इंतजार करते रह गए.

सोम अपना सिर दोनों हाथों से छिपा चीखचीख कर रोने लगा. बाबूजी भी तब तक ऊपर चले आए. सारी कथा सुन, सिर पीट कर रह गए.

वह रात और उस के बाद की बहुत सी रातें ऐसी बीतीं हमारे घर में, जब कोई एक पल को भी सो नहीं पाया. मांबाबूजी अपने अनुभव को कोसते कि क्यों वे नीलू के मन को समझ नहीं पाए. मैं भी अपने ही मापदंड दोहरादोहरा कर देखता, आखिर मैं ने सोम को क्यों और किसकिस कोण से सही नहीं नापा. सब उलटा हो गया, जिसे अब कभी सीधा नहीं किया जा सकता था.

सोम एक सुबह उठा और सहसा कहने लगा, ‘‘भाई, खड़े सामान की तरह क्यों न अब खड़े भावों को भी मन से निकाल दें. जिस तरह नया सामान ला कर पुराने को विदा किया था उसी तरह पुराने मोह का रूप बदल क्यों न नए मोह को पाल लिया जाए. नीलू मेरे मन से जाती नहीं, भाभी मान जिस पर ममता लुटाता रहा, क्यों न उसे बहन मान नाता जोड़ लूं…मैं उस से मिलने उस के ससुराल जाना चाहता हूं.’’

‘‘अब क्यों उसे पीछे देखने को मजबूर करते हो सोम, जाने दो उसे…जो बीत गई सो बात गई. पता नहीं अब तक कितनी मेहनत की होगी उस ने खुद को नई परिस्थिति में ढालने के लिए. कैसेकैसे भंवर आए होंगे, जिन से स्वयं को उबारा होगा. अपने मन की शांति के लिए उसे तो अशांत मत करो. अब जाने दो उसे.’’

मन भर आया था मेरा. अगर नीलू मुझ से प्रेम करती थी तो क्या यह मेरा भी कर्तव्य नहीं बन जाता कि उस के सुख की चाह करूं. वह सब कभी न होने दूं. जो उस के सुख में बाधा डाले.

रो पड़ा सोम मेरे कंधे से लग कर. खुशनसीब है सोम, जो रो तो सकता है. मैं किस के पास जा कर रोऊं और कैसे बताऊं किसी को कि मैं ने क्या नहीं पाया, ऐसा क्या था जो बिना पाए ही खो दिया.

‘‘सिर्फ एक बार उस से मिलना चाहता हूं भाई,’’ रुंधा स्वर था सोम का.

‘‘नहीं सोम, अब जाने दो उसे.

आईना

पूर्व कथा

अनुज पत्नी सूजन के साथ अपने पिता तरुण के पास विदेश लौटने के लिए विदा लेने आता है. बेटेबहू के जाने से दुखी तरुण अपने अतीत में खो जाते हैं.

बचपन में स्कूल छोड़ते समय अनुज अपने पापा को वहां अकेला न छोड़ने के लिए कहता है. और आज वही अनुज बरसों बाद उसे छोड़ कर हमेशा के लिए अमेरिका चला जाता है. तरुण के कानों में वही शब्द, वही संवाद गूंजने लगते हैं जो अनुज ने उन से कहे थे पर तब वह उन के दर्द को नहीं समझ पाए थे.

बड़े चाव से तरुण के मातापिता उन का विवाह आधुनिक, सुंदर, नौकरीपेशा सुमी से कराते हैं. तेजतर्रार सुमी जल्दी ही अपने रंगढंग दिखाने लगती है. पैसा और शोहरत कमाने की दौड़ में युवा तरुण सुमी की खामियों को नजरअंदाज कर अपने मातापिता के साथ जबानदराजी करने लगता है. बेटे की उद्दंडता से दुखी हो कर वह गांव जाने का निर्णय लेते हैं. तरुण उन्हें रोकने का प्रयास करता है पर सफल नहीं होता.

उन के चले जाने के बाद सुमी और तरुण को उन की अहमियत का एहसास होने लगता है. और अब आगे…

अंतिम भाग सुमी ने कई बार सोचा भी कि अपनी हठधर्मी छोड़ कर वह स्वयं क्षमायाचना कर सासससुर को वापस लाने का प्रयास करे, किंतु मानव स्वभाव की फितरत इतनी आसानी से कहां बदलती है. बड़ों की स्नेहिल छाया से अधिक उसे अपनी आजादी प्यारी थी. न चाहते हुए भी आएदिन की तकरार की परिणति आखिर उन लोगों के अलगाव मेें ही हुई. इस का सब से गहरा असर बढ़ती वय के किशोर अनुज पर पड़ा जो अपने दादादादी से बेहद हिलामिला हुआ था. उन लोगों के जाने से अनुज वक्त से पहले ही गंभीर हो चला था. मातापिता की व्यस्तता व घर का एकाकीपन अकसर ही छुट्टियों में उसे दादादादी के पास खींच ले जाता.

आखिर इंटर पास करते ही मेडिकल कालिज में चयन हो जाने पर वह अपनी शिक्षा की व्यस्तता में खोता चला गया पर छुट्टियां वह अब भी ज्यादातर दादादादी के पास ही बिताना पसंद करता.

