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#coronavirus: कोरोना को लेकर दुनियाभर में बदहवासी, यह कैसा पागलपन है?

हालांकि जब 13 मार्च 2020 की दोपहर मैं इन पंक्तियों को लिख रहा हूं तब तक भारतीय शेयर बाजार सुबह-सुबह तगड़ा गोता खाकर फिर से उछलने के मूड में लौट आये थे. बीएसई सुबह खुलने के समय 3600 अंक तक गिरने के बाद दोपहर बाद पिछले दिन के मुकाबले करीब 951 अंक उछल चुका था और निफ्टी में भी 282 प्वाइंट का उछाल देखा जा रहा था. लेकिन कोरोना वायरस के चलते दुनिया की अर्थव्यवस्था में जो भयावह कहर टूटा है, उससे यह क्षणिक राहत शायद मुक्ति नहीं दे पायेगी; क्योंकि कोरोना के कारण न सिर्फ पिछले एक पखवाड़े में कई बार दुनियाभर के शेयर बाजारों में बदहवासी और हड़कंप की स्थिति बनी है बल्कि अर्थव्यवस्था के दूसरे मोर्चों में भी ऐसी ही दहशतों ने आकार डेरा जमा लिया है. सवाल है इसके पीछे किसका हाथ है? क्या वाकई कोरोना वायरस का कहर इतना बड़ा संकट है कि दुनिया के दिलोदिमाग में खत्म हो जाने का भय व्याप्त हो गया है? क्या कोरोना वायरस से वाकई दुनिया के अस्तित्व पर सवालियां निशान लग गया है? ऐसा कुछ भी नहीं है. सच तो यह है कि आज की तारीख में दुनिया में इंसानी जान के लिए जिस तरह के कई दूसरे संकट हैं कोरोना वायरस का कहर उनके मुकाबले कहीं पासंग भी नहीं है.

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विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि हर साल 46 लाख से ज्यादा लोग महज वायु प्रदूषण के चलते मर जाते हैं. इसका मतलब हुआ कि वायु प्रदूषण से हर महीना करीब 3,33,400 लोगों की मौत हो जाती है. अगर इसे दिन में तब्दील करें तो हर दिन 12,777, हर घंटे 532 और हर एक मिनट में 8.87 यानी करीब 9 लोग मर जाते हैं. इसी तरह सीडीसी यानी सेंटर्स फाॅर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के मुताबिक हर साल सड़क दुर्घटनाओं के कारण पूरी दुनिया में 13,50,000 लोग मरते हैं, जो हर दिन औसतन 3,700 होते हैं. यह आंकड़ा भी विश्व स्वास्थ्य संगठन का है. साल 2018 में पूरी दुनिया में हुई सड़क दुर्घटनाओं में इतने लोग मरे थे. जबकि जहां तक कोरोना के कहर की बात है तो अगर अब तक के वैश्विक आंकड़ों को देखें तो पिछले डेढ़ महीने में कोरोना वायरस से पूरी दुनिया में 4800 लोगों की जान ली है और अब तक यह दुनिया के 125 देशों में फैल चुका है. इन पंक्तियों के लिखे जाने तक पूरी दुनिया में 1,34,768 लोग कोरोना से संक्रमित थे. भारत में अब इस वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या बढ़कर 75 हो गई और हमारे यहां पहली मौत भी हो चुकी है. सवाल है क्या इन आंकड़ों को देखते हुए जिस तरह से कोरोना को लेकर दुनिया में भगदड़ और बदहवासी का माहौल बनाया गया है, वह जायज है? हो सकता है यह सहज स्वभाविक हो. लेकिन अगर कल को पता चले कि इसके पीछे एक बड़ी साजिश थी तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

सवाल है कोरोना को लेकर आखिर यह पागलों जैसी हरकतें क्यों हो रही है? अगर भूमंडलीकरण इतना ही कमजोर और इतना की डरपोक आधार पर टिका है, तो फिर इसकी क्या जरूरत है? सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस बदहवासी को फैलाने में उस देश की सबसे बड़ी भूमिका है, जो अपने को हथियारों के मामले में ही नहीं, दवाओं और मेडिकल सुविधाओं के मामले में भी दुनिया का सबसे ताकतवर देश मानता है. उस देश के सबसे ताकतवर व्यक्ति ने इस बदहवासी को फैलाने में आग में डाले जाने वाले घी की भूमिका अदा की है. जी, हां! अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की इन दिनों हाथ जोड़कर हर किसी से नमस्ते करते हुए जो तस्वीरें वायरल हो रही हैं, उनसे हम गर्वित नहीं हो सकते. क्योंकि वे नमस्ते की भारतीय शिष्टता का विस्तार नहीं कर रहे बल्कि वह एक ऐसे डरे हुए व्यक्ति की तस्वीरें हैं जो अपनी अदा से दुनिया को और ज्यादा डराने की कोशिश कर रहा है.

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अमरीकी राष्ट्रपति ने आयरलैंड के प्रधानमंत्री से मुलाकात के दौरान हाथ नहीं मिलाया. हाथ जोड़कर नमस्ते की और यह भी कहा कि मैं हाल ही मैं भारत से आया हूं, वहां भी मैंने हाथ नहीं मिलाया क्योंकि हाथ जोड़ना आसान था. हालांकि उनका इसमें स्वभाविक झूठ भी शामिल था. क्योंकि उन्हें हम सबने प्रधानमंत्री मोदी से न सिर्फ हाथ मिलाते बल्कि बार बार गले मिलते भी देखा है. बहरहाल यह महज हाथ जोड़कर व्यक्तिगत रूप से बरती गई सजगताभर नहीं है बल्कि दुनिया को डराने का एक सबसे संवेदनशील तरीका भी है. कोरोना वायरस सिर्फ व्यक्तिगत रूप से मौत के भय का ही प्रचार प्रसार नहीं कर रहा बल्कि इसने अपनी गैरजरूरी संवेदनशीलता के चलते न केवल दुनिया की अर्थव्यवस्था को महज 72 घंटों में चैपट कर दिया है बल्कि करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी पर लात मार दिया है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने 31 मार्च तक के लिए स्कूलों, काॅलेजों के साथ-साथ माॅल और सिनेमाहाल बंद करके यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि जैसे वह कोरोना को लेकर कितने सजग हैं. दिल्ली में कोरोना वायरस के संक्रमण को माहमारी भी घोषित कर दी गई है. जबकि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक महज 6 लोग इससे संक्रमित पाये गये थे.

इस बदहवासी में सबसे ज्यादा बेनकाब तो वह अवधारणा हुई है जिसे हम भूमंडलीकरण कहते हैं और जिसका गुणगान 90 के दशक से अब तक दुनिया के भविष्य के रूप में होता रहा है. सवाल है क्या इन्हीं दिनों के लिए भूमंडलीय एकता, साझेदारी और मेलमिलाप की कल्पना की गई थी? यह तो बर्बर युग से भी खराब आचरण है कि जरा से संकट आने पर हर देश अपने दड़बे में घुस जाए. अगर संकट के समय सबको अकेले-अकेले ही रहना है, तमाम परेशानियों को अकेले-अकेले ही सहना है तो फिर शांति के समय के लिए भूमंडलीय एकजुटता मिलजुलकर रहने की बड़ी बड़ी दुहाईयों का क्या मतलब है? क्या सिर्फ लाभ और कारोबार के लिए ही दुनियावी एकजुटता होनी चाहिए? क्या किसी संकट से निपटने के लिए इस तरह की एकजुटता की जरूरत नहीं है? कोरोना वायरस को लेकर दुनियाभर में घट रही खुद को लैंडलाक्ड करने की घटनाएं वास्तव में कोरोना द्वारा इंसान की समझ पर जड़ा गया करारा तमाचा हैं.

