तमाम न्यूज चैनल ने पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली के अंतिम संस्कार का सीधा प्रसारण जिस तरह श्मशान घाट से दिखाया वह संवेदनहीनता और फूहड़ता की हद थी. ऐसा लग रहा था मानो टीआरपी बढ़ाने के इस नए टोटके ने चैनल से सोचने समझने की बुद्धि और क्षमता छीन ली है. उन्हें खुद नहीं मालूम था कि वे ऐसा करके क्या मैसेज दर्शकों को देना चाह रहे हैं. हां इतना जरूर समझ आया हर किसी की प्रतिस्पर्धा में आगे निकलने की होड़ ने अरुण जेटली की जितनी किरकिरी उनके निधन के बाद करवाई उतनी उनके जिंदा रहते शायद ही कभी हुई हो.
किसी दिग्गज राजनेता के अंतिम संस्कार को यूं लगातार घंटों दिखाना न तो उसके प्रति सच्ची श्रद्धा या श्रद्धांजलि कही जा सकती और न ही इसे मीडिया की भाषा में न्यूज आइटम कहा जा सकता क्योंकि सभी चैनल के एंकर दर्शकों को बांधे रखने की कमेंटरी इस तरह कर रहे थे मानो यह क्रिकेट फुटबौल या हौकी का रोमांचकारी मैच हो या फिर कोई इवेंट हो. सीधे प्रसारण में चूंकि दृश्य सभी चैनल में समान होते हैं इसलिए एंकर दर्शकों को अपने चैनल पर रोके रखने अपनी कमेंटरी को हथियार बनाने की कोशिश करते रहते हैं.
इस प्रतिनिधि ने कोई 20 मिनिट चैनल बदल बदल कर उनकी मंशा समझने की कोशिश की तो लगा कि इन्होने ही अंधविश्वास फैलाने की जिम्मेदारी अपनी स्क्रीन पर उठा रखी है. कोई गीता का जिक्र करते आत्मा परमात्मा का राग आलाप रहा था तो कोई गरुड पुराण बांच रहा था . एक विद्वान एंकर तो बता रहे थे कि कपाल क्रिया क्या होती है और मुखाग्नि के समय इंद्र देवता पानी क्यों बरसाते हैं. एक चैनल के ज्ञानी महिलाओं के शमशान में होने पर सिक्ख और हिन्दू धर्म की मान्य-अमान्य परम्पराओं पर व्याख्यान देते अपना अधकचरा ज्ञान बघारते दिखे तो दूसरे बैराग्य का व्याकरण खोल कर बैठे दर्शकों को लुभाने की कोशिश करते नजर आए.
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