सुमी को अकसर पेट में दर्द रहने लगा था. शुरू में टेबलेट्स लेने से ठीक रहा पर गिरती सेहत व एक बार भयंकर दर्द उठने पर जब पूर्ण जांच कराई गई तो गालब्लेडर ट्यूमर निकला. आपरेशन कोई बहुत जटिल तो नहीं था किंतु औषधीय प्रतिक्रिया के कारण आपरेशन के मध्य ही उस की तबीयत बिगड़ती गई और डाक्टरों के अथक प्रयास के बाद भी उसे बचाया न जा सका.

पत्नी की असामयिक मौत से तरुण और भी अकेले हो गए थे. मांबाप तो अब गांव में ही रम गए थे. वे शहर आ कर बेटे के पास रहने के लिए तनिक भी इच्छुक नहीं थे. साल में दोचार बार तरुण ही जा कर मिल लेते थे या उन की पैतृक हवेली व अब उन के मातापिता की भी देखभाल करने वाले रघु काका शहर आते तो तरुण से भी मिल कर सब हालचाल ले लेते.

गांव की शुद्ध निर्मल आबोहवा व तनावरहित जीवन से शशिधर व रमादेवी का स्वास्थ्य भी पहले से बेहतर हो गया था. शशिधर अपने हमउम्र दोस्तों के साथ व बाकी समय अपनी वैद्यकी से गरीब मरीजों के उपचार करने में व्यस्त हो गए थे. हवेली का एक हिस्सा उन्होंने किराए पर उठा दिया था. किरायेदार का एक छोटा सा बच्चा था. शीघ्र ही उन लोगों के साथ रमादेवी के संबंध मकानमालिक व किरायेदार के न रह कर आत्मीय से हो गए थे.

पति के आफिस जाते ही आवश्यक कार्य पूरा कर सुकन्या बच्चे के साथ रमादेवी के पास आ जाती. दोनों का समय एकदूसरे के साथ बडे़ आराम से निकल जाता.

हवेली के पीछे की खाली भूमि में माली ने फलफूल के कई पेड़ लगा दिए थे. अब वहां सब्जियां भी लगवा दी गई थीं. इस किचनगार्डेन में ही इतनी पैदावार हो जाती कि आवश्यकतानुसार रखने व जरूरतमंदों को बांटने के बाद मंडी में भी बिकने भेजनी पड़ती, जिस से आय का स्रोत भी बढ़ गया था.

शशिधर व रमादेवी के सरल स्वभाव से अभिभूत पूरा गांव हर पल उन के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहता था. बेटेबहू से मिली पीड़ा पर इस अपनत्व व इज्जत ने मरहम का काम किया था. शशिधर को मिल रही पेंशन, किराया व सब्जियों, फलों की बिक्री से उन लोगों को कोई आर्थिक चिंता न थी. फिर भी कभीकभी बेटे व पोते की याद उन्हें भावविह्वल कर देती. बेटी- दामाद के बहुत इसरार करने पर भी वे लोग स्थायी रूप से उन के साथ रहने को सहमत नहीं हुए. अत: बीचबीच में श्रेया सपरिवार मातापिता से मिलने पहुंच जाती. कभी वे लोग उस के यहां जा कर मिल लेते थे.

भारत में मेडिकल की पढ़ाई पूरी होने पर अनुज पोस्टग्रेजुएशन करने के लिए अमेरिका चला गया था और अपनी शैक्षिक योग्यता पूरी कर वह भारत वापस आया, पर अकेला नहीं, अपनी विदेशी पत्नी सूजन  के साथ. अमेरिका में साफ्टवेयर इंजीनियर सूजन के घर में पेइंग गेस्ट बन कर रह रहे अनुज को उस का हमसफर बनते अधिक समय नहीं लगा था.

विदेशी सभ्यता के खुलेपन ने उसे अपने आकर्षण में कुछ इस तरह बांधा कि भारत लौटने से पहले ही उस ने परिजनों को सूचित किए बिना ही कोर्टमैरिज कर ली. बेटे के इस दुस्साहसिक कदम से तरुण तिलमिला गए थे पर एअरपोर्ट पर अवसर की नजाकत भांप कर कोई नाराजगी दर्शाए बिना बहू का भी खुले दिल से स्वागत किया.

धक्का तो उन्हें तब लगा जब उन के सारे सपनों को धराशायी करते हुए अनुज ने अगले हफ्ते ही वापस लौट कर अमेरिका में ही रह कर प्रैक्टिस करने का निर्णय सुनाया. पिता का अकेलापन या भारत में फैली प्रापर्टी का दायित्व अनुज के इरादों को विचलित न कर सका. 2 वर्षों के अमेरिका प्रवास ने उस की संपूर्ण सोच को ही जैसे बदल कर रख दिया था. अब भारत उसे निहायत पिछड़ा व गंदा लगने लगा था. हां, अपने दादादादी के प्यार की डोर से बंधा अनुज, सूजन को उन लोगों से मिलाने उत्साहपूर्वक गांव जरूर पहुंचा. आशा से कहीं अधिक प्यार व आवभगत से अभिभूत वे लोग अमेरिका लौटने से एक दिन पहले अपना सामान पैक करने तरुण के पास लौटे थे. तरुण ने एक बार फिर बेटे को रोकने की चेष्टा की.

‘बेटे, एक बार फिर सोच लो…क्या तुम वहां खुश रह सकोगे?’