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मैंने पड़ोस की औरत के साथ संंबंध बनाए हैं, इससे एड्स का कोई डर तो नहीं?

सवाल

मैं 32 साल का हूं. मैंने पड़ोस की औरत के साथ हमबिस्तरी की है, पर डर है कि कहीं मुझे एड्स न हो जाए. वैसे, जिस्मानी संबंध बनाने के 5 दिन बाद मैंने जांच कराई, तो नतीजा निगेटिव रहा. औरत ने 10 दिन बाद जांच कराई, तो उस का नतीजा भी निगेटिव ही था. कोई डर तो नहीं है?

जवाब

एक ओर तो आप को जिस्मानी संबंधों का मजा चाहिए, वहीं दूसरी ओर मौत का डर भी है. आखिर ऐसा काम किया ही क्यों जाए, जिस में खौफ हो. वैसे, जांच रिपोर्टों के मुताबिक आप दोनों ही महफूज हैं, लेकिन यह खेल दूसरे तरीके से भी खतरनाक हो सकता है. औरत के पति को पता चलेगा, तो वह एड्स से भी ज्यादा दर्द देगा.

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मेरी पत्नी के एक युवक से अवैध संबंध हैं. इसके कारण वह मेरे साथ शारीरिक संबंध बनाने से इनकार करती है. मैं क्या करूं?

सवाल
मैं विवाहित युवक हूं और एक बच्चे का पिता हूं. मैं अपनी वैवाहिक जिंदगी से बहुत परेशान हूं. मेरी पत्नी ने पहले एक युवक से दोस्ती की और धीरेधीरे उन की घनिष्ठता इतनी बढ़ गई कि दोनों के बीच अवैध संबंध तक बन गए. मुझे  जब पत्नी के इस व्यभिचार के बारे में पता चला तो हमारे बीच पहले काफी लड़ाईझगड़ा हुआ. साथ रहते हुए भी हम दोनों में दूरियां बढ़ने लगीं और एक दिन वह बेटे को मेरे पास छोड़ कर चली गई. अब वह 3 साल के बाद अचानक लौट आई है.

लगता है कि उस का दोस्त उस से पल्ला झाड़ चुका है, इसीलिए वह वापस आ गई है. उस के आने के बाद मैं ने सामान्य रहने का भरसक प्रयास किया, बावजूद इस के वह न तो मुझ से खुल कर बात करती है और न ही शारीरिक संबंध को तवज्जो देती है. एक ही छत के नीचे रहते हुए हम दोनों अजनबियों की तरह हैं. मैं क्या करूं?

जवाब
अब यह तो नहीं कहा जा सकता कि आप की पत्नी को अपने किए पर ग्लानि हो रही होगी और इसीलिए वह सामान्य नहीं हो पा रही. आप उम्मीद करें कि थोड़े वक्त बाद वह स्वयं ही सामान्य व्यवहार करने लगे. यदि ऐसा नहीं होता तो आप किसी मनोचिकित्सक से परामर्श ले सकते हैं. काउंसलिंग से ज्ञात होगा कि पत्नी के मन में क्या है. कानून हाथ में लेना आसान नहीं है, क्योंकि अदालतें ऐसी पत्नी की भी ज्यादा ही सुनती हैं.

रंग जीवन में नया आयो रे: भाग 3

निश्चय करते ही मुझे अस्पताल की थका देने वाली जिंदगी एकाएक उबाऊ व बोझिल लगने लगी. सोच रही थी कि दो दिन पहले ही छुट्टी ले कर चली जाऊं. अपने इस निर्णय पर मैं खुद हैरान थी.

विवाह के 2 दिन पूर्व मैं उदयपुर जा पहुंची. टुलकी ने मुझे दूर से ही देख लिया था. चंचल हिरनी सी कुलांचें मारने वाली वह लड़की हौलेहौले मेरी ओर बढ़ी. कुछ क्षण मैं उसे देख कर ठिठकी और एकटक उसे देखने लगी, ‘यह इतनी सुंदर दिखने लग गई है,’ मैं मन ही मन सोच रही थी कि वह बोली, ‘‘सिस्टर, मुझे पहचाना नहीं?’’ और झट से झुक कर मुझे प्रणाम किया.

मैं उसे बांहों में समेटते हुए बोली, ‘‘टुलकी, तुम तो बहुत बड़ी हो गई हो. बहुत सुंदर भी.’’

मेरे ऐसा कहने पर वह शरमा कर मुसकरा उठी, ‘‘तभी तो शादी हो रही है, सिस्टर.’’

उस से इस तरह के उत्तर की मुझे उम्मीद नहीं थी. सोचने लगी कि इतनी संकोची लड़की कितनी वाचाल हो गई. सचमुच टुलकी में बहुत अंतर आ गया था.

अचानक मेरा ध्यान उस के हाथों की ओर गया, ‘‘यह क्या, टुलकी, तुम ने तो अपने हाथ बहुत खराब कर रखे हैं, जरा भी ध्यान नहीं दिया. बड़ी लापरवाह हो. अरे दुलहन के हाथ तो एकदम मुलायम होने चाहिए. दूल्हे राजा तुम्हारा हाथ अपने हाथ में ले कर क्या सोचेंगे कि क्या किसी लड़की का हाथ है या…?’’ मैं कहे बिना न रह सकी.

मेरी बात बीच में ही काटती हुई टुलकी उदास स्वर में बोल उठी, ‘‘सिस्टर, किसे परवा है मेरे हाथों की, बरतन मांजमांज कर हाथों में ये रेखाएं तो अब पक्की हो गई हैं. आप तो बचपन से ही देख रही हैं. आप से क्या कुछ छिपा है.’’

‘‘अरे, फिर भी क्या हुआ. तुम्हारी मां को अब तुम से कुछ समय तक तो काम नहीं करवाना चाहिए था,’’ मैं ने उलाहना देते हुए कहा.

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‘‘मेरा जन्म इस घर में काम करने के लिए ही हुआ है,’’ रुलाई को रोकने का प्रयत्न करती टुलकी को देख मेरे अंदर फिर कुछ पिघलने लगा. मन कर रहा था कि खींच कर उस को अपने सीने में भींच लूं. उसे दुनिया की तमाम कठोरता से बचा लूं. मेरी नम आंखों को देख कर वह मुसकराने का प्रयत्न करते हुए आगे बोली, ‘‘मैं भी आप से कैसी बातें करने लग गई, वह भी यहीं सड़क पर. चलिए, अंदर चलिए, सिस्टर, आप थक गई होंगी,’’ मुझे अंदर की ओर ले जाती टुलकी कह उठी, ‘‘आप के लिए चाय बना लाती हूं.’’

बड़े आग्रह से उस ने मुझे नाश्ता करवाया. मैं देख रही थी कि यों तो टुलकी में बड़ा फर्क आ गया है पर काम तो वह अब भी पहले की तरह उन्हीं जिम्मेदारियों से कर रही है.

मेरे पूछने पर कहने लगी, ‘‘मां तो नौकरी पर रहती हैं, उन्हें थोड़े ही मालूम है कि घर में कहां, क्या पड़ा है. मैं न देखूंगी तो कौन देखेगा. और यह टिन्नू,’’ अपनी छोटी बहन की ओर इशारा करते हुए कहने लगी, ‘‘इसे तो अपने शृंगार से ही फुरसत नहीं है. अब देखो न सिस्टर, जैसे इस की शादी हो रही हो. रोज ब्यूटीपार्लर जाती है.’’

‘‘दीदी, आज आप की पटोला साड़ी मैं पहन लूं?’’ अंदर आती टिन्नू तुनक कर बोली.

‘‘पहन ले, मोपेड पर जरा संभलकर जाना.’’

‘‘पायलें भी दो न, दीदी.’’

‘‘देख, तू ने लगा ली न वही बिंदी. मैं ने तुझे मना किया था कि नहीं?’’

‘‘मैं ने मां से पूछ कर लगाई है,’’ इतराती हुई टिन्नू निडर हो बोली.

‘‘मां क्या जानें कि मैं क्यों लाई?’’

‘‘आप और ले आना, मुझे पसंद आई तो मैं ने लगा ली. इस पटोला पर मैच कर रही है न. अब मुझे जल्दी से पायलें निकाल कर दे दो. देर हो रही है. अभी बहुत से कार्ड बांटने हैं.’’

‘‘नहीं दूंगी.’’

‘‘तुम नहीं दोगी तो मैं मां से कह कर ले लूंगी,’’ ठुनकती हुई टिन्नू टुलकी को अंगूठा दिखा कर चली गई.

‘‘देखो सिस्टर, मेरा कुछ नहीं है. मैं कुछ नहीं, कोई अहमियत नहीं,’’ भरे गले से टुलकी कह रही थी.

‘‘टुलकी, ओ टुलकी,’’ तभी उस की मां की आवाज सुनाई दी, ‘‘हलवाई बेसन मांग रहा है.’’

‘‘टुलकी, जरा चाकू लेती आना?’’ किसी दूसरी महिला का स्वर सुनाई दिया.

‘‘दीदी, पाउडर का डब्बा कहां रखा है?’’ टुलकी की छोटी बहन ने पूछा.

‘‘क्या झंझट है, एक पल भी चैन नहीं,’’ झुंझलाती हुई वह उठ खड़ी हुई.

मैं बैठी महसूस कर रही थी कि विवाह के इन खुशी से भरपूर क्षणों में भी टुलकी को चैन नहीं.

दिनभर के काम से थकी टुलकी अपने दोनों हाथों से पैर दबाती, उनींदी आंखें लिए ‘गीतों भरी शाम’ में बैठी थी और ऊंघ रही थी. उल्लास से हुलसती उस की बहनें अपने हाथों में मेहंदी रचाए, बालों में वेणी सजाए, गोटा लगे चोलीघाघरे में ढोलक की थाप पर थिरक रही थीं.

सभी बेटियां एक ही घर में एक ही मातापिता की संतान, एक ही वातावरण में पलीबढ़ीं पर फिर भी कितना अंतर था. कुदरत ने टुलकी को ‘बड़ा’ बना कर एक ही सूत्र में मानो जीवन की सारी मधुरता छीन ली थी.

टुलकी के जीवन की वह सुखद घड़ी भी आई जब द्वार पर बरात आई, शहनाई बज उठी और बिजली के नन्हे बल्ब झिलमिला उठे.

मैं ने मजाक करते हुए दुलहन बनी टुलकी को छेड़ दिया, ‘‘अब मंडप में बैठी हो. किसी काम के लिए दौड़ मत पड़ना.’’

धीमी सी हंसी हंसती वह मेरे कान में फुसफुसाई, ‘फिर कभी इधर लौट कर नहीं आऊंगी.’

बचपन से चुप रहने वाली टुलकी के कथन मुझे बारबार चौंका रहे थे. इतना परिवर्तन कैसे आ गया इस लड़की में?

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मायके से विदा होते वक्त लड़कियां रोरो कर कैसा बुरा हाल कर लेती हैं पर टुलकी का तो अंगप्रत्यंग थिरक रहा था. मुझे लगा, सच, टुलकी के बोझिल जीवन में मधुमास तो अब आया है. उस के वीरान जीवन में खुशियों के इस झोंके ने उसे तरंगित कर दिया है.

विदा के झ्रसमय टुलकी के मातापिता, भाई और बहनों की आंखों में आंसुओं की झड़ी लगी हुई थी लेकिन टुलकी की आंखें खामोश थीं, उन में कहीं भी नमी दिखाई नहीं दे रही थी. इसलिए वह एकाएक आलोचना व चर्चा का विषय बन गई. महिलाओं में खुसरफुसर होने लगी.

लेकिन मैं खामोश खड़ी देख रही थी बंद पिंजरे को छोड़ती एक मैना की ऊंची उड़ान को. एक नए जीवन का स्वागत वह भला आंसुओं से कैसे कर सकती थी.

रंग जीवन में नया आयो रे: भाग 2

‘आप को उड़ती हुई पतंग देखना अच्छा लगता है, सिस्टर?’

मैं ने ‘हां’ में गरदन हिलाई और उस को देखती रही कि वह आगे कुछ बोले, पर जब चुप रही तो मैं ने पूछ लिया, ‘क्यों, क्या हुआ?’

वह चुप रही. मन में कुछ तौलती रही कि मुझ से कहे या न कहे. मैं उसे इस स्थिति में देख प्रोत्साहित करते हुए बोली, ‘तुझे पतंग चाहिए?’

उस ने ‘न’ में गरदन हिलाई तो मैं झुंझलाते हुए बोली, ‘तो फिर क्या है?’

वह सहम गई. धीरे से बोली, ‘कुछ नहीं, सिस्टर?’ और जाने को मुड़ी.

‘कुछ कैसे नहीं, कुछ तो है, बता?’ चादर एक तरफ फेंकते हुए मैं उस का हाथ पकड़ कर रोकते हुए बोली.

‘सिस्टर, मैं शाम को छत पर पतंग देख रही थी तो पिताजी ने गुस्से में मेरे बाल खींच लिए. कहने लगे कि नाक कटानी है क्या? लड़की जात है, चल, नीचे उतर. सिस्टर, क्या पतंग देखना बुरी बात है?’

मैं ने बात की तह में जाते हुए पूछ लिया, ‘छत पर तुम्हारे साथ कौन था?’

‘कोई नहीं,’ टुलकी की मासूम आंखें सचाई का प्रमाण दे रही थीं.

‘और पड़ोस की छत पर?’ मैं तहकीकात करते हुए आगे बोली.

‘वहां 2 लड़के थे सिस्टर, पर मैं उन्हें नहीं जानती.’

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बस, बात मेरी समझ में आ गई थी कि टुलकी को डांट क्यों पड़ी. सोचने लगी, ‘छोटी सी अबोध बच्ची पर इतनी पाबंदी. पर मैं कर ही क्या सकती हूं?’

टुलकी के पिता पुलिस में सबइंस्पैक्टर थे, सो रोब तो उन के चेहरे व  आवाज में समाया ही रहता था. अपनी बेटियों से भी वह पुलिसिया अंदाज में पेश आते थे. जरा सी भी गलती हुई नहीं कि टुलकी के गालों पर पिताजी की उंगलियों के निशान उभर आते.