‘डैड, जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए पिछले कदम के नीचे की जमीन का मोह तो छोड़ना ही पड़ता है.’

‘पर यह भी तो सच है कि अपनी जड़ों से कट कर कोई वृक्ष फलफूल नहीं पाता. कहीं न कहीं कमी रह ही जाती है. मैं तो सोचता था कि पढ़ाई खत्म होने के बाद तुम यहीं मेरे साथ प्रैक्टिस करोगे.’

‘ओ नो डैड…इंडिया में फ्यूचर ब्राइट नहीं है. वापस तो मुझे जाना ही है.  सूजन को भी एक हफ्ते की छुट्टी मिली है. मैं ने वहां ग्रीनकार्ड के लिए आवेदन कर दिया था, लौटते ही मिल जाएगा. मैं तो वहीं पर अपना नर्सिंग होम खोलना चाहता हूं…जिस के लिए मुझे 20-25 लाख रुपए तो चाहिए ही. अगर आप अभी दे देते तो…’

‘20-25 लाख…’ तरुण जैसे आसमान से गिरे, ‘इतने रुपए कहां हैं. अभी तुम्हारे लिए यहां नर्सिंग होम सेट करने में ही काफी खर्च हो चुका है. फिर इस नर्सिंग होम में 4-5 पार्टनर्स भी तो हैं. कई चीजों का अभी भी हर महीने लोन कटता है…’

उन की बात बीच में ही काटता अनुज थोड़ी बेरुखी से बोला, ‘एक्सक्यूज मी डैड, आप ने जो कुछ भी, जब भी किया, सिर्फ अपने लिए ही किया है. मेरे लिए आप ने क्या किया है?’

‘क्यों, तुम्हारी पढ़ाई का इतना खर्च क्या कोई और दे गया?’ अनुज के उत्तर से हैरान व क्रोधित होते तरुण बोले.

‘वह तो आप का फर्ज था. आप नहीं देते तो कौन देता, मेरे लिए कुछ खास तो नहीं कर दिया आप ने…कुछ ऐसा ही आप ने दादाजी से कहा था न एक बार…उस रात मैं दादी के पास ही सोया था. आंसू भरी दादाजी की आंखें व निशब्द रोती दादी का रहरह कर कांप उठता शरीर आज भी मेरे शरीर में सिहरन सी भर देता है. वह सबकुछ उन का फर्ज था तो क्या आप का कुछ भी कर्तव्य नहीं था?

‘उस दिन पहली बार मुझे आप व मां पर बहुत गुस्सा आ रहा था, पर तब मैं बहुत छोटा था. हां, शायद जीवन का पहला पाठ आप से यही सीखा कि जिंदगी में केवल अपने लिए सोचना चाहिए. वे आप से क्या चाहते थे…केवल आप का कुछ समय ही न, जो आप उन्हें नहीं दे सके. आप आत्मावलोकन करें तो समझेंगे कि आप ने क्या खोया क्या पाया है और रुपए की जरूरत तो मुझे आज है…बाद में तो मैं ही आप को हर माह कमा कर भेज दिया करूंगा.’

तरुण सन्न से हो कर वहीं सोफे पर बैठे रह गए. बेटे की कही बातें वह सुन कर भी समझ नहीं पा रहे थे, बस, एकटक बेटे का मुंह देखते रहे. वह उन्हें अपना बेटा अनुज नहीं बल्कि अमेरिका रिटर्न संवेदनहीन मात्र डा. अनुज लग रहा था. बेटे के आने की खुशी तो पहले ही उस के वापस लौटने के फैसले से ही तिरोहित हो चुकी थी. अब उस से बातचीत के बाद तो तरुण बिलकुल ही मौन हो गए थे. आज उन्हें महसूस हो रहा था कि जीवनसंध्या में इनसान को पैसों की चकाचौंध नहीं बल्कि अपनों के साथ व अपनेपन की चाह होती है. पैसा जरूरत तो हो सकता है पर खुशियों का पर्याय नहीं.

बाहर पोर्टिको में कार रुकने की आवाज आई थी, जो अभीअभी एअरपोर्ट से वापस लौटी थी. और इसी के साथ तरुण भी वर्तमान में लौट आए. लान से उठ कर वह अंदर कमरे की तरफ बढ़ गए. हाल में प्रवेश करते ही सामने टंगी मातापिता की तसवीर आज उन्हें नवीन अंदाज में मंदमंद मुसकराती अपने पास बुलाती सी लगी. वह भावुक हो बडे़ प्यार व सम्मान से उस तसवीर पर हाथ फेरने लगे, मानो इसी माध्यम से उन का स्नेहिल स्पर्श महसूस करना चाहते हों. न मालूम कितनी ही भूलीबिसरी घडि़यां आज उन्हें याद आती रहीं. बुखार से तपते माथे पर ठंडे पानी की पट्टियां रखती, रातरात भर जागती मां, उन के बाजार घूमने को मचलने पर थकेहारे होने पर भी गोद में ले कर घुमाने ले जाते पिता, घर में ढेरों खिलौने होने पर भी हर नए खिलौने की जिद करता तरुण तो कभी रूठने पर मनुहार करकर के खाना खिलाती मां, भाईबहन की मीठी नोकझोंक, चुहल- बाजी, दिल ही दिल में अपने अमर्यादित आचरण पर शर्मिंदा आंखों में पश्चात्ताप के अश्रु भरे तरुण बड़ी देर तक उसे निहारता रहा.