एक दिन अचानक टुलकी के पिता की कर्कश आवाज सुनाई दी, ‘मेरी जान खाने को चारचार बेटियां जन दीं निपूती ने, एक भी बेटा पैदा नहीं किया. सारी उम्र हड्डियां तोड़तोड़ कर दहेज जुटाता रहूंगा और बुढ़ापे में ये सब चल देंगी अपने घर. कोई भी सेवा करने वाला नहीं होगा.’

मारपीट और चीखचिल्लाहट की आवाजें आ रही थीं. मैं अस्पताल जाने के लिए तैयार खड़ी थी पर वह सब सुन कर मुझ से नहीं रहा गया. बाहर निकल कर देखा कि टुलकी भय से थरथर कांपती हुई दीवार से सट कर खड़ी है.

‘इंस्पैक्टर साहब, आप भी क्या बात करते हैं. बेटियां जनी हैं तो इस में नीरा भाभी का क्या दोष?’ एक नजर कलाई पर बंधी घड़ी की ओर फेंकते हुए मैं

ने कहा.

मुझे देख वे जरा संयमित हुए. चेहरे पर छलक आए पसीने को पोंछते हुए बोले, ‘अब आप ही बताओ सिस्टर, चारचार बेटियों का दहेज कहां से जुटा पाऊंगा?’

‘अब कह रहे हैं यह सब. आप को पहले मालूम नहीं था जो चारचार बेटियों की लाइन लगा दी?’

मेरे कहने पर वे थोड़ा झुंझलाए. फिर कुछ कहने ही वाले थे कि मैं फिर घुड़कते हुए बोली, ‘आप अकेले तो नहीं कमा रहे, नीरा भाभी भी तो कमा रही हैं.’

‘कमा रही है तो रोब मार रही है. घर का कुछ खयाल नहीं करती. उस छोटी सी लड़की पर पूरे घर का बोझ डाल दिया है.’

‘नौकरी और घरगृहस्थी ने तो भाभी को निचोड़ ही लिया है. अब उन में जान ही कितनी बची है जो आप उन से और ज्यादा काम की उम्मीद करते हैं.’

वे दुखी स्वर में बोले, ‘सिस्टर, आप भी मुझे ही दोष दे रही हैं. देखो, टुलकी का प्रगतिपत्र,’ टुलकी का प्रगतिपत्र आगे करते हुए बोले, ‘सब विषयों में फेल है.’

‘इंस्पैक्टर साहब, आप ही थोड़ा जल्दी उठ कर टुलकी को पढ़ा क्यों नहीं देते?’

‘जा री टुलकी, सिस्टर के लिए चाय बना ला,’ वे ऊंचे स्वर में बोले.

‘देखो सिस्टर, सारा दिन ये खुद ही लड़की से काम करवाते रहते हैं और दोष मुझे देते हैं,’ साड़ी के पल्लू से आंखें पोंछते हुए नीरा भाभी रसोई की ओर बढ़ते हुए बोलीं तो मुझे एकाएक ध्यान आया कि इस पूरे प्रकरण में मुझे 10 मिनट की देर हो गई है. मैं उसी क्षण अस्पताल की ओर चल पड़ी.

उस दिन के बाद से इंस्पैक्टर साहब रोज सुबह टुलकी को पढ़ाने लगे पर उस का पढ़ाई में मन ही नहीं लगता था. उस का ध्यान बराबर घर में हो रहे कामकाज व छोटी बहनों पर लगा रहता. उस के पिता उत्तेजित हो जाते और टुलकी सबकुछ भूल जाती और प्रश्नों के उत्तर गलत बता देती.

टुलकी की शिकायतें अकसर स्कूल से भी आती रहती थीं, कभी समय से स्कूल न पहुंचने पर तो कभी गृहकार्य पूरा न करने पर. ऐसे में टुलकी का अध्यापिका द्वारा दंडित होना तो स्वाभाविक था ही, साथ ही अब घर में भी उसे मार पड़ने लगी. मैं सोचती रह जाती, ‘नन्ही सी जान कैसे सह लेती है इतनी मार.’ पर देखती, टुलकी इस से जरा भी विचलित न होती, मानो दंड सहने की आदत पड़ गई हो.

टुलकी की परीक्षाएं नजदीक थीं. सो, नीरा भाभी छुट्टियां ले कर घर रहने लगीं. अब उस की पढ़ाई पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा.

मातापिता के इस एक माह के प्रयास के कारण टुलकी जैसेतैसे पास हो गई.

एक दिन टुलकी के भाई का जन्म हुआ जो उस के लिए बेहद प्रसन्नता का विषय था. इस से पहले मैं ने कभी टुलकी को इस तरह प्रफुल्लित हो कर चौकडि़यां भरते नहीं देखा था.

मुझे मिठाई का डब्बा देते हुए बोली, ‘जब हम सब चली जाएंगी तब भैया ही मातापिता की सेवा करेगा.’

मैं ने ऐसे ही बेखयाली में पूछ लिया था, ‘कहां चली जाओगी?’

‘ससुराल और कहां,’ मुझे अचरज से देखती टुलकी बोली.

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उस के छोटे से मुंह से इतनी बड़ी बात सुन कर उस समय तो मुझे बहुत हंसी आई थी पर अब उसी टुलकी के विवाह का कार्ड देखा तो मन की राहों से उस का मासूम, बोझिल बचपन गुजरता चला गया.

फिर शीघ्र ही मेरा वहां से तबादला हो गया था. अस्पताल की भागदौड़ में अनेक अविस्मरणीय घटनाएं अकसर घटती ही रहती हैं. मैं तो टुलकी को

लगभग भूल ही चुकी थी. किंतु जब उस ने मुझे याद किया और इतने मनुहार से पत्र लिखा तो हृदय की सुप्त भावनाएं जाग उठीं. सोचा, ‘मैं जरूर उस की शादी में जाऊंगी.’

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रंग जीवन में नया आयो रे: भाग 1

घंटी की आवाज से मैं एकदम चौंक उठी. सोचा, बेवक्त कौन आया है नींद में खलल डालने. उठ कर देखा तो डाकिया बंद दरवाजे के नीचे से एक लिफाफा खिसका गया था.

झुंझलाई सी मैं लिफाफा ले कर वहीं सोफे पर बैठ गई. जम्हाई लेते हुए मैं ने सरसरी नजर से देखा, ‘यह तो किसी के विवाह का कार्ड है. अरे, यह तो टुलकी की शादी का निमंत्रणपत्र है.’

सारा आलस, सारी नींद पता नहीं कहां फुर्र हो गई. टुलकी के विवाह के निमंत्रणपत्र के साथ उस का हस्तलिखित पत्र भी था. बड़े आग्रह से उस ने मुझे विवाह में बुलाया था. मेरे खयालों के घेरे में 12 वर्षीया टुलकी की छवि अंकित हो आई.

लगभग 8 वर्ष पूर्व मैं उदयपुर अस्पताल में कार्यरत थी. टुलकी मेरे मकानमालिक की 4 बेटियों में सब से बड़ी थी. छोटी सी टुलकी को घर के सारे काम करने पड़ते थे. भोर में उठ कर वह किसी सुघड़ गृहिणी की भांति घर के कामकाज में जुट जाती. वह पानी भरती, मां के लिए चाय बनाती. फिर आटा गूंधती और उस के अभ्यस्त नन्हेनन्हे हाथ दो परांठे सेंक देते. इस तरह टुलकी तैयार कर देती अपनी मां का भोजन.

टुलकी की मां पंचायत समिति में अध्यापिका थीं. चूंकि स्कूल शहर के पास एक गांव में था, इसलिए उस को साढ़े 6 बजे तक आटो स्टैंड पहुंचना होता था. जल्दबाजी में वह अकसर अपना टिफिन ले जाना भूल जाती. ऐसे में टुलकी सरपट दौड़ पड़ती आटो स्टैंड की ओर और मां को टिफिन थमा आती.

लगभग यही समय होता जब मैं अपनी रात की ड्यूटी पूरी कर घर लौट रही होती. आटो स्टैंड से ही टुलकी वापस मेरे साथ घर की ओर चल पड़ती.

‘आज तुम्हारी मां फिर टिफिन भूल गईं क्या?’ मेरे पूछते ही टुलकी ‘हां’ में गरदन हिला देती. मैं देखती रह जाती उस के मासूम चेहरे को और सोचती, ‘दोनों में मां कौन है और बेटी कौन?’

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घर पहुंचते ही टुलकी पूछती, ‘सिस्टर, आप के लिए चाय बना दूं?’

‘नहीं, रहने दे. अभी थोड़ी देर सोऊंगी. रातभर की थकी हूं,’ कहती हुई मैं अपने बालों को जूड़े के बंधन से मुक्त कर देती. मेरे काले घने, लंबे बालों को टुलकी अपलक देखती रह जाती. पर यह मैं ने तब महसूस किया जब एक दिन वह बर्फ लेने आई. उस के कटे बालों को देख मैं हैरानी से पूछ बैठी, ‘बाल क्यों कटवा लिए, टुलकी?’

उस की पहले से सजल मिचमिची आंखों से आंसू बहने लगे. मेरे पुचकारने पर उस के सब्र का बांध टूट गया. भावावेश में वह मेरे सीने से लिपट गई. मेरे अंदर कुछ पिघलने लगा. उस के रूखे बालों में हाथ घुमाते हुए मैं ने पुचकारा, ‘रो मत बेटी, रो मत. क्या हुआ, क्या बात हुई, मुझे बता?’

सिसकियों के बीच उभरते शब्दों से मैं ने जाना कि टुलकी के लंबे बालों में जुएं पड़ गई थीं. मां से सारसंभाल न हो पाई. इसलिए उस के बाल जबरदस्ती कटवा दिए गए.

‘सिस्टर, मुझे आप जैसे लंबे बाल…’ उस ने दुखी स्वर में मुझ से कहा, ‘देखो न सिस्टर, मैं सारे घर का काम करती हूं, मां का इतना ध्यान रखती हूं…क्या हुआ जो मेरे बालों में जुएं पड़ गईं. इस का मतलब यह तो नहीं कि मेरे बाल…’ और उस की रुलाई फिर से फूट पड़ी.

मैं उसे दिलासा देते हुए बोली, ‘चुप हो जा मेरी अच्छी गुडि़या. अरे, बालों का क्या है, ये तो फिर बढ़ जाएंगे, जब तू मेरे जितनी बड़ी हो जाएगी तब बढ़ा लेना इतने लंबे बाल.’

हमेशा चुप रहने वाली आज्ञाकारिणी टुलकी मेरी ममता की हलकी सी आंच मिलते ही पिघल गई थी. पहली बार मुझे महसूस हुआ कि इस अबोध बच्ची ने कितना लावा अपने अंदर छिपा रखा है.

टुलकी की मां उस को जोरजोर से आवाजें देती हुई कोसने लगी, ‘पता नहीं कहां मर गई यह लड़की. एक काम भी ठीक से नहीं करती. बर्फ क्या लेने गई, वहीं चिपक गई.’

मां की चिल्लाहट सुन कर बर्फ लिए वह दौड़ पड़ी. उस दिन के बाद वह हमेशा स्नेह की छाया पाने के लिए मेरे पास चली आती.

एक दिन जब टुलकी अपनी मां के सिर की मालिश कर रही थी तो मैं अपनेआप को रोक नहीं पाई, ‘क्या जिंदगी है, इस लड़की की. खानेखेलने की उम्र में पूरी गृहस्थिन बन गई है. इसे थोड़ा समय खेलने के लिए भी दिया करो, भाभी. तुम इस की सही मां हो, तुम्हें जरा खयाल नहीं आता कि…’

‘क्या करूं, सिस्टर, आज सिर में बहुत दर्द था,’ टुलकी की मां ने अपराधभाव से अपनी नजर नीची करते हुए कहा.

मैं ने टुलकी को उंगली से गुदगुदाते हुए उठने का इशारा किया तो उस ने हर्षमिश्रित आंखों से मुझे देखा और आंखों ही आंखों में कुछ कहा. फिर वह बाहर भाग गई. मुझे लगा, जैसे मैं ने किसी बंद पंछी को मुक्त कर दिया है.

‘आज आटो के इंतजार में सड़क पर 2 घंटे तक खड़ा रहना पड़ा. शायद तेज धूप के कारण सिर में दर्द होने लगा है. सोचा, थोड़ी मालिश करवा लूं, ठीक हो जाएगा,’ टुलकी की मां सफाई देती हुई बोलीं.

शायद कुछ दर्द के कारण या फिर अपनी बेबसी के कारण टुलकी की मां की आंखें नम हो आई थीं. यह देख मैं इस समय ग्लानि से भर गई.

‘क्या करूं सिस्टर, एक लड़के की चाह में मैं ने पढ़ीलिखी, समझदार हो कर भी लड़कियों की लाइन लगा दी. पता नहीं क्याक्या देखना है जिंदगी में…’ कहती हुई वह अपनी बेबसी पर सिसक उठी.

सारा दोष ‘प्रकृति’ पर मढ़ कर वह अपनेआप को तसल्ली देने लगी. मैं सोचने लगी कि इन्होंने तो सारा दोष प्रकृति को दे कर मन को समझा दिया पर टुलकी बेचारी का क्या दोष जो असमय ही उस का बचपन छिन गया.

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‘क्या उस का दोष यही है कि वह घर में सब से बड़ी बेटी है?’ मन में बारबार यही प्रश्न घुमड़ रहा था. टुलकी बारबार मेरे मानसपटल पर उभर कर पूछ रही थी, ‘मेरा कुसूर क्या है, सिस्टर?’

उस दिन भी मैं सो रही थी कि एकाएक मुझे लगा कि कोई है. आंखें खोल कर देखा तो टुलकी सामने खड़ी थी. पता नहीं कब आहिस्ता से दरवाजा खोल कर भीतर आ गई थी. वह एकटक मुझे देख रही थी. मैं ने आंखों ही आंखों में सवाल किया, ‘क्या है?’