आज उसे पिता के कहे शब्द याद आ रहे थे, ‘बेटे, दूसरे की पीड़ा का एहसास तब होता है जब स्वयं पर चोट पड़ती है.’

तरुण ने निश्चय कर लिया कि वह अपने मातापिता से क्षमायाचना कर उन्हें मना कर या तो यहीं ले आएंगे अथवा यहां की सारी प्रापर्टी समेट कर गांव में ही चिकित्सालय खोल कर उन की सेवा करते हुए अपनी गलती का प्रायश्चित करेंगे. भुक्तभोगी तरुण को विश्वास था कि मांबाप का विशाल हृदय उन की गलतियों को अवश्य क्षमा कर देगा.

अश्रुपूर्ण निगाहों से तरुण ने फोटो में देखा तो चौंक गए. वहां उन्हें अनुज का चेहरा दिख रहा था. अतीत के संबंधों के खालीपन ने मानो फोटो फ्रेम के शीशे के पीछे भी शून्यता भर दी थी, जिस से आज उस शीशे की सतह पर यादों का प्रकाश पड़ते ही वह तसवीर आईना बन उठी थी और उसे अपना नहीं बल्कि अनुज का चेहरा दिखा रही थी जो शायद उन के मन का भ्रम व अवचेतन का प्रारूप ही था, क्योंकि जब उन्होंने पीछे पलट कर देखा तो हाल खाली था और वह अकेले.

घोंसले का तिनका

अंतिम भाग

विदेशी होते हुए भी मिशैल के मन में भारत के लिए सम्मान व प्रेम की भावना थी और टोनी को भारतीय होते हुए भी अपने देश से लगाव नहीं था. मिशैल के कहने पर वह भारत तो आ गया पर क्या उस के मन में स्वदेश प्रेम और अपनों के लिए प्यार जाग पाया? पढि़ए डा. पंकज धवन की कहानी.

पूर्व कथा

घर में अकेला टोनी कौफी बना कर पी रहा होता है कि इतने में मिशैल आ जाती है और उस से अपने लिए कौफी बींस लाने के बारे में पूछती है तो वह भूल जाने की बात कहता है. बातोंबातों में वह टोनी की तारीफ करने लगती है. वह अतीत की यादों में खो जाता है.

टोनी अपने एक दोस्त के साथ जरमनी आता है और यहीं का हो कर रह जाता है. एक भारतीय औपचारिक सम्मेलन में उस की मुलाकात मिशैल से होती है और वह शादी कर लेते हैं.

मिशैल की आवाज सुन कर वह अतीत से बाहर निकलता है. मिशैल उस से हैनोवर इंटरनेशनल फेयर में जाने की बात कहती है.

न चाहते हुए भी टोनी मिशैल के आग्रह पर वहां जाता है. समारोह में हैंडीक्राफ्ट का सामान देखते हुए जरमनवासी भारतीय सभ्यता, संस्कृति की खूब प्रशंसा करते हैं. अगले 3 दिन तक टोनी वहां जाता है और भारतीयों के बीच हिलमिल जाता है. उन से मिल कर उसे अपने देश की याद सताने लगती है.

एक दिन मिशैल उसे भारत चलने के लिए कहती है तो टोनी आनाकानी करने लगता है. लेकिन अंतत: जाने के लिए तैयार हो जाता है. और अब आगे…

हमारा प्रोग्राम 3 दिन दिल्ली रुकने के बाद आगरा, जयपुर और हरिद्वार होते हुए वापस जाने का तय हो गया था. मिशैल के मन में जो कुछ देखने का था वह इसी प्रोग्राम से पूरा हो जाता था.

जैसे ही मैं एअरपोर्ट से बाहर निकला कि एक वातानुकूलित बस लुधियाना होते हुए अमृतसर के लिए तैयार खड़ी थी. मेरा मन कुछ क्षण के लिए विचलित सा हो गया और थोड़ा कसैला भी. मेरा अतीत इन शहरों के आसपास गुजरा था. इन 5 वर्षों में भारत में कितना बदलाव आ गया था. आज सबकुछ ठीक होता तो सीधा अपने घर चला जाता. मैं ने बड़े बेमन से एक टैक्सी की और मिशैल को साथ ले कर सीधा पहाड़गंज के एक होटल में चला गया. इस होटल की बुकिंग भी मिशैल ने की थी.

मैं जिन वस्तुओं और कारणों से भागता था, मिशैल को वही पसंद आने लगे. यहां के भीड़भाड़ वाले इलाके, दुकानों में जा कर मोलभाव करना, लोगों का तेजतेज बोलना, अपने अहं के लिए लड़ पड़ना और टै्रफिक की अनियमितताएं. हरिद्वार और ऋषिकेश में गंगा के तट पर बैठना, मंदिरों में जा कर घंटियां बजाना उस के लिए एक सपनों की दुनिया में जाने जैसा था.