आगे पढ़ें- मैं ने ‘हां’ में गरदन हिलाई और उस को…

मैं और मेरी कार

मैं और मेरी कार, हम दोनों के बीच एक अजीब सा बेतार का बंधन है. पढ़ कर चौंकिए मत, मैं अपने पूरे होशोहवास के साथ यह बात कह रही हूं. यों तो मैं ने कार चलाना सीखा था 16 वर्ष की उम्र में पर न वह कार मेरी थी और न ही उस से मेरा कोई रिश्ता जुड़ा. यह रिश्ता तो जुड़ा मेरी अपनी कार से, जो मेरी थी, बिलकुल मेरी अपनी, प्यारी सी, छोटी सी, मेरा सब कहना मानने वाली. जहां कहो चल देगी, न कोई सवाल, न कोई तर्क और न ही कोई बहाना.

तेज चलने को कहो तो तेज चल पड़ेगी और अगर धीरे चलना चाहो तो मन की बात बिना कहे ही सम झ लेगी, एक अच्छे साथी की तरह. उसे जब कोई दुखतकलीफ हो तो अंदर की बात किसी न किसी तरह बता ही देती है, फिर चाहे नौनवर्बल भाषा बोले या फिर शोर मचा कर अपने दिल की बात सम झाए. कुल मिला कर सार यह है कि मैं और मेरी कार एकदूसरे की भाषा अच्छी तरह सम झने लगे और जैसेजैसे समय निकलता गया, हमारे बीच अंडरस्टैंडिंग बढ़ती गई.

इस अंडरस्टैंडिंग का आलम किस हद तक बढ़ गया, इस का एहसास मु झे तब हुआ जब बडे़ साहबजादे ने अपनी पहली तनख्वाह से मेरी गाड़ी में एक म्यूजिक सिस्टम लगवा दिया और कहा, ‘‘मम्मी, अब जरा एक टैस्ट ड्राइव कर के आओ और मजा देखो.’’

मैं ने जैसे ही गाड़ी स्टार्ट की और स्टीरियो का स्विच औन किया, गाना बजने लगा, ‘‘तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन अनजाना, तू ने नहीं जाना, मैं ने नहीं जाना…’’

मैं ने कोई खास ध्यान नहीं दिया. गाना था, गाने की तरह सुन लिया. पर अगली बार और बारबार जब कुछ ऐसा ही होने लगा तो मेरा माथा ठनका.

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एक खास दिन कुछ ज्यादा ही खराब था. मातहतों ने काम पूरा नहीं किया था. जरूरी मसले अधूरे छोड़ कर घर चले गए थे क्योंकि उन्हें अपनी चार्टर्ड बस पकड़नी थी. बौस का पारा कुछ ज्यादा ही चढ़ा हुआ था. सारे नोट्स पर गुस्से वाले रिमार्क्स लिख दिए थे जो उन का चपरासी मेरी मेज पर पटक गया था. मतलब यह कि कुछ भी ठीक नहीं था. पैर पटकते मैं भी घर की तरफ चली. जैसे ही कार में बैठ कर इंजन की चाबी घुमाई, गाना बजने लगा :

‘‘ये सफर बहुत है कठिन मगर,

न उदास हो मेरी हमसफर,

न रहने वाली ये मुश्किलें

कि हैं अगले मोड़ पे मंजिलें…’’

मु झे लगा कि मेरी तनी हुई भंवों पर किसी ने प्यारभरा हाथ रख दिया हो. धन्य हो मेरी प्यारी कार, तुम ने जीवन का सार मु झे कितनी आसानी से सम झा दिया.

अब अगली बार फिर ऐसा ही कुछ हुआ. इतवार को शौपिंग करने गई थी और वापस लौट रही थी कि कार ने नौनवर्बल भाषा शुरू की…घड़…घड़…घड़…

पिछला पहिया पंक्चर हो गया था. मरता क्या न करता? गाड़ी रोकी, जैक निकाला और पहिए के नट खोलने शुरू किए. इतने में देखा कि एक आदमी आया. उस ने कुछ कहे बिना मेरे हाथ से स्पैनर ले लिया, नट खोले, जैक चढ़ाया, पहिया उतारा, स्टैपनी लगाई और पंक्चर्ड पहिया उठा कर डिक्की में रख दिया.

मैं ने भी पर्स खोला और 50 रुपए का नोट उस के हाथ में रख दिया और वह चला गया. न उस ने एक भी शब्द कहा न मैं ने. वापस गाड़ी स्टार्ट की तो गाना बज रहा था:

‘‘कुछ ना कहो कुछ भी ना कहो,

क्या कहना है क्या सुनना है,

तुम को पता है मुझ को पता है…’’

आं …हां …हां …हां …यह क्या कहा जा रहा है? यही सब तो अभीअभी हुआ था. क्या मेरी कार मेरी खिंचाई कर रही थी? मेरा शक अब विश्वास में बदल रहा था. मेरी कार में शायद दिल और दिमाग दोनों ही हैं वरना हरेक बात गाने की भाषा में बदल जाती है. क्या यह मेरे मन का वहम था या फिर जैसा कि बुद्धिजीवी कहना चाहेंगे …मात्र संयोग?

कल घर जाते वक्त तो कमाल ही हो गया. कार की कहीअनकही बातों ने मु झे कुछ ऐसा घेर लिया कि मेरा दिमाग इस पसोपेश में उल झ गया कि क्या मेरी कार में दिल और दिमाग दोनों हैं? उफ, यह क्या? ऐक्सिडैंट होतेहोते बचा.

‘बेटा, अपनी ड्राइविंग पर ध्यान दो,’ मैं ने अपनेआप से कहा और दिमाग पर ज्यादा जोर न डालते हुए ड्राइविंग पर ध्यान देना शुरू कर दिया. दोनों तरफ से बसें और कारें दबाव डाल रही थीं. पलक  झपकते ही पतिदेव का दफ्तर आ गया और साथ ही ड्राइवर की सीट में बदलाव भी.

अपने इस लेख के पाठकों की सूचना के लिए बता दूं कि मेरे पास शो?फर ड्रिवेन गाड़ी तो है नहीं पर शौहर ड्रिवेन गाड़ी का आनंद भी कुछ कम नहीं है. अब जैसे ही पतिदेव ने गाड़ी चलानी शुरू की तो मेरी कार को शायद अच्छा नहीं लगा. कभी  झटके देती तो कभी घूंघूं की आवाजें निकालती. गुस्से में वे बोले, ‘‘क्या है यह तुम्हारी कार, पुरानी हो गई है. इसे बेच कर नई ले लो.’’

इस से पहले कि मैं कुछ बोल पाती, म्यूजिक सिस्टम में एक  झटका लगा और मु झे गाड़ी की भावुक अपील सुनाई पड़ी:

‘‘हम तुम से जुदा हो के,

मर जाएंगे रो रो के…’’

मैं ने तुरंत पतिदेव से कहा, ‘‘कोई जरूरत नहीं है गाड़ीवाड़ी बदलने की. क्लच प्लेट्स थोड़ी घिस गई हैं. बस, उन्हें बदलवा देते हैं.’’ इतना कह कर मैं मुसकरा दी और एकदम से ही जैसे घूंघूं की आवाज बंद हो गई.

उन्हें क्या पता, मेरे और मेरी प्यारी गाड़ी के बीच गुपचुप क्या वार्त्तालाप हो गया था.

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पीरियड्स को अकेली महिलाएं न बनाएं जी का जंजाल

42  साल की प्रीति एक प्राइवेट स्कूल में प्रधानाचार्या की हैसियत से काम करती है. उस के पति भी शहर के नामी बिजनेसमैन हैं. घर में पतिपत्नी ही हैं. बच्चे हुए नहीं और सासससुर गांव में रहते हैं. ऐसे में प्रीति को महीने के उन 4 दिनों में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. परेशानी भी ऐसी जिस की वजह वह खुद और उस की अंधविश्वासी सोच है.