जैसेजैसे हमारे जाने के दिन करीब आते गए मेरा मन विचलित होने लगा. एक बार घर चला जाता तो अच्छा होता. हर सांस के साथ ऐसा लगता कि कुछ सांसें अपने घर के लिए भी तैर रही हैं. अतीत छाया की तरह भरमाता रहा. पर मैं ने ऐसा कोई दरवाजा खुला नहीं छोड़ा था जहां से प्रवेश कर सकूं. अपने सारे रास्ते स्वयं ही बंद कर के विदेश आया था. विदेश आने के लिए मैं इतना हद दर्जे तक गिर गया था कि बाबूजी के मना करने के बावजूद उन की अलमारी से फसल के सारे पैसे, बहन के विवाह के लिए बनाए गहने तक मैं ने नहीं छोड़े थे. तब मन में यही विश्वास था कि जैसे ही कुछ कमा लूंगा, उन्हें पैसे भेज दूंगा. उन के सारे गिलेशिक वे भी दूर हो जाएंगे और मैं भी ठीक से सैटल हो जाऊंगा. पर ऐसा हो न सका और धीरेधीरे अपने संबंधों और कर्तव्यों से इतिश्री मान ली.

शाम को मैं मिशैल के साथ करोल बाग घूम रहा था. सामने एक दंपती एक बच्चे को गोद में उठाए और दूसरे का हाथ पकड़ कर सड़क पार कर रहे थे. मिशैल ने उन की तरफ इशारा कर के मुझ से कहा, ‘‘टोनी, उन को देखो, कैसे खुशीखुशी बच्चों के साथ घूम रहे हैं,’’ फिर मेरी तरफ कनखियों से देख कर बोली, ‘‘कभी हम भी ऐसे होंगे क्या?’’

किसी और समय पर वह यह बात करती तो मैं उसे बांहों में कस कर भींच लेता और उसे चूम लेता पर इस समय शायद मैं बेगानी नजरों से उसे देखते हुए बोला, ‘‘शायद कभी नहीं.’’

‘‘ठीक भी है. बड़े जतन से उन के मातापिता उन्हें बड़ा कर रहे हैं और जब बडे़ हो जाएंगे तो पूछेंगे भी नहीं कि उन के मातापिता कैसे हैं…क्या कर रहे हैं… कभी उन को हमारी याद आती है या…’’ कहतेकहते मिशैल का गला भर गया.

मैं उस के कहने का इशारा समझ गया था, ‘‘तुम कहना क्या चाहती हो?’’ मेरी आवाज भारी थी.

‘‘कुछ नहीं, डार्लिंग. मैं ने तो यों ही कह दिया था. मेरी बातों का गलत अर्थ मत लगाओ,’’ कह कर उस ने मेरी तरफ बड़ी संजीदगी से देखा और फिर हम वापस अपने होटल चले आए.

उस पूरी रात नींद पलकों पर टहल कर चली गई थी. सूरज की पहली किरणों के साथ मैं उठा और 2 कौफी का आर्डर दिया. मिशैल मेरी अलसाई आंखों को देखते हुए बोली, ‘‘रात भर नींद नहीं आई क्या. चलो, अब कौफी के साथसाथ तुम भी तैयार हो जाओ. नीचे बे्रकफास्ट तैयार हो गया होगा,’’ इतना कह कर वह बाथरूम चली गई.

दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने मिशैल को बाथरूम में ही रहने को कहा क्योंकि वह ऐसी अवस्था में नहीं थी  कि किसी के सामने जा सके.

दरवाजा खोलते ही मैं ने एक दंपती को देखा तो देखता ही रह गया. 5 साल पहले मैं ने जिस बहन को देखा था वह इतनी बड़ी हो गई होगी, मैं ने सोचा भी न था. साथ में एक पुरुष और मांग में सिंदूर की रेखा को देख कर मैं समझ गया कि उस की शादी हो चुकी है. मेरे कदम वहीं रुक गए और शब्द गले में ही अटक कर रह गए. वह तेजी से मेरी तरफ आई और मुझ से लिपट गई…बिना कुछ कहे.

मैं उसे यों ही लिपटाए पता नहीं कितनी देर तक खड़ा रहा. मिशैल ने मुझे संकेत किया और हम सब भीतर आ गए.

‘‘भैया, आप को मेरी जरा भी याद नहीं आई. कभी सोचा भी नहीं कि आप की छोटी कैसी है…कहां है…आप के सिवा और कौन था मेरा,’’ यह कह कर वह सुबकने लगी.

मेरे सारे शब्द बर्फ बन चुके थे. मेरे भीतर का कठोर मन और देर तक न रह सका और बड़े यत्न से दबाया गया रुदन फूट कर सामने आ गया. भरे गले से मैं ने पूछा, ‘‘पर तुम यहां कैसे?’’

‘‘मिशैल के कारण. उन्होंने ही यहां का पता बताया था,’’ छोटी सुबकियां लेती हुई बोली.

तब तक मिशैल भी मेरे पास आ चुकी थी. वह कहने लगी, ‘‘टोनी, सच बात यह है कि तुम्हारे एक दोस्त से ही मैं ने तुम्हारे घर का पता लिया था. मैं सोचती रही कि शायद तुम एक बार अपने घर जरूर जाओगे. मैं तुम्हारे भीतर का दर्द भी समझती थी और बाहर का भी. तुम ने कभी भी अपने मन की पीड़ा और वेदना को किसी से नहीं बांटा, मेरे से भी नहीं. मैं कहती तो शायद तुम्हें बुरा लगता और तुम्हारे स्वाभिमान को ठेस पहुंचती. मुझ से कोई गलती हो गई हो तो माफ कर देना पर अपनों से इस तरह नाराज नहीं होना चाहिए.’’

‘‘मां कैसी हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मां तो रही नहीं…तुम्हें बताते भी तो कहां?’’ कहतेकहते छोटी की आंखें नम हो गईं.

‘‘कब और कैसे?’’

‘‘एक साल पहले. हर पल तुम्हारा इंतजार करती रहती थीं. मां तुम्हारे गम में बुरी तरह टूट चुकी थीं. दिन में सौ बार जीतीं सौ बार मरतीं. वह शायद कुछ और साल जीवित भी रहतीं पर उन में जीने की इच्छा ही मर चुकी थी और आखिरी पलों में तो मेरी गोद में तुम्हारा ही नाम ले कर दरवाजे पर टकटकी बांधे देखती रहीं और जब वह मरीं तो आंखें खुली ही रहीं.’’

यह सब सुनना और सहना मेरे लिए इतना कष्टप्रद था कि मैं खड़ा भी नहीं हो पा रहा था. मैं दीवार का सहारा ले कर बैठ गया. मां की भोली आकृति मेरी आंखों के सामने तैरने लगी. मुझे एकएक कर के वे क्षण याद आते रहे जब मां मुझे स्कूल के लिए तैयार कर के भेजती थीं, जब मैं पास होता तो महल्ले भर में मिठाइयां बांटती फिरतीं, जब होलीदीवाली होती तो बाजार चल कर नए कपड़े सिलवातीं, जब नौकरी न मिली तो मुझे सांत्वना देतीं, जब राखी और भैया दूज का टीका होता तो इन त्योहारों का महत्त्व समझातीं और वह मां आज नहीं थीं.

‘‘उन के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन भी शायद मेरी तकदीर में नहीं थे,’’ कह कर मैं फूटफूट कर रोने लगा. छोटी ने मेरे कंधे पर हाथ रख कर मुझे इस अपमान और संवेदना से निकालने का प्रयत्न किया.

छोटी ने ही मेरे पूछने पर मुझे बताया था कि मेरे घर से निकलने के अगले दिन ही पता लग चुका था कि मैं विदेश के लिए रवाना हो चुका हूं. शुरू के कुछ दिन तो वह मुझे कोसने में लगे रहे पर बाद में सबकुछ सहज होने लगा. छोटी ही उन दिनों मां को सांत्वना देती रहती और कई बार झूठ ही कह देती कि मेरा फोन आया है और मैं कुशलता से हूं.

छोटी का पति उस की ही पसंद का था. दूसरी जाति का होने के बावजूद मांबाबूजी ने चुपचाप उसे शादी की सहमति दे दी. मेरे विदेश जाने में मेरी बातों का समर्थन न देने का अंजाम तो वे देख ही चुके थे.

अपने पति के साथ छोटी ने मुझे ढूंढ़ने की कोशिश भी की थी पर सब पुराने संपर्क टूट चुके थे. अब अचानक मिशैल के पत्र से वह खुश हो गई और बाबूजी को बताए बिना यहां तक आ पहुंची थी.

‘‘बाबूजी कैसे हैं?’’ मैं ने बड़ी धीमी और सहमी आवाज में पूछा.

‘‘ठीक हैं. बस, जी रहे हैं. मां के मरने के बाद मैं ने कई बार अपने साथ रहने को कहा था पर शायद वह बेटी के घर रहने के खिलाफ थे.’’

इस से पहले कि मैं कुछ कहता, मिशैल बोली, ‘‘टोनी, यह देश तो तुम्हारे लिए पराया हो गया है पर मांबाप तो तुम्हारे अपने हैं. तुम अपने फादर को मिल लोगे तो उन्हें भी अच्छा लगेगा और तुम्हारे बेचैन मन को शांति मिलेगी…फिर न जाने तुम्हारा आना कब हो,’’  उस के स्वर की आर्द्रता ने मुझे छू लिया.

मिशैल ठीक ही कह रही थी. मेरे पास समय बहुत कम था. मैं बिना कोई समय गंवाए उन से मिलने चला गया.

बाबूजी को देखते ही मेरी रुलाई फूट पड़ी. पर वह ठहरे हुए पानी की तरह एकदम शांत थे. पहले वाली मुसकराहट उन के चेहरे पर अब नहीं थी. उन्होंने अपनी बूढ़ी पनीली आंखों से मुझे देखा तो मैं टूटी टहनी की तरह उन की गोद में जा गिरा और उन के कदमों में अपना सिर सटा दिया. बोला, ‘‘मुझे माफ कर दीजिए बाबूजी. मां की असामयिक मौत का मैं ही जिम्मेदार हूं.’’

मैं ने नजर उठा कर घर के चारों तरफ देखा. एकदम रहस्यमय वातावरण व्याप्त था. बीता समय बारबार याद आता रहा. बाबूजी ने मुझे उठा कर सीने से लगा लिया. आज पहली बार महसूस हुआ कि शांति तो अपनी जड़ों से मिल कर ही मिलती है. मैं उन्हें साथ ले जाने की जिद करता रहा पर वह तो जैसे वहां से कहीं जाना ही नहीं चाहते थे.