दरअसल प्रीति ने बचपन से ही अपनी मां ,चाची, बुआ वगैरह को पीरियड्स के समय बहुत सारे नियमकानूनों का पालन करते हुए देखा था. मसलन किचन और मंदिर में न घुसना, बिस्तर पर न सोना, पौधों को पानी न देना, पति को न छूना आदि. इन दिनों प्रीति घर का कोई काम नहीं करती और खाना भी बाहर से मंगाती थी.

हद तो तब हो गई जब एक दिन पीरियड्स के समय ही वह बाथरूम में गिर पड़ी. उस के सिर में चोट लग गई और वह दर्द से चीख पड़ी. पति दौड़े आए मगर अंधविश्वास में जकड़ी प्रीति ने उठने के लिए पति का हाथ नहीं पकड़ा. ऐसा करने से वह पति को छू देती और दकियानूसी नियमों की फेहरिश्त में एक नियम पति को न चूना और करीब न जाना भी शामिल था.

नतीजा यह हुआ कि प्रीति बहुत देर मशक्कत करने के बाद उठ पाई और तब तक उस के सिर से काफी खून बह चुका था.

पीरियडस होना एक स्वाभाविक शारीरिक प्रक्रिया है मगर अंधविश्वासी काढ़े में लपेट कर इस सुखद प्रक्रिया को भी बहुत कष्टकारी और शर्मिंदगी भरा बना दिया जाता है. आश्चर्य तब होता है जब अंधविश्वास की चपेट में पढ़ीलिखी शहरी महिलाएं भी आ जाती है. घर में सास का हुक्म चलता है तब तो बात समझ में आती है. मगर आलम यह है कि बहुत सी इंडिपेंडेंट अकेली रह रही महिलाएं भी ऐसे चोंचलों को मानती हैं और बेवजह परेशानियां सहती है.  यानी उन के लिए ऐसा करने की बाध्यता नहीं, फिर भी वे ऐसा कर रही हैं. आइये गौर करते हैं अकेली या केवल पति के साथ रह रही महिलाएं जब इन मान्यताओं को निभाती हैं तो उन्हें कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ता है;

1. खाना बनाने की परेशानी

पीरियड्स के दौरान महिलाओं को खाना बनाने की अनुमति नहीं है. ऐसे समय में महिलाएं दूसरे के लिए रखे खाने को भी नहीं छू सकती हैं. यह नियम सदियों से चला आ रहा है. लोग कहते हैं कि अगर पीरियड्स में महिला खाना बनाएगी तो खाना दूषित हो जाएगा या जहर भी फैल सकता है.

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जब दकियानूसी स्त्री/लड़की अकेली रह रही हो तो इन बातों को मानने वाली के लिए पीरियड्स के समय खाने की समस्या खड़ी होती है. वह खुद खाना नहीं बनाती और ऐसे में उसे बाहर से खाना मंगाना पड़ता है या फिर अपनी किसी सहेली या पड़ोसी का एहसान लेना पड़ता है. किसी और से वह मनपसंद खाने की फरमाइश नहीं कर सकती. वही खाने को मिलता है जो सामने वाले ने बना कर भेजा है

कई लड़कियां ऐसे में अपनी कामवाली बाई को काम पर लगाती है. मगर यह कोई स्थाई समाधान नहीं. यदि कामवाली उस दिन छुट्टी कर जाए तो फिर परेशानी बढ़ जाती है.  कुल मिला कर महीने के 5 दिन खाना न बनाने का अंधविश्वास बड़ी परेशानी का सबब बन जाता है.

यदि स्त्री का पति खाना बनाना जानता है तब तो वह इन दिनों में पति की मिन्नतें कर खाना बनवाती है. स्त्री की तरह पुरुष घर के कामों में इतने सुघड़ नहीं होते. ऐसे में वे थोड़ा बनाएँगे और ज्यादा बिगाड़ेंगे. यानी पति के हाथ किचन छोड़ने का मतलब है किचन में पूरी तरह अव्यवस्था का फैलना. यदि पुरुष को खाना बनाना नहीं आता है तो स्त्री को अपने साथसाथ पति के खाने का इंतजाम भी बाहर से कराना पड़ता है.

2. अचार न छूना

माहवारी के समय स्त्री को नीचा दिखाने के लिए डरा दिया जाता है कि अचार छूने पर वह काला पड़ जाएगा. कीटाणुं फैल जाएंगे. इसलिए इस समय महिलाओं को अचार छूने की मनाही रहती है.

आप अकेली हैं और पीरियड्स के समय आप को अचार खाने की तलब लगी है. बिना अचार खाने में स्वाद नहीं आ रहा है. ऐसे में आप को इंतजार करना पड़ेगा कि कोई आए और उस के हाथ से शीशी से अचार निकलवाए. यह स्थिति एक विवाहित स्त्री के लिए भी हो सकती है क्योंकि पति सुबहसुबह ऑफिस जा चुका होता है और इस के बाद उसे हर काम खुद करना है.

3. पौधों को पानी देना

माना जाता है कि इन दिनों में कोई महिला तुलसी को छू लेंगी तो तुलसी का पौधा मर जाएगा, केले का पेड़ छूने पर वह मुरझा जाएगा, फल खराब हो जाएंगे.

स्त्री अकेली रहती हो और 5 -6 दिनों तक अपने घर के पौधों को पानी न दे तो जाहिर है कि पौधे मुरझा जाएंगे. सिर्फ पानी देने के लिए पड़ोसियों को बुलाना भी बहुत अजीब लगेगा और अपनी माहवारी का ढिंढोरा पीटना होगा.

4. बिस्तर पर न सोना या जमीन पर सोना

धर्म से जोड़ कर माहवारी के दौरान महिलाओं को अपने बिस्तर पर सोने की अनुमति नहीं है. उन्हें जमीन पर सुलाया जाता है .

गर्मी में तो इंसान जमीन पर सो सकता है मगर जाड़े में यह काम कम परेशानी भरा नहीं क्यों कि ठंड में ऐसा कदम उन्हें बीमार भी कर सकता है. उस पर जमीन पर सोते समय किसी कीड़े ने काट लिया तो स्थिति और भी भयानक हो सकती है. अकेली लड़की या महिला को ऐसे में हॉस्पिटल पहुंचाने वाला भी कोई नहीं रहेगा.

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5. पति को न छूना

माना जाता है कि रजस्वला महिला पति को छूएगी तो पति भी दूषित हो जाएगा. पति से अगर कुछ मांगना भी हो तो भी दूर से मांगना चाहिए.

सोचने वाली बात है कि जब घर में केवल पतिपत्नी हो तो 4 -5 दिनों तक पति से बिल्कुल दूर रहना और छूने से भी परहेज करना संभव कैसे है?  एक तो इतने दिन पति से संन्यास की अपेक्षा नहीं की जा सकती और उस पर जरूरी होने पर भी अछूतों की तरह दूर रहे आना स्त्री पुरुष दोनों के लिए ही बहुत मुश्किल भरा हो जाता है. कई दफा ऐसी जरूरत आ जाती है कि आप पति को इग्नोर नहीं कर सकतीं. माहवारी के दौरान सैक्स में कोई खराबी नहीं होती यदि दोनों कम्फर्टेबल हों.

रंग जीवन में नया आयो रे

#coronavirus: केजरीवाल ने कोरोना को घोषित किया महामारी, अलर्ट मोड पर दिल्ली!

पिछले साल डेंगू मुक्त दिल्ली के लिए सजग रही केजरीवाल सरकार ने अब कोरोना वायरस के बढ़ते प्रकोप के मद्देनजर राष्ट्रीय राजधानी में स्कूलों, कालेजों और सिनेमाघरों को एहतियाती तौर पर 31 मार्च तक बंद रखने की घोषणा की. केवल वे स्कूल और कालेज ही खुले रहेंगे जहां अभी परीक्षाएं जारी हैं. सरकार ने सरकारी, निजी कार्यालयों, शौपिंग मालों सहित सभी सार्वजनिक स्थानों को संक्रमण मुक्त बनाना अनिवार्य कर दिया गया है.

सजगता जरूरी

खतरनाक बुखार डेंगू दिल्ली में हर साल कहर बरपाता रहा है, पर केजरीवाल सरकार ने इस के लिए काफी पहले ही तैयारी की और जागरूकता अभियान चला कर जगहजगह डेंगू मुक्त उपाय किए. परिणामस्वरूप पिछले साल काफी कम मामले ही डेंगू के सामने आए. इस के लिए केजरीवाल सरकार को काफी सराहना भी मिली थी. अब जबकि लगभग पूरे विश्व में कोरोना वायरस महामारी का रूप ले चुका है, दिल्ली सरकार ने समय रहते इस के खतरों को भांपते हुए ऐहतियातन स्कूल, कालेज, सिनेमाघरों आदि को 31 मार्च तक बंद करने का आदेश दिया है. यह फैसला दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, उपराज्यपाल अनिल बैजल और शीर्ष सरकारी अधिकारियों की उच्च स्तरीय बैठक के बाद किया गया. मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने बैठक के बाद पत्रकारों से कहा कि दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड (डीयूएसआईबी) के फ्लैटों और निर्माणाधीन अस्पतालों में दिल्ली सरकार पृथक रखे जाने की सुविधाओं का इंतजाम कर रही है.

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अस्पतालों में खास इंतजाम

मीडिया से बातचीत में उन्होंने कहा, ”सभी सिनेमाघर 31 मार्च तक बंद रहेंगे. जहां परीक्षाएं जारी हैं उनके अलावा सभी स्कूल और कालेज भी कोरोना वायरस के मद्देनजर 31 मार्च तक बंद रहेंगे. सरकार ने कोरोना वायरस को महामारी घोषित कर दिया है.”

उन्होंने जरूरत पड़ने पर कोरोना वायरस के मरीजों को भरती करने के लिए अस्पतालों में 500 से अधिक बिस्तरों की सुविधा होने की जानकारी देते हुए सरकार के कोविड-19 से निबटने के लिए पूरी तरह तैयार होने की बात कही.

केजरीवाल ने बताया कि बैठक में कोरोना वायरस से निबटने के लिए अभी तक उठाए कदमों की समीक्षा की गई.

उन्होंने कहा, ”हम हर कदम कोरोना वायरस से निबटने के लिए उठा रहे हैं. मैं उम्मीद करता हूं कि इस से हमें मदद मिलेगी. विश्वभर में बङी तेजी से कोरोना वायरस के मामले बढ़ रहे हैं जबकि भारत में हम अभी तक इसे नियंत्रित करने में कामयाब रहे हैं. अगर हम सावधान रहें तो हम कोरोना वायरस से अपने देश को बचा सकते हैं.”

अब तक कितने मामले

भारत में कोरोना वायरस के 13 नए मामले सामने आने के बाद इससे संक्रमित लोगों की संख्या बढ़कर 73 हो गई है. 13 नए मामलों में से 9 मामले महाराष्ट्र से, जबकि 1-1 मामला दिल्ली, लद्दाख और उत्तर प्रदेश से सामने आया है. वहीं एक विदेशी नागरिक भी इस से संक्रमित पाया गया है.

राज्यवार आंकड़े बताते हुए स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि दिल्ली में 12 मार्च तक कोरोना वायरस के 6 मामले सामने आ चुके हैं, जबकि उत्तर प्रदेश में 10 लोग इस से संक्रमित पाए गए हैं. कर्नाटक में 4, महाराष्ट्र में 11 और लद्दाख में 3 मामले सामने आ चुके हैं.

गंभीर बीमारी है

मंत्रालय ने कहा कि राजस्थान, तेलंगाना, तमिलनाडु, जम्मू कश्मीर और पंजाब में 1-1 मामला सामने आया है. केरल में अब तक कोरोना वायरस के 17 मामले सामने आ चुके हैं जिन में वे 3 लोग भी शामिल हैं जिन्हें पिछले महीने इलाज के बाद छुट्टी दे दी गई थी. मंत्रालय ने कहा कि कोरोना वायरस से संक्रमित 73 लोगों में 17 विदेशी नागरिक हैं. इन में 16 इतालवी हैं.

वहीं दूसरी ओर विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने 12 मार्च को लोकसभा में कहा कि ईरान में 6,000 भारतीय फंसे हैं, जिन में महाराष्ट्र के 1100 तीर्थयात्री और जम्मू कश्मीर के 300 छात्र शामिल हैं. विदेश मंत्री ने कहा कि प्रारंभिक जोर तीर्थयात्रियों को वापस लाने का है जिन में अधिकतर ईरान के कोम में फंसे हैं. उन्होंने कहा कि ईरान में फंसे भारतीयों में से 529 के नमूनों में 229 जांच में नकारात्मक पाए गए हैं. जयशंकर ने बताया कि ईरान में 1,000 भारतीय मछुआरे फंसे हुए हैं और इन में से कोई भी कोरोना वायरस से संक्रमित नहीं है. उन्होंने कहा कि ईरान में व्यवस्था गंभीर दबाव में है और इसलिए हमें वहां मेडिकल टीम भेजनी पड़ी और बाद में क्लीनिक स्थापित करना पड़ा.

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डरने की जरूरत नहीं

कोरोना वायरस संक्रमित बीमारी है और संक्रमण से एक से दूसरे इंसान में फैलता है. फिलहाल इस का कोई ठोस इलाज नहीं है और न ही ऐसी कोई दवा जिस से इस बीमारी का इलाज हो सके. पर हम इन जरूरी बातों को अपना कर कोरोना को महामारी बनने से रोक सकते हैं :

  • सार्वजनिक जगहों पर न थूंकें.
  • छींकते समय टिशू पेपर अथवा रूमाल से ढंक लें. अगर ये दोनों ही साथ में नहीं हैं तो बांह को उपर कर छींके अथवा खांसें.
  • भीङभाङ वाली जगहों पर जाने से बचें.
  • अनावश्यक यात्रा न करें.
  • भोजन संबंधित एहतियात बरतें.
  • किसी को बुखार, सर्दीखांसी हो तो उस से कम से कम 1 मीटर की दूरी बनाए रखें.
  • बारबार हाथ को साबुन से कम से कम 20 सैकंड तक धोएं.
  • सैनीटाइजर का प्रयोग करें.

 

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