‘‘तू आ गया है बस, अब तेरी मां को भी शांति मिल जाएगी,’’ कह कर वह भीतर मेरे साथ अपने कमरे में आ गए और मां की तसवीर के पीछे से लाल कपड़ों में बंधी मां की अस्थियों को मुझे दे कर कहने लगे, ‘‘देख, मैं ने कितना संभाल कर रखा है तेरी मां को. जातेजाते कुरुक्षेत्र में प्रवाहित कर देना. बस, यही छोटी सी तेरी मां की इच्छा थी,’’ बाबूजी की सरल बातें मेरे अंतर्मन को छू गईं.

मां की अस्थियां हाथ में आते ही मेरे हाथ कांपने लगे. मां कितनी छोटी हो चुकी थीं. मैं ने उन्हें कस कर सीने में भींच लिया, ‘‘मुझे माफ कर दो, मां.’’

2 दिन बाद ही मैं, छोटी, उस के पति और पापा के साथ दिल्ली एअरपोर्र्ट रवाना हुआ. मिशैल बड़ी ही भावुक हो कर सब से विदा ले रही थी. भाषा न जानते हुए भी उस में अपनी भावनाओं को जाहिर करने की अभूतपूर्व क्षमता थी. बिछुड़ते समय वह बोली, ‘‘आप सब लोग एक बार हमारे पास जरूर आएं. मेरा आप के साथ कोई रिश्ता तो नहीं है पर मेरी मां कहती थीं कि कुछ रिश्ते इन सब से कहीं ऊपर होते हैं जिन्हें हम समझ नहीं सकते.’’

‘‘अब कब आओगे, भैया?’’ छोटी के पूछने पर मेरी आंखों में आंसू उमड़ आए. मैं कोई भी उत्तर न दे सका और तेजी से भीतर आ गया. उस का सवाल अनुत्तरित ही रहा. मैं ने भीतर आते ही मिशैल से भरे हृदय से कहा, ‘‘मिशैल, आज तुम न होतीं तो शायद मैं…’’

सच तो यह था कि मेरा पूरा शरीर ही मर चुका था. मैं फूटफूट कर रोने लगा. मिशैल ने फिर से मेरे कंधे पर हाथ रख कर मुझे पास ही बिठा दिया और बड़े दार्शनिक स्वर में बोली, ‘‘सच, दुनिया तो यही है जो तुम्हारा तिलतिल कर इंतजार करती रही और करती रहेगी, और तुम अपनी ही झूठी दुनिया में खोए रहना चाहते हो. तुम यहां से जाना चाहते हो तो जाओ पर कितनी भी ऊंचाइयां छू लो जब भी नीचे देखोगे स्वयं को अकेला ही पाओगे.

‘‘मेरी मानो तो अपनी दुनिया में लौट जाओ. चले जाओ…अब भी वक्त है…लौट जाओ टोनी, अपनी दुनिया में.’’

मिशैल ने बड़ा ही मासूम सा अनुरोध किया. मेरे सोए हुए जख्म भीतर से रिसने लगे. मेरे सोचने के सभी रास्ते थोड़ी दूर जा कर बंद हो जाते थे. मैं ने इशारे से उस से सहमति जतलाई.

मैं उस से कस कर लिपट गया और वह भी मुझ से चिपक गई.

‘‘बहुत याद आओगे तुम मुझे,’’ कह कर वह रोने लगी, ‘‘पर मुझे भूल जाना, पता नहीं मैं पुन: तुम्हें देख भी पाऊंगी या नहीं,’’ कह कर वह तेज कदमों से जहाज की ओर चली गई.

आज सोचता हूं और सोचता ही रह जाता हूं कि वह कौन थी…अपना सर्वस्व मुझे दे कर, मुझे रास्ता दिखा कर वह न जाने अब वहां कैसे रह रही होगी.

चौकीदार पर शोर

राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी को ‘चौकीदार ही चोर है’ कहना शुरू किया तो नरेंद्र मोदी ने अपनी पार्टी के सभी जनों को और्डर किया कि वे ट्विटर अकाउंट पर अपने नाम के आगे चौकीदार लगा लें, ताकि कौन सा चौकीदार चोर है, पता ही न चले. यह ट्रिक बसों में जेबकतरे अकसर करते हैं. वे जेब काटते हैं और हल्ला मचाने लगते हैं कि उन की जेब कट गई. उन के साथ 4-5 और लोग होते हैं और वे भी यही कहना शुरू कर देते हैं. जिस की असल में जेब कटी, वह बेचारा चुप हो जाता है कि यह तो महामारी है, सब भुगत रहे हैं तो वह भी भुगत लेगा.

वोट राजनीति में धर्म-जाति

नरेंद्र मोदी की चाल काम की रही या नहीं, पर यह समाज की एक गलत इमेज प्रेजैंट करता है. इस आड़ में सब लोग अपनी गलतियों से बच निकलते हैं. टीचर गुरु होते हैं और गुरु ही ब्रह्मा, महेश, विष्णु है, गुरु ही मातापिता है, गुरु ही ईश्वर है, यह कहकह कर निकम्मे, कोचिंग के भूखे, आलसी, अनपढ़ टीचर भी गुरु का खिताब पा कर बच निकलते हैं. रिजर्वेशन की वजह से अब गैरब्राह्मण व गैरसवर्ण भी टीचर बन गए हैं और वे भी गुरु की महिमागान शुरू कर देते हैं ताकि मैं भी चौकीदार में कौन चौकीदार चोर है, पता ही न चले.

क्या यही है अंधा कानून

चौकीदार का खिताब लगाए ट्विटरवासी किस तरह मांबहनों की सैक्सी गालियां देते हैं, यह परखना है तो मोदी की एक गलती को उजागर कर दो. गलती पर तो बात नहीं होगी, पर इन चौकीदारों से गालियां सुनने को मिल जाएंगी. आजकल आम लोग घरदफ्तर की देखभाल करने के लिए जो असली चौकीदार रखते हैं वे भद्दी बातें करते हैं क्योंकि वे कम पढ़ीलिखी फैमिलियों के होते हैं लेकिन ट्विटर वाले चौकीदारों के नाम के आगे शर्मा, भारद्वाज, भार्गव जैसे जातिसूचक शब्द होते हैं, हालांकि उन की पोस्टों में गालियां होती हैं. पता नहीं क्यों ज्यादातर ऊंची, सवर्ण जातियों वाले ही चौकीदार क्यों बने, दलितों में से क्यों नहीं बने.

इन चौकीदारों का हल्ला ट्विटर पर इतना है कि अब सही तर्क की कोई बात करना इंपौसिबल हो गया है. शब्दों के खेल में माहिर ये चौकीदार सबजैक्ट को छोड़ कर तर्क करने वाले की मांबहन पर तुरंत उतर आएंगे. महबूबा मुफ्ती, बरखा दत्त, मायावती ने इन चौकीदारों का अटैक इस सीजन में खूब झेला है. जो कमजोर हैं वे तो ट्विटर ही छोड़ चुके हैं. जो चौकीदार कह कर बच निकले, उन्हें बधाई.

सैक्स संबंधों में उदासीनता क्यों

सांसत में छोटे भाजपा नेता

‘कांग्रेस के जो प्रत्याशी नहीं जीतेगे वह भाजपा को नुकसान पहुंचाएंगे’ कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी के इस बयान से उत्तर प्रदेश में नये जातीय समीकरण बन सकते है. अगर जातीयता के आधार पर वोट ट्रांसफर हुआ तो राष्टवाद और मोदी नाम पर चुनाव जीतना भाजपा के छोटे नेताओं के लिये मुश्किल हो जायेगा.

भाजपा ने अपने बडे नेताओं की जीत के लिये भले ही बेहतर फील्डिंग सजाई हो पर छोटे नेताओं की जीत सांसत में फंसी है. सपा-बसपा गठबंधन के बाद अब कांग्रेस ने भी अपनी ताकत भाजपा को हराने में लगा दी है जिससे कई सीटों पर भाजपा के लोकसभा प्रत्याशी अब सीधे मुकाबले में आमने सामने है. कांग्रेस की बदली चुनावी रणनीति ने भाजपा के सामान्य प्रत्याशियों के सामने संकट खडा कर दिया है.

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भाजपा संगठन भले ही उत्तर प्रदेश में 75 से अधिक सीटे जीतने का दावा कर रही रहा हो पर उसे भी इस बात का डर सता रहा है कि सीधी लडाई में कितना सफल होगे. भाजपा ने अपने बडे नेताओं को जितवाने के लिये हर तरह के दांव पेंच अपना लिये पर सामान्य सासंदो के लिये चुनाव मुश्किल हो गया है.

भाजपा के कार्यकर्ता बड़े नेताओं के चुनाव प्रचार में पूरा समय दे रहे है पर उतनी शिदद्त से छोटे नेताओं का चुनाव प्रचार नहीं हो पा रहा है. छोटे शहरों में प्रचार कर रहे लोगों को जमीनी मुद्दों से उलझना पड़ रहा. यहां जाति का मुद्दा हावी है. इसके साथ मंहगाई, विकास और रोजगार के मुददो पर भी लोग बात कर रहे है. यह मुद्दे भले ही उपर ना दिख रहे हो पर अंदर ही अंदर सत्ता पक्ष को परेशान कर रहे है. भाजपा के लिये परेशानी का सबब यह भी है कि वोटिंग का प्रतिशत कम हो रहा है.

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कम मतदान शहरो और उन लोगों में ज्यादा है जो भाजपा के पक्ष में बात अधिक करते है. वैसे तो भाजपा ने कई ऐसे सांसदों के टिकट काटे जिनके पक्ष में जनता की राय अच्छी नहीं थी. भाजपा के तमाम सांसदों को अपने क्षेत्रों में गुटबाजी का सामना करना पड़ रहा है. भाजपा के ज्यादातर लोग मोदी के नाम पर वोट मांग रहे है. लोगों को अपने सांसद से काम होता है. वह उसको समझना चाहती है. ऐसे में मोदी के नाम पर सामान्य सांसद को वोट क्यों दे ? यह समझ उसे नहीं आ रहा है. ऐसे में कई बार वह मतदान ही करने नहीं जाता है.

चुनाव प्रचार का भी महौल बदल रहा है. अब चुनाव प्रचार सडको और कालोनियों में दिख रहा है. उससे आम जनता के बीच प्रचार नहीं हो पा रहा है. जिससे वहां के वोटर में उदासीनता फैल गई है. वह वोट देने नहीं जा रहे जिससे मतदान का प्रतिशत कम हो रहा है. अब यह डर छोटे नेताओं को सताने लगा है. सपा-बसपा की जातीय गोलबंदी में कांग्रेस के शामिल होने के बाद भाजपा के लिये डगर कठिन हो गई है.

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